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महापुराणे उत्तरपुराणम्
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द्वितीयतीर्थसन्ताने समये सागरोपमैः । त्रिंशच्छतसहस्रोक्तकोटिभिः प्रान्तमीयुषि ॥ २६ ॥ शम्भवाख्योऽभवत्स्वामी तदभ्यन्तरजीवितः । स पूर्वपष्टिलक्षायुः चतुःशतधनुःप्रमः ॥ २७ ॥ आयुषीते' चतुर्भागे प्राप्तराज्यमहोदयः । सुखान्यन्वभवद्देवैरुपनीतान्यनुक्षणम् ॥ २८ ॥ चत्वारिंशच्चतुर्लक्षाः पूर्वाणां समतिक्रमे । चतुः पूर्वाङ्गयुक्तानामभूविभूमदर्शनात् ॥ २९ ॥ लब्धबोधिः समुत्पन्नवैराग्यो जीवितादिकम् । स्वगतं स्मरति स्मेति शम्भवः स भवान्तकः ॥ ३० ॥ आयुरेवान्तकोऽन्तस्थं भ्रान्त्योक्तोऽन्योऽन्तकः परैः । जन्तवस्तदजानन्तो म्रियन्तेऽनन्तशोऽन्तकात् ॥३१॥ अध्यास्य कायमेवायमन्तकेनाभिभूयते । भूयो जन्तुरिदं जाढ्यमत्रैव वसतीति यत् ॥ ३२ ॥ विरसान् सरसान् मत्वा विषयान् विषसन्निभान् । भुङ्क्ते रागरसाविद्धो धिग् धियोऽनादिविप्लवम्॥३३॥ आत्मेन्द्रियायुरिष्टार्थसन्निधेः संसृतौ सुखम् । स्वसन्निधिरिह स्थेयान् किं न वेत्ति न तर्क्यते ॥ ३४ ॥ विद्युदुद्युतिवलक्ष्मीर्नेयं स्थेमानमृच्छति । "व्युच्छिन्नेच्छः श्रियं स्थातु स्वच्छतद्बोधदीधितिम् ॥ ३५ ॥ इत्यात्ततत्त्वसार ं तं स्तुत्वा लौकान्तिका गताः । दत्त्वा राज्यं स्वपुत्राय प्राप्त निष्क्रमणोत्सवः ॥ ३६ ॥ सिद्धार्थशिबिकामूढां देवैरारुह्य निर्गतः । सहेतुकवने राज्ञां सहस्रेणाप संयमम् ॥ ३७ ॥ मन:पर्ययज्ञानः श्रावस्तिनगर' 'प्रति । भिक्षाहेतोर्द्वितीयेऽह्नि प्राविशत् कनकप्रभः ॥ ३८ ॥ नृपः सुरेन्द्रदत्ताख्यः सुवर्णाभः प्रतीक्ष्य तम् । दत्त्वा दानं स्फुरद्रत्रमापदाश्चर्यपञ्चकम् ॥ ३९ ॥
द्वितीय तीर्थंकरकी तीर्थ-परम्परामें जब तीस लाख करोड़ सागर बीत चुके थे तब संभवनाथ स्वामी उत्पन्न हुए थे। उनकी आयु भी इसी अन्तरालमें सम्मिलित थी । उनकी साठ लाख पूर्वकी आयु थी, चार सौ धनुष ऊँचा शरीर था, जब उनकी आयुका एक चौथाई भाग बीत चुका तब उन्हें राज्यका महान् वैभव प्राप्त हुआ था । वे सदा देवोपनीत सुखोंका अनुभव किया करते थे ।। २६-२८ ॥ इस प्रकार सुखोपभोग करते हुए जब चवालीस लाख पूर्व और चार पूर्वाङ्ग व्यतीत हो चुके तब किसी दिन मेघोंका विभ्रम देखनेसे उन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया, वे उसी समय विरक्त हो गये और संसारका अन्त करनेवाले श्रीसंभवनाथ स्वामी अपने मनमें आयु आदिका इस प्रकार विचार करने लगे ।। २६-३० ।। कि प्राणीके भीतर रहनेवाला आयुकर्म ही यमराज है, अन्य वालोंने भूलते किसी दूसरेको यमराज बतलाया है, संसारके प्राणी इस रहस्यको नहीं जानते अतः अनन्तवार यमराजके द्वारा मारे जाते हैं ॥ ३१ ॥ यमराज इसी शरीरमें रहकर इस शरीरको नष्ट करता है फिर भी इस जीवकी मूर्खता देखो कि यह इसी शरीरमें वास करता है ॥ ३२ ॥ रागरूपी रसमें लीन हुआ यह जीव विषके समान नीरस विषयोंको भी सरस मानकर सेवन करता है इसलिए अनादि काल से चले आये इसकी बुद्धिके विभ्रमको धिक्कार है ||३३|| आत्मा, इन्द्रिय, आयु और इष्ट पदार्थ के संनिधानसे संसारमें सुख होता है सो आत्माका सन्निधान तो इस जीवके सदा विद्यमान रहता है फिर भी यह जीव क्यों नहीं जानता और क्यों नहीं इसका विचार करता । यह लक्ष्मी बिजलीकी चमक के समान कभी भी स्थिरताको प्राप्त नहीं होती । जो जीव इसकी इच्छाको छोड़ देता है वही निर्मल सम्यग्ज्ञान की किरणोंसे प्रकाशमान मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त हो सकता है ।। ३४-३५ ।। इस प्रकार पदार्थके सारको ग्रहण करनेवाले संभवनाथ स्वामीकी स्तुति कर लौकान्तिक देव चले गये । तथा भगवान् भी अपने पुत्र के लिए राज्य देकर दीक्षा कल्याणकका उत्सव प्राप्त करते हुए देवों द्वारा उठाई हुई सिद्धार्थ नामकी पालकी में सवार हो नगरसे बाहर निकले और सहेतुक वनमें एक हजार राजाओंके साथ संयम धारण कर लिया ।। ३६-३७ || दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया । सुवर्णके समान प्रभाको धारण करनेवाले भगवान् ने दूसरे दिन भिक्षाके हेतु श्रावस्ती नगरी में प्रवेश किया ॥ ३८ ॥ वहाँ कान जैसी कान्तिके धारक सुरेन्द्रदत्त नामक राजाने उन्हें पगाहकर आहार दान दिया और जिनमें
१ आयुष इते गते सतीत्यर्थः । २ सम्मतिक्रमे ल० । ३ सन्निधिः ल० । ४ स्वसन्निधैरिह स्थेयं ख०, घ० । स सन्निधिरिह स्थेयां ग०, क० । ५ विच्छिन्नेच्छः क०, घ० । व्युच्छिन्नेच्छः श्रयेत् स्थातुम् क०, ख०, ग०, घ० । ६ मुनिः क०, ख०, ग०, घ० ।
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