________________ प्रथमः सर्गः। तुरसमान् भूरि बहुलं मण्डलीमपि मण्डलाकारं च अकारयन् अपिशब्दोऽवाप्तिसम. बयार्थः / अन्यत्र मण्डली मण्डलासनमित्य / 'बौदाः स्वकर्मानुष्ठाने प्रायेण मण्ड लानि कुर्वन्ति' इति प्रसिद्धिः // 71 // उस राजा नलके सेनामें रहनेवाले तथा सिन्धुदेशज घोड़ोंवाले घुड़सवारोंने उस बाहरी क्रीडास्थलको प्राप्तकर बहुत से घोड़ोंको मी (अर्थात घोड़ों के साथ स्वयं मी) उस प्रकार मण्डलाकार गति विशेषसे घुमाया अर्थात गोलाकार मैदान में घोड़ों की चकर कराया, जिस प्रकार 'जिन'के कथनमें श्रद्धामावसे ही सिन्धुदेशोरपन्न जिनमक विहारस्थान ( देव मन्दिर ) को प्राप्तकर मण्डली कराते हैं अर्थात् मण्डलाकारसे स्थित होते हैं। [जिन मक्त विहार ( अपने देवमन्दिर ) में जाकर मण्डलाकार बैठते हैं, या सप्तधान्यमयी मण्डको को कराते हैं, ऐसा उनका सम्प्रदाय है। नल के सैनिक सिन्धुदेशज घोड़ोंवाले घुड़सवारों ने घुड़दौड़के मैदानमें जाकर घोड़ोंको ( घोड़ोंपर चढ़े रहने के कारण स्वयं मी) चक्कर कटवाया अर्थात गोल मैदानमें घुमाया ] // 71 // द्विषद्भिरेवास्य विलचिता दिशो यशोमिरेवाब्धिरकारि गोष्पदम् / इतीव घारामवधार्य मण्डलीक्रियाश्रियाऽमण्डि तुरङ्गमः स्थली / / 72 / / द्विषद्भिरिति / अस्य नस्य विषनिरेव पलायमानैरिति भावः। विशो विलति ताः / अस्य यशोभिरेवाग्धिः गोः पदं गोष्परमकारि गोष्पदमात्रः कृतः, 'गोष्पदंसं. वितासेवितप्रमाणार्थे' इति सडागमषस्वयोनिपातः। इतीव इति'मस्वेवेत्युस्प्रेका, अन्य. साधारणं कर्म नोस्कर्षाय भवेदिति भावः / तरामराजतिं नातावेकवचनं पश्चापि धारा इत्यर्थः / 'आस्कन्दितं धौरितकं रेचितं वल्गितं प्लुतम् / गतयोऽमूः पत्र धारा' इत्यमरः / अवधीर्य अनाहत्य मण्डली क्रियाश्रिया मण्डलीकरणलपम्या मण्डलगत्यैवेत्यर्थः / स्थली अकृत्रिमा भूः 'जानपदे त्यादिना अकृत्रिमार्थे सीप, अम. ण्डि भभूषि / मदि भूषायामिति धातोर्ण्यन्तात् कर्मणि लुक, इविश्वान्नुमागमः // इस ( नल ) के शत्रु हो ( प्राणरक्षार्थ युद्धभूमिसे भागकर ) दिशाओंको लोप गये हैं तथा यशों ( इस नलकी कीर्तियों) ने ही समुद्रको गोष्पद (गौके परके गढ़ेके समान भतिशय छोटा ) बना दिया है, मानो ऐसा विचार कर घोड़ोंने 'धारा' ( आस्कन्दित = सरपट दौड़ना आदि 5 गतिविशेषों ) को छोड़कर मण्डली करने ( चक्कर काटने ) की शोमासे ही पृथ्वीको सुशोमित किया। [इस श्लोकसे नलके शत्रुओंका इनके मयसे भागकर दिशामों के अन्ततक पहुँचना तथा यशःसमूहका समुद्रके पारतक जाना सूचित होता है / घोड़ोंको गतियों के विषयमें विशेष जिज्ञासुभोंको अमरकोषको मरकृत 'मणिप्रमा नामक हिन्दी अनुवाद ( 2 / 848-49 ) में देखना चाहिए ] // 72 // अचीकरच्चारु हयेन या भ्रमीनिंजातपत्रस्य तलस्थले नलः /