________________ 46 नैषधमहाकाव्यम् / संघे तु वाईकमि'स्यमरः / 'वृद्धाच्चेति वक्तव्यमिति समूहाथै वुअप्रत्ययः / अशिषि शिचितमभ्यस्तम् , अन्यथा कयमिदमाचरितमिति भावः। कर्मणि लुङ / उत्प्रेयं साच व्यअकाप्रयोगादग्या पूर्वोकरूपकरलेषाभ्यामुत्थापिता चेति सः // 77 // पक्षियोंके. अत्यन्त उड़नेके कारण वायुसे ( पक्षा०-अधिक अवस्थाके कारण उत्पन्न पात-दोषसे दिखते हुए पलवरूपी हाथमें फल-फूलों को लेकर स्थित, वनके वृक्षोंने मानो महर्षियों के सम्हसे स ( राजा नल ) के आंतथि सत्कारको करनेके लिए सीखा है। [ अधिक अवस्थाके कारण उत्पन्न वात दोषसे हिलते हुए हाथपर फल-फूड लेकर नलका मातिथ्य करनेवाले वनवासी वृद्ध महर्षि-सम्हसे मानो वन के वृक्षोंने मी पक्षियों के अधिक उड़नेसे सत्पन्न हवासे कम्पित पल्लवरूप हाथमें फल-फूलों को लेकर नलका मातिथ्य करना सौखा है / वृद्ध-महर्षि-समूहसे वनमें रहकर विद्या सीखना डोकव्यवहारमें मी श्रेष्ठ माना जाता है। इस श्लोकसे उक्त विकास-धनमें वृद्ध महर्षि-समूहका निवास करना तथा वृक्षोंका पक्षियों एवं फल-फूलसे युक्त होना सूचित होता है ] // 77 // विनिद्रपत्रालिगतालिकैतवान्मृगाङ्कचूडामणिषर्जनार्जितम् / दधानमाशासु चरिष्णु दुर्यशः स कौतुकी तत्र ददर्श केतकम् / / 78 / / विनिद्रेति। विनिद्रपत्रालिगतालिकैतपात विकचदलावलिस्थितभृङ्गमिषात मृगाइचढामगेरीश्वरस्य कर्तुर्वर्जनेन परिहारेणार्जितं सम्पादित 'न केतम्या सदा. शिवमिति निषेधादिति भावः / आशासु चरिष्णु सशरणशीलं 'अलंकृजित्यादिना चरेरिष्णुचप्रत्ययः। दुर्यशोऽपकीर्ति दधानं कैतकं केतकीकुसुमं तत्र वने स नल: कौतुकी सन् ददर्श। अहंस्य महापुरुषस्य बहिष्कारो दुष्कीर्तिकर इति भावः / अत्रालिकेतवादिश्यलिश्वापहवेन तेषु दुर्यशस्वारोपादपहत्यलकारः। 'निषेध्यविषये साम्पादन्यारोपेऽपततिः' इति क्षणात् // 78 // वन-(दर्शनके विषय ) में कुतूहलयुक्त उस ( नल) ने विकसित पत्र-समूहपर बैठे हुए भ्रमरोंके कपटसे चन्द्रचूड (शिवजी) के द्वारा व्यक्त होनेसे प्राप्त तथा दिशामि फैलते हुए भयशको धारण करते हुए केतकी-पुष्पको देखा। [ केतकी के विकसित पत्तोंपर गन्धकोमसे भ्रमर नहीं बैठे थे किन्तु वे शिवजीके द्वारा त्यक्त होनेसे फैलनेवाले कालेकाले अयश थे, उन्हें धारण करते हुए केतक-पुष्पको नलने देखा / पड़ोंसे परित्यक्त व्यक्तिका अयश होता है ] // 78 // पौराणिकी कथा-रामचन्द्र जी लक्ष्मग तथा सीताजीके साथ गया में गये तो पितृ भाद्धकी सामग्री लाने के लिए लक्ष्मणजी को नगरमें भेजा तथा स्वयं फल्गु नदीके किनारे पितरोंका भावाहन कर दिये। बब लक्ष्मणजी सामग्री लेकर नहीं आये और उनको गये बहुत विलम्म हो गया तब स्वयं श्रीरामचन्द्रजी मी सीताजीको वहीं छोड़कर सामग्री काने के लिए चल दिये। उन दोनों में कोई भी श्राद्धकी सामग्री लेकर वापस नहीं छोटा था, इसके पहले ही रामचन्द्रजीके पितरोंके हाथ मादपिण्ड लेनेके लिए बाहर निकले यह