________________ प्रथमः सर्गः। 45 पान्तसीमाम उपकप्रारतपर्यन्तम्चेति गम्यते, 'वने सछिलकानमे' इत्यमरः / सस्पृह सामिलापं यथा तथा उपेत्य गरवा अथ अनन्तरं क्रमेण तस्मिन् नले अवतीर्णरम्पथे अतिक्रान्तरष्टिविषये सति न्यवर्ति निवृत्त, मावे लुङ् / यथा बन्धुमिः 'उदकान्तं प्रियं पान्थमनुव्रजेरित्यागमारप्रवसन्तमनुव्रज्य निवरयते तददित्यः / 75 // (किसी बाते हुए इष्ट बान्धवके) पीछे जाते हुए बन्धुसमूहके समान नगरवासियों के नेत्र-समूह ( नलको देखनेके लिए ) वनतक माकर क्रमशः उस नसके दृष्टिसे मोझक हो जानेपर लौट भाये। [विस प्रकार कोई इष्ट-बान्धव कहीं बाने लगता है ता इसके बन्धु. सम्ह बनतक पहुँचाने के लिए उसके साथ आते है और उस इह मान्यवके दृष्टिसे बोझल हो जानेपर लोट पाते हैं, उसी प्रकार नगरवासियोंके नेत्र-समूह मी नको देखनेके लिए सस्पृह हो वनके समीपतक गये, और नन्के दृष्टिसे मोझल (बाहर ) हो जानेपर लौट भाये अर्थात जबतक नक वनके पास नहीं पहुँचे थे तबतक नागरिक लोग नरूको देखते थे, किन्तु जब वे दृष्टिसे बाहर हो गये, तब नागरिक विवश हो पर देखना भी भेदकर लोट गये // 7 // ततः प्रसूने च फले च मंजुजे म सम्मुखीनाङ्गुलिना जनाधिपः / निवेगमानं वनपालपाणिना ठयनोकयत् काननरामणीयकम् // 6 // तत इति / ततः पनप्रवेशामन्तरं म बमाधिपो नळः मन्जुले मनोज्ञे प्रसने कुसुमे फळे व विषये सम्मुखीना सन्दर्शिनी सम्मुखावस्थितवस्तप्रकाशिकेति यावत् 'ययामुखसम्मुखस्य दर्शनःख' इति सप्रत्ययान्तो निपातः / ती मालियंस्य तेन वनपालपाणिना निवेधमानम् इदमिदमित्यवत्पा पुष्पफलादिनिर्देशेन प्रदर्य: मानमित्ययः / काननरामणीय बनरामणीयकं 'योपधाद् गुरूपोत्तमाद् वुम' इति वुभप्रत्ययः / पलोकपत् अपश्यदिति स्वभावोलि 76 // तदनन्तर अर्थात वनमें प्रवेश करनेके बाद राजा नखने मनोहर फूल सपा फळपर सामने दिखाई जाती हुई भाटिया ( भकुहिम मनोहर फूल तथा फलको दिखाते हुए वनपाल हाधते बतलायी माती हुई रूपयनको सुन्दरताको देखा / / 73 / / फलानि पुष्पाणि च पनवे करे धयोऽतिपातोद्गतबात वेपिते / स्थितः समाधाय मषिधारकारने सदातिश्यमशिभि शानिमिः / / 7 / / पलानीति / वयोऽतिशतेन परिपातेन वास्यायपगमेन चोदतेजोरियतेम वातेन वायुना याताण व नेपिते पर आधादिलोयायमरः / पहप एष कर इति पल्लरपक फलानि पुष्पाणि समाधाय निधारितशिद्धिः धने शाखि. मित दवाखाण्यापिमिश्च, 'शाखादे शाखा वेदेडपीति मयती। तदा तिथ्य तस्य नलम्यातिभ्यम् अप्तिध्यक्षम, अतिधेळR प्रत्ययः / महषीणाई वाकाद् वृदप्तमूहात् तत्रत्यवृदमहर्षिमादित्यर्थः शिव भागवतवरणमासः। 'वृह.