Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीर्थंकर महावीर
और | उनकी आचार्य-परम्परा
प्रबुद्धाचार्य
एवं परम्परापोषकाचार्य
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
आद्य मिताक्षर 'परम्परा' शब्द अपना विशेष महत्त्व रखता है और विश्त्रके कण-कणसे मम्बन्धित है । परम्पराका इतिहास लेखबद्ध करना वैसे ही कठिन कार्य है, फिर श्रमण-परम्पराका इतिहास तो सर्वथा ही दुरूह है। प्रसंग में जहाँ 'परम्परा' शब्द सब-आगम और सद्गरुका बोधक है, वहाँ यह प्रामाणिकताका द्योतक भी है। परम्परागत आगम और गुरुओंको सर्वत्र प्रथम स्थान है । इसीलिए 'आचार्यगुरुभ्यो नमः' के स्थान पर 'परम्परावार्यगुरुभ्यो नमः' का प्रचलन है। लोक में आज भी यह परागरा प्रचलित है । जैसे गृहस्यों के निदान आदि संस्कारोंमें परम्परा (गोत्रादि) का प्रश्न उठता है, वैसे ही मुनियोंके सबंध भी उनकी गुरु-परम्पराका ज्ञान आवश्यक है।
भारतमें मुनि-परम्परा और ऋषि-परम्परा ये दो परम्पराएं प्राचीनकालसे रही हैं। ऐतिहासिक दुष्टिसे प्रथम परम्पराका संबंध आत्मधर्मा श्रमणोंसे रहा है-श्रमणमुनि मोक्षमार्गके उपदेष्टा रहे हैं। द्वितीय परम्पराका संबंध लोक. धर्मसे रहा है-ऋषिगण गृहस्थोंके षोडश संस्कारादि सम्पन्न कराते रहे हैं। ऋषियोंको जब आत्मधर्मज्ञानकी बुभुक्षा जाग्रत हुई, वे धमगमुनियोंके समीप जिज्ञासाकी पूर्ति एवं मार्गदर्शन के लिए पहुंचते रहे।
स्व. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा रचित ग्रन्थ 'तीथंकर महावीर और उनकी परम्परा' में श्रमण-मुनि-परम्पराका तथ्यपूर्ण इतिहास है। वस्तुतः १. वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा कलमन्धिनो बभूवुस्तानृषयोऽयमायंस्तेऽनिलाय
मचरंस्तेऽनुप्रविशुः कूष्माण्डानि तास्तेष्वन्वविन्दन श्रद्धया व तपसा छ । तानुषयोछुवन कया निलायं चरथेति ते ऋषीनवन्नमोवोऽस्तु भगवन्तोऽस्मिन् पाम्नि केन वः रापर्यामेति तानृषयोऽमुवन-पवित्रं नो ब्रूत येनोरेपसः स्यामेति त एतनि सुक्तान्यपश्यन् ।'
-तैत्तिरीय आरण्यक २ प्रपाठक ७ अनुवाक, १-२ 'वातरशन-श्रमण-ऋषि ऊर्ध्वमन्थी (परमात्मपदकी ओर उत्क्रमण करनेवाले) हुए। उनके समीप इतर ऋषि प्रयोजनवश (याचनार्थ) उपस्थित हुए। उन्हें देखकर वातरशन कुष्माण्डनामक मन्त्रवाक्योंमें अन्तहित हो गए, तब उन्हें अन्य ऋषियोंने श्रद्धा और सपसे प्राप्त कर लिया। ऋषियोंने उन वासरशन मुनियोंसे प्रश्न कियाकिस विद्यासे आप अन्तहित हो जाते हैं ? वातरशन मुनियों ने उन्हें अपने अध्यात्म धामसे आए हुए अतिथि जानकर कहा-हे मुनिजनों ! आपको नमोऽस्तु है, हम आपकी सपर्या (सत्कार) किससे करें ? ऋषियोंने कहा-हमें पवित्र आत्मविद्याका उपदेश दीजिए, जिससे हम निष्पाप हो जाएँ।
आय मिसाक्षर : ७
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
इतिहासकी रचनाके लिए तथ्यज्ञान आवश्यक है । यतः--
इतिहास इतोष्टं तद् इति हासीदिति श्रुतेः । इतिवृत्तमतिल्ह्याम्नायं चामनन्ति तत् ॥
-आचार्य श्रीजिनसेन, आदिपुराण, १२५ 'इतिहास, इतिवृत्त, ऐतिह्य और आम्नाय समानार्थक शब्द हैं । 'इति ह आसीत (निश्चय ऐसा ही था), 'इतिवृत्तम्' (ऐसा हुआ-घटित दुआ) तथा परम्परासे ऐसा ही आम्नात है-इन अर्थों में इतिहास है।
इतिहास दीपकतुल्य है। वस्तुके कृष्ण-श्वेतादि यथार्थ रूपको जैसे दीपक प्रकाशित करता है, वैसे इतिहास मोहके आवरणका नाशकर, भ्रान्तियोंको दूर करके... सत्य सर्वलोक द्वारा धारण की जानेवाली यथार्थताका प्रकाशन करता है । अर्थात् दीपकके प्रकाशसे पूर्व जैसे कक्षमें स्थित बस्तुएं विद्यमान रहते हुए भी प्रकाशित नहीं होतो, वैसे ही सम्पूर्ण लोक द्वारा धारण किया गया गर्भभूत सत्य इतिहासके बिना सुव्यक्त नहीं होता।
प्रस्तुत ग्रन्थके अवलोकनसे स्पष्ट हो जाता है कि विद्वानको लेखनीमें बल और विचारोंमें तर्कसंगतता है | समाज इनकी अनेक कृतियोंका मूल्यांकन कर, चुका है--भलीभांति सम्मानित कर चुका है। प्रस्तुत कृतिसे जहाँ पाठकोंको स्वच्छ श्रमण-परम्पराका परिज्ञान होगा, वहाँ नन्थमें दिये गये टिप्पणोंसे उनके ज्ञानमें प्रामाणिकता भी आवेगो । श्रमण-परम्पराके अतिरिक्त इस ग्रन्थमें श्रमणोंको मान्यताओं एवं जैन सिद्धान्तोंका भी सफल निरूपण किया गया है। यह ग्रन्थ सभी प्रकारसे अपने में परिपूर्ण एवं लेखकको ज्ञान-गरिमाको इङ्गित करने में समर्थ है। ___ यहाँ लेखकके अभिन्न मित्र डॉ० दरबारीलाल कोठियाजीके प्रस्तुत ग्रन्थके प्रकाशनमें किए गए सत्यप्रयत्नोंको भी विस्मत नहीं किया जा सकता है, जिनके द्वारा हमें प्रस्तुत ग्रन्यके लिए कुछ शब्द लिखनेका आग्रहयुक्त निवेदन प्राप्त हुआ। विद्वत्परिषद्का यह प्रकाशन-कार्य परिषद्के सर्वथाअनुरूप है । ऐसे सत्कायंके लिए भी हमारे शुभाशीर्वाद !
विधान पनि
१. इतिहास-प्रदीपेन मोहावरणघातिमा । सर्वलोकनृतं गर्भ यथावत् संप्रकाशयेत् ॥
---महाभारत
८ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राक् कथन भारतवर्षका क्रमबद्ध इतिहास बुद्ध और महावीरसे प्रारम्भ होता है । इनमेसे प्रथम बौद्धधर्मके संस्थापक थे, तो द्वितीय थे जैनधमंके अन्तिम तीर्थकर । 'तीर्थकर' शब्द जनधर्मके चौबीस प्रवर्तकोंके लिए रूढ़ जैसा हो गया है. यद्यपि है यह योगिक ही। धर्मरूपी तीर्धके प्रवर्तकको ही तीर्थंकर कहते हैं । आचार्य समन्तभद्रने पन्द्रहवें तीर्थंकर धर्मनाथको स्तुतिमें उन्हें 'धर्मतीर्थमनघं प्रवर्तयन पदके द्वारा धर्मतीर्थका प्रवर्तक कहा है। भगवान महावीर भी उसी धर्मतीर्थके अन्तिम प्रवर्तक थे और आदि प्रवर्तक थे भगवान् ऋषभदेव । यही कारण है कि हिन्दू पुराणोंमें जैनधर्मको उत्पत्तिके प्रसंगसे एकमात्र भगवान् ऋषभदेवका ही उल्लेख मिलता है किन्तु भगवान् महापोरका संकेत तक नहीं है । जहोंने समकालीन बुद्धको विमुक अवतारोंम स्वीकार किया गया है। इसके विपरीत त्रिपिटक साहित्यमें निग्गठनाटपुत्तका तथा उनके अनुयायी निर्ग्रन्थोंका उल्लेख बहुतायतसे मिलता है। उन्हींको लक्ष्य करके स्व० डॉ० हर्मान याकोवीने अपनो जैन सूत्रोंको प्रस्तावनामें लिखा है-'इस बातसे अब सब सहमत हैं कि नातपुत्त, जी महावीर अथवा वर्धमानके नामसे प्रसिद्ध हैं, बुद्धके समकालीन थे। बौद्धग्रन्थों में मिलनेवाले उल्लेख हमारे इस विचारको दृढ़ करते हैं कि नातपुत्तसे पहले भी निर्ग्रन्थोंका, जो आज जेन अथवा आहत नामसे अधिक प्रसिद्ध है, अस्तित्व था। जब बौद्धधर्म उत्पन्न हुआ तब निग्रन्थोंका सम्प्रदाय एक बड़े सम्प्रदायके रूपमें गिना जाता होगा।बौद्ध पिटकोंमें कुछ निर्ग्रन्थोंका बुद्ध और उनके शिष्योंके विरोधीके रूपमें और कुछका बुद्धके अनुयायी बन जानेके रूपमें वर्णन आता है। उसके ऊपरसे हम उक्त अनुमान कर सकते हैं। इसके विपरीत इन ग्रन्थोंमें किसी भी स्थानपर ऐसा कोई उल्लेख या सूचक वाक्य देखने में नहीं आता कि निर्ग्रन्योंका सम्प्रदाय एक नवीन सम्प्रदाय है और नातपुत्त उसके संस्थापक हैं। इसके ऊपरसे हम यह अनुमान कर सकते हैं कि बुद्धके जन्मसे पहले अति प्राचीन कालसे निर्ग्रन्थोंका अस्तित्व चला आता है।"
यन्यत्र डॉ० याकोवीने लिखा है-'इसमें कोई भी सबूत नहीं है कि पाश्वनाथ जैनधर्मके संस्थापक थे | चैन परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको जैन धर्मका संस्थापक माननेमें एकमत है। इस मान्यतामें ऐतिहासिक सत्यकी सम्भावना है।'
प्राक् कथन : ९
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ० राधाकृष्णन ने अपने 'भारतीय दर्शन' में कहा है'जेन परम्परा ऋषभदेवसे अपने धर्मको उत्पत्ति होनेका कथन करती है, जो बहुत-सो शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको पूजा होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पाश्वनाथसे भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थकरोंके नामोंका निर्देश है। भागवत पुराण भी इस बातका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।
यथार्थमें वैदिकोको परम्पराको तरह श्रमणोंको भी परम्परा अति प्राचीन कालसे इस देशमें प्रवर्तित है । इन्हीं दोनों परम्पराओंके मेलसे प्राचीन भारतीय संस्कृतिका निर्माण हुआ है। उन्हीं श्रमणोंको परम्परामें भगवान महावीर हुए थे। शुहकी तमा नेपाल निगम राजकुमार थे। उन्होंने भी घरका परिल्याग करके कठोर साधनाका मार्ग अपनाया था । यह एक विचित्र बात है कि श्रमण परम्पराके इन दो प्रवत्तकोंकी तरह वैदिक परम्पराके अनुयायो हिन्दूधर्ममें मान्य राम और कृष्ण भी क्षत्रिय थे । किन्तु उन्होंने गृहस्थाश्रम और राज्यासनका परित्याग नहीं किया । यही प्रमुख अन्तर इन दोनों परम्पराओंमें है। कृष्ण भी योगी कहे जाते हैं किन्तु वे कर्मयोगी थे। महावीर ज्ञानयोगी थे। कर्मयोग और ज्ञानयोगमै अन्तर है । कर्मयोगीको प्रवृत्ति बाह्याभिमुखी होती है और ज्ञानयोगीकी आन्तराभिमुखी । कर्मयोगीको कर्ममें रस रहता है और ज्ञानयोगीको ज्ञानमें । ज्ञानमें रस रहते हुए कर्म करनेपर भी कमका कर्ता नहीं कहा जाता। और कर्ममें रस रहते हुए कर्म नहीं करनेपर भी कर्मका कर्ता कहलाता है । कर्म प्रवृत्तिरूप होता है और ज्ञान निवृत्तिरूप । प्रवृत्ति और निवृत्तिकी यह परम्परा साधनाकालमें मिली-जुली जैसी चलती है किन्तु ज्यों-ज्यों निवृत्ति बढ़ती जाती है प्रवृत्तिका स्वतः ह्रास होता जाता है । इसीको आत्मसाधना कहते हैं।
यथार्थमें विचार कर देखें-प्रवृत्तिके मल मन, वचन और काय हैं । किन्तु आत्माके न मन है, न वचन है और न काय है। ये सब तो कमंघन्य उपाधियाँ हैं । इन उपाधियोंमें जिसे रस है वह आत्मज्ञानी नहीं है। जो आत्मज्ञानी हो जाता है उसे ये उपाधियाँ व्याधियां ही प्रतीत होती हैं।
इनका निरोध सरल नहीं है। किन्तु इनका निरोध हुए बिना प्रवृत्तिसे छुटकारा भी सम्भव नहीं है । उसोंके लिए भगवान महावीरने सब कुछ त्याग कर वनका मार्ग लिया था । संसार-मार्गियोंकी दृष्टि में भले ही यह 'पलायनवाद' प्रतीत हो, किन्तु इस पलायनवादको अपनाये बिना निर्वाण-प्राप्तिका दूसरा १० : तीर्थकर महावीर और उनकी भाषार्य परम्परा
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
मार्ग भी नहीं है । भोगी और योगीका मार्ग एक कैसे हो सकता है। तभी तो गीतामें कहा है
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी ।
यस्यां जाति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥ 'सब प्राणियोंके लिए जो रात है उसमें संयमी जागता है और जिसमें प्राणी जागते हैं वह आत्मदर्शी मुनिको रात है।'
इस प्रकार भोगी संसारसे योगीके दिन-रात भिन्न होते हैं । संयमी महाबीरने भी आत्म-साधनाके द्वारा कार्तिक कृष्णा अमावस्याके प्रातः सूर्योदयसे पहले निर्वाण-लाभ किया। नोंके उल्लेखानुनार उसीने उपलक्षमें दीपमालिकाका आयोजन हुआ और उनके निर्वाण-लाभको पच्चीस सौ वर्ष पूर्ण हुए। उमाके उपलक्षमें विश्वमें महोत्सवका आयोजन किया गया है।
उसीके स्मृतिमें 'तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा' नामक यह वृहत्काय अन्य चार खण्डों में प्रकाशित हो रहा है । इसमें भगवान महावीर और उनके बाद पच्चीस-गौ वर्षों में हुए विविध साहित्यकारोंका परिचयादि उनको साहित्य-साधनाका मूल्यांकन करते हुए विद्वान् लेखकने निबद्ध निया है। उन्होंने इस ग्रन्थके लेखनमें कितना श्रम किया, यह तो इस ग्रन्थको आद्योपान्त पढ़नेवाले ही जान सकेंगे। मेरे जानतेमें प्रात विपयसे सम्बद्ध कोई ग्रन्थ, या लेखादि उनकी दष्टिमे ओझल नहीं रहा । तभी तो इस अपनी कृतिको समाप्त करने के पश्चात् ही वे स्वर्गत हो गये और इसे प्रकाशमें लानेक लिए उनके अभिन्न सम्या डॉ० कोठियाने कितना श्रम किया है, इसे वे दन नहीं सके । 'भगवान महावीर और उनको आचार्यपरम्परा में लेखकने अपना जोवन उत्सर्ग करके जो श्रद्धाके सुमन चढ़ाये हैं उनका मूल्यांकन करनेकी क्षमता इन पंक्तियोंके लेखकमें नहीं है । वह तो इतना ही कह सकता है कि आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्रीने अपनी इस कृतिके द्वारा स्वयं अपनेको भी उस परम्परामें सम्मिलित कर लिया है। ___ उनको इस अध्ययनपूर्ण कृतिमें अनेक विचारणीय ऐतिहासिक प्रसंग आये हैं। भगवान महावीरके समय, माता-पिता, जन्मस्थान आदिके विषय में तो कोई मतभेद नहीं है। किन्तु उनके निर्वाणस्थानके सम्बन्धम कुछ समयसे विवाद् खड़ा हो गया है । मध्यमा पावामें निर्माण हआ, यह सर्वसम्मत उल्लेख है। तदनुसार राजगृहीके पास पावा स्थानको ही निर्माणभूमिक रूपमे माना जाता है। वहाँ एक तालाबके मध्य में विशाल मन्दिरम उनके चरण
प्राक् कथन : ११
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
चिन्ह स्थापित हैं । यह स्थान मगधमें है। दूसरी पावा उत्तर प्रदेशके देवरिया जिलेमें कुशीनगर के समीप है । डॉ० शास्त्रीने मगघवर्ती पावाको हो निर्वाणभूमि माना है ।
बिम्बसार श्रेणिक भगवान महावीरका परम भक्त था । उसको मृत्यु डॉ० शास्त्रीने भगवान महावीरके निर्वाणके बाद मानी है, उन्हें ऐसे उल्लेख मिले 31 fago Maglie ván fanovîk §|
उन्होंने जैन तत्त्व-ज्ञानका भी बहुत विस्तारसे विवेचन किया है और प्रायः सभी आवश्यक विषयोंपर प्रकाश डाला है । दूसरा, तीसरा तथा चौथा खण्ड तो एक तरह से जैन साहित्यका इतिहास जैसा है । संक्षेपमें उनकी यह बहुमूल्य कृति अभिनन्दनीय है । आशा है इसका यथेष्ट समादर होगा ।
कैलाशचन्द्र शास्त्री
१२ : तोर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
आमुख
भारतीय संस्कृति में आर्हत संस्कृतिका प्रमुख स्थान है। इसके दर्शन, सिद्धांत, धर्म और उसके प्रवर्तक तीर्थकरों तथा उनको परम्पराका महत्त्वपूर्ण अवदान है | आदि तीर्थंकर ऋषभदेवरी लेकर अन्तिम चोबीसवें तीर्थंकर महावीर' और उनके उत्तरवर्ती आचार्योंने अध्यात्म-विद्याका, जिसे उपनिषद्-गाहित्य मे 'परा विद्या' (उत्कृष्ट विद्या) कहा गया है, सदा उपदेश दिया और भारतकी चेतनाको जागृत एवं ऊर्ध्वमुखी रखा है । आत्माको परमात्माकी और ले जाने तथा शाश्वत सुखको प्राप्तिके लिए उन्होंने अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, त्याग और समाधि (आत्मलीनता) का स्वयं आचारण किया और पश्चात् उनका दूसरों को उपदेश दिया । सम्भवत: इसीसे वे अध्यात्म-शिक्षादाता और श्रमण संस्कृतिके प्रतिष्ठाता कहे गये हैं। आज भी उनका मार्गदर्शन निष्कलुष एवं उपादेय माना जाता है ।
3
तीर्थंकर महावीर इस संस्कृति के प्रबुद्ध, सबल, प्रभावशाली और अन्तिम प्रचारक थे । उनका दर्शन, सिद्धान्त, धर्म और उनका प्रतिपादक वाङ्मय विपुल मात्रामें आज भी विद्यमान है तथा उसी दिशा में उसका योगदान हो रहा है।
अतएव बहुत समयसे अनुभव किया जाता रहा है कि तीर्थंकर महावीरका सर्वाङ्गपूर्ण परिचायक ग्रन्थ होना चाहिए, जिसके द्वारा सर्वसाधारणको उनके जीवनवृत्त उपदेश और परम्पराका विशद परिज्ञान हो सके । यद्यपि भगवान् महावीरपर प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में लिखा पर्याप्त साहित्य उपलब्ध है, पर उससे सर्वसाधारणकी जिज्ञासा शान्त नहीं होती ।
सौभाग्य की बात है कि राष्ट्रने तीर्थङ्कर वर्द्धमान महावीरको निर्वाण रजतशती राष्ट्रीय स्तरपर मनानेका निश्चय किया है, जो आगामी कात्तिक कृष्णा अमावस्या वीर निर्वाण संवत् २५०१, दिनाङ्क १३ नवम्बर १९७४ से कार्तिक १. घर्मतीर्थ करेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनमः । ऋषभादि - महावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ।।
भट्टालदेव, लघीयस्त्रय, मङ्गलपद्य १ ।
२. मुण्डकोपनिषद् १२१।४१५ ।
३. स्वामी समन्तभद्र युक्त्यनुशासन का ० ६ ।
2
आमुख १३
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृष्णा अमावस्या, वीर-निर्वाण संवत् २५०२, दिनाङ्क १३ नवम्बर १९७५ तक पुरे एक वर्ष मनायी जावेगी। यह मजल-प्रसङ्ग भी उक्त ग्रन्थ-निर्माणके लिए उत्प्रेरक रहा।
अत: अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्ने पाँच वर्ष पूर्व इस महान् दुर्लभ अवसरपर तीर्थंकर महावीर और उनके दर्शनसे सम्बन्धित विशाल एवं तथ्यपूर्ण ग्रन्थके निर्माण और प्रकाशनका निश्चय तथा संकल्प किया। परिषद्ने इसके हेतु अनेक बैठक की और उनमें ग्रन्थको रूपरेखापर गम्भीरतासे ऊहापोह किया । फलतः ग्रन्थका नाम 'तीर्थर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा' निर्णीत हुआ और लेखनका दायित्व विद्वत्परिषद्के तत्कालीन अध्यक्ष, अनेक ग्रन्थोंके लेखक, मूर्धन्य-मनीषी, आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री आरा (बिहार) ने सहर्ष स्वीकार किया। आचार्य शास्त्रीने पांच वर्ष लगातार कठोर परिश्रम, अद्भुत लगन और असाधारण अध्यवसायसे उसे चार खण्डों तथा लगभग २००० (दो हजार) पृष्ठोंमें सृजित करके ३० सितम्बर १९७३ को विद्वत्परिषद्को प्रकाशनार्थ दे दिया।
विचार हआ कि समग्न ग्रन्थका एक बार वाचन कर लिया जाय । आचार्य शास्त्रो स्याद्वाद महाविद्यालयको प्रबनावाणीको बैठक में सम्मिलत होने के लिए ३० सितम्बर १९७३ को वाराणसी पधारे थे। और अपने साथ उक्त ग्रन्थके चारों खण्ड लेते आये थे। अत:१ अक्तूबर १९७३ से १५ अक्तूबर १९७३ तक १५ दिन वाराणसी में ही प्रतिदिन प्रायः तीन समय तीन-तीन घण्टे ग्रन्थका वाचन हुआ। वाचन में आचार्य शास्त्रीके अतिरिक्त सिद्धान्ताचार्य श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री पूर्व प्रधानाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, डॉक्टर ज्योतिप्रसादजी लखनऊ और हम सम्मिलित रहते थे। थाचार्य शास्त्री स्वयं वाचते थे और हमलोग सुनते थे । यथावसर आवश्यकता पड़ने पर सुझाव भी दे दिये जाते थे। यह वाचन १५ अक्तूबर १९७३ को समाप्त हुआ और १६ अक्तूबर १९७३ को ग्रन्थ प्रकाशनार्थ महाबोर प्रेसको दे दिया गया । अन्ध-परिचय
इस विशाल एवं असामान्य ग्रन्थका यहाँ संक्षेपमें परिचय दिया जाता है, जिससे ग्रन्ध कितना महत्त्वपूर्ण है और लेखकने उसके साथ कितना अमेय परिश्रम किया है, यह सहजमें ज्ञात हो सकेगा।
यहाँ तृतीय खण्ड का परिचय प्रस्तुत है१४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
|
|
३. प्रबुद्धाचार्य और परम्परा पोषकाचार्य
इस खण्ड में भी दो परिच्छेद हैं। इनका वर्ण्य विषय निम्न प्रकार है । प्रथम परिच्छेद : प्रबुद्धाचार्य
इस परिच्छेद में डॉक्टर शास्त्रीने प्रबुद्धाचार्यों और उनकी कृतियोंको संकलित किया तथा उनका विस्तृत परिचय दिया है । प्रबुद्धाचार्य से अभिप्राय उन आचार्यों से लिया है, जिन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा ग्रन्थप्रणयनके साथ विवृतियां और भाष्य भी रचे हैं। इस श्रेणी में जिनसेन प्रथम, गुणभद्र, पाल्यकीर्ति, वादी मसिंह, महावीराचार्य, बृहत् अनन्तवीर्य, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, लघुअनन्तवीर्य, वीरनन्दि महासेन, हरिषेण, सोमदेव, बादिराज, पद्मनन्दि प्रथम, पद्मनन्दि द्वितीय, जयसेन, पद्मप्रभमलधारिदेव, शुभचन्द्र, अनन्तकोति, मल्लिषेण, इन्द्रनन्दि प्रथम, इन्द्रनन्दि द्वितीय आदि पचास आचार्य परिगणित हैं । इन सबका परिचय इस परिच्छेद में निबद्ध है। इनकी कृतियोंका भी विस्तारसे वर्ण्यविषय प्रतिपादित है ।
द्वितीय परिच्छेद: परस्परापोषकाचार्य
लेखकने परम्परापाषकाचार्य उन्हें बताया है, जिन्होंने दिगम्बर परम्पराकी रक्षा के लिए प्राचीन आचार्यो द्वारा निर्मित ग्रन्थोंके आधारपर अपने नये ग्रन्थ लिसे और परम्पराको गतिशील बनाये रखा है। इस श्रेणी में भट्टारक परिगणित हैं। पार्श्वदेव, भास्करनन्दि, ब्रह्मदेव, रविचन्द्र, पद्मनन्दि, सकलकीति, भुवनकीर्ति, ब्रह्मजिनदास, सोमकीर्ति, ज्ञानभूषण, अभिनव धर्मभूषण, विजयकीर्ति, शुभचन्द्र, विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, वीरचन्द्र सुमति कीर्ति, यशः कीर्ति, धर्मकीर्ति आदि पचास परम्परापीषकाचार्यों का परिचय, समय-निर्णय और उनकी रचनाओं का इस परिच्छेदम विरतृत निरूपण है ।
आभार
इस विशाल ग्रन्थ के सृजन और प्रकाशनका विद्वत्परिषद्ने जो निश्चय एवं संकल्प किया था, उसकी पूर्णता पर आज हमें प्रसन्नता है । इस संकल्प में विद्वत्परिषद प्रत्येक सदस्यका मानसिक या वाचिक या कायिक सहभाग है । कार्यकारिणी के सदस्योंने अनेक बैठकों में सम्मिलित होकर मूल्यवान् विचार दान किया है । ग्रन्थ वाचन में श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और डॉ० ज्योतिप्रसादजीका तथा ग्रन्थको उत्तम बनाने में स्थानीय विद्वान् प्रो० मशालचन्द्रजी
आमुख १५
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोरावाला, पण्डित अमृतलालजी शास्त्री एवं पण्डित उदयचन्द्रजी बौखदर्शनाचार्यका भी परामर्शादि योगदान मिला है।
पूज्य मुनिश्री विद्यानन्दजीने 'आच मिताक्षर' रूपमें आशीर्वचन प्रदान कर तथा वरिष्ठ विद्वान् श्रद्धेय पण्डित नेकानन्दजी शाहली नाकामा शिाहकर अनुगृहीत किया है।
खतौली, भोपाल, बम्बई, दिल्ली, मेरठ, जबलपुर, तेंदूखेड़ा, सागर, वाराणसी, आरा आदि स्थानोंके महानुभावोंने ग्रन्थका अगिम ग्राहक बनकर सहायता पहुँचायी है । विद्वत्परिषद्के कर्मठ मंत्री आचार्य पण्डित पन्नालालजी सागरके साथ मैं भी इन सबका हृदयसे आभार मानता है। वीर-शासन-जयन्ती, श्रावण कृष्णा १, दी निल सं० २५००,
दरबारीलाल कोठिया ५ जुलाई, १५७४
अध्यक्ष वाराण।
अखिल भारतवर्षीय दि. जैन विद्वपरिषद्
१६ : तोषंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय-सूची प्रथम परिच्छेद प्रबुद्धाचार्य पृष्ठ आचाधनाम १ इन्द्रनन्दि प्रथम
१७७
१८४
१८७
२४३
आचार्यनाम जिनसेन प्रथम गणभद्राचार्य शाकटायन पाल्यकोति वादीसिंह महावीगचार्य वृहत् अनन्तवीर्य मापश्यनन्दि प्रभाचन्द्र लघु अनन्तवीर्य वोरनन्दि महासेनाचार्य हरिषेण सोमदेवर आचार्य बादिगज पश्चनांन्द प्रथम पद्मनन्दि द्वितीय जयसेन प्रथम जयसेन दिनांय पद्मप्रभ भलधारिदेव आचार्य शुभचन्द्र
१६ श्रीधराचार्य २५ दुर्गदेवाचार्य
मुनि परकीति ३८ रामसेन ४१ गणधरकोति ४५ भट्टवोसरि ५२ उग्रादित्याचार्य ५३ भावसेन विद्य ५५ नयसेन ६३ बोरनन्दि सिद्धान्तभावर्ती ७० श्रुतमुनि ८८ हस्तिमल्ल १०७ माघनन्दि १२५ वज्रनन्दि १४० महासेन द्वितीय १४२ सुमतिदेव १४५ पद्मसिंह मुनि १४८ माधवचन्द्र विद्य १६३ आचार्य नयनन्दि
२५० २५६ २६४ २६९ २७२
२७५
२८६
२८७
२८८ २८८
अनन्तकोति
२९०
मल्लिषेण
दिपय-सूची : १७
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
खण्ड : ३
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकात्राये
प्रथम परिच्छेद प्रबुद्धाचार्य
स्वतन्त्र - रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचाय में थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्यांने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योंने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन आयायका अपना महत्त्व है । प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचायोंकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है । किन्तु विषय निरूपणकी सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्यों में वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्योंमें पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचायकि व्यक्तित्व और कृतितत्वका विवेचन प्रस्तुत है ।
आचार्य जिनसेन ( प्रथम )
आचार्य जिनसेत प्रथम ऐसे प्रबुद्धाचार्य हैं जिनकी वर्णन क्षमता और काव्य-प्रतिभा अपूर्व है । इन्होंने हरिवंशपुराण नामक कृतिका प्रणयन किया
ܚ ; =
1
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
है ! ये पुन्नाटसंघके आचार्य हैं । इनके गुरुका नाम कीर्तिषेण था । हरिवंश पुराण के ६६ वें सर्गमें भगवान महावीरसे लेकर लोहाचार्य पर्यन्त आचार्योंकी परम्परा अंकित है । वीर निर्वाणके ६८३ वर्षके अनन्तर गुरु कीर्तिषेणकी अविछिन्न परम्परा इस पाक की नयी है। अमिनमेनको पुन्नादगणका अग्रणी और शतवर्षजीवी बतलाया है । पुन्नाट कर्नाटकका प्राचीन नाम है । हरिषेण कथाकोष में आया है कि भद्रबाहु स्वामीके आदेशानुसार उनका संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के साथ दक्षिणापथके पुन्नाट देशमें गया । अतः इस देशके मुनिसंघका नाम पुन्नाठसंघ पड़ गया। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री नाथूराम प्रेमीका अनुमान है कि अमितसेन पुन्नाटसंघको छोड़कर सबसे पहले उत्तरकी ओर बढ़े होंगे और पूर्ववर्ती जयसेन गुरु तक यह संघ पुन्नाटमें ही विचरण करता रहा होगा । अतएव यह माना जा सकता है कि जिनसेनसे ५०-६० वर्ष पूर्व ही यह संघ उत्तरभारत में प्रविष्ट हुआ होगा ।
हरिकी रचना और रचना स्थानका निर्देश करते हुए ग्रन्थकर्त्ताने लिखा है कि शक संवत् ७०५ ( ई० सन् ७८३ ) में जब कि उत्तर दिशाकी इन्द्राव, दक्षिण दिणाकी कृष्णका पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्वको अवन्तिनृपत्ति वत्सराज और पश्चिमकी - सौरोंके अधिमण्डल सौराष्ट्रकी वीरजयवराह रक्षा करता था, तब लक्ष्मीसे समृद्ध वर्द्धमानपुरके पाश्र्व जिनालय में, जो नन्तराज वसतिके नामसे प्रसिद्ध था, इस ग्रन्थका प्रणयन आरम्भ हुआ और पीछे दोस्तटिका के शान्ति जिनालय में पूर्ण किया गया ।
इसी वर्धमानपुर में हरिषेणने भी अपने कथाकोषकी रचना की है। इस नगरकी अवस्थितिके सम्बन्ध में डॉ० ए० एन० उपाध्येका मत है कि यह वर्धमान
१.
जैन साहित्य और इतिहास, द्वित्तीय संस्करण ५० ११५ ।
I
२. शान्तेषु सप्तसु दिशं पवोत्तरेषूत्तरां
पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्ण नृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् ।
पूर्वां श्रीमदवन्तिभूभूति नृपे वत्सादिराजेश्वरां
सूर्याणामधिमण्डल जययुतं श्रीरे बराहेऽवति ॥ कल्याणैः परिवर्धमानविपुल श्रीवर्धमाने पुरं श्रीपादवलयनम्न राज बसतो
पर्याशेष: पुरा 1
पश्चाद्वास्त टिकाप्रजाप्रजनितप्राज्याचं नाव ने
शान्तेः शान्तगृहे जिनस्य रचितो वंशी हरीणामयम् ॥
हरिवंशपुराण, सर्ग ६, ५२, ५३ ।
२ : वीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुर काठियावाड़का वर्तमान बढवान है। डॉ हीरालाल जैन इम नगरको मध्यप्रदेशके चार जिलंके बदनावर स्थानको मानते हैं। डॉ० जनका अभिमत है कि इम बदनावरमें प्राचीन उन मन्दिरोंके भग्नावशेष आज भी विद्यमान हैं और यहाँ दुतग्यिा--प्राचीन दोस्तटिवा नामक ग्राम भो गमीप है तथा हरिवंशी वणित गज्य-विभाजनकी मीमार्ग भी इम म्यानसे सम्यक् घटित हो जाती है। ___डॉ. जनका कथन अधिक तर्कसंगत प्रतीन होता है। यतः जिनसेन म ५०-६० वर्ष पहले ही पुन्नाट मंघका उत्तर भारत में प्रवेश हो चुका था । अतः गिरनारकी यात्राक लिये संघ गया और वहाँ हरिवंशपुराण नथा उसके १५० वर्ष बाद कथा-कोपकी रचना हुई, यह बात संदिग्ध-सी प्रतीत होती है। वर्धमानपुरको जन संघका केन्द्र होना चाहिए, जहाँ उक्त दोनो विशाल ग्रन्थ लिम्वे गए । बहुन मम्भव है राष्ट्रकूट नरेशोंका मालवामें प्रभुत्व स्थापित होनेपर बदनावग्में जन पोटकी स्थापना हुई हो । जिस प्रकार पञ्चस्तूपान्वयो वीरसेन स्वामीका बाटनगरम ज्ञानकेन्द्र था, सम्भवतः उसी प्रकार अमितसनने बदनावरमें ज्ञानकेन्द्र की स्थापना की हो और उसी केन्द्रमै उक्त दोनों ग्रन्थीकी रचना मम्पन्न हुई हो। स्थिति-काल
जिनसेनने ग्रन्थ-रचनाका समय स्वयं निदिष्ट किया है । अतः इनके स्थितिकालके सम्बन्धमें मतभेदकी आशंका नहीं की जा सकती। शक संवत् ७०५ ( ई० मन् ७८३ ) में हरिवंशपुराणको रचना सम्पन्न हुई है। यदि हरिवंशपुराणक समय कविकी आय ३०-३५ वर्षकी मानी जाय, तो कविका जन्म अनुमानतः ई० मन् ७४८ के लगभग आता है। यतः इतनी प्रौढ़ रचना इस अवस्थाके पूर्व नहीं हो सकती । कविकी आयु ७०-७५ वषं होना चाहिये । अतएवं आचार्य जिनमेन प्रथमका समय लगभग ई० मन् ७४८-८१८ मिद्ध होता है।
कुवलयमालाके कर्ता उद्योतनसूरिने अपनी 'कुवलयमाला में जिस तरह विषेणके 'पद्मचरित' और 'जटासिनन्दिके 'वराङ्गचरिस' को स्तुति की है, उम्मी प्रकार हरिवंशकी भी। उन्होंने लिखा है कि मैं हजारों विद्वज्जनोंके
१. बृहत्कथाकोषकी प्रस्तावना, पृ० १२१ । २. इण्डियन कल्चर, खण्ड ११. मन् १५४४-४५, १० १६१ तथा जैन सिद्धान्त भास्कर
भाग १२, किरण ।
प्रबृक्षाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : ३
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रिय हरिवंशोत्पत्तिकारक प्रथम वन्दनीय और विमलपद हरिवंशकी वन्दना करता हूँ ।"
जन
इनकी एक ही रचना प्राप्त है, हरिवंशपुराण। यह दिगम्बर सम्प्रदायका प्रमुख पुराणन्यन्य है। रविषेणाचार्य के पद्मपुराण और जटासिह्नन्दिके वराङ्गचरिका इसपर प्रभाव है । जिनसेन ने अपने हरिवंग में महासेनकी सुलोचना तथा अन्यान्य ग्रन्योंका भी उल्लेख किया है, किन्तु वे अभी तक प्राप्त नहीं हूँ । हरिवंशपुराण की कथावस्तु जिनमेनको अपने गुरु कीर्तिसेन से प्राप्त हुई थी । वनशैलीपर रविषेण पद्मचरितका पूर्ण प्रभाव है। जिस प्रकार रविषेण ने पद्मचरित वृत्तानुगन्धी गद्य का प्रयोग किया है, उसी प्रकार जिनसेनने भी हरिवंशके ४९ संगम नेमि जिनेन्द्रका स्तवन करते हुए वृत्तानुगन्धी गद्यका प्रयोग किया है। इस पुराणग्रन्थका लोकविभाग एवं शलाकापुरुषोंका वर्णन त्रिलोकप्रज्ञप्ति से मेल खाता है। द्वादशांगवर्णन तत्त्वार्थवार्तिकके अनुरूप है। संगीतका वर्णन भरतमुनिके नाट्यशास्त्रसे अनुप्राणिन है । तस्व-प्रतिपादनमें तत्त्वार्थ सूत्र और सर्वार्थसिद्धिका आधार ग्रहण किया गया है। अतएव इम पुराण-ग्रन्थपर पूर्वाचार्योंका पूर्ण प्रभाव है ।
हरिवंशपुराणको कथावस्तु — इस पुराण में रवें तीर्थंकर नेमिनाथका चरित्र निबद्ध है, पर प्रसंगोपात्त अन्य कथानक भी लिखे गये हैं । भगवान नेमिनाथके साथ नारायण श्री कृष्ण और बलभद्रपदके धारक श्री बलरामके भी कौतुकावह चरित्र अंकित हैं। पाण्डवों और कौरवोंका लोकप्रिय चरित भी बढ़ा सुन्दरताके साथ निबद्ध किया गया है। कथावस्तु ६६ सर्गो में विभक्त हैं। प्रथम सर्गमें मंगलाचरण और ग्रन्थकी महत्ता, द्वितीय सर्ग में तीर्थकर महावीरका जीवनवृत्त, तृतीय सगमें महावीरका समवशरण और विपुलाचल पर उपदेश तथा त्रिष्टि शलाकापुरुषोंके चरित्रोंको जानने की जिज्ञासा, चतुर्थ समें अधोलोकका वर्णन, पञ्चम सर्ग में तिर्यक्लोकका निरूपण, पष्ठसमें ज्योतिर्देव एवं उर्ध्वलोकका चित्रण, सप्तम सर्ग में कुलकरोंकी उत्पत्ति और उनके द्वारा की गयी समाजव्यवस्थाका चित्रण अष्टम सग में आदि तीर्थकर ऋषभदेवका जन्म, नवम सर्ग में तीर्थंकर ऋषभदेवकी बालक्रीड़ा, दोषता कल्याणक एवं ज्ञानकल्याणकका वर्णन किया गया है। दशम सर्भ में मुनिधर्म और श्रावकधर्म के निरूपणके पश्चात् श्रुतज्ञानका चित्रण, एकादेश
7
१. बृहजसहस्वद्दयं हरिवंसुरपतिकारयं पढमं ।
दामि वंदियं पि हरिवंसं चेत्र विमलपथं ॥ कुवलयमाला, गाथा ३८ ।
४ तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्ग में भरतका जीवनवृत्त और बाहुबली-दीक्षा, द्वादश सर्गमें जयकुमार और सुलोचनाको कथा, त्रयोदश सर्गमें अजितनाथ तीर्थकरसे लेकर शीतलनाथ तीर्थंकर सक पौराणिक इतिवृत्त, चतुर्दश मर्गमें सुमुख और वनमालाको कथा एवं पञ्चदश सर्गमें हरिवंशका आदि इतिवृत्त अंकित है । षोडश सर्गमें मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकरका जीवनवृत्त, सप्तदश सर्गमें मुनिसुव्रतनाथके पुत्र सुग्रतका जीवनवृत्त, अष्टादश सर्गमें अन्धकवृष्णिका जीवनवृत्त, एकोन्नविश सर्गमें वसुदेवका भ्रमणवृत्तान्त, विशति सर्गमें विष्णुकुमारकी कथा, एकविशति सर्गमें चारुदत्तका आख्यान, द्वाविंशति सर्गमें वसुदेवको कथा, त्रयोविंशतिसर्गमें वसुदेव और सोमश्रीके विवाहका वर्णन एवं चतुर्विशति सर्गमें वसुदेव और वनमालाके विवाहको कथा अंकित है। पच्चोसमें और छब्बीसवें मार्गमें विभिन्न कन्याओंके साथ वसुदेवके निवाहका चित्रण आया है | ससाईसवें सर्गमें श्रीभूति पुरोहितकी कथा, अट्ठाईसवें सर्गमें मृगध्वज केवली और महिषका वृत्तान्त, उनतीसवें सर्गमें बमुदेव और बन्धुमती तथा प्रियंगु सुन्दरीको प्राप्तिका चित्रण है । तीसवें सर्गमें वसुदेवका वेगवती और प्रभावतीकी प्राप्तिका वर्णन आया है। इकतीसवें में सुदेवका अप गड़े गाई मविपर मिलना वणित हैं। बत्तीसवें सर्गमें बसुदेवकी रोहिणी नामक स्त्रोसे बलराम नामक पुत्रकी उत्पत्तिका वर्णन है। तेतीसवें सर्गमें जरासंध और कंसकी कथा आयी है । चौंतीसवै सगंमें नेमिनाथके पूर्वभवोंका वर्णन, पैतीसवेंमें कृष्ण-जन्म, छत्तीसवें में बलभद्र और कृष्णका कंसके साथ युद्ध, सैंतीसवें सर्गमें नेमिनाथके गर्भकल्याणक और अड़तीसवें सर्गमें नेमिनाथके जन्मका वर्णन आया है । उनतालीसवें सर्गमें तीर्थंकर नेमिनाथको परिचर्या और चालीसवें सर्गमें जरागंध द्वारा शौरीपुर पर आक्रमण करना वर्णित है। इकतालीसवें सर्गम कृष्ण द्वारा परमेष्ठीका ध्यान; बयालीसवें सर्गमें नारदका द्वारिकामें आगमन
और तैतालीसवें सर्गमें प्रद्युम्न के पूर्वभवोंका वर्णन आया है। चवालीसवें सर्गमें श्रीकृष्णका जाम्बवती, लक्ष्मणा, सुधीमा, गौरी, पद्मावती और गान्धारीके साथ विवाहित होना वर्णित है। पैंतालीसवें सर्गमें पाण्डवोंका यादवोंके यहाँ द्वारिकामें जाना और लाक्षागहमें आग लगनेपर अज्ञातरूपसे पाण्डत्रोंका निकल जाना वणित है। छयालीसवें और संतालीसव सर्गम भीमका कीचकके साथ युद्ध वर्णित है | अड़तालीसवें सर्गमें यदुवंश कुमाराका वर्णन तथा उनचासवें सर्गमें कृष्णको छोटी बहनको सुन्दरता और तपस्याका वर्णन आया है। पचासवें, इक्यावनवें और बावनवे सर्गमें जरासंध और कृष्णके युद्धका वर्णन है। तिरेपनवें सर्गमें कृष्णकी विजय, चौवन- सर्गमें नारदका द्रौपदीसे रुष्ट होकर प्रतिशोध लेना वर्णित है । पचवनवें सर्गमें नेमिनाथके विवाहकी तैयारियाँ
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ५
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
और उनके वैराग्यका चित्रण आया है । छप्पनवें सर्गमें नेमिनाश्रकी नपस्या और केवलज्ञानकी उत्पत्ति, सत्तावनवे सर्गमें समवशरण, अट्ठानवें सर्गमें नेमिनाथकी दिव्ययनि एवं उनसठवें सर्गमें नेमिनाथक विहारका वर्णन आया है। माठवें सर्गमें गजकुमारके निर्वेदका वर्णन आया है । इकसठवें सर्गमें द्वारिकाका भस्म होना, वासठवें सर्गमें कृष्णकी मृत्यु, तिरेसठव्य सर्गमें श्रीकृष्णका दाह-सस्कार वणित है। चौसठवें सर्गमें नेमिनाथका पल्लवदेशमें विहार, पैंसठवेंमें पाण्डवोंकी तपस्या एवं छियासठवें सर्गमें भगवान् महावीरके निर्वाणका प्रसंग वर्णित है । इम्म प्रकार इस ग्रन्थ में त्याग, संयम और अहिंसाकी त्रिवेणी समाहित है। नेमिनाथका पावन जीवन मानव-जीवनके समक्ष कर्तव्य और आदर्शकी स्पष्ट रूपरेला प्रस्तुत करता है।
प्रतिभा एवं रचनाशली-हरिवशपुराण ज्ञानकोष है। इसमें कम-सिद्धान्त, आचारशास्त्र, तत्वज्ञान एवं आत्मानुभूति सम्बन्धी चर्चा निबद्ध हैं । ग्रह पुराणग्रन्थ होने पर भी उच्चकोटिका महाकाव्य है। सैंतीसवें मर्गस साहित्यिक सुषमाकी वृद्धि उत्तरोत्तर परिलक्षित होने लगती है। इस ग्रन्थका पचवनबा सुगं ता यमकादि शब्दालंकारोंको दृष्टिस महत्त्वपूर्ण है। ऋतु-बर्णन, चन्द्रोदय-वर्णन, वन, पर्वत, नगर, सरोवर, ऊषा, सन्ध्या आदिके चित्रण महाकाव्यके अनुरूप आये हैं। कृष्णकी मत्युक उपरान्त बलदेव द्वारा किया गया करुण विलाप पाषाणहृदयको भी द्रवित करने में समर्थ है। नामनायकी वैराग्यचित्रण प्रत्येक संसारीको माया-ममतासे विमुख होनेका संकेत करता है। राजीमतिके परित्यागपर पाठकोंके नेत्रोंसे सहानुभूतिकी अश्रुधारा प्रवाहित हुए बिना नहीं रहती । कवि वसन्तऋतुके वर्णन-प्रसंगमें पुष्पावचय-क्रीडाका जीवन्त चित्रण उत्प्रेक्षा द्वारा करता हुआ कहता है----
कुसुमभारभृतः प्रणता भृशं प्रणयभङ्गभियेव नता द्रुमाः । युवतिहस्तधुताः कुसुमोच्चयेऽतनुसुखं तरुणा इव भेजिरे ।। अनसिनम्रतया निजशाखया कथमपि प्रमदाकरलब्धया।
तरुगण: कुसुमग्रहणेऽभजदृढकचग्रहसौख्यमिव प्रभुः ॥ पुष्पोंके भारको धारण करनेवाले वृक्ष अत्यन्त नमीभूत हो रहे थे। उससे वे ऐसे प्रतिभासित होते थे, मानों स्नेहभंगके भयसे ही नम्रीभूत हों, पुरुषोंके समान अतनु-बहुत भारी अथवा कामसम्बन्धी सुखका अनुभव प्राप्त कर
१ हरिवंशपुराण, पचपनवां सम, पद्य ३१, ४० ।
६ : तीर्थफर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुष्वावचय करते समय वृक्षोंकी ऊँची शाखाओंको सुन्दरियाँ किसी प्रकार अपने हाथ से पकड़ कर नीचेकी ओर खींच रही थीं, उससे वे वृक्ष नायकके समान प्रेमी द्वारा केश खींचने के गुण रहे।
उपर्युक्त मनोरम वर्ण के लिये कविने रसवर्षक, दुतविलम्बित छन्दको चुना है, जो कि कविको काव्य-ज्ञानसम्बन्धी विशेष प्रशाका सूचक है ।
कृष्णकी मृत्यु हो जानेपर बलराम द्वारा जगाये जानेपर भी जब वे जागते नहीं तब बलराम नारायणको सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि अब सोनेका समय नहीं, अतः उठना चाहिये । इस सन्दर्भमें कविने कल्पनाको ऊँची उड़ान के साथ श्लेषालङ्कारका प्रयोग कर काव्य चमत्कार प्रस्तुत किया है
वारुणीमतिनिषेव्य वारुणचक्रवाकनिव हैरुदश्रुभिः । शोत्रितः पतितभा: मानधः को न वा पतितवारुणीप्रियः ॥
सूर्य वारुणी - पश्चिम दिशारूपों मदिराका अधिक सेवन कर लाल-लाल हो रहा है । उसको मूच्छित दीन-दशापर चक्रवाकपक्षियोंका समूह अश्रु-वर्षा करता हुआ शोक प्रकट कर रहा है। सत्य है वारुणीके सेवनसे किसका अधःपतन नहीं होता |
इस पद्म में कविने सूर्यकी रूपाकृतिके बिम्व द्वारा सन्ध्यासमयका संकेत प्रस्तुत किया है। साथ ही मंदिरा-पानके दोषोंपर भी प्रकाश डाला है ।
आचार्य जिनसेन द्वन्द्वात्मक स्थितियोंके चित्रण में भी अत्यन्त पट्ट हैं । नमिकुमारके विवाह के अवसरपर एकत्र पशु-समूहकी विल स्थितिका तो मूर्तिमान चित्रण है ही, साथ ही नेमकुमारके हृदयकी आन्तरिक अवस्थाका बहुत ही स्पष्ट चित्र उपस्थित किया है। आचार्यने लिखा है
स खलु पश्यति तत्र तदा वने विविधजातिभृतस्तृणभक्षणः । भयविकम्पितमानसगायकान् पुरुषरुद्धमृगानतिविह्वलान् ॥
X
रणजित कीर्तयः करितुरङ्ग रथेष्वपि निर्भयान् । अभिमुखानभिहन्तुमधिष्ठितानभिमुखा: प्रहरन्ति न हीतरान् ॥
X
X
रणमुखेषु
एक पशु भय से अत्यन्त विह्वल हैं। उन्हें एक स्थानपर बलपूर्वक अवरुद्ध किया गया है । वे अपने प्राण जाने की आशंकासे अत्यन्त त्रस्त हैं और अपनी
१. हरिवंशपुराण, सर्ग ६१, पद्य ३० ।
२.
वही, सर्ग ५५ प ८५, ९० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापाषकाचार्य: ७
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
असमर्थ अवस्थापर आंसू बहाते हैं । जव नेमिकुमारको पशुओंका चीत्कार सुनाई पड़ता है तो वे द्रवीभूत हो जाते हैं और उनके अन्त में द्वन्द्व उत्पन्न हो जाता है। वे सोचते हैं कि जिन पशुओंका उपयोग रणभूमिमें सवारीके लिये करते हैं, जो मनुष्यकी नाना प्रकारकी आवश्यकताओंको पूर्ण करते हैं, जो पूर्णतः निर्दोष हैं उन पशुओं पर मांसलोलुपी यह मानव किस प्रकार अस्त्र प्रहार करता है ? उनकी विचारधारा और आगेकी ओर बढ़ती है और के गम्भीरतापूर्वक मोचने लगते हैं-
चरणकण्टकवेधभयाद्भूटा विदधते
परिधानमुपानाम् । मृदुमृगान् मृगयासु पुनः स्वयं निशितशस्त्रशतं प्रहरन्ति हि ॥ क्रूर मनुष्यको धिक्कार है, जो स्वयं तो पैर काँटा चुभनेके भयसे जूता धारण करता है, पर मूक पशुओंपर तीक्ष्ण शस्त्र प्रहार करता है ।
आचार्य ने अपने इस पुराणको सरस बनानेके लिये विभिन्न छन्दोंका प्रयोग तो किया ही है, साथ ही 'मीन सर्वार्थसाधनम्' (९/१२२ ) दुर्वारा भवितव्यता' (६११७७) 'किन्न स्याद् गुरुसेवया (२११३१) पुण्यस्य किमु दुष्करम् ' (१६/४६ ) 'पातकानं ध्रुवम् ( १७११५१ ) 'जातनां हि समस्तानां जोवानां नियता मृती (६१२० जैसी सूक्तियांका मणिकाञ्चन संयोग वर्त्तमान हैं ।
साहित्यिक सुषमाके साथ सुष्टिविद्या धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान, षट्द्रव्य, पञ्चस्तिकाय आदिका भी विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। आचार्य जिनसेननं अपने समयकी राजनीतिक परिस्थितिका भी चित्रण किया है ।
श्रीगुणभद्राचार्य
प्रतिभामूर्ति गुणभद्राचार्य संस्कृतभाषा के श्रेष्ठ कवि हैं। ये योग्य गुरुक योग्यतम शिष्य हैं । सरसता और सरलताके साथ प्रसादगुण भी इनकी रच नाओमें समाहित है । गुणभद्रका समस्त जीवन साहित्य साधनामें ही व्यतीत हुआ। ये उत्कृष्ट ज्ञानी और महान तपस्वी थे ।
गुणभट्टाचार्यका निवास स्थान दक्षिण आरकद जिलेका 'तिरुम रुङकुण्डम' नगर माना जाता है। इनके गृहस्थ जीवन के सम्बन्ध में तथ्य अज्ञात है। इनके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है कि ये सेनसंघ के आचार्य थे। इनके गुरुका नाम आचार्य जिनसेन द्वितीय और दादा गुरुका नाम वीरसेन है। गुणमने आचार्य दशरथको भी अपना गुरु लिखा है । सम्भवतः ये दशरथ इनके • विद्यागुरु रहे होंगे 1
१. हरिवंशपुराण, सर्ग ५५ प ९२ ।
८ सीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य जिनसेन प्रथम या द्वितीयके समान गुणभद्र को भी साधना- भूमि कर्नाटक और महाराष्ट्रकी भूमि रही है। इन्हीं प्रान्तोंमें रहकर इन्होंने अपने ग्रन्थोंका प्रणयन किया है ।
स्थिति-काल
गुणभद्राचार्य जिनसेन द्वितीयके शिष्य थे तथा उनके अपूर्ण महापुराण ( आदिपुराण) को इन्होंने पूर्ण किया था। अतः इनका समय आचार्य जिनसेन द्वितीयके कुछ वर्ष बाद ही होना चाहिये। उत्तरपुराणकी प्रशस्ति में ४२ पद्म हैं, जिनमें से आरम्भके २७ पद्म गुणभद्रद्वारा विरचित और अवशेष १९ पद्म उनके शिष्य लोकसन द्वारा विराचत माने जाते हैं । गुणभद्र स्वयं उत्तरपुराणके रचना कालके सम्बन्ध में मौन हैं, पर ३२वेंसे ३६ वें पद्यतक बताया है कि राष्ट्रकूट अकालवर्धके सामन्त लोकादित्य बंकापुर राजधानीमें रहकर समस्त वनवास देशका शासन करते थे । उस समय शक संवत् ८२० में श्रावण कृष्णा पञ्चमी गुरुवार के दिन यह उत्तरपुराण पूर्ण हुआ और जनता इसको पूजा की। अतः गुणभद्रका समय शक संवत् ८२० ई० मन् ८९८ अर्थात् ई० मन् की नवम अतीका अन्तिम चरण सिद्ध होता है।
रचनाएँ
(१) आदिपुराणगुणभद्राचार्य ने अपने गुरु जिनसेन द्वितीय द्वारा अबूर छोड़े आदिपुराणके ८३ वे पत्रके चौधे पद्य समाप्ति पर्यन्त कुल १६२० पद्य लिखे हैं |
(२) उत्तरपुराण - यह महापुराणका उत्तर भाग है ।
(३) आत्मानुशासन |
(४) जिनदत्तचरित काव्य 1
उत्तरपुराण --- अजितनाथ तीर्थंकरसे लेकर महावीर पर्यन्त २३ तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ बलभद्र, नो प्रतिनारायण और जीवम्बर स्वामी आदि कुछ विशिष्ट पुरुषोंके चरित इसमें दिये गये हैं । कथावस्तु पर्याप्त बिस्तृत है। आचार्यने जहाँ-तहाँ कथानकोंको नये रूपमें भी उपस्थित किया है । रामकथा पद्मपुराणकी अपेक्षा भिन्न है। इस कथा में बताया है कि राजा दशरथ काशी देशमें वाराणसीके राजा थे। रामकी माताका नाम सुवाला और लक्ष्मणकी माताका नाम कैकेयी था । भरत, शत्रुघ्न किसके गर्भमें आये थे, यह स्पष्ट नहीं है। सीता मन्दोदरीके गर्भसे उत्पन्न हुई थी । परन्तु भविष्यताओं यह कहने से कि वह नाशकारिणी है, रावणने उसे मंजूषायें रखवा कर मरीचिके द्वारा मिथिलामें भेजकर पृथ्वीमें गड़वा दिया। संयोगसे हल
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ९
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
की नोक में उलझ जाने से वह मजूषा राजा जनकको मिल गयी और उन्होंने उससे प्राप्त सीताको अपनी पुत्री के रूपमें स्वीकार किया। इसके पश्चात् जब वह विवाह योग्य हुई, तब जनकको चिन्ता हुई। उन्होंने एक वैदिक यज्ञ किया और उसकी रक्षाके लिये राम-लक्ष्मणको आग्रहपूर्वक बुलवाया । गमके साथ सीताका विवाह हो गया । यशके समय रावणको आमन्त्रण नहीं भेजा गया, इससे वह अत्यन्त क्रुद्ध हो गया और इसके बाद जब नारदके द्वारा उसने सीताके रूपकी अतिशय प्रशंसा सुनी, तब उसका हरण करनेके लिये सोचने लगा ।
यांक हट करने, रामको वनवास देने आदिकी इस कथामें कोई चर्चा नहीं है। पंचवटी, दण्डकवन, जटायु, सूर्पणखा, खरदूषण आदिकं प्रसमोंका भी अभाव है। बनारस के पास ही चित्रकूट नामक बनसे रावण मीताका हरण करता है और सीताके उद्धार हेतु लंकामे राम-रावण युद्ध होता है । रावणको मारकर राम दिग्विजय करते हुए लौटते हैं और दोनों भाई बनारस में राज्य करने लगते हैं । सीताके अपवादका और उसके कारण उसे निर्वासित करने का भी जिक्र नहीं है । लक्ष्मण एक असाध्य रोग में ग्रसित होकर मृत्यु प्राप्त करते हैं। इससे रामको उद्वेग होता है । वे लक्ष्मण पुत्र पृथ्वीसुन्दरको राजपदपर और सीताके पुत्र अजितञ्जयको युवराज पदपर अभिषिक्त अनेक राजाओं और सांता आदि रानियों के साथ जिनदीक्षा ले लेते हैं । यह कथा प्रचलित रामकथा से बिल्कुल भिन्न है । कविको यह किस परम्परासे प्राप्त हुई, यह नहीं कहा जा सकता है । दशरथजात्राकसे कुछ कथासूत्र साम्य रखते है ।
अन्य कथाओं में बलराम और श्रीकृष्णकी कथा हरिवंशपुराणको कथासं भिन्न है। इसी प्रकार पचहत्तर पर्व में जीवन्धरस्वामीका चरित निबद्ध किया गया है। इस चरितमें भी वादीभसिंह द्वारा लिखित गद्यचिन्तामणि और छत्रचूड़ामणिके कथानक में पर्याप्त अन्तर है । इन सभी कथा सूत्रोंके देखने से यह ज्ञात होता है कि गुणभद्राचार्यने किसी अन्य परस्परासे कथानकोंको ग्रहण किया है ।
3
कथानकोंकी शैली रोचक और प्रवाहपूर्ण है । ८ वें, १६ वें २२ में, २३ व और २४ व तोर्थंकरको छोड़कर अन्य तीर्थकरोंके चरित्र अत्यन्त संक्षेपमें लिखे गये हैं, पर वर्णन - शैलीको मधुरताके कारण यह संक्षेप भी रुचिकर हो गया है । कथानकोंके साथ रत्नत्रय, द्रव्य, गुण, कर्म, सृष्टि एवं सृष्टिकर्तृत्व आदि विषयोंका भी विवेचन किया गया है।
१०: तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
उत्तरपूराणका रचनास्थल बकापुर हैं। यह स्थान पूना-बंगलोर रेलवं लाइनमें हरिहर स्टेशनके समीपवर्ती हावेर रेलवे स्टेशनसे पन्द्रह मीलपर धारवाड़ जिले में है। उत्तरपुराणके समाप्तिकालमें बंकापुरमें जन बीर केयका सुयोग्य पुत्र लोकादित्य कृष्णराज द्वितीयके सामन्तके रूपमें राज्य करता था । बंकापुर को स्थापना लोकादित्यने अपने वीर पिता बंकेयके नामपर की थी। बकेयकी धर्मपत्नी विजया बड़ी विदुषी थी। इसने मंस्कृनमें एक काव्य रचा है, जो भीमरावने कर्नाटकगत वैभव नामक अपनी रचनाम उदाहरण के रूपमें उद्धृत किया है । गुणभद्रके अनुसार लोकादित्य स्वतन्त्र सामन्त था और इसने बकापूरमें जैन मन्दिगेकी सुन्दर व्यवस्था की थी। निश्चयत: उन दिनांम बंकापरमें अनेक जनाचार्य निवास करते थे। यही कारण है कि गङ्गनरेश मारसिंहने यहाँ आकर सल्लेखना ब्रत ग्रहण किया था। इसी बंकापुरमें गुणभद्र ने अपने उत्तरपुगणकी रचना की है। आत्मानुशासन __ इस महत्वपूर्ण धर्म एवं नीति-अन्यमे २६९, पद्म झ् । आत्माके यथार्थ स्वरूपको शिक्षा दनक लिए इसका प्रणयन किया गया है। इसपर प्रभाचन्द्राचार्यने संस्कृन-टीका और पण्डित टोडरमल्लने हिन्दी-टीका लिखी है । ग्रन्के अन्तिम पद्यम आचार्यने स्वय स्पष्ट कर दिया है कि ब जिनसेनाचार्य द्वितीयक शिग्य हैं।
उत्थानिकाके अनन्तर सुभापितरूपमें सुख-दुःखविधक, सम्यग्दर्शन, देवकी प्रबलता, मत्माधु-प्रशंसा, मृत्युको अनिवार्यता, तपाराधना, ज्ञानागधना, स्त्रीनिन्दा, समीचीन गुरु, साधुओंकी असाधुता, मनोनिग्रह, कषायविजय, यथार्थतपस्वी, प्रभृति विपयोपर पद्म-रचना प्रस्तुत की गयी है। इस ग्रन्यको शैली भतृहरिके 'शतकत्रय' के समान है। कबिने इस सूक्ति-काव्यमें अन्योक्तियोंका आधार ग्रहण कर विषयको सरस बनाया हैहे चन्द्रमः किमिति लाञ्छभवानभूस्त्वं तद्वान् भवः किमिति तन्मय एव नाभूः । किं ज्योत्स्नया मलमल तब घोषयन्त्या स्वर्भानुबन्ननु तथा सति नासि लक्ष्यः ।।
हे चन्द्रमा ! तु मलिनतारूप दोषसे सहित क्यों हुआ? यदि तुझे मलिन हो होना था, तो पूर्णरूपस उस मलिन स्वरूपको क्यों नहीं प्राप्त हमा? तेरी उम मलिनताके अतिशयको प्रकट करनेवाली चाँदनीसे क्या लाभ ? यदि तू सर्वथा मलिन हुआ होसा, तो वैसी अवस्थामें राहुके समान सदोष तो दिखलाई पड़ता।
१. आत्मानुशासन, जन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, पद्य १४० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ११
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस पद्यमें चन्द्रमाको लक्ष्य बनाकर ऐसे साधुको निन्दा की गयी है, जो साधुवेष में रहकर साधुत्वको मलिन करता है । यदि व्रत - संयमादिसे युक्त दम्भो साधु न होता, तो किसीका ध्यान हो उस ओर न जाता ।
सत्यं वदात्र यदि जन्मनि बन्धुकृत्यमाप्तं त्वया किमपि बन्धुजनाद्धितार्थम् । एतावदेव परमस्ति मृतस्य पश्चात् संभूय कायमहितं तव भस्मयन्ति || '
हे प्राण ! यदि तूने संसार में भाई-बन्धु आदि कुटुम्बी जनोंसे कुछ भी हितकर चन्धुत्वका कार्य प्राप्त किया है, तो उसे सत्य बतला । उनका इतना ही कार्य है कि मर जानेके पश्चात् वे एकत्र होकर तेरे अहितकारक शरीरको जला देते है ।
इस पद्य में अन्योक्ति द्वारा यह बतलाया गया है कि बन्धुजन राग-द्वेषके कारण ही बनते हैं । अतएव बन्धुजनोंमें अनुरक्त रहकर आत्म-कल्याणसे बञ्चित रहना उचित नहीं ।
सुख-दुःखविवेकके अन्तर्गत बताया गया है कि सातावेदनीय कर्मके उदयमे प्राणीको कुछ कालके लिये जो सुखका अनुभव होता है, वह यथार्थ सुख नहीं है, किन्तु सुखका आभास है । इन्द्रियजन्य विषयसुख विद्य ुतके प्रकाशके समान विनश्वर है । विषय-तृष्णाके कारण हो प्राणी संतप्त रहता है और इस संतापको दूर करनेके लिये विषयोंकी ओर अनुधावित होता है । अतएव इन्द्रिजन्य विषयसुख दुःख ही है । अतः परद्रव्योंकी अपेक्षा रहनेके कारण पराधीन, अनेक प्रकारकी बाधाओं सहित, प्रतिपक्षभूत असातावेदनीय आदिके उदयसे संयुक्त, अत्तएव विनश्वर है 1 संसारके प्राणी दुःखसे डरते हैं और सुख चाहते हैं, पर अविनश्वर सुखका कार्य नहीं करते । यथा-
J
दुःखाद्विभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् । दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥ *
संसार में सुखका कारण सम्यग्दर्शन है, अपने स्वरूपको पहचानना है। जो आत्मानुभूति कर लेता है उसीको समता और शान्तिको प्राप्ति होती है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप इन चारों आराधनाओंका सेवन करनेसे जन्म, जरा और मरण रोगका विनाश होता है। श्रद्धागुण जब तक स्वानुभूति से संयुक्त नहीं होता तबतक सम्यक्त्वरूप परिणमन नही होता । स्वानुभूतिके बिना जो श्रुतमात्र के आलम्बनसे श्रद्धा होती है, वह
7
१. आत्मानुशासन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, ब्लोक ८३ । २. ही पद्य २ |
१२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वार्थ से सम्बद्ध होनेपर भी यथार्थ श्रद्धा नहीं है, क्योंकि वहाँ तत्त्वार्थकी उपलब्धि नहीं है । जिस प्रकार बीजके बिना वृक्ष न उत्पन्न होता है, न अवस्थित रहता है, न बढ़ता है और न फलोंको उत्पन्न कर सकता है, उसी प्रकार मम्यग्दर्शनके विना ज्ञान और चारित्र भी यथार्थ स्वरूपमें न उत्पन्न हो सकते है. न अबस्थित रह सकते हैं और न मोक्षरूप फलकी प्राप्ति ही हो मक्रनी है। अतएव चागें आराधनाआमें सम्यग्दर्शनकी आगवना प्रधान है ।
देवकी प्रबलताका विश्लेषण करते हुए इन्द्र और कृपभदेव तीर्थकरका उदाहरण दिया गया है । बताया है कि इन्द्रका वृहस्पति मन्त्री है, शस्त्र वज्र है, मनिक दब हैं, ऐरावत हाथी वाहन है और साक्षात् विष्णुका अनुग्रह भी है, तो भी इन्द्र शत्रुओं द्वारा पराजित होता है, यह अष्टकी ही क्रीड़ा है । यदि पूर्वापाजित पूण्य शप है, नो प्राणोंके लिये आय. धन-सम्पत्ति एवं शरीगदि सभी अनुकूल सामग्री प्राप्त हो जाती है। और यदि पुण्य शेष नहीं है, तो प्राणी उसकी प्राप्तिके लिये कितना भी परिश्रम क्यों न करें, उसे कुछ भी प्राप्त नही होला ! पाया है
नेता यत्र बृहस्पनि प्रहरणं बच्च मुगः मनिकाः म्वर्गा दुर्गमनुग्रह: बल हरेरोगवणो वारण । इत्याश्चर्यबलान्वितोऽपि बाभद्भग्न: परैः सङ्गरे
तद्व्यक्तं ननु देवमेव शरणं धिग्धिम्वृथा पौरुपम् ॥ दुष्ट देवकी प्रबलता बतलाते हुए ग्रन्थकारने आदि तीर्थकरका उदाहरण प्रस्तुत किया है और बतलाया है कि जिन ऋषभजिनेन्द्रने समस्त साम्राज्यको तृणके समान तुच्छ समझ कर छोड़ दिया था और तपस्याको स्वीकार किया था । वे ही भगवान क्षुधित होकर दीनकी तरह दूमरोंके धरोपर घूमे, पर उन्हे भोजनप्राप्त नहीं हुआ, जब आदिदेव गर्भम आये थे, तब उसके छह महीने पूर्वसे ही इन्द्र हाथ जोड़कर दासके समान सेवामें संलग्न रहा । इधर इनका पुत्र भरत चक्रवर्ती बौदह रल और नौ निधियोंका स्वामो था । युगके आदिमें स्वयं सष्टिके स्रष्टा थे, फिर भी उन्हें क्षधाके वशमें होकर छह महीने तक पृथ्वी पर धूमना पड़ा । यह उस देवकी प्रबलता नहीं तो और क्या है
समस्तं साम्राज्यं तणमिव परित्यज्य भगवान्
तपस्यन् निर्माण: क्षुधित इव दीन: परगृहान् । १. आत्मानुशासन, अन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, श्लोक ३२ ।।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १३
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
किलाद्भिक्षार्थी स्वयमलभमानोऽपि मुचिरं न सोडव्य किंवा परमिह परैः कार्यवशतः ॥
मरण सम्बन्धी पद्योंमें जन्म और मरणका अविनाभाव सम्बन्ध बनाते हुए मृत्युको अनिवार्यता सिद्ध की गयी है । योनिन्दा - प्रसंग में प्रकारान्तरसे विपयामाकी ही निम्बा की गयी है । जो नारी विषय-वासनाको जागुन करती है, आध्यात्मिक दृष्टिसे वह त्याज्य है। समीचीन गुम्का स्वरूप बतलाते हुए मंथम, त्याग और तपस्याका महत्व बतलाया है । संयमण राज्यके संरक्षणार्थं जिस प्रकार बाह्य शत्रुओं का जीवना आवश्यक है, उसी प्रकार अन्तरंग शुओं का भी मन बन्दरके समान चपल है, अतएव उसे आत्मनियन्त्रण में रखनेके लिये रूप वृक्ष पर विचरण कराना चाहिये । मनको वनमें करनेका एकमात्र साधन श्रुतज्ञान है। इसी प्रकार पायविजय. संसारकी अनित्यता, ज्ञानाराधना, तपाराधना, परियाराधना आदिका वि पण किया है।
गुणभद्राचार्यने अनुप्रास अलंकारका भी सुन्दर नियोजन किया है। अन्य अलंकारोमं उपमा | पद्य ८१ अतिशयोक्ति पत्र ॐ९ ), रूपक ( प ७८ १. अपह्न ुनि ( प ८६ ) अप्रस्तुतप्रशंसा (पद्य १३९ ) प ( पद्य १०९ । विभावना ( प १०२ ) आदि अलंकाका संयोजन पाया जाता है। अनुप्रास की छटा दर्शनीय है
ง
प्राज्ञः प्राप्त समस्त शास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः प्रास्ताश: प्रतिभापरः प्रभवान् प्रागेव दृष्टोत्तर 1 प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया यामकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ||
जिनदत्तचरित
इस प्रबन्ध-काव्य में ९ सर्ग हैं। समस्त काव्य अनुष्टुप् छन्दमें लिखा गया है | सर्गान्तमें छन्द-परिवर्तन भी हुआ है। अंगदेशान्तर्गत वसन्तपुर नामके नगरमें सेठ जोवदेव और उनकी पत्नी जीवमाका पुत्र जिनदत्त है । अन्य जैन महाकाव्योंके समान कविने इस काव्यके आदि में भी पुत्र प्राप्तिकी चिन्ता एव पुत्रका महत्त्व प्रतिपादित किया है। जिनदत्त शैशव समाप्त कर जत्र पूर्ण युवक हुआ, तो उसका मन संसारके विषयोस विरक्त रहने लगा ।
"
१. आत्मानुशासन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर, पद्य ११८ । S वहीं, पश्च ५ ।
१४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
कविन जिनदत्तकी इम विरक्तिको बड़े कौशलके माथ अनुरक्तिके रूपम परिवर्तित किया है। कवि पाहता है कि एक दिन जिनदत्त अपने मित्रोंके साथ कोटिकूट चैत्यालयमें दर्शनार्थ गया । वहाँ मीढ़ियां चढ़ते समय दरवाजेके पास एक स्त्री-मति पर उसकी दृष्टि पड़ी। ग्रह मनि अत्यन्त रमणीय थी। उसका अंगविन्याम अमृत और मधुसे निर्मित हुआ था । इन अनिन्द्य मौन्दर्यका अवलोटनक: जिन्दन म हो गया और अपनी सुरतुध स्त्रो बैठा । जब वह इस अवस्थामें घर लौटा, तो पिता जीवदेवने चिन्तित होकर उस मूतिके शिल्पीको बुलाया और पूछा कि मति किम नारी की है ? शिल्पीने बनलाया वि यह मूर्ति चम्पानगरीक विमल बेठको पुत्री विमलमत्तीकी है। फलत: प्रेमाकर्षण द्वारा जिनदत्तका पाणिग्रहण विमलमतीके माथ सम्पन्न हो गया ।
दुर्गण और व्यसन व्यक्तिमें किस प्रकार प्रविष्ट होते हैं. इस तथ्यांगको कविने इस काव्यक तृतीय मर्ग में अभिव्यक्त किया है। जिनदन अपने मित्रों के समर्गके कारण द्य त खेलना मीम्स लेता है और शानः शनः माग द्रव्य द्य तदेवकी भेंट हो जाता है। कवि नाटकके समान घटनाचक्रको दूसरी ओर मोड़ता है और जिनदतको प्रमार्जनके हेतु विदेश भेज देता है और वहां जिनदत्त बहन-सा धन अर्जन करता है तथा राजा-महाराजाओंस मम्पर्क स्थापित कर श्रीमती नामक गजकूमारीकं. साथ विवाह सम्पन्न करता है। समुद्रपथम वापन लौटते समय श्रीमतीवं सौन्दयंसे आकृष्ट हो ममुद्रदत्त नामका व्यापारी जिनदनको समुद्रमें गिरा देता है। जिनदत्त एक काष्ठकी पट्टिकाके सहारे समुद्रको पार करने लगा। आकाशमार्गसे जाते हा विद्याधर उसके बल-पौरुषसे प्रभावित हाए । अतः उन्होंने उसे अपने विमानमें जेठा लिया और अपने अधिपनि अयोकथोकी पुत्री शृङ्गारमतीक. साथ जिनदत्तका विवाहसंस्कार सम्पन्न करा दिया। कुछ दिनों पश्चात् जिनदत्त अपनी पत्नी शृङ्गारमतीक साथ चम्पापुरमें आया और रातको एक वाटिकामें निवामके हेतु ठहर गया । मध्यपत्रिके समय शृङ्गाग्मतीको उसी वाटिकामे पोते छोड़ बह कहीं चल दिया। शृङ्गारमती भी चम्पापुरके एक चैत्यालयमें निवास करने लगो । यहाँ विमला और श्रीमती भी उसे मिल गयीं ।
जिनदत्त वामनका रूप धारण कर नगर में अपनी गान-विद्या द्वारा लोगोंका अनुरञ्जन करने लगा। राजदरवारमैं उसे गायकका पद प्राप्त हो गया । एक दिन किसी व्यक्तिने राजाके यहाँ सूचना दी कि इस नगरके जिनालय में तीन परम सुन्दरियाँ निवास करती हैं, जो न कभी हंसती हैं और न कभी परपुरुषसे बात-चीत ही करती हैं। जिनदत्तने राजासे प्रतिज्ञा की कि
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १,
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैं इन मुन्दरियोंको हँसा सकता हूँ। उसने वहाँ जाकर अपने वृत्तान्त द्वारा उन युबतियोंको अनुरञ्जित कर हँसाया । जिनदत्तने एक मदोन्मत्त गजको भी वश कर राजाको प्रसत्र किया और उसकी कन्याके साथ विवाह सम्पन्न किया, पश्चात् जिनदत्त अपने माता-पितामे मिला और मनि हाग अपनी भवाबलि अवगत कर उसने मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली । कठोर तपश्चरण कर उसने आठवां स्वर्ग प्राप्त किया।
कविने इम काव्यमें सून्दर कवित्वका भी नियोजन किया है। नदी और वेश्याओंकी समना करते हुए श्लेष और उत्प्रेक्षा द्वारा एक माथ चमत्कार निबद्ध किया है
मविभ्रमा: मपद्माश्च मसेव्यपयोधराः ।
कुटिला यत्र गजन्ते नद्यः पम्याङ्गना इव ।' कवि बसन्तपुरको खातिकाओंके सौन्दर्यका उत्प्रेक्षा द्वारा प्रतिपादन करता हुआ कहता है कि खातिकाके व्याजसे ममुद्र ही यहाँ प्रविष्ट हो गया है। कविने समुद्र के समस्त गुणोंका प्रतिपादन करते हुए लिखा है
महीप्रवेशमाविश्य चौरेणेव पयोधिना ।
खातिकाज्याजतो वा यत्नहरणेच्छया ।। फनि पाल्पना कितनानी है, मह निम्नबित पासे सहज जाना। जा सकेगा। रात्रि समाप्त हो गयी है, सूर्यका उदय होने जा रहा है। यह सूर्य पूर्व दिशाके कमकुम भषणके समान, रात्रिरूपी अङ्गनाकं विस्मृत लोहित कमलके ममान, कामदेवनृपतिक रक्त आतप पत्रके ममान, अन्धकारनाशक चक्रके समान और आकाशरूपी स्त्रीके माङ्गल्यकलशक समान परिलक्षित हो रहा है--
प्राची कुंकुममण्डनं किमथवा रात्र्यगनाविस्मृतं । रक्ताम्भोजमश्रो मनोजनृपते रक्तातपत्रं किमु । चक्र ध्वान्त विभेदक द्य वनितामांगल्यकुम्भः किमु ।
इत्थं शंकितमबरे स्फुटमभूदानोस्तदा मण्डलम् ।।' ग्भ-परिपाक और भाव-योजनाको दृष्टिसे भी यह काध्य मफल है ।
शाकटायन पाल्यकीर्ति ये वैयाकरण शाकटायन बहुत प्राचीन आचार्य हैं, जिनके मतका उल्लेख १. जिनदत्तचरित्र, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, विक्रमाश्च १९७३. पद्म १८ । २. वहीं, पद्य १५१७। ३. जिनदत्तचरित्र. माणिकश्चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, पच २११२७ । १६ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाणिनिने अपनी अष्टाध्यायी में किया है। ऋग्वेद और शुक्लयजुर्वेद के प्रातिशाख्यों में तथा यास्काचार्य के निरुक्तमें भी इनका निर्देश आया है। ये शाकटायन पाणिनी से साढ़े छः सौ वर्ष पूर्व हुए है, पर प्रस्तुत शाकटायन उक्त शाकटायनाचासे भिन्न हैं। ये जैन आचार्य हैं और इन्होंने स्वोपज्ञ अमोधवृत्ति सहित शाकटायन जब्दानुशासनको रचना की है। अमोघवृत्तिके आरम्भ में शाकटायन नामसे ही इनका निर्देश किया गया है। मंगलाचरणकी व्याख्या करते हुए ग्रन्थप्रणयनके प्रतिज्ञावाक्यमें बताया है
"एवं कृतमङ्गलरक्षाविधानः परिपूर्णमलाग्रंथ लघुपायं शब्दानुशासनं शास्त्रमिदं महाश्रमण संघाधिपतिर्भगवानाचार्यः शाकटायनः प्रारभते शब्दार्थज्ञानपूर्वकं च सन्मार्गानुष्ठानम्" ।
इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थके रचयिता आचार्य शाकटायन हैं । शाकटायनकी चिन्तामणिटीका के रचयिता यक्षत्रर्माने भी शाकटायनको इस शब्दानुशासनका रचयिता माना है । उन्होंने लिखा है
"स्वस्ति श्रीसकलज्ञान साम्राज्यपदमाप्तवान् । महाश्रमणसंधाधिपतिर्यः शाकटायनः ||
X
“विघ्नप्रशमनार्थं मद्देवतानमस्कारं परममङ्गलमारभ्य भगवानाचार्यः शाकटायनः शब्दानुत्रारानं शास्त्रमिदं प्रारभते ।"
x
X
शाकटायनका अन्य नाम पाल्यकीति भी मिलता है । वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथचरित में इनका स्मरण पाल्यकीर्तिके नामसे किया है-
w
कुतस्त्या तस्य सा शक्ति: पाल्यकीर्तेर्महौजसः 1 श्रीपदश्रवणं यस्य शाब्दिकान् कुरुते जनान् ||
अर्थात उस महातेजस्वी पाल्यकीर्तिकी शक्तिका क्या वर्णन किया जाय, जिसका श्रीपद श्रवण ही लोगोंको शाब्दिक या वैयाकरण कर देता है । श्री नाथूरामजी प्रेमीका अभिमत है कि "श्रीवीरममृतं ज्योतिः " आदिपदसे शाकटायनका प्रारम्भ होता है। इसी कारण वादिराजसूरिने श्रीपदको लक्ष्य करके उक्त
१ शाकटायन-व्याकरण, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण, सन् १९७१ पृष्ठ १ । २. जैन साहित्य और इतिहास लेखक - नाथूराम प्रेमी, प्रकाशक – हेमचन्द्र मोदी, ठि० हिन्दी - ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग गिरगांव, बम्बई, प्रथम संस्करण सन् १९४२, पृ० १५६, १५७ ।
३. श्री पार्श्वनाथ चरित, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, ११२५ ।
२
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोक्काचार्य : १७
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्देश किया है ।" शुभचन्द्रने पार्श्वनाथचरित पञ्जिकामें लिखा है- "तस्य पाल्यकीर्तेः महौजसः श्रीपदश्रवणं श्रिया उपलक्षितानि पदानि शाकटायनसूत्राणि तेषां श्रवणं आकर्णनम् ।" अर्थात् शुभचन्द्र पाल्यकीतिको शाकटायनसूत्रोंका रचयिता मानते हैं ।
शाकटायन-प्रक्रियासंहके मंगलाचरण में जिनेश्वरको पाल्यकीर्ति और मुनीन्द्र विशेषण दिये गये हैं, जो लिष्ट हैं । एक अर्थके अनुसार जिनेश्वरको और दूसरे अर्थके अनुसार प्रसिद्ध वैयाकरण पाल्यकीर्तिको नमस्कार किया गया है । अभयचन्द्रके इस मंगलाचरण से शाकटायनसूत्रोंका रचयिता पाल्यकीर्ति सिद्ध होते हैं
मुनीन्द्रमभिवन्द्याहं पाल्यकीर्ति जिनेश्वरम् | मन्दबुद्धयनुरोधेन प्रक्रियासंग्रहं ब्रवे ॥`
शाकटायन या पाल्यकीर्ति यापनीय सम्प्रदायके विद्वान् थे । वि० संवत्की १३वीं शताब्दीके मलयगिरि नामक श्वेताम्बराचार्यने नन्दिसूत्रकी टीकामें उन्हें यापनीय-यतियोंका अग्रणी लिखा है
" शाकटायनोऽपि यापनीययत्तिग्रामाग्रणीः स्वोपज्ञशब्दानुशासनबृत्तावादी भगवतः स्तुतिमेवमाह् - 'श्रीवीरममृतं ज्योतिर्नत्वादि सर्ववेधसाम् । अत्र च न्यासकृतव्याख्या--सर्ववेधसां सर्वज्ञानां सकलशास्त्रानुगतपरिज्ञानानां आदि प्रभवं प्रथममुत्पत्तिकारणमिति ।
पात्यकीर्ति या शाकटायन श्वेताम्बरोके समान स्त्रीमुक्ति और केवली कवलाहारको भी मानते हैं । यह मान्यता यापनीयसंघकी है ।
अमोघवृत्तिमें " उपसर्वगुप्तं व्याख्यातारः" कहकर शाकटायनने सर्वगुप्त आचार्यको सबसे बड़ा व्याख्याता माना है और ये सर्वगुप्त वही जान पड़ते हैं, जिनके चरणोंके समीप बैठकर भगवती आराधनाके कर्ता शिवार्यने सूत्र और अर्थको अच्छी तरह समझा था। शिवार्य यापनीय सम्प्रदायके आचार्य थे । अतएव उनके गुरुको श्रेष्ठ व्याख्याता बतलाने वाले शाकटायन भी यापनीय होंगे 1 श्री प्रेमीजीने किसी आधारसे शाकटायनको 'श्रुतकेवलिदेशीयाचार्य' लिखा है। चिन्तामणिटीका के कर्त्ता यक्षवर्माने उन्हें " सकलज्ञानसाम्राज्यपदमाप्तवान् " माना है । दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार वीर निर्वाण सं० ६८३ वर्षके पश्चात्
१. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १५०
२. प्रक्रियासंग्रहका मंगलाचरण । ३. नन्दिसूत्र, पृ० २३ १
१८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलियों या एकदेशश्रुतकेवलियोंका विच्छेद हो गया है। अतएव उनका श्रुतकेबलिदेशीयरूपसे उल्लेख यापनीयसंघका द्योतक है।
शाकटायनने अपनी गुरुपरम्पराका उल्लेख नहीं किया है और न अपने गुरुका नाम ही दिया है । अमोघवर्षके पिता प्रभूतवर्ष या गोविन्दराज तृतीयका जो दानपत्र कदम्ब ( मैसूर ) में मिला है वह शक संवत् ७३५ का अर्थात् अमोघवर्षके राजा होनेसे एक वर्ष पहले का है। उसमें अर्ककीर्ति मुनिको मान्यपूर ग्रामके शिलाग्रामजिनेन्द्रभवनके लिए एक गांव दान करनेका उल्लेख है । अर्ककोति यापनीयनन्दिसंघ पुन्नागवृक्ष मुलगणके थे । अर्ककीतिके गुरुका नाम विजयकीर्ति और प्रगुरुका नाम श्रीकोति था। बहुत सम्भव है कि पाल्यकीर्ति अर्ककीतिके शिष्य रहे हों।
शाकटायनसूत्रपाठमें इन्द्र, सिद्धनन्दि और आर्यवज्र इन तीन पूर्वाचार्योके मसीका निर्देश पाया जाता है। इन तीनों आचार्योंमें इन्द्रका उल्लेख गोम्मटसार जीवकाण्ड संशयी मिथ्याष्टिके रूपमें आया है। सिद्धनन्दि भी यापनीयसंघके आचार्य प्रतीत होते हैं। तिलोयपण्णत्तिमें वजयशका नाम आता है । अतः सम्भय है कि आर्यबळ दिगम्बराचार्य हों अथवा श्वेताम्बर कल्पसूत्रस्थविरावलीमें निर्दिष्ट अज्जवइर हों। तपागच्छकी पट्टावलोके अनुसार इनकी गणना दशपूर्वधारियोंमें की गयी है। अतएव पाल्यकात्ति-शाकटायन यापनीयसम्प्रदायके आचार्य हैं और इनके गुरुका नाम सम्भवत: अर्मकीर्ति रहा होगा। स्थितिकाल
पाल्यकीति-शाकटायनके समय-निर्धारणके सम्बन्धमें विशेष मतभेद नहीं है। वादिराज द्वारा निर्देश होनेके कारण इनका समय ई० सन् १०२५ के पूर्व है ।' शाकटायनने लिखा है-ख्यातेऽदृश्ये ॥४१३२०८॥ भूतेऽनद्यतने ख्याते लोकविज्ञाते दृश्ये प्रयोक्तुः सख्यदर्शने वर्तमानाद्धातोलप्रत्ययो भवति । लिङपवादः । अरुणदेवः पाण्ड्यम् । अदहदमोघवर्षोऽरातीन् । त्यात इति किम् ? चकार कटं देवदत्तः । दृश्य इति किम् ? जघान कंसं किल वासुदेवः । अनद्यतन इति किम् ? उदगादादित्यः ।"
अर्थात् जो घटना आँखोंके समक्ष घटित हुई हो अथवा लोकविज्ञात हो उसे प्रकट करनेके लिए धातुसे लङ् प्रत्यय होता है। यथा-अरुणदेवः पाण्ड्यम्देव-नप तुंगदेव (अमोघवर्षका नामान्तर) ने पाण्ड्य नरेशको रोका तथा अदहदमोघवर्षोऽरातीन–अमोघवर्षने शत्रुओंको जला दिया। इन उदाहरणोंमें अमोघ१. संस्कृत-काव्य के विकासमें जैन कवियोंका योगदान, डा. नेमिचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ० १७४ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : १९
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्ष द्वारा शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेकी घटनाका उल्लेख आया है। शक संवत् ८३२ (ई० सन् ९.१०) के एक राष्ट्रकूट अभिलेखमें इसी प्रकारकी घटनाका निर्देश किया है-भूपालान् कण्टकाभान्-वेष्टयित्वा ददाह-अर्थात् इस घटनाका भी वही तात्पर्य है कि सम्राट् अमोघवर्षने अपने से विपरीत हाए राजाओंको घेरा या जला दिया । अभिलेख अमोघवर्षसे पीछेका है। अतएव यहाँ परोक्षार्थ के लिटलकारका प्रयोग किया गया है।
बाबुराके दानपत्रमें', जो शक संवत् ७८९ ( ई० सन् ८६७ ) का लिखा हुआ है, इस घटनाका उल्लेख है। अभोघवर्ष शक संवत् ७३६ । ई० सन् ८१४ ) में सिंहासनासीन हुआ था और यह दानपत्र शक संवत् ७८९ । ई० सन् ८६७ ) का है । अतएव पाल्यकीर्तिका समय अमोघवर्षका राज्य-काल है । 'अदहदमोघवर्षोsरातीन्' उदाहरणसे अमोघबत्तिके रचयिता पाय्यकीर्तिकी समकालीनता स्पष्ट है।
मि० राईस साहबने चिदानन्द कविक मुनिबंशाभ्युदयनामक कन्नड़काव्यरा एक प्रमाण दिया है। यह कवि मैसूरत चिक्कदेव राजाके समयमें ( ई० सन् १६७२-१७०४ ) हुआ है । बताया है--
"उस मुलिने अपने बुद्धिरूप मन्दराचलसे श्रुतरूप समुद्रका मन्थन कर यशके साथ व्याकरणरूप उत्तम अमृत निकाला। शाकटायनने उत्कृष्ट शब्दानुशासनको बना लेनेके बाद अमोघवृत्तिनामको टीका, जिसे बड़ी शाकटायन कहते हैं, बनाथी, जिसका परिमाण १८००० है। जगत्प्रसिद्ध शाक्टायन मुनिने व्याकरणके सूत्र और साथ ही पूरी वृत्ति भी बनाकर एक प्रकारका पुण्य सम्पादन किया। एक बार अबिद्धकरण सिद्धान्तचक्रवर्ती पद्मनन्दिने मुनियोंके मध्य पूजित शाकटायनको मन्दरपर्वतके समान 'धीर' विशेषणसे विभूषित किया।" ___ गणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्धमानने ई० सन् ११४० में शाकटायनका निर्देश किया है । अतएव शाकटायनका समय उससे पूर्व निश्चित है । रचनाएँ
पाल्यकोति या शाकटायनकी निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ब होती हैं१. अमोघवृत्तिसहित शाकटायनशब्दानुशासन२. स्त्रीमुक्ति । ३. केवलिभुक्ति।
(१) शाकटायनका शब्दानुशासन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय चार पादोंमें विभक्त है। प्रथम अध्यायके प्रथम पादमें १. एपि ग्राफिया एपिडका, जिल्द १, पृ० ५४ । २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १५९ पर उद्धृत । २० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८१ सूत्र, द्वितीय पादमें २२३ सूत्र, तृतीय पादमें १९५ सूत्र और चतुर्थ पादमें १३२३ सूत्र हैं | द्वितीय अध्यायके प्रथम पादमें २२९ सूत्र, द्वित्तीय पादमें १७२ सूत्र, तृतीय पादमें ११३ सूत्र और चतुर्थ पादमें २३९, सूत्र हैं । तृतीय अध्यायके प्रथम पादमें २०१ सूम, द्वितीय पादमें २२७ सत्र, नतीय पादौ १८१ गूत्र और चतुर्थ पादमें १४६ सूत्र हैं । चतुर्थ अध्यायके प्रथम पादमे २७१ सूत्र, द्वित्तीयपादमें २६१ सूत्र, तृतीयपादमें २८९ सूत्र और चतुर्थ पादमें १८६ सूत्र हैं। इस प्रकार प्रथम अध्याय ७२२, द्वितीय अध्यायमें ७५३, तृतीय अध्यायमें ७९५ और चतुर्थ अध्यायम १००७ सूत्र है। इन सूत्रोंकी कुल संख्या ३,२३७ है | यह शब्दानुशासन अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है। रचयित्ताकी अमोघवत्तिके अतिरिक्त प्रभाचन्द्रका 'शाकटायन-न्यास', यक्षवर्माकी चिन्तामणि-टीका', अजितसेनाचार्यको 'मणिप्रकाशिका टोका', अभयचन्द्राचार्यकी 'प्रक्रियाटीका', भावसेन विद्यकी 'शाकटायनटीका', एवं दयापाल मुनिको 'रूपसिद्धि' टीकाएँ पायी जाती हैं। ___ शाकटायनव्याकरण प्रत्याहारशैली में लिखा गया है । इसके प्रत्याहारसूत्रोंकी यह विशेषता है कि इसमें लण्' सूत्रको स्थान नहीं दिया है और 'ल' वर्णको पूर्व सूत्रमें ही रख दिया गया है । इसमें सभी वर्णके प्रथमादि अक्षरोंके क्रमसे अलगअलग प्रत्याहार सूत्र दिये गये हैं। केवल वोके प्रथम वर्गोंके ग्रहणके लिये दो सूत्र है-'पाणिनीयवर्णसमाम्नाय' की भाँति शाकटायनव्याकरणमें भी हकार दो बार आया है। पाणिनीयव्याकरणमें ४१-४३ या ४४ प्रत्याहारसूत्रोंकी उपलब्धि होती हैं। किन्तु शाकटायनमें केवल ३८ प्रत्याहार ही उपलब्ध हैं । इस व्याकरणमें निम्नलिखित प्रत्याहार सूत्र आये हैं
अइउण् ||१|| ऋक् ।।२। एओ ॥३|| ऐओच् ।।४।। हयवरल ।।५।। अमडणनम् ।।६।। जबगडदश ||७|| झभघढधषु ।।८।। खफछठथट् ॥२|| चटत |१०|| कपम् ||११|| शषस अंअः, क, पर् ॥१सा हल् ॥१३॥
यहाँ एक विशेषता यह है कि शाकटायनमें प्रत्याहारसूत्रोंका संग्रह पाणिनि जैसा ही नहीं है, प्रत्युत उन्होंने सूत्रोंमें संशोधन और परिवर्तन किया है । उदाहरणार्थ शाकटायनमें 'ल' स्वरको माना ही नहीं गया है | इसका अन्तर्भाव 'ऋ' वर्ण में ही कर लिया गया है। इसी तरह अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय
और उपध्मानीयकी गणना व्यञ्जनोंके अन्तर्गत की गयी है । पाणिनिने अनुस्वार विसगं जिह्वामूलीय और उपध्मानीयको विकृत व्यञ्जन कहा है। वास्तवमें अनुस्वार मकार या नकार जन्य होनेके कारण व्यञ्जन है । विसर्ग कहीं सकारसे और कहीं रेफसे स्वतः उत्पन्न होता है। अतः यह भी व्यञ्जन है । जिह्वामूलीय और उपध्मानीय दोनों क्रमशः 'क', 'ख, तथा 'प', 'फ' के पूर्व विसर्गके ही
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचर्त्य : २१
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
विकृत रूप हैं । पाणिनिने इन सभी वर्गोका अपने प्रत्याहार स्त्रोंमें जो उनकी वर्णमाला कही जायगी, स्वतन्त्र रूपसे कोई स्थान नहीं दिया। बादक पाणिनीय वैयाकरणोंमेंसे कात्यायनने उक्त चारोंको स्वर और व्यञ्जन दोनोंमें ही परिगणित करनेका निर्देश किया है। शाकटायनव्याकरणमें अनुस्वार, बिसर्ग आदि के मल रूपोंको ध्यान में रखकर ही उन्हें प्रत्याहारसूत्रोंमें सम्मिलिसकर उनके व्यञ्जन होनेकी घोषणा कर दी गयी है।
शाकटायन' व्याकरण में सामान्य संज्ञाएं बहुत अल्प हैं। इत्संज्ञा और 'स्व' (सवर्ण) संज्ञा करनेवाले, बस ये दो ही संज्ञाविधायक सत्र हैं और इस व्याकरणमें अवशेष दो सूत्र ग्राहक हैं । ग्राहक सूत्रोंमें प्रथम सूत्र वह है, जो स्वर (व्यञ्जन भी) से उसके जातीय दीर्घादि वर्गों का बोध कराता है और दूसरा प्रत्याहारबोधवः 'सात्मेतत् ॥ १।१।१ सूत्र है । यह सूत्र अपने में तो अस्पष्ट है, पर अमोघवृत्तिम इतना स्पष्ट कर दिया है कि इसके समझनेमें कठिनाई नहीं होती। इस प्रकार शाकटायनव्याकरणमें संज्ञाविधायक सूत्रोंको बहुत कमी है। संज्ञाप्रकरणमें कुल छह सूत्र हैं, उनमें दो ही सूत्र ऐसे हैं, जिन्हें संज्ञाविधायक माना जा सकता है:
शाकटायनमें "न||१११७०" सूत्रके द्वारा विराममें सन्धि कार्यका निषेध करते हुए अविराममें सन्धिका विधान मानकर इस मूत्रको अधिकारसूत्र बतलाया है । 'अच्' सन्धिके आरम्भमें सबसे पहले अयादि सन्धिका विधान-“एचोऽच्ययवाया ॥१।११७१" सूत्र द्वारा कर दिया है । पश्चात्-"अस्वे ॥१३१७३द्वारा यणसन्धिका निरूपण किया है। इस प्रकार पाणिनिकी अपेक्षा साकटायनमें अयादिसन्धिको प्रमुखता है । शाकटायनके इस क्रमको 'हेमशब्दानुशासन' में भी अपनाया गया है। शाकटायनके १२११८५, १३१४८६, १।१८८, १११३९७, सूत्र हेमके स्वरसन्धिप्रकरणमें ||१५, शरा१८,११२।१७ और शरा३० ज्योंके-त्यों उपलब्ध हैं। प्रकृतिभावप्रकरणको शाकटायनने निषेधसन्धिप्रकरण कहा है और इसमें स्वरसन्धिके अन्तर्गत द्वित्वसन्धिको भी रखा गया है और इसका अनुशासन ९ सूओंमें किया है। शाकटायनव्याकरणमें 'हल सन्धिका विधान करते हुए सलोंको जश करनेकी विधि बतलायी है । यह विधि पाणिनिकी अपेक्षा लाघवपूर्ण है। ___ शब्दसाधुत्वकी प्रक्रियामें शाकटायन पाणिनिके समक्ष होते हुए भी उन्होंने स्वरान्त और व्यञ्जनान्त शब्दोंके साधुत्वमें लाघवप्रक्रियाको स्थान दिया है। शाकटायनमें स्त्रीप्रत्ययान्त शब्दोंका साधत्व प्रायः छोड़ दिया है। जैसे 'दीर्घपुच्छी', 'दीर्घपुच्छा', 'कवरपुच्छो', 'मणिपुच्छी', 'विषपुच्छो', 'उलूकपक्षी', २२ : दीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
'अश्वकृती', मनसाकृती' आदि प्रयोगोंका शाकटायनमें अभाव है। पर शाकटायनके टीकाकारोंने इस कमी को पूरा करनेका प्रयास किया है ।
I
7
शाकटायनव्याकरण में कारककी कोई परिभाषा नहीं दी गयी है और न कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण कारकके लक्षण हो बतलाये गये हैं । इस प्रकरण में केवल अर्थानुसारिणो विभक्तियोंकी हो व्यवस्था मिलती है। शाकटायनने ११३१०० सूत्र द्वारा हा धिक्, समया, निकपा, उपरि, उपर्युपरि अध्यधि अग्रेोऽधो अत्यन्त्य, अन्तरा, अन्तरेण परितः, अभितः और उभयतः शब्दोके योग में अनिभिहित अर्थ में वर्तमान से अम्, औद और शका विधान किया है। यहाँ सीधे द्वितीया विभक्ति का कथन न कर द्वितीया विभक्ति के प्रत्ययोका निर्देश कर दिया है। इसी प्रकार १।३।१२७, १।३।१५२ तथा १।३।१७१ आदि सूत्रोंमें भी विभक्तिसम्बन्धी प्रत्ययोंका निरूपण किया है । यह प्रक्रिया देखने में भले ही गौरव प्रतीत हो, पर है वैज्ञानिक । शाकटायनने तुल्यार्थ में तृतीया और पष्ठीके विधानके लिये पृथक-पृथक सूत्र लिखे हैं ।
1
समासप्रकरण प्रारम्भ करते ही शाकटायनमें बहुव्रीहि समासविधायक सूत्रों का निर्देश है । पश्चात् कुछ तद्धित प्रत्यय आ गये हैं, जिनका संयोग प्रायः बहुव्रीहि समासमें होना है । जैसे—नन्, दुस्, सु उनसे परे प्रजाशन्दान्त बहुश्रीहिसे 'अम्' प्रत्यय नन् दुस् तथा अल्पशब्द से परे मेधादान्त बहुव्रीहिसे अम् प्रत्यय जातिशब्दान्त बहुबीहिसे छ प्रत्यय एवं धर्मशब्दान्त बहुव्रीहिसे 'अन्' प्रत्यय होता है । इसके पश्चात् बहुव्रीहि समास में पुंवद्भाव, ह्रस्व आदि अनुशासनका नियमन है । सुगन्धि, पूतगन्धि, सुरभिगन्धि, घृतगन्धि, पद्मगन्धि आदि सामासिक प्रयोगोंके साधुत्व के लिये 'इत्' प्रत्ययका विधान किया है । इस व्याकरण में बहुव्रीहिसमासका अनुशासन समाप्त होनेके बाद ही अव्ययीभावप्रकरण आरम्भ होता है तथा युद्ध वाच्य में ग्रहण और प्रहरण अर्थ में केशाकेशी और दण्डादण्डिको अव्ययीभाव समास माना है । यतः शाकटायन के मतानुसार अव्ययीभावसमासके तीन भेद हैं- ( १ ) अन्यपदार्थप्रधान, (२) पूर्वपदार्थप्रधान, (३) उत्तरपदार्थप्रधान । अतः "केशाश्च केशाश्च परस्परस्य ग्रहणं यस्मिन् युद्धे" जैसे विग्रहवाक्यसाध्य प्रयोगों में अन्यपदार्थप्रधान अव्ययीभावसमास होता है । इस प्रकार शाकटायनमें समाससम्बन्धी नियमन विशेष रूपमें पाया जाता है ।
शाकटायनव्याकरणमें समासके पश्चात् तद्धित प्रकरण आरम्भ होता है । इस प्रकरणका पहला सूत्र है, 'प्राग्जितादण् ॥ २४४॥ प्रत्ययका नियमन शाकटायनने पाणिनिके समान ही किया है और प्रायः के ही प्रत्यय प्रयुक्त हैं, जिनका पाणिनिने अनुशासन किया है। इतना होने पर भी शाकटायनने पाणिनिकी
प्रबुचाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २३
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपेक्षा लाघवको महत्त्व दिया है और कई नये शब्द दिये गये हैं। तिङन्त प्रकरणमें "क्रियाओं धातुः' सूत्रको धातुसंज्ञक अधिकारसूत्र बतलाया है और पाणिनिकी लकारप्रक्रियाके अनुसार क्रियारूपोंका साधुत्व दिखलाया गया है। कृदन्तप्रकरण पाणिनिके तुल्य होनेपर भी नियमनमें कई विशेषताएँ हैं। इस प्रकार शाकटायन-शब्दानुशासन कई मौलिक मान्यताओंसे सम्पृक्त है । स्त्रीमुक्ति-प्रकरण इसे दुकान ग्र-
प्र सारिकाएं हैं। वाकटायनने श्वेताम्बर सम्प्रदायानुसार मान्य तर्क द्वारा स्त्रीमुक्तिका समर्थन किया है। प्रभाचन्द्राचार्यने प्रमेयकमल-मार्तण्ड नामक अपने तकग्रन्थमें इन कारिकाओंको पूर्वपक्षके रूपमें उपस्थितकर स्त्रीमुक्तिका निरसन किया है। यहाँ उदाहरणार्थ कुछ कारिकाएँ प्रस्तुत की जाती हैं
अस्ति स्त्रीनिर्वाणं पुंवत्, यदविकलहेतुकं स्त्रीषु । म विरुध्यति हि रत्नत्रयसंपद् निर्वृतहतुः । रत्नत्रय विरुद्ध स्त्रीत्वेन यथाऽमरादिभावेन ।
इति वाङ्मात्र नात्रं प्रमाणमाप्ताऽऽगमोज्यद् वा ॥ केवलिभुक्ति-प्रकरण
इसमें ३७ कारिकाएँ हैं। प्रभाचन्द्रने पूर्वपक्षक रूपमें केवली-कवलाहारखण्डन में इसी ग्रन्थकी कारिकाओंको उद्धृत किया है। कारिकाएँ तार्किकली में लिखी गयी हैं । यहाँ दो-तीन कारिकाएँ उद्धृत की जाती है
अस्ति च केवलिभुक्तिः समग्रहेतुर्यथा पुरा भुक्तेः । पर्याप्ति-वेद्य-तैजस-दीर्घायुष्कोदयो हेतुः ॥१॥
आहारविषयकाङ्क्षारूपा क्षुद् भवति भगवति बिमोहे । कथमन्यरूपताऽस्या न लक्ष्यते येन जायेत ॥ ६ ॥ x x
x न क्षुद् विमोहपाको यत् प्रतिसंख्यानभावननिवर्तया । न भवति विमोहमाकः सर्वोऽपि हि तेन विनिवर्त्यः ।।७।।
१. स्त्रीमुक्ति प्रकरण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, शाफ्टायनव्याकरणके अन्तर्गत.
कारिका २, ३ । २. केवलभुक्तिप्रकरण, का० १,६,७। भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, शाकटायन
व्याकरणके अन्तर्गत ।
२४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजशेखरने पाल्यकीतिके वचनोंको उद्धृत किया है, जिससे अवगत होता है कि इनका कोई काव्यशास्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ भी रहा है। बताया है.--"वस्तुका स्वरूप चाहे जैसा भी हो, सरसता तो कविकी प्रकृतिके आधारपर है । अर्थात् कविको प्रकृति सरस है, तो उसे सरस बना देता है और कामको प्रकृति रूक्ष या नीरस हो, तो सरस वस्तु भी नीरस हो जाती है। अनुरक्त व्यक्ति जिस वस्तुकी स्तुति करता है, विरक्त व्यक्ति उसीको निन्दा करता है और मध्यस्थ व्यक्ति उस सम्बन्धमें उदासीन रहता है। बताया है-"यथा तथा वास्तु वस्तनो रूप, वक्तुप्रकतिविशेषायत्ता तु रसवत्ता। तथा च यमर्थ रक्तः स्तोति तं विरक्तो बिनिन्दति मध्यस्थस्तु तत्रोदास्ते इति पाल्यकोतिः ।" वादीसिंह
श्रेण्य-गद्य-संस्कृत-साहित्यमें जो स्थान महाकवि बाणका है, जन-संस्कृतगद्य-साहित्यमें वही स्थान वादीभसिंहका । कवि बादीसिंहने गद्यचिन्तामणि जैसा गद्यकाव्यका उत्कृष्ट ग्रन्थ लिखकर जैन संस्कृत-काव्यको अमरत्व प्रदान किया है। डॉ० कोषने लिखा है
'कादम्बरीसे प्रतिस्पर्धा करनेका दसरा प्रयत्न ओडयदेव ( बादीसिंह ) के गद्यचिन्तामणिमें परिलक्षित होता है। उनका उपनाम वादीसिंह था । वे एक दिगम्बर जैन थे और पूष्पसेनके शिष्य थे। जिनकी प्रशंसा इन्होंने अपनी रचनामें अत्युक्तिपूर्ण शैलीमें की है। इनकी रचनाका सम्बन्ध जीवक अथवा जीवन्धरके उपाख्यानसे है, जो जीवन्धरचम्पका भी प्रतिपाद्य विषय है। इन्होंने बाणका अनुकरण किया है, यह बात बिल्कुल स्पष्ट है। मनोषी शुकनास द्वारा युवक चन्द्रापीडको दिये गये उपदेशको अधिक सुन्दररूपमें प्रस्तुत करनेका प्रयत्न भी सम्मिलित है।'
कविका वादीसिंह यह नाम वास्तविक नाम नहीं, उपाधिप्राप्त नाम हैं। वास्तविक नाम तो ओडयदेव है। गर्याचन्तार्माणको तंजौर वाली पाण्डुलिपि की प्रशस्तिम' यही नाम अंकित मिलता है । यद्यपि प्रशस्तिके ये पद्य सभी पाण्डुलिपियोंमें नहीं मिलते, तो भी उपलब्ध पाण्डुलिपिके प्रशस्ति-पद्योंकी
१. History of sanskrit Litrature by Keith, London. 1941, Page 331. २. श्रीमद्वादीभसिंहेन गद्यचिन्तामणिः कृतः ।
स्थेयादोडयदेवेन चिरायास्थानभूषणः । स्थेयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृतः । गद्यचिन्तामणिलॊके चिन्तामणिरिवापरः ॥ --गधचिन्तामणि प्रशस्ति, पृ. २५७, श्रीरंगम् १९१६ ई० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकापार्य ; २५
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपेक्षा नहीं की जा सकती है । जब तक कविका वास्तविक नाम किसी सबल प्रमाणके आधार पर कोई दूसरा सिद्ध नहीं होता, तब तक ओडयदेव मान लेना तर्कसंगत ही है । निवासस्थान
afa बादसिंह
वासस्थान के सम्बन्ध में जो अभी एक विवाद है, पण्डित के० भुजवली शास्त्री' इन्हें तमिल या द्रविड प्रान्तका निवासी मानते हैं। वी० शेष गिरि रावने कलिंग (तेलुगु) के गंजाम जिलेके आस-पासका निवासी बताया है । गाम जिला मद्रासके उत्तर में है और अब उड़ीसा में सम्मिलित कर दिया गया है । यहांवर ओडेय और गोडेय दो जातियाँ निवास करती हैं । सम्भवतः वादसिंह ओडेय जातिके रहे होंगे। गञ्जाम जिलेमें प्रचलित लोक कथाओं में जीवन्वरचरित आज भी उपलब्ध होता है। तमिल भाषामें जो लोक कथाएँ प्रचलित हैं, उनमें जीवन्धरको कथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। तमिल भाषा के जीवकचिन्तामणि - काव्य के कर्त्ता तिरुत्तक्कदेव नामक कवि हैं, जिनका निवासस्थान तमिलनाड है । अत: हमें श्री शेषगिरि रावका मत अधिक समीचीन प्रतीत होता है । तञ्जीरमें गद्यचिन्तामणिको पाण्डुलिपियोंका प्राप्त होना भो इस बातको ओर संकेत करता है कि कविका निवास तमिलनाडमें या उसके आस-पास किसी स्थानमें होना चाहिये ।
गुरु
ओडयदेव या वादीर्भासने गद्यचिन्तामणिके प्रारम्भमें अपने गुरुका नाम पुष्पसेन लिखा है और बताया है कि गुरुके प्रसादसे ही उन्हें वादीभसिंहता और मुनिपुंगवता प्राप्त हुई । कविने गद्यचिन्तामणिके मंगलवाक्योंमें अपने गुरुका स्मरण निम्न प्रकार किया है
श्रीपुष्यसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो दिव्यो मतुम सदा हृदि संभिदध्यात् । यच्छक्तितः प्रकृतिमूढमतिर्जनोऽपि वादीभसिंहमुनिपुङ्गवतामुपैति ॥
इससे स्पष्ट है कि पुष्पसेन कविके काव्यगुरु ही नहीं थे, अपितु वे विद्या और दीक्षा गुरु भी थे ।
समय - निर्णय
बादीभसिंहके समय निर्णयके सम्बन्ध में विद्वानोंमें पर्याप्त मतभेद है। अभी
१. जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ६, किरण २, ०७८-८७ ।
२. वहीं, भाग ८, किरण २, पृ० ११७ ।
३. गद्य चिन्तामणि, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, १०६ ।
२६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
तक उपलब्ध साहित्यमें इनकं समयक सम्बन्धमें निम्नलिखित विचार-धाराएँ प्राप्त होती हैं
१. ई० सन् १७७०-८६० ई० की मान्यता २. विक्रमको ११वीं शतीके प्रारम्भकी मान्यता ३. ग्यारहवीं शतीके उत्तरार्द्धकी मान्यता ४. बारहवीं शत्तीकी मान्यता
(१) प्रथम मान्यताके पोषक पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री और डा० प्रो० दरबारीलाल वोटिया है। आप दोनों महानुभावाने जिनसेनके आदिपुराण (ई० मन् ८३८), नादिराजके पार्श्वनाथचरित' ( ई० सन् १०२५ ) एवं लघु समन्तभद्रके आटसहस्रीटिप्पण" ( विक्रम १३वीं शतो) के वादोभसिंहविषयक उल्लेखोंके आधारपर उनका समय ई० मन् ८-९वीं शती माना है। डा० दरबारीलाल कोठियाने 'स्वावादसिद्धि' के संदर्भाशोंके साथ जयन्तभट्टकी 'न्यायमन्जरी', कुमारिलके 'मीमांसाश्लोकवातिक' एवं बौद्ध दार्शनिक शंकरानन्दकी 'अपोसिद्धि' और 'प्रतिबन्धसिद्धि' के तुलनात्मक उद्धरण प्रस्तुत कर वादीमिदका समय ई० सन ७५०-८६० के मध्य सिद्ध किया है। डॉ० कोठियाने श्री कैलाशचन्द्र शास्त्रीके समान ही वादीसिंह और बादीभसिंहको एक ही विद्वान् स्वीकार किया है ।
पण्डित नाथूराम प्रेमी भी वादिसिंह और बादीभसिंहको एक ही व्यक्ति मानते थे। पर जैन साहित्य और इतिहासके द्वितीय संस्करणमें उक्त दोनों नामोंको एक ही मानने में अस्वीकृति प्रकट की है। पर प्रेमीजीने इस मत-परिवर्तनका कोई कारण नहीं बतलाया है।
(२) द्वितीय मान्यताके समर्थक विद्वानोंमें पण्डित नाथूराम प्रेमी और टी.
-
-
-
-
१. न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रस्तावना, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पृ० १११ । २. स्याद्वादसिद्धि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, प्रस्तावना, पृ० ११ । ३. कवित्वस्प परा सीमा वाग्मित्वस्य परं पदम् । गमकत्वस्य पर्यन्ता वादिसिंहोऽयंते न कः ।।
--महापुराण ( भारतीय ज्ञान० १९५१ ) ११५४ ४. स्पाद्वादगिरमाश्रित्य वादिसिंहस्थ गजिते। ___ दिग्नागस्य मदध्वंसे कीर्तिभंगो न दुर्घटः । —पार्श्व ११२१ । ५. तदेवं महाभागस्ताकिका रुपज्ञातां श्रीमता वादीसिंहेनोपलालितामासमीमांसामल
विकीर्षवः स्याद्वादोद्भासिसत्यवाक्यमाणिक्यमकारिकापटमदेकटकारा: सूरयो........... प्रतिज्ञाश्लोकमेकमाह-अष्टसहस्री-टिप्पण, पृ०१।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २७
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
एस० कुप्पुस्वामी शास्त्री प्रमुख हैं । उक्त दोनों विद्वानोंने “अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती" परिमल कविकी इस धारानरेश भोज सम्बन्धी उक्तिका पूर्वार्द्ध सत्यन्वर महाराजके शोकके प्रसंग में गद्यचिन्तामणिमें प्राप्त कर वादीभसिंहका समय भोजदेव के पश्चात् माना है । भोजदेवका राज्यकाल विक्रम संवत् १०७६ से वि० संवत् १९९२ माना जाता है । अतएव पण्डित प्रेमी और कुप्पुस्वामी शास्त्री दोनों ही विद्वान् वादीभसिहको वि० सं० को ११वीं शताब्दीका आचार्य मानते हैं ।'
(३) ११वीं शतीकी उत्तरार्द्धसम्बन्धी मान्यताके समर्थक श्री पण्डित के० भुजबली शास्त्री हैं । इन्होंने अजितसेनको वादोभसिंहका ही अपर नाम मानकर, उनका काल ११ वीं शताब्दीका उत्तराद्धं माना है । शास्त्रीजीका दूसरा तर्क क्षत्रचूड़ामणिके— “राजतां राजराजोऽय राजराजी महादयः । तेजसा यता शूरः क्षत्रचूडामणिर्गुणैः ॥ " पद्यमें आया हुआ 'राजराज' पद है। इस पदको शास्त्रीजी ने श्लेषात्मक मानकर चरितनायक जोवन्धरके अतिरिक्त तत्कालीन शासक राजराजसे सम्बद्ध' माना है । यह शासक चोलवंशी 'राजराज हो सकता है । चोल राजाओं में इस नामके दो व्यक्ति हुए हैं। प्रथम राजराजका काल ई० सन् ९८५-१०१२ तक तथा द्वितीयका ई० सन् १९४६-११७८ तक माना गया है। शास्त्रीजीने द्वितीय राजराजका ही वादीभसिंहको समकालीन माना है । तथा उन्होंने श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० ५४, ३, ४० और ३७ द्वारा अपने तथ्यांकी पुष्टि की है । अन्तिम निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है - "मेरे पूर्व कथनानुसार जब वादी सिंहका समय ११वीं शताब्दीका उत्तराद्धं निर्विवाद सिद्ध होता है, तब वादोभसिंहको दशम शतकका मानना ठीक नहीं है ।'
Iry
" मेरे इस अनुमानको श्रीयुत् स्व० आर० नरसिंहाचार्य और श्रीयुत् प्रोफेसर एस० श्रीकण्ठशास्त्री इन दोनों पुरातत्त्वविशारदाने स्वीकार किया है । परन्तु पूर्वोक्त अपने-अपने निर्धारित समयानुकूल आर० नरसिंहाचार्य वादीभसिंहको द्वितीय राजराजका समकालीन एवं प्रो० एस० श्रीकण्ठशास्त्री प्रथम राजराजका समकालीन मानते हैं । शास्त्रीजीका कहना है कि द्वितीय राजराजकी अपेक्षा प्रथम राजराज बहुत प्रसिद्ध था, पर मेरे जानते यह कोई सबल तर्क
१. जैन साहित्य और इतिहास, बम्बाई १९५६, पृ० ३२५ ।
२. क्षेत्रचूडामणि, ११।१०६ ।
३. जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ६, किरण २, पृ० ७८-८७ तथा भाग ७, किरण १ पु० १-८ ।
४. वही भाग ६, किरण २, पृ० ८६ ।
२८ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
नहीं है, क्योंकि ग्रन्थकर्ताको, तो प्रायः प्रसिद्ध अथवा अप्रसिद्ध तत्कालीन शासकका उल्लेख कर देना भर ही ध्येय रहता है।
स्पष्ट है कि पण्डित के० भुजबली शास्त्री वादीसिंहका समय ११वीं शतीका उत्तरार्द्ध मानते हैं।
(४) १२वीं शताब्दीकी मान्यता संस्कृत-साहित्यके इतिहास लेखक श्रीराम कृष्णामाचारियरकी है। इन्होंने श्री कृष्पस्वामीने तर्कके आधारपर ही भोजका रा-यकाल १२वीं सदी मानकर अपना अभिमत प्रकट किया है। लिखा है-"King Bhaja flourished in the 11th century A. D. and Vadibluubingia who inust have therefore come after tim way be orgsigned to the 12th century A. D.2 समालोचन
उपयुक्त अभिमतोंपर विचार करनेसे तथा बादीसिंहकी कृतियोंके अवलोकनसे ऐसा प्रतीत होता है कि महाकवि वादीसिंहके समयके सम्बन्धमें विद्वानोंने पर्याप्त ऊहापोह किया है। द्वितीय मतके प्रवर्तक श्रीप्रेमीजी और कुप्पु स्वामीने परिमल कविकी उक्तिकी छाया गचिन्तामणिमें प्राप्त की है। पर यह मान्यता निःसार है । गद्यचिन्तामणिके समस्त सन्दर्भका अवलोकन करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि वादीभसिंहका उक्त गद्य-खण्ड अपनेमें मौलिक
और पूर्ण है, बह किसीका अनुकरण नहीं है। प्रमीजी एवं कुप्पु स्वामी उक्त सन्दर्भाशको सत्यन्धर महासजके शोकके प्रसंगमें बतलाते हैं, पर वस्तुत: वह सन्दर्भ उस समयका है जबकि जोबन्धरने काष्ठांगारके हाथीको कड़ा मारा था, जिससे काष्ठांगार क्रोधित हुआ । गन्धोत्कटने जीवन्धर स्वामीको बांधकर काष्ठांगारके पास भेज दिया और उसने उनके प्राण-वधका आदेश दिया, तो समस्त नगरमें शोक व्याप्त हो गया और नगरवासी सन्तापसे मग्न हो कहने लगे
"अद्म निराश्रया श्रीः, निराधारा धरा, निरालम्बा सरस्वती, निष्फलं लोकलोचनविधानम्, निस्सार: संसारः, नीरसा रसिकता, निरास्पदा वीरता, इति मिथः प्रवतंयति प्रणयोद्गारिणी वाणी, सखेदायां च खेचरचक्रवर्तिदुहितरि दयितविमोक्षणाय.......|" १. जैन सिद्धांत भास्कर, भाग ७, किरण १, पृ० ७ । . History of classical Sanskrit literature by MKrislicna machari
yar, Mat +57 Madras 1937. ३. डॉ. दरबारीलाल कोठियाने इस तथ्यका उद्घाटन स्याहादसिद्धिकी प्रस्तावना
पृ. २७ में किया है। ४. गद्यचिन्तामणि, पंचम लम्ब, पृ० १३१, श्रीरंगम, १९१६ ई० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोफ्काचार्म : २५
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
यदि उक्त सन्दर्भाशमें परिमल कविके पद्यकी छाया मानी जाय, तो गद्यके रूपमें "निराश्रया श्रीः" यह पद पहले नहीं आता। अतः बहुत सम्भव है कि परिमल कविने ही गद्यचिन्तामणिके उक्त सन्दर्भके आधारपर अपने पद्यको रचा हो । परिमल कविकी रचनापर पूर्ववर्ती कवियोंका ऋण सुस्पष्ट है । अतः वादीभसिंहपर परिमलका ऋण न स्वीकार कर परिमलपर ही वादीभसिंहका ऋण स्वीकार करना अधिक उचित है । ऐसा मान लेनेसे आदिपुराण और पार्श्वनाथचरितके उल्लेखोंका भी औचित्य सिद्ध हो जाता है।
महाकवि वादीसिंहने अपने क्षत्रचूड़ामणि और गद्यचिन्तामणिमें क्षत्रियकुलचूड़ामणि जीवन्धरका चरित निबद्ध किया है। इस चरितका आधार कोई पुराणग्रन्थ अवश्य है। मुझे डॉ० प्रो०.दरबारीलाल कोठियाका यह अनुमान ठीक मालूम पड़ता है कि कविने उक्त कथानक कवि परमेष्ठीके 'वागर्थ-संग्रह' से लिया हो । जीबचिन्तामणि ग्रन्धका निर्माण तो निश्चयतः क्षत्रचूड़ामणि समक्ष रखकर ही किया गया है। श्री प्रमोजोने लिखा है-"तमिलसाहित्यके विशेषज्ञ पण्डित स्वामीनाथैयाका मत है कि इस ग्रन्थकी रचना क्षत्रचूड़ामणि और गधचिन्तामणिकी छाया लेकर की गयी है और श्री कुप्पुस्वामी शास्त्री अपने सम्पादित किये हुए क्षत्रचूड़ामणिमें इस तरहके छायामूलक बीसों पद्य टिप्पणके रूपमें उद्धृत करके इस बातकी पुष्टि भी की है ।" __ तमिल विद्वानोंने तिरुत्तक्कदेवका समय ई० सन्की १०वीं शताब्दी माना है । अत: वादीसिंहका समय इनसे पूर्व सुनिश्चित है। वादीभसिंहने गद्यचिन्तामणिमें जिस कथाके आधारका निरूपण किया है उस सम्बन्धमै उन्होंने स्वयं ही गणधर द्वारा प्रथित परम्पराका निर्देश किया है
इत्येवं गणनायकेन कथितं पुण्यासवं शृण्वता तज्जीवन्धरवृत्तमत्र जगति प्रख्यापितं सूरिभिः । विद्यास्फूतिविधायिधर्मजननीवाणीगुणाभ्यर्थिनां
वक्ष्ये गद्यमयेन वाङ्मयसुधावर्षेण वाक्सिद्धये ॥ श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने वादीसिंहका दूसरा नाम अजित्तसेन माना है, पर अजितसेनके गुरुका नाम पुष्पसेन नहीं मिलता। शास्त्री जीने खींचतान कर एक पुष्पसेनको अजितसेनका गुरु सिद्ध करनेका आग्रास किया है, पर आश्चर्य
१. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३२५ । २. गयचिन्तामणि, १।१५।।
३० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह है कि उन पुष्पसेनका अजितसेन नामका कोई शिष्य ही नहीं है। उनके शिष्यका नाम बासुपूज्य सिद्धान्तदेव मिलता है। साथ ही अजितसेन और पुष्पसेनके स्थिति-कालके एक होनेमें भी बाधा है। अजितसेनके सम्बन्धमें कहीं भी ऐसा निर्देश नहीं मिलता कि वे महाकवि या काव्यग्रन्धोंके निर्माता थे। गद्य चिन्तामणि जैसे श्रेष्ठ गद्य-काव्यके निर्माताके रूपमें मल्लिषेण-प्रशस्तिमें उनका उल्लेख अवश्य ही होना चाहिए था, जबकि इस प्रशस्तिमें उनकी प्रशंसा लगभग ५० पंक्तियोंमें की गयी है। एक दूसरी बात यह भी है कि जिन अजितसेनको शास्त्रीजी वादीभसिंह कहते हैं वे अजित्तसेन दार्शनिक विद्वान् हैं, कवि नहीं । अत: के० भुजबली शास्त्री द्वारा समर्थित वादीभसिहका समय तर्कसंगत नहीं है। __ श्री कृष्णमाचारियरने जो अपना अभिमत प्रकट दिया है, उसका आधार तो श्री टी० एस० कुप्पु स्वामी द्वारा प्रस्तुत तर्क ही है। अतएव वादीभसिंहका समय डा० प्रो० दरबारीलाल कोठिया द्वारा समश्रित ही तकसंगत प्रतीत होता है। श्रीमान पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीने अकलंकदेबका गुरुभाई पुष्पसेनको माना है। इन्हीं पुष्पसेनके शिष्य बादीभसिंह थे। अतः जिनसेन और वादिराज द्वारा उल्लिखित वादिसिंह ही वादोभसिंह है, इसमें कोई सन्देह नहीं । संक्षेपमें समस्त प्रमाणोंका अध्ययन करनेसे यही निष्कर्ष निकलता है कि बादीभसिंहका समय नवम शती है । रचनाएँ
वादी सहकी दो ही रचनाएँ उपलब्ध हैं—(१) क्षत्रचूड़ामणि और (२) गद्य चिन्तामणि । तीसरी रचना स्याद्वादसिद्धि इनकी बतायी जाती है, पर इसे अजित्तसेनकी होना चाहिए। अतः मेरी दृष्टि में इसके कर्ता संदिग्ध हैं।
१. क्षत्रचुडामणि-क्षत्रचूड़ामणि अनुष्टुप् छन्दोंमें लिखित एकार्थक प्रवन्धकाव्य है । इस काव्यमें ११ लम्ब हैं और जीवन्धरस्वामीकी कथा वर्णित है। नीति और सूक्तिवाक्योंके कारण यह काव्य अत्यन्त सरस है। कथावस्तु
हेमांगद देशको राजधानी राजपूरीमें महाराज सत्यन्धर राज्य करते थे। ये अपनी महारानी विजया में अत्यासक्त थे। अतः राज्यका भार मंत्री काष्ठागारको सौंप दिया। कृतघ्न काष्ठांगारने राज्यतृष्णाके वशीभूत होकर राज्य पर अपना अधिकार कर लिया । युद्धभूमिमें क्षात्र धर्मका पालन करते हुए सत्यन्धर काम आये। महाराजकी रानी विजया गर्भिणी थी, अतएव राजवंशकी आशाके एकमात्र केन्द्र गर्भस्थ शिशुके संरक्षणार्थ महाराजने पहलेसे ही आकाश
प्रबुद्धाचार्म एवं परम्परापोषकाचार्य : ३१
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
में उड़ने वाला मयूरयंत्र बनवाया था और उसमें युद्धको विकट स्थितिके समय महारानीको बैठाकर आकाश में उड़ा दिया गया । सौभाग्यवश वायुयान श्मशान भूमिमें पहुँचा और वहीं महारानीके एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ । महारानी तपस्वियों के आश्रम में रहकर अपना समय व्यतीत करने लगी और पुत्रका पालन गन्धोत्कटके यहाँ होने लगा । वालक जीवन्धरने आर्यनन्दि नामक आचार्य से विद्या ग्रहण की । तरुण होने पर कुमारको ज्ञात हुआ कि मैं क्षत्रियपुत्र हूँ । मेरे राज्यका अधिकारी काष्ठांगार बन गया है । अतएव अवसर पाकर वीरशिरोमणि जीवन्धरने काष्ठागारको मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लिया । बहुत समय तक वैभव-विभुतिका आनन्द प्राप्तकर स्थायी शान्ति प्राप्तिके हेतु जीवस्वर अपने पुत्र वसुन्धरको राज्यका भार सौंपकर प्रव्रजित हो गये और भगवान् महावीरके समवशरणमें रहकर कर्मोकी निर्जरा कर मुक्तिलाभ प्राप्त किया ।
I
कवि कथावस्तुको वहुत ही सुन्दर रूपमें ग्रथित किया है । प्रत्येक पद्य में प्रायः अर्थान्तरन्यास अलंकार पाया जाता है। नीति और सूक्तियों का तो यह सागर है । शिक्षा सम्बन्ध में कहा गया है— 'अनवद्या हि विद्या स्यात् लोकद्वयफलावहा' ( ३।४५ ) अर्थात् निर्दोषज्ञान ही इस लोक और परलोकमें फलदायी है । इसकी पुष्टिमें कविने दूसरी उक्ति में बतलाया है - 'हेयोपादेयविज्ञानं नो चेद् व्यर्थः श्रमः श्रुती' ( २१४४ ) यदि य-उपादेयरूप विवेकबुद्धि जागृत न हुई तो शास्याभ्यास में किया गया श्रम व्यर्थ है । कविने निर्धनताका सफल चित्रण करते हुए लिखा है
दारिद्र्यादपरं नास्ति जन्तूनामप्यरुन्तुदम् । अत्यक्तं मरणं प्राणैः प्राणिनां हि दरिद्रता || रिक्तस्य हि न जागति, कीर्तनीयोऽखिलो गुणः 1 हन्त किं तेन विद्यापि विद्यमाना न शोभते ॥"
+
निर्धनतासे बढ़कर संसारमें अन्य कोई भी कष्टदायक वस्तु नहीं है। यह प्राण ही नहीं लेती, पर अन्य सभी प्रकारके कष्टोंको प्रदान करती है। वस्तुतः यह विपत्तियोंका घर है ।
निर्धन व्यक्ति के प्रशंसनीय सम्पूर्ण गुण जागृत नहीं होते और तो क्या विद्यमान गुण भी शोभित नहीं होते ।
कवि विषयासक्तिके दुष्परिणाम, वृद्धावस्था, उदारता, आत्मनिरीक्षण, आत्मोद्वार, विपत्ति, वैराग्य, सज्जन - दुर्जन स्वभाव आदिका सफल चित्रण किया है । इस काव्यमें गर्भित सूक्तियोंका सांस्कृतिक अध्ययन करने पर ८ वीं, ९ वीं शताब्दीकी अनेक मान्यताएँ मुखरित हो उठती हैं ।
१. क्षत्रचूडामणि ३६, ७ ।
३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
२. गद्य-चिन्तामणि
यह गद्यकाव्य है। इसकी भी कथावस्तु पूर्वोक्त क्षत्रचूड़ामणिकी कथा ही है। कविने कथानकको ११ लम्बोंमें विभक्त किया है। कविकी मद्यशैली कादम्बरीकी गद्यशलीके समान है। कविने इस कथामें काव्यत्वका पूर्णतया समावेश किया है। पात्रोंके चरित्र भी जीवन्तरूपमें चित्रित हुए हैं। इस कृतिमें अप्रतिम कल्पना-वैभव, वर्णच-पटुता और मानव-मनोवृत्तियोंका मार्मिक निरीक्षण पाया जाता है। महाराज गभर काष्ठांगारक सामान सुनमा आशा-निराशाके द्वन्द्व में पड़ जाते हैं। उनकी इस द्वन्द्वात्मक विचारधाराका कविने हृदयग्राही चित्रण किया है।
प्रासाद, नगर, वन, श्मशान, राजसभा एवं पूर्वभवावलीका ब्यौरेवार चित्रण किया गया है। वर्णन-विविधताके साथ भावानुकूल भाषाका प्रयोग भी श्लाघ्य है। "बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम्' की उक्ति इस ग्रन्थके समक्ष झूठी प्रतीत होती है। कविने भाषाका प्रयोग रमणीय और भावोंके अनुसार दीर्घ समास एवं अल्प समासके रूपमें किया है। जहाँ विषय भाव-प्रधान मार्मिक अथवा गम्भीर होता है वहाँ शैली बड़ी हो सशक्त एवं प्रभावोत्पादक पायी जाती है। जब जीवन्धर अपने राज्यको पुनः प्राप्त करनेके लिए काष्ठांगारपर आक्रमण करता है, उस समय काष्ठांगारका रौद्र रूप दर्शनीय है यथा
“स रुष्टः काष्ठांगारः क्रोधवेगस्फुरदोष्ठपुटतया निकटवर्तिनो निजाह्वानकृते कृतागमान्कृतान्तदूतानिव स्वान्तसन्तोषिभिः सान्त्वयन्वचोभिः नातिचिरभाविनरकावसथेभवदवतमसप्रवयमिवात्मानं प्रतिग्रहीतुकाममागतं करालं कालमेघाभिधानं करिणमारुह्य रोषाशशक्षणि विज़म्भमाणशोणेक्षणतीक्ष्णाचिकटाच्छन्नाङ्गतया सप्ताचिषि निमज्जयन्निजस्वामिद्रोहभावं विभावयित्तुं सत्यापयन्निव सत्यन्धरमहाराजतनयाभिमुखमभोयाय । . . .
कवि जिस समय किसी उत्सव या विलासका चित्रण करता है उस समय उसकी शेली अपेक्षाकृत क्लिष्ट एवं प्रगाढ़ हो जाती है । दीर्घकाय समास, विपुल वाक्य, विशिष्ट एवं श्लिष्ट पदावली चित्रकाव्यके समस्त माधनोंको उपलब्ध कर देती है । जीवन्धरके जन्मोत्सवका चित्रण करता हुआ कवि कहता है
"यस्मिश्च जातवति जातपिष्टातकमष्टिवर्षपिञ्जरितहरिम्मुखमुन्मुखकुब्जवामनहठाकृष्यमाणनरेन्द्राभरणं प्रणयभरप्रवृत्तवारयुवतिबर्गबल्गनरणितमणिभूपणनिनदरितहरिदवका निमर्यादमदपरवापण्ययोपिदारलेगलज्जभानगजवल्लभं · · · · · · १. गद्यचिन्तामणि, दशम लाय, प० २१९ । २. वही, प्रथम लम्ब, पृ० ४३ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३३
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
वस्तुतः गद्यचिन्तामणिकाव्यका महत्त्व कथानकगठन, चरित्रचित्रण, वस्तु-विन्यास एवं रसोन्मेषमें है। ३. स्याद्वादसिद्धि ___ महाकवि बादोभसिंहकी एक तीसरी कृति स्याद्वादसिद्धिनामक न्यायरचना भी मानी जाती है। डॉ० प्रो० दरबारीलाल कोठियाने इस कृतिका सम्पादन किया है और माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बम्बई द्वारा यह प्रकाशित है। कोठियाजोने इसे महाकवि वादीभसिंहकी रचना बतलायी है। पर मेरा विचार है कि यह कार पादाकवि नाटीभगिहाली न होकर अजितसेनकी है। अजितसेनको उपाधि वादीभसिंह थी और मल्लिघेण-प्रशस्तिके अनुसार ये दावानिक आचार्य थे। अतएव इस रचनाके कर्ता ओडयदेव वादीसिंह न होकर अजितसेन वादीसिंह हैं। __ सत्रचूड़ामणि और गद्यचिन्तामणिको परम्परा इसमें उपलब्ध नहीं है। इन दोनों ग्रन्थोंके मंगलाचरणमें कविने 'श्रीपति' शब्दका प्रयोग किया है, पर स्याद्वादसिद्धिका मंगलाचरण उक्त दोनों अन्थोंको मंगलाचरणशैलीसे भिन्न शैलीमें निबद्ध है। __ तीसरी बात यह है कि 'गद्यचिन्तामणि' और 'क्षत्रचूड़ामणि' के अध्ययनसे वादीसिंहके दार्शनिक और तार्किक ज्ञान पर कुछ भी प्रकाश नहीं पड़ता है। यदि ओड़यदेव वादीभसिंह स्याद्वादसिद्धिके रचयिता होते तो इन रचनाओंमें दार्शनिक तथ्य अवश्य सम्मिलित रहते । अतएव स्याद्वादसिद्धिके रचयिता अजितसेन वादोभसिंह हैं, ओडयदेव वादीभसिंह नहीं । महावीराचार्य ___भारतीय गणितके इतिहासमें महावीराचार्यका नाम आदरके साथ लिया जा सकता है। जैन गणितको व्यवस्थित रूप देनेका श्रेय इन्हींको प्राप्त है। महावीराचार्यकी गुरुपरम्परा और जीवनवृत्तके सम्बन्धमें कुछ भी सामग्री उपलब्ध नहीं है। इन्होंने ग्रन्थके आरम्भमें अमोघवर्ष नपतुंगके सम्बन्धमें प्रशंसात्मक विचार व्यक्त किये हैं। इन विचारोंसे महावीराचार्यके समय पर तो प्रकाश पड़ता है, पर उनके जीवनवृत्तके सम्बन्धमें सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाती । महाबीराचार्यको इस गणित-ग्रन्थकी पाण्डुलिपियों एवं कन्नड़ और तमिल टीकाओके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि महावीराचार्य मैसुर प्रान्तके किसी कन्नड़ भागमें हुए होंगे। सुदूर दक्षिणमें गणित-विज्ञानको वृद्धिगत करनेका उस समय प्रयत्न किया गया, जब उत्तरीय भारतमें ब्रह्मगस ३४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
और भास्करके समय के बीच श्रीधराचार्यको छोड़कर कोई अन्य प्रकाण्ड गणितज्ञ न हुआ ।
महावीराचार्यने पूर्ववर्ती गणितज्ञोंके कार्य में पर्याप्त संशोधन और परिवर्द्धन किये | नवीन प्रश्न दिये, दीर्घवृत्तका क्षेत्रफल निकाला तथा मूलबद्ध तथा द्विघातीय समीकरण आदिके गणितका प्रणयन किया । इन्होंने शून्यके विषयमें भागक्रिया करनेकी प्रणालीका आविष्कार किया । किसी संख्या में शून्य द्वारा विभाजनके लिये फ्लोंका निरूपण करते हुए बताया कि संख्या शून्य द्वारा विभाजित होनेपर परिवर्तित नहीं होती है। जिस दृष्टिकोणको लेकर यह सिद्धान्त निबद्ध किया है, वह सिद्धान्त स्थूल विभाजन पर आवृत है । यों तो
शून्य द्वारा किसी संख्याको विभाजित करनेपर फल परिमित ( Finite } आता है । महावीराचार्य और ब्रह्मगुप्त आदिके प्रश्नों तथा अन्य प्रकरणोंकी भिन्नताके सम्बन्धमें डेविड यू जेन स्मियका वक्तव्य द्रष्टव्य है ।"
समय - निर्णय
महावीराचार्यने अमोघवर्षके सम्बन्धमें छह श्लोक निबद्ध किये हैं । इन पद्योंसे अवगत होता है कि आचार्य अमोघवर्षके आश्रय में अवश्य रहे हैं। उन्होंने लिखा है - "धन्य हैं वे अमोघवर्ष, जो हमेशा अपने प्रिय पात्रोंके हित चिन्तन में संलग्न रहते हैं और जिनके द्वारा प्राणी तथा वनस्पति महाभारी और दुर्भिक्ष आदिसे मुक्त होकर सुखी हुए हैं। जिन अमोघवर्षके चित्तकी क्रियाएँ अग्निपुञ्ज सदृश होकर समस्त पाप-रूपी वैरियोंको भस्ममें परिणत करने में सफल हैं और जिनका क्रोध व्यर्थ नहीं जाता, जिन्होंने समस्त संसारको अपने वशमें कर लिया है और जो किसीके वशमें न रहकर शत्रुओं द्वारा पराजित नहीं हो सके, अपूर्व मकरध्वजकी तरह शोभायमान है। जिनका कार्य अपने पराक्रम द्वारा पराभूत राजाओंके चक्रसे होता है और जो न केवल नामसे चक्रिकाभंजन हैं, अपितु वास्तव में भी चक्रिकाभंजन – जन्म-मरणके नाशक हैं। जो अनेक ज्ञानसरिताओं के अधिष्ठाता होकर सच्चरित्रताको वज्रमयी मर्यादा वाले हैं और जो जैनधर्मरूप रत्नको हृदयमें रखते हैं, इसलिये वे यथाख्यात्तचारित्रके महात् सागरके समान सुप्रसिद्ध हुए हैं। एकान्त पक्षको नष्ट कर जो स्याद्वादरूपी न्यायशास्त्र के वादी हुए हैं, ऐसे महाराज नृपतुंगका शासन वृद्धिंगत हो ।"
उक्त उद्धरणसे ज्ञात है कि यह अमोघवर्षं प्रथम जगत्तुंगदेव गोविन्दतृतीय 1. Introduction to English translation and notes of गणितसारसंग्रह by M. Rangacharya ( 1912 )
२. गणितसारसंग्रह, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, संज्ञाधिकार, पद्य २, ८ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ३५
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
के पुत्र
थे | नृपतुंग, शर्व, सण्ड, अतिशय धवल, वीर नारायण, पृथ्वीवल्लभ, लक्ष्मीवल्लभ, महराजाधिराज, भटार, परम भट्टारक आदि उनकी उपाधियाँ श्रीं | ये बड़े पराक्रमी राजा थे। इन्होंने राष्ट्रकूट वंशकी राज्यलक्ष्मीका उद्धार किया था। शक संवत् ७३५ में जब धवलाकी समाप्ति हुई थी, तब ये राजा थे। शक संवत् ७८२ के ताम्रपत्रसे ज्ञात होता है कि इन्होंने स्वयं मान्यखेटमें जैनाचार्य देवेन्द्रको दान दिया था। यह दानपत्र इनके राज्यके ५२ वर्षका है । शक संवत् ७९९ का एक अभिलेख कन्हरीको गुफा में मिला है, जिसमें इनका और सामन्त ' कपर्दी द्वितीयका उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि अमोघवर्षका राज्यकाल ईमाकी नवम शताब्दीका पूर्वार्द्ध है । यही समय महावीराचार्यका भी होना चाहिये। महावीराचार्यने गणित सारसंग्रहमें अमोघवर्षको स्याद्वाद - न्यायवादी और यथास्यातचारित्रका धारक बतलाया है । इससे यह ध्वनित होता है कि गणितसारसंग्रहके रचनाकाल तक उन्होंने राज्य तो नहीं छोड़ा था, पर उनकी वृत्ति युद्धको ओरसे हट गयी थी और उनका कोप वंध्य हो गया था । इस प्रकार महावीराचार्यका समय अमोघवर्षका राज्यकाल है । रचना
महावीराचार्यका प्रामाणिक रूपसे एक 'गणितसारसंग्रह' ही प्राप्त है । यों इनके नामसे 'ज्योतिषपटल' का भी उल्लेख मिलता है, पर यह रचना अभी तक उपलब्ध नहीं है ।
'गणित सारसंग्रह' में नव अध्याय हैं। प्रथम अध्याय संज्ञाधिकार है। इसमें गणितशास्त्रकी प्रशंसाकं अनन्तर क्षेत्रपरिभाषा, कालपरिभाषा, धान्यपरिभाषा, सुवर्णपरिभाया, रजतपरिभाषा, लोहपरिभाषा, परिकर्मनामावली, स्थानमान और संख्यासंज्ञा आदिका वर्णन आया है । द्वितीय अधिकार परिकर्मव्यवहार है । इसमें प्रत्युत्पन्न - गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, संकलित और व्युत्कलित गणितका उदाहरणसहित विवेचन आया है। तृतीय अधिकार कलासवर्ण व्यवहार है। इसमें भिन्न प्रत्युत्पन्न भिन्न भागहार, भिन्न सम्बन्धी वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्न संकलित, भिन्न व्युत्कलित भागजाति, प्रभाग जाति, भागाभागजाति, भागानुबन्ध जाति, भागापवाहजाति, भागमात्रिजातिका गणित उदाहरणसहित वर्णित है। चतुर्थ अधिकार प्रकीर्णव्यवहार है । इसमें भिन्नोंके विविध प्रश्न वर्णित हैं । भाग और शेपजाति, भूल जाति, शेषमूलजाति, द्विरप्रशेषमूलजाति, अंशमूलजाति, भाग, संवर्गजाति, ऊनाधिक अंशवगंजाति, मूलमिश्रजाति और भिन्नदृश्यजातिका गणित आया है । पञ्चम अधिकार राशिकव्यवहारसंज्ञक है। इसमें अनुक्रम त्रैराशिक, १. जनरल बोम्बे नाँच, रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, जिल्द १०, पृ० १९४ । ३६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यस्त राशिका, व्यस्त पञ्चराशिक, व्यस्त सप्तराशिक, व्यस्त नवराशिक, गतिनिवृत्ति, पञ्च राशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, भाण्डप्रतिभाण्ड एवं क्रयविक्रयका गणित वर्णित है । षष्ठ अधिकार मिथक व्यवहार है। इसमें संक्रमण, विषम-संक्रमण, पञ्चराशिक विधि, वृद्धि विवान, प्रक्षेपक कुट्टीकार, वल्लिकाकुट्टीकार, विषम कुट्टीकार, सकलकुट्टीकार, सुवर्णकुट्टीकार विचित्रकुट्टीकार एवं श्रदीबद्ध संकलित गणितका सोदाहरण निरूपण आया है। अप्तम अधिकार क्षेत्र गणित व्यवहार है । इसमें क्षेत्रफलसम्बन्धी विविध प्रकारके गणितोंका कथन आया है। व्यावहारिक गणित. सूक्ष्मगणित, जन्य व्यवहार एवं पैशाचिक व्यवहार गणितका उदाहरण सहित निरूपण किया गया है। अष्टम अधिकार खात व्यवहार है। इसमें सूक्ष्म गणित, चितिणित और क्रकचिका व्यवहार गणित निबद्ध है। नवम अधिकार छाया व्यवहार संज्ञक है। इसमें छाया सम्बन्धी विभिन्न प्रकारके गणितोंका उदाहरण सहित विवेचन किया गया है।
महावीराचार्यने (अ-+ब) का आनयन किया है जो न्यूटनके द्विपद श्रेढीको दिशा प्रदान करता है।
(अ+ब) = अ + ३अ उ + ३व अ+ इस 'गणितसासंग्रह' में गणितकी अनेक विशेषताएँ विद्यमान हैं। ग्रन्थकारने भाग देनेकी वर्तमान विधिका कथन किया है। इस सुविधाजनक विधि से उभयनिष्ठ गुणन खण्डोंको हटाकर विभाजन किया जाता है। व्याज निकालने की विधिका निरूपण करते हुए लिखा है--
महावीराचर्यने मूलधन, व्याज, मिश्रधन और समय निकालनेके सम्बन्धमें महत्त्वपूर्ण नियम दिये हैं । मूलधन = स, मिश्रधन = म, समय = ट, व्याज = ई
१- (i) स=
१+ ई *ट xई ..
ट+
स
(ii) स-रई - १
टस (iii) आ= अनेक प्रकारके मूलधन
२-
- _म_
सXट Tum
।
भ
-
आ
+ट
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३७
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
म में
-. X४ (आ+ -म
x <आ + -
2
म = स +ट
(i) स =
स,x.xम 21Xट, + संEXट, + स... ट
...
(ii) सxxम
=
आ.
.......- -- - 'स, x, + रस x2, +स, Xट, + ...
म = आ + आ + आ + .... व्याजके लिये नियम (Foorinula) :
-
आ.. आ.. आ.....----.-म,
ट टट.
.. आ= सक (ii) आ.. आ.. आ.. . .... ट,
म
म = 6, + स.. + + .." समय निकालने के लिये नियम । Formula | :-- म
आ। -ट, (मन्द1 + 2, +ट, + ....
....
आ
आत
+
स
Xट .
-Xमा
ट
२Xट
(i) / स.४४ x + (सx) - सुट्ट= ई = स स.४५ , स. ४८५ +
मx
-
--
-
आ
इस प्रकार गणितसारसंग्रहमें गणित-सम्बन्धी अनेक विशेषताएँ प्रतिपादित
बृहत् अनन्तवीर्य सिद्धिविनिश्चयके टीकाकार और रविभद्रपादोपजीवी आचार्य अनन्तवीर्य ३८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्यायशास्त्रके पारंगत और अनेक शास्त्रोंके मर्मज्ञ थे। सिद्धिविनिश्चय-टीकासे अवगत होता है कि इनका दर्शन-शास्त्रीय अध्ययन बहत व्यापक और सर्चतोमुखी था। वैदिक संहिताओं, उपनिषद्, उनके भाष्य एवं वात्तिक आदिका भी इन्होंने गहरा अध्ययन किया था। न्याय-वैशेषिक सांस्य-योग, मीमांसा, चार्वाक और बौद्धदर्शनके ये असाधारण पण्डित थे। सिद्धिविनिश्चयटीकाके पुष्पिकापाया इनक गरुका नाम रोचभत जान पड़ता है। इन्होंने अपनेको उनका 'पादोपजीवी' बतलाया है। इसके अतिरिक्त इनके विषयमें और कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती। अनन्तवीर्य नामके अनेक विद्वान्
साहित्य और शिलालेखोसे ज्ञात होता है कि अनन्तवीर्य नामके अनेक विद्वान् हो गये हैं। एक अनन्तवीर्य वे हैं, जिन्होंने आचार्य माणिक्यनन्दिके परीक्षामखपर अपनी परीक्षामुखवृत्ति, जिसे 'प्रमेयरलमाला' कहा जाता है और जो प्रकाशित है, लिखी है। ये अनन्नवीर्य लघु अनन्तवीर्य कहे जाते हैं और जो प्रभाचन्द्रके उत्तरवर्ती तथा १२वीं शतीके विद्वान् हैं ।
एक वे अनन्तवीर्य हैं, जिनका पेग्गूरके कन्नड़ शिलालेखमें वीरसेन सिद्धान्तदेवके प्रशिष्य और गोणसेन पण्डित भट्टारकके शिष्यके रूपमें उल्लेख है। ई० सन् ९७७ के दानलेखके अनुसार ये श्रीवेलगोलके निवासी थे। इन्हें वेहोरेगरेके राजा श्रीमत् रक्कसने पेरग्गदर तथा नयी खाईका दान किया था !
एक अनन्तवीर्यका निर्देश मरोंल ( बीजापुर बम्बई ) के अभिलेखमें आया है। यह अभिलेख चालुक्य जयसिंह द्वितीय और जगदेकमल्ल प्रथम ई० सन् १०२४ के समयका हुआ है। इसमें कमलदेव भट्टारक, प्रभाचन्द्र और अनन्तवीर्यका उल्लेख आया है। ये अनन्तवीयं समस्त शास्त्रोंके विशेषतः जनदर्शनके पारगामी थे। अनन्तवीर्यके शिष्य गुणकीतिसिद्धान्त भट्टारक और देवकीर्ति पण्डित थे। । एक अनन्तवीर्यका उलेख अकलंकसूत्रके वृत्तिकर्ताके रूपमें हुम्मचकी पञ्चवस्तिके आंगनके एक पाषाणलेखमें आया है। ये अरुङ्गलान्चय नन्दिसंघकी आचार्योंकी परम्परामें हुए हैं । यह अभिलेख ई० सन् १०७७ का है। इसी लेख में आगे कुमारसेनदेव, मोनिदेव और विमलचन्द्र भट्टारकका निर्देश है।
१. बैन शिलालेख संग्रह, भाग २, पृ० १९९। २. 'श्रीबेलगोलनिवासिमलम्प श्रीवीरसेनसिवान्तदेववरशिष्यर् श्रीगोणसेनपण्डितभट्टारक
वरशिष्यर् श्रीमान् अनन्तवीर्यप्यङ्गल · " जैन शिलालेख० भाग १ । ३. बम्बई कर्नाटक एसक्रीप्शन, जिल्द , भाग १, नं० ६१। ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३९
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक अन्य अनन्तवीर्यका निर्देश ई० सन् १११७ के अभिलेखमें उपलब्ध होता है। यह अभिलेख चामराजनगरके पार्श्वनाथस्वामीवस्तिके एक पाषाणपर उत्कीर्ण' है।
एक अनन्तवीर्य वे हैं, जिनका उल्लेख करल्लर गड्डके सिद्धश्वर मन्दिरक पाषाणलेखमें काणूरगणके आचार्योमं शुद्धाक्षग वरदकै रूपमें किया गया है। यह अभिलेख ई० सन् ११२१ का है | इस अभिलखमें माघनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य प्रभाचन्द्रके साधर्मा अनन्तवीर्य और मुनिचन्द्रका उल्लेख है | अनन्तवीर्यके गृहस्थशिष्य रक्कस गंगदेवने भी इसी समय दान किया था।
एक अनन्तबीय महावादीका उल्लेख हम्मचके तोरण बागिलके उत्तर सम्भके लखमें श्रीपालदेवक लघुसवर्माके रूपमें आया है। ये द्रविड़ संघकं नन्दिगणक आचार्य थे | यह लेख ई० सन् ११०७ का है।
उपयुक्त अभिलखोंस अवगत होता है कि प्रस्तुत अनन्तवीय द्रविड़ संघ नन्दिगण, अरुङ्गलान्यकी परम्परा अनन्तवीयं है । ये वादिराजरे दादागुरु और श्रीपालक लघुराधर्मा हैं। बादिराजका समय ई० सन् १०२५ है। अत: उनके दादामुरु ५० वर्ष पहले अर्थात् ई० सन् २७५ के आस-पास हुए होंगे। ___ अभिलेखाके सूक्ष्म अध्ययनस ऐसा ज्ञात होता है कि प्रस्तुत अनन्तवीर्य काणूरगणक न होकर द्रविड़ संधीय हैं। अकलंकसूत्रक वृत्तिकार दो अनन्तवीर्य । हैं-एक रविभद्रपादोपजीवी और दूसरे इन्ही अनन्तवीर्य द्वारा उल्लिखित सिद्धिविनिश्चयके प्राचीन व्याख्याकार अनन्तवीयं, जिन्हें हम वृद्ध अनन्तवीर्य कह सकते हैं । सिद्धिविनिश्चय-टीकाके कर्ता अनन्तवीर्य ई० सन् १७५ के बाद और ई० सन् १०२५ के पहले किसो समयमें हुए हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि जो अनन्तवीर्य वादिराजके दादागुरु, श्रीपालके सधर्मा रूपसे उल्लिखित है, वहीं सिद्धिविनिश्चयके टीकाकार हैं। अतएव अनन्तवीयंका समय ई० सन् की दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध और ११वीं शताब्दीका पूर्वाद्धं है। पार्श्वनाथचरितमें वादिराजने अनन्तवीर्यको स्तुति करते हुए लिखा है कि उस अनन्त सामर्थ्यशाली मेधक समान अनन्तवीर्यकी स्तुति करता हूँ, जिनकी वचनरूपी अमृतवृष्टिसे जगत्को चाटजाने वाला शून्यवादरूपी हुताशन शान्त हो गया था। इन्होंने 'न्यायविनिश्चविवरण में अनन्तवीर्यको उस दीपशिखाके समान लिखा है, जिससे अकलंकवाङ्मयका गूढ़ और अगाध अर्थ पद-पदपर प्रकाशित होता है ।
१. जन शिलालेखसंग्रह, द्वितीय भाग, पृ. २१२ । २. वही, पृ० ४०८, पृ. ४१६ । ३, वही, भाग २,१० ७२ । ४० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
अतएव 'सिद्धिविनिश्चयटीका' के रचयिता अनन्तवीर्यका समय पूर्वोक्त ई० सन् ९७५-१०२५ घटित होता है ।
रचनाएँ
रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य की दो रचनाएँ हैं- सिद्धिविनिश्चयटीका और प्रमाण संग्रह भाष्य या प्रमाणसंग्रहालङ्कार ।
सिद्धिविनिश्चयटीका
यह अकल देवक "सिद्धिविनिश्चय पर लिखी गयी विशाल टीका है । अनन्तवीर्य ने अपनी इस टीकामें मूलके अभिप्रायको विशद और पल्लवित किया है। साथ हो बीच-बीचमें प्रकरणगत अर्थको स्वरचित श्लोकों में भी व्यक्त किया है, जिससे पाठकको दर्शनशास्त्र के इस ग्रन्थका अध्ययन करते हुए कहीं-कहीं मणिप्रबालकी तरह गद्य-पद्यमय चम्पूकाव्यका आनन्द आ जाता है । कितने ही नये प्रमेयों को भी इसमें चर्चा समाहित है । इस टीकासे अनन्तवीर्यको बहुज्ञता प्रकट होती है । प्रमाण संग्रह्भाष्य
इनका दूसरा ग्रन्थ प्रमाण संग्रहभाष्य या प्रमाणसंग्रहालङ्कार है । यह अकलङ्कदेवके प्रमाणसंग्रहकी टीका है। इसका उल्लेख सिद्धिविनिश्चयटीका में किया गया है । अतः यह उससे पूर्व रची गयी है । परन्तु यह अभी तक प्राप्त नहीं है, केवल इसके अस्तित्वके निदेश ही मिलते हैं ।
माणिक्यनन्दि
आचार्य माणिक्यनन्दि जैन न्यायशास्त्रके महापण्डित थे । इनका परीक्षामुखसूत्र जैन न्यायशास्त्रका आद्य न्यायसूत्र है । इसके स्रोतका निर्देश करते हुए प्रमेयरत्नमालामें कहा गया है
अकलयुवचोऽम्भोधेरुद्द येन धीमता । न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने । '
अर्थात् जिस धीमान्ने अकलङ्घदेवके वचन -सागरका मन्थन करके 'न्यायविद्यामृत' निकाला, उस माणिक्यनन्दिको नमस्कार है ।
माणिक्यनन्दि नन्दिसंघ के प्रमुख आचार्य थे । धारानगरी इनकी निवासस्थली रही है, ऐसा प्रमेय रत्नमालाकी टिप्पणी तथा अन्य प्रमाणोंसे अवगत होता है।
१. प्रमेयरत्नमाला ११२ ।
२. प्रमेयरत्नमाला, टिप्पण पू० १ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४१
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिमोगा जिलेके नगरताल्लुकेके शिलालेख नं० ६४ के एक पद्यमें माणिक्यनन्दिको जिनराज लिखा है
"माणिक्यनन्दजिनराजवाणीप्राणाधिनाथः परवादिमी।
चित्रं प्रमाचन्द्र इह क्ष्मायां मार्तण्डवृक्षौ नितरां व्यदीपि ॥" न्यायदीपिकामें इनका 'भगवान' के रूपमें उल्लेख किया गया है । प्रमेय कमलमार्तण्डमें प्रमाचन्द्रने इनका गुरुके रूपमें स्मरण करते हुए इनके पदपंकजके प्रसादसे ही प्रमेयकमलमार्तण्डकी रचना करनेका उल्लेख किया है। इससे माणिक्यनन्दीके असाधारण बंदुष्यका परिज्ञान होता है । माणिक्यनन्दीने अकलङ्गके ग्रन्थोंके साथ दिङनागके न्यायप्रवेश और धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दुका भी अध्ययन किया था । वस्तुत: माणिक्यनान्द अत्यन्त प्रतिभाशाली और विभिन्न दर्शनोंके ज्ञाता हैं । 'सुदंसणचरिउ' के कर्ता नयनन्दि (वि० सं० ११००) के उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दीके गुरुका नाम रामनन्दी है और स्वयं नयनन्दी उनके शिष्य हैं । 'सुदंसणचरिउ' को प्रशस्तिमें लिखा है
जिणिदागमब्भासणे एचित्तो तवायारणिट्ठाइलद्धाइजुत्तो। परिंदारिदेहि यंदणंदी हुओ तस्स सीसो गणी रामगंदी ।। असेसाण गंथाण पारंमि पत्तो तवे अंगवी भव्वराईबमित्तो। गुणावासभूवो सुतिल्लोक्कणंदी महापंडिओ तस्स माणिक्कणंदी । पढमसीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि णयदि अणिदिउ ।
चरिउ सुदसणणाहहो तेण अबाहहो विरइउ बुह अहिणंदिउ ।। अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्दके अन्वयमें जिनेन्द्र-आगमके विशिष्ट अभ्यासी, तपस्वी, गणी रामनन्दी हुए। उनके शिष्य महापण्डित माणिक्यनन्दी हुए, जो कि सर्वग्रन्थोंके पारगामी, अंगोंके ज्ञाता एवं सद्गुणोंके निवासभूत थे। नयनन्दी उनके शिष्य थे। समय
प्रमेयरत्नमालाकारके पूर्वोक्त उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दी अकलंकके उत्तरवर्ती हैं और अकलंकका समय ई० सन् ७२०-७८० ई० माना गया है । अतएव माणिक्यनन्दीके समयको पूर्वावधि ई० सन् ८०० निर्बाध मानी जा सकती है। प्रज्ञाकारगुप्त भाविकारणवाद और अतीतकारणवाद स्वीकार करते हैं। माणिक्यनन्दीने अपने परीक्षामुखसूत्र में इन दोनों कारणवादोंका खण्डन किया है । यथा१. तथा चाह भगवान् माणिक्यनन्दिभट्टारकः-प्यायदीपिका, अभिनव धर्मभूषण। ४२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाव्यतीतयोगं गणनागद्बोधरनिरिष्यति ॥ तथापराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ॥
षष्ठ अध्याय ५७ सूत्रमें प्रभाकर गुरुकी प्रमाण संख्याका खण्डन किया गया है और इनका समय ई० सन् की वीं शतीका प्रारम्भिक भाग है । इससे भी माणिक्यनन्दिके समय की पूर्वावधि ई० सन् ८०० है । आचार्य प्रभाचन्द्र ( ई० सन् १९००) ने परीक्षामुखपर प्रमेयकमलमार्त्तण्ड नामक टीका लिखी है। अतः प्रभाचन्द्रका समय ( ११वीं शती) इनकी उत्तरावधि है । व्यातव्य है कि डॉ० दरबारीलाल कोठियाने अनेक प्रमाणोंस सिद्ध किया है कि माणिक्यनन्दि प्रभाचन्द्रके साक्षात् गुरु थे । अत: माणिक्यनन्दि उनसे कुछ पूर्ववर्ती (ई० १०२८ के लगभग ) हैं ।
आचार्य नयनन्दीने अपने 'सुदंसणचरिउ' को वि० सं० १५०० में धारानरेश भोजदेव के समय में पूर्ण किया है और अगनेको माणिक्यचन्द्रीका प्रथम शिष्य कहा है
frafarsantest
ववगएसु
एयारहवच्छरमसु । तहि केवलचरिउ अमरच्छरेण णयनंदी विश्यउ वित्रेण ||
अतएव माणिक्यनिन्दका समय नयनन्दी के समय वि० सं० ११०० से ३०-४० वर्ष पहले अर्थात् वि० सं० १०६० ई० सन् १००३ ( ई० सन् की ११वीं शताब्दी का प्रथम चरण ) अवगत होता है ।
रचना
माणिक्यनन्दिका एकमात्र ग्रन्थ 'परीक्षामुख' ही मिलता है। इस ग्रन्थका नामकरण बौद्धदर्शनके हेतुमुख, न्यायमुख जैसे ग्रन्थोंके अनुकरणपर मुखान्त नामपर किया गया है ।
परीक्षामुखमें प्रमाण और प्रमाणाभासों का विशद प्रतिपादन किया गया है । जिस प्रकार दर्पण में हमें अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखलाई पड़ता है उसी प्रकार परीक्षा मुखरूपी दर्पण में प्रमाण और प्रमाणाभासको स्पष्ट रूप से ज्ञात किया जा सकता है ।
यह ग्रन्थ न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र आदि सूत्रग्रयोंकी तरह सूत्रात्मक शैलीमें लिखा गया है ।
इसके सूत्र सरल, सरस और गम्भीर अर्थ वाले हैं। इसकी भाषा प्राञ्जल
१. परीक्षामुखसूत्र, ३१५८-५९ ।
२. सुदंसणचरिउ, प्रशस्ति कडक ९ प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली ३
३. आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना, पृ० ३१ ३२, ३३, बीरसेवा मन्दिर - संस्करण, ई० १९४९ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४३
·
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
और सुबोध है | समस्त गन्थम २०८ मुत्र है और यह छः समुद्देशों में विभक्त है । प्रथम समुद्दे शमें १३ मूत्र हैं। इसमें प्रमाणका स्वरूप, प्रमाणके विशेषणोंकी सार्थकता, दीपन हटान्तसे ज्ञान में 'स्व' और 'पर' की व्यवसायात्मकताकी सिद्धि तथा प्रमाण की प्रमाणताकी ज्ञप्तिको कञ्चित् स्वत: और कथञ्चित् परत: सिद्ध किया गया है। हिताहितमाप्ति-परिहारमें समर्थ होनेके कारण ज्ञानको ही प्रमाण माना गया है। अज्ञानरूप सन्निवापं आणि प्रमाणलक्षणोंको मीमांसा की है।
द्वितीय रामहगामें १२ मत है। प्रमाण प्रत्यक्ष आर परोक्ष दो मंद, प्रत्यक्षका लक्षण, सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका मन, अर्थ और आलोकम ज्ञान प्रति कारणताका निरास, पदार्थस ज्ञानात्पत्तिका खण्डन, स्वाधरणक्षयोपशमरूप योग्यत्तासे ज्ञान के द्वारा प्रतिनियत निपकी सहया,
माणसाना विषय मानने में व्यभिचारका प्रतिपादन और निरावरण एवं अतीन्द्रियस्वरूप मुख्यप्रत्यक्षका लाण प्रतिपादित किया गया है ।
तृतीय समद्देशमें ९७ सूत्र हैं। इसमें परीक्षका लक्षण, परोक्ष प्रमाणके पाँच भेद, उदाहरणपूर्वक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमानका लक्षण, हेतु और अधिनाभावका स्वरूग, साध्यका लक्षण, साध्यको बिशेषणोंकी सार्थकता, धर्मीका प्रतिपादन, धर्मीकी सिद्धिके प्रकार, पक्षप्रयोगको आवश्यकता, अनुमानके दो अंगोंका प्रतिपादन, उदाहरण, उपनय और निगमनको अनुमानके अंग माननेमें दोपोद्भावन, शास्त्र (वीतराग) कथा म उदाहरणादिके भी अनुमानके अवयव होनेकी स्वीकृति, अनुमानके स्वार्थानुमान और परार्यानुमान, हेतुके उपलब्धि और अनुपलब्धि, उपलब्धिके अविरुद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि, तथा अनुपलब्धिके अविरुद्धानुपलब्धि और विरुद्धानुपलब्धि एवं अविरुद्धोपलब्धिके व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्नचर, उत्तरचर और सहचर, विरुद्धोपलब्धिके भी अविद्धोपलब्धिके समान विरुद्धव्याप्य, विरुद्ध-कार्य, विरुद्ध-कारण, विरुद्धपूर्वचर, विरुद्धउत्तरचर, और विरुद्ध-सहचर, अनुपलब्धिके प्रथम भेद अविरुद्धानुपलब्धिके अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, ब्यापकानुपलब्धि, कार्यानुपलब्धि, कारणानुपलब्धि, पूर्वचरानुपलब्धि, उत्तरचरानुपलधि और सहचरानुपलब्धि; विरुद्धानुपलब्धिके विरुद्धकार्यानुपलब्धि, विरुद्धकारणानुपलब्धि और विरुद्धस्वभावानुपलब्धि इन सभीका विशद प्रतिपादन है। बौद्धोंके प्रति कारणहेतुकी सिद्धि, आगमप्रमाणका लक्षण और शब्दमें वस्तुप्रतिपादनको शक्तिका भी इसी समुददेशमें वर्णन है। ___चतुर्थ समुद्दे शमें ९ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणके सामान्य-विशेष उभयरूप विषयकी सिद्धि करते हुए सामान्य और विशेषके दो-दो भेदोंका उदाहरण सहित प्रतिपादन किया गया है।
४४ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चम समुद्देशमें ३ सूत्र हैं । इसमें प्रमाणके साक्षात् और परम्परा फलको बतलाकर उसे प्रमाणसे कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न सिद्ध किया है।
पळसमृद्द शमें ७४ सूत्र हैं । इसमें प्रमाणाभासों का विशद वर्णन आया है । स्वरूपाभास, प्रत्यक्षाभास, परीक्षाभास, स्मरणाभास, प्रत्यभिज्ञानाभास, तर्काभास, अनुमाना भाग, पक्षाभास, हेलाभास, हेत्वाभासके असिद्ध, विरुद्ध अनैकान्तिक और अकिञ्चित् उदाहरण हमामाय एवान्याभासके भेद, बालप्रयोगाभास आगमाभास, संख्याभास, विपयाभास, फलाभास तथा बादी और प्रतिवादीकी जय-पराजयव्यवस्थाका प्रतिपादन किया गया है । टीकाएँ
इसपर उत्तरकालमें अनेक टीका व्याख्याएँ लिखी गयी है। इनमें प्रभाचन्द्राचार्यका विशाल प्रमेयक मलमार्त्तण्ड, लघु अनन्तवीर्यको मध्यम परिमाण वाली प्रमेय रत्नमाला, भट्टारक चारु कीर्तिका प्रमेय रत्नमालालङ्कार एवं शान्ति वर्गीकी प्रमेयकण्ठिका आदि टीकाएँ उपलब्ध हैं | परीक्षामुखसुत्रका प्रभाव आचार्य देवसूरि प्रमाणनयतत्त्रालोक और आचार्य हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसा पर स्पष्ट दिखलाई पड़ता है । उत्तरवर्ती प्रायः समस्त जैन नैयायिकोंने इस ग्रन्थसे प्रेरणा ग्रहण की है।
आचार्य प्रभाचन्द्र
आचार्य प्रभाचन्द्र ने परीक्षामुख पर १२००० श्लोक प्रमाण 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड' नामकी बृहत् टीका लिखी है। यह जेन न्यायशास्त्रका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसके नामसे ही यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्य प्रमेयरूपी कमलोंको उद्भासित करने के लिए मार्त्तण्ड —सूर्यके समान है। इसके अध्ययनसे प्रभाचन्द्रका दुष्य एवं व्यक्तित्व अत्यन्त महनीय विदित होता है । इन्होंने वैदिक और अवैदिक दर्शनोंका गहन अध्ययन किया था ।
इनकी अद्भुत विशेषता है कि किसी भी विषयका समर्थन वा निराम, जो भी हो, प्रचुर युक्तियोंसे करते हैं। ये तार्किक और दार्शनिक दोनों हैं । इनकी प्रतिपादन शैली एवं विचारधारा अपूर्व है ।
प्रमेयकममार्तण्ड और न्याय कुमुद चन्द्र की प्रशस्ति के अनुसार इनके गुरुका नाम नन्दि सैद्धान्तं' है । क्षवणबेलगोलाके ४० संख्यक अभिलेखमें गोल्लाचार्यके शिष्य पद्मनन्दि सैद्धान्तिकका उल्लेख हैं । इसी अभिलेखमें प्रथित तर्क ग्रन्थका र अब्दाम्भोरुहभास्कर प्रभाचन्द्रको उनका शिष्य बताया है। प्रभाचन्द्रके प्रथित तर्कप्रन्थकार और शब्दाम्भोरुहभास्कर ये दोनों विशेषण बतलाते हैं कि प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्त्तण्ड जैसे तर्कग्रन्थोंके रच
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४५
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
यिता होनेके साथ शब्दाम्भोजभास्कर नामक जेनेन्द्रन्यासके कर्त्ता भी थे। इसी अभिलेखमें पद्मनन्दि सैद्धान्तिकको अविद्धकरण और कौमारदेवव्रती लिखा है। इन दोनों विशेषणोंसे अवगत होता है कि पद्मनन्दि सैद्धान्तिकने कर्णवेध होनेके पहले ही दीक्षा धारण की होगी और इसी कारण वे कौमारदेवव्रती कहे जाते थे । ये मूलसंधान्तर्गत नन्दिगणके प्रभेदरूप देशीय गणके गोल्लाचार्य के शिष्य थे । प्रभाचन्द्र के सवर्मा कुलभूषणमुनि थे। कुलभूषणमुनि भी सिद्धान्तशास्त्रोंके पारगामी और चारित्रसागर थे । इस अभिलेखमें कुलभूषणमुनिकी शिष्यपरम्पराका उल्लेख हैं, जो दक्षिण भारत में हुई थी । प्रभाचन्द्र पद्ननन्दि से शिक्षा-दीक्षा लेकर उत्तर भारतमें धारा नगरीमें चले आये और यहाँ आचार्य माणिक्यनन्दिके सम्पर्क में आये। प्रभाचन्द्रने अपनेको माणिक्यनन्दिके पदमें रत कहा है । इससे उनका साक्षात् शिष्यत्व प्रकट होता है । अतः यह सम्भव है कि प्रभाचन्द्र जैन न्यायका अभ्यास माणिक्यनन्दिसे किया हो और उन्हींके जीवनकालमें प्रमेयकमलमार्त्तण्डको रचना की हो । बताया है---
शास्त्रं करोमि वरमल्पत रावबोधो माणिक्यनन्दिपदपङ्कजसत्प्रसादात् । अर्थं न कि स्फुटयति प्रकृतं लचीयाँल्लोकस्य भानुकरविस्फुरिताद्गवाक्षः ' ॥
X
X
X
गुरुः श्रीनन्दिमाणिक्यो नन्दिताशेषसज्जनः | नन्दतादुरितैकान्तरजाजनमतार्णवः
॥
I
श्रीपद्मनन्दि सैद्धान्तशिष्योऽनेक गुणालयः प्रभाचन्द्रश्चिरं जीयाद्वननन्दिपदे रतः ॥
श्रवणबेलगोलके अभिलेख संख्या ५५ में मूल संघके देशोयगणके देवेन्द्र सिद्धान्तदेवका उल्लेख है। इनके शिष्य चतुर्मुखदेव और चतुमुखदेवके शिष्य गोपनन्दि थे । इन गोपनन्दिके सर्मा एक प्रभाचन्द्रका उल्लेख आता है । पद्य निम्न प्रकार है
श्री धाराधिपभोजराज - मुकुट प्रोताश्म - रश्मि च्छटा-कुङ्कुम - लिप्त चरणाम्भोजात - लक्ष्मीधवः ।
च्छाया
१. प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, मंगलाचरणपद्य २ | २. बही, प्रशस्तिपद्य संख्या ३-४ 1
४६ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्यायजाकरमण्डने दिनमणिश्शब्दान्ज-रोदोमणिस्थेयात्पण्डित-पुण्डरीक-तरणिश्रीमत्प्रभाचन्द्रमाः ॥ श्रीचतुर्मुख-देवानां शिष्योऽधृष्यःप्रवादिभिः ।
पण्डितश्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रवादि-गजाङ्कशः ।। इन पद्मों में वर्णित प्रभाचन्द्र धाराधीश भोजके द्वारा पूज्य थे। न्यायरूप कमल समूह--प्रमेयकमलके दिनर्माण-मार्तण्ड थे। 'शब्दरूप अज'-दशब्दाम्भोजके विकास करनेको 'रोदोमणि'–भास्करके समान थे। पण्डितरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य थे। रुद्रवादि-गजोंको वश करनेके लिये अंकुशके समान ये तथा चतुर्मुखदेवके शिष्य थे । __उपर्युक्त अभिलेखमें वर्णित प्रभाचन्द्र निश्चय ही प्रमेयकमलमार्तण्डके रचयिता प्रभाचन्द्रसे अभिन्न हैं । एक ही बात यहाँ विचारणीय है कि गुरुरूपसे चतुर्मुखदेवका उल्लेख किस प्रकार घटित होता है। इनके आद्य गुरु पद्मनन्दि सैद्धान्तिकदेव है। बदल सम्भव है कि द्वितीय गरु या ग़ासम चतुर्मख देव रहे हों। धारानगरीमें आनेके पश्चात् देशीयगणके आचार्य चतुर्मुखदेवको गुरुके रूपमं स्मरण किया गया हो। प्रभाचन्द्रने अपना 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' धारानगरीमें लिखा है, यह इस ग्रन्थकी प्रशस्तिसे भी प्रकट है
"श्रीभोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिपदप्रणामाजितामलपुर्ध्यान राकृतनिखिलमलकलझेन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्द्योतपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमित्ति" ।
श्रवणवेलगोलके उक्त अभिलेखमें प्रभाचण्द्रको गोपनन्दिका सधर्मा कहा गया है। 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमुदचन्द्र' को प्रशस्तियोंमें 'पण्डित' शब्दका उल्लेख प्राप्त होता है, जिससे इनका गृहस्थ होना ज्ञात होता है; पर आराधनागद्यकोषकी ८९ कथामें ग्रन्थान्तमें तथा प्रशास्तियोंमें 'भट्टारक' लिखा है । अतः जान पड़ता है कि ये जीवनके उत्तरकालमें मुनि हुए होंगे। समय-निर्णय __ आचार्य प्रभाचन्द्रके समयके सम्बन्धमें कई मान्यताएँ प्रचलित हैं। इन समस्त मान्यताओंके अध्येताओंने पर्याप्त छानबीन की है। हम यहाँ उन सभी मतोंका संक्षेपमें उल्लेख कर प्रभाचन्द्र के समयके सम्बन्धमें निष्कर्ष उपस्थित करेंगे।
१. आदिपुराण, भारतीन ज्ञानपीठ, १४७ । २. प्रभेयकमलमासण्ड, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १९४१, अन्तिम प्रशस्ति ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : ४७
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१) ई० सन् की ८बौं शताब्दीकी मान्यता । (२) ई० सन् ११वीं शताब्दीको मान्यता ! ( ३ ) ई० सन् १०६५ की मान्यता।
१. आचार्य प्रभाचन्द्रके समयके सम्बन्धमें डॉ० पाठक, आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार आदि प्रभाचन्द्रका समय ८वीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध एवं ९वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध मानते हैं। इनका मुख्य आधार है जिनसेन कृत 'आदिपुराण' का निम्नलिखित पद्म, जिसमें प्रभाचन्द्र कवि और उनके चन्द्रोदय ( न्यायकुमुदचन्द्र ) का उल्लेख हुआ है
"चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि स्तुवे ।
कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाल्हादितं जगत् ॥ यहाँ चन्द्रोदयसे तात्पर्य न्यायकुमुदचन्द्रसे लिया गया है । आचार्य जिनसेनने आदिपुराणकी रचना ई० सन् ८४० के लगभग की होगी। अतः उक्त पद्यमें प्रभाचन्द्र और उनके न्यायकुमुदचन्द्रका उल्लेख मानकर डॉ० पाठक आदिने प्रभाचन्द्रका समय ई० सन् की ८ वो शताब्दीका उतारा है।
पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने डॉ० पाठक आदिकी उक्त मान्यताका निरसन करते हुए बताया है कि जिनसेनने आदिपुराणमें जिस प्रभाचन्द्रका स्मरण किया है, वह प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्रके कर्त्ता प्रभाचन्द्रसे भिन्न हैं। हरिवंशपुराणमें भी जिनसेन प्रथमने एक प्रभाचन्द्रका स्मरण किया है, जो कुमारसेनके शिष्य थे । यथा---
"आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम् ।
गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ।। यदि इन दोनों पुराणोंमें उल्लिखित प्रभाचन्द्र एक ही व्यक्ति हैं, तो वे कुमारसेनके शिष्य होनेके कारण न्यायकुमुदचन्द्रके कसि स्वतः पृथक् सिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि उनके गुरुका नाम पद्मनन्दि था। शास्त्रीजीने तर्क उपस्थित करते हुए लिखा है-"न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्रने स्वामी विद्यानन्द और अन्तवीर्यका स्मरण किया है। यदि आदिपुराणमें उल्लिखित प्रभाचन्द्र और उनका चन्द्रोदय प्रकृत प्रभाचन्द्र और उनका ग्रन्थ न्यायकूमुदचन्द्र ही है, तो यह सम्भव प्रतीत नहीं होता कि आदिपुराणकार न्यायकुमुदचन्द्रका तो स्मरण करें, किन्तु उसमें स्मृत आचार्य विद्यानन्द और अनन्तवीर्य सरीखे यशस्वी
१. अन शिलालेखसंग्रह, भाग १, अभिलेख संख्या ५५, पद्य १७, १८ । २. हरिवंशपुराण, ११३८ । ४८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थकारोंको भूल जायें। विद्यानन्द और अनन्तवीर्यके ग्रन्थोंके उल्लेखोंके आधार पर दोनोंका समय ईसाकी नवीं शताब्दीसे पहले नहीं जाता । अतः उनके स्मरणकी प्रभावाप्रका स्मरण नवमी शताब्दीक पूर्वाद्धकी रचना आदिपुराणमें नहीं किया जा सकता।"
पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रोने अन्य तौक आधारपर भी डॉ० पाठक आदिके मतका खण्डन किया है और प्रभाचन्द्रका समय ई० सन् ९५० से १०२० निर्धारित किया है।
प्रभाचन्द्रने पहले प्रमेयकमलमार्तण्डकी रचना करके ही न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना की है। प्रमेयकमलमार्तण्डकी अन्तिम प्रशस्तिमें 'भोजदेवराज्ये' उल्लिखित मिलता है, पर न्यायकुमुदचन्द्रकी पुष्पिकामें 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' पद उल्लिखित है । अतएव श्रीप्रभाचन्द्रका समय जयसिंहदेवका राज्यकाल सन् १०६५ तक माना जा सकता है । यदि प्रभाचन्द्रकी ८५ वर्षकी आयु हो, तो उनकी पूर्वावधि ई. सन् ९८० सिद्ध होती है। आचार्य जुगुलकिशोर मुख्तार और पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्रो प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकूमदचन्द्रके अन्तमें पाये जाने वाले 'श्रीभोजदेवराज्ये' और 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेखोंको स्वयं प्रभाचन्द्रका नहीं मानते। पर न्यायाचार्य पण्डित महेन्द्रकुमारजी उक्त प्रशस्ति-लेखोंको प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता प्रभाचन्द्रके हो मानते हैं। __ प्रभाचन्द्रने यापनीयसंघाग्रणी शाकटायनाचार्यके केलिमुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंकी कुछ कारिकारिकाओंको पूर्वपक्षके रूपमें उद्धृत किया है। शाकदायनाचार्यका समय अमोघवर्षका राज्यकाल { ई. सन् ८१४-८७७) नवम शती है । अतः प्रभाचन्द्रका समय ई० सन् १०० से पहले नहीं माना जा सकता।
आचार्य देवसेनने अपने 'दर्शनसार' ग्रन्थके बाद 'भावसंग्रह बनाया है। इसकी रचना ई० ९४० के आस-पास हुई होगी। प्रमेयकमलमानण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें देवसेनकी 'नोकम्मकम्महारो' गाथा उद्धृत मिलती है। अतएव प्रभाचन्द्रका ममय ई० सन् ९४० के बाद होना चाहिये । श्रीधरकी न्यायकन्दलीको छाया भी प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंपर दिखलाई पड़ती है। श्रीधरने कन्दली टीका ई० सन् ९९१ में समाप्त की थी। अतः प्रभाचन्द्रकी पूर्वावधि ९९० के लगभग होनी चाहिये।
शिलालेखके आधारपर प्रभाचन्द्रके सधर्मा गोपनन्दि बताये गये हैं। पहले बेलगोल' के एक अभिलेख ( अभिलेख सं० ४९२ ) में होय्सलनरेश, एरेयङ्ग
१. न्यायकुमुदचन्द्र, प्रथम भाग. माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई, सन् १९३८ प्रस्तावना,
पृ. ११८॥
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४९
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वारा पनन्दि पण्डित देवको दिये गये दानका उल्लेख है। यह दान पौष शुक्ला प्रयोदशी संवत् १०१५ में दिया गया है। इस तरह ई० सन् १०९३ में प्रभाचन्द्रसधर्मा गोपनन्दिकी स्थिति होनेसे प्रभाचन्द्रका ममय सन् १०९३ ईस्वीके पश्चात् नहीं हो सकता है।
वादि देवसूरिने ई० सन् १११८ के लगभग अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ स्याद्वादरत्नाकरकी रचना की है । स्याद्वादरताकरमें प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया है, किन्तु कवलाहारसमर्थनप्रकरणमें तथा प्रतिबिम्बचर्चामें प्रभाचन्द्र और प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका नामोल्लेख करके खण्डन भी किया है। अतः प्रभाचन्द्रके समयकी उत्तरावधि ई० सन् ११०० सुनिश्चित हो जाती है।
श्री पण्डित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने अनेक पुष्ट प्रमाणोंके आधारपर ई० सन् १८० से १०६५ ईस्वी तक प्रभाचन्द्रका समय माना है। 'सुदंसणचरिउ' की प्रशस्तिमें नयनन्दिने माणिक्यनन्दिका उल्लेख किया है । 'सुदसणचरिउ' की समाप्ति वि० सं० ११०० में हई है। अतः माणिक्यनन्दिका समय वि० सं० की ११वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है। प्रमेयकमलमार्तण्डकार आचार्य प्रभाचन्द्रने माणिक्यनन्दिके समक्ष धारानगरीमें प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना की है । आचार्य माणिक्यनन्दि भी धारानगरीमें निवास करते थे। अतः बहुत सम्भव है कि माणिक्यनन्दिसे परीक्षामुखका अध्ययन कर प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड रचा हो । डॉ दरबारीलालजी कोठियाके सप्रमाण अनुसन्धानके अनुसार प्रभाचन्द्र और माणिक्यनन्दिकी समसामयिकता प्रकट होती है और उनमें परस्पर साक्षात् गुरु-शिष्यत्व भी सिद्ध होता है। इससे भी आचार्य प्रभाचन्द्रका समय ई० सन्की ११वीं शती निर्णीत होता है। रचनाएँ
इनकी निम्नलिखित रचनाएं मान्य है१. प्रमेयकमलमार्तण्ड : परीक्षामुख-व्याख्या २. न्यायकुमुदचन्द्र : लघीयस्त्रय-व्याख्या ३. तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण : सर्वार्थसिद्धि-व्याख्या ४. शाकटायनन्यास : शाकटायनव्याकरण-व्याख्या ५. शब्दाम्भोजभास्कर : जैनेन्द्रव्याकरण-व्याख्या ६, प्रवचनसारसरोजभास्कर : प्रवचनसार-व्याख्या ७, गधकथाकोष : स्वतंत्र रचना
१. आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना १० २७-३३, वीर सेवा मन्दिर संस्करण, १९४९ ।
५० : सोपवर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
८. रत्नकरण्डकश्रावकाचार-टीका १. ममाक्तिंत्र-दीका १० क्रियाकलाप-रीका ११. आत्मानुशासन-टोका १२. महापुराण-टिप्पण।
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने रलकरण्डयावकाचारको प्रस्तावनामें रत्नकरगडवावकाचारकी दीका और समाधिनत्रकी टीकाको प्रस्तुत प्रभाचन्द्र द्वारा रचित न मानकर किसी अन्य प्रभाचन्द्रकी रचनाएँ माना है। पर जब प्रभाचन्द्रका समय ११ वीं शताब्दी मिद्ध होता है, तो इन ग्रन्थोंके उद्धरण रह भी सकते हैं। ग्नकरण्डटीका और ममाधितंत्रटीकामें प्रमेयकमलमासंण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका एक मात्र विशिष्ट शैलीमें उल्लेख होना भी इस रातका सूचक है कि ये दोनों टीकाएं प्रसिद्ध प्रमाचन्द्रकी ही हैं। यथा-- ___"तदलमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमानण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे प्रपञ्चतः प्ररूपगान्'--.रलकरण्डटीका पृष्ठ-६ । "य: पुनर्योगसांख्यर्मुक्तो तत्प्रच्युतिरात्मनोभ्यपगता ने प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः प्रत्याख्याताः ।" . ममावितन्त्रटीका, पृष्ठ १५ ।।
ये दोनों अवतरण प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्करके उद्धरणसे मिलते जलते है
"तदात्मकत्वं चायंस्य अध्यक्षतोऽनुमानादिश्च यथा सिद्धयति तथा प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्र च प्ररूपितामह द्रष्टव्यम् ।"-शब्दाम्भोजभास्कर।
प्रभाचन्द्रकृत गद्यकथाकोशमें पायी जाने वाली अञ्जनचोर आदिको कथाएँ रत्नकरण्डकश्रावकाचारगन कथाओंसे पूर्णत: मिलती हैं । अतएव रत्नकरण्डक श्रावकाचार और समाधितन्त्रको टोकाएं प्रस्तुत प्रभाचन्द्रको ही हैं।
क्रियाकलापकी टीकाको एक हस्तलिखित प्रति बम्बईके सरस्वतीभवनमें है। इस प्रतिकी प्रशस्तिमें क्रियाकलापटीकाके रचयिता प्रभाचन्द्रके गुरुका नाम पद्मनन्दि सैद्धान्तिक है और न्यायकुमुदचन्द्र आदिके कर्ता प्रभाचन्द्र भी पयनन्दि सैद्धान्तिकके ही शिष्य हैं। अतएव क्रियाकलापटीकाके रचयिता प्रस्तुत प्रभाचन्द्र ही जान पड़ते हैं। प्रशस्ति निम्न प्रकार है
"वन्दे मोहतमोविनाशनपटुस्त्रलोक्यदीपप्रभुः संसतिसमन्वितस्य निखिलस्नेहस्य संशोषकः । सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्रकिरणः श्रीपयनन्दिप्रभुः तच्छिष्यात्प्रकटार्थतां स्तुतिपदं प्राप्तं प्रभाचन्द्रतः ॥"
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य :
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
इसी प्रकार आत्मानुशामनतिलक के रचयिता भी प्रस्तुत प्रभाचन्द्र' हैं । निश्चयतः आचार्य प्रभाचन्द्र अद्भुत भाष्यकार हैं। इन्होंने जिन टीकाओंका निर्माण किया है वे टीकाएँ स्वतन्त्र ग्रन्थका रूप प्राप्त कर चुकी हैं। अतः प्रमेयकमलमात्तंण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र तत्त्वार्थवृत्तिपदववरण, प्रवचनसारम रोजभास्कर, शब्दाभोजभास्कर, महापुराण टप्पण, गद्यकथाकोश, रत्नकरण्डटीका, समाधितंत्रटीका क्रियाकलापटीका, आत्मानुशासनतिलक आदि टीका ग्रन्थ प्रभाचन्द्रद्वारा रचित हैं, यह स्पष्ट है ।
1
लघु अनन्तवीर्य
जैन न्याय -साहित्यमे ग्रन्थकारके रूपमें दो अनन्तवीर्थ के नामांका उल्लेख मिलता है । इनमें एक अनन्तवीर्य तो वे ही हैं, जिनने अकलंकके सिद्धिवि निश्चयकी टीका लिखी है । प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र में इनका स्मरण किया है । दूसरे अनन्तवीर्य के हैं, जिन्होंने प्रमेयरत्नमाला बनायी है। इस प्रमेयरलमालामें अनन्तवीर्यने प्रभाचन्द्रका उल्लेख किया है । अत: उत्तरकालवर्ती होनेके कारण प्रमेयरत्नमालाके रचयिता अनन्तवीर्यको लघु अनन्तवीर्य या द्वितीय अनन्तवीर्थ कहा जाता है । प्रमेयरत्नमालाक टिप्पण में इनका उल्लेख 'लघु अनन्तवीदेव' के नाम से किया भी गया है। इन्होंने परीक्षामुखके सूत्रोंकी संक्षिप्त, किन्तु विजद व्याख्या को है। साथ ही सङ्गतः चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, न्याय, वैशेषिक और मांमांगा दर्शनोंके कतिपय सिद्धान्तोंको आलोचना भी की है।
इनकी एकमात्र कृति 'प्रमेयरत्नमाला' प्राप्त है । ग्रन्थके आरम्भ में इस टीकाको इन्होंने परीक्षामुखञ्जिका कहा है । प्रत्येक समुद्देश्यके अन्तमें दी गयी पुष्पिकाओं में इसे परीक्षामुख लघुवृत्ति भी कहा है।
आचार्य अनन्तवीर्यने ग्रन्थके प्रारम्भमें तथा अन्तिम प्रशस्तिमें उल्लेख किया है कि इन्होंने इस टीकाकी रचना वैजेयके प्रिय पुत्र हीरपके अनुरोधसे शान्तिषेणके पठनार्थकी थी । प्रशस्तिमें वैजेयके ग्रामादिकका कोई निर्देश नहीं है, पर उन्हें बदरीपालवंश या जातिका ओजस्वी सूर्य कहा है। उनकी पत्नीका नाम नागम्बा था, जो अपने विशिष्ट गुणोंके कारण रेवती, प्रभावती आदि नामोंसे उस समय संसारमें प्रसिद्ध थी । उसके दानवीर हीरप नामक पुत्र हुआ, जो सम्यक्त्वरूप आभूषणसे भूषित था और जो लोकहितकारी कार्योंको करनेके लिये प्रसिद्ध था ! उसके आग्रहसे सम्भवतः उन्हींके पुत्र शान्तिषेणके पठनायं इस लघुवृत्तिकी रचना की गयी । यह रचना जैन न्यायके अध्येताओंके लिये विशेष उपयोगी है ।
I
१. विशेष जाननेके लिए देखिए प्रमेयकमलमार्त्तण्डकी प्रस्तावना, १०७६ ७७ । ५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आधापरम्परा
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
समय- विचार
प्रमेय रत्नमालाकी रचना प्रभाचन्द्र के 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड' के पश्चात् की गयी है । प्रमेयरत्नमालाके आरम्भिक पद्योंमें बताया हैप्रमेन्दुवचनोदारचन्द्रिका - प्रसरे सति ।
मादृशाः क्व नु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गण-सन्निभाः ॥ अर्थात्, जब प्रभाचन्द्राचार्यकी वचनरूप उदारचन्द्रिका ( प्रमेयकमल मातंण्ड ) प्रसूत है, तो खद्योतसदृश हम सरीखे मन्दबुद्धियों की क्या गणना हैं ? इससे स्पष्ट है कि वीर्य है और प्रभाचन्द्रका समय ई० सन् की ११वीं शताब्दी है ! उधर आचार्य हेमचन्द्र ( वि० सं० १९४५ - १२३० ) की 'प्रमाणमीमांसा' पर शब्द और अर्थ दोनोंकी दृष्टिसे प्रमेयरत्नमालाका पूरा-पूरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। अतः अनन्तater समय प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्रके मध्य होना चाहिये । इस प्रकार अनन्तवीर्यका समय विक्रमकी १२ वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध प्रतिफलित होता है। डॉ० ए० एन उपाध्येने भी प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यका यही समय अनुमानित किया है ।
रचना
लघु अनन्तवीर्यकी एकमात्र उपलब्ध रचना यही प्रमेयरत्नमाला है । परीक्षामुखके समान प्रमेय रत्नमालाका भी विषय प्रमाण और प्रमाणाभासका प्रतिपादन है । प्रमेयकमलमार्त्तण्डमें जिन विषयोंका विस्तारसे वर्णन है, उन्हींका संक्षेपमें स्पष्टरूपसे कथन करना प्रमेयरत्नमालाकी विशेषता है। परीक्षामुखके समान इसमें छह समुद्देश्य हैं और उनमें उसीके समान प्रमाणलक्षण, प्रमाणभेद प्रमाणविषय प्रमाणफल, प्रमाणाभास और नयका विवेचन परीक्षामुखकी व्याख्याके रूपमें है । प्रतिपादनशैली बड़ी सरल, विशद और हृदयग्राही है ।
·
वीरनन्दि
आचार्य वीरनन्दि सिद्धान्तवेत्ता होनेके साथ जनसाधारणके मनोभावों, हृदयकी विभिन्न वृत्तियों एवं विभिन्न अवस्थाओं में उत्पन्न होनेवाले मानसिक विकारोंके सजीव चित्रणकर्ता महाकवि थे । इनके द्वारा रचित चन्द्रप्रभ-महाकाव्य इनकी काव्य-प्रतिभाका चूड़ान्त-निदर्शन है। ये नन्दिसंघ देशीयगण के आचार्य है | चन्द्रप्रभके अन्तमें इन्होंने जो प्रशस्ति' लिखी है, उससे ज्ञात होता
१. प्रमेयरत्नमाला, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, ११३ ।
२. चन्द्रप्रभ-चरितम् निर्णय सागर प्रेस बम्बई, सन् १९२६ प्रशस्ति पथ १, तथा ४ |
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषाचार्य : ५३
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
है कि ये आचार्य अभयनन्दिके शिष्य थे । अभयनन्दिके गुरुका नाम गुणनन्दि था।
श्रवणवेलगोलके ४७वें अभिलेखमें बताया है कि गुणनन्दि आचार्यक ३०० शिष्य थे 1 उसमें ३२ सिद्धान्त-शास्त्रके मर्मज्ञ थे। इनमें देवेन्द्र सैद्धान्तिक सबसे प्रसिद्ध थे। इन देवेन्द्र सैद्धान्तिक शिष्य कलधौतनन्दि या कनकनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। कनकनन्दिने इन्द्रनन्दि गुरुके पास सिद्धान्त-शास्त्रका मध्ययन किया था ।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें अभयनन्दि, इन्द्रनन्दि और वीरनन्दि इन तीनों आचायोंको नमस्कार किया है।
एक अन्य गाथामें उन्होंने बताया है कि जिनके चरणप्रसादसे बीरनन्दि और इन्द्रनन्दि शिष्य अनन्त संगारमे पार हुए हैं, उन अभयनन्दि गुरुको नमस्कार है
अतः प्रतीत होता है कि वीरनन्दिके गुरु अभयन्दि, दादागुरु गणनन्दि और सहाध्यायी इन्द्रनन्दि थे । नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती इनक शिष्य अथवा लघु गुरुभाई प्रतीत होते हैं। इन्होंने उन्हें नमस्कार किया है । स्थिति काल
पाश्वनाथचरितमें महाकवि वादिराजने ( ई० सन् १०२५ ) चन्दप्रभकाव्य और उसके रचयिता बीरनन्दिकी संस्तुति करते हुए लिखा है कि
चन्द्रप्रभाभिसम्बद्धा रसपुष्टा मनः प्रियं ।
कुमुदतीव नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ।। जिस प्रकार चन्द्रमाको प्रभा कुमुदवतीको प्रफुल्लित करती है, उसी प्रकार शृङ्गारादि नव रसोंसे पुष्ट चन्द्रप्रभचरितमें ग्रथित वीरनन्दिस्वामीकी वाणी, हमारे मनको प्रफुल्लित करती है।
१. गमिका भभयदि सुद-सायर पारगिददिमुरु । वरवीरदिणाहं पण्डीणं पच्चयं योन्छ ।
-गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा ७८५ । २. जस्स 2 पायपसायेगणतसंसारजलहिमुत्तिण्यो।
पोरिवणंदिवच्छो गमामि तं अभयमंदिगुरुं ॥ ३. वही, गाथा ४३६ । ४. मो०० गा० ७८५, पार्श्वनामचरित, माणिकचन्द्र ग्रम्पमाला सीरीज, १॥३० ।
५४ : सीकर महावीर और उनकी माचार्यपरम्परा
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
इससे अवगत होता है कि आचार्य वीरनन्दि वादिराज ( ईस्वी सन् १०२५ । से पूर्ववर्ती हैं और उनका चन्द्रप्रभचरित रचा जा चुका था ।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीने इन्द्रनन्दिको अपना गुरु लिखा है तथा वीरनन्दि इन्हीं इन्द्रनन्दिके सहाध्यायी हैं | अतः प्रतीत होता है कि इन्द्रनन्दि और वीरनन्द्रि नेमिचन्द्रके समकालीन हैं । आचार्य नेमिचन्द्रने अपने गोम्मटसारकी रचना गङ्गवंशीय राजा राचमलके प्रधानमन्त्री और सेनापत्ति चामुण्डरायकी प्रेरणासे की है। राचमलके भाई रक्वास गंगराजने शक संवत् २०६-१२१ (ई. सन् ९८४-९९९ ) तक राज्य किया है । कन्नड़के महाकवि रन्नने शक संवत् ९१५ ( ई० सन् ९८३ ) में पुराणतिलक नामक ग्रन्थको रचना की हैं और उसने अपनेको रक्कम गंगराजका आश्रित लिखा है । चामुण्डराय द्वारा श्रवणवेलगोलको प्रसिद्ध गोम्मटस्वामीकी मूर्ति १३ मार्च सन् ९८१ ई० में प्रतिष्ठित हुई ।। अतः इन समस्त संदर्भोके प्रकाश में लौरनधिका समय ३० सन् १०२५ से पूर्व और ई० सन् ९०० के बाद अर्थात् १५०-२९९. सिद्ध होता है | रसना-परिचय __आचार्य बोरनन्दिको एकमात्र रचना चन्द्रप्रभचरित है, जो उपलब्ध तथा प्रकाशित है। इस महाकाव्यमें १८ सर्ग और १६९७ पद्य हैं । कविने संस्कृतके सभी प्रसिद्ध छन्दोंका इसमें प्रयोग किया है। आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभका इसमें जीवन-चरित वर्णित है। रचना बड़ी मरम और हृदयग्राही है। सभी रस और अलङ्कार इसमें समाहित हैं। प्रसङ्गतः सिद्धान्तका प्रतिपादन भी असाधारण और बहुबोधवर्धक है । याक्कधर्म और मुनिधर्मका भी विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। अतएक वीरनन्दिकी यह महत्वपूर्ण कृति न केवल काव्यत्त्वकी दष्टिसे उल्लेखनीय है, अपितु धर्म, दर्शन, आचार आदिकी दृष्टि से भी समृद्ध है। यतः इसको कथावस्तु तीर्थकरसे सम्बद्ध है, अतः यह और भी अधिक रोचक है |
महासेनाचार्य महासेन लाट-वर्गट या लाड़-वागड़ संघके आचार्य थे। प्रद्युम्नचरितकी कारज्ञाभंडारको प्राप्तमें जो प्रशस्ति दी हुई है, उससे ज्ञात होता है कि लाटवर्गट संघमें सिद्धान्तोके पारगामी जयसेन मुनि हुए और उनके शिष्य गुणाकरसेन । इन गुणाकरसेनके शिष्य महासेनसूरि हुए, जो राजा मुज द्वारा पूजित थे १. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग-६, किरण-४, श्रवणबेलगोल एवं यहाँकी गोम्मट मूर्ति,
पृ. २०५ तथा इसी अंकम गोम्मट मूर्तिकी प्रतिष्ठाकालीन मूर्तिका फल । २. इसका एक संस्करण निर्णयसागर प्रेस, बम्बईसे सन् १९२६ में निकला और दूसरा
संस्करण जीवराज जैन ग्रन्यमाला सोलापुरसे सन् १९७१ में प्रकट हुवा है।
प्राचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ५५
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
और सिन्धुराज या सिन्धुलके महामात्य पर्पटने जिनके चरणकमलोंकी पूजा की थी । इन्हीं महासेनने पद्य म्नर्धारित' काव्यकी रचना को और राजाके अनुचर विवेकवान् मघनने इसे लिखकर कोविदजनोंको' दिया ।
प्रद्युम्नचरितके प्रत्येक सर्गके अन्त में आनेवाली पुष्पिकामे -- "श्री सिन्धुराज सत्कमहामहत्तश्रीपप्पटगुरोः पण्डित श्रीमहासेनाचार्यस्य कृतं लिखा मिलता है, जिससे यह ध्वनित होता है कि सिन्धुलके महामात्य पर्यटकी प्रेरणासे ही प्रस्तुत काव्य निर्मित हुआ है।
וי
लाट-वर्गसंघ माधुसंघके हो समान काष्ठासंघकी शाखा है । यह संघ गुजरात और राजपूताने में विशेष रूपसे निवास करता था । कवि आचार्य महासेन पर्पटके गुरु थे । इससे यह स्पष्ट है कि आचार्य महासेनका व्यक्तित्व अत्यन्त उन्नत था और राजपरिवारोंमें उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी ।
स्थितिकाल
'प्रद्यनचरित' को प्रशस्ति में काव्यके रचनाकालका निर्देश नहीं किया गया, पर मुञ्ज और सिन्धुलका निर्देश रहनेसे अभिलेख और इतिहासके साक्ष्य द्वारा निर्णय करनेकी सुविधा प्राप्त है | इतिहासमें बतलाया गया है कि मुञ्ज वि०स० १०३१ (ई० सन् १७४ ) में परमारोंकी गद्दी पर आसीन हुआ। उदयपुरके अभिलेखसे विदित होता है कि उसने लाटों, कर्नाटकों, चोलों और केरलोंको अपने पराक्रमसे त्रस्त कर दिया था। मुञ्जके दो दानपत्र वि० सं० १०३१ ( ई० सन् ९७४ ) और वि० सं० १०३६ ( ई० सन् ९७९ ) के उपलब्ध हुए हैं । कहा जाता है कि ईस्वी सन् ९९३-९९८ के बीच किसी समय तलपदेवने उनका बध किया था । इन्हीं मुञ्जके समय में वि० सं० १०५० ( ई० सन् ९९३ ) में अमितगतिने 'सुभाषिनरत्नसंदोह समाप्त किया था।
मुञ्ज या वाक्पतिका उत्तराधिकारी उसका अनुज सिन्धुल हुआ । इसका दूसरा नाम नवसाहसांक या सिन्धुराज है। इसके यशस्वी कृत्योंका वर्णन पद्मगुप्तने नवसाहसांकचरितमें किया है। इसी सिन्धुलका पुत्र भोज था, जिसका मेरुतुंगको 'प्रबन्धचिन्तार्माण' में वर्णन पाया जाता है । अतएव प्रद्युम्नचरितकी | जैन साहित्य इतिहास, द्वितीय संस्करण,
१. श्रीलाट-वर्गटनभस्तलपूर्ण चन्द्र
० ४१५ ।
P
I
२. डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी, प्राचीन भारतका इतिहास, बनारस, १९५६ ई० पू० २८३ । ३. अम ( संवत् १०७८ वर्ष ) यदा मालवमण्डले श्रोभोजराजा राज्यं चकार ---प्रबन्धचिन्तामणि, सिमी सिरीज १९३३ ई० भोज भीमप्रबन्ध, पृ० २५ । पञ्चाशत्पञ्चवर्षाणि मासाः सप्तदिनत्रयम् 1
भोक्तभ्यं भोजराजेन गोहं दक्षिणापथम् ॥
वही, पृ० २२ ।
५६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
------
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
रचना ई० सन् ९७४ के आस-पास हुई है और आचार्य महासेनका समय १०वी शतीका उत्तराई है। रचना __ आचार्य महासेनका 'प्रद्य म्नचरित' महाकाव्य उपलब्ध है । इस काव्यमें १४ सर्ग हैं। परम्पराप्राप्त कथानकको आचार्यने महाकाव्योचित रूप प्रदान किया है। प्रद्युम्नचरितको कथा-वस्तु ___द्वारावती नगरीमें यदुवंशी श्रीकृष्ण नामके राजा हुए। इनको पटरानी सत्यभामा थी। इस पृथुवंशकी पुत्रीने दृष्टिसे मृगोको, वाणीसे कोकिलाको, मुखसे चन्द्रमाको, गतिसे हंसिनीको और अपने कुन्तलसे चमरीको पराजित कर वि । यह विचारही आमंतिथी । बोके समक्ष शत्रु नतमस्त होते ये । प्रथम सर्ग____ एक दिन नारदमुनि पृथ्वीका परिभ्रमण करते हुए द्वारिकाम आये । श्रीकृष्णने उनका स्वागत किया। नारद सत्यभामाके भवनमें गये, पर श्रृंगार करनेमें संलग्न रहनेके कारण सत्यभामा मुनिको न देख सकी। फलतः सत्यभामासे रुष्ट हो नारद श्रीकृष्णके लिए सुन्दरी स्त्रीकी तलाश करते हुए कुण्डिनपुर पहुँचे। राजा भीष्मकी सभामें रुक्मिणी द्वारा प्रणाम किये जानेपर उन्होंने उरो श्रीकृष्ण प्राप्तिका आशीर्वाद दिया। कुण्डिनपुरस चलकर नारद रुक्मिणीका चित्रपट लिये हुए पुनः द्वारिकामें पधारे। चित्रपटको देखकर श्रीकृष्ण रुक्मिणीपर अनुरक्त हो गये। रुक्मिणीके भाईका नाम रुक्म था, यह रुक्मिणीका विवाह शिशुपालके साथ करना चाहता था । अतः शिशुपालने ससैन्य कुण्डिनपुरको घेर लिया, पर रुक्मिणी शिशुपालको नहीं चाहती थी। नारदने श्रीकृष्णको रुक्मिणी हरणकी सलाह दी । द्वितीय सर्ग
श्रीकृष्ण और बलराम कुण्डिनपुरके बाहर उपवनमें छिपकर बैठ गये। नगर. के चारों ओर शिशुपालको सेना घेरा डाले थी। रुक्मिणी उस उपवनमें कामदेवके अर्चनके लिये गयो । श्रीकृष्णने उसका अपहरण किया। भीष्म, रुक्म और शिशुपाल द्वारा पीछा किये जानेपर श्रीकृष्णने शिशुपालका बध किया और सकुशल रुक्मिणीको लकर आ गये । उपवनमें रुक्मिणीके साथ उनका पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। एक दिन श्रीकृष्णने झम्भिणीको श्वेतवस्त्र पहनाकर उपवनमें एक शिलापर बैठा दिया और स्वयं लताकुञ्जमें छिप गये । जब सत्यभामा वहाँ आयी, तो रुक्मिणोको सिद्धांगना या देवांगना समझ उसकी पूजा करने लगी
प्रयुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ५७
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
तथा उससे वरदान मांगा कि मापद रुक्मिणोका त्यागकर मेरे दास बनें । इसी समय श्रीकृष्ण कुञ्जमे निकल आये और हँसने लगे। मुक्मिणी और सत्यभामामें मित्रता हो गयी। दूसरे दिन मैत्रीका संदेश लंकर दूत आया। श्रीकृष्णने वस्त्राभूषण देकर उसे वापस लौटा दिया । तृतीय सर्ग__क्मिणी और सत्यभामाने बलगमके समक्ष प्रतिज्ञा की कि जिसके पहले पुत्र होगा, वह पीछ होनेवाले पुत्रको भाताके वालोंका अपने पुत्रके विवाहके समय मण्डन करा देगी। मुक्मिणीका पुत्र उत्पन्न हुआ। जन्मके पांचवें दिन धूमकेतू नामक दैत्यने उस शिशका अपहरण क्रिया! उगने उस शिशको वातरक्षकगिरिकी कन्दरामें रख दिया और एक शिलासे उस कन्दराके द्वारको भी आवृत कर दिया । दत्यक चले जानेके उपरान्त वहाँ कालसंबर गजा अपनी प्रेयसी कंचनमालाके माथ विहार करता हुआ आया । कालसंवरने कन्दरास पुत्रको निकालकर कचनमालाको मौंप दिया और नगर में आकर यह घोषित किया कि कञ्चनमालाने पुत्रका जन्म दिया है। जन्मोत्सव सम्पन्न किया और बालकका नाम प्रद्य म्न रक्खा गया ! --चतुर्थ सर्ग
पत्रके अपहरणसे द्वारावतोम तहलका मच गया। रुक्मिणी विलखवलख कर रोने लगी। कृष्णने पुत्रकी तलाश करनेका बहुत प्रयास किया, पर पता न चला । नारदने विदेहमें जाकर सीमन्धर स्वामीके समवशरणमें श्रीकृष्णके नवजात शिशुके अपहरणके सम्बन्धी प्रश्न किया । उत्तर प्राप्त हुआ कि पूर्वजन्मकी गश्रुताके कारण धूमकेतु दत्यने पुत्रको चराया है। अब उसे कालसर प्राप्त कर चुका है। वह पुत्रवत् पालन करेगा और सोलह बर्षको अवस्था होनेपर वापस आयेगा । केवलीने प्रद्य म्नके पूर्वजन्मका आख्यान भी कहा |--पञ्चमसर्ग
अयोध्या नगरी में अरिजय राजा रहता था। इसकी रानी प्रीतिकराके गर्भसे पूर्णभद्र और मणिभद्र नामक दो पत्र हुए। राजा मुनिका उपदेश सुनकर विरक्त हो गया और पुत्रको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। इसो समय दो वणिक पुत्रोंने श्रावकधर्म ग्रहण किया। एक मुनि द्वारा कूतिया और मातंगको पूर्वभवावलि सुन वे दोनों दीक्षित हो गये और तपश्चरण द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया। -षष्ठ सर्ग
कौशल नगरीमें हेमनाग राजा रहता था। इसके मध और कैटभ पुत्र थे। मधुको राज्य और कैटभका युवराज पद देकर वह भार्या सहित संन्यासी हो गया । मधु और कैटभ बड़े प्रतापी थे। समस्त राजा इनके चरणोंमें नतमस्तक होते थे। एक दिन भीमने उनके राज्यमें प्रवेश कर नगरको जलाया और जनताको कष्ट दिया । मधुने उसके राज्यपर आक्रमण किया । मार्गमें हेमरथने उसका
५८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वागत किया । वह हेमरथको सुन्दरी भार्याको देखकर मोहित हो गया मंत्रियों के परामर्शानुसार उसने प्रथम भीमका बध किया। अनन्तर हेमरथकी रानीको ले लिया। प्रियाके अभावमें हेमरथ उन्मत्त हो गया। एक दिन हमरथको रानी द्वारा सम्बोधन प्राप्त होनेपर वह अपने पुत्रको राज्य सौपकर मुनि हो गया। कैटभने भी श्रमण दीक्षा धारण की। समाधिमरण धारणकर वे दोनों स्वर्गमें देव हुए। वहाँसे च्युत हो मधुका जीव प्रद्युम्न, कंटभका जीव जाम्बवती पुत्र और हेमरथका जीव धूमकेतु हुआ है। इसी धूमकेतुने प्रद्युम्नका अपहरण किया है। -सप्तम सर्ग
कालसंवरके घर प्रद्युम्न वृद्धिंगत होने लगा। युवक होनेपर प्रद्युम्नने कालसंवरके शत्रुओंको परास्त किया, जिससे उसने प्रसन्न हो, अपनी पत्नीके समक्ष की गयी प्रतिज्ञाके अनुसार ५०० पुत्रोंके रहनेपर भी प्रद्य म्नको युवराज बना दिया। उसके युवराज होने पर कालसंवरके अन्य पुत्र उससे द्वेष करने लगे । वे उसे विचर्याको गुफालामें ल गये, नियामें नाग, राक्षस आदि निवास करते थे। प्रद्य म्नने सभीको अपने अधीन किया। कालसंबर प्रद्य म्नकी इस वोरतासे बहुत प्रसन्न हुआ और वह पिताको अनुमतिसे माता कञ्चनमालाके भवनम गया । रानी कञ्चनमाला उसके रूपसौन्दर्यको देखकर मुग्ध हो गयी। प्रद्युम्नने उसे समझाया, पर उसकी अनुरक्ति न घटी। प्रद्य म्नने कञ्चनमालासे दो विद्याएँ सीख ली | अन्ततोगत्वा जब उसने देखा कि प्रद्य म्न वासनाको पूरा नहीं करता है, तो उसने उसपर बलात्कारका दोषारोपण किया। राजाने मृत्युदण्ड देनेके लिये सेना मेजो। स्वयं भी उसने प्रद्युम्नको पकड़ना चाहा, पर विद्यावलसे वह प्रद्युम्नका कुछ भी नहीं कर सका । नारदने आकर प्रद्य म्नके सम्बन्धमें समस्त बातें बतला दी, जिससे कालसंवर बहुत प्रसन्न हुआ। --अष्टम मग |
प्रद्युम्न नारदमुनिक साथ द्वारावतीको चला। सत्यभाभाका पुत्र भानु दुर्वाचनकी पुत्री उदधिसे विवाह करना चाहता था। प्रद्युम्लने वनचरकारूप धारण कर उन मबको परास्त किया और उदधिको हर माया । उदधि नारदमनिके समक्ष रोने लगो। प्रद्युम्नने अपना वास्तविक रूप दिखलाया, जिससे वह अनुरक्त.हो गयो । प्रद्युम्नने सत्यभामा तनय भानुको परास्त किया और मर्कटरूप धारणकर पत्याभामाके उपवनको नष्ट कर दिया। उसने बाजार नष्ट किया । मेष द्वारा बलरामको मूच्छित किया । अनन्तर प्रद्युम्न अपनी माँ रुक्मिणीके भवन में अत्यन्त कुरूप और विकृत वेशमें आया । श्रीकृष्ण के निमित्त बने समस्त पक्वान्न उसे खिला दिये। प्रद्युम्नने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया और माताके आदेशसे विद्याबल द्वारा बाल-क्रीड़ाएँ प्रस्तुत की। अनन्तर
प्रभुदानायं एवं परम्परागोषकाचार्य : ५..
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुर्योधनकुमारी उदधिको माँके पास छोड़कर यादव और पाण्डवकी सेनाके साथ मायामयो युद्ध करने लगा। उस युद्धको देखनेके लिये देव और दैत्य दोनों आये । नवम सर्ग
प्रलयसमुद्रके समान दोनों पक्षकी सेनाएँ अपना पराक्रम दिखलाने लगीं । श्रीकृष्ण प्रद्युम्न के पराक्रम और बाणकौशलको देखकर आश्चर्यचकित थे । अतः उन्होंने बाहुयुद्धका प्रस्ताव प्रद्युम्नके समक्ष रखा। दोनों बाहुयुद्धकी तैयारी में थे कि चारद आ गये और श्रीकृष्णद्युतका परिचय कराया | श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और धूमधामपूर्वक प्रद्युम्नका नगरमें प्रवेश कराया। उदधिके साथ प्रद्युम्नका विवाह सम्पन्न हुआ, जिसमें कालसंवर और कञ्चनमालाको भी आमन्त्रित किया गया । - दशम सर्ग
श्रीकृष्णकी जाम्बवती नामक पत्नीसे शम्ब नामक शूरवीर और दानी पुत्र उत्पन्न हुआ | श्रीकृष्ण उसकी वीरता से बहुत प्रसन्न थे। किन्तु एक दिन किसी कुलीन स्त्रीके शीलभंगके अपराधमें इसे नगरसे निर्वासित कर दिया । वसन्तमें प्रद्युम्न वनविहारके लिये गया और वहाँ उसे शम्ब मिला । शम्बका विवाह सम्पन्न किया गया । प्रद्युम्नके भी कई विवाह हुए। उसके अनिरुद्ध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । – एकादश सर्ग
तोर्थंकर नेमिनाथ पल्लवदेशसे विहार कर मौराष्ट्र आये। यादवोंने समयगरण में जाकर तीर्थंकरको वन्दना की । बलदेवने द्वारकाविनाश और श्रीकृष्णकी मृत्युके सम्बन्धमें प्रश्न किया। तीर्थंकरने नद्यपानके कारण द्वीपायनमुनिके निमित्तसे इस देवनगरीके विनाश और जरत्कुमारके वाणसे श्रीकृष्णकी मृत्युके सम्बन्ध में भविष्यवाणी की । जरत्कुमार वनमें चला गया और वहाँ आखेटकका जीवन यापन करने लगा । यादव इस भविष्यवाणीको सुनकर बहुत चिन्तित रहने लगे । रात्रि व्यतीत होने पर प्रातःकाल हुआ। द्रादश सर्ग
I
श्रीकृष्ण रत्नजटित सिंहासन पर शोभित थे । सामन्त और सचिव उनकी सेवामें उपस्थित थे । विषयविरक्त और शान्त चित्त प्रद्युम्न अन्य राजकुमारोंके साथ हरिके समक्ष पहुँचा। उसने तीर्थंकरके पास दीक्षा ग्रहण करनेका विचार प्रकट किया | वह माता-पितासे अनुमति प्राप्त कर नेमिनाथ के चरणों में दीक्षित हो गया । रुनिमणी और सत्यभामाने भी दीक्षा धारण कर ली । - त्रयोदश स
प्रद्युम्नने घोर तपश्चरण किया । गुणस्थानका आरोहण कर कर्म प्रकृतियोंको नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया । शम्ब, अनिरुद्ध और काम आदि भी मुनि बन गये । प्रद्य ुम्नने अधातिया कर्मोंको नष्ट कर निर्वाण लाभ किया । - चतुर्दश सर्ग
to . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्पर
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमद्भागवत और विष्णुपुराणसे तुलना
प्रद्युम्नका पावन-जीवन और साहिर के प्रति भी हागवत और विष्णुपुराण आदि ग्रन्थोंमें भी वर्णित है। श्रीमद्भागवतके दशम स्कन्धके ५२वें अध्यायसे ५५वें अध्याय तक यह चरित आया है। बताया गया है कि विदर्भदेशके अधिपति भीष्मकके पांच पुत्र और सुन्दरी कन्या थी। सबसे बड़े पुत्रका नरम रुक्म था। यह अपनी बहन रुक्मिणीका विवाह शिशुपालके साथ करना चाहता था । अतः उस कन्याने एक विश्वासपात्र ब्राह्मणको श्रीकृष्णके यहाँ अपना सन्देश देकर भेजा। ब्राह्मणने श्रीकृष्णसे रुक्मिणीके प्रेमकी बात कह सुनायी और शीघ्र ही विदर्भ चलनेके लिये उनसे अनुरोध किया । ब्राह्मणने वापस लौटकर रुक्मिणीको श्रीकृष्ण पधारनेकी सूचना दी | भीष्मकने श्रीकृष्ण और बलरामका स्वागत किया। रुक्मिणी अपनी सखियोंके माथ देवीके मन्दिरमें गयी और भगवतीसे श्रीकृष्णकी प्राप्ति के लिये प्रार्थना करने लगी | श्रीकृष्ण शत्रुओंकी सेनाको मोहित कर और रथमें रुक्मिणीको सवार कराकर चल दिये । रुक्मने श्रीकृष्णका पीछा किया | श्रीकृष्णने उसकी में छकी बाल उखाड़कर उसे विकृत कर दिया और रुक्मिणीकी प्रार्थना पर उसे प्राणदान दिया । द्वारिकामें आनेपर विधिपूर्वक रुक्मिणीके साथ कृष्णका विवाह सम्पन्न हो गया।
समय पाकर रुक्मिणीके गर्भसे प्रद्य म्नका जन्म हुआ। अभी प्रद्युम्न दश दिनका भी नहीं हो पाया था कि शम्बासुरने वेश बदलकर सूतिका-गृहसे बालकका अपहरण कर उसे समुद्र में फेंक दिया। समुद्र में बालक प्रद्युम्नको एक मच्छ निगल गया। मछुओं द्वारा वह मच्छ पकड़ा गया और उन्होंने उसे शम्बासुरको भेंट किया । मच्छसे निकले बालकको शम्बासूरने अपनी दासी मायावतीको समर्पित किया। यह मायावती कामदेवकी पत्नी रति हो थी। उसने कुमार प्रद्युम्नका लालन-पालन किया । जब प्रद्युम्न युवा हो गया, तब मायावती उसके समक्ष कामके भाव प्रकट करने लगी। प्रद्युम्नने उससे कहा-'पालन करनेवाली तुम मेरी माँ हो ! तुम इस प्रकारके विकृत विचार क्यों करती हो' ? मायावतीने कहा-'प्रभो ! आप स्वयं नारायणके पुत्र हैं, शम्बासुर आपको सूतिकागृहसे चुरा लाया था। आप मेरे पति कामदेव हैं और मैं सदाको आपकी पली रति हूँ। शम्बासुरले आफ्को समुद्रमें डाल दिया था, वहाँ एक मछली निगल गयी थी। मछलीके पेटसे मैंने आपको प्राप्त किया । गम्बासुर माया जानता है । अतः मायात्मक विद्याओं के अभावमें उसका जीतना सम्भव नहीं ।" उसने महामाया नामकी विद्या प्रद्युम्नको सिखलायी। प्रद्युम्नने युद्ध में शम्बा
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ६१
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुरकी सेनाको परास्त किया । अनन्तर वह द्वारिकामं मायावती के साथ गया और वहां भी उसने मायाके कारण चमत्कार उत्पन्न किये। इस समय नारव वहाँ आये और प्रद्युम्नका परिचय कराया ।
set प्रकारका विष्णुपुराणके पञ्चम स्कन्धके २६वे और २७ अध्यायम प्रद्युम्नचरित उपलब्ध होता है। श्रीमद्भागवन और विष्णुपुराणके चरितमें प्रायः ममानता है । अन्तर केवल इतना ही है कि शम्बासुर प्रद्युम्नको विष्णुपुराणके अनुसार जन्म लेनेके छठे दिन ही समुद्र में गिरा देता है। शेष कथानक दोनों ग्रन्थोंमें समान है ।
'प्रद्युम्नचरितम्' महाकाव्यकी कथावस्तुकी उक्त दोनो ग्रंथोंकी कथा बग्नुके साथ तुलना करनेपर निम्नांकित साम्य और असाम्य उपलब्ध होते हैं
साम्य
| १ | प्रद्युम्न श्रीकृष्ण और रुक्मिणीव पुत्र थे ।
1
(२) जन्मकी छठी रात्रि अथवा दश दिनके पूर्व ही असुर द्वारा अपहरण | | ३) नारद ऋषि द्वारा रुक्मिणीको समस्त स्थिनिकी जानकारी | (४) द्वारिकामें प्रद्युम्न के लौटने पर नारद द्वारा प्रद्युम्नका परिचय |
असाम्य
प्रद्युम्नका शम्बासुर द्वारा अपहरण उसका समुद्र में डाला जाना समुद्रम मत्स्य द्वारा निगला जाना और फिर यम्बासुरकं घर जाकर मत्स्यकं पेटगे जीवित निकलना, मायावतीका मोहित होना और वालक प्रद्युम्नका पालन करना तथा अन्त में युवा होनेपर शम्बासुरको मारकर मायावतीसे विवाह करना ।
1
1
यदि उपयुक्त असमताओं पर विचार किया जाये, तो जात होगा कि जैनलेखकोंने उक्त कथांशोंमें अपनी सुविधानुसार परिवर्तन कर उसे बुद्धिह्य बनाया है । प्रद्युम्नको समुद्रमें न डलवाकर गुफामे अथवा शिलाकं नीचे रखवाना अधिक बुद्धिसंगत है। मत्स्यके पेट मे जीवित निकलनेकी सम्भावना बहुत कम है, जबकि शिलातल या गुफामें जीवित रह जानेकी सम्भावना में आशंका नहीं की जा सकती । अम्यासुरके स्थानपर धूमकेतु अपहरण करनेवाला कल्पित किया गया है तथा कालसंवर विद्याधर उसका पालन करनेवाला माना गया है । कालसंवरकी पत्नी कचनमाला भी मायावती के समान 'प्रद्युम्न' पर मोहित होती है। कालसंवर पत्नी के अपमानका बदला चुकानेक लिये प्रद्युम्नको मार डालना चाहता है। मायावती जिस प्रकार प्रद्युम्नको विद्या सिखलाती है उसी प्रकार कंचनमाला भी । जेन -लेखकोंने जन्म-जन्मान्तरक आख्यान
६२ तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
जोड़कर प्रत्येक घटनाको तर्कपूर्ण बनानेका प्रयास किया है। उन्होंने यह दिखलाया है कि वर्तमान जीवन प्रत्येक पूर्वजन्मके संचित संस्कार कार्य करते हैं । धूमकेतुने पूर्वजन्मको शत्रुताके कारण ही प्रद्युम्नका अपहरण किया था और कंचनमाला भी पूर्वजन्मके प्रेमके कारण ही, प्रद्युम्नपर आसक्त होती है । गम्ब उसका पूर्वजन्मका भाई होनेसे ही प्रेम करता है। कथावस्तुका गठन और महाकाव्यत्व
प्रस्तुत महाकाव्यका कथानक शृङ्खलाबद्ध एवं सुगठित है । क्रमनियोजन पूर्णतया पाया जाता है । मभी कथानक शृङ्खलाकी छोटी-छोटी कड़ियों समान परस्पर सम्बद्ध हैं । प्रद्युम्नचरितमें कथानकका उद्घाटन सत्यभामा द्वारा नारदको असतुष्ट करने और ईर्ष्याांव नारदका सुन्दरीकी तलाशमें जाने एवं रुक्मिणीके हृदय में श्रीकृष्णके प्रति अनुराग उत्पन्न करनेसे होता है । कथावस्तुकी पंखुड़ियाँ सहमें खुलती हुई अपना पराग और सौरभ विकीर्ण कर मुग्ध करती हैं । सत्यभामा और रुक्मिणी में मपत्नीभावका उदय द्वंद्व और शमन कई बार होता हुआ दिखलाया गया है। इस प्रकार कविने कथानकोंकी योजना शृङ्खलाबद्ध कर मनोरंजकताका समावेश किया है। काव्य प्रवाहको स्थिर एवं प्रभावोत्पादक बनाये रखनेके लिये अवान्तर कथाएँ भी गुम्फित हैं। रचना सरस और रोचक है ।
हरिषेण
हरिषेण नामके कई आचार्य हुए हैं। डॉ० ए० एन० उपाध्येने छह हरिषेण नामके ग्रन्थका रोंका निर्देश किया है। प्रथम हरिषेण तो समुद्रगुप्तके राजकवि हैं, जिन्होंने इलाहाबाद स्तम्भलेख ई० सन् ३४५ में लिखा है । द्वितीय हरिषेण अपभ्रंश भाषामें लिखित 'धर्मपरीक्षा' के रचयिता हैं । इन्होंने अपने सम्बन्धमें लिखा है कि मेवाड़की सोमामें स्थित श्रीजीरा ( श्री ओजपुर ) प्रदेशके धक्काडकुल नामक स्थानमें निवास करनेवाले विविध कलाओंके मर्मज्ञ हरिनामक पुरुष हुए। इनके पुत्रका नाम गोवर्धन था और उसकी पत्नी गुणवती जिन भगवानके चरणों में श्रद्धा रखनेवाली थी। उनका पुत्र हरिषेण आगे चलकर विद्वान् कविके रूपमें विख्यात हुआ। वह किसी कार्यवश चित्तौड़ छोड़कर अकालपुर गया । वहाँ उसने छन्दशास्त्र और अलंकारशास्त्रका अध्ययन किया और वि० सं० १०४४ के व्यतीत होनेपर धर्म-परीक्षा नामक ग्रंथ की रचना की। उसने लिखा
१. बृहत् कथाकोश, भारतीय विद्या भवन, बम्बई, सन् १९४३ अंग्रेजी प्रस्तावन १० ११७-११९ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ६३
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
है कि धर्म-परीक्षा पहले जयरामद्वारा थाछन्दमें लिसी मामी, में इसे 'पद्धड़िया' छन्दमें लिख रहा हूँ। अमितगतिकी संस्कृत धर्म-परीक्षासे हरिषेणकी यह धर्म-परीक्षा २६ वर्ष पुरानी है। तृतीय हरिषेण कर्पूरप्रकार या सूक्तावलीके रचयिता हरिषेण या हरि हैं। इन्होंने बताया है कि नेमिचरित भी इन्हींके द्वारा लिखित है। त्रिषष्ठीसारप्रबन्धके रचयिता वज्रसेन उनके गुरु हैं। इनका स्थितिकाल सन्देहास्पद है । यदि ये वनसेन त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितनामक अधूरे संस्कृतगद्य-ग्रन्थके रचयिता हों, तो इन्हें हेमचन्द्रके पश्चात् रखा जा मकता है और इस स्थितिमें इन हरिषेणका समय ई० सन्की १वीं शतीके पश्चात् अवश्य होगा। इनके समय-निर्धारणमें सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि वि० सं० १५०४ के पूर्व ये अवश्य वर्तमान थे, जब सोमचन्द्रने सूक्तावलीकी उदाहरणात्मक कहानियोंसे युक्त कथा-महोदधि नामक ग्रन्थ लिखा।
चतुर्थ हरिषेणका परिज्ञान भाण्डारकर प्राच्य विद्या-शोध-संस्थान पूनाके एक हस्तलिखित ग्रंथसे प्राप्त होता है कि योनि-प्राभूतके प्राप्य न होनेके कारण विविध चिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थोंके आधारपर जगतसुन्दरीयोगमलाधिकारकी रचना हरिषेण या पं० हरिषेणाने की है। इनके व्यक्तित्व और समय आदिका निर्णय उक्त पाण्डुलिपिके अध्ययनके पश्चात् ही सम्भव है। __पंचम हरिषेणका निर्देश प्रभञ्जनके साथ वासबसेनके 'यशोघरचरित' नामक ग्रन्थमें प्राप्त होता है। उद्योतनसरिने ई० सन् ७७८ में अपनेकुवलयमाला ग्रन्थमें प्रभञ्जनका उल्लेख किया है। गन्धर्वने वि० सं० १३६५ में वासवसेनरचित यशोधरचरितका उपयोग पुष्पदन्तके अपूर्ण 'जसहर रउ' को पूरा करतेमें किया था । मोमकीर्तिने भी वि० सं० १५३५ में रचित अपने यशोधरकाव्यमें इम हरिषेणका निर्देश दिया है।
पष्ठ हरिपेणका भी परिज्ञान भाण्डारकर प्राच्य-विद्या-शोध-संस्थान, पूनाके एक हस्तलिखित ग्रन्यसे होता है। इन्होंने अष्टालिकाकथाकी रचना की थी। ये मूलसंघके आचार्य थे। और इनकी गुरुपरम्परामें रत्नकीर्ति, देवकीति, भीलभूषण और गणचन्द्रक वाद हरिषेणका नाम आया है 1
वृहत्वथाकोशके रचयिता हरिपेण इन मभी हरिषेणोंसे भिन्न प्रतीत होते हैं। इन्होंने इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें लिखा है
यो बोधको भव्यकुमुद्वतीनां निःशेषगद्धान्तवचोमयूरवैः । पुन्नाटसंघाम्बरसंनिवासी श्रीमोनिभट्टारकपूर्णचन्द्रः ।। जैनालयवातविराजितान्त चन्द्रावदाता तिसौधजालें ।
कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्धमानाख्यपुरे वसन् सः ।। - ४ . तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
सारागमाहितमतिविदुषां प्रपूज्यो नानातपोविधिविधानकरो विनेयः । तस्याभवद् गुणनिधिर्जनताभिवन्द्यः श्रीसदपूर्वपदको हरिषेणसंज्ञः ॥ अर्थात् मौनी भट्टारकके शिष्य भरतर्षण और श्रीहरिषेणके श्रीहरिसेन, भरतमेनके हॉपेष प्रस्तुत गिने अपने गुण मरतन उन्होंने छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक आदि शास्त्रोंका ज्ञाता, काव्यका रचयिता, वैयाकरण, तर्कनिपुण और तत्त्वार्थवेदी बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि हरिषेणके दादागुरुके गुरु मौनी भट्टारक जिनसेनकी उत्तरवर्ती दुमरी, नीगरी पोढ़ीमें हो हुए होंगे। हरिषेण पुन्नाट संघके आचार्य है और इसी पुन्नाट संघ में हरिवंगपुराणके कर्त्ता जिनसेन प्रथम भी हुए हैं ।
हरिषेणने कथाकोपकी रचना बर्द्धमानपुरमें की है। इस स्थानको डॉ ए० एन० उपाध्ये काठियावाड़का बड़वान मानते हैं। पर डॉ० हीरालाल जनने इसे मध्यभारत के धार जिलेका बधनावर सिद्ध किया है । वृहत् कथाकोपकी रचना वर्धमानपुर में उस समय की गयी थी, जबकि चहाँपर विनायकपालका राज्य वर्तमान था । उसका यह राज्य शक्र वा इन्द्रके समान विशाल था । यह विनायक - पाल गुर्जर प्रतिहार वंशका राजा है । इसके साम्राज्य की राजधानी कन्नौज थी । 'उस समय प्रतिहारोंके अधिकारमें केवल राजपूतानेका हो अधिकांश भाग नहीं वा, अपितु गुजरात, काठियावाड़, मध्यभारत और उत्तर में सतलजसे लेकर बिहार तकका प्रदेश शामिल था । यह विनायकपाल महाराजाधिराज महेन्द्रपाल - का पुत्र था और भोज द्वित्तीयके बाद राज्यासीन हुआ था । कथाकोशकी रचनाके लगभग एक वर्ष पहले ( वि० स० ९५५ ) का एक दानपत्र मिला है । इस दानपत्रसे भी विनायक पालकी स्थिति स्पष्ट होती है ।
स्थितिकाल
हरिषेण कथाकोशकी प्रशस्तिमें बताया है
नवाष्टनवकेष्वेषु स्थानेषु त्रिषु जायतः । विक्रमादित्यकालस्य परिमाणभिदं स्फुटम् || शतेष्वष्टसु विस्पष्टं पञ्चाशत्यधिकेषु च । शककालस्य सत्यस्य परिमाणमिदं भवेत् ॥ संवत्सरे चतुविंशे वर्तमाने खराभिधे । विनयादिकपालस्य राज्ये शक्रोपमानके ॥
१. बृहत् कथाको
सिंधी सिरीज, प्रशास्ति, पद्य, ३-५ ।
२. राजपूतानेका इतिहास, जिल्द १, पृ० १६३ तथा इण्डियन एन्टीक्वयरी, वाल्यूम १५, पेज १४०-१४१ ।
३. बृहत् कथाकोश, सिंधी सीरीज, प्रशस्ति, पद्य ११-१३ ।
५
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापशेषकाचार्य: ६५
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
शक संवत् ८५३, वि० सं० २.८८, ( ई० सन् ९३१ ) में कथाकोशग्रन्थ रचा गया है। अनः अन्तरंग प्रमाणक आधारपर हरिषेणका समय ई० सन् की १०चीं शताब्दीका मध्यभाग सिद्ध होता है । इस ग्रन्थको प्रशस्तिमें जिस विनायकपालका निर्देश किया है, उसका ममय लगभग वि० सं० २.५५ ( ई० मन् ८०.८ ) है। काठियावाड़ हड्डाला गाँवमें विनायकपालकं बड़े भाई महीपालक ममयका भी शक संवत् ८३६ ( ई० मन ९.१४ ) का दानपत्र मिला है, जिससे मालूम होता है कि उस समय वर्धमानपुरमें उसके मामन्त धरणिव गहका अधिकार था। इसके सत्रह वर्षोंके उपरान्त इस नगरमें कथाकोशका प्रणयन हुआ | अताव प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्री नाथूराम जी प्रेमीका अनुमान है कि वर्धमानपुरमें प्रतिहारोंके किमी मामन्तका अधिकार होनेकी सम्भावना है।
रचना
आचार्य हरिषेणने पद्मबद्ध बृहत् कथाकांश ग्रन्थ लिखा है। इस कोशग्रन्थमें छोटी-बड़ी सब मिलाकर १५७ कथाएँ है और ग्रन्यका प्रमाण अनुष्टुप् छन्दम १२५०० ( साढ़े बारह हजार ) श्लोक हैं। इन कथाओंको निम्नलिखित मात वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
१. व्रताचरण और माधनाकी महत्ता-सूचक कथाएँ । २. भक्ति-सूचक कथाएँ । ३. पापाचरणके कुफल-सूचक आख्यान । ४. अर्द्ध ऐतिहागिक तथ्य-सूचक कथाएँ । ५. मुनि और आचार्योंके जीवन-वृत्त आख्यान । ६. हिंसा, झूट, चोरी आदिसे सम्बद्ध दष्टान्त-कथाएँ । ७. पञ्चाणुगत या अन्य व्रतोंके साधक व्यक्तियोंके आख्यान ।
चाणक्य, शकटाल, भद्रबाहु, बररुचि एवं स्वामिकार्तिकेय प्रभृति व्यक्तियाके अर्द्ध ऐतिहासिक आख्यान आये हैं। इस श्रेणीकी कथाओंम ऐतिहासिक व्यक्तियोंके सम्बन्धमें आगधना या व्यक्तित्वनिर्माण सम्बन्धी किसी आख्यानको प्रकट करते हुए कतिपय तथ्योंका समावेश हुआ है। श्रीप्रेमीजीने भद्रबाहुकथामें आये हुए तथ्योंकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा है कि भद्रवाहुने बारह वोंके घोर दुभिक्ष पड़नेका भविष्य जानकर अपने शिष्योंको लवण समुद्रके समीप चलनेको कहा और अपनी आयु क्षीण जानकर वे स्वयं वहीं रह गये तथा उज्जयिनीके निकट भाद्रपद देशमें समाधिमरण धारण कर स्वर्ग प्राप्त किया । उर्जायनीके राजा चन्द्रगुप्तने भद्रबाहुके ममीप दीक्षा ग्रहण की। यह चन्द्रगुप्त ६६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त है। मुनि होनेपर जिसका नाम विशाखाचार्य कहलाया, जो दग पूर्वधारियों में प्रथम थे" |
करण्डुकी कथा पर्याप्त विस्तृत आयी है और यह कथा 'करकण्डुचरित' तथा प्राकृत-साहित्य में उपलब्ध करकण्डुकथासे कई बातों में भिन्न है। इस कथाके अध्ययनसे एक नयी परम्पराका ज्ञान होता है । यद्यपि कथाका अन्तिम रूप परम्पराके समान ही है, पर कथामें आयी हुई उत्पानिका विशिष्ट है । मध्यभाग में भी कथाका विस्तार पर्याप्त रूपमें हुआ है। धनश्री और नागदत्ताका आख्यान रात्रि भोजन त्यागवत से सम्बद्ध है। पद्मावती के जन्म की कथा भी विचित्र हो रूपमें वर्णित है। इसमें बताया है कि वत्सकावती देशमें कौशाम्बी नामकी प्रसिद्ध नगरी है। इस नगरीका राजा वसुपाल था और रानी वसुमती ! वसुपा नगरसेटका नाम वसुत वसुदत्त बड़ा हो जिनभक्त था । धनमतीकी बहिन धनीका विवाह इसी राजसेठ वसुदत्त के साथ सम्पन्न हुआ और यह भी वसुदत्त संसर्गसे जिनभगवानकी भक्त याविका बन गयी। कुछ दिनोंके पश्चात् वसुदत्तका स्वर्गवास हो गया । अब यह समाचार धनीकी माता नागदत्ताको मिला तो वह बहुत शोकातुर हुई और पुत्रीको सांत्वना देनेके लिये कौशाम्बी जा पहुँची और वहीं पर कुछ दिनों तक निवास करने लगी ।
एक दिन वनश्रीने देखा कि माताका मुखकमल शोक के कारण मलिन हो रहा है, तो वह माँको मुनिराज के पास ले गयी। मुनिराजने नागदत्ताको समझाया और रात्रिभोजन न करनेका उसे उपदेश दिया । नागदत्ताने मुनिराज द्वारा दिये गये व्रतको स्वीकार किया और फिर अपनी दूसरी कन्या वनमतीके पास नालन्दा नगर चली गयी | जब नागदत्ता धनमती पुत्री के यहाँ पहुँची तो पुत्रीके संसर्गके कारण यहाँ उसने रात्रिम भोजन कर लिया और फिर कौशाम्बी नगरमें भी उसने रात्रिभोजन किया । इस प्रकार तीन बार उसने रात्रिभोजनका त्याग भंग किया फिर चौथी बार कौशाम्बी नगरीमें रहनेवाली अपनी कनिष्ठा कन्या धनश्रीके पास यह पहुँची और वहाँ रहते-रहते एक दिन इसकी मृत्यु हो गयी और अपने शुभ-अशुभ कर्मोंके कारण कौशम्बी नगरीके राजा वसुपालकी वसुमती नामक पत्नी के गर्भ में कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई । ज्यों ही नागदत्ताका जीव वसुमतीके गर्भ में आया, वसुमतीको अत्यन्त दुःखद, श्वांस कास आदि रोगोंने पीड़ित कर दिया, जिससे रानी को इसके प्रति बड़ी अनास्था हुई। जैसे ही कन्याका जन्म हुआ, वसुमतीने उसके लिये एक सुन्दर अंगूठी बनवायी और उसमें यह लेख
१. बृहत् कथाकोश १३१वीं कथा तथा जैनसाहित्य और इतिहाम, द्वितीय संस्करण पृ० १२०-२२१ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य: ६७
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंकित करा दिया कि यह कौशाम्बीके गजा बसुपालकी वसुमती पत्नीकी पुत्री है । यदि किसी बलवान पूर्व पुण्यके कारण यह बच जाये और किसीको मिले, तो वह इसे कृपापूर्वक पालित-गोपित करें। इस प्रकार इस अंगठी और एक रत्नकम्बलके साथ इस कन्याको एक पिटारी में बन्द कराकर रानीने इसे यमुना नदीमें प्रवाहित कर दिया । वह पिटारी यमुनाके वेगवान प्रवाहके कारण तैरती हुई प्रयागमें जाकर गंगाकी धाराम मिल गयी । ___ अङ्ग नामके महादेशमें चम्पा नामकी नगरी थी । इस नगरीका राजा दन्तिवाहन था और उसकी पत्नीका नाम वसुमित्रा । चम्पापुरीके निकट कुसुमपुर नामका एक नगर था। इस नगरमें कन्ददन्त नामक माली रहता था और इसकी पत्नीका नाम कुमुददन्तिका था । कुन्ददन्त नगरसे बाहर निकला ही था कि उसे प्रभातके समय गंगामें बहती हुई वह पिटारी दिखलायी दी। उसने पिटारी पकड़ ली और जैसे ही खोली उसमें एक बालिका रखी हुई दिखलायी दी। कुन्ददन्त पह देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह इस पिटारी तथा इसके अन्दर रखी हुई सूकुमार बालिकाको लेकर अपनी पत्नीके पास आया और उसे अपनी पत्नी के हाथोंमें देकर कहने लगा-"लो आजसे तुम इसे अपनी पुत्री समझना।" कुमुददन्ताने उस बालिकाका यथोचित पालन-पोषण किया और उसका नाम पद्मावती रखा। जब यह बालिका युवती हुई, तो चम्पापुर नरेश दन्तिवाहनके साथ उस कन्याका विवाह हो गया । राजाने जब कुन्ददन्तसे पद्यावतीके सम्बन्ध में विशेष पूछ ताछ की, तो उसने पिटारीके मिलनेका सब वृत्तान्त राजाको सुना दिया । कुन्ददन्त कहने लगा-"राजन् | इसके नामकी एक रत्ननिर्मित अंगूठी
और रत्नकम्बल तथा एक पिटारी है, जो सब आपको सेवामें उपस्थित हैं। दन्तिवाहन पद्मावतीका परिचय प्राप्तकर बहुत प्रसन्न हुआ। विवाहके पश्चात् कालान्तरमें पद्मावतीके गर्भमें एक पुण्यशाली देवने स्वर्गसे च्युत हो प्रबेश किया। इस समय पद्यावतीके मन में एक दोहद उत्पन्न हुआ, परन्तु उसकी पूर्ति न हो सकनेके कारण वह दिन-प्रतिदिन दुर्बल होने लगी। एक दिन राजाने पद्मावतीकी इस दुर्बलताका कारण जानना चाहा । पद्मावती कहने लगी"प्राणनाथ ! जबसे मेरे गर्भमें यह जीव आया है, तबसे एक विचित्र दोहद उत्पन्न हो रहा है कि मैं पुरुषका वेष धारण करके नर्मदातिलक नामक उन्नत हाथीपर आपके साथ उस समय सवारी करूँ, जिस समय मेघ मन्द-मन्द गर्जनापूर्वक नन्हीं-नन्हीं बूंद गिरा रहे हों।"
जब राजाने पद्मावतीका यह दोहद सुना, तो उसने मनुष्योंके द्वारा नर्मदातिलक हाथीको बुलाकर उसे झूल आदिसे मण्डित कराया और सोलह प्रकारके ६८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचाय परम्परा
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
आभूषणोंरो भूषित पद्मावतीको पुरुषके वेशमें सज्जित कर दिया । इस तरह मब प्रकारकी तैयारीके पश्चात् दन्तिवाहन भूपतिने रानीको मदोन्मत्त हाथीके आगे बैठाया और स्वयं उसके पीछे बंट गया तथा नगरकी प्रदक्षिणा करने लगा।
पद्मावती और दन्तिवाहन महाराज नगरको प्रदक्षिणा कर ही रहे थे कि राजाका नियमित्र बाद नामक एक बिधाका आया और उसने विद्यावलसे आकाशमें गर्जना करता हुआ एक मेघ तेयार किया । विद्याधरके प्रभावसे सुगन्धित जलकी वर्षा होने लगी और मन्द-मन्द वायु प्रवाहित होने लगी। इधर नर्मदातिलक हाथोने ज्यों ही आकाशमें छाये हए और जलकण बरसाते हुए मेघोंको देखा और दिशाओंको मुगन्धिन करनेवाली सुन्धित वायुको सुंघा तो उसे अपने चिरवसित और वृक्षमालासे अलंकृत विन्ध्याचलके शल्लकी बनकी स्मृति हो उठी और वह बलवान् हाथी जनसमूहकं देखते-देखते ही नगरसे अटवीकी ओर चल दिया। __ इस प्रकार इस कथा में पद्मावतीको पूर्वभावावलि तथा उसके जन्मको कथा आयी है, जो करकण्डकथा में अन्यत्र नहीं मिलती। ____ इस ग्रन्थमें 'उक्तञ्च' कहकर प्राकृत गाथाएँ भी सम्मिलित की गयी हैं । डॉ० ए० एन० उपाध्येका अभिमत है कि इस कथाकोशका एक अंश सम्भवतः किसी प्राकृत ग्रन्थसे संस्कृतमें अनूदित किया गया है । यतः इस ग्रन्थमें बहुतसे प्राकृत नाम भी अपने मूलरूपमें पाये जाते हैं । यथा—मेतार्यके स्थानपर मेदज्ज और वाराणसीके स्थानपर बाणारसी प्रयोग पाये जाते हैं।
प्रस्तुत कथाकोश अनेक जैनाख्यानोंको विकासपरम्पराको अवगत करनेमें बहुत ही सहायक है । लेखकने इसमें अनेक आख्यानोंके पूर्वजन्मवृत्तान्त विस्तारसे दिये हैं। अत: अनेक काव्योंके स्रोतोंका परिज्ञान इस कथाकोशको कथाओंसे प्राप्त किया जा सकता है।
इस कथाकोषमें कामशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, शकून, दर्शन आदि विभिन्न विषयोंका वर्णन आया है। पंचपापोंका सुन्दर विश्लेषण किया गया है । आचार सम्बन्धो अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य भी इस कथामें समाविष्ट हैं। चारुदत्तकथानकमें आया है कि यज्ञमें हवन किये जानेवाला पशु कहता है--
नाह स्वर्गफलोपभोगतृषितो नाभ्यर्थितस्त्वं मया संतुष्टस्तृणभक्षणेन सततं साधो न युक्तं तव । स्वर्ग गन्तुमभीप्सिता यदि भवेद् वेदे च तथ्या श्रुतिः
भूपे कि न करोषि मातृपितृभिर्दारान् सुतान् बान्धवान् । १. बृहत् कथाफोश, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पृ. २२५, पद्य २४८ ।
प्रमुखाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ६९
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोमदेवमूरि आचार्य सोमदेव महान् तार्किक, सरम साहित्यकार, कुशल राजनीतिज्ञ, प्रबुद्ध तत्त्वचिन्तक और उच्चकोटिके धर्माचार्य थे। उनके लिए प्रयुक्त होने वाले स्याद्वादाचलसिंह, नामिचक्रवर्ती, कादीपनामग, मल्ललाहो. निधि, कविकुलगजकुंजर, अनवद्यगद्य-पद्यविद्याधरचक्रवर्ती आदि विशेषण उनकी उत्कृष्ट प्रज्ञा और प्रभावकारी व्यक्तित्व के परिचायक हैं। नीतिवाक्यामृतको प्रशस्तिमें उक्त सभी उपाधियाँ प्राप्त होती हैं।'
ये नेमिदेवके शिष्य, यशादेवके प्रशिष्य और महेन्द्रदेवके अनुज थे ।
यशोदेवको दवसंघका तिलक कहा गया है। पर हमके दानपत्रम गौडसंघका | नीतिबाक्यामृत और यशस्तिलककी प्रशस्तियोंके अनुसार नेमिदेव अनेक महावादियों के विजेता थे । महेन्द्र देवको भी दिग्विजयी कहा जाता है। सोमदेव भी गुम और अनुजक रामान ताकिक होनेक साथ राहृदय कवि भी थे। यशस्तिलकके प्रारम्भमें लिखा है--
आजन्मसमभ्यस्ताच्छुकात्तत्तिणादिव ममास्याः ।
मतिसुरभेरभवदिदं मूक्तिपयः मुकृतीनां पुण्यः ।। मरी बुद्धिरूपी गीने जीवनभर तकरूपी घास खायी, पर अब उसी गौस १. "इति सकलताकिचनचूडामणिचुम्बितचरणस्य रमणोअपनपञ्चाशन्महावादिविजया
पाजितकीतिमन्नाकिनीपविचित्र त्रिभुवनस्य परतपश्चाणरलोदन्यतः श्रीनेमिदेवभगवतः प्रियशिष्यण दादीन्द्रकालान लश्रीमन्महेन्द्रदेवभट्टारकानुजेन स्याहादाचलसिंहताकिवचक्रवादीभपंचाननवाकाललोलपयोनिधिकविकुलराजकुञ्जरप्रभृतिप्रशस्तिप्रस्तावालारण पणवतिप्रकरण-युवितचिन्तामणि-विनर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्प-प्रशोधरमहाराजचरित-महादानवेधसा श्रीमत्सोमदेवमूरिणा विरचितं नीति वाक्यामृतं नाम राजनीतिशान समाप्तम् ।"
---नीति वाक्यामृतम् . गोपालनारायण कम्पनी, बुकसेलर्स, सन् १८९१, अन्तिम प्रशस्ति । २. श्रीमानस्ति स देवसंघतिलको देवो पशःपूर्वक ।
शिष्यरतस्य वभूव सद्गुणनिधिः श्रीने मिदेवाह्वयः ॥ तस्याश्चतपःस्थितस्प्रिनवतेजैतुमहावादिनाम् । शिष्योऽभूदिह सोमदन इति यस्तस्यैष काव्यक्रमः ।।
..- यशस्तिलक, खण्ड २, पृ. ४१८ । ३. वही, १।१७ । ७० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
राज्जनोंके पुण्यके कारण यह काव्यरूपी दूध उत्पन्न हो रहा है । पाण्डित्यके सम्बन्धमें स्वयं लिखा है
-
लोकोक्तिः कलारछन्दोऽलङ्काराः समयागमाः । सर्वसाधारणाः सद्भिस्तीर्थभागों व स्मृताः ॥
व्याकरण, प्रमाण, कला, छन्द, अलङ्कार और समयागम - दर्शनशास्त्र तीर्थमार्ग के समान सर्वसाधारण हैं ।
सोमदेव के संरक्षक अरिकशरी नामक चालुक्य
यह
राजा के पुत्र वाद्यराज या वद्दिग नामक राजकुमार अमेन सामन्त पदत्रोंबारी था | यशस्तलकका प्रणयन गंगवारा नामक स्थान में रहते हुए किया गया है। धारवाड़, कर्नाटक, महाराष्ट्र और वर्तमान हैदराबाद प्रदेश पर राष्ट्रकूटोंका साम्राज्य व्याप्त था । राष्ट्रकूट नरेश आठव शर्तीस दशवीं शती तक महाप्रतापी और समृद्ध रहे हैं 1 इनका प्रभुत्व केवल भारतवर्षम ही नहीं था, अपितु पश्चिमके अरब राज्यों मे भी व्याप्त था । अरबोंस उनका मत्रव्यवहार था तथा अरब अपने यहाँ उनकी व्यापारको सुविधाएँ दिये हुए थे । इस वशके राजाओंका बिरूद वल्लभराज था | इसका रूप अरबलेखकोंभ बल्लहरा पाया जाता है ।
सोमदेवने अपने साहित्यमं राष्ट्रकूटाके साम्राज्यकं तत्कालीन अभ्युदय का परिचय प्रस्तुत किया है । वस्तुतः राष्ट्रकूटोंक राज्यकालम साहित्य, कला, दर्शन एवं धर्मकी बहुमुखी उन्नति हुई है। कविका यशस्तिलकचम्पू मध्यकालीन भारतीय संस्कृतिके इतिहासका अपूर्व स्रात है ।
सोमदेव भूरि और कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार
नीतिवाक्यामृत और यशस्तिलकचम्पूसे अवगत होता है कि सोमदेवका सम्बन्ध कान्यकुब्ज नरेश महेन्द्रदेवसे रहा है। नीतिवाक्यामृतकी संस्कृतटीकासे भी ज्ञात होता है कि कान्यकुब्ज नरेश महेन्द्रदेवके आग्रहसे इस ग्रन्थकी रचना सम्पन्न हुई थी।"
ज्ञात होता है कि सोमदेवका महेन्द्रदेव के साथ सम्बन्ध रहा है । यशस्तिलक के मंगलपद्य में श्लेष द्वारा कन्नौज और महेन्द्रदेवका उल्लेख आया है ।
१. यशस्तिलक १२० ।
२. "अत्र तावदखिलभूषालमौलिलालितचरणयुगलेन रघुवंशावस्था ग्रिपराक्रमपालित करूय कर्णकुब्जेन महाराजश्रीमन्महेन्द्रदेवेन पूर्वाचार्यकृतार्थशास्त्रदुःख दोषप्रन्थगौरव सिम्ममानसेन संबोधललितलघुनीतिवाक्यामृत रचनासु प्रवर्तितः । " - नीतिवाक्यामृत, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, पृ० २, संस्कृतटीका ।
प्रबुद्धा एवं परम्परापोषकाचार्य : ७१
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
यशस्तिलकके ही निम्नलिखित पद्यसे भी सोमदेव और महेन्द्रदेवके सम्बन्धकी अभिव्यञ्जना होती है
सोऽयमाशापितयशः महेन्द्रामरमान्यधीः ।
देवात्ते सततानन्द वस्त्वभीष्टं जिनाधिपः || अब विचारणीय है कि मानका सम्बन्ध किस भहेन्द्रदेवक साथ घटित होता है। कन्नौजके इतिहासमें महेन्द्रदेव या महेन्द्रपाल नामके दो राजा हए हैं। महेन्द्रपालदेव प्रथमका समय ई० सन् ८८५ से ई० सन् ९०७ तक माना जाता है। यह महाराज भोज ( ई० सन् ८३६-८८५) के पश्चात् राजगद्दीपर आसीन हुआ था । महाकवि राजशेस्तरको बालकविके रूपमें इसका संरक्षण प्राप्त था | राजशेखर त्रिपूरीके यवराज द्वितीयके समय ( ई० सन १९० ) लगभग ९० वर्षकी अवस्था में विद्यमान थे। सोमदेवने अपने यशस्तिलकमें महाकवियोके उल्लेखके प्रसंगमें राजशेखरको अन्तिम महाकविको रूपमें निर्दिष्ट किया है । यशस्तिलकको सोमदेवने १५९ ई० में समाप्त किया है। यदि राजशेखरको सोमदेवसे ८-१० वर्ष भी बड़ा भाना जाय, तो राजशेखरको सोमदेव द्वारा महाकवि' कहा जाना ठीक प्रतीत होता है। इस प्रकार सोमदेवका आविर्भाव ई० सन् १०८ के आसपास होना चाहिए, क्योंकि महेन्द्रपाल प्रथमकी समसामयिकता तथा नीतिवाक्यामृतके रचे जाने का आग्रह घटित नहीं होता है। इस कारण महेन्द्रपालदेव प्रथमके साथ सोमदेवका सम्बन्ध नहीं हो सकता है।
महेन्द्रपार देव द्वितीयका समय ई० सन् ९४५-४६ माना गया है। सोमदेव इस समय सम्भवतः ३५-३६ वर्षके रहे होंगे। अतएव महेन्द्रपालदेव द्वितीय और सोमदेवके पारस्परिक सम्बन्ध काल-सम्बन्धी कठिनाई नहीं है । स्थिति-काल
सोमदेवका समय सुनिश्चित है। इन्होंने यशस्तिलकमें उसका रचना-समय शकसंवत् ८८१ ( ई० सन् ९५९ ) दिया है । लिखा है--
"चैत्रशुक्ला त्रयोदशी शकसंवत् ८८१ ( ई० सन् ९५९ ) को, जिस समय कृष्णराजदेव पांड्य, सिंहल, चोल, चेर आदि राजाओंको जीतकर मेलपाटी नामक स्थानके सेना-शिविरमें थे, उस समय उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त
१. यशस्तिलक, १।२२० । 7. Thege of Imperial Kanauji p. 33. ३. यशस्तिलक, उत्तरार्ष, १० ११३ । %. The Age of Imperial Kunauj p-37.
७२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
वद्दिगकी, जो चालुक्यवंशीय अरिकेशरीके प्रथम पुत्र थे, राजधानी गंगधारामें यह काव्य समाप्त हुआ।
अतः सोमदेव ई० सन् ९५९ अर्थात् दशम शतीके विद्वानाचार्य हैं। रचनाएँ
इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं-१. नीतिवाक्यामृत, २. यशस्तिलकचम्पू और अध्यात्मतरंगिणी।
इनके अतिरिक्त पक्तिचिन्तामणिस्तव, त्रिवर्गमहेन्द्रमातलिसंजल्प, षण्णवतिप्रकरण और स्याद्वादोपनिषद्की भी सूचना मिलती है। वद्दिगके दानपत्रसे सोमदेवके एक सुभाषितका भी संकेत मिलता है। नोतिवाक्यामृत ___ नीति वाक्यामत राजनीतिका कौटिल्यके अर्थशास्त्रकी तरह उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इसमें राजा, मंत्री, कोषाध्यक्ष और शासन-संचालनके मौलिक सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया गया है। नीतिवाक्यामृत मूलरूपमें बम्बईसे सन् १८९१ में प्रकाशित हुआ था । सन् १९२२ में माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे संस्कृतटीका सहित प्रकाशित हुआ । सन् १९५० में पण्डित सुन्दरलाल शास्त्रीने हिन्दी अनुवादके साथ इसका प्रकाशन किया । नीतिवाक्यामृतपर दो टीकाएँ हैं । एक प्राचीन संस्कृतदीका है, जिसके लेखकका नाम और समय ज्ञात नहीं है। पर मंगलाचरणके श्लोकसे इनका नाम हरिबल ज्ञात होता है
हरि हरिबलं नत्वा हरिवर्ण हरिप्रभम् |
हीज्यं च ब्रुवे टोकां नीतिवाक्यामृतोपरि ।। इससे ऐसा ज्ञात होता है कि जिस प्रकार मुल ग्रन्थ रचयित्ताने अपना नाम मङ्गलपद्यमें समाहित कर दिया है, उसी प्रकार हरिबलने हरि अर्थात् विष्णुको नमस्कार करते हुए अपने नामको समाहित कर दिया है ।
इस ग्रन्थमें ३२ समुद्देश्य हैं 1 जिनके नाम क्रमशः (१) धर्मसमुद्देश्य, (२) अर्थसमुद्देश्य, (३) कामसमुद्देश्य, (४) अरिषड्वर्ग, (५) विद्यावृद्ध, (६) आन्वीक्षिकी, (७) श्रयी, (८) वार्ता, १९) दण्डनीति, १०) मंत्री, (११) पुरोहित, (१२ सेनापति, (१३) दत, (१४) चार, (१५) विचार, (१६) व्यसन, (१७) स्वामि, (१८) अमात्य, (१९) जनपद, (२०) दुर्ग, (२१) कोश, (२२) बल, (२३) मित्र, (२४) राजरक्षा, (२५) दिवसानुष्ठान, (२६) सदाचार, (२७) व्यवहार,
१. यशस्तिलक, उत्तरा०, पृ० ४१८ । २, नीतिवाक्यामृतम्, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैनग्रन्थमाला, मङ्गलपच ।
अनुदाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ७३
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२८) विवाद, (२९) षाड्गुण्य, (३०) युद्ध, (३१) विवाह और (३२) प्रकरण हैं। धर्मसमुद्देश्यमें धर्मका लक्षण बतलाते हुए लिखा है कि
'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः' अर्थात् जिसके साधनसे स्वर्ग व मोक्षको सिद्धि हो वह धर्म है। धर्माधिगमोपायमें शक्तिके सनुसार त्याग, तपको स्थान दिया है। समस्त प्राणियोंके प्रति समताभावके आचरणको परमाचरण बताया है। जो व्यक्ति सभी प्रकारके भेदभाव और पक्षपातोका त्याग कर प्राणिमात्रके प्रति समताभावका आचरण करता है, संसारमें उसका कोई भी शत्रु नहीं रहता, सभी मित्र बन जाते हैं। समताभावक आचरणसही राग-दुषका अभाव होता है और व्यक्तिके व्यक्तित्वका विकास होता है । अतएव अहिंसावतके आचरणके लिये समताभावका निबाह करना परमावश्यक है। दान देना, शक्ति अनुसार त्याग करना भी धर्माचरणके अन्तर्गत है । ग्रन्थकारने पात्र तीन प्रकारके बतलाये है- १ धर्मपात्र, २ कार्यपात्र और ३ कामपात्र । इन तीनों प्रकारके पात्रोंकी आर्थिक सहायता करना धर्मके अन्तर्गत है। ग्रन्थकारने लौकिक जीवनको समद्ध बनानेके लिये त्याग, तप और समताके आचरणपर विशेष बल दिया है। तपकी परिभाषा बताते हुए लिखा है कि इन्द्रिय और मनका नियमानुकूल प्रवतम करना तप है, केवल कापाय वस्त्र धारणकर बनमें विचरण करना तप नहीं है। यथा
इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठान तपः। xx
विहिताचरणं निषिद्धपरिवर्जनं च नियमः' ।। धर्मका स्वरूप और धर्माचरणका महत्त्व सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से प्रतिपादित किया गया है। इसके बाद अर्थपुरुषार्थका विस्तारसे विचार किया है। सोमदेवने धर्म, अर्थ और कामको समान महत्त्व दिया है। इनका अभिमत है--
धर्मार्थाविरोधेन काम सेवेत तत: सुखो स्यात् ।
समं
वा
त्रिवर्ग
सेवेत ।
१. नीतिवा, सूत्र सं० २०, २१ । २. वही, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, कामरामुद्देश्य, सूत्रसं० २, ३ । ७४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
जो त्रिवर्गमसे किसी एकको महत्त्व देता है, उसका अहित होता है, सोमदेवने अर्थको व्याख्या करते हुए लिखा है
यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः । अर्थात् जिससे सभी कार्योको सिद्धि होती है, वह अर्थ है। समीक्षा करनेसे ज्ञात होता है कि सोमदेवको उक्त परिभाषा बहुत ही समीचीन है। यतः द्रव्य ( Ioney ) के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तुसे समस्त इच्छाएँ तृप्त नहीं हो सकती। जिस एक वस्तुके विनिमय द्वारा आवश्यकतानुसार अन्य वस्तुएँ प्राप्त हो सके, वही एक वस्तु सब प्रकारको आवश्यकताओंकी पूर्तिका साधन कही जा सकती है। अतः सोमदेवके परिभाषानुसार विनिमय' कार्य में प्रयुक्त होनेवाली वस्तु ही अर्थ (Wealth ) है। सोमदेवने इस ग्रन्थमें अर्थकी महत्ता स्वीकार करते हुए अन्याय और अनर्थका निषेध किया है । अर्थार्जन, अर्थसंरक्षण और अर्थवृद्धिक कारणोंका भी उल्लेख किया गया है। देश और कालके अनुसार अर्थसम्बन्धी विभिन्न उपजाणाएँ भी प्रतिरदा : गणि, सुगामा भोर वाणिज्यको वार्ता कहा है और इस वार्ताको समृद्धि ही राज्यकी समृद्धि बतलायी है। राजाको कृषि और वाणिज्यकी वृद्धिमें किस प्रकार सहयोग देना चाहिये आदि बातोंपर विस्तारसे प्रकाश डाला गया है।
जहाँ आर्थिक पुष्टि राष्ट्रको समृद्धि, खुशहालीके लिए आवश्यक है वहाँ राजनीतिक जागरूकता उसको रक्षाका सबल साधन है । सोमदेवने इन्हीं दोनोंपर इसमें गहरा और बिस्तृत विचार किया है। अतः इस ग्रन्थमें वर्णित विचारोंको दो भागोंमें विभक्त कर सकते हैं--(१) आर्थिक विचार और ( २) राजनीतिक विचार । राजनीतिके अनुसार शासनको बागडोर ऐसे व्यक्तिके हाथमें होती है, जो बंशपरम्परासे राज्यका सर्वोच्च अधिकारी चला आ रहा हो । राजा राज्यको स्थायी समझकर सब प्रकारसे अपनी प्रजाका विकास करता है। राजाकी योग्यता और गुणोंका वर्णन करते हुए बताया गया है-'जो मित्र और शत्रुके साथ शासनकायमें समान व्यवहार करता है, जिसके हृदयमें पक्षपातका भाव नहीं रहता और जो निग्रह-दण्ड, अनुग्रह-पुरस्कारमें समानताका व्यवहार करता है, वह राजा होता है | राजाका धर्म दुष्ट, दुराचारी, चोर, लुटेरे आदिको दण्ड देना एवं साधु-सत्पुरुषोंका यथोचित रूपसे पालन करना है। सिर मुड़ाना, जटा धारण करना, व्रतोपवास करना राजाका धर्म नहीं है । वणं, आश्रम, धान्य, सुवर्ण, चाँदी, पशु आदिसे परिपूर्ण पृथ्वीका पालन करना राजा. १. नीतिवा०, अर्थसमुद्देश्य, सूत्रसं० १ ।
प्रबुवाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ७५
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
का राज्यकर्म है। राज्यकी योग्यताके सम्बन्धमें सोमदेवसरिने लिखा है कि राजाको शस्त्र और शास्त्रका पूर्ण पण्डित होना आवश्यक है। यदि राजा शास्त्रज्ञानरहित हो, और बास्त्रविद्यामें प्रवीण हो, तो भी वह कभी-न-कभी धोखा खाता है और अपने राज्यसे हाथ धो बैठता है। जो शस्त्रविद्या नहीं जानता बह भी दुष्टों द्वारा पराजित किया जाता है। अनाव पुःशी मेले मुहब नाथ राजाको शास्त्र-शास्त्रका पारगामी होना अनिवार्य है। मुर्ख राजास राजाहोन पृथ्वीका होना श्रेष्ठ है, क्योंकि मूर्ख राजाकं राज्यमें सदा उपद्रव होते रहते हैं। प्रजाको नाना प्रकारके कष्ट होते हैं, अज्ञानी नृप पशुवत् होनेके कारण अन्धाधुन्ध आचरण करते हैं, जिससे राज्यमें अशान्ति रहती है ।
राज्यप्राप्तिका विवेचन करते हुए बताया है कि कहीं तो यह राज्य वंशपरम्परासे प्राप्त होता है और कहींपर अपने पराक्रमसे राजा कोई विशेष व्यक्ति बन जाता है। अतः राजाका मूल क्रम-वंशपरम्परा और विक्रम पूरुषार्थ शौर्य हैं। राज्य के निर्वाह के लिये क्रम, विक्रम दोनोंका होना अनिवार्य है । इन दोनोंमसे किसी एकके अभावसे राज्य-संचालन नहीं हो सकता है। राजाको काम, कोध, लोभ, मान, मद और हर्ष इन छह अन्तरंग शत्रुओंपर विजय प्राप्त करना आवश्यक है क्योंकि इन विकागेकै कारण नृपति कार्य-अकार्यके विचारांमे रहित हो जाता है, जिससे शत्रुओंको राज्य हड़पने के लिए अवसर मिल जाता है। राजाके विलासी होनेसे शासन-प्रबन्ध भी यधार्थ नहीं चलता है, जिससे प्रजामें भी गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है और राज्य थोड़े दिनां में ही समाप्त हो जाता है। शासकको दिनचर्याका निरूपण करते हुए बताया है कि उसे प्रतिदिन राजकार्यके समस्त विभागों, न्याय, शासन, आय-व्यय, आर्थिक दशा, सेना, अन्तर्राष्ट्रीय तथा सार्वजनिक निरीक्षण, अध्ययन, संगीत, नृत्यअवलोकन और राज्यकी उन्नत्तिके प्रयत्नोंकी ओर ध्यान देना चाहिये।
सोमदेवसूरिने राजाकी सहायताके लिए मन्त्री तथा अमात्य नियुक्त किये जानेपर जोर दिया है । मन्त्री, पुरोहित, सेनापति आदि कर्मचारियोंको नियुक्त
१. राज्ञो हि दुष्टनिग्रहः पिष्टपरिपालनं च धर्मः ।
न पुनः शिरोमुण्डनं जटाधारणादिकं 11 नीतिवाक्यामृतम्, माणिकचन्द ग्रन्थमाला, वर्णाश्रमवती धान्यहिरण्यगशुकुप्यकृषिप्रदानफला च पृथ्वी, विद्यावृद्ध
समुद्देश्य, सूत्र २, ३, ५ । २. वही, सूत्र २६ । ३. वही, अरिषड्यर्ग, सूत्र १ ।
७६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
करनेवाला नृप आहार्यबुद्धि-राज्य-संचालनप्रतिभा सम्पन्न होता है। जो राजा मन्त्री या अमात्यवर्गकी नियुक्ति नहीं करता उसका सर्वस्व नष्ट हो जाता है। राज्यका संचालन मन्त्रीवर्गकी सहायता और सम्मतिसे ही यथार्थ हो सकता है। जो शासक ऐसा नहीं करता बह अपने राज्यकी अभिवृद्धि एवं संरक्षण मम्यक् रूपसे नहीं कर सकता। मन्त्रियोंके गुणोंका वर्णन करते हुए बताया है कि 'पवित्र, विचारशील, विद्वान्, पक्षपातरहित, कुलीन, स्वदेशज, न्यायप्रिय, व्यसनरहित, सदाचारी, शस्त्रविद्यानिपुण, शासनतन्त्रके विशेषज्ञको ही मन्त्री बनना चाहिये । मन्त्रिमण्डल राज्य-व्यवस्थाका अविच्छेद्य अंग माना गया है । मन्त्रिमण्डल के सदस्योंकी संख्या तीन, पांच अथवा सातसे अधिक नहीं होना चाहिये। सेता-विभाग
राज्यको सुरक्षित रखने एवं शत्रुओंके आक्रमणोंसे बचानेके लिये एक सुदृढ़ और बहुत बड़ी सेनाकी आवश्यकता है। यह विभाग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बतलाया गया है। राज्यकी आयका अधिकांश भाग इसमें खर्च होना चाहिये 1 इस विभागकी आवश्यक सामग्नी एकत्र करने एवं सेना सम्बन्धी व्यवहारके संचालन के लिये एक अध्यक्ष होता है, जिसे सेनापति या महाबलाधिकृत कहा गया है। गजबल, अश्वबल, रथबल और पदातिबल ये चार शाखाएँ सेनाकी बतायी हैं। इन चारों विभागोंके पृथक्-पृथक् अध्यक्ष होते हैं, जो सेनापतिके आदेशानुसार कार्य करते हैं। चारों प्रकारकी सेनामें गजबल सबसे प्रधान' है, क्योंकि एक-एक सुशिक्षित हाथी सहस्रों योद्धाओंका संहार करने में समर्थ होता है। शत्रुके नगरको ध्वंस करना, चक्रव्यूह तोड़ना, नदी जलाशय आदि पर पुल बनाना एवं सेनाकी शक्तिको सुदृढ़ करनेके लिये व्यूह रचना करना आदि कार्य भी गजबल' के हैं। गजनलका निर्वाचन बड़ी योग्यता और बुद्धिमत्ताके साथ करना चाहिये । मन्द, मग, संकीर्ण और भद्र इन चार प्रकारकी जातियोंके हाथी तथा ऐरावत, पुण्डरीक, कामन, कुमुद, अञ्जन, पुष्पदन्त, सार्वभौम और १. द्रविणदानप्रियभाषणाम्यामरातिमिवारणेन यदि हितं स्वामिन सर्वावस्थासु बलते
संवणोतीति बलम् । --नीतिवाक्यामतम, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैगग्रन्थमाला, नल
समुद्देश्य, सूत्र १ । २. बलेषु हस्तिनः प्रधानमङ्ग स्वैरबमवरष्टायुधा हस्तिनो भवन्ति । --वही, सूत्र २ । ३. हस्तिप्रधानो विजयो राज्ञां यदेकोऽपि हस्तिसहस्र योधयति न सीदति प्रहारसहस्र
णापि । मुखेन यानमात्मरक्षा परपुरावमदनमरिव्यूहविधातो अलेषु सेतुबन्धा बचनादन्यत्र सर्वविनोदहेतवश्चेति हस्तिगुणाः । -नही, सूत्र ३-६ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ७५
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुप्रतिकार इन आठ कुलोंके हाथियोंको ही ग्रहण करना इस वलके लिये आवश्यक है । गजोंके चुनावके समय जाति, कुल, वन और प्रचार इन चारों बातोंके साथ शरीर, बल, शूरता और शिक्षा पर भी ध्यान रखना आवश्यक है । अशिक्षित गजवल राजाके लिये धन और जनका नाशक बतलाया गया है ।
अबकी भी सेनिक उष्टि महत्वपूर्ण मानी गयी है। इसे जङ्गम सैन्य बल बताया है। इस सेना द्वारा दूरवर्ती शत्रु भी वशमें हो जाता है | शत्रुकी बढ़ी चढ़ी शक्तिका दमन, युद्ध क्षेत्रमें नाना प्रकारका रण-कौशल एव समस्त मनोरथसिद्धि इस बल द्वारा होती है । अश्वबलके निर्वाचनमें भी अश्वोंके उत्पत्तिस्थान, उनके गुणावगुण, शारीरिक शक्ति, शौर्य, चपलता आदि बातोंपर ध्यान देना चाहिये । रथबलका निरूपण करते हुए उसका कार्य, अजेय शक्ति आदि बातोंपर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। इस बलके निर्वाचनमें धनुर्विद्या ज्ञाता योद्धाओंकी उपयुक्तताका विशेष ध्यान रखना आवश्यक है। पदातिबलमें पैदल सेनाका निरूपण किया है । पैदलसेनाको अस्त्र-शस्त्र में पारंगत होने के साथ-साथ शूर-वीर, रणानुरागी, साहसी, उत्साही, निर्भय, सदाचारी, अव्यसनी, दयालु होना अनिवार्य बतलाया है। जब तक सैनिकमें उपर्युक्त गुण न होंगे, वह प्रजाके कष्ट निवारण में समर्थ नहीं हो सकता है । सेवाभावी तथा कर्त्तव्यपरायणता होना प्रत्येक प्रकारकी सेनाके लिये आवश्यक है । सेनापतिकी योग्यता और गुणोंका कथन करते हुए सोमदेवसूरिने कहा है कि कुलीन आचार-व्यवहारसम्पन्न, पण्डित, प्रेमिल क्रियावान, पवित्र, पराक्रमशाली, प्रभावशाली, बहुकुटुम्बी, नीति-विद्यानिपुण, सभी अस्त्र-शस्त्र, सवारी, लिपि, भाषाओंका पूर्ण जानकार, सभीका विश्वास और श्रद्धाभाजन, सुन्दर, कष्टसहिष्णु, साहसी, युद्धविद्यानिपुण तथा दया- दाक्षिण्यादि नाना गुणोंसे विभूषित सेनापति होता है । सेनापतिका निर्वाचन मन्त्रियोंको सहायता से राजा करता है । सोम
P
१. जातिः कुलं वनं प्रचारश्च न हस्तिनां प्रधानं किन्तु शरीरं बलं शौर्य शिक्षा च तदुचिता न सामग्री सम्पत्तिः ।
अशिक्षिता हस्तिनः केवलमर्थप्राणहराः । नीतिवाक्यामृत, बलसमुद्देश्य, सूत्र ४-५ । २. अश्त्र बलप्रधानस्य हि राज्ञः कदनकन्दुकक्रीडाः प्रसीदन्ति भवन्ति दूरस्था अि करस्थाः शत्रच आपत्सु सर्वमनोरथ सिद्धयस्तुरंगमा एव शरणमत्रस्कन्दः परानी कभेदनं चतुरंगम साष्यमेतत् । वही सूत्र ८ ।
३. सर्जिका ( स्व ) स्थलाना करोखरा गाजिगाणा केकाणा पुष्टाहारा गारा सादुयारा सिन्धुपारा जात्याश्वानां नवोत्पत्तिस्थानानि । वही, सूत्र १० ।
७८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
देवसूरिने इस विभागका बड़ा भारी दायित्व बतलाया है। राज्यको रक्षा करना और उसकी अभिवृद्धि करना इस विभागका ही काम है । पुलिस विभाग ___ इस विभागकी व्यवस्थाके सम्बन्ध उल्लेख करते हुए सोमदेवसूरिने कोट्टपाल–दण्डपाशिकको इस विभागका प्रधान बतलाया है। चोगे, डकैती, बलात्कार आदिके मामले पलिम द्वारा सुलझाये जाते थे। पुलिसको बड़े-बड़े मामलों में सेनाकी सहायता भी लेने को लिखा है। इस विभागको सुदढ़ करने के लिये गुप्तचर नियुक्त करना आवश्यक है। गाँवोंमें मुखियाको हो पुलिसका उच्चाधिकारी बतलाया है । धन-सम्पत्ति, पशु आदिके अपहरणकी पूरी तहकीकात मुखियाको ही करनी चाहिये । मुखिया अपने मामलोंकी जाँचमें गुप्तचरोंसे भी सहायता ले सकता है । पुलिस-विभागकी सफलता बहुत कुछ गुप्तचरसी० आई० डी० पर ही आश्रित मानी गयी है। गप्तचरोंके गणोंका निरूपण करते हुए बताया है कि सन्तोषी, जितेन्द्रिय, सजग, निरोगी, सत्यवादी, तार्किका और प्रतिभाशाली व्यक्तिको इस महत्वपूर्ण पदपर नियुक्त करना चाहिये । गुप्तन्त्र रके लिए कपटी, धूर्त, मायावी, शकुन-निमित्त-ज्योतिप-विशारद, गायक, नर्तक, विदूषक, वैत्तालिक, ऐन्द्रजालिक होना चाहिए। ___ यों तो ३४ प्रकारके व्यक्तियोंको चर नियुक्त करने पर जोर दिया है। पुलिसविभागकी व्यवस्थाके लिए अनेक कानून भी बतलाये गए है तथा शासनके लिए अनेक कार्यों एवं पदोंका प्रतिपादन किया है। कोष-विभाग
इस विभागका वर्णन करते हुए सोमदेवसूरिने राज्य-संचालनके लिए कोषपर बड़ा जोर दिया है। जो गुजा सम्पत्ति-विपत्तिके लिा कोष सञ्चय करता है, बही अपने राज्यका विकास कर सकता है । कोषमें सोना, चाँदो द्रम्म [मुद्राएँ] एवं धान्यका संग्रह अपेक्षित' है। इन आचार्यने कोषकी महत्ता दिखलानेके १. स्वपरमण्डलकार्याकार्यावलोकने चाराश्च पि क्षितिपतीनाम् ।-नीतिवाक्यामृतम्,
नारसमद्देश्य, सूत्र है। २. अलौल्यममान्य मषाभाषित्व मन्य हकत्वं चेत्ति चारगुणाः । कापटिकादास्थितगृहपतित्रदेव्हिकतापकितवकिरातममपट्टिकाहितुण्डिकशौण्डिकशोभिकपाटाचर विटविदूषकपीरमर्द कनटनतंकगायकवादकवाग्जीवकगणकशाकुनिकभिषगन्द्रजालिकनैमित्तिकसूदारालिकसंवाहिकतीक्ष्णक ररसद्जडभूकबधिरान्धच्छमानस्थापियायिभेदेनावरापवर्ग:--वही, चारसमुद्देश्य, सूत्र २ और ८ । ३. वही, कोशसमुद्देश्य, सूत्र १, २ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परमारापोषकाचार्य : ७९
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुत्र
लिए कोपको ही राजा बताया है, क्योंकि जिसके पास द्रव्य है वही संग्राम में आदि भी विजय प्राप्त कर लेता है। वनहीनको संसार में कुटुम्बी - स्त्री, छोड़ देते हैं, तब राजाओंके लिये धनहीनता किस प्रकार बड़प्पन हो सकती है। कोपसंग्रह प्रमुख धान्यसंग्रहको बतलाया है, क्योंकि सबसे अधिक प्रधानता इसी है । वान्यके होनेसे ही प्रजा और मेनाको जीवन यात्रा चल सकती है। युद्धका भी धान्यकी विशेष आवश्यकता पड़ती है । रस-संग्रह में लवणको प्रधानता दो गयी है ।
आय व्यय
आय व्ययकी व्यवस्था के लिए पाँच प्रकारके अधिकारी नियुक्त करनेका नियमन किया है। इन अधिकारियों व आदायक, विक, क नीविग्राहक और राजाध्यक्ष वतलाये हैं । बदायकका कार्य दण्डादिकके द्वारा प्राप्त द्रव्यको ग्रहण करना, निवन्वकका कार्य विवरण लिखना, प्रतिबन्धकका रुपये देना, नीविग्राहकका भांडारमें रुपये रखना और राज्याध्यक्षका कार्य सभी आयव्ययके विभागों का निरीक्षण करना है । राज्यकी आमदनी व्यापार कर, दण्ड आदिसे तो करनी ही चाहिये, पर विशेष अवसरों पर देवमन्दिर, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका संचित धन, वेश्याओं, विधवा स्त्रियों, जमीन्दारों, धनियों ग्रामकूटों सम्पन्न कुटुम्बियां एवं मंत्री, पुरोहित, सेनापति प्रभृति अमात्योंमे धन लेना चाहिये | व्यापारिक उन्नति
जिम राज्य में कृषि, व्यापार और पशुपालनकी उन्नति नहीं होती, वह राज्य नष्ट हो जाता है । राजाको अपने यहाँ मालको बाहर जानेसे रोकने के लिए तथा अपने यहाँ बाहरके मालको न आने देनेके लिए अधिक कर लगाना चाहिये' 1 अपने यहां व्यापारकी उन्नतिके लिए राजाको व्यापारिक नीति निर्धारित करना, यातायात के साधनों को प्रस्तुत करना एवं वैदेशिक व्यापारके सम्बन्धमें कर लगाना या अन्य प्रकारके नियम निर्धारित करना राजाके लिये
१. " कृषि पशुपालनं वणिज्या च वार्ता वैश्यानाम् ॥”
X
X
X
"वार्तासमृद्धी सर्वाः समृद्धयो रात्रः ॥ "
X
X
X
शुल्क वृद्धिर्बलात्पण्यग्रहणं च देशान्तरभाण्डानामप्रवेशे हेतुः । -- नीतिवाक्यामृतम्, वाममुद्देश्य सूत्र १, २, ११
7
८० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
यावश्यक है । सानाकी आधिक रनलिके लिए वाणिज्य और नगायको बढ़ाना मालके आने-जाने पर कर लगाना प्रत्येक राजाके लिए अनिवार्य है। न्यायालयकी व्यवस्था ___ सोमदेवसूरिने 'नीतिवाक्यामृत' में न्यायालय-व्यवस्थाके लिए अनेक आवश्यक बातें बतलायी है। इन्होंने जनपद-प्रान्त, विषय-जिला, मंडल-तहसील, पुर–नगर और ग्राम इनकी शासन-प्रणाली संक्षेपमें बतलायी है। राजाकी एक परिषद् होनी चाहिए, जिसका राजा स्वयं सभापति हो और यही परिषद् विवादों मुकद्दमोंका फैसला करे । परिषद्के सदस्य राजनीतिके पूर्ण ज्ञाता, लोभ-पक्षपातसे रहित और न्यायी हों। वादी एवं प्रतिबादीके लिए अनेक प्रकारके नियम बतलाते हुए कहा है कि जो वादी या प्रतिवादी अपना मुकदमा दायर कर समयपर उपस्थित न हो, जिसके बयानमें पूर्वापर विरोध हो, जो बहस द्वारा निरुत्तर हो जाये, या वादी प्रतिवादीको छलसे निरुत्तर कर दे, वह सभा द्वारा दण्डनीय है। वाद-विवादके निर्णयके लिए लिखित साक्षी, भुक्तिअधिकार, जिसका बारह वर्ष तक उपयोग किया जा सका है, प्रमाण है | न्यायालयमें साक्षीके रूपमें ब्राह्मणसे सुवर्ण और यशोपवीतके स्पर्शनरूप शपथ, क्षत्रियसे शस्त्र, रत्नभूमि, वाहनके स्पर्शनरूप शपथ, वैश्यसे कान, बाल और कोकिणी-(एक प्रकारका सिक्का ) के स्पर्शनरूप शपथ एवं शूद्रासे दुध, बीजके स्पर्शनरूप शपथ लेनी चाहिये। इसी प्रकार जो जिस कामको करता है, उससे उसी कार्यको छुआ कर शपथ लेनी चाहिये । सोमदेवने शासनव्यवस्था सम्बन्धी कुछ नियम भी बतलाये हैं।
अवाय
नीतिका वर्णन करते हुए सन्धि, विग्रह, वान, आसन, वेषीकरण और संश्रय इन छह गुणोंका तथा राजनीतिके साम, उपदान, दण्ड और भेद इन नारो अंगोंका विस्तारसहित प्रतिपादन किया है। सन्धि
"पणवन्धः सन्धि:"-अर्वात् जब राषाको कह विश्वास हो जाये कि थोड़े ही दिनमें उसकी सैन्य-संख्या बढ़ बायेगी, तब स्तमें अपेक्षाकृत बधिक बल आ जाये, तो वह क्षति स्वीकार कर यो सन्धि कर ले । अबदा प्रपल राजासे आक्रान्त हो और स्वाक्का उपाय न हो, तो कुछ भेंट देकर सन्धि कर ले। विग्रह
"अपराषो विग्रहः" अर्थात् जब अन्य राजा अपराध करे, राज्यपर आक्रमण करे या राज्यको वस्तुबोकर अपहरण करे, तो उस समय उसे दण्ड
प्रवाई एवं परम्परापोषकाचार्य : ८१
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोष
देनेकी व्यवस्था करना विग्रह है । विग्रहके समय राजाको अपनी शक्ति, और बल — सेनाका अवश्य विचार करना चाहिये ।
-
यान
'अभ्युदयो यानं' – शत्रुके ऊपर आक्रमण करना, या शत्रुको बलवान समझकर अन्यत्र चला जाना यान है ।
असन
-
'उपेक्षणमासनं' – यह एक प्रकारसे विराम सन्धिका रूपान्तर है। जब उभयपक्षका सामर्थ्य घट जाये, तो अपने- अपने शिविरमें विश्रामके लिए आदेश देना अथवा मन्त्री, परपक्ष और स्वस्वामीकी शक्ति एवं सैन्य संख्या समान देखकर अपने राजाको एकभावस्थान लेनेका आदेश देना आसन है ।
संय
'परस्यात्मार्पणं संश्रयः'– शत्रुसे पीड़ित होनेपर या उससे क्लेश पानेकी आशंका होनेपर अन्य किसी बलवान राजाका आश्रय लेना संश्रय है । द्वैधीकरण
" एकेन सह सान्ध्यमन्येन सह विग्रहकरणमेकेन वा शत्री सन्धानपूर्वं विग्रहो द्वैधीभावः " - जब दो शत्रु एक साथ विरोध करें, प्रथम एकके साथ सन्धि कर दूसरेसे युद्ध करे और जब वह पराजित हो जाये, तो प्रथमके साथ भी युद्ध कर उसे भी हरा दे ! इस प्रकार दोनोंको कूटनीतिपूर्वक पराजित करना या मुख्य उद्देश्य गुप्त रखकर वैरंगमें शत्रुसे सन्धि कर अवसर प्राप्त होते ही अपने उद्देश्य अनुसार विग्रह करना द्वैधीकरण है । यह कूटनीतिका एक अङ्ग है । इसमें बाहर कुछ और भीतर कुछ भाव रहते हैं ।
भेव
जिस उपाय द्वारा शत्रुकी सेनामेंसे किसीको बहकाकर अपने पक्षमें मिलाया जाये अथवा शत्रुदल में फूट डालकर अपना कार्य साध लिया जाये, मेद है । इस प्रकार चतुरंग राजनीतिका भी भेद-प्रभेदपूर्वक नीतिवाक्यामृतमें वर्णन आया है। राजा अपनी राजनीतिके बलसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश बन जाता है । जनताके जान-मालकी रक्षा के लिए नियम, उपनियम और विज्ञान भी राजाको हो बनाना होता है । राजाको प्रधानतः नियम और व्यवस्था, परम्परा और रूढ़ियोंका संरक्षक होना अनिवार्य है ।
सोमदेवसूरिने राज्यका लक्ष्य धर्म, अर्थ और कामका संबर्द्धन माना है। धर्म सवर्द्धनसे उनका अभिप्राय सदाचार और सुनीतिको प्रोत्साहन देना तथा जनता
८२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
में सच्ची धार्मिक भावनाका संचार करना है। अर्थ
के लिए कृषि, उद्योग और वाणिज्यकी प्रगति, राष्ट्रीय सामनोंका विकास एवं कृषि-विस्तारके लिए सिंचाई और नहर आदिका प्रवन्ध करना आवश्यक बतलाया है । कामसंवर्द्धन के लिए शान्ति और सुव्यवस्था कर प्रत्येक नागरिकको न्यायपूर्वक सुख भोगनेका अवसर देना एवं कला-कौशलकी उन्नति करना बताया है । इस प्रकार राज्य में शान्ति और सुव्यवस्थाके स्थापनके लिए जनताका सर्वाङ्गीण, नैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शारीरिक विकास करना राजाका परम कर्तव्य है । इसी कारण राजाके अनेक गुण बतलाये है ।
राज्याधिकार
}
बताया है कि सबसे पहले पुत्रका, अनन्तर भाईका भाईके अभाव में विमाताके पुत्र -- सौतेले भाईका, इसके अभावमें चाचाका, चाचाके अभाव में सगोत्रीका, सगोत्रीके न रहने पर नाती - लड़कीके पुत्रका एवं इसके अभाव में किसी आगन्तुकका अधिकार होता है ।
इस प्रकार इस 'नौतिवाक्यामृत' में राजनीति और अर्थशास्त्र पर अच्छा प्रकाश डाला गया है ।
यशस्तिलकचम्पू
आचार्य सोमदेवका दूसरा ग्रन्थ यशस्तिलकचम्पू है। इसकी कथावस्तु महाराज यशोधरका चरित है, जो आठ आश्वासोंमें विभक्त है। प्रथम आश्वासमें कथाकी पृष्ठभूमि है । अन्तके तीन आश्वासों में उपासकाध्ययन अर्थात् श्रावकाचार वर्णित है । यशोधरको वास्तविक कथावस्तु मध्यके चार आश्वासोंमें स्वयं यशोधर द्वारा अभिहित है । कथाको गद्य-शैली बाणकी 'कादम्बरी' के तुल्य है । 'कादम्बरी' में 'वैशम्पायन शुक' कथा कहना आरम्भ करता है और कथावस्तु तीन जन्मोंमें लहरिया गतिसे भ्रमण कर यथास्थान पहुँच जाती है । सम्राट् मारिदत्त द्वारा आयोजित महानवमीके अनुष्ठानमें अपार जनसमुदायके बीच बलि के लिए लाया गया प्रव्रजित राजकुमार यशस्तिलककी कथाका प्रारम्भ करता है । आठ जन्मोंकी कथा शीघ्र ही घूमती हुई अपने मूल सूत्र पर मुड़ जाती है । यशस्तिलककी यह कथा अत्यन्त लोकप्रिय रही है और आठवीं शताब्दीके दार्शनिक एवं हरिभद्रसे लेकर संस्कृत और अपन शके अनेक कवियों द्वारा भी गृहीत होती रही है। यही कारण है कि संस्कृत और अपभ्रंश भाषा में अनेक यशोधर-काव्य लिखे गये हैं ।
यौधेय नामका एक जनपद था, जिसकी राजधानी राजपुर थी । यहाँ मारिदत्त राजा राज्य करता था। एक दिन उसे वीरभैरव नामक कवँलाचार्यने
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोवकाचार्य : ८३
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
बताया कि चण्डमारि देवीके सामने सभी प्रकारके पशुयुगलके साथ सर्वांग सुन्दर मनुष्ययुगलकी बलि करनेके लिए, वह विद्यापर-लोकको जीतने चला । मारिदत्त विद्याधर-लोककी विजय करने और वहांको कमनीय कामनियोंके कटाक्षावलोकनकी उत्सुकताको रोक न सका । उसने चण्डमारि मन्दिरमें महानवमांक आयोजन अपूर्व साह और घूम-धामसे सम्पन्न करनेकी घोषणा की। सभी तरहके पशु एकत्र किये गये। मनुष्यकुमालकी कमी देखकर राज्यकर्मचारी उसकी तलाशमें निकले । इसी समय राजधानीके निकट सुदास नामके मुनि आकर ठहरे। उनके साथ अन्य दो अल्पवयस्क शिष्य भी थे। ये दोनों भाई-बहन, अस्य अवस्थामें ही राज्य त्याग कर साधु हो गये थे। मध्याह्नमें वे दोनों अपने गुरुकी आमा लेकर मिक्षा के लिए नमरमें गये। यहां उनकी राज्यकर्मचारियोंसे मेंट हुई। कर्मचारी बिना किसी रहस्यका उद्घाटन किये ही, बहाना बनाकर उन दोनोंको परमारि मन्दिरमें ले गये। मारिदत्त इस सर्वाग सुन्दर नर-युबलको प्राप्त कर अत्यन्त प्रसन्न हुबा बोर उसने विद्याधर-लोक भीतने की इच्छा छोड़ दी। उसने इस सुन्दर नर-युगलको देखकर उनका परिचय जानना चाहा।
-प्रथम आश्वास ___ मुनि कहने लगा--भरतशेषमें अवन्ति नामका एक जनपद है। इसकी राजधानी उज्जमिनी शिप्रा नदी के किनारे बसी है। यहाँ रामा यशवन्बु राज्य करता था। उसकी चन्द्रक्सी नामकी रानी की। उन दोनोंके यशोधर नामका एक पुत्र हुवा । एक दिन राजाने अपने सिरपर श्वेत केश देखे, उन्हें देखकर उसे वैराग्य हो गया और उसने अपने पुत्रको राज्य देकर संन्यास ले लिया । यसोपरका राज्याभिषेक और अमृतमतीके साथ उसका पाणिग्रहण संस्कार शिाके तटपर एक विशाल मण्डपमें धूम-धामके साथ सम्पन्न हुन्न ।
-द्वितीय आश्वास यशोधरने राज्य प्राप्त कर उसकी सुव्यवस्था की । प्रजाके हितके अनेक कार्य सम्पन्न किये।
-तृतीय आश्वास एक दिन राजा यशोधर रानी अमृतमसीके साथ विलास करके लेटा हो था कि रानी उसे सोया समझ धीरेसे पांमसे उबरी और वासीके वस्त्र पहनकर मकनते निकल पड़ी। पशोपर इस रहस्यको अवमत करनेके लिए चुपकेसे उसके पीछे हो गया। उसने देखा कि रानी गजपालामें पहुंचकर अत्यन्त गन्दे विजय मकरध्वज नामक महाक्तके साथ विलास कर रही है। उसके आश्चर्य, क्रोध और घुमाका ठिकाना न रहा। वह क्रोधाभिभूत होकर उन दोनोंको मारनेके लिए सोचने लगा, पर कुछ क्षण रूक कर उल्टे पांव लौट आया और राजमहलमें आकर पलंग पर पुनः सो गया । महावतके साथ रति ८४ : तीर्थकर महावीर और उनकी नाचार्यपरम्परा
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
करनेके उपरान्त रानी लोट आयी और यशोषरके साथ पलंग पर इस प्रकार चुपकेसे सो गयी, मानो कुछ हुआ ही न हो । ____ इस घटनासे यशोधरके मनको बड़ो चोट लगी। उसका दिल चूर-चूर हो गया । संसारको असारता उसके समक्ष नृत्य करने लगी। वह नारीजातिके छल-कपटके सम्बन्धमें बार-बार सोचने लगा । जित्तना ही वह सोचता जाता था, उतना ही उसका मन घृणासे भरता चला जाता था। प्रात:काल होनेपर यशोधर राजसभामें पहंचा, तो उसकी माता चन्द्रमतीने उसे उदास देखकर पूछा--"वत्स ! तुम्हारी उदासीका क्या कारण है ? आज तुम्हारा मुख म्लान क्यों हो रहा है ?" यशोधरने बात टालनेकी दृष्टिसे कहा-“वाज मैंने रात्रिके अन्तिम प्रहर में एक भयंकर स्वप्न देखा है। मैं अपने पुत्र यशोमतिको राज्य देकर संन्यस्त हो गया हूँ। शत्रु मेरे राज्य पर आक्रमण कर रहे हैं और यशोमति उन शत्रुओंका सामना करनेमें असमर्थ है।" ___ "अतएव हे माता ! मैं अब अपनी कुलपरम्पराके अनुसार राजकुमारको सिंहासन देकर दिगम्बर मुनि होना चाहता हूँ।" पुत्रके इन वचनोंको सुनकर राजमाता अत्यन्त चिन्तित हुई और उसने कुलदेवी चण्डमारीके मन्दिरमें बलि चढ़ाकर स्वप्नकी गादि करानेका माय बन्नुस्मा : मनोपर पल्सिाके लिए किसी भी मूल्य पर तैयार नहीं हुआ, तो राजमाताने कहा कि आटेका मुर्गा बनाकर उसीको बलि करेंगे। यशोधरको विवश होकर यह मानना पड़ा। उसने विचार किया कि "कहीं राजमाता मेरे द्वारा अवज्ञा होने पर कोई अनिष्ट न कर बैठे। अतएव मुझे माँकी बात स्वीकार कर लेनी चाहिये।" एक ओर चण्डमारिके मन्दिरमें बलिका आयोजन होने लगा और दूसरी ओर कुमार यशोमतिक राज्याभिषेककी तैयारियां होने लगीं। ____ अमृतमतीको जब यह समाचार ज्ञात हुआ, तो भोतरसे वह प्रसन्न हुई, पर दिखावा करती हुई कहने लगी--"स्वामिन् ! मुझे छोड़कर आप संन्यास लें, यह उचित्त नहीं। अतः कुपाकर मुझे भी अपने साथ ले चलें।"
यशोधर कुलटा रानीकी विठाईसे तिलमिला उठा । उसके मनको गहरी व्यथा हुई, फिर भी वह शान्त रहा । मन्दिर में जाकर उसने आटेके मुर्गेको बलि चढ़ायी। इससे उसकी मां तो प्रसन्न हुई, किन्तु रानीको दुःख हुआ कि कहीं राजाका वैराग्य क्षणिक न हो। अतएव उसने बलि किये हुए बाटेके मर्गके प्रसादको बनाते समय, उसमें विष मिला दिया। जिसके सानेसे यशोधर और उसकी माँ दोनोंकी मृत्यु हो गयी।
-चतुर्व बाश्वास मृत्युके बाद मां और पुत्र दोनों ही छह बन्मों तक पशुयोनिमें भटकते
प्रमुखाचार्य एवं परम्परापोचकापार्य : ८५
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
रहे । प्रथम जन्ममें यशोधर मोर हुआ और उसकी माँ चन्द्रमती कुत्ता ! दुसरे जन्ममें यशोधर हिरण हुआ और चन्द्रमती सर्प । तृतीय जन्ममें वे दोनों शिप्रा नदीमें जल-जन्तु हुए। यशोधर एक बड़ी मछली हुआ और चन्द्रमती एक मगर । चतुर्थ जन्ममें दोनों बकरा बकरी हुए। पञ्चम जन्ममें यशोधर पुनः बकरा हुआ और चन्द्रमती कलिंगदेशमें भैंसा हुई । छठे जन्ममें यशोधर मुर्गा और चन्द्रगती मुर्ती हुई।
मुर्गा-मुर्गीका मालिक वसन्तोत्सवमें कुक्कुट युद्ध दिखानेके लिए उन्हें उज्जयिनी ले गया । यहाँ सुदत्त नामके आचार्य ठहरे हुए थे । उनकं उपदेशसे उन दोनोंको अपने पूर्व जन्मोंका स्मरण हो गया और उन्हें अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा । अगले जन्ममें वे दोनों मरण कर राजा यशोमतिके यहाँ उसकी रानी कुसुमावलिके गर्भसे युगल भाई-बहनके रूपमें उत्पन्न हुए । उनके नाम कमशः अभयचि और अभयमति रखे गये। एक बार राजा यशोमति सपरिवार आचार्य सुदत्तकं दर्शन करने गया और वहां अपने पूर्वजोंकी परलोक यात्रा के सम्बन्ध में प्रश्न किया। आचार्य सुदत्तनें अपने दिव्यज्ञानके प्रभावसे बतलाया कि तुम्हारे पितामह् यशोधं अथवा यशबन्धु अपने तपश्चरणके प्रभावसे स्वर्ग में सुख भोग रहे हैं और तुम्हारी माता अमृतमती विष देनेके कारण नरक में वास कर रही है। तुम्हारे पिता यशोधर तथा उनको माता चन्द्रमती आके मुर्गे की बलि देनेके पापके कारण छह जन्मों तक पशु योनिमें भ्रमण कर अपने पापका प्रायश्चित्त कर तुम्हारे पुत्र और पुत्रोके रूपमें उत्पन्न हुए हैं। आचार्य सुदत्तने उनके पूर्वजन्म की यह कथा सुनायी, जिसे सुनकर उन बालकोंको संसारके स्वरूपका ज्ञान हो गया और इस भयसे कि बड़े होनेपर पुन: संसारचक्रमें न फँस जायें, उन्होंने कुमारकालमें ही दीक्षा ले ली। इतना कहकर अभयरुचिने कहा - "राजन् ! हम दोनों वही भाई-बहन हैं। हमारे वे आचार्य सुदत्त इसो नगरके पास ठहरे हुए हैं । हम लोग उन्होंकी आज्ञा लेकर भिक्षाके लिए नगर में आये थे कि आपके कर्मचारी हमें पकड़ कर यहाँ ले आये ।"
- पञ्चम आश्वास
आगेको कथावस्तुमें बताया गया है कि मारिदत्त यह वृत्तान्त सुनकरें आश्चर्यचकित हुआ और कहने लगा- "मुनि कुमार हमें शीघ्र ही अपने गुरुके निकट ले चलो। मुझे उनके दर्शनोंकी तीव्र उत्कंठा है । सभी लोग आचार्य सुदत्तके पास पहुंचे और उनके उपदेशसे प्रभावित होकर धर्म में दीक्षित हो गये ।
इस कथावस्तुके पश्चात् अन्तिम तीन आश्वासोंमें उपासकाध्ययनका वर्णन है, जो ४६ कल्पों में विभाजित है । प्रथम कल्पका नाम समस्तसमयसिद्धान्ता
८६ तीर्थंकर महावीर और उनकी श्राचार्यपरम्परा
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
वबोधन है। इसमें वैशेषिक, पाशपत, कुलाचार्य, सांख्य, बौद्ध, जैमिनीय, चार्वाक, वेदान्स आदि दर्शनोंके तत्वोंकी समीक्षा की गयी है। द्वितीय कल्पका नाम आप्तस्वरूप-मीमांसन है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव, बुद्ध और सूर्य आदिके आप्तत्वकी मीमांसा की गयी है। तृतीय कल्पका नाम आगमपदार्थपरीक्षण है, इसमें सोमदेवने आगमकी समीक्षा करते हुए जैन मुनियोंके आचारसे सम्बन्धित स्नान नहीं करना, आचमन नहीं करना, नग्न रहना, खड़े होकर भोजन करना जैसे आचारमें उद्भावित दोषोंका निराकरण किया है। चतुर्थ मूढ़तोन्मथन कल्पमें प्रचलित लोक-मूढ़ताओंकी समीक्षा की गयी है। लोकमढ़ताओंमें ग्रहण-स्नान, संक्रान्ति-दान, अग्नि-पूजन, धर्मभावनासे नदी-समद्रमें स्नान, वृक्ष-पूजा, स्तुप-वन्दन, गोमुत्र-सेवन, रल, भूमि, यक्ष, शस्त्र, पर्वत पूजन आदिकी गणना की गयी है। अन्ततः सम्यक् आप्त, आगम और तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन निरूपित किया है !
चार कल्पोंके पश्चात् आगेके सोलह कल्पोंमें सम्यग्दर्शनके आठों अगोंमें प्रसिद्ध अञ्जन चोर, अनन्तमती, उद्यायन, रेवतीरानी, जिनेन्द्रभक्त सेठ, वारिपेण, विष्णुकुमार मुनि और वनकुमार मुनिको रोचक कथा, दो गया है। २१वें कल्पमें सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति-निमित्तोंका कथन करते हुए निसर्गज और अधिगमज भेदों एवं सराग और वीतराग भेदों तथा उनके अभिव्यञ्जक प्रशमादिका स्वरूप बतलाया गया है । २२से २५वें कल्प तक मद्य, मांस, मधु आदिके दोष बतलाते हुए मद्यपान और मांस-भक्षणके संकल्पसे उत्पन्न दोष और उनके त्यागसे उत्पन्न होनेवाले कल्याणका कथाओं द्वारा वर्णन किया गया है। २६ से ३रखें कल्प तक पंचाणुव्रतोंका वर्णन है और हिंसा, झूट, चोरी, कुशील और परिग्रहसे उत्पन्न हुई बुराइयोंको बतलाते हुए पांच कथाएँ प्राञ्जल गद्यमें लिखी गयी हैं । तेतीसवें कल्पमें तीन गुणवतोंका वर्णन है। ___चोतीसवें कल्पसे चलीसवें कल्प तक सामायिकशिक्षाप्रतका निरूपण है। सोमदेवने सामायिकका अर्थ जिनपूजासम्बन्धी क्रियाएँ लिया है। अतः ३४वें कल्पमें स्नान-विधि, ३५वें में समाचार-विधि, ३६वेंमें अभिषेक और पूजन विधि, ३७वमें स्तवन-विधि, ३८वेंमें जप-विधि, ३९३में ध्यान-विधि और ४०वें कल्पमें श्रुताराधन-विधि वर्णित है । ४१वें कल्पमें प्रौषधोपवास, ४२वें कल्पमें भोगोपभोगपरिमाणवत और ४३वें कल्पमें दानकी विधिका वर्णन आया है। ४४वें कल्पके प्रारम्भमें श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंको संक्षेपमें बतलाकर यतियोंके लिए जनेतर सम्प्रदायमें प्रचलित नामोंकी निरुक्तियाँ दी गयी हैं, जो एक नयी वस्तु है। ४५वमें संल्लेखना और ४६वें कल्पमें कछ फूटकर बातोंका कथन है। इस तरह सोमदेवका यह उपासकाध्ययननिरूपण विशेष महत्त्वपूर्ण है।
प्रबुवाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ८७
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोमदेवके इस उपासकाध्ययननिरूपणपर सबसे अधिक प्रभाव आचार्य समन्तभद्रके रत्नकरण्ड श्रावकाचारका है । उसीके अनुसार इसमें सम्यग्दर्शन, अष्टमूलगुण, द्वादशव्रत, एकादश प्रतिभाएँ और समाधिमरणका कथन हैं । जटासिंहनन्दिके व रांगचरितका भी प्रभाव इस पर है ।
जिनसेनके महापुराण और गुणभद्रके आत्मानुशासनका भी प्रभाव उपासका ध्ययनपर दिखलाई पड़ता है ।
अध्यात्मतरंगिणी
इस ग्रन्थका दूसरा नाम योगमार्ग भी है । यह अध्यात्मविषयक रचना है । इसमें ४० पद्य हैं। एक प्रकारसे यह ग्रन्थ स्तोत्रशैलीमें लिखा गया है । आमाका स्वरूप, शक्ति, गुण, समुद्घात, चारित्र, आस्रव, बन्ध आदिका विश्लेषण करते हुए नित्य कर्मबन्धनरहित आत्माका स्वरूप निरूपित किया है। आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यानका भी संक्षेपमें कथन किया है। रचना बड़ी हु और उपदेशप्रद है ।
सोमदेवको काव्यप्रतिभा और पाण्डित्प
सोमदेव अद्वितीय प्रतिभाशाली कवि और दार्शनिक विद्वान् हैं। इनके गद्य और पद्य दोनों में शब्द- रमणीयत्ताके साथ अर्थरमणीयता विद्यमान है । उदात्त वर्णन, नवीन शब्दावलि और उच्च भावभूमिके कारण ही कविको 'कविकुलराज' उपाधि रही होगी । अप्रयुक्त और क्लिष्ट शब्दोंके प्रयोगके लिए सोमदेव प्रसिद्ध हैं । इनके मत से दोषरहित, माधुर्य आदि गुणयुक्त रसभाव समन्वित एवं अलंकृत रचना ही काव्यकी कोटिमें परिगणित की जाती है ।
आचार्य वादिराज
दार्शनिक, चिन्तक और महाकविके रूपमें वादिराज स्यात हैं । ये उच्चकोटिके तार्किक होनेके साथ भावप्रवण महाकाव्यके प्रणेता भी हैं। इनकी बुद्धिरूपो गायने जीवनपर्यन्त शुष्कतर्करूपी घास खाकर काव्य- दुग्धसे सहृदयजनोंको तृप्त किया है। इनकी तुलना जैन कवियोंमें सोमदेवसूरिसे और इतर संस्कृतकवियोंमें नैषधकार श्रीहर्षसे की जा सकती है ।
वादिराज द्रमिल या द्रविड़ संघके आचार्य थे । इसमें भी एक नन्दिसघ था, जिसकी अरुङ्गल शाखाके अन्तर्गत इनकी गणना की गयी है। अनुमान है कि अरुङ्गल किसी स्थान या ग्रामका नाम है, जहांकी मुनिपरम्परा रुजालान्वयके नामसे प्रसिद्ध हुई है ।
१. अध्यात्मतरंगिणी, सत्वनुशासनादिसंग्रहके अन्तर्गत, माणिकचन्द दि० जनवन्धमाच्य वि० सं० १९७५ ।
८८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
वादिराजकी षट्तकषण्मुख, स्यावादविद्यापति और जगदेकमल्लवादी' उपाधियां थीं। एकीभावस्तोत्रके अन्समें निम्नलिखित पद्य पाया जाता है
वादिराजमनुगाब्दिकलोको वादिराजमनुतार्किकसिंहः ।
वादिराजममुकाव्यकृतस्ते वादिराजमनुभव्यसहायः ।। अर्थात् समस्त वैयाकरण, तार्किक और भव्यसहायक वादिराजसे हीन हैं, वर्थात् वादिराजकी समता नहीं कर सकते हैं।
एक शिलालेखमें कहा गया है कि वे सभामें अकलंकदेव ( जैन ), धर्मकीर्ति (बौद्ध), बृहस्पति ( चार्वाक् ) और गौतम { नैयायिक ) के तुल्य हैं। इससे स्पष्ट है कि वादिराज अनेक धर्मगुरुओंके प्रतिनिधि' थे।
मस्लिषेपप्रशस्तिमें. वादिविवेता और कविके रूपमें इनकी स्तुति की गयी गयी है। इन्हें जिनेन्द्रके समान शक्तिशाली वक्ता और चिन्तकके रूपमें बताया गया है
त्रैलोक्य-दीपिका पाणी द्वाभ्यामेवोदगादिह ।
जिनराजत एकस्मादेकस्माद्वादिराजतः ।। वादिराज श्रीपालदेवके प्रशिष्य, मतिसागरके शिष्य और रूपसिद्धिके कर्ता दयापाल मुनिके गुरुभाई थे । वादिराज यह नाम उपाधि जैसा प्रतीत होता है । सम्भवतः अधिक प्रचलित होनेके कारण ही कवि इस नामसे ख्यात हो गया होगा। ऐतिहासिक शोष और खोजके आधार पर कुछ विद्वानोंने कविका नाम कनकसेन बतलाया है। पर सबल तकोंसे इसको सिद्धि नहीं हो पाती है । अतः अभी तक उक्त तथ्य मान्य नहीं हो सका है।
पार्श्वनाथचरितको प्रशस्तिमें अपने दादागुरु श्रीपालदेवको “सिंहपुरैक
१. षट्तकषण्मुख स्थानावविद्यापति गनु अगकमस्लवादिंगलु एमिसिद श्रीवादिराज
देवरुम -श्रीराइस द्वारा सम्पापित नगर तालुकाका इन्सक्रपशम्स नं. ३६ । २, सबसि यश्कलङ्गः कीर्तने धर्मकीतिवचसि सुरपुरोषा न्यायवादेसपादः । इति समययुषणामेकतः संगतानां प्रतिनिधिरिष देवो राजते वादिराजः ।।
-इन्स्क्रपशम्स नं० ३९ । 1. जैन शिलालेखसंबह, प्रथम भाम, अभिलेखसंस्था ५४, महिलगप्रशस्ति, पद्य ४० । ४. हितबिनो यस्य नृणानुवात्त-वाचा मिबदा हित-रूप-सिद्धिः ।
बन्यो दयापासमुभिः सवाचासिद्धस्तताम्मूडीन य: प्रभावः॥ -कही, पञ्च ३८ । ५. Introduction of Yashodhar charitra, Dharwar Edition 1963,
page5.
प्रनुजाचार्य एवं परम्मरापोषकापार्य : ८९
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुख्यः' कहा है और न्यायविनिश्चयको प्रशस्तिमें अपने आपको 'सिंहपुरेश्वर " लिखा है । इन दोनों पदोंका आशय सिहपुरनामक स्थानके स्वामीसे है । अतः प्रेमीजीका अनुमान है कि सिंहपुर उन्हें जागीरमें मिला हुआ था और वहाँ पर उनका मठ भी था ।
श्रवणबेलगोलके शक संवत् १०४७ के अभिलेखमें' वादिराजकी शिष्यपरम्पराके श्रीपाद सन्धिदेव होता निष्णुर्द्धन नेमलदेव द्वारा जिनमन्दिरोंके जीर्णोद्धार और मुनियोंके आहारदानके हेतु शल्यनामक ग्रामको दानरूप देनेका वर्णन है । शक सं० ११२२ में उत्कीर्ण किये गये ४९५ संख्यक अभिलेखमें बताया गया है कि षट्दर्शनके अध्येता श्रीपालदेव के स्वर्गवासी होनेपर उनके शिष्य वादिराजने परवादिमल्लनामका जिनालय निर्मित कराया था और उसके पूजन एवं मुनियोंके आहारदान के हेतु भूमिदान दिया था ।
उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि वादिराजकी गुरुपरम्परा मठाधीशोंकी थी, जिसमें दान लिया और दिया जाता था । ये स्वयं जिनमन्दिरोंका निर्माण कराते, जीर्णोद्धार कराते एवं अन्य मुनियोंके लिए आहारदानकी व्यवस्था करते थे ।
देवसेनसू रिके दर्शनसारके अनुसार द्रमिल या द्रविड़ संघके मुनि कच्छ, खेत, वसति ( मन्दिर ) और वाणिज्यरूपमें आजीविका करते थे तथा शीतल जलसे स्नान भी करते थे। इसी कारण द्रमिल संघको जैनाभास कहा गया है। कर्नाटक और तमिलनाड इस संघके कार्यक्षेत्र थे ।
वादिराजसूरिके विषय में एक कथा प्रचलित है कि इन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। एक बार राजाकी सभा में इसकी चर्चा हुई, तो इनके एक अनन्य भक्तने अपने गुरुके अपवादके भयसे झूठ ही कह दिया कि उन्हें कोई रोग नहीं है । इस पर वाद-विवाद हुआ और अन्तमें राजाने स्वयं ही परीक्षा करनेका निश्चय किया । भक्त घबराया हुआ वादिराजसूरिके पास पहुँचा और समस्त घटना कह सुनायी । गुरुते भक्तको आश्वासन देते हुए कहा - "धर्मके प्रसादसे ठीक होगा, चिन्ता मत करो" । अनन्तर एकीभावस्तोत्रकी रचना कर अपनी व्याधि दूर की ।
१. सम्पादक डॉ० महेन्द्रकुमार म्यायाचार्य प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, सन् १९५४ ई० अन्तिम प्रशस्ति ।
२. प्रेमी - जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई, द्वितीय संस्करण, पु० २९४ ।
३. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ४९३, पू० ३९५
४. न्यायविनिश्वयविवरण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रस्तावना, पु० ५९-६१ ।
९० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
1
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकीभावस्तोत्रके तरीकाकार
कण
ती पूर्णरूप से तो उद्धृत नहीं की है, पर जो अंश लिखा है, उससे कुष्ठ व्याधिका संकेत मिलता है। बताया है - "मेरे अन्तःकरणमें जब आप प्रतिष्ठित हैं, तब मेरा यह कुष्ठ रोगाक्रान्त शरीर यदि सुवर्ण हो जाये, तो क्या आश्चर्य है ।" स्थिति-काल
वादिराजने अपने ग्रन्थों की प्रशस्तियों में रचना कालका निर्देश किया है । ये प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके रचयिता प्रभाचन्द्र के समकालीन और अकलंकदेवके ग्रन्थोंके व्याख्याता है । कहा जाता है कि चालुक्य नरेश जयसिंहकी राज्यसभा में इनका बड़ा सम्मान था और ये प्रख्यात वादी गिने जाते थे। जयसिंह ( प्रथम ) दक्षिणके सोलंकीवंशके प्रसिद्ध महाराज थे । इनके राज्यकालके तीससे अधिक दानपत्र और अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें सबसे पहला अभिलेख शक संवत् ९३८ ( ई० सन् १०१६ ) का है और अन्तिम शक संवत् ९६४ ( ई० सन् १०४२ ) का है । अतएव इनका राज्य-काल ई० सन् १०१६-१०४२ ई० तक हैं ।
वादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित 'सिंहचक्रेश्वर' या 'चालुक्यचक्रवर्ती' जयसिंहदेवकी राजधानीमें निवास करते हुए शक संवत् ९४७ ( ई० सन् १०२५ ) कात्तिक शुक्ला तृतीयाको पूर्ण किया था। यह राजधानी लक्ष्मीका निवास और सरस्वतीकी जन्मभूमि थी ।
यशोधरचरितके तृतीय सर्गके अन्तिम पद्य और चतुर्थ सर्गके उपान्त्य पद्यमें कविने कोशलपूर्वक महाराज जयसिंहदेवका उल्लेख किया है। अतः इससे स्पष्ट है कि यशोधरचरितकी रचना भी कविने जयसिंहके समय में की है। पार्श्वनाथचरितकी प्रशस्तिके आधारपर जयसिंहकी राजधानी कट्टर नामक स्थान माना जाता है। यह स्थान मद्रास प्रान्त में एक साधारण गांव है, जो बादामीसे बारह मील उत्तरकी ओर है ।
१. हे जिन मम स्वान्तः गेहूं ममान्तःकरणमन्दिरं त्वं प्रतिष्ठ सन् इदं मदीयं कुष्ठरोगाक्रान्तं" "एकीभाव, वृत्ति, श्लोक ४ ।
२. शाकान्दे नगवाधिरन्ध्रगणने संवत्सरे कोचने
मासे कालिकनाम्नि बुद्धिमहिते शुद्ध तृतीयादिने ।
सिंहे याति जपादिके वसुमतीं जैनी कथेयं मया
निष्पीतं गमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पत्तये ॥
- पा० च० प्र०५ पद्य ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ९१
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
डॉ० कीथने 'History of Sanskrit Literature' नामक ग्रन्यमें बताया है
"दक्षिणदेश निवासी कनकसेन वादिराज द्वारा रचित ऐसा ही काव्य है, जिसमें चार सगं और २२६ पद्य हैं। उनके शिष्य श्रीविजयका समय लगभग ९५० ई० है।"
इससे स्पष्ट है कि डॉ० कीथ वादिराजको सोमदेवसे पूर्ववर्ती मानते हैं और इनका समय दसवीं शतीका उत्तरार्द्ध सिद्ध करते हैं। हुल्त्स् ( Hultzsch ) ने लिखा है कि अजितसेन वादीभसिंह वादिराज द्वितीयक शिष्य थे और यादवराज ऐरेयंग तथा शान्तराज तेलगुके ( सन् ११०३ ई० ) गुरु थे।
डॉ० कीथने जिन कनकसेन वादिराजका उल्लेख किया है, वे प्रस्तुत वादिराजसे भिन्न काई पादराज हैं। हुस् द्वार: पिट मादिराज भी नाश्वनाथचरितके रचयितासे भिन्न ही कोई अन्य व्यक्ति हैं । प्रस्तुत वादिराज जगदेकमल्ल द्वारा सम्मानित हुए थे, अतः इनका समय सन् १०१० से १०६५ ई० प्रतीत होता है। यतः जगदेकमल्लका समय अनुमानतः सन् १०१८-१०३२ ई. के बीच होना चाहिये ।
पार्श्वनाथरिसके अतिरिक्त यशोधररित, एकीभावस्तोत्र,न्यायविनिश्चयविवरण और प्रमाणनिर्णय रचनाएँ भी वादिराजकी प्राप्त हैं। रचनाओंका परिचय पाश्वनाथचरित
महाकाव्यकी दृष्टि से वादिराजका पार्श्वनाथचरित श्रेष्ठ काव्य है । इसमें बारह सर्ग हैं। कथावस्तु निम्न प्रकार है।
पोदनपुरमें अविन्दनामका एक अत्यन्त प्रतापी एवं थोनिलय राजा रहता था। यह नगर समृद्ध और महिमामण्डित था। राजा दानी, कृपाल और यशस्वी था । मन्त्री विश्वभूति विलक्षण गुणयुक्त या । उसने एक दिन राजासे निवेदन किया कि अब संसारके विषय-भोगोंसे मुझे वितृष्णा हो गयी है, अत: आत्मकल्याण करनेकी अनुमति प्रदान कीजिए । विश्वभूतिके प्रवजित होनेपर राजाने उसके छोटे पुत्र मरुभूतिको मन्त्री नियुक्त कर लिया । विश्वभूतिके बड़े पुत्रका नाम कमठ था।
एक समय बजवीर नामक प्रान्तिक शत्रु अरविन्दका विरोध करने लगा। उसे पराजित करनेके लिए अरविन्दके साथ मरुभूतिको भी जाना पड़ा और उसके बड़े भाई कमठको राजाने मन्त्रीपद पर प्रतिष्ठित किया। जब अरविन्द अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर चला, तो ब्रजवीरने भी सैनिकतैयारी की, पर उसकी सेना अरविन्दकी सेनाके समक्ष ठहर न सकी और विजयलक्ष्मी अरविन्द१. History of Sanskrit Literature (Oxford 1928 ), Page 142. २. Introduction of Yashodhar charita ( Dharwar 1963) P. 7. ९२ : वीर्यकर महाबीर और जनको आचार्गपरम्परा
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
को प्राप्त हुई। वह विजयपताका फहराता हुआ अपने नगरमें लौट आया।
प्रथमसर्ग। मन्त्रिपद प्राप्त करनेके उपरान्त कमठने अपने छोटे भाई मरुभूतिकी पत्नी यसुन्धराको देखा । वह उसके रूप-सौन्दर्यसे अत्यधिक आकृष्ट हुआ, असः उसके अभावमें उसके प्राण जलने लगे । मदनज्वरने उसे धर दबाया। कमठके मित्रोंको चिन्ता हुई और एक मित्रने वास्तविक तथ्य जानकर वसुन्धराको कमठकी बीमारीका समाचार देकर बुलाया 1 वसुन्धरा कमठको देखते ही उसके विकारोंको जान गयी, उसने कमठके अनाचारसे बचनेका पूरा प्रयास किया। पर अन्तमें बाध्य होकर उसे कमठकी बातें स्वीप करनी पड़ी। ___ राजा अरविन्दको वापस लौटने पर कमठके दुराचारका पता चला, तो उसने उसे नगरसे निर्वासित कर दिया। कमठ तापसियोंके आश्रममें गया और वहाँ उसने तपस्वियोंके अस्त ग्रहण कर लिये । मरुभूति भाईको बहुत प्यार करता था, अत: वह उसको खोजने लगा । राजा अरविन्दने मरुभूतिको कमठके पास जानेसे बहुत रोका, पर भ्रात-बात्सल्यके कारण वह रुक न सका । कमठ भूताचल पर्वत पर सपस्या कर रहा था। मरुभूतिको आया हुआ जानकर उसने पहाड़को एक चट्टान उसके ऊपर गिरा दो, जिससे मरुभूतिका प्राणान्त हो गया। इधर पोदनपुरमें स्वयंप्रभ नामके मुनिराज पधारे । राजा उनकी वन्दनाके लिए गया ।
-द्वितीय सर्ग । वन्दना करनेके उपरान्त अरविन्दने मुनिराजसे मरुभूतिके सम्बन्धमें पूछा । मुनिराजने कमठ द्वारा प्राणान्त किये जानेको घटनाका निरूपण करते हुए कहा कि मरुभूतिका जीव सल्लकीवनमें वचधोष नामका हाथी हुआ है । जब आश्रमवासियोंको कमठकी उद्दण्डता बोर नृशंसताका पता चला तो उन्होंने उसे आश्रमसे निकाल दिया । अतएव वह दुःखी होकर किरातोंके साथ जीवन व्यतीत करने लगा । जीवनहंसा करनेके कारण उसने भी सल्लकीवनमें कृकवाकु नामक सर्पपर्याय प्राप्त की। मरुभूतिकी माता पुत्रवियोगके दुःखसे मरण कर उसी बनमें बानरी हुई। ___ अरविन्दनृपति मनिराबसे मत वृत्तान्त सुनकर विरक्त हो गया और उसने मुनिव्रत धारण किये । मुमिराज अरविन्द अपनी बारह वर्ष बायु अवशिष्ट जानकर तीर्थवन्दनाके लिए ससंघ चल दिये । मार्ग में उन्हें सालकीवन मिला । मनुष्यों के आवागमन एवं कोलाहलको देखकर वज्रघोष बिगड़ गया और लोगोंको कुचलता हुआ आगे आया। जब उसने अरविन्द मुनिराजको देखा तो उसे पूर्वजन्मका स्मरण हो आया और उनके चरणोंमें स्थिर हो गया । अवधिज्ञानके बलसे मुनि
प्रमुवाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ९३
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजने उसे मरुभूतिका जीव जानकर सम्बोधित किया । वज्रघोषको सम्यक्त्व उत्पन्न हो गया और निरतिचार व्रत पालन करने लगा। संघ सम्मेदाचलकी ओर चला गया । तपश्चरणके कारण वज्रघोष हाथी कृश हो गया। एक दिन वह जल पीने के लिए एक जलाशय में गया और वहां अपनी शारीरिक दुर्बलताके कारण पंक में फँस गया । कृकवाकुने जब हाथीको देखा तो पूर्वजन्मके वरके स्मरण हो आनेसे उसे मस्तक में हँस लिया, जिससे हाथोकी मृत्यु हो गयीं । मृत्युके समय हाथीके परिणाम बहुत हो शुभ रहे, जिससे वह महाशुक स्वर्गके स्वयंप्रभ विमान में देव हुआ । इधर वानरीने सर्पके उस कुकृत्यको देखकर पत्थरकी चट्टान गिरा कर उसे मार डाला, जिससे वह नरक गया। स्वर्ग के वैभव को देखकर तथा अवधिज्ञानसे अपने उपकारीको जानकर उसने भूमिपर अरविन्द मुनिके चरणोंकी पूजा की 1 पश्चात् स्वर्ग में रहकर दिव्य सुख भोगने लगा ।
- तृतीय सर्ग | विजया पर त्रिलोकोत्तम नामक नगर है । इस नगरका स्वामी विद्युद्वेग नामका विद्याधर था । इसकी पत्नी विद्युन्माला नामकी श्री । इस दम्पतिके यहाँ मरुभूतिका जीव स्वर्गसे च्युत हो रश्मिवेग नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह अति तेजस्त्री और सुन्दर था। एक दिन पूर्वजन्मका स्मरण हो जानेसे वह विरक्त. हो गया और समाधिगुप्त नामक मुनिके पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली। एक दिन मुनिराज रश्मिवेग हिमालय पर्वतकी गुफामें कायोत्सर्ग कर रहे थे कि कमठका जीव अजगर, जो कि नरकसे निकलकर अजगर पर्यायमें आया था, उनपर झपटा और उनके मस्तकमें काट लिया । मुनिराजने इस असह्य वेदनाको बहुत शान्तिपूर्वक सहन किया, जिससे उन्हें अच्युत स्वर्गकी प्राप्ति हुई । यहाँ विद्युत्प्रभके नामसे प्रसिद्ध हुए। उस अजगरने भी मरकर तमप्रभा नामक छठी भूमिमें जन्म ग्रहण किया ।
पश्चिम विदेह अश्वपुर नामक नगर में वज्रवीर्य शासन करता था । इसकी पत्नी विजया नामकी थी । कालान्तरमें विद्युत्प्रभ स्वर्गसे च्युत हो विजयाके गर्भसे वज्रनाभ नामका पुत्र हुआ । — चतुर्थ सर्ग | वज्रनाभ धीरे-धीरे बढ़ने लगा और कुछ ही समय में अस्त्र-शस्त्र में पारंगत हो गया। बाद में वह युवराजपद पर प्रतिष्ठित हुआ । का आनन्द लेता हुआ वज्रनाभ समय यापन करने लगा । आकर आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न होनेकी सूचना दी ।
वसन्तादि षड् ऋतुओं एक दिन किसीने - पंचम सर्ग ।
वज्रनाभने चक्र रत्नकी पूजा की और याचकोंको यथेष्ट दान देकर बह दिग्विजयके लिए तैयारियां करने लगा । उसने दिग्विजयके लिए प्रस्थान किया। चक्रवर्ती वज्रनाभका प्रथम स्कन्धावार सीतोदा नदीके तटपर अवस्थित हुआ ।
९४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
चक्रवर्ती, सेनापति, सामन्त और अन्य राजाओंने अपने-अपने योग्य निवासस्थानका चयन किया -षष्ठ सगं ।
चक्रवर्तीकी सेना ने नदोको पार किया और बारह योजन जानेपर चक्रवर्तीका रथ रुक गया । आकाशभाषित वाणी सुनकर उसने मागध व्यन्तरके पास बाण छोड़ दिया । उसे देख व्यन्तर क्रोधाविष्ट हो गया और उसकी सेना युद्धके लिए सन्नद्ध हो गयी । एक वृद्ध पुरुषने मागधको समझाया कि बलशाली पुण्यात्माओंसे विग्रह करना उचित नहीं है । उनसे सन्धि करनेपर ही लाभ होता है | अतः मागध देव बहुत-सी अमूल्य वस्तुएं लेकर चक्रवर्तीकी सेवामें उपस्थित हुआ ! बहाँसे चक्रवर्ती सिन्धु नदीके घाटीमें प्रविष्ट हुआ तथा वरतनु देबको अपने अधीन किया । अनन्तर चक्रवर्तीकी सेना विजयार्धपर पहुँची । इस पर्वतका शासन करनेवाले विजयार्धकुमारने नम्रीभूत हो चक्रवर्तीकी पूजा की और अनेक वस्तुएँ भेंट दीं। कृतमालदेवने चौदह आभूषण दिये और गुहाका द्वार खोलने की विधि बतलायी। गुहाके भीतर प्रविष्ट होकर सेनापतिने म्लेच्छोंको जीत लिया । बहाँसे चलकर वह वृषभाचल पर आया । विद्याधरोंको पराजित कर विद्याधरकुमारियोंका पाणिग्रहण किया । इस प्रकार षट्खण्डकी विजय कर वह अश्वपुर नगरमें वापस आया ! -- सप्तम सर्ग !
वचनाभको छयानबे हजार रानियाँ, चौरासी लाख हाथी, अठारह करोड़ घोड़े और इतने ही सवार थे। एक दिन वह राजा वनमालीसे प्रार्थित हो वसन्तकी शोभा देखने गया। इस प्रसंग में कविने वसन्तका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है । जब चक्रवर्ती वनसे वापस लौटने लगा, तो वसन्तश्री समाप्त हो चुकी थी । सर्वत्र प्रकृतिमें उदासी छायी हुई थी। इस परिवर्तनको देखकर राजाको वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने राज्यभार अपने पुत्रको सौंप दिया। क्षेमंकर मुनिके पास जाकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। कमठका जीव उसी वनमें कुरंग नामका किरात हुआ, जिस वनमें वञ्चनाभ तपस्या कर रहे थे। उस किरातने समाधिस्थ मुनिके ऊपर बाण चलाया, जिससे वे धराशायी हो गये । समाधिपूर्वक शरीर छोड़ने से चक्रवर्ती मुनिराजने मध्य ग्रैवेयकमें अहमिन्द्रका शरीर प्राप्त किया । मुनिराजका अन्त करनेवाले उस भीलने सप्तम नरकमें जन्म ग्रहण किया । चक्रवर्तीका जीव मध्य-ग्रेवेयकसे च्युत्त हो अयोध्या नगरीके वज्रबाहु राजाकी प्रभाकरी नामक रानीके गर्भ में आया ! जन्म लेनेसे समस्त प्रजाको आनन्द हुआ | अतएव राजाने उसका नाम आनन्द रखा । युवा होनेपर राजाने आनन्दet राज्याधिकार दे दिया । आनन्दते राज्यलक्ष्मीको समृद्ध बनाया - अष्टम सगं ।
आनन्दने समस्त मंगलोंका उत्पादक जिनयज्ञ आरम्भ किया । उसे देखनेके मुद्धाचा" एवं परम्परापोषकाचार्य : ९५
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
लिए सद्गुण-सम्पन्न दृढमूर्ति मुनि भी आये । राजा आनन्द जिनमहोत्सव करता हुआ निवास करने लगा । एक दिन अपने श्याम केशोंमें एक श्वेत केशको देखकर उसे विरक्ति हो गयी और अपने पुत्रको राज्य देकर वह वनमें तपश्चरण करने चला गया। मुनि आनन्द तपस्याम लीन था कि कमठके जीव सिंहने देखा । पूर्वजन्मके बैरका स्मरण कर उसने मुनिपर आक्रमण किया । शान्ति और ममाधिपूर्वक मरण करनेसे आनत स्वर्ग में अहमिन्द्र हुआ । छ: मास आयुके शेष रहने पर वाराणसी नगरीमें रत्नोंकी वर्षा होने लगी। महाराज विश्वसेनकी महिषी ब्रह्मदत्ताने सोलह स्वप्न देखे। प्रातः पतिसे स्वप्नोंका निवेदन किया । पतिने उन स्वप्नोंका फल त्रिलोकीनाथ तीर्थकरका जन्म बतलाया ।
नवम सर्ग । ब्रह्मदत्ताने जिनेन्द्रको जन्म दिया ! चदनिका के देवनन्मोत्सव सम्पन्न करने आये । इन्द्राणी प्रसूति गृहमें गयी और मायामयी बालक माताके पास सुलाकर जिनेन्द्रको ले आयो और उस बालकको इन्द्रको दे दिया। इन्द्रने सुमेरु पर्वतपर जन्माभिषेक सम्पन्न किया और पाश्वनाथ नामकरण किया । पार्श्वनाथका बाल्यकाल बीतने लगा | जब वे युवा हुए तो एक दिन एक अनुचरने आकर निवेदन किया कि एक साधु वनमें पंचाग्नि तप कर रहा है । पार्श्वनायने अवधिज्ञानसे जाना कि वह कमठका ही जीव मनुष्य पर्याय पाकर कुसप कर रहा है। के उस तपस्वीके पास पहुंचे और कहा कि तुम्हारी यह तपस्या व्यर्थ है। इस हिसक तपसे फर्म-निजंग नहीं हो सकती है। तुम जिस लकड़ीको जला रहे हो उसमें नाग-नागिन जल रहे हैं। अतः लकड़ीको फाड़कर नाग-नागिन निकाले गये । पाचनायने उन्हें णमोकार मन्त्र सुनाया, जिससे उन नाग-नागिनने घरणन्द्र और पद्मावतीके रूपमें जन्म ग्रहण किया । घरमेन्द्र-पदमावतीने आकर पार्श्वनाथकी पूजा की।
- दगमसर्ग। पार्श्वनाथकी सेवामें अनेक राजा कन्या-रत्न लेकर आये । महागज विश्वसेनने उनसे निवेदन किया कि विवाह कर गृहस्थजीवन व्यतीत कीजिए। पार्श्वनाथने विवाह करनेसे इनकार कर दिया और वे विरक्त हो गये । लोकान्तिक देवोंने आकर उनके वैराग्यको उत्पत्तिपर पुष्पवृष्टि की। पार्श्वनाथने पंचमुष्टि लोच कर दीक्षा ग्रहण की। उन्हें दूसरे ही क्षण मनःपर्ययज्ञान प्राप्त हो गया। उपवासके पश्चात् जुल्ममेदनगरके राजा धर्मादयके यहां पाश्वनाथने पायसान्तका आहार ग्रहण किया । वनमें आकर प्रतिमा-योगमें अवस्थित हो गये । कमठका जीव भतानन्द देव आकाश मार्गसे जा रहा था। तीर्थकरके प्रभावसे विमान रुक गया। वह विमान स्कनेके कारणकी तलाश कर हो रहा ९६ : तीपंकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
था कि उसकी दृष्टि पाश्वनाथ पर पड़ी। उसने पूर्वजन्मका स्मरण कर वाणवृष्टि की, पर वह तीर्थकरके प्रभावसे पुष्पवृष्टि बन गयी। धरणेन्द्र-पद्मावतीको जब भूतानन्दके उपद्रवोंका पता लगा, तो दोनों तत्क्षण वहाँ आये और प्रभुके उपसर्गका निवारण किया। भगवान्ने शुक्ल-ध्यान द्वारा धातियाकर्मोको नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया। देवोंके जय-जयनादको सुनकर भुतानन्द आश्चर्यचकित हो गया और वह तीर्थङ्करकी स्तुति करने लगा। ..यश सर्ग __इन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने समवशरणकी रचना की । तिर्यञ्च, मनुष्यादि सभी भगवान्का उपदेश सुनने लगे। मानव-कल्याणका उपदेश सुनकर सभी प्राणी सन्तुष्ट हुए। रत्नत्रय और तत्त्वज्ञानकी अमृतवर्षा हुई। पश्चात् एक महीनेका योगनिरोध कर अघातियाकर्मोका भी नाश किया और निर्वाण-लक्ष्मी प्राप्त की।
-द्वादश सर्ग कथावस्तुका स्रोत और गठन
पार्श्वनाथकी परम्परा-प्रसिद्ध कथावस्तुको ही कविने अपनाया है । यह कथावस्तु उत्तरपूराणमें निबद्ध है। संस्कृत भाषामें काव्य रूपमें पाश्वनाथचरितको सर्वप्रथम गुम्फित करनेका श्रेय वादिराजको ही है । इनसे पूर्व जिनसेन द्वितीय (ई० सन् ९वीं शती) ने पार्वाभ्युदयमें इस चरितको संक्षेपमें निबद्ध किया है। समग्र जीवनकी कथावस्तु वहाँ नहीं आ पायी है। अपभ्रशमें पद्मकीर्तिने वि० सं० २९.२ (ई० सन् ९३५)में १८ सन्धियोंमें पासणाहचरिउकी रचना अवश्य की है। कवि वादिराजने उक्त अपभ्रश 'पासणाहचरिउ का अध्ययन किया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। वि० सं०११८९ (ई० सन् ११३२) में श्रीधरने १२ सन्धियोंमें अपभ्रश भाषामें एक अन्य ‘पासणाहरिउकी रचना की है । संस्कृत भाषामें (ई० सन् १२१९) माणिक्यचन्द्र द्वारा और सन् १२५५ ई०में भावदेवसूरि द्वारा पार्श्वनाथचरित नामक काव्य लिखे गये हैं। प्राकृत भाषामें पार्श्वनाथचरितका गुम्फन सर्वप्रथम अभयदेवके प्रशिध्य देवभद्रसूरि द्वारा वि० सं० ११६८ (ई० सन् ११११) में किया गया है । अतः काव्य रूपमें अपभ्रशके पासणाहरिउके पश्चात् संस्कृतमें वादिराजका ही चरितकाव्य उपलब्ध होता है। कथावस्तुका मूल स्रोत "तिलोयपण्णत्ती', 'चउपन्नमहापुरिसचरिय' (वि० सं० ९२५, ई० सन् ८६८) एवं उत्तरपुराण (शक सं० ८२०, ई० सन् ८९८) हैं। उत्तरपुराणमें बताया गया है कि पार्श्वनाथ युवक होने पर क्रीड़ा करने वनमें गये। वहां उन्हें महीपाल नामक तापस पंचाग्नि तप करते मिला। यह पार्श्वनाथका मातामह था | चउप्पन्नमहापुरिसरियमें यही कथानक इस १. उत्तरपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, ७३ पर्व, पृ०-४२९-४४२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ९७
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकार आया है कि एक दिन पार्श्वनाथ अपने भवनके ऊपरी भाग पर बैठे हुए थे। उन्होंने देखा कि नगरके लोग' नगरसे बाहर चले जा रहे हैं । पूछने पर पता चला लि कमठ नापक साधु पगडीके बाहर आया है ! वह महान तपस्वी है ! लोग उसकी वन्दनाके लिए जा रहे है । पुष्पदन्तने अपने महापुराणमें उत्तरपुराणके अनुसार ही कथानक लिखा है, पर इस काव्यमें बताया गया है कि सभामें एक पुरुषने आकर सूचना दी कि नगरके बाहर एक मुभि आया है जो पंचाग्नि तप कर रहा है। अनुचरके वचन सुनकर पार्श्वनाथने अपने अवधिज्ञानसे जाना कि कमलका जीव नकसे निकलकर तप कर रहा है। वे वहां पहुंचे और उन्होंने हिंसक तप करनेसे उसे रोका और अधजले नाग-नागिनको णमोकार मन्त्र सुनाया।
उपर्यक्त कथानकको कविने उत्तरपुराणसे ज्यों-का-त्यों नहीं लिया है। अपनी कल्पनाका भी उपयोग किया है। इसी प्रकार पार्श्वनाथ पर उपसर्ग करने वालेका नाम उत्तरपुराण और पुष्पदन्तके महापुराणमें सम्बर आया है, जबकि इस महाकाव्यमें भतानन्द नाम बताया है। भगवान् पाश्वनाथको आहार देने वाले राजाका नाम उत्तरपुराणमें धन्य बताया है, जबकि इस काव्यमें धर्मोदय नाम आता है । इस प्रकार कथावस्तुका चयन परम्परा प्राप्त ग्रन्थोंसे किया गया है ।
कथावस्तुका गठन सुन्दर हुआ है । शैथिल्य नहीं है। शृगारिक वर्णन कथावस्तुको सरस बनाने में सहयोगी है। पूर्वभवोंकी योजनाने घटनाओंको विशृहलित नहीं होने दिया है । कविका मन मरुभसिके पश्चात् वचनाम चकवतीके जन्मक्री घटनाआके वर्णनमें अधिक रमा है। सभी घटनाएं शृखलाबद्ध हैं । कई जन्मोंके आख्यानोंको एक सूत्र में आबद्ध करनेका सफल प्रयास किया गया है। यद्यपि अनेक जन्मोके आख्यान-वर्णनसे पाठकका मन सब जाता है और उसे अगले जन्मसे सम्बन्ध जोड़ने के लिए भवालिको स्मरण रखना पड़ता है, तो भी कथामें प्रवाहकी कमी नहीं है। समस्त कथानक एक ही केन्द्रके चारों ओर चक्कर लगाता है। एक मनोवैज्ञानिक श्रुटि यह दिखलाई पड़ती है कि कमठ कई भवों तक एकान्तर वैर करता रहता है, जबकि मरुभूतिका जीव सदैव उसकी भलाई करता है। कभी भी वैर-विरोध नहीं करता। अन्तिम पाश्वनाथके भवमें भी वह कष्ट देता है। पार्श्वनाथको केवलज्ञान होनेपर ही उसका विरोध शान्त होता है । अतः इस प्रकारका एकाकी विरोध अन्यत्र बहुत कम आता है । 'समराइच्चकहा' में समरादित्यका वैर-विरोध भी अग्नि शर्माके साथ नौ भवों तक चला है । हाँ, अग्निशर्माको गुणसेनके भवमें समरादित्य अवश्य कष्ट देता है और उसको चिढ़ाता है। अतः रुष्ट होकर अग्निशर्मा निदान ९८ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्यपराम्परा
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
करता है और नौ भवों तक वैर-विरोध चलता रहता है। पार्श्वनाथचरितमें भी इस प्रकारका वैर-विरोध पाया जाता है । मरुभूति कमठसे अपार स्नेह करता है, पर कमय उसके निश्छल प्रेमको आशंकाकी दृष्टिसे देखता है । अन्विति-गुण कथावस्तुमें निहित है। महाकाव्यत्व
शास्त्रीय लक्षणोंके अनुसार पार्श्वनाथचरित महाकाव्य है। इसमें १२ सर्ग हैं और मंगलस्तवनपूर्वक काव्यका आरम्भ हुआ है । नगर, वन, पर्वत, नदियाँ, स, ऊषा, साध्या, रजनी, चन्द्रोमय, प्रभास आदि प्राकृतिक दृश्योंके वर्णन, जन्म, विवाह, स्कन्धावार, सैनिक अभियान, युद्ध, सामाजिक उत्सव, शृगार, करुण आदि रस, हाव-भाव विलास एवं सम्पत्ति-विपत्तिमें व्यक्तियोंके सुखःदुखोंके उतार-चढ़ावका कलात्मक वर्णन पाया जाता है। तीर्थकरके चरित्रके अतिरिक्त राजा-महाराजा, सेठ-साहकार, किरात-भील, चाण्डाल आदिके चरित्रचित्रणके साथ पशु-पक्षियोंके चरित्र भी प्रस्तुत किये गये हैं । व्यक्ति किस प्रकार अपने चरित्रका विकास या पतन अनेक जन्मोंमें करता रहता है, इसका सुन्दर निरूपण किया गया है।
पाश्वनाथचरितमें सुन्दर रस-भावपूर्ण उक्तियोंके साथ विभिन्न संवेगोंका चित्रण आया है। समस्त श्रेष्ठ कवियोंने अपने काव्यको कलात्मक कल्पना और भावप्रवण बनानेके लिए नवरसोंका समाहार किया है। प्रस्तुत काव्यका अंगी रम शान्त है और अंग रूपमें शृगार, करुण, वीर, भयानक, वीभत्स और रौद्र रसोंका नियोजन पाया जाता है। श्रृंगार ४१६४, ८।१९, ८।२०, ८१३४, ८१३९, ८/४०, २१२, २।१३, २।१६ एवं ११७ में विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावके साथ आया है। करुणरस १६२ और २१८२ में समाहित है। भयानकरस ३१६६ और ३३६७ में पाया जाता है। रौद्ररस ७५४, ७५५, ७५८ और '७९९ में वर्तमान है। वीररस शताधिक पद्योंमें आया है। ७६५,७६६, ७७०, ७१२० एवं १२१ में वीररसका परिपाक बहुत ही सुन्दर हुआ है । शान्तरसका नियोजन इस काव्यमें अनेक स्थानोंपर हुआ है। __ चरित्रचित्रणकी दृष्टिसे भी यह महाकाव्य सफल है। नायक पार्श्वनाथका चरित्र अनेक भावोंके बीच उन्नतिशील होकर एक आदर्श उपस्थित करता है। प्रतिनायक कमठ ईया-द्वेष, हिंसा एवं अशुभ रागात्मक प्रवृत्तियोंके कारण अनेक जन्मोंमें नाना कष्ट भोगता है। नायक सदा प्रतिनायकके प्रति सहानुभूति रखता है। मरुभूतिके भवमें भ्रात-वात्सल्यका बेसा उदाहरण मिलना कठिन है। प्रकृतिचित्रण और अलंकारयोजनाकी दृष्टिसे भी यह काव्य सफल
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : ९९
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। इस काव्यमें उपमालंकारकी योजना ४/५४, ५/९७, ५।२९, ८१५२, ९।२७, ९।३४, २०५९, ९।२३. १०।६, १०१११, १२११, १११५१, १११७१, १२।२०, १२।३४,४४, ४११८, ४११११ एवं ७५० में पायो जाती है। उत्प्रेक्षा रा१०७, म्हापक २४१, अर्थान्तरन्यास १११५, अतिशयोक्ति ८१९८, उदाहरण ९।६, दृष्टान्त ११३, विभावना १२५, तुल्ययोगिता ११५४, असंगति श८, सन्देश ६१०५, भ्रान्तिमान ३१७३, समासोमित श११४, काव्यलिङ्ग ३२४, बिशेपोक्ति १०५, श्लोष ३।२६, अनुप्रास ४/५२ और यमककी ३१२७, ३।३६ एवं ३१५९. में योजना पायी जाती है ।
भाव एवं रसका निरूपण करने वाली प्रसादगुणसम्पन्न, सरल भाषामें भावानुसार शब्दावलीका प्रयोग कर वादिराजने पार्श्वनाथचरितमें सरस शैलीका प्रयास किया है। काव्यके सम्बन्धमें कविकी स्वयं मान्यता है
अल्पसारापि मालेव स्फुरन्नायकसद्गुणा 1
कण्ठभूषणतां याति कवीनां काव्यपद्धतिः ।। १।१५ । अल्पसमास और श्रेष्ठ-गुण-पूर्ण नायक ही काव्यके उत्तम होनेकर कारण होता है। वर्ण-योजना, शब्द-गठन, अलङ्कार-प्रयोग, भाव-सम्पत्ति एवं उक्तिवैचित्र्य प्रभृति शैलीको समस्त तत्व इनके काव्यमें पाये जाते हैं। कविने शैलीको सरस और आकर्षक बनानेके लिए मूक्ति-वाक्योंका भी प्रयोग किया है । ऋतुवर्णन-प्रसंगमें लम्बे समासोंका भी प्रयोग आया है। अत: पंचम, षष्ठ और आष्टम सर्गोको वेदी और गौड़ीके मध्यकी पाञ्चालीमें निबद्ध माना जा सकता है । सामान्यतः इस काव्यको वैदर्भी शैलीका काव्य मानना उपयुक्त है।
कविने अपने पूर्ववर्ती आचार्योंका भी स्मरण किया है । १११६ में गद्धपिच्छ, १२१७--१९ में समन्तभद्र, ११२० में अकलङ्क, श२१ में वादिसिंह, श२२ में सन्मति, ११३ में जिनसेन, १।२४ में अनन्तकीति, श२५ में पाल्यकोति, २२६ में धनञ्जय, १२७ में अनन्तवीर्य, १।२८ में विद्यानन्द, श२९ में विशेषवादि
और. ११३० में बोरनन्दीका स्मरण आया। यशोधरचरित
यशोधरचरित हिंसाका दोष और अहिंसाका प्रभाव दिखलानेके लिये बहुत लोकप्रिय रहा है। कवि वादिराजने इसी लोकप्रिय कथानकको लेकर प्रस्तुत काव्यकी रचना की है । इस काव्यमें चार सर्ग हैं । प्रथम सर्गमें ६२ गद्य, द्वितीय में ७५, तृतीयमें ८३ और चतुर्थमें ७४ पद्य हैं। यशोधरचरित्रकी कथावस्तु यशस्तिलकचम्पूको कथावस्तु ही है। अतएव कथावस्तुको पुनरावृत्त करना निरर्थक है।
१०० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्यगुणोंको दृष्टि से यह यशोधरचरित समृद्ध काव्य है। रस, अलंकार एवं उक्ति-वैचित्र्यका समावेश है। कथावस्तुमें मर्मस्पर्शी स्थलोंकी योजना भी वर्तमान है। कवि सन्ध्याका चित्रण करता हुआ कहता है-“भवनमें मुगन्धित धूप जलायी जा रही हैं, इसकी गन्धसे समस्त नगर सुगन्धित हो उठा है । भवनोंने वातायनोंसे कबूतरोंके पंखका रंग लिये हा धाँके पिण्ड-के-पिण्ड निकलने लगे। उस समय प्रज्वलित रत्न-प्रदीपोंकी लाल-लाल कान्तिस धाति पिण्ड कूछ रक्त और कुछ पीत हो उठे। मनको प्रसन्न करने वाली सुगन्धिसे मस्त होकर लोग प्रफुल्लित चमेलीके पुष्पोंको भी तुच्छ दृष्टिसे देखने लगे।" यथा
वहन बहिश्चारुगवाक्षरन्ध्र
रामोदितान्तर्भवनस्तदानीम् । कपातपक्षच्छविरुज्जजम्मे
निहारिकालागरुपिण्डधूमः ॥ आताम्रकम्रद्युतिरत्नदीप
स्वस्मिन् जना. पाटलयमाजान् । व्याकोशमल्लीकुसूमानि दाम्ना
मवाममस्तन्नवसौरभेण ।। भवनोंके वातायनोंसे निकलने वाले धूम्रमें कवि गृहदेवताकी सुगन्धित श्वासका आरोप करता हुआ कहता है
आवर्तमानः परिमन्दवृत्त्या
वातायनद्वारि चिरं विरेजे । कर्पूरधूलीसुरभि भस्वान्
श्वासायितस्तद्गृह्देवता' हि ॥ भवनोंके वातायनोंपर पहुँचनेपर उनमेंसे निकलते हुए धूम्रके छोटे-छोटे कणोंसे उसकी और ही शोभा हो गयो । वह ऐसा प्रतीत होता था, मानों गृहदेवताकी सुगन्धित श्वास हो । ___ व्यंजनावृत्तिका भी कविने उपयोग किया है । कुब्जकके साथ दुराचार करने के अपराधमें महाराज यशोधर अमृतमतीको मार डालना चाहता था, पर स्त्रीबधको अपयशका कारण मानकर उसने उसे मारा नहीं। प्रातःकाल होनेपर
१. यशोधरचरित, धारवाड़ संस्करण, २२३-२४ । २. वही, २।२५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १०१
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
यशोधरने अमृतमतीको हँसीमें एक पुष्पसे मारा, जिससे वह मूच्छित हो गयी। शीतलोपचारके पश्चात् दयालु राजा कहने लगा
अनेन रन्ध्रेषु रसच्युता ते
कृष्णाननेनाद्य निपीडितायाः । दवन केनापि पर विदग्धे
निवारितः संनिहितोऽपि मृत्युः ।। इस रसीले, पर कृष्णमुख कमलने आज तुम्हें बड़ा कष्ट पहुँचाया । यह वहुत कुशल हुई, जो किसी पूर्वकर्मने तुम्हें आज मृत्युके मुखसे बचा लिया–पास आये हुए मरणको टाल दिया । ___व्यंजनावृत्ति द्वारा रानी अमृतमतीक दुराचारकी बात कह दी गयी है और यह भी व्यक्त कर दिया है कि आज रात्रिमें तुम्हारी मृत्यु इस खड्गसे हो गयी होती, पर किसी शुभोदयने मृत्युसे तुम्हारी रक्षा कर ली है।
चतुर्थसर्गमें वसन्त, पुष्पावचय एवं वनविहारका सरस चित्रण किया है। कविने यहाँ वसन्तश्रीमें मानव-भावनाओंका आरोप कर विभिन्न प्रकारकी संवेदनाओंकी अभिव्यक्ति की है। वनबिहारके समय महारानियोंकी लतासे तुलना की गयी है और उनमें लताके समस्त गुणोंका दर्शन कराया है । यथा
निकामतन्वयः प्रसवः सुगन्धय:
तदा दधानास्तरलप्रवालताम् । इतस्ततो जग्मुरिलापतेः स्त्रियो
लतास्तु न स्थावरतां वित्तत्यजुः ॥ बसन्तविहारके समय राजमििक्षयाँ लताके समान श्रीको धारण कर रही थीं । अन्तर इतना ही था कि लताएं अपने स्थान पर ही स्थित रहती हैं, पर महिषियाँ चंचल हो इधर-उधर लीला-विनोद कर रही थी । लताएँ कोमल और पतली होती हैं, वे महिलाएं भी पतली और क्षीण कटिबाली थीं। लताएँ पुष्पोंसे सुगन्धित रहती हैं, वे भी अनेक प्रकारके पुष्पोंके आभूषण पहने हुई थी, उन पुष्पोंकी गन्धसे सुगन्धित हो रही थी। लताएँ चंचल पत्तोंसे युक्त होती हैं, वे सुन्दरियाँ भी अपनी चंचलतासे युक्त थीं। ___ इस काव्यमें सबसे अधिक महत्त्व संगीतका बताया है। संगीतमें कितनी शक्ति होती है, यह रानी अमृसमसीकी घटनासे सिद्ध है। रानी अमृतमती अष्टभंग १. यशोधरचरित, धारवाड़ संस्करण, २१७१ । २. वही, ४।३।
१०२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामक कुबड़े महावतके मधुर संगीतकी ध्वनिसे आकृष्ट होती है | अष्टभंग कुरूप, अधेड़ एवं वीभत्स आकृत्तिका है, पर उसके कण्ठमें अमृत है । यही कारण है कि अमृतमती उसपर रीझ जाती है और अपने यथार्थ नामके विपरीत विषमतीका आचरण करती है। ___ हिंसा और अहिंसाका महत्त्व अनेक जन्मोंकी कथा निबद्ध कर व्यक्त किया गया है। एकीभावस्तोत्र
इस स्तोत्रमें २६ पद्य हैं । २५ गध मन्दाक्रान्ता छन्दमें हैं और एक स्वागतामें । इस स्तोत्रमें भक्ति-भावनाका महत्व प्रदर्शित किया है। आचार्यने स्तोत्रके आरम्भमें ही कहा है
एकीभाव गत इव मया यः स्वय कर्मबन्धो
घोर दुःख भत-भव-गतो वार: करोति । तस्याप्यस्य त्वयि जिन-रवे भक्तिरुन्मुक्तये चेत्
जेतु शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतुः ॥१॥ हे भगवान् ! आपको भक्ति जब भव-भव में एकत्रित दुःखदायी कर्मबन्धको तोड़ सकती है, तब अन्य शारीरिक संतापका कारण उससे दूर हो जाये, तो इसमें क्या आश्चर्य है।
भगवत्-भक्तिके मनमें रहनेसे समस्त सताप दूर हो जाते हैं । भक्तिद्वारा मानवको आत्म-बोध प्राप्त होता है, जिससे वह चैतन्याभिराम, गुणग्राम, आत्मभिरामको प्राप्त कर लेता है। कवि वादिराजने भगवान्को ज्योतिरूप कहा है। आचार्यको दृष्टिमें आराध्यका स्वरूप सौन्दर्यमय मधुरभावसे भरा हआ है। आशाकी नवीन रश्मियाँ उनके मानस-क्षितिजपर उदित होती हैं, जीवन में एक नवीन उल्लास व्याप्त हो जाता है । भक्तिविभोर होकर तन्मयताकी स्थिति आनेपर समस्त मंगलोंका द्वार खुल जाता है । आचार्य इसी तन्मयताको स्थितिका चित्रण करते हुए कहते हैं
आनन्दाधु-स्नपित-वदनं गद्गदं चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढ-मनाः स्तोत्र-मन्त्रैर्भवन्तम् । तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देह-वल्मीक-मध्यात्
निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधयः कावेयाः ॥३॥ अर्थात्, हे भगवन् ! जो आपमें स्थिरचित्त होता हुआ हर्षाश्रुओंसे विगलित गद्गद् वाणीसे स्तोत्र-मंत्रों द्वारा आपका स्मरण करता है, उसके अनेक प्रकारके
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १०३
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
असाध्य रोग उसी प्रकार देहमेंसे भाग निकलते हैं जिस प्रकार सपेरेकी बीन सुनते ही बामीसे साँप निकल पड़ते हैं ।
भक्त भगवान् की बराबरी करता हुआ कहता है कि जो आप हैं सो मैं हूँ । शक्तिकी अपेक्षा मुझमें और आपमें कोई तात्त्विक अन्तर नहीं है । अन्तर इतना ही है कि भगवन् ! आप शुद्ध है, रत्नत्रयगुण विशिष्ट हैं, जब कि मेरी आत्मा अभी अशुद्ध है । रत्नत्रयगुणका केवल प्रवेश हो हुआ है, पूर्णता तो अभी दूर है | अतः जिस प्रकार दीपकको लोको प्रज्वलित करनेके लिए अन्य दीपककी लौका सहारा आवश्यक होता है, उसी प्रकार भगवन् ! आत्मशुद्धिके हेतु मुझे आपका अवलम्बन लेना है । यथा—
प्रादुर्भूत-स्थिर-पद- सुख त्वामनुध्यायतो मे
स्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा । मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्तिमभ्रं षरूपां
दोषात्पागोऽप्यनियत-फसादादन्ति ॥१७॥
अर्थात्, हे भगवन् ! आपका ध्यान करनेसे मेरे मन में यह भावना उत्पन्न होती है कि जो आप हैं सो मैं हूँ । यद्यपि यह बुद्धि मिथ्या है, क्योंकि आप अविनाशी सुखको प्राप्त हैं और मैं भव-भ्रमणके दुःख उठा रहा हूँ, तो भी मुझे आत्मा के स्वभावका बोधकर अविनाशी सुख प्राप्त करना है, इतने मात्रसे ही सन्तोष होता है । यह सत्य है कि आपके प्रसादसे सदोष आत्माएँ भी इच्छित फलको प्राप्त हो जाती हैं। इस प्रकार आचार्य ने भक्ति भावनाका वैशिष्ट्य दिखलाया है । स्तोत्र सरस और प्रीढ़ है ।
न्यायविनिश्चयविवरण
।
अकलंकदेवने न्यायविनिश्चय नामक तर्कग्रन्थ लिखा है कारिकाएँ हैं और तीन प्रस्ताव हैं। प्रथम प्रस्तावमें १६८ ॥ २१६|| तथा तृतीय प्रस्ताव में ९५ कारिकाएँ हैं । वादिराजने इस ग्रन्थपर अपना विवरण लिखा है, जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इसमें पक्षोंको समृद्ध और प्रामाणिक बनाने के लिए अगणित ग्रन्थोंके प्रमाण उद्धृत किये हैं । इन्होंने अपनी इस टीकाको 'न्यायविनिश्चयविवरण' नाम स्वयं दिया है ।
इस ग्रन्थ में ४८० द्वितीय प्रस्ताव में
प्रणिपत्य स्थिरभक्या गुरून् परानप्युदा बुद्धिगुणान् । न्यायविनिश्चयविवरणमभिरमणीयं मया क्रियते ॥
वादिराज द्वारा लिखित भाष्यका प्रमाण बीस हजार श्लोक है । वादिराजने
२. न्यायविनिश्चयविवरण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रस्तावना उद्धृत पू० ३५ । १०४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूलबातिकपर अपना भाष्य लिखा है। इनके भाष्य में अन्तरश्लोक और संग्रहश्लोक भी सम्मिलित है। इन्होंने वृत्ति या चूणिगत समस्त पयोंका व्याख्यान लिखा है। न्यायविनिश्चर्याववरणको रचना अत्यन्त प्रसन्न और मौलिक शैलीमें हुई है। प्रत्येक विषयको स्वयं आत्मसात् करके ही व्यवस्थित दंगसे युक्तियोंका जाल बिछाया है, जिससे प्रतिवादीको निकलने का अवसर नहीं मिलता। सांख्यके पूर्वपक्ष में (प० २३५: योगभाष्यका उल्लेख 'विन्ध्यवासिनो भाष्य' शब्दसे किया है। मांख्यकारिकाके एक प्राचीन निबन्धसे भोगकी परिभाषा उद्धृत को है। ___ बौद्धमत समीक्षाम धर्मवोतिके प्रमाण बातिक और प्रज्ञाकरके वातिकालंगारकी इतनी गहरी और विस्तृत आलोचना अन्यत्र देग्यने में नहीं आयी। वार्तिकालंकारका तो आधा-सा भाग इसमें आलोचित है। वलर, शान्तिभद्र, अचंट आदि प्रमुख बौद्धदार्शनिकोंकी समीक्षा की है।
सादर्शननी तमलोपा सादर, मुकेश, प्रभाकर, मण्डन, कुमारिल आदिका गम्भीर पर्यालोचन किया गया है। इसी तरह न्याय-वंशेषिक मतमें व्योमशिव, आत्र य, भासर्वज्ञ, विश्वरूप आदि प्राचीन आचार्योंके मत उनके ग्रन्थाले उद्धृत करके आलोचित हुए हैं। उपनिषदोका वेदभस्तक कहकर उल्लेख किया है । इस तरह जितना परपक्ष-समीक्षणका भाग है, वह उन-उन मतोंके प्राचीनतम ग्रन्योंसे लेकर ही पूर्वपक्षक रूपमें उपस्थित्त किया है।
स्वाक्ष-संस्थापनामें समन्तभद्रादि आचार्योंके प्रमाण वाक्योंसे पक्षका समर्थन परिपुष्ट रूपमें किया गया है। कारिकाओंक व्याख्यानमें बादिराजका व्याकरणज्ञान भी प्रस्फुटित हुआ है। कई कारिकाओंके उन्होंने पाँच-पाँच अर्थ तक दिये हैं। दो अर्थ तो साधारणतया अनेक कारिकाओंके दृष्टिगोचर होते हैं । समस्त विवरणमें दो दाई हजार पद्य इनके द्वारा रचे गये हैं। इनकी तर्कणाशक्ति अत्यन्त मौलिक है। इन्होंने न्यायविनिश्चयके प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रचचन इन तीनों परिच्छेदोंपर विवरणको रचना की है। ज्ञान-ज्ञेयतत्व, प्रमाणप्रमेयतत्व आदिका विवेचन इस ग्रन्थमें पाया जाता है और अकलंकदेवने जिन मल विषयोंकी उत्थापना की है, उनका विस्तृत भाष्य इस विवरणमें आया है। तर्क और दर्शनके तत्वोको स्पष्ट रूपमें समझानेका प्रयास किया है। प्रमाणनिर्णय ___ इस लघुकाय ग्रन्थमें प्रमाणनिर्णय, प्रत्यक्षनिर्णय, परोक्षनिर्णय और आगमनिर्णय ये चार प्रकरण है। प्रमाणनिर्णयके अन्तर्गत प्रमाणका स्वरूपनिर्धारण करते हुए सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाण बताया है । इस प्रकरणमें नैयायिक, मीमां
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १०५
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
सक, बौद्ध प्रभुति दार्शनिकोंकी प्रमाणविषयवः मान्यताओंकी समीक्षा की गयी है । बताया है___ सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वाऽन्यथाऽनुपपनेः । इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाणत्वं यत्प्रमितिक्रियां प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम । तच्च तस्य सम्यग्ज्ञानत्वे सत्येव भवति नाऽचेतनत्वे नाऽप्यम्यग्ज्ञानत्वे । ननु च तत्क्रियायामस्त्येवाचेतनस्यापीन्द्रियलिङ्गादे; करणत्वं, नक्षषा प्रमीयते धूमादिना प्रमीयत इति । तत्रापि प्रमितिक्रियाकरणत्वस्य प्रसिद्धेरिति चेत् । __ इस प्रकरणमें व्यवसायात्मक सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाण सिद्ध किया है। इन्द्रिय, आलोक, सन्निकर्ष आदिको प्रमाणताकी समीक्षा की गयी है। ज्ञानकी उत्पत्तिमें अर्थ और आलोकको कारणताका निरसन किया है।
प्रत्यक्षनिर्णय प्रकरणमें स्पष्ट प्रतिभासित होनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है । स्पष्टावभास इन्द्रियज्ञान में संभव नहीं है, अतः इन्द्रियज्ञान परोक्ष है। स्पष्ट प्रतिभास प्रत्यक्षज्ञान में पाया जाता है और वह अतीन्द्रिय होता है | इस सन्दर्भमें सन्निकर्षके प्रत्यक्षत्वका निरसन किया है। चक्षके प्राप्यकारित्वका पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए लिखा है—'चक्षुः सन्निकृष्टमर्थं प्रकाशयति बाह्य न्द्रियत्वात्त्वगादिवत्" अर्थात् चक्षु सन्निकृष्ट अर्थको ही प्रकाशित करती है, बाह्य न्द्रिय होनसे, स्पर्शन प्रिय समान । इस मान द्वारा चक्षुका प्राप्यकारित्व सिद्ध करके उसका निरसन किया है।
इस ग्रन्थमें परोक्षके दो भेद किये हैं-१. अनुमान और २. आगम | अनुमानके गौण और मुख्य भेद करके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्कको गौण अनुमान माना गया है। इस प्रकारकी भेदकल्पना नवीन प्रतीत होती है, अन्य किसी प्रमाणग्रन्थमें ऐसा दिखलायी नहीं पड़ता है। वादिराजने तर्कप्रमाणकी सिद्धि करते हए लिखा है कि व्याप्तिके ज्ञानको तर्क कहते हैं तथा साध्य और साधनके अविनाभावको व्याप्ति । अविनाभाव एक नियम है और यह नियम दो प्रकारसे व्यवस्थित है—१. तथोपपत्ति और २. अन्यथानुपपत्ति । साध्यके होने पर ही साधनका होना तथोपपत्ति और साध्यके न होने पर साधनका न होना ही अन्यथानुपपत्ति-अविनाभाव है। व्याप्तिका ज्ञान अन्य किसी प्रमाणसे सम्भव नहीं है, अत: तर्कप्रमाण मानना आवश्यक है। तकका अनुमानमें अन्तर्भाव सम्भव नहीं है-"तदवच्छेदेनावगतात्तु ततो नानुमानमन्यत्रा
१. प्रमाणनिर्णय, माणिकचन्द दि० जै० ग्रन्थमाला, वि-सं० १९७४, पृ० १-२। २. प्रमाणनिर्णय, पृ० १८ ।
१०६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्यदा तदभावेऽपि तद्भावशकनस्यानिवृत्तः । तस्मात्प्रत्यक्षानुमानाभ्यामन्यत्तयैवायं विकल्पः प्रमाणयितव्यः । ___ चार्वाकके प्रति अनुमानकी प्रमाणता भी सिद्ध की गयी है । अनुमानके अभावमें न तो किसी भी बुद्धिका परिज्ञान होगा और न स्वेष्टसिद्धि तथा परेष्टमें दोषोद्भावन ही सम्भव होगा। भूतचतुष्टयकी सिद्धि भी अनुमानके बिना नहीं हो सकती है । अतएव चार्वाकको भी अनुमान प्रमाण मानना पड़ेगा।
अभावका अन्तर्भाव प्रत्यक्षप्रमाणमें किया है। अनुमानके वैरूप्य और पाञ्चरूप्योंका निरसन करते हुए अबिनाभावको ही हेतु सिद्ध किया है।
आममप्रमाणकी चर्चा करते हए बताया है कि शब्दप्रमाणका अन्तर्भाव अनुमानमें सम्भव नहीं है, क्योंकि दोनोंका विषय भिन्न है। शब्द केवल वक्ताकी इच्छाम ही प्रमाण है, बाह्य अर्थ में प्रमाण नहीं, यह भी कहना असंगत है। यतः शब्दका विषय केवल विवक्षा ही नहीं है। इसी सन्दर्भ में शब्दको पौद्गलिक भी सिद्ध किया है।
यह ग्रन्थ गद्ममें अकलंकदेवके ग्रन्थों का सार लेकर लिखा गया है। ग्रन्थकर्ताने लिखा है
मुख्यसंव्यवहाराभ्यां प्रत्यक्षा यन्निरूपितम । देबस्तस्यात्र संक्षेपान्निर्णयो वणितो मया ॥
पअनन्दि प्रथम पद्मनन्दि प्रथमसे हमारा अभिप्राय जंबूदीव-पण्णत्तिके कर्तासे है। यों तो आचार्य कुन्द कुन्दका भी एक नाम पद्मनन्दि मिलता है, पर इस नामसे उनकी ख्याति नहीं है। अतएव पद्मनन्दि प्रथमको हम जंबूदीवपणत्तिका कर्ता मानते हैं। ___ अभिलेखीय साहित्यसे कई पद्यनन्दियोंके अस्तित्वकी सिद्धि होती है। एक पद्मनन्दि चन्द्रप्रभके शिष्यके रूपमें उल्लिखित हैं। इनका निर्देश डॉ० हीरालालजीने जैन-शिलालेख संग्रह प्रथम भागको प्रस्तावनामें किया है। दूसरे पद्मनन्दि वि० सं० ११६२ में सिद्धान्तदेव व सिद्धान्तचक्रवर्ती मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय, काणूरगण एवं तितिणिकगच्छमें हुए है। तीसरे पद्मनन्दि गोल्लाचार्यके प्रशिष्य और काल्ययोगीके शिष्य हुए हैं। इनका नाम कौमारदेवव्रती था और दूसरा नाम अविद्धकर्ण पद्मनन्दि सैद्धान्तिक था। ये मूलसंघ देशीयगणके १. प्रमाणनिर्णय, पृ० ३६ ।। २. यही, पृ० ३३ । ३. एपिग्राफी कर्नाटिका, भाग ७, अभिलेख सं० २६२ ।
प्रवृद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १०७
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य थे । इनका उल्लेख वि०सं० १२२० के एक अभिलेखमें पाया जाता है। इनके सधर्मी प्रभाचन्द्र थे तथा उनके शिष्य कुलभूषणके शिष्य माघनन्दिका सम्बन्ध कोल्हापुरसे था। __चौथे पद्मनन्दि बे हैं, जो नवकीतिके शिष्य और प्रभाचन्द्र के सहधर्मी थे, जिनका उल्लेख वि० सं० १:३८, १२४२ ६६ के
क माता है। इनकी उपाधि 'मन्त्रवादिवर' पायी जाती है | बहुत सम्भव है कि ये तृतीय और चतुर्थ पद्मनन्दि एक ही हों। तृतीय पद्मनन्दिको भी मन्त्रवादि कहा गया है ।
पंचम पद्मनन्दि वीरनन्दिके प्रशिष्य तथा रामनन्दिके शिष्य थे जिनका उल्लेख १२वीं शतीके एक अभिलेखमें मिलता है।
छठे पद्मनन्दि वे हैं, जिन्होंने अपने गुरु शुभचन्द्रदेवकी स्मृतिम लेख लिखवाया था | शुभचन्द्रदेवका वि०सं० १३७०में स्वर्गवास हुआ था। इनके दो शिष्य थे। इन्हींमें एक पद्मनन्दि थे । __ सातवें पद्मनन्दिका उल्लेख वि०सं० १३६० के एक अभिलेखमें आया है । इसमें बाहबलिमलधारिदेवके शिष्य पद्मनन्दि भट्टारकका निर्देश है, जिन्होंने वि०सं० १३६०में एक जैनमन्दिरका निर्माण कराया था। ___ आठवें पद्मनन्दि वे हैं, जो मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय देशीगण पुस्तकगच्छवर्ती वविद्यदेवके शिष्य पद्मनन्दि थे। इनका स्वर्गवास वि०सं० १३७३में हुआ था । इनका निर्देश श्रवणबेलगोलके अभिलेखसंख्या २६९ में आया है।
नौवें पद्मनन्दि वे हैं, जिनकी वि०सं० १४७१ के देवगढ़के अभिलेखमें प्रभाचन्द्रके शिष्यके रूपमें बड़ी प्रशंसा की गयी है।
जम्बूदीवपण्णत्तिके कर्ता पद्मनन्दि इन सबसे भिन्न हैं । ये अपनेको दीरनन्दिका प्रशिष्य और बलनन्दिका शिष्य बतलाते हैं। इन्होंने विजयगुरुके पास ग्रन्थोंका अध्ययन किया था । ग्रन्थ लिखनेका निमित्त बतलाते हुए निर्दिष्ट किया है कि राग-द्वेषसे रहित श्रुतसागरके पारगामी माघनन्दि आचार्य हुए। उनके शिष्य सिद्धान्त महासमुद्र में कलुषताको धो डालनेवाले गुणवान सकलचन्द्रगुरु हुए। उनके शिष्य निर्मल रत्नत्रयके धारक श्री नन्दिगुरु हुए और उन्हींके १. एपिग्राफी कर्नाटिका, भाग २, अभिलेख सं० ६४ । २. वही, भाग २, अभिलेख सं०६६ । ३. Jainism in South India, Page 280 तथा एपिमाफी कर्नाटिका, भाग ८,
अभि० सं० १४० और २३३ । ४. एपिग्राफी कर्नाटिका-अभिलेख ६५ तथा भूमिका, पृ० ८६ । १०८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
निमित्त ग्रह 'जम्बूदीवपणात लिखी गयीं । गुरम्पराके सन्दर्भमं पद्मनन्दिने अपने सम्बन्ध में बताया है कि त्रिदण्डरहित, ल्यपरिशुद्ध गारवत्र्यसे रहित, सिद्धान्त के पारगामी और तप-नियम-योग से संयुक्त पद्मनन्दि नामक मुनि हुए ।
ग्रन्थ रचना के स्थान और वह कि शासकका नाम निर्देश करते हुए यह बतलाया है कि वारांनगरका स्वामी नरोत्तमशवितभूपाल था, जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध व्रतकर्मको करनेवाला निरन्तर दानशील, जिनशासन वत्सल, वीर, नरपतिसंपूजित और कलाओं में कुशल था । यह नगर धन-धान्य से परिपूर्ण, सम्यदृष्टियों और मुनिजनोंसे मण्डित, जिनभवनोंसे विभूषित, रमणीय पारयात्र देश के अन्तर्गत था । इन्होंने अपनेको 'वरपउमनंदि' कहा है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये पद्मनन्दि पूर्वोक्त सभी पद्मनन्दियोंसे भिन्न हैं ।
'जंबूदीवपत्ति' के अतिरिक्त इनको दो रचनाएँ और मानी जा सकती हैं। एक है प्राकृतपद्यात्मक 'धम्मरसायण' और दूसरी है 'प्राकृतपंचसंग्रहवृत्ति' । श्री पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीने' पञ्चसंग्रहवृत्तिका रचयिता प्रस्तुत पद्मनन्दिको ही माना है । प्राकृतपंचसंग्रहवृत्तिकार पप्पनन्दिने अपना निर्देश करते हुए लिखा है
5
जह जिणवरेहिं कहियं गणहरदेवेहि गथिय सम्मं । आयरियकमेण पुणो जह गंगणइपत्रहुव्य ।। तह उमगंदिमुणिणारइयं भवियाण बोहणठाए । ओघादेसेण य पडणं बंधसामित्तं ॥
पं० हीरालालजीकी मान्यता उचित प्रतीत होती है, क्योंकि 'जंबूदीवपण्णत्त' और 'प्राकृतपंचसंग्रहवृत्ति की उत्थापनाएँ तुल्य हैं । निस्सन्देह पद्म नन्दि प्राकृतभाषा और सिद्धान्तशास्त्र के परगामी हैं । अतः यह वृत्ति गमनन्दि प्रथम द्वारा बिरचित हो, तो कोई आश्चर्य नहीं । अन्य जितने पद्मनन्दि मिलते हैं, वे प्राकृतके विशेषज्ञ प्रतीत्त नहीं होते । अतएव प्रस्तुत पचनन्दिकी तीन रचनाएँ मानी जा सकती हैं - १. जंबूदीवपणत्ति २. धम्मरसायण ३. प्राकृतपंचसंग्रवृत्ति | समय-निर्धारण
'जंबूदीवपणत्ति' के रचयिता पद्मनन्दिका समय क्या है ? इसका निर्णय अन्तरंग प्रमाणोंके आधारपर किया जाना सम्भव नहीं है । हाँ, अभिलेख, इतर आचार्यों द्वारा किये निर्देश एवं अन्य ग्रन्थोंसे विषयके आधारपर समयका निर्धारण किया जा सकता है 1 'जंबूदीवपण्णत्ति' की आमेर शास्त्र भण्डारकी प्रति ज्येष्ठ १-२ पवसंह, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावना से उद्धत, कृ० ३९ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १०९
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुक्ला पनाम cि की है, अत: रचयिताका समय इससे पूर्व होना निश्चित है।
नन्दिसंघको पट्टावलीमें वारांके भट्टारकोंकी गद्दीका उल्लेख आया है, जिसमें वि० सं० ११४४ से वि सं० १२०६ तकके बारह भट्टारकोंके नाम दिये गये हैं। इस भट्टारकपरम्परासे सम्बद्ध पद्मनन्दिको गुरुपरम्परा है । राजपूतानेके इतिहासमें गुहिलोतवंशी राजा भरवाहनके पुत्र शालिवाहनके उत्तराधिकारी शक्तिकुमारका उल्लेख मिलता है, इस ग्रन्थम उल्लिखित यही राजा है। आटपुर (आहाड़) के अभिलेखमें गुरुदत्त (गुहिल) से लेकर शक्तिकुमार तककी पूरी वंशावली दी है । यह अभिलेख वि० सं० १०३४ वैशाख शुक्ल, प्रतिपदाका लिखा हुआ है । अत: 'जंबूदीवपणत्ति'का यही रचनाकाल सम्भव है।
श्री पंडित नाथूरामजी प्रेमीने इस ग्रन्थके रचनास्थल वारांनगरको राजस्थानके कोटा राज्यके अन्तर्गत माना है। और वारांकी भट्टारक गद्दीके आधारपर पद्मनन्दिका समय वि० सं०११०० अर्थात् ई० सन् १०४३ के लगभग सिद्ध किया है।
ज्ञानप्रबोध भाषाग्रन्थमें कून्दकून्दाचार्यकी एक कथा आयी है। उसमें कुन्दकुन्दको इसी वारापुर या बारांके धनी कुन्दश्रेष्ठी व कुन्दलताका पुत्र बतलाया है । कुन्दकुन्दका एक नाम पद्मनन्दि भी है । अवगत होता है कि ज्ञानप्रबोधके कर्ताने भ्रमवश 'जंबूदीवपण्णत्तिके' रचयिता पद्मनन्दिको कुन्दकुन्द समझकर वारांको उनका जन्मस्थान बताया है। शान्ति या शक्तिराजाको नरपतिरांपूज्य लिखा है। और साथ ही उसे 'बारानगरस्य प्रमः' कहा है। इस शान्ति या शक्तिको ही शक्तिकुमार मान लेना उचित प्रतीत है और इस आधारपर पद्मनन्दिका समय ई० सन् ९७७ के आस-पास भाना जा सकता है।
एक अन्य प्रमाण यह भी है कि सुधर्म स्वामीका नाम लोहार्य दिया है । यह लोहार्य अचारांगधारी लोहार्यसे भिन्न हैं। श्रवणबेलगोला बसतिमें भी गौत्तम गणधरके माक्षात् शिष्य लोहार्यको बताया है। यह अभिलेख शक संवत् १२२ ( ई० सन् ६००) है, अत: सूधर्मके स्थानपर लोहार्य के नाम आनेसे भी 'जबूदीवपणत्ति' ई० सन् दशवीं शतीकी रचना है। रचनाओं का परिचय ___ जंबूदीवपण्णत्तिमें २४२९ गाथाएँ हैं और तेरह उद्देश्य हैं । प्रत्येक उद्देश्यको पुष्पिकामें उस उद्देश्यके विषयका निर्देश पाया जाता है। उद्देश्यों के नाम निम्न प्रकार हैं१. जंगसाहित्य और इतिहारा, बम्बई, प्रथम संस्करण, पृ० २५४ । ११० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. उपोद्घातप्रस्तान। २. भरतरावत्तवर्णन 1 ३. पर्वत-नदी-भोगमिवर्णन | ४. महाविदेहाधिकार। ५, मंदरगिरि-जिनभवनवर्णन । ६. देवकुरु-उत्तरकुरु-विन्यासप्रस्ताव । ७, कच्छाबिजयवर्णन । ८. पूर्वविदेहवर्णन । ९, अपरविदेहवर्णन । १०. लवणसमुद्रवर्णन 1 ११. बहिरुपसंहारद्वीप-सागर-नरकगति-देवगति-सिद्धक्षेत्रवर्णम। १२. ज्यारिलोकवान १३. प्रमाणपरिच्छेद ।
प्रथम उद्देश्यमें ७४ गाथाएँ हैं। प्रथम छह गाथाओंमें पञ्चपरमेष्ठीको नमस्कार किया है, तदनन्तर ग्रन्थ रचनेको प्रतिज्ञा की है | पश्चात् तीर्थकर महाबीरको आचार्यपरम्पराका निर्देश करते हुए बताया है कि विपुलाचलपर स्थित्त वर्धमान जिनेन्द्रने प्रमाण-नययुक्त अर्थ गौतम गणधरके लिए कहा । गौतम गणधरने सुधमस्वामी ( लोहाचार्य ) को कहा और उन्होंने जम्बस्वामी को। ये तीनों अनुबद्धकेवली थे। पश्चात् १. नन्दी, २. नन्दिमित्र, ३. अपराजित, ४. गोबर्द्धन और ५. भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए। तदनन्तर १. विशाखाचार्य, २. प्रोष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४. जय, ५. नाग, ६. सिद्धार्थ, ७. धतिषेण, ८. विजय, ९, बुद्धिल्ल, १०. गङ्गदेव और ११. धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य दशपूर्वाक ज्ञाता हुए। तत्पदचात् १ नक्षत्र, २. यशपाल, ३. पाण्डु, ४. ध्रुवषेण और ५. कंसाचार्य ये पाँच ११ अंगोंके धारी हुए । तदुपरान्त १. सुभद्र, २. यशोभद्र, ३. यशोवाहु और ४. लोहाचार्य ये आचाराङ्गके धारक हुए।
इन आचार्योंके निर्देशके पश्चात् पच्चीस कोडाकोड़ी उद्वारपल्यप्रमाण समस्त द्वीप-सागरोंके मध्यमें स्थित जम्बूद्वीपके विस्तार, परिधि और क्षेत्रफलका कथन किया है। उसकी वेदिकाका वर्णन करते हुए बताया है कि उसके विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक चार गोपुरद्वारोंपर क्रमशः उन्हीं नामोंके धारक प्रभावशाली चार देव स्थित हैं। यहाँ इनमेंसे प्रत्येकके बारह हजार योजन प्रमाण सम्बे-चौड़े नगर बतलाये हैं। जम्बुद्वीपमें सात क्षेत्र, एक
प्राचार्ग एवं परम्परापोषवाचार्ग : १११
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन्दर पर्वत, छह कुलपर्वत. दोसौ काश्चमपर्वत, चार यमकपर्वत, चार नाभिगिरि, चौतीस वृषभगिरि, चौतीस विजयार्द्ध, सोलह यक्षार पर्वत और आठ दिग्गज पर्वत स्थित हैं। इन सबके पृथक-पृथक् वेदियाँ और वनसमूह भी है। चौदह लाख छप्पन हजार नब्बे नदियाँ जम्बूद्वीपमें हैं। नदी, तट, पर्वत, उद्यान, बन, दिव्य भवन, शाल्मलिवृक्ष और जम्बूवृक्ष आदिके उपर स्थित जिनप्रतिमाओंको नमस्कार करके जिनेन्द्रसे बोध-याचना की गयी है।
द्वितीय उद्देश्यमें २१० गाथाएँ हैं। क्षेत्रोंका वर्णन करते हुए भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र तथा क्रमशः इनका विभाग करने वाले हिमवान्, गाहारिमा , यि, नील, किम और शिखरी ये पद् कुलाचल स्थित हैं । जम्बू द्वीपके गोलाकार होनेसे इसमें स्थित उन क्षेत्र पर्वतोंमें क्षेत्रसे दूना पर्वत और उससे दुना विस्तृत आगेका क्षेत्र है । यह क्रम उसके मध्य में स्थित विदेह क्षेत्र तक है। इस क्षेत्रसे आगेके पर्वतका विस्तार आधा है और उससे आधा विस्तार आगेके क्षेत्रका है। यह क्रम अन्तिम ऐरायत्त क्षेत्र तक है। इस प्रकार जम्बूद्वीपके खण्ड भरत १ + हिमवान् २ + हैमवत्त ४+ महाहिमवान् ८+ हरिवर्ष १६ + निषध ३२ + विदेह ६४ + नील ३२+ रम्यक १६ + सक्मि ८ + हैरण्यवत ४ + शिखरी २+ऐरावत १ = १९० हो गये हैं । जम्बूद्वीपका विस्तार एक लाख योजन है । गोल क्षेत्रके विभागभूत होनेसे इन क्षेत्र और पर्वतोंका आकार धनुष जैसा हो गया है। यहाँ धनुपृष्ठ, बाहु, जीवा, चूलिका और बाणका प्रमाण निकालनेके लिए करणसूत्र दिये गये है।
विजयाबका वर्णन करते हुए वहाँ उसको दक्षिण श्रेणीमें पचास और उत्तर श्रेणिमें साठ विद्याधर नगरोंका निर्दश करके ४०वी गाथामें उनकी सम्मिलित संख्या २०७ बतलायो है, यह संख्या विचारणीय है । यों तो ५० + ६० = ११० विद्याधर नगर बतलाये गये हैं। यदि इनमें ऐरावत क्षेत्रस्थ विजयाध पर्वतके भी नगरोंको संख्या सम्मिलित करली जाय, तो २२० नगर होने चाहिए। विजया पर्वतके वर्णनप्रसंगमें उसके ऊपर स्थित नौ कूटोंका नामनिर्देश कर उनपर स्थित जिनभवन, देवभवन और उद्यान बनोंका वर्णन किया है । पर्वतके दोनों ओर तिमिस्र और स्वण्डप्रपात नामकी दो गुफाएं हैं। इन्हीं गफाओंके भीतर आकर गंगा और मिन्धु दक्षिणभारतमें प्रविष्ट होतो हैं। तदनन्तर उत्सपिणी और अवसर्पिणी कालके भेदोंका उल्लेख करते हुए बताया है कि समस्त विदेह क्षेत्रों, म्लेच्छरखण्डों और समस्त विद्याधरनगरोंमें सदा चतुर्थ काल विद्यमान रहता है । देवकुरु और उत्तरकुरुमें प्रथम, हैमवत और हैरण्यवतमें तृतीय एवं हरिवर्ष और रम्यक क्षेत्र में द्वितीय काल सदा रहता है । इन कालोंमें उत्सेध, आयु, योजन
११२ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
आदिके नियम भी प्रतिपादित किये गये हैं ।
मानुषोत्तर पर्वतसे आगे स्वयम्भूरमण द्वीपके मध्य में स्थित नगेन्द्र पर्वत तक असंख्यात द्वीपोंमें युगलरूप में उत्पन्न होनेवाले तिर्यञ्च जी रहते हैं । यहाँ पर सदा तीसरा काल विद्यमान रहता है । नगेन्द्र पर्वतसे आगे स्वयम्भूरमणद्वीप एवं स्वयम्भूरमणसमुद्र में दुःषमकाल, देवों में सुपम- सुषम, नारकियोंमें अतिदुःषम तथा तिर्यंचों और मनुष्यों में छहों काल रहनेका उल्लेख किया है ।
तृवीय उद्देश्य २४६ वा है।
|
देश भवान्- शिखरी, महाहिमवान् रुक्मि, और निषेध-नील कुलाचलोंके विस्तार, जीवा, धनुपृष्ठ, पार्श्वभुजा, चूलिकाका प्रमाण बतलाकर उनके ऊपर स्थित कूटोंके नामोंका निर्देश किया है ! इन कूटोंके ऊपर जो भवन स्थित हैं, उनका भी वर्णन किया गया है । तत्पश्चात् कुलाचलोके ऊपर स्थित पद्म और महापद्म आदि सरोवर और उनमें स्थित कमलभवनों पर निवास करनेवाली श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि एवं लक्ष्मी इन छह देवियोंकी विभूतियोंका वर्णन किया गया है। पद्महृदमें स्थित समस्त कमल-भवन १४०११६ हैं | जम्बू और शाल्मलिवृक्षोंके ऊपर स्थित भवन भी इतने ही हैं । इन वृक्षोंके अधिपति देवोंकी चार महिषियोंके भवन १४०१२० बतलाये गये है । यहाँके जिन भवनोंकी संख्या भी गिनायी गयी है । पद्मदके पूर्वाभिमुख तोरणद्वार से गंगा महानदी निकलती है । यह नदी हिमवान् पर्वतके ऊपर पूर्वकी ओर ५०० योजन जाकर पुनः दक्षिणकी ओर मुड़ जाती है । इस प्रकार पर्वतके अन्त तक जाकर वहाँ जो वृषभाकार नाली स्थित है, उसमें प्रविष्ट होती हुई वह पर्वतके नीचे स्थित कुण्डमें गिरती है । यह गोलकुण्ड ६२३ योजन विस्तृत और १० योजन गहरा है। इसके बीचोंबीच एक आठ-योजन विस्तृत द्वीप और उसके भी मध्यमें पर्वत है । पर्वतके ऊपर गंगादेवीका गंगाकूट नामक प्रसाद है । गंगानदीकी धारा उन्नत भवनके शिखर पर स्थित जिनप्रतिमाके ऊपर पड़ती है । यहसि निकलकर वह गंगानदी दक्षिणकी ओर जाकर बिजयाकी गुफा में जाती हुई पूर्व समुद्रमें गिरती है। इस प्रसंग में कुण्ड, कुण्डद्वीप, कुण्डस्थ पर्वत, तदुपरिस्थ भवन और तोरण आदिका विस्तार प्रतिपादित किया गया है । अन्तमें हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक और हैरण्यवत इन चार क्षेत्रोंके मध्य में स्थित नाभिगिरि पर्वतका वर्णन करते हुए इन क्षेत्रोंमें प्रवर्तमान कालोंका पुनः निर्देश करके भोग भूमियोंकी व्यवस्था प्रतिपादित की गयी हैं ।
|
चतुर्थ उद्देश्य में २९२ गाथाएँ हैं । इसमें सुमेरुके वर्णनके साथ लोककी आकृति, उसका विस्तार, ऊँचाई आदिका कथन किया है। लोकके मध्यभागमें स्थित असंख्यात द्वीप समुद्रोंके मध्यमें जम्बूद्वीप है और उसके मध्यमें विदेह क्षेत्र
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ११३
८
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
के अन्तर्गत मन्दर पर्वत है। उसका विस्तार पातालतलमें १००९०१०/११ योजन, पृथिवीतलके ऊपर भद्रशालवनमें १००० योजन और ऊपर शिखर पर -पाण्डुकवनमें एक सहस्र योजन है। यह मूल भागमें एक सहस्र योजन वनमय, मध्यमें ६१००० योजन मणिमय और ऊपर ३८००० योजन सुवर्णमय है। मेरुका भद्रशाल नामका प्रथम वन पूर्व-पश्चिममें २२००० योजन विस्तृत है। इसके माध्यमें १०० योजन विस्तुत, ५० योजन आयत और ७५ योजन उन्नत चार जिनभवन स्थित हैं। इनके द्वारोंकी ऊँचाई ८ योजन, विस्तार ४ योजन और विस्तारके समान प्रवेश भी ४ योजन है। इनकी पीठिकाएं १५ योजन दीर्घ और ८ योजन ऊंची हैं। उनमें स्थित जिनप्रतिमाओंकी ऊँचाई ५०० धनुष है । नन्दीश्वरद्वीपमें स्थित बावन जिनभवनोंकी रचनाका यही क्रम है। नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वनोंमें स्थित जिनभवनोंके विस्तार आदिका वर्णन किया है।
मेरुके ऊपर पृथिवीतलसे ५०० योजन कार जाकर नन्दनवन, ६२५०० योजन ऊपर सौमनस वन और ३६००० योजन ऊपर पाण्डकवन स्थित है । पाण्डक बनके मध्यमें ४० योजन ऊँची वैडूर्यमणिमय चूलिका है। इसका विस्तार मूलमें १२ योजन, मध्यमें आठ योजन और शिखरपर चार योजन है। चलिकाके ऊपर एक बालमात्रके अन्तरसे सौधर्मकलाका प्रथम ऋजुविमान स्थित है। पाण्डुकवनके भीतर पाण्डुकशिला, पाण्डुककम्बला, रक्तबंबला और रक्तशिला, ये चार शिलाएँ पाँचसौ योजन आयत, दोसौ पचास योजन विस्तृत और चार योजन ऊँची स्थित हैं। प्रत्येक शिलाके ऊपर ५०० धनुष आयत, २५० धनुष विस्तृत और ५०० धनुष उन्नत ३-३ पूर्वाभिमुख सिंहासन स्थित हैं। इनमेंसे मध्यका जिनेन्द्रका, दक्षिणपावभागमें स्थित सौधर्म इन्द्रका और वामपाश्वभागमें स्थित सिंहासन ईशानेन्द्रका है। ईशान दिशामें स्थित पाण्डकशिलाके ऊपर भरतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरोंका, आग्नेयकोणमें स्थित पाण्डककम्बलाशिलाके ऊपर अपरविदेहोत्पन्न तीर्थंकरोंका, नैऋत्यकोणमें स्थित रक्तकम्बला शिलाके ऊपर ऐरावतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरोंका और वायव्यकोणमें स्थित रक्सशिलाके ऊपर पूर्वविदेहोल्पन्न तीर्थंकरोंका जन्मामिषेक चतुनिकायके देवों द्वारा किया जाता है। इस उद्देशमें सौधर्म इन्द्रकी सप्तविध सेना और ऐरावत हाथीका भी विस्तृत वर्णन आया है।
पञ्चम उद्देश्यमें १२५ गाथाएँ हैं। यहाँ मन्दरपर्वतस्थ जिनेन्द्र-भवनोंका वर्णन करते हुए बतलाया है कि त्रिभुवनतिलकनामक जिनेन्द्र-भवनकी गंघकुटी ७५ योजन ऊँची, ५० योजन आयत और इसनी ही विस्तृत है। उसके ११४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
द्वार १६ योजन उन्नत, ८ योजन विस्तृत और विस्तारके बराबर प्रवेशसे सहित हैं । मन्दरपर्वतके भद्रशालनामक प्रथम वनमें चारों दिशाओंमें चार जिनभवन हैं, जिनका आयाम १०० योजन, विस्तार ५० योजन, ऊँचाई ७५ योजन और अवगाह आधा योजन है । इन जिनभवनों में पूर्व उत्तर और दक्षिणकी ओर तीन द्वार हैं । इन जिनभवनों में पूर्व - पश्चिममें ८,००० मणिमालाएँ और अन्तरालोंमें २४,००० सुवर्णमालाएँ लटकती हैं । द्वारोंमें कर्पूर आदि सुगंधित द्रव्योंसे संयुक्त २४,००० धूप घट है । सुगन्धित मालाओंके अभिमुख ३२,००० रत्नकलश हैं, बाएं भागमें ४००० मणिमलाएँ. १२,००० स्वर्णमालाएँ १२,००० धूपघट और १६,००० कंचनकलश है ।
जिनभवनों के पीठ सोलह योजनसे कुछ अधिक आयत, आठ योजनसे कुछ अधिक विस्तृत और दो योजन ऊंचे हैं । यहाँको सोपानपंक्तियाँ सोलह योजन लम्बी, आठ योजन चौड़ो, छः योजन ऊंची और दो गव्यूति अवगाहवाली हैं । सोपानोंको संख्या १०८ है । पीठोंकी वेदिकाएँ स्फटिकमणिमय हैं, गर्भगृहभित्तियाँ वैडूर्यमणिमय स्तम्भसे युक्त हैं । इन भवनोंमें अनादिनिधन जिनेन्द्र - प्रतिमाएँ पांचसौ धनुष उन्नत विराजमान हैं। एक-एक जिनभवनमें १०८ १०८ जिनप्रतिमाएँ रहती हैं और प्रत्येक प्रतिभा के साथ एकसी आठ जातिहार्य होते हैं । यहाँ उक्त जिनभवनोंके भीतर सिंहादि चिह्नोंसे सुशोभित दश प्रकारकी ध्वजाए, मुखमण्डप, प्रेक्षागृह, सभागृह, स्तूप, चैत्यवृक्ष और वनवापियाँ आदिका भी चित्रण आया है। इन जिनभवनों में चार प्रकारके देव अपनी-अपनी विभृत्तियाँके साथ आकर अटक दिनोंमें पूजा करते हैं । इन्द्रोंके विमानोंका नाम बतलाते हुए लिखा है कि १. गज, २. वृषभ, ३. सिंह, ४. तुरंग, ५. हंस, ६. वानर, ७. सारस, ८ मयूर, ९. चक्रवाक, १०. पुष्पक विमान, ११. कोयलविमान, १२. गरुड़विमान १३. कमलविमान, १४. नलिनविमान और १५. कुमुदविमान है । इनके हाथमें १. वज्र, २. त्रिशूल, ३. श्रम ४. परशु, ५. मणिदण्ड, ६. पाश, ७. कोदण्ड, ८. कमलकुसुम, ९ पूर्वफलका गुच्छा, १०. गदा, ११. तोमर, १२. हल- मूसल, १३ सितकुसुममाला, १४. चम्पकमाला और १५ मुक्तादाम रहते हैं ।
छठे उद्देश्य में १७८ गाथाएँ हैं । उसमें देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रोंका वर्णन किया गया है। उत्तरकुरुक्षेत्र मेरुपर्वतके उत्तर और नीलपर्वत के दक्षिणमें है । इसके पूर्वमें माल्यवान पर्वत और पश्चिममें गन्धमादन है । उत्तरकुरुके मध्यमें मेरुके उत्तर-पूर्व कोणमें सुदर्शननामक जम्बू-वृक्ष स्थित है । इसकी पूर्वादिक चारों दिशाओंमें चार विस्तृत शाखाएँ हैं । इसकी उत्तरी शाखापर जिनेन्द्र भवन और शेष तीन शाखाओं पर यक्ष-भवन हैं ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोधकाचार्य : ११५
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन्दरपर्वतके दक्षिण पार्श्वभागमें देवकुरु क्षेत्र है। इसके पूवमें सौमनस तथा पश्चिममें विद्युत्भनामक गजदन्त पर्वत स्थित है। यह भी निषधपर्वत के उत्तरमें एक सहस्र योजन जाकर सीतोदा नदीके दोनों तटोंपर चित्र और विचित्र नामके दो यमक पर्वत हैं । इनके आगे ५०० सौ योजन जाकर सीता नदीके मध्य में पांच सरोवर हैं, जिनमें स्थित कमलभवनों पर निषधकुमारी, देवकुरुकुमारी, सुरकुमारी, सुलसा और विद्युत्प्रभाकुमारी देवियाँ निवास करती हैं। प्रत्येक सरोवरके पूर्व-पश्चिम दोनों पार्श्वभागोंमें १०-१० कञ्चन शैल हैं। यहाँ देवकुरु क्षेत्रमें मन्दरपर्वतकी उत्तर दिशामें सीतोदा नदीके पश्चिम तटपर स्वातिनामक शाल्मली वृक्ष स्थित है। इन देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रों में युगलरूपसे उत्पन्न होनेवाले मनुष्य सीन पल्योपम प्रमाण आयुसे संयुक्त और तीन कोस ऊँचे होते हैं। तीन दिनके पश्चात् बेरके बराबर आहार ग्रहण करते हैं । ये मरकर नियमतः देवोंमें ही उत्पन्न होते हैं।
सप्तम उद्देश्यमें १५३ गाथाएँ हैं। इनमें विदेह क्षेत्रका वर्णन किया गया है। यह क्षेत्र निषध और नील कुलपवंतोंके बीच स्थित है। इसका विस्तार तेतीस हजार छ: सौ चौरासी पूर्णांक ४/१९ योजन प्रमाण है। बीच में सुमेरु पर्वत
और उससे संलग्न चार दिग्गज पर्वत हैं। इस कारण यह पूर्वविदेह और अपरविदेहरूप दो भागोंमें विभवत हो गया है। बीचमें सीता, सीतोदा महानदियोंके प्रवाहित होनेके कारण प्रत्येकके और दो-दो भाग हो गये हैं । उक्त चार भागोंमेंसे प्रत्येक भागके मध्यमें चार वक्षारपर्वत और उनके बीचमें तीन विभंगा नदियाँ हैं। इस कारण उनमेंसे प्रत्येकके भी आठ-आठ भाग हो गये हैं। इस तरह ये बत्तीस भाग ही बत्तीस विदेहके रूपमें स्थित हैं!
बीचोंबीच विजयापर्वत स्थित है । यहाँ रक्ता और रक्तोदा नामकी दो नदियां नीलपर्वतस्थ कुण्डोसे निकलकर विजयाईकी गुफाओंके भीतरसे जाती हुई सीता महानदीमें प्रविष्ट होती हैं। इस कारण उक्त कच्छा विदेह छ: खण्डोंमें विभक्त हो गया है। इनमें सीता नदीकी ओर बीचका आर्यस्खण्ड तथा शेष पांच म्लेच्छखण्ड हैं। आर्यखण्डके बीचमें क्षेमा नामकी नगरी स्थित है। इस नगरीका आयाम बारह योजन और विस्तार नौ योजन प्रमाण है। प्राकारवेष्टित उक्त नगरीके एक सहस्र गोपुर द्वार और पंचशत्तक खिड़की द्वार हैं। रय्याओंकी संख्या बारह हजार निर्दिष्ट की गयी है। यहाँ चक्रवर्तीका निवास है, जो बत्तीस हजार देशोंके अधिपतियोंका स्वामी होता है । इसके अधीन ९९ हजार द्रोणमुख, ४८ हजार पट्टण, २६ हजार नगर, पांच-पांच सौ ग्रामोसे संयुक्त चार हजार भडम्ब, चौतीस हजार करवट, सोलह हजार खेट, चौदह हजार संवाह, ५६ रत्नद्वीप और ९६ करोड़ ग्राम होते हैं। यहां क्षत्रिय, वैश्य ११६ : तीयंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
और शूद्र ये तीन ही वर्ण रहते हैं। ६३ शलाकापुरुषोंकी परम्परा यहाँ पायी जाती है । कच्छ विदेहके समान ही महाकच्छा आदि विदेहोंकी भी स्थिति है ।
कच्छा विदेहके रक्ता-रक्तोदा नदियोंसे अन्तरित मागध, बरतनु और प्रभास नामके तीन द्वीप हैं । दिग्विजयमें प्रवृत्त हुआ चक्रवर्ती प्रथम इन द्वीपोके अधिपति देवोंको अपने अधीन करता है। इसी प्रकारसे दक्षिणकी ओरसे देव, विद्याधरोंको वशमें करके वह विजयाई पर्वतकी गुफामेंसे जाकर उत्तरके म्लेच्छ खण्डोंको भी अपने अधीन करता है। युद्धके अनन्तर चक्रवर्ती यहाँसे अश्व, गज, रल एवं कन्याओंको प्राप्त करता है। इस समय उसे यह अभिमान होता है कि मुझ जैसा प्रतापी चक्रवर्ती इस पृथ्वी पर अन्य कोई नहीं हुआ । अतएव इसी अभिमानसे प्रेरित होकर निज कीर्तिस्तम्भको स्थापित करनेके लिए ऋषभगिरिके निकट जाता है ! हाँ समस्न पर्नतोको हरी गाना नाति नारोंसे व्याप्त देखकर, वह तत्क्षण निर्मद हो जाता है। अन्तमें वह दण्डरलसे एक नामको घिसकर उस स्थान पर अपना नाम लिख देता है और छहों खण्डोंको जीतकर क्षेमा नगरीमें वापस लौटता है।
आठवें उद्देशमें १९८ गाथाएं हैं। इसमें पूर्वविदेहका वर्णन आया है और बताया है कि कच्छा देशके पूर्वमें क्रमश: चित्रकूटपर्वत, सुकच्छा देश, ग्रहवती नदी, महाकच्छादेश, पचकूटपर्वत, कच्छकावतीदेश, द्रवतीनदी, आवतीदेश, नलिनकूटपर्वत, मंगलावतोदेश, पंकवतीनदी, पुष्कलादेश, शैलपवंत और महापुष्कलादेश हैं । इसके आगे देवारण्य नामका वन है । उक्त सुकच्छा आदि देशोंकी राजधानियोंके, क्षेमपुरी, अरिष्टनगरी, अरिष्टपुरी, खड्गा, मंजूषा, ओषधि और पुण्डरीकिणी नाम आये हैं। महापुष्कलावती देशके आगे पूर्वमें देवारण्य नामका वन है । इसके आगे दक्षिणमें सीता नदीके तट पर दूसरा देवारण्य वन है। इससे आगे पश्चिम दिशामें वत्सादेश, त्रिकूटपर्वत, सुवत्सा देश, तप्तजला नदी, महावत्सादेश, वेश्रवणकूटपर्वत, वत्सकावतीदेश, मत्तजलानदी, रम्या. देश, अंजनगिरि पर्वत, सुरम्यादेश, उन्मत्तजलानदी, रमणीयादेश, आत्माजनपर्वत और मङ्गलावतीदेश आये हैं। इन देशोंकी सुशीमा, कुण्डला, अपराजिता, प्रभंकरा, अंकावती, पद्मावती, शुभा और रत्नसंचया नामको राजधानियाँ हैं । समस्त देश, नदी और पर्वतोंको लम्बाई १६५५२,२२१९ योजन है ।
नवम उद्देशमें १५७ गायाएं हैं। यहां अपरविदेहका वर्णन करते हुए बतलाया है कि रत्नसंचयपुरके पश्चिममें एक वेदिका और उस वेदिकासे ५०० योजन जाकर सोमनसपर्वत है। यह पर्वत भद्रशालबनके मध्यसे गया है। निषधपर्वतके समीपमें इसकी ऊंचाई ४०० योजन और अवगाह १०० योजन
प्रमुखाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ११५
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
I
i
1
है । विस्तार इसका ५०० योजन है । वेदिकाके पश्चिममें पद्मा नामका देश है । यह गंगा-सिन्धु नदियों और विजयाधं पर्वतोंके कारण छह खण्डों में विभक्त हो गया। इसकी राजधानी अश्वपुरी है। पद्मा क्षेत्रके आगे पश्चिममें क्रमश: श्रद्धाबतीपर्वत, सुपधादेश, धीरोदानदी, मह्पचादेश, विकटावतीपर्वत, पद्मकावतीदेश, सीतोदानदी, संखादेश, आशीविषपर्वत, नलिनादेश, स्रोतवा हिनीनदी कुमुदादेश सुखावलार्वन और सरिता नामक देश है । इन देशोंकी सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका और विगतशोका राजधानियाँ है । पश्चिममें देवारण्य नामक वन है । इसके उत्तरमें शीतोदा नदीके उत्तर तटपर भी दूसरा देवारण्य है । इसके पूर्व में वप्रादेश, चन्द्रपर्वत, सुवप्रादेश, गम्भीरमालिनीनदी, महावप्रादेश, सूर्यपर्वत, वप्रकावतीदेश, फेनमालिनीनदी, बल्गदेश महानागपर्वत, सुवलगुदेश, उर्मिमालिनीनदो, गन्धिलादेश, देवपर्वत और गन्यमालिनीदेश स्थित हैं । इन देशोंकी विजयपुरी, वैजयन्ती, जयन्ता, अपराजिता, चक्रपुरी, खड़गपुरी, अयुध्या और अवध्या राजधानियाँ हैं। इसके पूर्व में एक वेदी और उसके आगे ५०० योजन जाकर गन्धमादनपर्वत है । इसके पूर्व में ५३००० हजार योजन जाकर माल्यवान पर्वत है । इसके आगे पूर्वमें ५०० योजन जाकर नीलपर्वतके पासमें एक और वेदिका है । नदियोंके किनारे पर स्थित २० वक्षार पर्वत हैं, जिनके उपर जिनभवन बने है ।
दशम उद्देशमें १०२ गाथाएँ हैं और लवण समुद्रका वर्णन आया है। यह समुद्र जम्बू द्वीपको सब ओरसे घेरकर वलयाकार स्थित है। इसका विस्तार पृथ्वीतलपर दो लाख योजन और मध्यमें दश सहस्र योजन है। गहराई एक हजार योजन है । इसके भीतर तटसे ९५ हजार योजन जाकर पूर्व पश्चिम, दक्षिण और उत्तरमें क्रमशः पाताल, वलयमुख, कदम्बक और यूपकेशरी महापाताल स्थित है । इनका विस्तार मूलमें और ऊपर दश सहस्र योजन है । इनके मध्य विस्तार और ऊँचाई एक लाख प्रमाण योजन है। शुक्लपक्ष और कृष्ण पक्षमें समुद्र की जलवृद्धि और ह्रासका भी वर्णन आया है। दिशा और विदिशागत समस्त पातालोंकी संख्या १००८ है । लवणसमुद्रमें वेदिकासे बयालीस हजार योजन जाकर बेलन्धर देवोंके कोस्तुभ, कौस्तुभभास, उदक, उदकभास, शंख, महाशंख, उदक और उदवास आठ पर्वत हैं । समुद्रकी बेलाको धारण करनेवाले नागकुमार देवोंकी संख्या एक लाख बयालीस हजार है । इनमें बहत्तर हजार देव बाह्यबेलाको बयालीस हजार देव आभ्यन्तर बेलाको और २८ हजार देव जलशिखाको धारण करते हैं । इन देवोंके नगरोंकी संख्या भी एक लाख बयालीस हजार है । यहाँ अन्तरद्वीप २४ हैं । इन द्वीपोंमें एक जंघावाले,
११८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूछवालं, सोंगवाले एवं गूंगे इत्यादि बिकृत आकृतिके धारक कुमानुष रहते हैं। इनमें एक अंधाबाले कुमानुष गुफाओंमें रहकर मिट्टीका भोजन करते हैं तथा शेष कुमानु" " फलभोली ड्रोने हैं। इसके त उत्पन्न होनेके कारणोंको बतलाते हुए कहा गया है कि जो प्राणी मन्दकषायी होते हैं, काय-क्लेषसे धर्मफलको चाहने वाले हैं, अज्ञानवश पञ्चाग्नितप करते हैं, सम्यग्दर्शनसे रहित होकर तपश्चरण करते हैं, अभिमानमें चूर होकर साधुओंका अपमान करते हैं, आलोचना नहीं करते, मुनिसंघको छोड़कर एकाकी विहार करते हैं, कलह करते हैं, वे मरकर कुमानुषोंमें उत्पन्न होते हैं।
एकादश उद्देशमें ३६५ गाथाएं हैं। इस उद्देशमें द्वीपसागर, अधोलोक तथा उध्वंलोकका वर्णन आया है। द्वीपसागरोंमें धातकीखण्डद्वीपका वर्णन करते हुए उसका चार लाख योजन प्रमाण विस्तार बतलाया है। इसके दक्षिण और उत्तर भागोंमें दो इष्वाकार पर्वत है, जो लवणसे कालोद समुद्र तक आयत हैं। धातकोखण्डद्वीपके दो विभाग हैं। प्रत्येक विभागमें जम्बूद्वीपके समान, भरतादि सात क्षेत्र और हिमवान् आदि छह कुलपर्वत स्थित हैं। मध्यमें एकएक मेरुपर्वत है। इनमें हिमवनपर्वतका विस्तार २१०५,५/१२ योजन है, महाहिमवनका ८४२१,१११९ योजन और निषषपर्वतका ३३६८४,४/१२ योजन है। आगे नील, रुक्मि और शिखरी पर्वतोंका विस्तार क्रमशः निषध, महाहिमवान और हिमवानके समान है।
घातकीखण्डद्वीपको चारों ओरसे वेष्टित कर कालोदधि स्थित है । इसका विस्तार आठ लाख योजन है। लवण समुद्र के समान अन्तरद्वीप यहाँ भी हैं, जिनमें कूमानुष रहते हैं। इससे आगे १६ हजार योजन विस्तृत पुष्करवरद्वीप है । इसके मध्यमें वलयाकारसे मानुषोत्तरपर्वत स्थित है, जिससे कि इस दीपके दो भाग हो गये हैं। मानुषोत्तर पर्वतके इस ओर पुष्कराचंद्वीपमें स्थित भरतादि क्षेत्रों और हिमवान् आदि पर्वतोंकी रचना घातकीखण्डद्वीपके समान है। यह पर्वतरूद्ध क्षेत्रका प्रमाण ३५५६८४,४/१९ योजन है। पुष्करार्धकी आदिम परिधि ५१७०६०५ योजन, मध्य प्ररिधि ११७००४२७ योजन और बाह्य परिधि १४२३०२४९ योजन है।
जम्बूद्वीपसे लेकर पुष्करापर्यन्त क्षेत्र ढाईद्वीप या मनुष्यक्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध है । भानुषोत्तरपवंतसे आगे मनुष्य नहीं पाये जाते । पुष्कवरद्वीपसे आगे पुष्करवरसमुद्र, वारुणिवरद्वीप, वारुणिवरसमुद्र, क्षीरवरद्वीप, क्षीरवरसमुद्र, धृतवरद्वीप और धृतवरसमुद्र आदि असंख्यात द्वीप और समुद्र स्थित हैं । अन्तिम द्वीप और समुद्रका नाम स्वम्भूरमण है । पुष्करखर और स्वम्भूवर द्वीपोंके मध्यमें
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ११९
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
जो असंख्यात द्वीप, समुद्र स्थित हैं, उनमें केवल संजी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त तियंञ्च जीव हो उत्पन्न होते हैं । इनकी आयु एक पल्य और शरीरकी ऊंचाई दो हजार धनुषप्रमाण होती है। युगलस्वरूपसे उत्पन्न होनेवाले ये सब मन्दकषायी और फलभोजी होते हैं तथा मरकर नियमत: देवलोक जाते हैं। लवणोद, कालोद और स्वम्भरमण इन तीन समुद्रोंमें ही मगर, मत्स्यादि जलचर जीव पाये जाते है। शेष समुद्रोंमें जलचर जीव नहीं होते । आगे सात नरकों और उनके निवासियोंकी आयु शरीरोत्षेध, अवधिज्ञानका विषय आदि बातोंका वर्णन आया है। समस्त नारकियोंके बिलोंकी संख्या एवं ४१. प्रस्तारोंका उल्लेख पाया जाता है। उर्ध्वलोकका वर्णन करते हुए बतलाया है कि पृथ्वीतलसे ९९ हजार योजन ऊपर जाकर मेरुपर्वतकी चूलिकाके ऊपर बालाग्रमात्रके अन्तरसे ऋजु विमान स्थित है। इसका विस्तार मनुष्यलोकके समान ४५ लाख योजनमात्र है। स्वर्गोमें इन्द्रक, प्रकीर्णक और श्रेणीबद्ध विमान स्थित हैं, जिनका विस्तारादि भी निकाला गया है। इस प्रकार सौधर्म इन्द्रकी विभूति एवं सोधर्मस्वर्गके आकार-प्रकारादिका विवेचना किया है । इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और नीर्णक विदाकी संया लागलन भी किया गया है।
द्वादश उद्देशमें ११३ गाथाएं हैं। यहाँ ज्योतिषपटलका वर्णन किया गया है । भूमिसे आठसौ अस्सी योजनकी ऊंचाईपर चन्द्रमाका विमान है। चन्द्रविमानका विस्तार और आयाम तीन गव्यति और तेरहसो धनुषसे कुछ अधिक है। इन विमानोंको प्रतिदिन सोलह हजार आभियोग्य जातिके देव खीचते हैं। उक्त देव पूर्वादिक दिशाओं में क्रमशः सिंह, मज, वृषभ और अश्वके आकारमें चार-चार हजार रहते हैं। इसी प्रकार सोलह हजार आभियोग्यदेव सूर्यविमानके, आठ हजार ग्रहगणोंके, चार हजार नक्षत्रोंके और दो हजार ताराओंके वाहक हैं। जम्बूद्वीपमें २, लवणसमुद्र में ४, घातकोखण्डमें १२, कालोदधिमें ४२, और पुष्कराचंद्वीपमें ७२ चन्द्र हैं। मानुषोत्तरपर्वतके आगे पुष्करद्वीपमें १२६४ चन्द्र हैं। इतने ही सूर्य हैं। शेष द्वीपों और समद्रोंमें चन्द्रबिम्ब और सूर्यबिम्बोंकी संख्या निकालनेके लिए कर्णसूत्र दिये गये हैं। इस प्रकार ज्योतिषपटलअधिकारमें सूर्य, चन्द्र और ग्रह-नक्षत्रोंकी संख्याका आनयन किया है।
त्रयोदश उद्देशमें १७६ गाथाएँ हैं। सर्वप्रथम यहाँ कालके व्यवहार और परमार्थ रूपसे उल्लेख करते समय, आवलि आदिके प्रमाणका आनयन किया है । आगे चलकर परमाणुका स्वरूप बतलाते हुए उत्तरोत्तर अष्टगुणित अवसनासन्नादिके क्रमसे उत्पन्न होनेवाले अंगुलके उत्सेषांगुल, प्रमाणाङ्गल बौर आत्माअल ये तीन भेद बतलाये हैं। इनमेंसे प्रत्येक सूच्यङ्गल, प्रतराङ्गल और घनाङ्गलके मेदसे तीन-तीन प्रकारका है। ५०० उत्सेधाङ्गलोंका एक प्रमाणाङ्गुल होता १२० : तोयंकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। परमाणु और अवसनासन्नादिके क्रमसे जो अङ्गुल निष्पन्न होता है, वह सूच्यङ्गल कहलाता है। इसके प्रतरको प्रतराङ्गल और धनको घनागल कहते हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों में जिस-जिस कालमें जो मनुष्य होते हैं, उनके अङ्गुलको आत्माङ्गुल कहा जाता है। उत्सेधाङ्गलसे नर-नारकादि जीवोंके शरीर को ऊँचाईका प्रमाण बतलाया जाता है । प्रमाणाङ्गलसे द्वीप, समुद्र, नदी, कुण्ड, क्षेत्र, पर्वत, जिनभवनानि विस्तारः : ससाना है और आत्माङ्गुलसे कलश, झारी, दण्ड, धनुष, वाण, हल, मूसल, रथ, सिंहासन, छत्र, चमर और गृह आदिका प्रमाण ज्ञात किया जाता है।
इसके पश्चात् व्यवहारपल्य, उद्धारपल्य, अद्धापल्य, कोड़ा-कोड़ी, उसर्पिणी, अवपिणी आदिका मान बतलाया गया है। अनन्तर सर्वज्ञसिद्धिके लिए प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और अविरुद्ध आगम प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं। प्रग्याणके दो भेद हैं. प्रत्यक्ष और परोक्ष । इनमें प्रत्यक्ष भी सकल और चिकलके भेदस दो प्रकारका है। सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञान और विषालप्रत्यक्ष अवधि और मन:पर्ययज्ञान हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद अवधिज्ञानके, तथा ऋजुमतिमनःपर्यय और विपुलमतिमनःपर्यय ये दो भेद मनःपर्ययज्ञानके हैं। परोक्ष-भेदोंके अन्तर्गत आभिनिबोधिक ज्ञानके ३३६ भेदोंका निर्देश करते हुए अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाका स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । पश्चात् क्षुधा, तृषादिसे रहित देवका वर्णन करते हुए अरहन्त परमेष्ठीके ३४ अतिशयों, देवरिगृहीत आठ मङ्गलद्रव्यों, आठ प्रतिहार्यों और नव केबललब्धियोंका नामोल्लेख करके १८ हजार शोलों और ८४ हजार गुणोंका भी निर्देश किया है। इस प्रकार इस ग्रन्थमें मनुष्यक्षेत्र, मध्यलोक, पाताललोक और उध्वंलोकका विस्तारसे वर्णन आया है। जैन भूगोलकी दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। धम्मरसायण ____ इस ग्रन्थमें १२३ गाथाएँ हैं। धर्मरसायननामके मुक्तक-काव्य प्राकृत-भाषाके कवियोंने एकाध और भी लिखे हैं। इस नामका आशय यही रहा है कि जिन मुक्तकोंमें संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होनेके आचार और नैतिक नियमोंको चचित किया जाता है, इस प्रकारकी रचनाएँ धर्मरसायनके अन्तर्गत आती हैं। प्रस्तुत ग्रन्थका भी मूल वय-विषय यही है। यद्यपि इस ग्रन्थमें काव्यतत्वको अपेक्षा धर्मतत्व ही मुखरित हो रहा है, तो भी जीवनके शाश्वतिक नियमोंकी दृष्टिसे इसका पर्याप्त मूल्य है। नैतिक और धार्मिक जीवनके सभी १. सिद्धान्तसारादिके अन्तर्गत, मा० दि० जन ग्रन्धमालासे १९०९ ई० में प्रकाशित ।
प्रमुखाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १२१
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुल्य इस लघुकाय ग्रन्थमें प्रतिपादित हैं। आचार्य धर्मको त्रिलोकका बन्ध बतलाते हुए कहते हैं कि इसकी सत्तासे ही व्यक्ति पूजनीय, त्रिभुवनप्रसिद्ध एवं मान्य होता है___ आरम्भमें ही आचार्यने जन्म-मरण और दुःखको नाश करनेवाले इहलोक, परलोकके हितार्थ धर्मरसायनके कहनेकी प्रतिज्ञा की है। धर्म त्रिलोकबन्धु है, धर्म शरण है। धमसे ही मनुष्य त्रिलोकमें पूज्य होता है। धर्मसे कुलकी वृद्धि होती है, धर्मसे दिव्यरूप और आरोग्यत्ता प्राप्त होती है। धर्मसे सुख होता है और धर्मसे ही संसारमें कीर्ति प्राप्त होती है। आचार्य ने बताया है
धम्मो तिलोयबंधू धम्मो सरण हवे तिहुयणस्स। घम्मेण पुषणोओ होइ णरो सब्बलोयस्स ॥ धम्मेण कुलं विउलं धम्मेण य दिब्बरूवमारोग्ग । धम्मेण जए कित्ती धम्मेण होइ सोहगां ।। वरभवणजाणवाहणसयणासणयाणभोयणाणं च ।
वरजुवइवत्थुभूसण संपती होइ धम्मेण ॥ अर्थात् धर्मके प्रभावसे धन-वैभव, भवन-चाहन, शय्या, बासन, भोजन, सुन्दर पत्नी, वस्त्राभूषण आदि समस्त लौकिक सुख-साधनोंकी प्राप्ति होती है। इस घमरसायनको सामान्यतया उपादेय वणित करनेपर भी रस-भेदसे उसको भिन्नता उपमाद्वारा सिद्ध होती है । यथा
खीराई जहा लोए सरिसाई हति वाणामेण । रसभेएण य ताई वि णाणागुणदोसजुत्ताइ ।। काई वि खीराइं जए हवंति दुक्खावहाणि जीवाणं ।
काई वि तुठ्ठि पुछि करति वरवण्णमारोग्ग । जिस प्रकार वर्णमात्रसे सभी दूध समान होते हैं, पर स्वाद और गुणको दृष्टिसे भिन्नता होती है, उसी प्रकार सभी धर्म समान होते हैं, पर उनके फल भिन्न-भिन्न होते हैं। आक-मदार या अन्य प्रकारके दूधके सेवनसे व्याधि उत्पन्न हो जाती है, पर गोदुग्धके सेवनसे आरोग्य और पुष्टि-लाभ होता है। इसी प्रकार अहिंसाधर्मके आचरणसे शांतिलाभ होता है, पर हिंसाके व्यवहारसे अशान्ति और कष्ट प्राप्त होता है ।
आचार्यने चारों गतियोंके प्राणियोंको प्राप्त होनेवाले दुःखोंका मार्मिक विवेचन किया है। मनुष्य, तिर्यञ्च, नारकी और देव इनको अपनी-अपनी १. धम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थगला, पध ३,४,५ २. वही, पद्य-९, १० १२२ : तीर्थंकर महावीर और उनको श्रापार्यपरम्परा
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
योनियोंमें पर्याप्त कष्ट होता है । जो इन कष्टोंसे मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, वह धर्मरसायनका सेवन करे। आचार्यने इसमें वीतराग और सरागी देवोंकी भी परीक्षा की है, तथा बतलाया है कि जिसे अपने हृदयको राग-द्वेषसे मुक्त करना है, उसे वीतरागताका आचरण करना चाहिए। विषय-वासनाग्रस्त सांसारिक प्रपञ्चोंसे युक्त, स्त्रीके अधीन, रागी, द्वेषी परमात्मा नहीं हो सकता है | आचार्य ने इस परमात्म-तत्वका विवेचन करते हुए लिखा हैकामग्गतत्तचित्तो इच्छयभाणी तिलोवणास्य । जो रिच्छी भत्तारो जादो सो कि होइ परमप्पो ॥ जइ एरिसो विमूढो परमप्पा वृच्चए एवं तो खरघोड़ाईया सव्वं चि य होंति परमप्पा' ॥
सच्चा देव क्षुधा, तृषा, तृष्णा, व्याधि, वेदना, चिन्ता, भय, शोक, पीड़ा, राग, मोह, जन्म-जरा-मरण, निद्रा, स्वेद आदि दोषोंसे रहित होता है । सिंहासन, छत्र, दिव्यध्वनि, पुष्पवृष्टि, नमर, भामण्डल, दुन्दुभि आदि बाह्य चिह्नोंसे युक्त, सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी देव होता है । ९४वीं गाथासे १३८वीं गाथा तक सर्वज्ञदेवकी परीक्षा की गयी है और विभिन्न तर्कोंसे अर्हन्तको सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है। धर्मके दो भेद हैं---सागार और अनगार | इन दोनों धर्मोंका मूल सम्यक्त्व है । इस सम्यक्त्वकी प्राप्ति जिसे हो जाती है, उसके कर्म-कलङ्क नष्ट होने लगते है । सम्यक्त्वरूपी रत्न के लाभसे नरक और तिर्यञ्च गति में जन्म नहीं होता । श्रावकाचारके १२ भेद बतलाए हैं - पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । इस प्रकार १२ व्रतोंका कथन आया है । देवता, पितृ, मन्त्र, औषधि, यन्त्र आदिके निमित्तसे जीवोंकी हिंसा न करना अहिंसाणुव्रत है । असत्य वचनोंके साथ दूसरेको कष्ट देनेवाले वचन भी असत्यको ही अन्तर्गत है, अतः ऐसे वचनोंके व्यवहारका त्याग करना सत्याणुव्रत है । संसारको समस्त स्त्रियोंकी माता, बहिन और पुत्रियोंके समान समझकर स्वदार सेवनमें सन्तोष करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। धन-धान्य, द्विपद, चतुष्पद, खेत आदि वस्तुओंका नियत परिमाण कर शेषका परित्याग करना परिग्रहपरिमाणव्रत है। इस प्रकार गुणयत और शिक्षाव्रतों का भी वर्णन किया है ।
आचार्यने दान देने पर विशेष जोर दिया है । दान के प्रभावसे सभी प्रकार के दुःख-दारिद्र्य नष्ट हो जाते हैं और अणिमा, महिमा आदि अष्ट ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं ।
१. घम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पद्य - १०४, १०५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १२३
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
देवगतिमें जन्म लेनेवाला व्यक्ति यथेष्ट भोगोंको भोगनेके अनन्तर मनुष्यतिमें जन्म लेता है और वहाँ दिगम्बर दीक्षा धारणकर तपश्चर्या द्वारा कर्मोको नष्ट करता है। मुनिको ग्रीष्म और शीत ऋतुमें किस प्रकार विचरण करना चाहिए, इसका भी वर्णन आया है । आचार्यने लिखा है
डहिऊण य कम्मवणं उगोण तवाणलंण णिस्सेसं ।
आपुण्णभवं अणंतं सिद्धिसुहं पावए जोओ ॥ इस ग्रन्थकी १९१वी गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डकी ६८वी गाथा है। बहुत सम्भव है कि यह गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डसे अथवा ऐसे किसो अन्य स्रोतसे ली गयी है, जो दो दोनोंका एक ही आधार रहा हो। प्राकृत पञ्चसंग्रहवृत्ति
प्राकृतवृत्ति सहित पञ्चसंग्रहमें १. जीवसमास २. प्रकृतिसमुत्कीर्तन ३. बन्धस्तव, ४. शतक और ५ सप्तत्तिका ये पाँच प्रकरण संग्रहीत हैं। प्रकरणोंके क्रममें अन्तर है। पहला प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन, द्वितीय कर्मस्तवन, तृतीय जोवसमास, चतुर्थ शतक और पंचम सप्ततिका है। बंध्य, बन्धेश, बन्धक, बन्धकारण और बन्धभेद इन पांचोंके अनुसार संकलन कर व्याख्या की गयी है। व्याख्याकी शैली चणियोंकी शैली है। वत्तिकारने अपनी रचनामें 'कसायपाहड'की चणि और धवलाटीकाको शैलीका पुरा अनुकरण किया है। इनकी वृत्तिको देखनेसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि वृत्तिकार सिद्धान्तशास्त्रके अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने अनेक नयी परिभाषाएँ अंकित की है। यद्यपि सभी गाथाओंपर वृत्ति नहीं लिखी है, पर जिन गाथाओं पर वृत्ति लिखी गयी है, उन गाथाओंमें अनेक नयी बातें बतलायी गयी है। इसका पहला प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन है । इसमें प्रकृतियोंके नामोंका समुकीर्तन करनेके अनन्तर चौदह मार्गणाओंमें कर्मप्रकृतियोंके बंधका कथन आया है। आचार्यने सभी विषयमें प्रमाण, नय और निक्षेपद्वारा वस्तुके परीक्षणको चर्चा की है। प्रथम प्रकरण श्रुतवृक्ष नामका है, जिसमें श्रुतज्ञानके समस्त भेद-प्रभेदोंका वर्णन आया है। लिखा है
प्रमाण-नयनिक्षेपर्योऽयों नाभिसमीक्ष्यते ।
युक्तञ्चायुक्तपद् भाति तस्यायुक्तं सयुक्तिवत् ॥ १. धम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, गाथा १८१ । २. प्राकृतवृत्तिसहित पञ्चसंग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ काशीके पंचसंग्रहमें प्रकाशित, पद ५,
पृ० ५४१ ।
१२४ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानको प्रमाण माना है और नयको वस्तुके एक अंशका बोधक बनाया हैज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते । नयों ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽथंपरिग्रहः ॥
ग्यारह अंग और चौदह पूर्वको विषयवस्तुका विस्तारसे वर्णन आया है । प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्त्तनमें १६ गाथाएँ हैं और प्राकृत में वृत्ति लिखी गयी है ।
कर्मस्तव संग्रह में ८८ + ९ गाथाएं हैं। इस प्रकरणमें गुणस्थानक्रमानुसार व्युच्छितिका कयन आया है । सान्तर निरन्तर सादि-अनादि आदि प्रकृतियोंके कथन के पश्चात् बन्धव्युच्छ्रुति सम्बन्धी ९ गाथाओंकी वृति भी लिखी है । प्रारम्भकी ८८ गाथाओंपर कोई वृत्ति नहीं है ।
तृतीय प्रकरण जीवसमास नामका है। इसमें १७६ गाथाएँ हैं । आरम्भकी ५ गाथाओं पर वृत्ति है और शेष गाथाओंपर वृत्ति नहीं लिखी गयी है । पुद्गल द्रव्यके छः भेद-काल-द्रव्य, बीस प्ररूपणा, गुणस्थानका लक्षण, १४ गुणवेद स्थानोंके नाम, गुणस्थानोंके स्वरूप, जीवोंकी गतियाँ, काय, ज्ञान, प्राण, आदि सभी जीवसमासोंके लक्षण भी बतलाये गये है । लेश्याका स्वरूप, भेद एवं प्रत्येक लेश्यावालेकी प्रवृत्ति और परिणतिका भी वर्णन आया है। ज्ञानमार्गणा ज्ञानके भेदोंका विवेचन किया है ।
शतकसंग्रह नामक चतुथं प्रकरण है । इस प्रकरणमें १३९ + १९ गाथाएँ हैं और सभी गाथाओंोंपर वृत्ति भी लिखी गयी है । इसमें एकेन्द्रिय आदि जीवोके भेद या जीवसमास वर्णित हैं । गुणस्थानोंमें जीवोंकी संख्याका प्रतिपादन करनेके अनन्तर प्रत्येक गतिमें बन्ध होनेवाली प्रकृतियोंका विवेचन किया गया है ।
पञ्चम सप्ततिका नामक प्रकरण है। इसमें ९९ गाथाएँ हैं । इस प्रकरणमें विभिन्न बन्धभेदोंका वर्णन किया है। योग, उपयोग, लक्ष्या आदिकी अपेक्षा कर्मबन्धके भेदों या भंगोंका वर्णन किया है । इस प्रकार यह 'पंचसंग्रह ' ग्रन्थ कर्मशास्त्रको दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है ।
पद्मनन्दि द्वितीय
पद्मनन्दि द्वितीय पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिकाके रचयिता हैं । इन्होंने अपने गुरु वीरनन्दिको नमस्कार किया है। अतः 'जंबदीयपण्णत्त' के कर्तासि ये भिन्न हैं, क्योंकि जंबूदीवपणत्तिके कर्ताक गुरुका नाम वलनन्दि और प्रगुरुका नाम वीर१. पंचसंग्रहवृत्ति, पद्य ६, पृ० ५४२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १२५
.
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
नन्दि है । अतएव इन दोनोंका ऐक्य संभव नहीं है। पर यह निश्चित है कि ये पद्मन
को सही परमात् हुए हैं, क्योंकि अमतचन्द्राचार्यका प्रभाव 'निश्चयपञ्चाशत् प्रकरणकी अनेक गाथाओंपर दिखलाई पड़ता है । अतः इनकी पूर्वावधि ई० सन् दशम शतीका पूर्वार्ध होना चाहिये । जयसेनाचार्यने अपनी पंचास्तिकायटीकामें एकत्वसप्ततिप्रकरणका निम्नलिखित पद्य पृ० २३५ पर उद्धत किया है
दर्शनं निश्चयः स बोधस्तद्बोध इष्यते ।
स्थितिरत्रव चरितमिति योगः शिवाश्रयः ।। पद्मप्रभमलधारिदेवने भी यही पद्य नियमसारकी टीका पृ०४७ पर उद्धत किया है। अतः यह स्पष्ट है कि पञ्चविंशतिकाके कर्ता पनन्दि जयसेनाचार्य
और नियमसारटीकाके कर्ता पद्मप्रभमलधारिदेवके पूर्ववर्ती हैं । जयसेनाचार्यका समय डॉ० ए० एन० उपाध्येके मतानुसार ई. सन्की १२वीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध है । अत: यह पद्मनन्दिके समयकी उत्तर सीमा मानी जा सकती है।
पद्मप्रभमलधारीने भी नियमसारटीकाके आरम्भमें अपने गुरु वीरनन्दिको नमस्कार किया है। श्री प्रेमीजीने इस परसे अनुमान लगाया है कि परप्रभ और पद्मनन्दि एक ही गरुके शिष्य रहे होंगे तथा एक अभिलेखके आधार पर पचप्रभ और उनके गुरु वीरनन्दिको विन्सं० १२४२में विद्यमान बतलाया है। पर पद्मप्रभसे पूर्व जयसेनाचार्यने पद्मनन्दिकी एकत्वसप्ततीसे पद्य उद्धृत किया है और पद्मप्रभने जयसेनकी टीकाओंका अवलोकन किया था। यह उनकी टीकाओंके अध्ययनसे स्पष्ट है। अत: पअनन्दि और पद्मप्रभके मध्यमें जयसेनाचार्य हुए हैं, यह निश्चित है।
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकाकी प्रस्तावनामें बताया गया है कि पद्मनन्दिपर गुणभद्राचार्यके आत्मानुशासनका प्रभाव है। तुलनाके लिए एक पद्य दिया जाता है, जिसमें आचार्य गुणभद्रने मनुष्यपर्यायका स्वरूप दिखलाते हुए उसे ही तपका साधन कहा है
__ दुर्लभमशुद्धमपसुखमविदितमृतिसमयमल्पपरमायुः ।
मानुष्यमिहैव तपो मुक्तिस्तपसैव तत्तप: कार्यम् ॥ अर्थात् दुर्लभ, अशुद्ध, अपसुख, अविदित मृति-समय और अल्प परमायु ये पाँच विशेषण मनुष्यपर्यायके लिए दिये गये हैं। इसी अभिप्रायको सूचित १. पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका, शोलापुर संस्करण, ४१४ । २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४०७ । ३. आत्मानुशासन, शोलापुर संस्करण, पद्म १११ । १२६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्मपरम्परा
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
करनेवाला 'पञ्चविंशतिका'का निम्नलिखित पद्य है
दुष्प्रापं बहदुःखराशिरशुचिस्तोकायुरल्पज्ञताज्ञातप्रान्तदिनं जराहतमतिः प्रायो नरत्वं भवे । अस्मिन्नेव तपस्ततः शिवपदं तव साक्षात्सुखं
सौख्यार्थीति विचिन्त्य चेतसि तपः कुन्निरो निर्मलम् ।। अर्थात् दुष्प्राप, अशुचि, बहुदुःखराशि, अल्पज्ञताज्ञात, प्रान्तदिन और स्ताकाथु मनुष्यीयमें है। मसाय तर मुस्तिकी प्राप्तिके लिए तप करना आवश्यक है और यह तप मनुष्यपर्यायमें हो सम्भव है।
इस पद्य के अतिरिक्त पानन्दि-पञ्चविंशतिके ९११८, १२४२, १।७६, ११११८, ३१४४ और ३५१ क्रमशः आत्मानुशासनके पद्य २३९,२४०, १२५, १५, १३०, ३४ और ७९ पद्योंसे प्रभावित हैं। अतएव 'पञ्चविंशति' के रचयिता वि० की १०वीं शतीके पूर्व नहीं हो सकते।
पद्यनन्दि-पंञ्चविंशत्तिपर सोमदेवसूरिके 'यशस्तिलक'का भी प्रभाव पाया जाता है । पद्मनन्दिका श्लोक निम्न प्रकार है
त्वयि प्रभूतानि पदानि देहिनां पदं तदेकं तदपि प्रयच्छति ।
समस्तशुक्लापि सुवर्णविग्रहा वमत्रमात: कृतचित्तचेष्टिता ॥ ठीक इससे मिलता-जुलता यह 'यशस्तिलक'का भी श्लोक हैएक पदं बहुपदापि ददासि तुष्टा बर्णात्मिकापि च करोषि न वर्णभाजम् । सेवे तथापि भवतीमथवा जनोऽर्थी दोष न पश्यति तदस्तु तवैष दीपः ।।
उक्त दोनों पद्योंमें सरस्वतीकी स्तुति की गयी है । स्तुति करनेको एक ही प्रणाली है। इसी प्रकार चविध दानके फल सूचक पद्य भी समानरूपमें उपलब्ध होते हैं। पद्यनन्दि-पम्नवंशतिमें गहस्थके पड़ावश्यकोंका निर्देश "देवपूजागरुपास्ती" (६७) आदि रूपमें किया गया है । यह श्लोक यशस्तिलक उत्तरार्द्ध पृ० ४१४ में प्राप्त होता है। यशस्तिलकमें पुजाके स्थानपर सेवापाठ प्राप्त होता है। पद्मनन्दि-पञ्चविंशति (२०१०)में मनिके लिए शाकपिण्डमात्रके दाताको अनन्तपुण्यभाग बतलाया है। यही भाव यशस्तिलक (उत्तरार्द्ध पृ० ४०८)मं व्यक्त किया है। इसी प्रकार आत्मसिद्धिके लिए 'भुतानन्वयनात्' पद्यका आशय भी दोनों अन्थों में तुल्य हैं। इससे यह निश्चय होता है कि पद्म
१. पदमनन्दि पञ्चविंशति, शोलापुर संस्करण, पद्म १२:२१ । २. पमनन्दि पञ्चविंशति, शोलापुर संस्करण, इलोक १५।१३। ३. यशस्तिलकचम्यू उत्तरार्घ, पृ० ४०१ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १२७
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन्दिने अपनी इस कृतिमें यशस्तिलकके उपासकाध्ययनका पर्याप्त उपयोग किया है । यशस्तिलकका समाप्तिकाल शक संवत् ८८१ (ई० ९५९) है । अतएव आचार्य पद्मनन्दि द्वितीयका समय ई० सन् २५९ के बाद होना चाहिये । यह निश्चय है कि पद्मनन्दिपर अमृतचन्द्रसूरि और अमितगति इन दोनोंका पूर्ण प्रभाव है। पद्मनन्दिने “निश्चयपञ्चाशत' प्रकरणमें व्यवहार और शुद्ध नयोंकी उपयोगिताको दिखलाते हुए शुद्धनयके आश्रयसे आत्मतत्त्वके वर्णन करनेकी इच्छा प्रकट की है
व्यवहृतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनयः ।
स्वार्थं मुमुक्षुरहमिति गरे लदाश्रित मात्॥ पद्मनन्दिने व्यवहारको अबोधजनोंको प्रतिबोधित करनेका साधनमात्र बतलाया है। इसका आधार अमृतचन्द्रसूरि विरचित पुरुषार्थसिद्धयुपायका निम्नलिखित गद्य है
अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् ।
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्त्र देशना नास्ति। अमृतचन्द्रके शब्द और अर्थका प्रभाव उपर्युक्त पद्यपर है। अमृतचन्द्रसूरिका समय वि० सं० ११वीं शती है । अतएव पद्मनन्दिका समय इसके पश्चात् हो होना चाहिये।
पद्मनन्दिकी पञ्चविंशतिपर अमितगतिके श्रावकाचारका भी प्रभाव है। यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पद्य उद्धृत किये जाते हैं
विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्यः परमेष्ठिषु । दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितैः ।। दर्शनशानचारित्रतपःप्रमृति सिध्यति ।
विनयेनेति तं तेन मोक्षद्वार प्रचक्षते ॥ धावकोंको जिनागमके आश्रित होकर अहंदादि पञ्चपरमेष्ठियों, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र तथा इन सम्यग्दर्शनादिको धारण करने वाले जीवोंकी भी यथायोग्य विनय करनी चाहिए। उस विनयके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और तप आदिकी सिद्धि होती है, अतएव इसे मोक्षका द्वार कहा गया है। १. पद्मनन्दि-पञ्चविंशति, सोलापुर संस्करण, श्लोक ११३८ । २. पुरुषार्थसिद्धघु पाय, पद्य ६ । ३. पमनन्दि-पञ्चविंशति ६।२९-३० ।
१२८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
यही भाव अमितगति-श्रावकाचारमें निन्न पद्योंमें व्यक्त किया गया है
संधे चतुविधे भक्त्या रत्नत्रयविराजिते । विधातव्यो यथायोग्यं विनयो नयकोविदः ॥ सम्यग्दर्शन-चारित्र-तपोज्ञानाभि देहिना।
अपाप्यन्ते विनीतेन यशांसीव विपश्चिता ॥ पअनन्दिने अमितगति-श्रावकाचारके चतुर्थ परिच्छेदके कई पद्योंका अनूसरण किया है। अमिततिके 'द्वात्रिशतिका के निम्नलिखित पद्यका प्रभाव भी पद्मनन्दिपर प्रतीत होता है।
एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः प्रमादतः संचारता इतस्ततः । क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडिता
स्तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥ पद्मनन्दिने लिखा है- हे जिन ! प्रमाद या अभिमानसे जो मैंने मन, वचन एवं शरीर द्वारा प्राणियोंका पीडन स्वयं किया है, दुसरोंसे कराया है अथवा प्राणिपीडन करते हुए जीवको देखकर हर्ष प्रकट किया है, उसके आश्रयसे होनेवाला मेरा पाप मिथ्या हो। यथा--
मनोवोऽङ्ग कृतमङ्गिपीडनं प्रमादित कास्तिमत्र यन्मया।
प्रमादतो दर्पत एतदाश्रयं तदस्तु मिथ्या जिन दुष्कृतं मम ।। अतएव अमितगतिसे उत्तरवर्ती होनेके कारण पद्मनन्दि द्वितीयका समय ई० सन्की ११ वीं भाती है, यतः अमितगतिने वि० सं० १०७३ में अपना पञ्चसंग्रह रचा है। रचनाका परिचय
‘पचनन्दिपञ्चविंशति' अत्यन्त लोकप्रिय रचना रही है। इसपर किसी अज्ञात विद्वान्की संस्कृत-टीका है । 'एकत्वसप्तति' प्रकरणपर कन्नड़-टीका भी प्राप्त होती है। कन्नड़-टीकाकारका नाम भी पचनन्दि है। इनके नामके साथ पण्डितदेव, व्रती एवं मुनि उपाधियाँ पायी जाती हैं । ये शुभचन्द्र राद्वान्तदेवके अशिष्य थे और इनके विद्यागरु कनकनन्दी पण्डित थे। इन्होंने अमतचन्द्रकी वचनचन्द्रिकासे आध्यात्मिक प्रकाश प्राप्त किया था और निम्बराज
१, अमितगति-अवकाचार १३।४४, ४८ । २. भावनाद्वात्रिशतिका, पद्य ५। ३. पयनन्दि गश्चविंशति २१॥११ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषवाचार्य : १२९
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
के सम्बोधनार्थं एकत्व-सप्ततिवृत्तिकी रचना की थी। निम्बराज शिलाहारवंशीय गण्डरादित्यनरेशके सामन्त थे । इन्होंने कोल्हापुरमें अपने अधिपतिके नामसे 'रूपनरायणवर्मादि' नामक जैनमन्दिरका निर्माण कराया था तथा कात्तिक कृष्णा शक संवत् १०५८ ( वि० सं० ११०३ ) में कोल्हापुर और मिरजके आसपास के ग्रामोंकी आयका भी दान दिया था । अतः मूलग्रन्थकार और टीकाकार के नाममं साम्य होनेसे तथा दीक्षा और शिक्षा गुरुओं के नाम भी एक होने से उनमें अभिन्नत्वकी कल्पना की जा सकती है ।
इस रचना में २६ विषय हैं
१. धर्मापदेशामृत, २ दानोपदेशन, ३. अनित्यपञ्चाशत, ४. एकत्वसप्तति, ५. यतिभावनाष्टक, ६. उपासक संस्कार, ७. देशव्रतोद्योतन, ८ सिद्धस्तुति, ९. आलोचना, १०. सदुबोधचन्द्रोदय, ११. निश्चयपञ्चाशत, १२. ब्रह्मचर्य रक्षावति, १३. ऋषभस्तोत्र, १४. जिनदर्शनस्तवन, १५. श्रुतदेवतास्तुति १६. स्वयंभूस्तुति, १७. सुप्रभाताष्टक, १८. शान्तिनाथस्तोत्र, १९ जिनपूजाष्टक, २० करुणाष्टक २१. क्रियाकाण्डचूलिका, २२. एकत्वभावनादशक, २३. परमार्थविंशति, २४. शरीराष्टक, २५. स्नानाष्टक, २६. ब्रह्मचर्याष्टक |
१. धर्मोपदेशामृत - इस अधिकारमें १२८ पद्य हैं। धर्मोपदेशका अधिकारी सर्वज्ञ और वीतरागी ही हो सकता है । इस जगत् में असत्य भाषणके दो ही कारण हैं - १. अज्ञानता और २ कषाय । 'परलोकयात्राके लिए धर्म ही पाथेय हैं, पाथेयसे यह यात्रा सकुशल सम्पन्न होती है ।' धर्मका स्वरूप व्यवहार और निश्चयनय दोनों ही दृष्टियोंसे बतलाया गया है । व्यवहारकी दृष्टिसे जीवदया, अशरणको शरण देना और सहानुभूति रखना धर्म है। गृहस्थ और सुनिधर्मकी अपेक्षा धर्मके दो भेद, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्रकी अपेक्षा तीन भेद और उत्तम क्षमा, मार्दव आदिकी अपेक्षा दस भेद धर्मके बतलाये हैं । यह सब धर्म व्यवहारोपयोगी है और इसे शुभोपयोगके नामसे अभिहित किया गया है । यह जीवको नरक, तिर्यञ्च आदि दुर्गतियोंसे छुड़ाकर मनुष्य और देवगतिका सुख प्रदान करता है । निश्चयधर्म जीवको चतुर्गतिके दुःखों से छुड़ाकर उसे अजर-अमर बना देता है और जीव शाश्वत - निर्बाध सुखका अनुभव करता है । निश्चय धर्मको शुद्धोपयोगके नामसे पुकारते हैं ।
बताया है कि प्राणी सांसारिक सुखको अभीष्ट, विषयोपभोगजनित, क्षणिक और सबाध इन्द्रियतृप्तिको हो अन्तिम सुख मानकर व्यवहार धर्मको उसीका साधन समझते हैं और यथार्थ धर्मसे विमुख रहते हैं । अतः निश्चय - अध्यात्म धर्मका सेवन करना आवश्यक है, इसीसे मोक्षकी प्राप्ति सम्भव है ।
१३० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
गृहस्थ और मुनिधर्ममें अधिक श्रेष्ठ मुनिधर्म है, क्योंकि मोक्षमार्ग-रत्नत्रयके धारक साधु ही होते हैं । साधुकी स्थिति गृहस्थों द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये भोजनके आश्रित होती है, अतात्र गृहस्थधर्मकी भी आवश्यकता है। जो धर्मवत्सल गृहस्थ अपने षट् आवश्यकोंका पालन करता हुआ मुनिधर्मको स्थिर रखते हुए मुनियोंको निरन्तर आहारादि दिया करता है उसीका गृहस्थ-जीवन प्रशंसनीय है।
श्रावक्रधर्मकी दर्शन, व्रत आदि एकदश प्रतिमाओंका भी वर्णन किया गया है। श्रावकको यूतक्रीडा, मांसादिभक्षणरूप सप्तव्यसनका त्याग करना आवश्यक है। आचार्य ने धूतादि व्यसनोंका सेवन कर कष्ट उठाने वाले युधिष्ठिर आदिका उदाहरण भी दिया है। हिंसा, असत्य, स्तेय, मथुन और परिग्रहरूप पापोंका त्याग गृहस्थ एकादेश करता है और मुनि सर्वदेश, अतः मुनिका आचरण सकलचरित्र और गृहस्थका आचरण देशचरित्र' कहलाता है। सकलचारित्रको धारण करनेवाले मुनिको रत्नत्रय, मूलगुण, उत्तरगुण, पाँच आचार और दस धर्माको धारण करना चाहिए । मुनिके अट्ठाइस मूलगुणोम पाँच महाव्रत्त, पाँच समितियाँ, पाँच इन्द्रियोंका निरोध, समता आदि षडावश्यक, केशलुञ्च, वस्त्रपरित्याग, स्नानपरित्याग, भूमिशयन, दन्तघर्षणका त्याग, स्थितिभोजन और एकभक्तकी गणना की गयी है। इन २८ मूलगुणोंमें पद्मनन्दिने अचेलकत्व, लोच, स्थितिभोजन और समताका ही मुख्यत्तासे वर्णन किया है। दिगम्बरत्वकी सिद्धि अनेक प्रमाणों द्वारा की गयी है।
साधुजीवनके वर्णनके पश्चात् आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठियोंका स्वरूप प्रतिपादित किया है। व्यवहाररत्नत्रयका स्वरूप अंकित करने के साथ निश्चयरत्नत्रयका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-आत्मानामक निर्मल ज्योतिके निर्णयका नाम सम्यग्दर्शन, तद्विषयक बोधका नाम सम्यग्ज्ञान और उसीमें स्थित होनेका नाम सम्यक्चारित्र है।
यह निश्चयरलय ही कर्मबन्धको नष्ट करने वाला है। उत्तम क्षमा, मार्दव आदि दस धर्मोका सबन संवरका कारण है।
संसारके समस्त प्राणी दुःखसे भयभीत होकर सुख चाहते हैं और निरन्तर उसकी प्राप्तिके लिए प्रयत्नशील रहते हैं। पर सभीको सुखका लाभ हो नहीं पाता । इसका कारण उनका सुख-दुःखविषयक विवेक है। उन्हें सात्तावेदनीयके उदयसे क्षणिक सुखका आभास होता है, उसे वे यथार्थ सुख मान लेते हैं, जो वस्तुत: स्थायी यथार्थ सुख नहीं है, यतः जिस इष्ट सामग्री के संयोगमें सुखको कल्पना करते हैं, वह संयोग ही स्थायी नहीं है । अत: जब अभीष्ट सामग्रीका
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य - १३१
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
वियाग हो जाता है, तो सन्ताप उत्पन्न होता है। वास्तविक मुख आकुलता के अभाव है, जो मोक्षमें ही उपलब्ध होता है ।
इसके पञ्चात् विभिन्न दार्शनिकों द्वारा मान्य आत्मस्वरूपको मीमांगा की गयी है | बलाया है—
नो शून्यो न जडो न भूतजनितो नो कर्तृत्वभावं गतो नको न क्षणिको न विश्वविततो नित्यो चिकान्ततः । आत्मा कार्यमितश्चिदेकनिलयः कर्ना च भोक्ता स्वयं संयुक्तः स्थिरता-विनाश - जननैः प्रत्येकमेकक्षणे ॥
यह आत्मा एकान्तरूपसे न तो शून्य है, न जड़ है, न पृथ्वी आदि भूतोंसे उत्पन्न हुआ है, न कर्ता है, न एक है, न क्षणिक है, न विश्वव्यापक है और न नित्य है | किन्तु चैतन्यगुणका आश्रयभूत वह आत्मा प्राप्त हुए शरीरके प्रमाण होता हुआ स्वयं ही कर्त्ता और भोक्ता भी है। यह आत्मा प्रत्येक समयमें उत्पाद, व्यय और धौव्यरूप है ।
तात्पर्य यह है शून्यैकान्तबादी माध्यमिक, मुक्ति अवस्था में वृद्धयादि नवविशेषगुणोच्छेदवादी वैशेषिक, भूतचेतन्यवादी चार्वाक, पुरुषाद् सवादी वेदान्ती, सर्वथाक्षणिकवादी सौत्रान्तिक एवं सर्वथा नित्यवादी सांख्यके सिद्धांत का निरसन करने के लिए उक्त पद्म कहा गया है। जो व्यक्ति आत्मा, कर्म और संसारकी अवस्थाका अनुभव कर धर्माचरण करता है, वह धर्माचरण द्वारा शाश्वनिक सुखको प्राप्त कर लेता है ।
२. दानोपदेशन अधिकार - में १४ पद्य हैं । दानकी आवश्यकता और महत्त्व प्रकट हुए बतलाया है कि श्रावक गृहमें रहता हुआ अपने और अपने आश्रित कुटुम्बके भरण-पोषण हेतु धनार्जन करता है, इसमें हिंसादिका प्रयोग होनेसे पापका संचय होता है। इस पापको नष्ट करनेका साधन दान ही है। यह दान श्रावके पद आवश्यकमि प्रधान है । जिस प्रकार जल वस्त्र लगे हुए रखतादिको दूर कर देता है, उसी प्रकार सत्पात्रदान श्रावकके कृषि और वाणिज्य आदिसे उत्पन्न पापमलको वोकर उसे निष्पाप कर देता है । दानके प्रभावसे दाताको भविष्य में कई गुनी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। गृहस्थ के लिए पात्रदान ही कल्याणका साधन है, जो दान नहीं देता, वह धनसे सम्पन्न होनेपर भी रंकके समान है । इस प्रकरणमें आचार्यने उत्तम, मध्यम, जघन्य, कुपात्र और अपात्र के अनुसार दानका फल बतलाया गया है।
१. पद्मनन्दिपञ्चविंशति १।१३४ ।
१३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
३. अनित्यपञ्चाशत्-में ५५ पद्य हैं । शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, वैभव आदिको स्वाभाविक अस्थिरता दिखलाकर उनके संयोग और वियोगमें हर्ष और विषादके परित्यागके लिए प्रेरणा की गयी है। आयुकर्मका अन्त होनेपर प्राणान्त होना अनिवार्य है, कोई किसीकी आयुको एक क्षण भी नहीं बढ़ा सकता है, अतः वस्तु स्थितिका विचार कर हर्ष-विषादसे पथक रहनेकी चेष्टा करनी चाहिए । कुटुम्बी प्राणी उसी प्रकार सायमें रहते हैं, जिस प्रकार रात्रि होनेपर पक्षी इधर-उधर• से आकर एक ही वृक्ष पर निवास करते हैं, प्रभात होने पर पुनः अनेक दिशाओंमें चले जाते हैं। इसी प्रकार प्राणी अनेक योनियोंसे आकर विभिन्न कुलोंमें जन्म ग्रहण करते हैं और पुनः आयुके समाप्त होनेपर अन्य कुलोंमें चले जाते हैं।
४. एकत्यसप्रति—इसमें ८० पद्य हैं। चिदानन्दस्वरूप परमात्माको नमस्कार करनेके अनन्तर चित्स्वरूप यद्यपि प्रत्येक प्राणिके भीतर अवस्थित है, पर अज्ञानताके कारण अधिकतर प्राणी उसे पहचानते नहीं हैं, अतएव उसे बाह्य पदार्थोंमें दहते हैं। जिस प्रकार अग्नि काष्ठमें अव्यक्तरूपसे व्याप्त है, उसी प्रकार चैतन्य-आत्मा भी अपने भीतर व्याप्त है 1 राग-द्वेषके अनुसार जो किसी भी पदार्थसे सम्बन्ध होता है, वह बन्धका कारण है तथा समस्त बाह्य पदार्थों में भिन्न एकमात्र आत्मस्वरूपमं जो अवस्थान होता है, वह मुक्तिका कारण है । बन्ध-मोक्ष, राग-द्वीप, कर्म-आत्मा और शुभ-अशुभ इत्यादि प्रकारसे जो द्वंत बुद्धि होती है, उससे संसारमें परिभ्रमण होता है और इसके विपरीत अद्वैत-- एकत्वबुद्धिसे जीव मुक्तिके सन्मुख होता है। शुद्ध निश्चय नयके अनुसार एक अखण्डचैतन्य आत्माकी ही प्रतीति होती है, इसमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र तथा क्रिया-कारक आदिका कुछ भी भेद प्रतिभासित नहीं होता । 'जो शुद्ध
चैतन्य है, वही निश्चयसे मैं हूँ' की प्रतीति होती है । ___ परमात्मतत्त्वकी उपासनाका एकमात्र उपाय साम्य है। स्वास्थ्य, समाधि, योग, वित्तनिरोध और शुद्धोपयोग ये सभी साम्यके नामान्तर हैं । शुद्ध चतन्यके अतिरिक्त आकृति, अक्षर, वर्ण एवं अन्य किसी भी प्रकारका विकल्प नहीं करना ही साम्य है। कर्म और रागादिकको हेय समझकर छोड़ देना और उपयोगस्वरूप परंज्योतिको उपादेय समझकर ग्रहण करना साम्यस्थिति है।
५. यतिभावनाष्टक-इस प्रकरणमें ९ पद्य हैं। इन पद्यों में उन मुनियोंकी स्तुति की गयी है, जो पाँचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके विषयभोगोसे विरक्त होते हुए नानाप्रकारके तपश्चरण करते हैं तथा सभी प्रकारके उपसगाको सहन करते हैं।
प्रबुद्धाचार्ग एवं परम्परापोषकाचार्य : १३३
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
६. उपासक संस्कार- इस अधिकारमें १२ पद्य हैं । सर्वप्रथम व्रत और दानके प्रथम प्रवर्तक आदिजिनेन्द्र और राजा श्रेयान्सके द्वारा कर्मकी स्थिति दिखलाकर उसका स्वरूप बतलाया है । धर्मके मुनिधर्म और श्रावकधर्म भेद बतलाकर श्रावकाचारका निरूपण करते हुए गृहस्थके देवपुजा, निर्ग्रन्थ गुरुकी उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन पट् आवश्यकोंका कथन किया है । सात व्यसनके त्यागपर जोर देते हुए सामायिक व्रतका स्वरूप प्रतिपादित किया है ।
७. बेशव्रतोद्योतन में २७ पद्य हैं। यहाँ सम्यदुष्टिको प्रशंस्य बतलाते हुए सम्यग्दर्शनके साथ मनुष्य भवके प्राप्त हो जानेपर तपको ग्रहण करने की प्रेरणा की है। यदि मोह या अशक्तिके कारण दिगम्बरी दीक्षा लेकर तपाचरण कर सम्भव न हो, तो सम्यग्दर्शनके साथ पद्यावश्यक, अष्टमूलगुण और द्वादशगुणोंको धारण करना चाहिए। रात्रिभोजनत्याग और छने हुए जलका व्यवहार गृहस्थको करना चाहिए | श्रावक आरम्भजन्य पापक्रियाएँ करता है, अतएव उसे आहार, औषध अभय आदि दानकार्यों द्वारा अपनी आत्माको पवित्र करना चाहिए 1
श्रावकके बचावकोंम देवदर्शन और देवपूजन प्रथम कर्त्तव्य है । देवदर्शनादिके बिना, गृहस्थाश्रमको पत्थर की नाव समझना चाहिए । इसके लिए चैत्यालय निर्माण अतिशय पुण्यवर्धक है । अतः चैत्यालयके आधारसे ही मुनि और श्रावक दोनोंका धर्म अवस्थित रहता है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थीमें सर्वश्रेष्ठ मोक्ष ही है । यदि धर्म पुरुषार्थ मोझके साधनरूपमें अनुष्ठित होता है तो वह उपादेय है। इसके विपरीप भोगादिककी अभिलाषासे किया गया धर्मपुरुषार्थ पापरूप है । अतः अणुव्रत या महाव्रत दोनोंके पालन करनेका उद्देश्य मोक्षप्राप्ति है ।
८ सिद्धस्तुति - २९ पद्योंमें कर्मक्षय करने वाले सिद्धोंकी स्तुति की गयी है । ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मोके नाश करनेसे कौन-कौन गुण उत्पन्न होते हैं, इसका भी कथन आया है ।
९. आलोचना - इस अधिकारमें ३३ पद्य हैं। जिनेन्द्रके गुणोंका वर्णन करते हुए यह बतलाया है कि मन, वचन और काय तथा कृत कारित और अनुमोदन, इनको परस्पर गुणित करनेपर जो नौ स्थान प्राप्त होते हैं, उनके द्वारा प्राणीके पाप उत्पन्न होता है। इसके लिए प्रभुके समक्ष आत्मनिन्दा करना आलोचना है । अज्ञानता और प्रमादवश होकर जो पाप उत्पन्न हुआ है, उसे निष्कपट भाव से जिनेन्द्र और गुरुके समक्ष प्रकट करना आलोचना है । आलोचना करनेसे आत्मशुद्धि होती है और लगे हुए पापोंसे छुटकारा प्राप्त होता
१३४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
I
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
है अर्थात् अशुभ कर्मोकी निर्जरा होती है। पापका कारण विकल्प है और संकल्पविकल्प असंख्यात होते हैं, अत्तः पापास्रव भी नाना प्रकारसे होता है | अतएव इन समस्त पापको दूर करने का उपाय है मन और इन्द्रियांका बाह्य पदार्थोंकी ओरसे हटा कर काका परमात्मस्वरूपके साथ एकीकरण करना । इसके लिए मनके ऊपर विजय प्राप्त करना आवश्यक है। कारण मनकी अवस्था ऐसी है कि वह समस्त परिग्रहको छोड़कर वनका आश्रय ले लेनेपर भी वाह्य पदार्थों की ओर दौड़ता है। अतएव मनको जीरानेके लिए उसे परमात्मवरूप चिन्तनमें लगाना श्रेयस्कर है। कलिकालके प्रभाव के कारण जो दुष्कर तपश्चरण नहीं कर सकता है, वह सर्वज्ञ वीतरागी प्रभुको केवल भक्ति करनेसे ही आत्मकल्याणका मार्ग प्राप्त कर लेता है ।
१०. सद्बोधचन्द्रोदयअधिकार में ५० पथ हैं। इस अधिकारमें भी चित्स्वरूप परमात्मा की महिमा दिखलाकर यह निर्दिष्ट किया है कि जिसका मन चित्स्वरूप आत्मा में लोग हो जाता है, वह योगी समस्त जीव राशिको आत्मसदृश देखता है। मोहनिद्रा छोड़नेपर ही प्राणी सद्बोधको प्राप्त करता है 1
११. निश्चपञ्चाशतअधिकार - में ६२ पद्य हैं। इसमें आत्मतत्त्वका निरूपण किया गया है । समयसारकी अनेक गाथाओंका भाव अक्षुण्णरूप में प्राप्त होला है । समयसारको निम्नलिखित गाथाओंका प्रभाव इस प्रकरणके पद्योंपर है । यथा
सुपरिचिदाणुभूा सम्वत्स वि कामभोगबंध कहा एयत्तस्युवलभो गरि ण सुल्हो वित्तस्स ||
।
- समयसार, जीवाजीवाधिकार गाया |
X
X
X
X
श्रुतपरिचितानुभूतं सर्वं सर्वस्य जन्मने सुचिरम् । न तु मुक्तयेऽत्र सुलभा शुद्धात्मज्योतिरुपलब्धिः ॥ - १० वि० १११६ |
X
x
X
ववहारोऽभूयत्यो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ । भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥
1
—समयसार, जीवाजीवाधिकार, गाथा ११ । व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः । शुद्धयमाश्रिता से प्राप्नुवन्ति यतयः पदं परमम् ॥
- पद्मनन्दिपञ्चविंशति १११९ । नय दो प्रकारका है - १. शुद्धनय और २ व्यवहारनय । व्यवहारय द्वारा अज्ञानी व्यक्तियोंको प्रबोधित किया जाता है । यह नय यथावस्थित वस्तुको
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : १३५
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय न करनेके कारण अभूतार्थ कहलाता है । शुद्ध नय यथावस्थित वस्तुको विषय करनेके कारण भूतार्थं कहा गया है और यही कर्मक्षयका हेतु है । वस्तुका यथार्थस्वरूप अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन जो वचनों द्वारा किया जाता है, वह व्यवहारके आश्रयसे ही । मुख्य और उपचारके आश्रयसे किया जाने वाला सब विवरण व्यवहारके ऊपर ही आश्रित है । इस दृष्टिसे व्यवहार उपादेय माना गया है । आगे शुद्धनयके आधारपर रत्नत्रयका स्वरूप बतलाया गया है । समस्त परिग्रहका त्यागी मुनि भी यदि सम्यग्ज्ञानसे रहित है, तो वह स्थावरके तुल्य है । सम्यग्ज्ञान द्वारा ही समस्त वस्तुओंकी यथार्थ प्रतीति होती है, जो जीवात्मा अपनेको निरन्तर कर्मसे बद्ध देखता है, वह कर्मबद्ध ही रहता है, किन्तु जो उसे मुक्त देखता है, वह मुक्त हो जाता है । है समतारूप अमृतके पानसे वृद्धिंगत आनन्दको प्राप्त आत्मन् ! तू बाह्यत्तत्वमें मत जा, अन्तस्तत्त्वमें जा ।
जब तक चैतन्यस्वरूपकी उपलब्धि नहीं होती है, तभी तक बुद्धि आगमके अभ्यास में प्रवृत्त होती है, पर जैसे ही उक्त चैतन्यस्वरूपका अनुभव प्राप्त होता है, बेसे ही वह बुद्धि आगमको ओरसे विमुख होकर उस चैतन्यस्वरूपमें ही रम जाती है । अतएव जीवको शाश्वतिक सुखकी प्राप्ति होती है । जिस आत्मज्योति में तीनों काल और तीनों लोकोंके सब ही पदार्थ प्रतिभासित होते हैं तथा जिसके प्रकट होनेपर समस्त वचनप्रवृत्ति सहसा नष्ट हो जाती है, जो चैतन्यरूप तेज भय, निक्षेप और प्रमाण आदि विकल्पोंसे रहित, उत्कृष्ट, शान्त एवं शुद्ध अनुभवका विषय है, वही मैं हूँ । इस प्रकार आत्मानुभूतिका विवेचन विस्तारपूर्वक किया है ।
१२. ब्रह्मवर्म रक्षावत -- इस अधिकारमें २२ पद्य है । आरम्भमें ब्रह्मचर्य का अर्थ बतलाते हुए लिखा है कि ब्रह्मका अर्थ विशुद्ध ज्ञानमय आत्मा है । उस आत्मामें चर्यं अर्थात् रमण करना ब्रह्मचर्य है । यह निश्चयब्रह्मचर्य की परिभाषा है । इस प्रकारका ब्रह्मचर्य इस प्रकारके मुनियोंको प्राप्त होता है जो शरीरसे निर्ममत्व रखते है तथा सभी प्रकारसे जितेन्द्रिय होते हैं। ब्रह्मचर्यके विषय में यदि कदाचित् स्वप्न में भी कोई दोष उत्पन्न होता है तो वे रात्रिविभागके अनुसार आगमोक्त विधिसे उसका प्रायश्चित्त करते हैं। संयमी मन हो इस प्रकारके ब्रह्मचर्यंका आचरण कर सकता है । इस अधिकारमें ब्रह्मचर्य पालनको विधि, ब्रह्मचर्यका महत्व एवं ब्रह्मचर्यमें विघ्न करनेवाले कारणों का विवेचन किया है ।
१३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
I
१३. ऋषभ स्तोत्र - इस स्तोत्रमें तीर्थङ्कर ऋषभदेवके इतिवृत्तका निर्देश भी किया है। जब ऋषभदेव सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होकर माता मरुदेवी के गर्भ में आनेवाले थे, उसके छः महीने पूर्वसे ही नाभिरायके घरपर रत्न-वृष्टि आरम्भ हो गयी थी । देवोंने आकर मरुदेवीके चरणोंमें नमस्कार किया । जब भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ, तो देवाने पाण्डु- शिलापर ले जाकर उनका अभिषेक किया । भोगभूमिका अन्त होकर कर्मभूमिकी रचना आरम्भ होने लगी थी। कल्पवृक्ष धीरे-धीरे चष्ट होते जा रहे थे । अतः प्रजाजन भूखसे पीड़ित हो ऋषभदेवके पास गये और उन्होंने कृषि आदि कार्योंके करने की शिक्षा दी । ८४ लाख वर्ष पूर्व की आयु ८३ लाख पूर्व बीत जानेपर के एक दिन सभाभवन में सुन्दर सिंहासन के ऊपर स्थित होकर इन्द्रके द्वारा आयोजित नीलाञ्जना अप्सराके नृत्यको देख रहे थे। इसी बीच नीलाञ्जना की आयु क्षीण हो जानेसे वह क्षणभरमें अदृश्य हो गयी । इन्द्रके आदेश से उसके स्थान पर दूसरी नृत्य करने लगी, पर ऋषभदेवकी दिव्यदृष्टि से यह बात ओझल न रह सकी और उन्होंने उस नीलाञ्जनाकी क्षणनश्वरताको देखकर राजलक्ष्मीकी क्षणनश्वरताको अवगत किया । अतएव उन्होंने समस्त राज्यपरिग्रहका त्याग कर दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार तपश्चरण करते हुए एक हजार वर्ष बीत गये और अनुपम समाधि द्वारा चार घातिया कर्मोंको नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया । समदशरण में अष्ट प्रातिहार्यसि सुशोभित तीर्थङ्कर ऋषभदेवने विश्वहितकारी मोक्षमार्गका उपदेश दिया । यह स्तोत्र प्राकृत भाषा में रचित है ।
१४. जिन-दर्शन- स्तवन- इस स्तबनमें ३४ गाथाएँ हैं और यह भी प्राकृत भाषा में लिखा गया है। आरम्भमें बताया है कि हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरे नेत्र सफल हो गये तथा मन और शरीर शीघ्र ही अमृत से सींचे गये समान शान्त हो गये । हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर दर्शन में बाधा पहुँचाने वाले समस्त मोहरूप अन्धकार इस प्रकार नष्ट हो गये, जिससे मैंने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया | रागादिविकारोंसे रहित आपके दर्शन से मेरे समस्त पाप नष्ट हो गये । जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेपर रात्रिका अन्धकार समाप्त हो जाता है उसी प्रकार आपके दर्शनसे पुण्योदय हो गया है और पापान्धकार नष्ट हो चुका है। आचार्यने जिनदर्शन से प्राप्त होनेवाले सन्तीष, वैभव' सुख, आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। दर्शनके प्रभावसे मोक्षमार्ग की उपलब्धि होती है।
1
1
१५. श्रुतदेवता स्तुति- अधिकारमें ३१ पद्म हैं । इन पद्योंमें सरस्वतीकी स्तुति की गयी है । बताया है, हे सरस्वती ! जो तेरे दोनों चरण-कमल हृदयमें
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १३७
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
धारण करता है । उसको समस्त अज्ञानता और कर्मसंस्कार नष्ट हो जाते हैं । सरस्वतीका तेजन दिनकी अपेक्षा करता है न रात की, न अभ्यन्तरकी अपेक्षा करता है न बाह्य को न सन्ताप उत्पन्न करता है और न जड़ता हो । समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला यह तेज अपूर्व है । संसारमें ज्ञानमय दीपक हो सबसे उत्तम है । यह नेववालोंको तो वस्तुदर्शन कराता ही है, पर नेत्रहीनोंको भी वस्तुप्रतीति कराता है । सरस्वती के प्रसादसे हो शास्त्रोंका अध्ययन होता है और वस्तुतत्वकी प्रतीति 1 आचार्यने लिखा है
अपि प्रयाता वशमेकजन्मनि धेनुचिन्तामणिकल्पपादपाः । फलन्ति हि त्वं पुनरत्र वा परे भये कथं तरूपमीयते बुधैः ॥
X
X
አ
त्वमेव तीर्थं शुचिबोधवारिमन् समस्तलोकत्रयशुद्धिकारणम् । त्वमेव चानन्दसमुद्रवर्धने मृगाङ्कमूर्तिः परमार्थदर्शिनम् ॥ १६. स्वयम्भू स्तुति - इस प्रकरणमें २४ पद्म हैं और इनमें क्रमशः २४ तीर्थंकरोंकी स्तुति की गयी है।
१७. सुप्रभाताष्टक - इसमें आठ पद्म हैं। प्रभातकाल होनेपर रात्रिका अन्धकार नष्ट हो जाता है और सूर्यका प्रकाश चारों ओर व्याप्त हो जाता है उस समय जनसमुदायकी निद्रा भंग हो जाती है और नेत्र खुल जाते हैं। ठीक इसी प्रकार से मोहनीय कर्मका क्षय हो जानेसे मोहनिर्मित जड़ता नष्ट हो जाती है तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोके निर्मूल नष्ट हो जानेसे अनन्तज्ञान, दर्शनका प्रकाश व्याप्त हो जाता है ।
१८. शान्तिनाथस्तोत्र -- इसमें ९ पद्योंमें तीर्थङ्कर शान्तिनाथ की स्तुति की गयी है। प्रसंगवश अष्टप्रातिहार्मो का भी उल्लेख आया है ।
१९. जिनपूजाष्टक - इस प्रकरणमें दश श्लोक हैं और जलचन्दनादि आठ द्रव्योंके द्वारा जिन- भगवान की पूजा किये जाने का वर्णन आया है।
२०. करुणाष्टक - इस प्रकरणमें ८ पद्म हैं और दीनता दिखलाकर जिनेन्द्रदेवसे दयाकी याचना करते हुए संसारसे अपने उद्धारकी प्रार्थना की गयी है ।
२०. क्रियाकाण्डचूलिका - - इस प्रकरणमें १८ श्लोक हैं। आरम्भमें बताया है कि जबतक भोक्षके कारणभूत सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र प्राप्त
१. पद्मनन्दिपञ्चविंशति, पद्य १५।१९ /
२. वही, १५ २४ ।
१३८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
नहीं होते तब तक भगवानकी भक्ति प्राप्त होती रहे। इस भक्ति प्रसादसे ही रत्न - श्रय की प्राप्ति सम्भव है । रत्नत्रय मूलगुण और उत्तरगुणों के सम्बन्ध में जो अपराध हुआ है तथा मन, वचन, काय, वृत्त, कारित और अनुमोदनासे जो प्राणिहुआ है! तज्जन्य आस्रव आपके चरण कमलके स्मरणसे मिथ्या हो ।
चिन्ता दुष्परिणामसंततिवशादुन्मार्गगाथागिरः । कायात्संवृत्तिर्वाजितादनुचितं कर्माजितं यन्मया । तन्नाशं व्रजतु प्रभो जिनपते त्वत्पादपद्मस्मृते— रेषा मोक्षफलप्रदा किल कथं नास्मिन् रामर्था भवेत् ॥
-
२२. एकत्वभावनादशक — इस प्रकरणमें ११ पद्म है। यह परमज्योतिस्वरूपसे प्रसिद्ध और एकत्वरूप अद्वितीय पदको प्राप्त आत्मतत्त्वका विवेचन करते हुए यह कहा गया है कि जो इस आत्मतत्त्वको जानता है वह दूसरोंके द्वारा पूजा जाता है, उसका आराध्य फिर अन्य कोई नहीं होता । उस एकत्वका ज्ञान दुर्लभ अवश्य हैं, पर मुक्तिको वही प्रदान करता है। मुक्तिसुख ही संसारमें सर्वश्रेष्ठ है ।
२३. परमार्थविशति इस प्रकरण में २० श्लोक हैं । इसमें भी शुद्ध चैतन्य निर्विकल्पक आत्माऩत्वको हो सर्वश्रेष्ठ माना है। निश्चयतः यह आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुखस्वरूप है । न यह परवस्तुओंका भोक्ता है और न कर्ता ही । यह तो स्वयं अपने परिणामों का कर्त्ता और भोक्ता है। जब अन्तरंगमें रत्नत्रयका प्रकाश व्याप्त हो जाता है । तो संसारके सारे परपदार्थ निःसार प्रतीत होने लगते हैं । आत्मा कर्मफलरूप सुख-दुःखसे पृथक् है ।
२४. शरीराष्टक - इस प्रकरण में ८ पद्य हैं । शरीरकी स्वाभाविक अपवित्रता और अस्थिरताको दिखलाते हुए उसे नाड़ीब्रणके समान भयानक और कड़वी तुम्बीके समान उपयोगके अयोग्य बतलाया है । साथ ही यह भी कहा है कि एक ओर मनुष्य जहाँ अनेक पोषक तत्त्वों द्वारा उसका संरक्षण करके उसे स्थिर रखने का प्रयास करते हैं वहीं दुसरी ओर वृद्धत्व उन्हें क्रमशः जर्जरित करनेमें उद्यत रहता हैं और अन्तमें वही सफल होता है । इस प्रकार शरीरकी अशुचिता और अनित्यताका वर्णन आया है ।
t
२५. स्नानाष्टक - इसमें ८ पद्य हैं। स्वभावतः अपवित्र मलमूत्र आदिसे परिपूर्ण यह शरीर स्नान करनेसे कभी पवित्र नहीं हो सकता। इसका यथार्थ स्थान तो विवेक है जो जीवके चिरसंचित मिथ्यात्व आदि रूप अन्तरंग मलको
१. पद्मनदिपञ्चविंशति, २१।१२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परा पोषकाचार्य : १३९
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
धो देता है। इसके विपरीत उस जलके स्नानसे तो प्राणिहिंसाजनित केबल पापमलका ही संचय होता है । जो शरीर प्रतिदिन स्नान करनेसे भी अपवित्र रहता है तथा अनेक सुगन्धित लेपनोंसे लेपित होनेपर भी दुर्गन्धित बना रहता है, उस शरीर की शुद्धि जलद्वारा नहीं की जा सकती और न कोई ऐसा तीर्थ ही है जिसमें स्नान करनेसे वह पवित्र हो सके ।
२६. बह्मचर्याष्टक - इस प्रकरणमें पद्य हैं और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है । विषयसेवन की ओर प्रवृत्ति पशुओंकी रहती है, अतः यहू पशु कर्म है | जब अपनी स्त्रीके साथ भी विषयसेवन करना निद्य है तब परस्त्री या वेश्या के सम्बन्ध में कहना ही क्या ? वस्तुतः यह विषयोपभोग तीक्ष्ण कुठार है, जिसके सेवन से संयमरूप वृक्ष निर्मूल हो जाता है। आचार्यने बताया है—रतिनिषेधविधी यत्तत्तां भवेच्चपलतां प्रविहाय मनः सदा । विषय सौस्यमिदं विपसंनिभं कुशलमस्ति न मुक्तवतस्तव ॥
जयसेन प्रथम
धर्मरत्नाकर नामक ग्रन्थके रचयिता आचार्य जयसेन लाङबागड संघके विद्वान थे। उन्होंने धर्मरत्नाकरकी अन्तिम प्रशस्ति में अपनी गुरुपरम्परा अंकित की है । इस परम्परामें बताया है कि धर्मसेनके शिष्य शान्तिषेण, शान्तिषेणके गोपसेन, गोपसेनके भाबसेन और भावसेनके शिष्य जयसेन थे। इन्होंने अपने वंशको योगीन्द्रवंश कहा है । प्रशस्तिमें लिखा है
श्रीमान्सो भून्मुनिजननुतो धर्मसेनो गणींद्र ---- स्तस्मिन् रत्नत्रितयसदनीभूतयोगीन्द्रवंशे ॥३॥
X
x
X
तेभ्य: श्री ( तस्माच्छी) शांतिषेणः समजनि सुगुरुः पापधूली-समीरः ॥४॥
X
X
X
वृद्धा च संततमनेकजनोपभोग्या श्रीगोपसेनगुरुराविरभूत्स तस्मात् ||५||
X
x
X
न ज्ञातः कलिना जगत्सुबलिना श्रीभावसेनस्ततः ॥ ६ ॥ ततो जातः शिष्यः सकल जनतानंदजनकः प्रसिद्धसाधूनां जगति जयसेनाख्य इह सः ।
१. पद्मनन्दिपञ्चविंशति, २६४८ ।
१४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
इदं चक्र शास्त्रं जिनसमय-सारार्थ-निवित
हितार्थं जंतूनां स्वमत्तिविभवाद्गर्व-विकलः ॥७॥ समय-निर्धारण
धर्मरत्नाकरमें जयमेन प्रथमने उसका रचनाकाल अंकिन किया है। सरस्वतीभवन ध्याचरकी प्रतिमें रचनाकालका निर्देश करनेवाला निम्नलिखित पद्य उपलब्ध होता है
वाणेन्द्रियव्योमसोम-मिते संवत्सरे शुभे ११०५५।
ग्रन्थोऽयं सिद्धता यातः सबलीकरहाटके ।। अर्थात् वि० सं० १०५५ में सबलीकरहाटक नामक स्थानमें धर्मरत्नाकरकी समाप्ति हई है। अत: जयसेन प्रथमके समयके सम्बन्ध में किसी भी प्रकारका विवाद नहीं है। __ जयसेनने घमरत्नाकारमें आचार्य अत्तपात पुरुषार्थहिनाय सथा सोमदेवमूरिके उपासकाध्ययनसे अनेक पद्य उद्धृत किये हैं। यशस्तिलकचम्पुको अन्तिम प्रशस्तिके आधारपर सोमदेवका समय वि सं० १०१६ है और अमृतचन्द्र आचार्यका विक्रमकी दशम शताब्दीका तृतीय चरण है। धर्मरत्नाकरमें तत्त्वानुशासनका भी एक पद्य उद्धृत है । अतएव जयसेनका समय रामसेनके समकालीन अथवा दो-चार वर्ष पश्चात् ही होना चाहिये । धर्मरत्नाकरके उल्लेखोंके आधार पर आचार्य अमृतचन्द्र और तत्त्वानुशासनका समय विक्रमकी ११वीं शतीका प्रथम चरण सम्भव है । अतएव धर्मरलाकरमें जो उसका रचनाकाल वि० सं० १०५५ दिया गया है उमकी पुष्टि अन्य प्रमाणोंसे भी होती है ।
रचना
___ आचार्य जयसेन प्रथमकी एक ही रचना प्राप्त है, धर्मरत्नाकर । इस ग्रन्थ का विषय नामानुसार आचार और तत्त्वज्ञानसे सम्बद्ध है। ग्रन्थ अवसरोंमें विभक्त है और समस्त विषयोंका समावेश बीम अवसरोंमें किया गया है। ग्रन्थके अन्तिम अबसरमें लिखा है
यस्या नैवोरमान किमपि हि सकलद्योतकेषु प्रतयं--- मंत्येनकेन नित्यं श्लथयति सकलं वस्ततत्त्वं विवक्ष्य । अन्येनान्त्येन नीति जिनपत्तिमहितां संविकर्षत्यजन,
गोपी मंधानवद्या जगति बिजयतां सा सम्ली मुक्तिलक्ष्म्याः ॥६६।। इतिथीसूरिश्रीजयसेनविरचिते धर्मरत्नाकरे उक्ताऽनुक्तशेषविशेषसूचको विशतितमोऽवसरः ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : १४१
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्मरलाकरमें रत्नत्रय, थावकके द्वादशवत, सप्ततत्त्व आदिका विस्तृत वर्णन आया है।
जयसेन द्वितीय आचार्य जयसेन द्वितीय भी अमलचन्द्रसूरिक समान कुन्दकुन्दक अन्धोपा टीकाकार हैं। उन्होंने समयसारको टीकामें अमतचन्द्रवे नामका उल्लेख किया है और उनकी टीकाके कतिपय पद्य भी यथास्थान उद्धृत किये हैं। अतः यह निश्चित है कि जयसेनके समक्षा अमतचन्द्र सूरिको टीका विद्यमान थी, पर शेली और अर्थकी दृष्टि उनकी यह टीका अमतचन्द्रसूरिकी अपेक्षा भिन्न है।
प्रवचनसारको टोकाके अन्तमें आठ पद्योंमें एक प्रशस्ति दी गयी है। इस प्रशस्तिमें गुरुपरम्पराका परिचय निम्न प्रकार आया है
ततः श्रीमोमरोनो भूद्गणी गुणगणाश्रयः । तदिनेयोस्ति यस्तस्मै जयसेनतपोभृते ॥ शीघ्र बभूव मालुसाधुः सदा धर्मरतो वदान्यः । सनुस्ततः साधुमहीपतिर्यस्तस्मादयं चारुभटस्तनूज: ।। य: संततं सर्वविदः सपर्यामार्यक्रमाराधनया करोति ।
स श्रेयसे प्राभूतनामग्रन्थपुष्टात् पितुर्भक्तिविलोपभीरुः ॥ अर्थात् मूलसंघके निर्ग्रन्थ तपस्वी वीरसेनाचार्य हार। उनके शिष्य अनेक गुणोंके धारी आचार्य सोमसेन हुए और उनके शिष्य आचार्य जयसेन हुए । सदा धर्म में रत प्रसिद्ध मालु नामके साधु हुए हैं। उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है। उनसे यह चारुभट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ है जो सर्वज्ञको पूजा तथा सदा आचार्योंके चरणोंकी आरावनापूर्वक सेवा करता है। उस चारभट अर्थात् जयसेनाचार्यने अपने पिताकी भक्तिके विलोप होनेसे भयभीत हो इस प्राभृतनामक ग्रन्थकी टीका की है। __ श्रीमान् त्रिभुवनचन्द्र गुरुको नमस्कार करता हूँ जो आत्माके भावरूपी जलको बढ़ानेके लिए चन्द्रमाके तुल्य हैं और कामदेव नामक प्रबल महापर्वतके सैकड़ों टुकड़े करने वाले हैं। ___ इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि जयसेनाचार्य के गुरुका नाम सोमसेन और दादागुरुका नाम वीरसेन था। इन्होंने त्रिभुवनचन्द्र गुरुको भी नमस्कार किया है, पर प्रशस्तिसे यह ज्ञात नहीं होता कि ये त्रिभवनचन्द्र कौन हैं ? इतना स्पष्ट है कि जयसेनाचार्य सेनगणान्वयी हैं। इन्होंने अन्य किसी टीकामें अपना परिचय नहीं दिया है। १. प्रवचनसार, जयसेनटीकाको प्रशस्ति, पच ३, ४, ५ । १४२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्गपरम्परा
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयसेनाचार्यने अपनी टीकाओं में अनेक श्लोक और गाथाएँ अन्य ग्रन्थोंसे उद्धृत की हैं। इन श्लोकों और गाथाओंकी परीक्षा करनेसे जयसेनाचार्यके समयपर प्रकाश पड़ता है। उद्धत समस्त पद्योंकी छानबीन करना तो शक्य नहीं, पर उन्होंने द्रव्यसंग्रह, तत्त्वानुशासन, चारित्रसार, त्रिलोकमार और लोकविभाग प्रभूति ग्रन्थोंका उल्लेख किया है। चारित्रसारके रचयिता वामगडराय हैं और इन्हींके समकालीन आचार्य नेमचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने त्रिलोकसारको ग्चना की है । चामुण्डरायने अपना चामुण्डपुराण शक संवत् ९०० ( ई० सन् ९७८ ) में समाप्त किया है। अतः निश्चित है कि जयसेन ई० सन् १७८ के पश्चात् ही हुए हैं। उनके ममयको यह सीमा पूर्वाद्धं सीमाके रूपमें मानी जा सकती है।
जयसेनने पञ्चास्तिकाधकी टीका ( पृ० ८ ) में वीरनन्दिके 'आचारसार' ( ४९५-९.६ ) के दो पद्य उद्धृत किये हैं। कनाटककविचरितेके अनुसार इन वीरनन्दिने अपने आचारमारपर एक कन्नड़-टीका शक संवत् १०७६ ( ई० सन् ११५४ ) में लिखी है । अतः जयसेन ई० सन् ५. के पश्चात् ही हए हो।
डॉ० ए० एन० उपाध्येने लिखा है कि नयकोतिके शिष्य बालचन्द्रने कुन्दकुन्दके तीनों प्राभतोंपर कन्नड़में टीका लिखी है और उनकी टीकाका मूलाधार जयसेनको टीकाएँ हैं। इनकी टीकाका रचनाकाल ई० सन् की १३वीं शताब्दीका प्रथम चरण है। अतः जयमेनका समय इससे पूर्व ई० सन्की ११वीं शताब्दीका उत्तरार्ध या १२वीं शताब्दीका पूर्वाध माना जा सकता है। रचना-परिचय ___जयसेनाचार्यने कुन्दकुन्दने समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय इन तीनों ग्रन्थोंपर अपनी टीकाएं लिखी हैं। इन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा की गयी टीकासे भिन्न शैलीमें अपनी टीका लिखी है। अमृतचन्द्रने समयसारमें जहाँ ४१५ गाथाओंपर टीकाएँ लिखी हैं, वहाँ जयसेनाचार्यने ४४५ गाथाओंपर । इनकी टीकाओंकी यह प्रमुख विशेषता है कि प्रत्येक गाथाके पदोंका शब्दार्थ पहले स्पष्ट करते हैं, तदनन्तर "अयमत्राभिप्रायः" आदि लिखकर उसका स्पष्टीकरण करते हैं। इनकी टीकाओंका नाम तात्पर्यवृत्ति है। शब्दशः समस्त मूलग्रन्थ टीकामें समाविष्ट है। इसके अतिरिक्त अनेक उद्धरण भी टीकामें दिये हैं। इससे इनकी अध्ययनशीलता व्यक्त होती है। समयसारकी टीकामें सिद्धभक्ति, मूलाचार, परमात्मप्रकाश, गोम्मटसार आदि ग्रन्थोंके उद्धरण उपलब्ध हैं। प्रवचनसारको टीका आरम्भ करते हुए बताया है कि मध्यमरुचिधारी १. प्रवचनसार, प्रस्तावना, पृ० १०४ ।
प्रबुशाचार्ग एवं परम्परापोषकाचार्ग : १४३
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिष्यको समझाने के लिए मुख्य तथा गौणरूपसे अन्तरंगतत्त्व और बाह्यतत्त्व इनके वर्णन करनेके लिए १०१ गाथाओंमें ज्ञानाधिकार कहेंगे। तदनन्तर ११३ गाथाओंमें दर्शनाधिकार और ९७ गाथाओंमें चारित्राधिकारका वर्णन किया जायगा । इस तरह समुदायसे ३११ सूत्रों द्वारा ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप तीन महाधिकार हैं । अथवा टीकाके अभिप्रायसे सम्यकज्ञान, ज्ञेय और चारित्राधिकार चूलिकासहित तीन अधिकार हैं। उत्थानिकामें बताया है-"अथ कश्चिदासन्नभव्यः शिवकूमारनामा स्वसंवित्तिसमुत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुरखामृतविपरीतचतुर्गतिसंसारदुःखभयभीत: समुत्पन्नपरमभेदविज्ञानप्रकाशातिशयः, समस्तदुर्नयकान्तनिराकृतदुराग्रहः, परित्यक्तसमस्तशत्रुमित्रादिपक्षपातेनात्यन्तमध्यस्थो भत्वा धर्मार्थकामेभ्यः सारभूत्तामत्यन्तात्महितामविनश्वरां पञ्चपरमेष्टिप्रासादोत्पन्नां मुक्तिश्रियमुपादेयत्वेन स्वीकुर्वाणः श्रीवर्धमानस्वामितीर्थकरपरमदेवप्रमखान् भगवतः पञ्चपरमेष्ठिनो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणम्य परमचारित्रमाधयामीति प्रतिज्ञा करोति''
निकट भव्य शिवकुमारको सम्बोधित करनेके लिए कुन्दकुन्दाचार्यने यह ग्रन्थ रचा है । वे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य स्वसंवेदनसे उत्पन्न होनेवाले परमानन्दमय एक लक्षणके धारी सुखरूपी अमृतके विपरीत, चार मतिमय संसारकं दुःखोंसे भयभीत थे, जिनमें परम भेदज्ञानके द्वारा अनेकान्तके प्रकाशकका माहात्म्य उत्पन्न हो गया था, जिन्होंने समस्त दुर्मयों के एकान्तका हह दुर कर दिया था, तथा जिन्होंने समस्त शत्रु-मित्र आदिका पक्षपात छोड़कर और अत्यन्त मध्यस्.. होकर धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थों की अपेक्षा अत्यन्त सार और आत्महितकारो एवं अविनापी तथा पञ्चपरमेष्ठीके प्रसादसे उत्पन्न होनेवाले मोक्षलक्ष्मीरूपी पुरुषार्थको अंगीकार किया था। वे श्रीवर्धमानस्वामी तीर्थकर परमदेवको आदि लेकर भगवान् पञ्चपरमेष्ठियोंको द्रव्य और भाव नमस्कार करते हैं।
इम स्थानिकामे यह स्पष्ट है कि क्रिमी जिन्नकूमारको सम्बोधित करने के लिए कुन्दकुन्दाचार्यने यह ग्रन्थ लिखा है। टीकाकार जयसेनने प्रवचनसारके तीनों अधिकारांकी व्याख्या की है। इसी प्रकार समयसार और पञ्चास्तिकायकी तात्पर्यवनि भी लिखी है। इनकी टीवाशैलीकी प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार हैं
१ समस्त पदोंका व्याख्यान । २. आशयका स्पष्टीकरण । ३. व्यायाम निश्चयनयके साथ व्यवहारनयका भी अवलम्बन ।
१. प्रवचनसार, उत्थानिका टीका, शान्ति वीर दिगम्बर जैन प्रकाशन, पृ. ५ ।
१४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्गरम्परा
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
४. व्याख्यानकी पुष्टिके हेतु उद्धरणोंका प्रस्तुतीकरण । ५. पारिभाषिक शब्दोंका स्पष्टीकरण ।
यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती हैं, जिनसे व्यवहार और निश्चय समन्वित इनकी व्याया-शैलीका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकेमा-- “यो स्फटिकमणिविगायो निर्मलोपि जपापुष्पादिरक्तकृष्णश्वंतोपाधिवशेन रक्तकृष्णश्चेत वर्णो भवति, तथाऽयं जीवः स्वभावन पद्धव कस्नम्पोपि गाताहारण गृहस्थापेक्षया यथासम्भवं सरागसम्यवत्वपूर्वकदान-गूजादिशुभानुष्ठानेन, तपोधनापेक्षया तु मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठानेन परिणत: गुभो ज्ञातव्य इति । मिथ्यात्वाविति-प्रमाद-नापाय-योगपञ्चप्रत्ययापाशुभोपयोगेनागभो विज्ञेयः । निश्चयरत्नत्रयात्मकशद्धोपयोगेन परिणतः शुद्धो ज्ञातव्य इति । किंच जीवस्यासंख्येयलोकमात्रपरिणामाः सिद्धान्ते मध्यमप्रतिपत्त्या मिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्दशगुणस्थानरूपेण कथिताः । अथ प्राभूतशास्त्र तान्यन्त्र गणस्थानानि संक्षेपेण शुभाशुभशुद्धोपयोगम्पेण कथितानि।" । अर्थात्, जिम प्रकार स्फटिकमणिका पत्थर निर्मल होनेपर भी जपापुष्पादि रक्त, कृष्ण, श्वेत उपाधिके वासे लाल, काला, श्वेत, रंगरूप परिणमन करता है, उसी तरह यह जीव स्वभावसे शुद्ध-बुद्ध-कस्वभाव होनेपर भी व्यवहारनयाकी अपेक्षा गृहस्थक रागर्माहत सम्यक्त्वपूर्वक दान-पूजा आदि शुभ कायोको करता है तथा मनिधर्म के मूलगुण और उत्तग्गुणोंका अच्छी तरह पालन करता हुआ परिणामांको शुभ करता है। मिथ्यादर्शन भाव अचिरतिभाव, प्रमादभाव, कपायभाव और मन-वचन-काययोगोंके हलम-चलनरूप-भाव ऐसे पाँच कारणरूप अशुभोपयोगमें बर्तन करता हुआ अशुभ जानने योग्य है । तथा निश्चय रत्नत्रय मय शुद्ध उपयोगसे परिणमन करता हुआ शुद्ध जानने योग्य है। आसय यह है कि सिद्धान्त में जीबके असंन्यातलोकमात्र परिणाम मध्यम वर्णनको अपेक्षा मिथ्यादर्शन आदि चौदह गुणस्थानरूपसे कहे गये हैं। इस प्रवचनमार-प्राभृतशास्त्रमें उन्हीं गुणस्थानाको संक्षेपसे शुभ-अशुभ तथा शुद्धोपयोगरूप कहा गया है । इस प्रकार जयसेनाचार्यने व्यवहार और निश्चय दोना ही नयोंका आलम्बन कर कुन्दकुन्दके तीनों प्राभृन-ग्रन्थोंकी व्याख्या को है।
पद्मप्रभ मलधारिदेव आचार्य कुन्दकुन्दनः नियमसारकी तात्पर्यवृनि नामक टीकाके रचयिता पद्मप्रभ मलधारिदेव हैं। इन्होंने अपनेको सुकविजन पयोगमित्र, पञ्चेन्द्रि१. प्रवचनसार, ९वीं गाथाकी रीका ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १४५
2
.
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रसरवजित और गात्रमात्रपरिग्रह बताया है। मलवारि यह विशेषण दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायके मुनियोंके साथ जुड़ा हुआ मिलता है। पदमप्रभने अपनी गुरुपरम्परा या गण-गच्छका उल्लेख नहीं किया है। पर इन्होंने अपनी टीकामें जिन ग्रंथकर्ताओं और ग्रन्थोंका उल्लेख किया है उनकी सहायतासे इनके समयपर विचार किया जा सकता है। इन्होंने अपनी टोकामं समन्तभद्र, पूज्यपाद, योगीन्द्रदेव, विद्यानन्द, गुणभद्र, अमृतचन्द्र , सोमदेव पण्डित, वादिराज, महासेन नामके आचार्योका तथा समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, उपासकाध्ययन, अमृताशीति, मार्गप्रकाश, प्रवचनसारव्याख्या, समयसारव्याख्या, पद्मनन्दिपञ्चविशति, तत्त्वानुगासन, श्रुतबिन्दु नामक ग्रन्थोंका उल्लेख किया है।
मुद्रित नियमसारको तात्पर्यवृत्तिके पृष्ठ ५३-७३ और ९९में "तथाचोक्तम् गुणभद्रस्वामिभिः" कहकर गुणभद्राचार्यके ग्रन्थोंके उद्धरण दिये हैं। गुणभद्रस्वामीने अपना उत्तरपुराण शक संवत् ८२० ( ई० ८९.८ ) में समाप्त किया था। पष्ठ ८३ पर सोमदेवके यशस्तिलकका एक पद्य उद्धृत मिलता है और यशस्तिलककी समाप्ति शक संवत् ८८१ ( ई० सन्० ९५५ ) में हुई है। टीकाके पृ०६० पर, तथा चोक्तं 'वादिराजदेवैः' लिखकर बादिराजका पद्य दिया है । बादिराजने पाश्वनाथातको महि शक सम्वत् १.४७ ( ई० सन् १०२५ ) में की है। अतएव पद्मप्रभ मलधारिदेवका समय ई० सन् १०२५के पश्चात् होना चाहिए ।
पष्ठ ६१ में टीकाकारने चन्द्रकीति मनिके मनकी वन्दना की है और प० १४२ में श्रुतबिन्दु नामक ग्रन्थका एक पद्य उद्धृत किया है। श्रवणबेलगोलाकी मल्लिषेणप्रशस्तिमें इन्हीं चन्द्रकीर्तिमुनिका स्मरण किया गया है और उन्हें श्रुतविन्दुग्नन्थका कर्ता भी बताया गया है
विश्व यश्रत-बिन्दुनाथरुरुधेभावं कुशाग्रीयया बुध्येवाति-महीयसा प्रवचसा बद्ध गणाधीश्वरः । शिष्यान्प्रत्यनुकम्पया कृशमतीनेदं युगीनान्सुगी
स्तं वाचाचत चन्द्रकीति-गणिनं चन्द्राभ-कीत्ति बुधा। यह अभिलेख फाल्गुन कृष्णा तृतीया शक संवत् १०५० ( ई० सन् ११२८ ) का लिखा हआ है। इस दिन मल्लिषेण मुनिने आराधनापूर्वक शरीरत्याग किया था। इसमें गौतमगणधरसे लेकर उस समय तकके अनेक आचार्यों और ग्रंथकर्ताओंकी प्रशस्तियाँ दी गयी हैं । यद्यपि इस अभिलेखमें आचार्योका पूर्वापर सम्बन्ध और गुरु-परम्पराका स्पष्टतः निर्देश नहीं मिलता है, तो भी अनेक १. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या ५४, पत्र ३२ ।
१४६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
नयी सूचनाओके कारण यह प्रशस्ति अधिक उपादेय है । इसमें श्रुतबिन्दुके कर्ता चन्द्रकीनिके बाद कर्मप्रकृति भट्टारक, श्रीपालदेव, उनके शिष्य मतिसागर, प्रशिष्य वादिराजसूरि, हेमसेन, दयापाल, श्रीविजय, कमलभद्र, दयापाल, शान्तिदेव, गुणसेन, अजितसेन और उनके शिष्य मल्लिषेणका उल्लेख आया है | चन्द्रकीति मल्लिाणकी मत्युके २५ वर्ष पहले हुए हों, तो इनका समय वि० संवत्त ११०८के आस-पास आता है । अतएव पद्मप्रभ मलधारिदेवका समय भी ई० सन् ११०३के पूर्व होना चाहिये। ___ नियमसारकी तात्पर्यवृत्तिके प्रारम्भमें और पांचवें अध्यायके अन्तमें वीरनन्दिमुनिकी बन्दना की गयी है। मद्राम प्रान्तके 'पटशिवपुरम्' प्राममें एक स्तम्भपर पश्चिमी चालुक्यराजा त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वरदेवके समयका शक सम्वत् ११०७ का एक अभिलेख है । जबकि उसके माण्डलिक निमननमल्ल, भोगदेवचोल्ल हेजरा नगरपर राज्य कर रहे थे। उसीमें यह लिखा है कि जब यह जैनमन्दिर बनवाया गया था, तब श्री पद्मप्रभमलधारिदेव और उनके गरु श्रीबीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती विद्यमान थे। अतएव इन प्रमाणोंके आधारपर पद्मप्रभ मलधारिदेवका समय ई० सन् की १२वीं शताब्दी सिद्ध होता है | __श्री पण्डित नाथूराम प्रेमीका अनुमान है कि पञ्चविंशतिके कर्ता पद्मनन्दि पद्मप्रभ मलधारिदेवसे अभिन्न हैं, क्योंकि दोनोंके गुरु एक हैं। दूसरी बात यह है कि एकत्वसप्तति प्रकरणके अनेक पद्य नियमसार-टीकामें उद्धृत मिलते हैं, पर यह अनुमानमात्र ही है। मलधारि पनप्रभदेव पद्मनन्दिपञ्चविंशत्तिके कर्ता पद्मनन्दिसे भिन्न ही प्रतीत होते हैं । रचनाएँ ___ नियमसारटीकाके साथ पार्श्वनाथ स्तोत्रकी रचना भी इनके द्वारा की गयी है।
नियमसारको टीकामें नियमसारके विषयका ही स्पष्टीकरण किया गया है। सिद्धान्तशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान होनेके कारण टीकामें आये हुए विषयोंका विशद स्पष्टीकरण किया है। पाश्वनाथस्तोश ___ इस स्तोत्रका दूसरा नाम लक्ष्मीस्तोत्र भी इसमें ९ पद्य हैं। अन्तिम पद्यमें कविने अपनेको तर्क, नाटक, व्याकरण और काग्यके कौशलमें विख्यात कहा है तथा अन्तमें लेखकने अपना नाम भी दिया है। स्तोत्रमें पार्श्वनाथके गुणोंकी चर्चा करते हुए उनके मरुभूति और कमठ भवोंकी ओर भी संकेत किया गया है । स्तोत्रमें पार्श्वनाथकी शरीराकृति, गुण उनकी अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मीका वर्णन किया गया है । इस स्तोत्रमें अनुप्रास और पदोंकी चारुता
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १४७
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
अद्भुत सौन्दयंका सृजन करती है । यहाँ उदाहरणार्थ एकाध पद्य उद्धृत किया जाता है
लक्ष्मीमहस्तुल्यसती सती सती प्रवृद्धकालो विरतो रतो रत्तो। जरारुजाजन्महता हताहता पाच फणं रामगिरी गिरौ गिरौ ।।
x
विवादिताशेषविधिविधिविधिर्वभूव सावहरी हरी हरी। त्रिज्ञानसज्ञानहरो हरोहरो पावं फणे रामगिरी गिरौ गिरी ।।
____ श्रीपद्मप्रभदेवनिर्मितमिदं स्तोत्र जगन्मंगल ॥
आचार्य शुभचन्द्र आचार्य शुभचन्द्रका ज्ञानार्णव या योगप्रदीपनामक ग्रन्थ प्राप्त हैं। ये शुभचन्द्र किस संघ या गण गच्छ थे और इनकी क्या गुरुपरम्परा थी, इसके सन्बन्धमें कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती है । शुभचन्द्र नामके कई आचार्य हुए हैं। एक शुभचन्द्रकी चर्चा श्रवणबेलगोलाके ४३ संख्यक अभिलेखको आयो है, जो गण्डविमक्त मलधारिदेवके शिष्य थे और जिनका स्वर्गवास शक मं० ११८० में हुआ था। द्वितीय शुभचन्द्र देवकीतिके शिष्य थे, जिनका स्वर्गवास वि० सं० १२२० में हआ था और जिनका निर्देश श्रवणबेलगोलाके ३१वें अभिलेखमें आया है।
विश्वभूषण भट्टारकने 'भक्तामरचरित्र' नामक संस्कृतग्रन्थकी उत्थानिका में शुभचन्द्र और भर्तृहरिकी एक लम्बी कथा दी है, जिसके अनुसार शुभचन्द्र तथा भर्तृहरि उज्जयिनीके राजा सिन्धुलके पुत्र थे और सिन्धुलके पैदा होनेके पहले उनके पिता सिंहने मुञ्जको एक मुंजके खेत में पड़े हुए पाकर उसे पाल लिया था । सिंहको बहुत दिनों तक सन्तान न हुई, जिससे वह चिन्तित रहने लगा। एक दिन मन्त्रीने राजाकी चिन्ताको अवगत कर उसे धर्मागवन करनेका परामर्श दिया । राजा सावधान होकर धर्मकृत्योंको सम्पन्न करने लगा।
एक दिन वह रानी और मन्त्रियोंक साथ बन-क्रीड़ाके लिए गया और वहाँ मॅजके खेत में पड़े हुए एक बालकको पाया। उस बालकको देखते ही राजाके हृदयमें प्रेमका संचार हुआ और उसने उठा लिया तथा लाकर रानीको दे दिया रानी उस पुत्रको गोदमे बैठाकर अत्यधिक प्रसन्न हुई। मन्त्रीने राजासे निवेदन किया कि नगरमें चलकर रानीको गढ़गर्भवती घोषित किया जाये और पुत्रो१. पार्श्वनाथस्तोत्र, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पद्य १,५,९ । १४८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्सव मनाया जाये | मन्त्राका सम्मानक अनुसार राजाने पुत्रोत्सव सम्पन्न किया।
सिंहने उस पुत्र का नाम मुञ्ज रखा । मुञ्जने वयस्क होकर थोड़े ही दिनोंमें सकल शास्त्र और कलाओंका अध्ययन कर लिया। तदनन्तर महाराजने रत्नावती नामक कन्याके साथ उसका विवाह कर दिया | कुछ दिनोंके अनन्तर महाराज सिंहको राजीने गर्भ धारण किया और दशम महीने में एक पुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम सिंहल (सिन्धुराज) रखा गया। इस पुत्रका भी जन्मोत्सव मम्पन्न किया गया तथा बयस्क होनेपर मृगावती नामक राजकन्यासे विवाह कर दिया गया। मगावती कुछ दिनाम गर्भवती हुई | शुभ मुहर्तम उसने दो पुत्रोंको जन्म दिया, जिनमें ज्येष्ठका नाम शुभचन्द्र और कनिष्ठका नाम भर्तृहरि रखा गया | बचपन से ही इन बालकोवा चित्त तत्त्वज्ञानकी ओर विशेष रूपसे आकृष्ट था। अतएव वय प्राप्त होनेपर तत्त्वज्ञान में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली । एक दिन मेघोंके पटलको परिवर्तित होते हुए देखकर सिंहको वैराग्य हो गया और उसने मुज एवं सिंहलको राजनीतिसम्वन्धी शिक्षा देकर जिनदीक्षा ग्रहण कर लो । राजा मुज अपने भाईके साथ सुखपूर्वक राज्य करने लगा । एक दिन मुञ्ज वनक्रीड़ासे लौट रहा था कि उसने मार्गमें एक तेलीको कन्धे पर कुदाल रक्खे हुए खड़े देखा, उसे गर्वोन्मत्त देखकर मुझने पूछा- इस तरह क्यों खड़े हो ? उसने कहा मैंने एक अपूर्व विद्या सिद्ध की है, जिसके प्रभावसे मुलम इतनी शक्ति है कि मुझे कोई परास्त नहीं कर सकता । यदि आपको विश्वास न हो, तो अपने किसी सामन्तको मेरे इस लौहदण्डको उखाड़नेका आदेश दीजिए। इतना कहकर उसने लोहदण्ड भूमिमें गाड़ दिया । संकेत पाते ही सभी सामन्त उस लौहृदण्डको उखाड़ने में प्रवृत्त हुए, पर किसीसे भी न उखड़ सका। सामन्तौकी इस असमर्थताको देखकर शुभचन्द्र और भर्तृहरिने मजसे निवेदन किया, कि यदि आदेश हो, तो हम दोनों इस लोहदण्डको उखाड़ सकते हैं। मुञ्जने उन दोनों बालकोंको समझाया, पर जब अधिक आग्रह देखा तो उसने लोहदण्ड उखाड़नेका आदेश दे दिया । उन दोनोंने चोटोके बालोंका फन्दा लगाकर देखते-देखते एक ही झटके में लौहदण्डको निकाल फेंका। चारों ओरसे धन्य-धन्यकी ध्वनि गूज उठी । तली निर्मद होकर अपने घर चला गया।
बालकोंके इस अपूर्व बलको देखकर मुञ्ज आश्चर्यचकित हो गया और वह सोचने लगा कि ये बालक अपूर्व शक्तिशाली हैं और जब ये बड़े हो जायेंगे, तो किसी भी क्षण मुझे राज्य-सिंहासनसे च्युत कर देंगे, अताएब इनको किसी उपायसे मृत्युके मुखमें पहुँचा देना ही राजनीतिज्ञता है। उसने मन्त्रीको बुलाकर अपने विचार प्रकट किये और कहा कि शीघ्र ही इन दोनोंका बध हो जाना
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १४९
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
चाहिए । मन्त्रीने राजाको पूर्णतया समझानेका प्रयास किया, पर मुजको मन्त्रीकी बातें अच्छी नहीं लगीं । फलतः मन्त्री राजाज्ञा स्वीकार कर चला गया |
मन्त्रीने एकान्तमें बैठकर उहापोह किया और अन्तमें वह इस निष्कर्षपर पहुँचा कि कुमारों को इस समाचारसे अवगत करा देना चाहिए, अन्यथा बड़ा भारी अनर्थ हो जायगा । उसने शुभचन्द्र और भर्तृहरिको एकान्त में बुलाया और राजा चि सुये। साथ ही यह भी कहा कि आप लोग उज्जयिनी छोड़कर चले जाइये, अन्यथा प्राणरक्षा नहीं हो सकेगी ।
राजकुमार अपने पिता सिंहलके पास गये और राजा मुञ्जकी गुप्त मन्त्रणा प्रकट कर दी । सिंहलको मुञ्जकी नीचतापर बड़ा क्रोध आया और उसने पुत्रोंसे कहा मुञ्ज द्वारा षड्यन्त्र पूरा करने के पहले ही तुम उसे यमराजके यहाँ पहुँचा दो | कुमारोंने बहुत विचार किया और वे संसारसे विरक्त हो बनकी ओर चल पड़े |
महामति शुभचन्द्रने किसी वनमें जाकर मुनिराजके समक्ष दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली और तेरह प्रकारके चारित्रका पालन करते हुए घोर तपश्चरण करने लगे । पर भर्तृहरि एक कौल तपस्वीके निकट जाकर उसकी सेवा में सलग्न हो गया । उसने जटाएँ बढ़ा लीं, तनमें भस्म लगा ली, कमंडलु, त्रिमटा लेकर, कन्दमूल भक्षणद्वारा उदरपोषण करने लगा । बारह वर्ष तक भर्तृहरिने अनेक विद्याओंकी साधना की । उसने योगी द्वारा शतविद्या और रसतुम्बी प्राप्त की। इस रसके संसगंले ताँबा सुवणं हो जाता था । भर्तृहरिने स्वतन्त्र स्थानमें रसतुम्बीके प्रभाव से अपना महत्त्व प्रकट किया ।
एक दिन भर्तृहरिको चिन्ता हुई कि उसका भाई शुभचन्द्र किस स्थितिमें है । अत: उसने अपने एक शिष्यको उसका समाचार जानने के लिए भेजा। शिष्य जंगलों में घूमता हुआ उस स्थान पर आया, जहाँ शुभचन्द्र तपस्या कर रहे थे । देखा कि उनके शरीरपर अंगुल भर वस्त्र नहीं है और न कमण्डलुके अतिरिक्त अन्य कुछ भी परिग्रह ही है। शिष्य दो दिन निवास कर वहाँसे लौट आया और भर्तृहरिको समस्त समाचार आकर सुना दिया । भर्तृहरिने अपनी तुंबीका आधा रस दूसरी तुंबी में निकालकर शिष्यको दिया और कहा कि इसे ले जाकर शुभचन्द्रको दे आओ, जिससे उसकी दरिद्रता दूर हो जाय और बह सुखपूर्वक अपना जीवन यापन करे। जब शिष्य रसतुंबी लेकर मुनिराज शुभचन्द्रके समक्ष पहुँचा, तो उन्होंने उसे पत्थरकी शिलापर डलवा दिया ।
शिष्यने वापस लौटकर भर्तृहरिको रसतु बीकी घटना सुनायी, तो वे स्वयं भाईकी ममतावश शेष रसतु बीको लेकर शुभचन्द्रके निकट आये। शुभचन्द्रने
१५० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
शेष रसको भी पाषाणशिला पर डलवा दिया जिससे भतृहरिको बहुत दुःख हुआ । शुभचन्द्रने भर्तृहरिको समझाते हुए कहा - भाई, यदि सोना बनाना ही अभीष्ट या, तो क्यों घर छोड़ा, घरमें क्या सोना-चांदी, मणिमाणिक्यकी कमी थी । इन वस्तुओंकी प्राप्ति तो गृहस्थीमं सुलभ थीं । अतः सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिके लिए इतना प्रयास करना व्यर्थ है ।
शुभचन्द्रके उपदेशसे भर्तृहरि भी दीक्षित हो गया । भर्तृहरिको मुनिमार्गमें दृढ़ करने और सच्चे योगका ज्ञान करानेके लिए शुभचन्द्रने योगप्रदीप अथवा ज्ञानार्णवकी रचना की ।
उक्त कथामें कितना तथ्यांश है, यह विचारणीय है । कथाके उत्तरार्ध में कालिदास, वररुचि, धनञ्जय और मानतुरंगसूरिकी समकालीनता बतलायी गयी है | अतः इसमें ऐतिहासिक तथ्योंका अभाव दिखलायी पड़ता है |
'ज्ञानार्णव' के प्रारम्भ में समन्तभद्र, देवनन्दि, भट्टाकलंक और जिनसेनका स्मरण किया है। इसमें सबसे अन्तिम जिनसेनस्वामी हैं, जिन्होंने जयधवला टीकाका शेषभाग वि० सं० ८९४ में समाप्त किया था। इससे यह स्पष्ट है कि ज्ञानार्णवकी रचना ही सन् ८३७ के पश्चात् हुई है ।
अब विचार यह करना है कि वस्तुतः ज्ञानार्णवके रचयिता शुभचन्द्राचार्य - का समय क्या है ? ज्ञानार्णवके गुण-दोषविचारप्रकरण में निम्नलिखित तीन पद्य 'उक्तञ्च ग्रन्थान्तरे' कहकर उद्धृत किये गये हैं
ज्ञानहीने क्रिया पुसि परं नारभते फलम् । तरोश्छायेव किं लभ्या फलश्रीर्नष्टदृष्टिभिः ॥ ज्ञानं पङ्ग क्रिया नान्धे निःश्रद्धे नार्थकृद्वयम् । ततो ज्ञानं क्रिया श्रद्धा श्रयं तत्पदकारणम् । हृतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हृता चाज्ञानिनः क्रिया । धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पङ्गुकः ॥
ये तीनों श्लोक यशस्तिलकचम्पूके छठे आश्वासमें ज्यों-के-त्यों रूपमें उपलब्ध होते हैं । इनमें प्रथम दो पद्योंके रचयिता तो यशस्तिलकके कर्ता सोमदेव हैं और तृतीय पद्य 'उक्तञ्च' कहकर उद्धृत किया गया है। यह तीसरा पद्य कुछ पाठभेदके साथ अकलंकदेवके राजवार्तिकमें भी पाया जाता है । यशस्तिलककी रचना वि० स० १०१६ ( ई० सन् ९५९) में हुई है । इसलिए यह सिद्ध किं हुआ ज्ञानार्णव ई० सन् ९५९ के पश्चात् लिखा गया है। ज्ञानर्णवमें पुरुषार्थसिद्धघु१. ज्ञानार्णव, रामचन्द्र शास्त्रमाला, तृतीय संस्करण, सन् १९६१, सर्ग ४, पद्य २७
के भागे ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १५१
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
गायका भी पद्य मिलता है। अत: शुभचन्द्रका समय अमतचन्द्राचार्यके पश्चात् है।
'ज्ञानार्णव'की एक प्राचीन प्रति पाटणके 'रवेतरवस' नामक श्वेताम्बर जैन भण्डारमें विद्यमान है, जिसका लेखनकाल वैशाख शुक्ला दशमी वि०सं० १९९४ है। श्री नाथूरामजी प्रेमीने इस पाण्डुलिपिकी प्रशस्तिको उद्धत किया है। प्रशस्तिकी महत्त्वपूर्ण पंक्तियां निम्नलिखित हैं
"इत्ति ज्ञानाचे योगनदीपाधिकारे पंडिताचार्यश्रीशभचन्द्रविरचिते मोक्षप्रकरणम् । अस्यां श्रीमनपूर्या श्रीमदर्हदेवचरणयामलचंचरीक: सुजनजनहृदयपरमानन्दवन्दलीकन्दः श्रीमाथूरान्वयसमुद्रचन्द्रायमानो भन्यात्मा परमश्रावकः श्रीनेमिचन्द्रो नामा भूतः । तस्याखिल-विज्ञानकलाकौशल-शालिनी सती पतिव्रतादिगुणगणालंकारभूषितशरीरा निजमनोवृत्तिरिवाव्यभिचारिणी स्वर्णानाम धर्मपत्नी संजाता 1 अथ तयोः समासादितधर्मार्थकामफलयो: स्वकुलकुमुदवनचन्द्रलेखा निजवंश-वैजयन्ती सर्वलक्षणालंकृतशरीरा जाहिणि-नाम-पुत्रिका समुत्पन्ना ।"
रागादिनम्लाय शुभचन्द्राय नाभिने ।
लिखाप्य पुस्तकं दमिदं ज्ञानार्णवाभिधम् ।। "सं० १२८४ बर्षे बैशाखसुदी १० शुक्र गोमंडले दिगम्बरराजकुल-सहस्रकोत्तिः तस्यार्थे पं० केशरिसुतवीसलेन लिखितमिति' ।
अर्थात् नृपुरीमें अरहन्त भगवान्के चरण-कमलोंका भ्रमर, सज्जनोंके हृदयको आनन्द देनेवाला, माथुरसंघरूप समुद्रको उल्लसित करनेवाला भव्यात्मा श्रीनेमचन्द्रनामक परमश्रावक हुआ, जिसकी पत्नीका नाम स्वर्णा था, जो अखिल विज्ञान-कलाओंमें कुशल, सती, पातिव्रत्यादि गुणोंसे भूषित और परम शीलवती थी। धर्म, अर्थ और कामको सेवन करनेवाले इन दोनोंके जाहिणी नामक पुत्री हुई, जो अपने कुलरूप कुमुदवनकी चन्द्ररेखा, निजबंशको वैजयन्ती और सर्वलक्षणासे सुशोभित थी।
इसके पश्चात् इस दम्पत्तिके राम और लक्ष्मणके समान गोकर्ण और श्रीचन्द्र नाम दो सुन्दर गुणी और भव्य पुत्र उत्पन्न हुए । अनन्तर नेमिचन्द्रकी वह पुत्री जाहिणी संसारकी विचित्रता और नरजन्मको निष्फलताको जानकर आत्मशुद्धिके लिए प्रेरित हुई। उसने मुनियोंके चरणोंके निकट आर्यिकाके व्रत ग्रहण कर लिए और मनकी शुद्धिसे अखण्डित रत्नत्रयको स्वीकार किया। उस विरक्ताने युवावस्थामें ऐसा कठिन तपश्चरण किया, जिससे सभी उसकी प्रशंसा १. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृ० ४४३-४४४ पर उद्धत । १५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
करने लगे । इस जाति आर्यिका
के क्षपके लिए यह जानाति नामक पुस्तक ध्यानअध्ययनशाली, तप और शास्त्र के निधान, तत्त्वोंके ज्ञाता और रागादिरिपुओंको पराजित करनेवाले मल्ल जैसे शुभचन्द्र योगीको लिखाकर दी
वैशाख सुदी दशमी शुक्रवार वि०सं० १२८४ को गोमण्डल (काठियावाड़) में दिगम्बर राजकुल ( भट्टारक ) सहस्रकीतिके लिए पं० केसरीके पुत्र बीसलने लिखी ।
प्रशस्ति के अध्ययनसे ऐसा ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ में लिपिकर्ताओंकी दो प्रशस्तियाँ है । प्रथम प्रशस्ति में तो लिपिकर्ताका नाम और लिपि करने का समय नहीं दिया है । केवल लिपि करानेवाली जाहिणीका परिचय और जिन्हें प्रति भेंट की गयी है उनका नाम दिया है। श्री प्रेमोजीका अनुमान है कि आर्यिका जाहिणीने जिस लेखकसे उक्त प्रति लिखायी होगी उसका नाम और समय भी अन्तमें अवश्य दिया गया होगा । परन्तु दूसरे लेखकने उक्त पहली प्रतिका वह अंश अनावश्यक समझकर छोड़ दिया होगा और अपना नाम एवं समय अन्त में जोड़ दिया होगा । इस दूसरी प्रतिके लेखक पण्डित केसरीके पुत्र बीसल हैं और उन्होंने गोमण्डलमें सहस्रकीर्तिके लिए इसे लिखा था, जबकि पहली प्रति नपुरी में शुभचन्द्र योगी के लिए लिखाकर दी गयी थी ।
दुसरो प्रतिका लेखनकाल वि० १२८४ है, तब पहली प्रतिका इससे पहले लेखनकाल रहा होगा । श्री प्रेमीजीने यह भी निष्कर्ष निकाला है कि प्रतिका लेखनस्थान नृपुरी ग्वालियरका नरवर सम्भव है । नृपुरसे नरपुर, नरपुरसे नरउर और नरउरसे नरवर का होना सम्भव है । अतः पाटनकी इस प्रतिके आधार पर ज्ञानार्णवकी रचना वि०सं० १२८४के पूर्व अवश्य हुई है । अतएव सोमदेव के पश्चात् और हेमचन्द्रके पूर्व शुभचन्द्रका समय होना चाहिये । हेमचन्द्रके योगशास्त्रपर ज्ञानार्णवका पर्याप्त प्रभाव दिखलायी पड़ता है। कई पद्य तो प्रायः ज्यों-के-त्यों मिलते-जुलते हैं, दो चार शब्दों में ही भिन्नता है । अतएव हमारा अनुमान है कि शुभचन्द्रका समय वि०सं० की ११वीं शतो होना चाहिये | इससे भोज और मुजकी समकालीनता भी घटित हो जाती है । रचना - परिचय
शुभचन्द्रकी एकमात्र रचना "ज्ञानार्णव" उपलब्ध है । महाकाव्यके समान लेखकने इसके विषयका भी सर्गों में विभाजन किया है । समस्त ग्रन्थ ४२ सर्गों में विभक्त है | ग्रन्थरचयिताने अन्त में इस ग्रन्थका महत्त्व अंकित किया हैजिनपत्तिसूत्रात्सारमुद्धृत्य किञ्चित् स्वमतिविभवयोग्यं ध्यानशास्त्रं प्रणीतम् ।
इति
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १५३
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
विबुधमुनिमनीषाम्भोधिचन्द्रायमाणं ___चरतु भुवि विभूत्यै यावदद्रीन्द्र चन्द्र: ।। ज्ञानार्णवस्य माहात्म्यं चिते को वेत्ति तत्त्वत्तः ।
यज्ज्ञानात्तीयते भव्यर्दुस्तरोऽपि भवार्णवः' ॥ प्रथम सर्गमें ४९ पद्य हैं और महाकब्धिके समान सज्जन-प्रशसा की भयों है। आरम्भके सात पद्य नमस्कारात्मक हैं। ८वें पद्यमें सत्पुरुषोंकी वाणीकी प्रशंसा की है...
प्रबोधाय विवेकाय हिताय प्रशमाय च।
सम्यकतत्त्वोपदेशाय सत्तां सूक्तिः प्रवर्तते ।। अर्थात् सत्पुरुषोंकी उत्तम वाणी जीवोंके प्रकृष्टज्ञान, विवेक, हित, प्रशमता और सम्यक प्रकारसे तत्त्वके उपदेश देने में समर्थ होती है। इसी वाणीसे भेदविज्ञान, ध्यान, तप आदिकी सिद्धि होती है। कविने समन्तभद्र, भट्टाकलंक आदिका स्मरण भी किया है। उसने कुशास्त्रके पढ़नेका निषेध किया है और बतलाया है कि मिथ्यात्वका सम्बद्धन करनेवाला शास्त्र स्वाध्याय करने योग्य नहीं है। जिस शास्त्रके अध्ययन करनेसे राग-द्वेष, मोह, क्षीण हो, वही शास्त्र उपादेय है। यह आत्मा महामोहसे कलंकी और मलीन है। अत: जिससे यह शुद्ध हो, वही अपना हित है, वही अपना घर है, वहीं परम ज्योतिका प्रकाश है। इस जगतको भयानक कालरूपी सर्पसे शंकित देखकर मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरणके समूहको छोड़ निजस्वरूपके ध्यानमें लवलीन हो जानेवाले धन्य हैं। जिन्होंने इन्द्रियोंकी अधीनताका त्याग कर दिया है, वे ही वास्तविक सुखको प्राप्त होते हैं। संसार-भ्रमणसे विभ्रान्त और मोहरूपी निद्रासे ग्रस्त व्यक्ति अपने बास्तविक ज्ञानको भूल जाता है । जो सत्पुरुष ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म, मिथ्याज्ञान तथा कषायके विषसे मच्छित नहीं हैं, वे ही शान्तभावको प्राप्त होते हैं। अनादिकालसे लगी हुई यह कर्म-कालिमा बड़े पुरुषार्थसे दूर की जाती है। अत: यह कर्मकालुष्य जिस उपाय द्वारा दूर किया जा सके, उस उपायका अवलम्बन लेना चाहिये । मनुष्य-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है तथा साधन-सामग्री और भी दुर्लभ है, अतएव विचारशील व्यक्तिको रत्नत्रय और रागद्वेषाभावको प्राप्त करनेका प्रयास करना चाहिये।
द्वितीय सर्गमें १२ भावनाओंका वर्णन आया है। इसमें ७ + ४७ + १९ + १७ + ११ + १२ + १३ +९+ १२ +९+ २३ + ७ + १३ + ३ = २०३ पद्य हैं। १. ज्ञानार्णव, रायचन्द्र शास्त्रमाला, द्वितीय संस्करण, ४२१८७-८८ । २. वहीं, १३८ । १५४ : तीर्घकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनित्य भावनामें ४७ पद्य हैं, इसमें इन्द्रियजन्य सुख और सांसारिकविभूतिको क्षणविध्वंसी बतलाया है। यह शरीर रोगोंका घर है, यौवन बुढ़ापेसे युक्त है, जीवन विनाशशील है। संसारमें जो भी वैभव प्राप्त हुआ है, वह पुण्यके उदयसे है। पुण्य क्षीण होनेपर सारी सम्पत्ति और सुख विलीन हो जाते हैं। जीव अज्ञानत्तवश ही संसारके सुखोंको वास्तविक समझता है, जो इस क्षणिक जीवनको प्राप्त कर अहंकार करता है या इसके निमित्त विविध प्रकारकी मामग्रीका संचय करता है, वह अन्ध्र व्यक्तिके समान संसारसे उत्तीर्ण होनेका मार्ग प्राप्त नहीं कर पाता है। जिस प्रकार संध्या समय नाना देशोंसे आकर पक्षी एक ही वृक्ष पर एकत्र होते हैं और प्रातःकाल होते ही वे यथास्थान चल जाते है, उसी प्रकार आयुके सद्भावमें पूण्ययोगसे सभो कुटुम्बी एक साथ रहते हैं और आयुके समाप्त होते ही विभिन्न योनियोंमें जन्म ग्रहण करते हैं। प्रातःकालके समय जिस घर में आनन्दोत्साहके साथ सुन्दर मांगलिक गीत गाये जाते हैं, मध्याह्नके समय सी भरमें दुःपो मार रोग सुनाई पड़ता है। प्रभातकालके समय जहाँ राज्याभिषेककी शोभा देखी जाती है, उसी दिन उस राजाकी चितासे धुआं निकलता हुआ भी दिखलाई पड़ता है। यह संसारकी विचित्रता है । इस प्रकार संसारको अनित्यताका चित्रण करता हुआ कवि कहता है--
गमननगरकल्पं सङ्गम वल्लभानाम्
जलदपटलतुल्यं यौवन वा धनं वा । सुजनसुतशरीरादीनि विद्युच्चलानि
क्षणिकमिति समस्तं विद्धि संसारवृत्तम् ।। अर्थात्, प्रिय वल्लभाओंका सङ्गम आकाशमें देवोंके द्वारा रचित नगरके समान क्षणविध्वंसी है। यौवन और धन जलदपटलके समान विनाशशील हैं। स्वजन, परिवारके लोग, पुत्र, शरीरादिक विद्यतके समान चञ्चल हैं। इस प्रकार इस जगतकी अवस्था अनित्य है, जो इसमें नित्यबुद्धि करता है, वह भ्रममें है।
इस सर्गकी द्वितीय भावना अशरणभावना है। इसमें १९ पद्य हैं। मरते समय इस जीवका कोई भी शरण नहीं है। जिस प्रकार सिंहके पजेमें फंसे हुए हिरणको कोई भी नहीं बचा सकता है, उसी प्रकार मृत्युसे कोई रक्षा करने वाला नहीं है। अनादिकालसे बड़े-बड़े शक्तिशाली शलाकापुरुष भी कालकलित हुए हैं, तब साधारण व्यक्तियोंकी बात ही क्या ? मृत्युके लिए न कोई बाल है, न कोई वृद्ध है और न कोई युवा है। वह सभीको समान रूपसे नष्ट करती है। अत: जो इस असार संसारमें रहकर चिरन्तन जीवनकी आकांक्षा १. ज्ञानार्णव, सर्ग २, अनित्यभावना, पद्म ४७ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १५५
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
करता है, वह व्यक्ति भ्रममें है | रुद्र, दिग्गज, देव, दैत्य, विद्याधर, जलदेवता, गह, व्यन्तर, दिकपाल, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, धरणीन्द्र, चक्रवर्ती, पवनदेव, सर्यादि, ज्योतिषी देव, बलिष्ट देहधारी सब मिलकर भी मत्युसे एक क्षण भी रक्षा नहीं कर सकते। पाताललोक, ब्रह्मलोक, इन्द्रभवन, समुद्रतट, वन-पर्वत आदि किसी भी स्थानम मृत्युसे रक्षा नहीं हो सकती है।
सर-मावनामें १० पर हैं : हाल में पारों गनिगोंने प्राणियोंके दुःखोंका बर्णन किया गया है । नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चारों गतियोंमेसे किसी भी गतिमें सुख-शान्ति नहीं है। यह जीव संसारमें अनादिकालसे प्रस, स्थावर योनियोंमें परिभ्रमण करता हुआ समस्त जीवोंके साथ पिता, पुत्र, भ्राता, माता, पुत्री आदि सम्बन्ध अनेक बार प्राप्त करते हैं। ऐसा कोई भी संसारका प्राणी नहीं है, जिसके साथ हमारा कभी-न-कभीका सम्बन्ध न हुआ हो। इस संसारमें प्राणीको माता मरकर पुत्री हो जाती है और वहन मरकर स्त्री हो जाती है, फिर वही स्त्रो मरकर पुत्री हो जाती है । इसी प्रकार पिता मरकर पुत्र हो जाता है। फिर वही मरकर पुत्रका पुत्र हो जाता है । इस प्रकार इस संसारमें रागभाबके कारण विभिन्न सम्बन्धोंका सजन होता है। संसारका कारण अज्ञानभाव है । अज्ञानभावसे परद्रव्योंमें मोह तथा राग-द्वेषकी प्रवत्ति होती है। राग-द्वेषकी प्रवृत्तिसे कर्मबन्ध होता है और कार्मबन्धका फल चारों गतियोंमें परिभ्रमण करना है। यहाँ कार्य और कारण दोनोंको ही संसार बताया है।
एकल्ल-भावनामें ११ पद्य हैं। निश्चयसे तो आत्मा अनन्तज्ञानादिस्वरूप एक ही है, पर संसारमें जो अनेक अवस्थाएँ होती हैं, वे कर्मके निमित्तसे हैं। उनमें भी आप अकेला ही है, दूसरा कोई साथी नहीं।
अन्यत्व-भावनामें १२ पद्य हैं। यह आत्मा अनादिकालसे परपदार्थोंको अपना मानकर उनमें रमता है। इसी कारणसे संसारमें भ्रमण किया करता है। अतएव परभावोंसे भिन्न अपने चैतन्यभावोंमें लीन होकर मुक्तिके प्राप्त करनेका प्रयास करना चाहिये। इस लोकमें समस्त द्रव्य अपनी-अपनी सत्ताको लिये भिन्न-भिन्न हैं। कोई भी किसीमें मिलता नहीं है और परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावसे कुछ कार्य होता है। उसके भ्रमसे यह प्राणी परमें अहंकार, ममकार करता है। अतएव अपने स्वरूपको अन्य पदार्थासे भिन्न समझकर निजरूपका अनुभव करने में प्रवृत्त होना श्रेयस्कर है ।
अशुचि-भावनामें १३ पद्य हैं । आत्मा निर्मल है, अमूर्तिक है । अतएव उसमें किसी प्रकारका मल नहीं लगता है। पर कर्मोके निमित्तसे जो इसके शरीरका सम्बन्ध है उसे यह अज्ञानसे अपना मानकर अपनेको मलरूप समझता है। यह १५६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माघार्यपरम्परा
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
शरीर सभी प्रकारसे अपवित्रताका घर है कर्पूर, केशर, अगर, कस्तूरी, हरि चन्दनादि सुन्दर पदार्थों को भी यह शरीर संसर्गमात्रसे अशुद्ध कर देता है । अतएव इस शरीरको अशुद्धिका भण्डार समझकर निजात्माकी प्रतीति करना चाहिये ।
आस्रव-भावना ९ पद्म हैं। बताया है कि यह आत्मा शुद्ध निश्चयनयको दृष्टिसे तो आस्रवमे रहित केवलज्ञानरूप है, तो भी अनादिकर्म के सम्वन्धसे मिथ्यात्वादिपरिणामरूप परिणमता है। अतएव नवीन कर्मोंका आवर्ता है | जब उन मिथ्यात्वादिपरिणामोंसे निवृत्ति प्राप्त कर अपने स्वरूपका ध्यान करे, तब कर्मास्त्रोंसे रहित हो मुक्तिकी ओर अग्रसर होता है ।
संवर-भावना १२ पद्य है । समस्त कल्पनाओंके जालको छोड़कर अपने स्वरूपमें मनको निश्चय करना ही संवर-भावना है। यह आत्मा अनादिकाल से अपने स्वरूपको भूल रही है, इस कारण आम्रवरूप भावोंसे कर्मको बाँधती हैं और जब यह अपने स्वरूपको जानकर उसमें लीन होती है, तब यह संवररूप होकर आगामी कर्मबन्धको रोकती है और पूर्व कर्मोंकी निर्जरा होनेपर मुक्त हो जाती है । मंदर वाहाकारण समिति, गुप्ति, धर्मानुप्रेक्षा, परिषद्जयोंका अभ्यास करना है ।
निर्जरा - भावना में पद्य है। इसमें आत्मा और कर्मका सम्बन्ध अनादिकालसे है । काललब्धि के निमित्तसे यह आत्मा जब अपने स्वरूपको सम्हाल तपश्चरण करके ध्यान में लीन हो जाती है तब मंचित कर्मोंकी निर्जरा होती है। और जब यह आगामी नये कर्म न बांधे और पुराने कर्मोकी निर्जरा करे तब मोक्षको प्राप्ति होती है ।
P
धर्म-भावना २३ पद्य हैं। इसमें आचार्यने धर्मके स्वरूपका और उसके महत्त्वका प्रतिपादन किया है । धर्म चार प्रकारका है - १. वस्तुस्वभावस्वरूप, २. उत्तमक्षमादिदशरूप ३ रत्नत्रयरूप और ४. दयामयरूप | निश्चय-व्यवहारनयसे साधन किया हुआ यह धर्म एकरूप तथा अनेकरूप सकता है । व्यवहारनयकी प्रधानतासे धर्मका स्वरूप, महिमा और फल आदिका भी निरूपण किया है ।
लोक-भावना में ७ पद्य हैं। यह लोक जीवादिक द्रव्योंकी रचना है । जो अपने-अपने स्वभावको लिये हुए भिन्न-भिन्न रूपमें रहते हैं, उनमें एक आत्मद्रव्य भी है। उसका यथार्थस्वरूप रत्नत्रय है । अतएव जो आत्मतत्त्वकी साधना करना चाहता है उसे समस्त द्रव्योंके यथार्थस्वरूपको समझकर लोकके चिन्तन द्वारा आत्मजागरण करना चाहिये ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १५७
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
बोधिदुर्लभ भावना में १३ पद्य है । इस भावनामें बोधि - रत्नत्रयकी प्राप्ति दुर्लभ बतायी है । अपने निज स्वरूपको जान लेनेपर ही मोक्षकी प्राप्ति सुलभ होती है । वस्तुतः बोधिको प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है । बताया है— सुलर्भामह समस्तं वस्तुजातं जगत्यामुरगसुरनरेन्द्रः प्रार्थितं चाधिपत्यम् । कुलवलसुभगत्वोद्दामरामादि चान्यत् किमुत तदिदमेकं दुर्लभं बोधिरत्नम् ॥
उपसंहारमें इन भावनाओंके अभ्यासका महत्त्व बतलाया गया है ।
तृतीय सर्ग में ध्यानका स्वरूप वर्णित है । इस सर्ग में ३६ पद्य हैं। इस संसारमें मनुष्यपर्यायका प्राप्त होना काकतालीयन्यायके समान दुर्लभ है । जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थीका अविरोध भावसे सेवन कर मोक्षपुरुषार्थ की ओर प्रवृत होता है, वही आत्माकी सिद्धि करता है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र ही मुक्तिके कारण हैं तथा ध्यान रत्नत्रयकी सिद्धिका सबल हेतु है । कमका क्षय ध्यानके बिना सम्भव नहीं है । चित्तकी चञ्चलता ध्यान के द्वारा ही दूर की जा सकती है और उपयोगको स्थिर किया जा सकता है। मोहका त्याग ही आत्माके स्वस्थ होनेका कारण है । अज्ञानरूपी महानिद्रा, ध्यानरूपी अमृतके प्राप्त होनेसे ही दूर होती है। कामभोगोंकी आसक्तिको दूर करनेका साधन भी ध्यान ही है । अध्यात्मशास्त्रकी अपेक्षा आत्माके तीन प्रकारके परिणाम होते हैं— शुभ, अशुभ और शुद्ध ध्यानके द्वारा ही इन तीनों प्रकारके परिणामोंमेंसे शुभ और शुद्ध परिणामों की प्राप्ति की जाती है ।
चतुर्थ सर्ग में भी ध्यानके स्वरूपका वर्णन आया है। इसमें ६२ पद्य हैं । ध्यानके चार भेद बतलाये हैं-- आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । ध्यान करने वाला ध्याता, ध्यान, ध्यानके दर्शन, ज्ञान, चारित्र सहित समस्त अंग, ध्येय तथा ध्येयके गुण-दोष, ध्यानके नाम, ध्यानका समय और ध्यानके फलका वर्णन किया गया है । ध्याताके स्वरूपका विवेचन करते हुए बताया है, जो जितेन्द्रिय है, अप्रमादी है, कष्टसहिष्णु है, संसारसे विरक्त है, क्षोभरहित है, शान्त है, ऐसा व्यक्ति ही ध्याता हो सकता है । जो मिथ्यदृष्टि है, संसारके विषयों में आसक्त हैं, वे ध्याता नहीं हो सकते । ध्याताको कान्दर्षी आदि पाँच भावनाओंका भी त्याग करना चाहिये - १. कान्दर्पी ( कामचेष्टा ) २. कैल्विषी ( क्लेशकारिणी ) ३. अभियोगिकी ( युद्धभावना ) ४. आसुरी ( सर्वभक्षिणी ) और ५. सम्मोहिनी ( कुटुम्बमोहिनी ) पापरूप इन पांचों भावनाओंका त्याग करना योग्य १. ज्ञानार्णव, द्वितीय सर्ग, बोषिदुर्लभ भावना, पद्य १३ ।
१५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
'
1
है । ध्याताको हास्य, कौतूहल, कुटिलता, व्यर्थ बकवाद आदि क्रियाओंका भी त्याग करना चाहिये | ध्यानका आशय मनको एकाग्र करना है, चित्तकी चंचलताको रोकना है । जो व्यक्ति ध्यान करनेकी क्षमता नहीं रखते, वे अपनी कर्म कालिमाको दूर करने में असमर्थ रहते हैं ।
पञ्चम सर्ग २९ पद्य हैं। इसमें ध्यान करने वाले धोगीश्वरोंकी प्रशंसा की गयी है ।
षष्ट सर्ग में ५९ प हैं और इसमें सम्यग्दर्शनका वर्णन आता है । सभ्यदर्शन पापरूपी वृक्षको काटने के लिए कुठार है और पवित्र तीर्थोंमें यही प्रधान है । इसमें सप्ततत्त्व, षट्द्रव्य, नवपदार्थ, पञ्चास्तिकाय आदिका वर्णन
आया है
सप्तम सर्गमें २३ पद्य हैं और सम्यग्ज्ञानका वर्णन है । अष्टम सर्गमें ५९ पद्य और अहिंसा महाव्रतका वर्णन आया है । इसमें सामायिक, छेदोपस्थापना परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथास्यातिचारित्रका निर्देश आया है । पञ्चमहाव्रत, पञ्चरामिति और तीन गुप्ति इस प्रकार तेरह प्रकारके चारित्रका कथन किया है। संयमका आधार अहिंसा महावत है। इसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है—
असे जगन्माता सेवानन्दपद्धतिः
अहिंसेच गतिः साध्वी श्री रहिसैव शाश्वती ॥
अर्थात् — अहिंसा ही तो जगतकी माता है, क्योंकि समस्त जीवों की प्रतिपालिका है । अहिंसा ही आनन्दकी सन्तति है । अहिंसा ही उत्तम गति और शाश्वती लक्ष्मी है । जगतमें जितने उत्तमोत्तम गुण हैं वे सब इस अहिंसा में
ही है ।
नवम सर्गमें ४२ पद्य हैं और सत्यमहाव्रतका स्वरूप वर्णित हैं । दशमसर्गमें २० पद्य हैं और अस्तेयमहाव्रत्तका स्वरूप निरूपित है। एकादश सर्गमें ४८ पद्य हैं और ब्रह्मचर्यमहाव्रतका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। इसमें शरीरसंस्कार, पुष्ट रससेचन, गीत, नृत्य, वादित्रश्रवण, स्त्रीसंसर्ग, स्त्रीसंकल्प, स्त्रीअंगनिरीक्षण आदि दश प्रकारके मंथुनोंके त्यागका भी वर्णन आया है ।
द्वादश सर्गमं ५९ पद्य हैं और ब्रह्मचर्यमहाव्रतके वर्णनसन्दर्भमें स्त्रीस्वरूपका विश्लेषण किया है । त्रयोदश सर्गमें २५ पद्य हैं और कामसेवनके दोष दिखलाये गये हैं । चतुर्दश सर्गमें ४५ पद्य हैं और स्त्रीसंसर्गका निषेध किया है । पञ्चदश सर्गमें ४८ पय हैं और वृद्ध सेवाकी प्रशंसा की गयी है । १. ज्ञानार्णव, सर्ग ८ प ३२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोधकाचार्य : १५९
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृद्ध-सेवा करनेसे कायरूपी अग्नि शान्त हो जाती है और राग-द्व ेषके उपशमसे चित्त प्रसन्न होता है। इस सर्गमें सत्संगतिका महत्त्व भी बतलाया गया है ।
षोडस मर्ग में ४२ पद्य हैं और परिग्रहत्यागमहाव्रतका वर्णन आया है । इस में २४ प्रकारके परिग्रहोंकी आसक्तिका दोष दिखलाया गया है। सप्तदश सर्गमं २१ पद्यों द्वारा आशाकी निन्दा की गयी है ।
१८वें सर्गमं ३५ पद्म हैं और इनमें पञ्चसमितियोंका वर्णन आया है । एकोन्नविंशसर्ग में ७७ पद्यों द्वारा कषायकी निन्दा की गयी है— क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारों कपायें रत्नत्रयगुणको विकृत करती हैं और प्राणीको शान्त नहीं रहने देतीं। बीसवं सर्गमें ३८ पद्यों द्वारा इन्द्रियोंको वश करनेकी प्रशंसा की गयी है । यतः इन्द्रियोंको जोते बिना कथायोंपर विजय नहीं की जा सकती है | अतएव क्रोधादि कपायोंको जीतने के लिए इन्द्रियविजय आवश्यक है । २१वें सर्गमें २७ पद्म हैं और बहुत-सा गद्यांश भी आया है । इसमें वितत्त्वका वर्णन है । यह योगका प्रकरण है । इसमें पृथ्वीतत्त्व, जलतत्त्व और अग्नितत्त्व तथा वायुतत्त्वका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है । २खें सर्गमें ३५ पद्म हैं और कुछ गद्यांश भी है । इसमें मनके व्यापारको रोकनेके लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा ध्यन और का भी कमान आया है ।
२३वें सर्गमें ३८ पद्य हैं। इसमें राग-द्वेषको रोकनेका विधान वर्णित है । २४वें सर्गमें ३३ पद्य है और साम्यभावका निरूपण आया है। राग-द्वेष मोहके अभावसे समताभाव उत्पन्न होता है, जिससे तृण, कञ्चन, शत्रु, मित्र, निन्दा, प्रशंसा, वन-नगर, सुख-सुखं जीवन-मरण इत्यादि पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि और ममत्व नहीं होता है । २५वें सर्गमें ४३ पद्य हैं और आर्त्तध्यानका विस्तारपूर्वक निरूपण आया है । २६ वें सर्गमें ४४ पद्य हैं और रौद्रध्यानका निरूपण किया गया है । रौद्रध्यानके हिसानन्द, भूषानन्द चौर्यानन्द और संरक्षणानन्द ये चार भेद बतलाये हैं । २७वें सर्गमें ३४ पद्योंमें ध्यानके विरुद्ध स्थानका चित्रण किया गया है । ध्यानको वृद्धिंगत करनेवाली मैत्री, करुणा, प्रमोद और मध्यस्थ्य इन चारों भावनाओंका निरूपण किया गया है तथा ध्यानमें बाधा करनेवाले स्थानोंका भी निरूपण किया है । २८वें सर्गमें ४० पद्य हैं और इनमें आसनका विधान किया है। आसन के लिए काष्ठ, शिला, भूमि एवं बालुकामय प्रदेश उपयुक्त बताये गये हैं । ध्यानके योग्य आसनों में पर्यकआसन, अर्द्धपर्यकआसन, ब्रजासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन एवं कायोत्सर्ग आसनको गणना की है ।
२९वें सर्गमें १०२ पद्य हैं और प्राणायामका वर्णन है । प्राणायामसे जगतके १६० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुभाशुभ और भूत-भविष्यत्का भी शान किया जाता है। मनको वशीभूत' करनेसे विषय-वासनाएं नष्ट हो जाती हैं और आत्मशक्ति उबुद्ध हो जाती है, जिससे समस्त वस्तुओंका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ३० सर्गमें १४ पद्य हैं । प्रत्याहार गरेर कारणावा इसमें नर्गन भाया है।
३१वें सर्गमें ४२ पद्य हैं। इसमें सवीर्यध्यानका वर्णन है । इसमें परमात्माके स्वरूपका भी चित्रण है और साथ ही साकार और निराकार भेदोंका भी निरूपण किया है। ३९वें सर्गमें १०४ पद्य हैं। शरीर और आत्माके भेदविज्ञानके बिना आत्माका स्वरूप प्राप्त नहीं होता। आत्माके स्वरूपका वर्णन करते हुए लिखा है
निर्लेपो निष्कल: शुद्धो निष्पन्नोऽत्यन्तनिवृतः ।
निर्विकल्पश्च शुद्धात्मा परमात्मेति वर्णितः ।। आत्मा कर्मकलसके लेपसे रहित है, शुद्ध है, रागादिविकारसे रहित है, निष्पन्न है, सिद्धस्वरूप है, अविनाशी सुखरूप है, निर्विकल्पक है और सभी प्रकारसे शुद्ध है। इस सर्गमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका वर्णन आया है। जो देह, इन्द्रिय, धन, सम्पति आदि बाह्यवस्तुओंमें आत्म-बुद्धि करता है वह बहिरात्मा है | जो अन्तरङ्गविशुद्ध ज्ञान-दर्शनमयो चेतनामें आत्मबुद्धि करता है और चेतनाके विकार रागादिकभावोंको कर्मजनित हेय जानता है, वह अन्तरात्मा है और वही सम्यग्दष्टि है तथा जो समस्त कर्मोसे रहित केवलज्ञानादिगुणसहित है, वह परमात्मा है। उस परमात्माका ध्यान अन्तरात्मा होकर करना चाहिए । जो निश्चयनयसे अपने आत्माको ही अनन्तज्ञानादि गुणोंकी शक्तिसहित जानकर नयके द्वारा युगपत् शक्ति-व्यक्तिरूप परोक्षका अपने अनुभवमें साक्षात्कार करता है और शुद्धात्मरूप अपनेको अनुभूतिमें लाता है, वह समस्त कर्मोंका नाश कर स्वयं परमात्मा बन जाता है । ध्यानसे सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानश्रेणीका आरोहण करता है और उसीसे शुक्लध्यानको प्राप्त कर कमौका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त करता है।
३३ वें सर्गमें २२ पद्य हैं और आज्ञाविचय धर्मध्यानका स्वरूप है। ३४ सर्गमें १७ पद्य हैं और अपायविचय धर्मध्यानका स्वरूप वणित्त है। ३५वें सर्गमें ३१ पद्यों द्वारा विपाकविचय धर्मध्यानका स्वरूप बतलाया गया है। ३६वें सर्गमें १८६ पथ हैं और संस्थानविचय धर्मध्यानका वर्णन किया गया है संस्थानविचय धर्म-ध्यानके अन्तर्गत लोकसंस्थानका वर्णन आया है । ३७ वें
१. ज्ञानार्णव, ३२६८।
प्रबुद्धाचार्ग एवं परम्परापोषकाचार्ग : १६१
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्ग में ३३ पद्यों द्वारा पिण्डस्यध्यानका वर्णन किया गया है। इसमें पृथ्वी, अग्नि, पवन, जलादिककी कल्पना किस प्रकार करनी चाहिए, इसका भी वर्णन आया है । ३८ वें सर्गमं पदस्थव्यानका वर्णन १२६ पत्रोंमें किया गया है।इन् पदों के अभ्यासका भी कथन आया है । मन्त्रपदोंका ध्यान मोक्षका महान उपाय है । इस ध्यान द्वारा अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं ।
३९ वें सर्गमें ४६ पद्यों द्वारा रूपस्थध्यानका वर्णन आया है । रूपस्थध्यान में अर्हन्त भगवानका ध्यान करना चाहिए। इस सन्दर्भमें अर्हन्तके अतिशय और जन्म-जरा-मरण आदि १८ दोषोंका अभाव भी आचार्यने आगमप्रमाण द्वारा सर्वज्ञमें सिद्ध किया है । ४० सर्ग ३१ पद्यों द्वारा रूपातीत ध्यानका वर्णन आया है । जब ध्यानी सिद्धपरमेष्ठीके ध्यानका अभ्यास करके शक्तिकी अपेक्षाले अपने आपको भी उन्हींके समान जानकर अपनेको उनके समान व्यक्त करनेके लिए लीन हो जाता है, उस समय कर्मका नाश होकर सिद्धपदकी प्राप्ति होती है। ४१ वें सर्गमें २७ पद्य हैं। इसमें धर्मध्यानके फलका वर्णन किया गया है । ४खें सर्गमें ८८ गद्य हैं । इसमें शुक्लध्यानका वर्णन किया है। बताया है1 अथ धर्ममतिकान्तः शुद्धि चात्यन्तिकीं श्रितः । ध्यातुमारभते वीर: शुक्लमत्यन्तनिर्मलम् || निष्क्रिय करणातीतं ध्यान-धारणवर्जितम् ! अन्तर्मुखं च यच्चित्तं तच्छुवलमिति पठ्यते ॥ आदिसंहननोपेतः पूर्वज्ञः पुण्यचेष्टितः ।
चतुर्विधमपि ध्यानं स शुक्लं ध्यातुमर्हति ॥
धर्मध्यानके अनन्तर अत्यन्त शुद्धताको प्राप्त हुआ वीर-वीर मुनि निर्मल शुक्लध्यानको प्रारम्भ करता है । यह क्रियारहित है, इन्द्रियातीत है ओर ध्यानकी धारणासे रहित है। इसमें चित्त अपने स्वरूपकी ओर संलग्न रहता है, यह ध्यान वज्रवृषभनाराचसंहनन वालेके, जो ११ अंग और १४ पूर्वोका ज्ञाता होता है, शुद्ध चरित्रवाला होता है, उसीको प्राप्त होता है । शुक्लध्यानके पृथकत्ववित्तर्क एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरत - क्रियानिवृत्ति ये चार भेद हैं। इनमेंसे प्रथम दो ध्यान छधस्थ योगीके अर्थात् १२ गुणस्थानपर्यन्त अल्पज्ञानियों के भी होते हैं । अन्तके दो शुक्लध्यान सर्वथा रागादि दोषोंसे रहित केवलज्ञानियोंके होते हैं। इस प्रकार इस सर्ग में शुक्लध्यानका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है और अन्तमें ज्ञानार्णवका महत्त्व बतलाते हुए ग्रन्थ समाप्त किया है-
१. ज्ञानार्णव, ४२।३-५ ।
१६२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
झानार्णवस्य माहात्म्य चित्ते को वेत्ति तत्त्वतः । यज्ज्ञानात्तीर्यते भव्य स्तरोऽपि भवार्णवः ।।
अनन्तकीतिः अनन्तकोत्ति नामके अनेक आचार्योका निर्देश प्राप्त होता है । एक अनन्तकोत्ति नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कार गणकी पट्टावलीके ३३वें गुरु हैं, जो उजयिनीपट्ट के अन्तर्गत देशभूषणके पश्चात् और धर्मनन्दिके पूर्व उल्लिखित हैं। पट्टावलोके अनुसार इनका समय ई० सन् ७०८-२८ हैं।
दूसरे अनन्तकीत्ति 'प्रामाण्यभंग' नामक ग्रन्थके रयिताके रूपमें उल्लिखित हैं। इनका निर्देश रविभद्रपादोपजीवी अनन्तवीर्यने अपनी सिद्धिविनिश्चयटीकामें किया है।
तीसरे अनन्तकीत्ति वादिराज द्वारा सिद्धिप्रकरणके कर्ताके रूपमें स्मृत हैं।
चतुर्थ अनन्तीतिका उल्लेख बलगाम्बेरो प्राप्त एक नागरी लिपिके कनड़ मूर्तिलेखमें निर्दिष्ट हैं। इस लेखका समय अनुमानतः १०७५ ई० है 1 मालवके शान्तिनाथदेवसे सम्बन्धित बलात्कारगणके मनि चन्द्रसिद्धान्तदेवके शिष्यके रूपमें इनका कथन आया है।
पञ्चम अनन्तकीति माथुरसंघी हैं, जिन्होंने ई० सन् ११४७ ( वि० सं० १२०४ ) में मूर्ति-प्रतिष्ठा की थी।
षष्ट अनन्तकीति दण्डनायक भरतकी पत्नी जक्कव्वेके गुरुके रूपमें उल्लिखित हैं। इन्होंने होय्सल नरेश वीर बल्लालदेव (ई० सन् ११७३-१२३० ई०) के शासनकालके २३ वें वर्ष में समाधिमरण धारण किया था।
सप्तम अनन्तकीति देशीगण पुस्तकगच्छके मेघचन्द्र विद्यदेवके प्रशिष्य ( ई. सन् १११५ ), आचारसार ( ११५४ ई० )के कर्ता वीरमन्दि सिद्धान्त. चक्रवर्तीके शिष्य, रामचन्द्र मलधारिके गुरु और शुभचन्द्र के प्रगुरु हैं। इनका समय ई० सन् ११७५-१२२५ ई० के लगभग है।
अष्टम अनन्तकीर्ति काणूरगण तिन्तिणिगच्छके भट्टारक हैं। ये ई० सन् १२०७ में बान्धव' नगरकी शान्तिनाथ बसतिके अध्यक्ष थे। यह अनेक शिला१. ज्ञानार्णव, ४२४८ । २. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ० ७.... ३. एपिग्राफी कर्णाटिका, ७, शिकारपुर, अभिलेख १३४ । ४. वही, अभिलेख संख्या-१९६ । ५. जैन सन्देश, शोधाइ ३.१० १२५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १६३
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
लेखोंमें उल्लिखित बन्दणिके तीर्थाध्यक्ष भानुकीर्ति ( ई० सन् ११३९-८२ ई०) के प्रशिष्य थे और सम्भवतया देवकीतिके शिष्य और धर्मकीतिके गुरु थे ।
काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगणके प्रतिष्ठाचार्य के रूपमें एक अन्य अनन्तकीर्तिका उल्लेख मिलता है। इनका ई. सन् १३७१ के चन्द्रवाडके कई मूर्तिलेखोंमें उल्लेख आया है। इसी गण-मच्छके भट्टारक कमलकीतिके शिष्य भी अनन्तकीर्ति हुए हैं।
एक अनन्तकीर्ति नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणके सागवाड़ा पटके मण्डलाचार्य रत्नकोतिके शिष्य हैं, जिन्होंने १५४५ ई०के लगभग एक विशाल चतुर्विध संघ सहित दक्षिण देशको विहार किया था और वहाँ जाकर स्त्नकीर्तिपट्ट स्थापित किया था। इसी गणनाच्छके मालवापट्टके अभिनव रत्नकोतिके शिष्य कुमुदचन्द्रके गुरुभाई और ब्रह्मरायमल्ल तथा भट्टारक प्रतापकीतिके गुरु अनन्तकीर्ति हुए हैं। इनका समय ई० सन्की १६वीं शताब्दी है।
इन अनन्तकीसियोंके अतिरिक्त बृहत्सर्वज्ञसिद्धि और लघुसर्वज्ञसिद्धिके कर्ता अनन्तकीर्ति हैं, जिनके शन्तिसूरिके 'जेन तर्कवातिक में उल्लेख एवं उद्धरण पाये जाते हैं तथा अभयदेवसूरि तर्कपञ्चाननकी 'तत्त्वबोधविधायिनी' अपरनाम 'चादमहार्णवसन्मतिटीका में जिनका अनुसरण पाया जाता है। प्रभाचन्द्रने भी अपने न्यायकुमुदचन्द्रमें उनका अनुसरण किया है। प्रमेयकमलमार्तण्डके सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणमें भी अनन्तकोतिको बृहत् सर्वज्ञसिद्धिका शब्दानुसरण पाया जाता है। बृहत्सर्वशसिद्धिके अन्तिम पृष्ठ तो यत्किञ्चित् परिवर्तनके साथ न्यायकुमुदचन्द्रके केवलि-भुक्तिवादप्रकरणसे अपूर्व सादृश्य रखते हैं। ___ अनन्तकीतिके ग्रन्थोंके देखनेसे ज्ञात होता है कि वे अपने युगके प्रख्यात तार्किक विद्वान् थे, इन्होंने स्वप्नज्ञानको मानसप्रत्यक्ष माना है । आचार्य शान्तिसूरिने जैनतकवातिकवृत्ति (पृ. ७७ )में "स्वप्नविज्ञानं यत्स्पष्टमुत्पद्यते इति अनन्तकीर्त्यादयः" अनन्तकीतिका मत उदघृत किया है। यह मत बृहसर्वज्ञसिद्धिमें "तथा स्वप्नज्ञाने चानक्षऽपि वैशद्यमुपलभ्यते" रूपमें निबद्ध है। शान्तिसूरिका समय ई० सन् ९९३-११४७ ई. के बीच है। न्यायाचार्य श्री पं० महेन्द्रकुमारजीने सन्मतितर्कके टीकाकार अभयदेवसूरि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धिके साथ तुलना कर यह निष्कर्ष निकाला है कि अनन्तकीर्तिका
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १३, किरण २, पृ० ११२-२१५ । २. जैमवर्कवातिक, प्रस्तावना, पृ. १४१ ।
१६४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
समय ई० सन् १९० के पूर्व है। ___ आचार्य वादिराजने अपने पाश्वनाथचरितमें अनन्तकीर्तिका स्मरण निम्न प्रकार किया है
आत्मनेवाद्वितीयेन जीवसिद्धि निबध्नता ।
अनन्तकोतिना मुक्तिरात्रिमार्गेव लक्ष्यते ॥ न्यायविनिश्चयविवरणके सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणमें आचार्य वादिराजने लिखा है
"तच्चेदम्- यो यात्रानुपदेशालिङ्गानन्धयव्यतिरेकाविसंवादिवचनोपक्रमः स तत्साक्षात्कारी, यथा सुरभिचन्दनगन्धादौ अस्मदादिः, तथाविधवचनोपक्रमश्च कश्चित् ग्रहनक्षन्नादिगतिविकल्पे मन्त्रतन्त्रादिशक्तिविशेषे च तदागमप्रणेता पुरुष इति ।"
वादिराजको इन पंक्तियोंपर लघुसर्वसिद्धिकी निम्नलिखित पंक्तियोंका प्रभाव स्पष्ट है। साथ ही जिस हेतुका प्रयोग अनन्तकीतिने किया है उसी मूलहेतुका प्रयोग वादिराजने भी। ___"यस्य यजातीयाः पदार्थाः प्रत्यक्षाः तस्यासत्यावरणे तेऽपि प्रत्यक्षाः । यथा घटसमानजातीयभूतलप्रत्यक्षत्वे घटः | प्रत्यक्षाश्च विमत्यधिकरणभावापन्नस्य कस्यचिद्दे शादिविप्रकृष्टत्वेन धर्माकाशकालहिमवन्मदरमकराकरादिसजातीयाः नष्टमुष्टिचिंतालाभालाभजीवितमरणसुखदुःखग्रहनक्षत्रमंत्रौषधिशक्त्यादयो भावास्तदागमप्रणेतुरिति । न तावदयमसिद्धो हेतुः । तथाहि यो यद्विषयानुपदेशालिंगानन्वयव्यतिरेकाविसंवादिवचनानुक्रमकर्ता स तत्साक्षात्कारी यथा अस्मदादिर्यथोक्तजलशैत्यादिविषयवचनरचनानुक्रमकारी तवष्टानष्टमुष्ट्यादिविषयानुपदेशालिंगानन्वयव्यतिरेकाविसंवादिवचनरचनानुकमकर्ता च कश्चिद्विमत्यधिकरणभावापन्नः पुरुष इति ।"
अतएव स्पष्ट है कि वादिराज लधुसर्वज्ञसिखिके कर्ता अनन्तकोतिसे परिचित थे।
श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अनन्तकोतिके सम्बन्धमें विचार करते हुए लिखा है-"वादिराजने आचार्य जिनसेनके बाद अनन्तकीतिका स्मरण किया है १. जैन सन्देश, शोषांक १, पृष्ठ ३६ । २. पावनापचरित्र, श२४ । ३. न्यायविनिश्चयविवरण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, द्वितीय भाम, पृ. २९७ । ४. लघुसर्वसिदि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाळा, पु० १०७ (अन्धका प्रथम पृष्ठ) ।
प्रबुवामार्ग एवं परम्परापोषकाचार्ग : १६५
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
और ऐसा मालूम होता है कि उन्होंने पूर्व कवियोंका स्मरण प्रायः समयक्रमसे किया है । इससे अनन्तकौतिका समय जिनसेनके बाद और वादिराजसूरिसे पहले अर्थात् वि० सं० ८४० और १०८२ के बीच मानना चाहिए।"
श्री पं० महेन्द्रकुमारजीने विद्यानन्दके 'तल्वार्थश्लोकवार्तिक और 'लघुसर्वसिद्धि' ग्रन्थोंको तुलना करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि विद्यानन्द और अनन्तकीतिके हेतु समान है । अतएव विद्यानन्दके समकालीन अथवा उनके तत्काल ही अनन्तकीर्ति हुए हैं। 'स्वतः प्रामाण्यभंग' ग्रन्थ भी इन्हीं अनन्तकोतिका होना चाहिए।' इस विवेचनके आवारपर न्यायाचार्यजीने ई० सन् ८४० के बाद और ई० सन् ९५० के पूर्व उनका समय सिद्ध किया है। इस मान्यताकी आलोचना श्री डा. ज्योतिप्रसादजीने की है। उन्होंने अनुमान लगाया है कि 'प्रामाण्यभंग'के कर्ता अनन्तकोति अनन्तवीर्य के पूर्ववर्ती हैं तथा सर्वज्ञसिद्धि और जीवसिद्धिटीकाके कर्ता अनन्तकीर्ति उनके उत्तरवर्ती हैं। दोनों ग्रन्थोंके रचयिता दो भिन्न-भिन्न अनन्तकीति भी हो सकते हैं । इन दोनों ग्रन्थोंकी रचना ८४०-९९० ई० के मध्य हो सकती है। डा. ज्योतिप्रसादजीकी सम्भावना है कि सर्वज्ञसिद्धिके कर्ता अनन्तकीति विद्यानन्दफे भी पूर्ववर्ती हो सकते हैं और इस स्थितिमें उन्हें 'प्रामाण्यभंग के कर्तासे अभिन्न माना जा सकता है। बहुत सम्भव है कि नन्दिसंघकी पट्टावलोके अनन्तकीति 'प्रामाण्यभंग' आदि ग्रन्यांके रचयिता हो । श्री महेन्द्रकुमारजी द्वारा की गयी इस सम्भावनाको डाः ज्योतिप्रसादजी भी स्वीकार करते हैं कि सर्वशसिद्धिके कर्ता अनन्तकीति ही 'प्रामाण्यभंग के कर्ता हों। इस सम्भावनाके आधारपर अनन्तकीतिका समय ई० सन्की ८वीं शती माना जा सकता है और यदि पिछले ग्रन्थोंके रचयिता इनसे भिन्न हैं तो यह अनन्तकीर्ति ई० सनकी २वीं शतीके उतरार्धमें हए होंगे। हमें श्री पं० महेन्द्रकुमारजीके तर्क अधिक उपयुक्त प्रतीत होते हैं । अतएव 'सर्वज्ञसिद्धि' के रचयिता ही 'प्रामाण्यभंग' के रचयिता हैं और इनका समय ई० सन्की नवम शताब्दीका उत्तरार्ध है। रचनाएँ
अनन्तकीर्तिके चार ग्रन्थोंका निर्देश मिलता है । इन चारमें दो ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं और इन दोनोंका प्रकाशन माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे हो चुका है। शेष दो ग्रन्थोंके तो निर्देश ही मिलते हैं।
१. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पु. ४५२ । २. जैन सन्देश, शोषांक ३, पृष्ठ १२६ । १६६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वशसिद्धि
अनन्तकोतिने बृहत् और लघु ये दो सर्वज्ञसिद्धिनामक ग्रन्थ लिखे हैं । लघुसर्वज्ञसिद्धिके अन्तमें एक पद्य दिया है, जो निम्न प्रकार है---
समस्तभुवनव्यापियशसाऽनंतकोतिना 1
कृतेयमुज्वला सिद्धिधर्मज्ञस्य निरगला' ।। ये दोनों ही ग्रन्थ गद्य में लिखे गये हैं, पर उद्धरणके रूपमें कारिकाएँ भी प्रस्तुत की गयी हैं । आरम्भमें बताया है कि जो वस्तु जिस रूपमें है, सर्वज्ञ उसको उसी रूपमें जानता है, किन्तु इससे अवर्तमान वस्तुका ग्राहक होनेसे सर्वज्ञका ज्ञान अप्रत्यक्ष नहीं ठहरता, क्योंकि वह स्पष्टरूपसे अपने विषयको ग्रहण करता है। निकट देश और वर्तमानरूपसे अर्थको जानना प्रत्यक्षका लक्षण नहीं है। अन्यथा गोदमें स्थित बालकके शरीरमें क्रिया वगैरह देखकर जो उसके जीवके सद्भावका ज्ञान होता है, वह भी प्रत्यक्ष कहा जायगा, पर जीबका ज्ञान तो प्रत्यक्ष होता नहीं। अतः स्पष्टरूपसे अर्थका प्रतिभासित होना ही प्रत्यक्ष है। अतएव सर्वज्ञको अतीत आदि पदायका मष्ट बांध होनेभं कोई बाधा नहीं है। जैसे इन्द्रियप्रत्यक्षके द्वारा दूरवर्ती पदार्थका ग्रहण होनेपर भी उसके स्पष्टग्राही होनेमें कोई विरोध नहीं है उसी प्रकार दूरकालवी पदार्थको ग्रहण करनेपर भी अतीन्द्रित्य प्रत्यक्षके स्पष्टग्राही होने में कोई विरोध नहीं है। सर्वज्ञ अतीत पदार्थको अतीतरूपसे और वर्तमान पदार्थको वर्तमानरूपसे जानता है। मीमांसकने पूर्व पक्षके रूपमें सर्वज्ञाभाव सिद्ध करनेके लिए अनेक तर्क दिये हैं। उसने तकं उपस्थित किया है कि प्रत्यक्ष द्वारा कोई सर्वज्ञ दिखलाई नहीं पड़ता और न प्रत्यक्षसे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंका साक्षात्कार ही सम्भव है। यदि इन पदार्थोका सर्वज्ञको ज्ञान होता है, तो इन्द्रियप्रत्यक्ष द्वारा या अतीन्द्रियप्रत्यक्ष द्वारा? प्रथम पक्ष उचित नहीं, क्योंकि सूक्ष्म, अन्तरित और दुरवर्ती पदार्थोंका इन्द्रियोंके साथ सर्वथा सम्बन्ध नहीं होता । अतः वे किसीके इन्द्रियज्ञानके विषय नहीं हो सकते। यदि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षके द्वारा सूक्ष्मादि पदार्थोंका ज्ञान सिद्ध करते हैं तो अतीन्द्रियप्रत्यक्ष तो अप्रसिद्ध है।
आचार्यने मीमांसकका उत्तर देते हुए प्रत्यक्षसामान्यसे सूक्ष्म आदि पदार्थोंका प्रत्यक्षज्ञान माना है । सूक्ष्म आदि पदार्थोके सामान्यरूपसे किसीके प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर वह प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मनसे निरपेक्ष सिद्ध होता है, क्योंकि वह सूक्ष्मादि पदाथोको ग्रहण करता है। जो प्रत्यक्ष इन्द्रियादिसे निरपेक्ष नहीं होता वह सूक्ष्मादि पदार्थोंको विषय नहीं करता । जैसे हम लोगोंका प्रत्यक्ष ! किन्तु १. लघुसर्वसिदि, अन्तिम पछ ।
प्रबुवाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १६५
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वज्ञका प्रत्यक्ष सूक्ष्मादि पदार्थोंको विषय करता है । अतः वह इन्द्रिय और मनकी सहायतासे नहीं। ___ अनुमान द्वारा भी सर्वज्ञकी सिद्धि होती है। स्वभावविप्रकृष्ट परमाण आदि, कालविप्रकृष्ट रावणादि, देशविप्रकृष्ट हिमवानादि किसीके प्रत्यक्ष हैं, अनुमानका विषय होनेसे । यदि यह कहा जाय कि स्वभावविप्रकृष्ट, देशविप्रकृष्ट और कालविप्रकृष्ट पदार्थ अनुमानसे नहीं जाने जा सकते, तो अनुमान प्रमाणका ही मूलोच्छेद हो जायगा । अनुमानकी उपयोगिता इसा अर्थ में है कि वह उन पदार्थीको ग्रहण करता है जो पदार्थ हमारे प्रत्यक्षगोचर नहीं हैं। अतएव अनुमानसे भी सर्वशको सिद्धि होती है । तर्क भी सर्वज्ञको सिद्ध करनेमें सहायक है । व्याप्तिज्ञानसे तर्कको उत्पत्ति होती है। अतएव सूक्ष्मादि पदार्थ व्यतिरेकव्याप्ति द्वारा तर्कसे सिद्ध होते हैं । आचार्यने लिखा है
यदि षडभिः प्रमाणः स्यात्सर्वज्ञ: केन वार्यते एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते ।। नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन्प्रतिपद्यते ।। यज्ञातीयः प्रमाणस्तु यज्जातीयार्थदर्शनं ।। भवेदिदानी लोकस्य तथा कालांतरेऽप्यभूत।। यत्राप्यतिशयो दृष्ट: सस्वार्थानत्तिलंघनात् ।।
दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोतृवृत्तित्तः ।। स्पष्ट है कि आचार्यने सर्वज्ञकी सिद्धि षट्प्रमाण द्वारा की है और आवरणके दूर होने पर निष्कलंक आत्मा सर्वज्ञ हो सकता है। 'सूक्ष्मादि पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं, अनुमेय होनेसे' इस अनुमानमें किसी दूसरे अनुमानसे बाधा भी नहीं आती है । इस प्रकार अनन्तीतिने सप्रमाण सर्वसिद्धि प्रस्तुत की है।
बृहत्सर्वशसिद्धिका विषय भी लघुसर्वज्ञसिद्धिका ही है । आरम्भमें सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंको किसीके प्रत्यक्ष सिद्ध किया है, अनुमेय होनेसे । बताया है
_ "सूक्ष्मांतरितद्रार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः अनुपदेशालिंगानन्वयव्यतिरेकपूर्वकरविसंवादिनष्टमष्टिचितालाभालाभसुखदुःखग्रहोपरागाद्युपदेशकरणान्यथानुपपत्तेः। सथाहि-नष्टं देशांतरितं कालांतरितं द्रव्यांतरित वा स्यात् । मुष्टिस्थ वस्तु द्रव्यांतरितम् । चिंता सूक्ष्मस्वभावा | लाभालाभो कालांतरिती। तथा सुखदुःखे। ग्रहोपरागादि: कालांतरितः । मंत्रौषधिशक्तयः सूक्ष्मस्वभावाः। तदेषां
१. लधुसर्वशसिद्धि, माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला, पृ० ११६-११७ । १६८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूक्ष्मांतरितदूरस्वभावानामर्थानां यथोक्तस्योपदेशस्य करणं तत्साक्षात्करणमतरेणानुपपन्न।" इस प्रकार आचार्यने सर्वज्ञको सिद्धि कर अर्हन्तको सर्वज्ञ बतलाया है।
मल्लिषण उभयभाषाविचक्रवर्ती आचार्य मल्लिषेण अपने युगके प्रख्यात आचार्य है। इन्हें करिशेखरका बिस्तर पा । गया ...
भाषाद्वयकवितायां कवयो दर्प वहन्ति तावदिह ।
नालोकयन्ति यावत्कविशेखरमल्लिषेणमुनिम् ॥ ये अपनेको सकलागमवेदी, लक्षणवेदी और तर्कवेदी भी लिखते हैं । आचार्य मल्लिषेणको कवि और मन्त्रवादीके रूपमें विशेष ख्याति है । ये उन अजितसेनकी परम्परामें हुए हैं, जो गङ्गनरेश राचमल्ल और उनके मन्त्री तथा सेनापति चामुण्डरायके गुरु ये और जिन्हें नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने भवनगुरु कहा है। मल्लिषेणके गुरु जिनसेन हैं और जिनसेनके कनकसेन तथा कनकसेनके अजितसेन गुरु हैं। मल्लिषेणने 'नागकुमारचरित'को अन्तिम प्रशस्तिमें जिनसेनके अनुज या सतीर्थ नरेन्द्रसेनका भी स्मरण किया है। नरेन्द्रसेननामके कई आचार्य हर हैं । अतः निश्चितरूपसे यह नहीं कहा जा सकता कि यह नरेन्द्रसेन कौन हैं?
तस्यानुजश्चास चरित्रवृत्तिः प्रख्यातकीतिर्भुवि पुण्यत्तिः ।
नरेन्द्रसेनो जितवादिसेनो विज्ञातत्तत्त्वो जितकामसूत्र: ॥ प्रशस्तिके पांचवें पद्यमें मल्लिषेणने नरेन्द्रसेनको अपना गुरु भी लिखा है
तच्छिष्यो विबुधाग्रणीगुणनिधिः श्रीमल्लषेणाह्वयः।
संजातः सकलागमेषु निपुणो वाग्देवतालंकृतिः ।। आचार्य मल्लिषणने भारतीकल्प, कामचाण्डालीकल्प, ज्वालिनीकल्प और पपावतीकल्प ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंमें अपनेको कनकसेनका शिष्य और जिनसेनका प्रशिष्य बतलाया है । असम्भव नहीं कि जिनसेन और उनके अनुज नरेन्द्रसेन दोनों ही मल्लिषेणके गुरु रहे हों-दोनोंसे भिन्न-भिन्न विषयोंका अध्ययन
१. बृहत्सर्वशसिसि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पृ० १३० । २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ३१४ । ३. नागकुमारचरित, प्रशस्ति, पद्य ४ । ४. वही, पद्य ५।
प्रयुगाचार्य एवं परम्परापोषकामाय : १६९
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
किया हो । भैरवपद्मावतीकल्प में लिखा है
सकलनयमुकुटधटितचरणयुगः श्रीमदजित्तसेन गणिः | जयतु दुरितापहारी, भव्योषभवार्णवोत्तारी ॥ जिनसमयागमवेदी गुरुतरसंसा रकाननोच्छेदी । कर्मेन्धनदहनपटुस्तच्छिष्यः कनकसेनगणिः T: 11 चारित्रभूषिताङ्गां निस्सङ्गो मथितदुर्जनानङ्गः । तच्छिष्यो जिनसेनो बभूव भव्याब्जधर्मांशुः ॥ तदीयशिष्यो मुनिमल्लिषेणः सरस्वती लब्धवरप्रसादः । तेनोदितो भैरवदेवतायाः कल्पः समासेन चतुःशतेन ॥
वादिराजके समान मल्लिषेण भी मठाधिपति प्रतीत होते हैं । यतः इनके द्वारा रचित मन्त्र-तन्त्रविषयक ग्रन्थोंमें स्तम्भन, मारण, मोहन, वशीकरण, अनंगाकर्षण वा मठाधिपट्टा सिद्ध करते हैं। उनके साहित्यसे ऐसा भी अनुमान होता है कि गृहस्थ शिष्योंके कल्याणके हेतु वे मन्त्र तन्त्र और रोगोपचार में प्रवृत्त रहे होंगे। परमविरक्त वनवासी मुनि इस प्रकारके प्रयोगोंका विधान नहीं कर सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि ये संस्कृतभाषा, साहित्य और मन्त्रवादके प्रसिद्ध आचार्य रहे हैं ।
स्थितिफाल
आचार्य मल्लिषेणने अपने महापुराणको प्रशस्तिमें निम्नलिखित पद्य अंकित किया है
वर्षेक त्रिशताहीने सहस्र शकभुभूजः । सर्वजिद्वत्सरे ज्येष्ठे सशुक्ल पञ्चमीदिने ३ ॥
अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी शक सं० ९६९ ( ई० सन् १०४७ ) को महापुराण समाप्त किया गया है ।
महापुराण की रचना धारवाड़ जिलेके मूलगुन्द नामक स्थानमें की गयी है । यह स्थान उक्त जिलेकी गदग तहसीलसे १२ मील दक्षिण पश्चिमकी ओर है । इस स्थानपर आज भी चार जैन मन्दिर हैं, जिनमें शक सं० ८२४, ८२५, ९७५, ११९७ १२७५ और १५९७ के अभिलेख है। एक अभिलेखमें आचार्य द्वारा सेनवंशके कनकसेन मुनिको एक खेतके दान देनेका भी उल्लेख है । आदरणीय
१. प्रशस्ति-संग्रह, प्रथम भाग, वीरसेवा मन्दिर, प्रस्तावना, पृ० ६१
२. भैरवपद्मावतो कल्प, सूरत संस्करण, प्रशस्ति, पद्म ५३-५६ ।
३. महापुराण, पद्य २ ।
१७० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
श्री पण्डित नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि मल्लिषेणका मठ भी इसी स्थानमें रहा होगा ।
आचार्य वादिराजने 'न्यायविनिश्चयविवरण' की अन्तिम प्रशस्ति में नरेन्द्रसेनका उल्लेख किया है और वादिराजका समय शक सं० ९४५ ( ई० सन् १०२५ ) है | ये नरेन्द्रसेन ही मल्लिषेण द्वारा गुरुरूपमें उल्लिखित हैं । अतः मल्लिषेणको वादिराजके समकालीन माना जा सकता है। मल्लिपेणके महापुराणको रचना वादिराजके २२ वर्षके अनन्तर ही हुई है । अतएव मल्लिषेण का समय ई० सन्की ११वीं शताब्दी है ।
रचनाएँ
उभयभाषाकविचक्रवर्ती भल्लिषेणको निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं
१. नागकुमा रकाव्य,
२. महापुराण, ३. भैरवपद्मावतीकल्प,
४. सरस्वती मन्त्रकल्प,
५. ज्वालिनीकल्प, ६. कामचाण्डालीकल्प |
नागकुमार काव्य
इस खण्डकाव्य में ५ सर्ग और ५०७ पद्य हैं । इस काव्य में नागकुमारका जीवन वर्णित है । काव्यके आरम्भमें बताया है कि जयदेव आदि कवियोंने गद्यपद्यमय रचनाएँ लिखी हैं, पर वह मन्दबुद्धिके लिए विषम है। में मल्लिषेण विद्वज्जनोंके मनको हरण करनेवाली उसी कथाको संस्कृत पद्योंमें निबद्ध करता हूँ 1 यथा
कविभिर्जयदेवाद्यैः
गद्यपद्येविनिर्मितम् । यत्तदेवास्ति चेदत्र विषमं मन्दमेधसाम् || प्रसिद्ध संस्कृतैर्वाक्यचिद्वज्जनमनोहम्
I
तन्मया पद्यबन्धेन मल्लिषेणेन रच्यते ॥
यह काव्य बहुत सरल, सरस और प्रवाहमय है । मानवीय सहृदयताका भाण्डार खुला हुआ है । जीवनको अन्तः चेतना तथा सौन्दर्य - भावना सत्यकी ओर अग्रसर करती है । घटना - वर्णन और दृश्य-योजनाके अतिरिक्त कविने नागकुमारका संघर्षपूर्ण जीवन चित्रित कर सांसारिकतासे निर्वाणकी ओर गतिशील होनेकी प्रेरणा दी है । काव्यमें मानवीय भावनाओंका चित्रण भी १. महापुराण, पद्म २
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १७१
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
यथार्थ रूपमें घटित हुआ है। नागकुमारके जीवनको मर्मस्पर्शी घटनाओंका चमत्कारपूर्ण शैलीमें चित्रण किया गया है। इस काव्यमें श्रुतपञ्चमीव्रतके महात्म्यको बतलानेके लिए रोमांटिक कथा लिखी गयी है | मगधमें कनकपुरका राजा जयन्धर था। उसकी रानी विशालनेत्रासे श्रीधर नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । एक व्यापारी सौराष्ट्रसे गिरिनगरकी राजकुमारीका चित्र लेकर आया । राजा उसपर मुग्ध हो गया । मन्त्रीको भेजकर उसने लड़कीको बुलवाकर विवाह कर लिया । नयो रानीका नाम पृथ्वीदेवी था। एक दिन राजा अन्तःपुरसहित जल-क्रीडाके लिए गया और मार्गमें अपनी सौतके वैभवको देखकर पथ्वीमती चिन्तित हुई और चुपचाप जिनमन्दिरमें चली गयी । स्तुति के पश्चात् वह मुनिका आदेश सुनरेगी । मुनिले रामास्वीर होनेकी भविष्यवाणी की। राजा वहाँ पहँचा और रानीको लेकर घर चला आया। समय पाकर राजाको पुत्रलाभ हुआ। राजाने धूम-घामपूर्वक पुत्रोत्सव मनाया। बालक अत्यन्त प्रभावशाली था और बचपनसे ही उसके द्वारा आश्चर्यकारी कार्य होने लगे थे। एक बार वह वापीमें गिर गया, उसकी माँ भी उसमें गिर पड़ी, नीचे एक नागने उसे बचा लिया और इसीलिये उसका नाम नागकुमार पड़ा। यहींपर उसकी शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न हुई। कुमार अब पूर्ण युवक हो चुका था। उसने गन्धर्व कुमारियोंको वीणावादनमें परास्त किया, जिससे वे कुमारियाँ उसपर मोहित हो गयी और उसे उनसे विवाह करना पड़ा। एक दिन कुमार जलक्रीड़ाके लिए गया । माँ उसे कपड़े देने गयी थी, परन्तु उसकी सोतने उसे कलंक लगा दिया । राजा चुप रहा । राजाने कुमारके भ्रमण करनेपर रोक लगा दी। इसपर नयी रानी बहुत अप्रसन्न हुई। उसने नागकुमारको घूमनेके लिए प्रेरित किया । वह हाथो पर सवार होकर नगरमें निकला। उसे देखकर कितनी ही कुमारियां मुग्ध हो गयीं । अविभावकोंने राजासे शिकायत की। राजा बहुत नाराज हुआ। उसने कुमारकी मांक गहने और कपड़े छीनकर अधिकारसे वंचित कर दिया । कुमारको यह बुरा लगा। वह द्यूतघर गया और वहाँसे जाएमें उसने बहुत-सा धन जीता। राजकुमारको कला देखकर सभी आश्चर्यचकित थे । कुमारने दुष्ट गजे और अश्वको भी वश किया, जिससे कुमारका यश व्याप्त हो गया।
राजाने कुछ समयके लिए नागकुमारसे बाहर घूम आनेके लिए कहा। मथुरामें व्याल और महाव्याल दो राजकुमार थे। वे अपने मन्त्रीको राज्य देकर पाटलिपुत्र के राजा श्रीवर्माकी लड़कियोंके स्वयंवरमें गये। दोनोंके विवाह हो गये । उन्होंने मिलकर अपने ससुरके शत्रुको मार भगाया। छोटा भाई वहीं१७२ : तीर्थंकर महावीर और सनकी वाचार्मपरम्परा
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर रहा, पर बड़ा भाई नागकुमारसे भेंट करने कनकपुर आया | नागकुमारको देखते ही उसकी आँखें ठीक हो गयीं, तब वह कमारका रक्षक हो गया ! जब श्रीधरके आदमी नागकुमारको मारने आये, तो उसने उसे बचा लिया। वे दोनों मथुरा चले गये। कुमारने मथुरामें एक वेश्याका आतिथ्य स्वीकार किया । उसके कहने पर शीलवतीको राजाकी कैदसे मुक्त किया। महाच्यालने भी इस मन्त्री राजासे अपना राज्य वापस ले लिया । वहाँसे कुमार कश्मीर गया । व्याल उसके साथ था। उसने कश्मीरनरेश नन्दकी पुत्री नन्दवतीको वीणा पराजित किया। नन्दवती इसपर मोहित हो गयी। दोनोंका विवाह हो गया। कुछ दिन रहकर उन्होंने हिमालयके भीतरी भागोंका भ्रमण किया। वहाँ जिनमंदिर और गुहामन्दिरोंके दर्शन किये। भीलराजकी पलीका गुहराज भामासुरसे उद्धार किया। ___आगे बढ़नेपर कंचनगुहामें उसे सुदर्शना देवी मिलीं। उसने बहुत-सी विद्याएँ कुमारको दी। पहले ये विद्याएं जिनशत्रुने सिद्ध की थीं, पर वह बादमें विरक्त हो गया। देवी योग्य अधिकारीको ये विद्याएं देकर प्रसन्न हुई। नागकुमार कई महत्त्वपूर्ण कार्य कर वहाँसे वापस लौटा। __ अपने समस्त साथियोंके साथ चलता हुवा वह विषवनमें आया। यहां उसने भूलसे विषले आम खा लिये, पर इन आमोंका कुप्रभाव उसपर न पड़ा। इसपर दुर्मुख भीलने ५०० योद्धाओंके साथ उसकी अधीनता स्वीकार की। इसके पश्चात् कुमारने राजा अरिवर्माकी सहायता की । विजयके उपलक्ष्यमें उसने नागकुमारके साथ अपनी कन्या जयावतीका विवाह कर दिया। इतनेमें कुमारको एक लेखपत्र प्राप्त हुआ, जिसमें एक विद्याधरसे सात कन्याओंके उद्धारकी अभ्यर्थना की गयी थी। उसने विमानसे जाकर उन कन्याओंका उद्धार किया । पश्चात् कुमारसे उनका विवाह हो गया।
एक बार महाव्याल मदुरा पहुंचा। वहाँ वह बाजारमें भ्रमण कर रहा था कि राजकुमारी मलयसुन्दरी उसे देखकर मोहित हो गयी, पर वह झूठमूठ चिल्लाकर कहने लगी-"इसने मुझे रोक लिया है।" अनुचर सहायताके लिए आये, पर महाव्यालने उन्हें हरा दिया। मलयसुन्दरीका विवाह महाव्यालके साथ सम्पन्न हो गया । नागकुमारने उज्जयिनीकी कुमारी मेनकासे विवाह किया। बहाँसे महाव्यालके साथ दक्षिण भारतकी यात्रा करने गया। उसने तिलकसुन्दरीको मृदंगवादनमें पराजित किया। तोयद्वीप पहुंचकर उसने वृक्षपर लटकती हुई कितनी ही कन्याओंका उद्धार किया। वहाँसे वह पाण्ड्यदेश पहुंचा। अन्तमें उसने त्रिभुवनतिलकद्वीपके मण्डलिक राजाकी सुकन्या लक्ष्मी
प्रबुद्धाचार्य एवं परमारापोषकाचार्य : १७३
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
मतीसे विवाह किया । यह पृथ्वीश्वर नामक मुनिके दर्शन करने गया । विविध दार्शनिक और धार्मिक विचार सुननेके पश्चात् उसने नई पत्नीके प्रति विशेष आसक्तिका कारण पूछा। मुनिने कहा-तुम दोनोंने पिछले भवमें श्रुतपञ्चमीका व्रत्तानुष्ठान किया था, उसीका यह पुष्यफल है। तदनन्तर मुनिराजने श्रुतपंचमीके विधानका स्वरूप और महत्त्व समझाया। कुमार पिताके घर आ गया । कुमारको अभिषिक्त कर राजा जयन्धर तप करने चला गया। नागकुमारने चिरकाल तक योग्यतापूर्वक राज्य किया और पश्चात् जिनदीक्षा धारण कर मोक्ष लाभ किया।
नागकुमारका यह जीवन-चरित काव्यको दृष्टिसे विशेष उपादेय है । कुमार शरीरसे जितना सुन्दर है; बल, पौरुष और कलामें भी उतना ही अद्वितीय है। इसमें पञ्चमीव्रतके अनुष्ठानका फल वणित है। २. महापुराण ___ इस पुगणमें ६३ शलाकापुरुषोंके चरित वर्णित हैं। समस्त पुराण २,००० श्लोकोंमें लिखा गया है। कोल्हापुरके लक्ष्मीसेन भट्टारकके मठमें इसकी एक प्रति कन्नड़ लिपिमें है। कविने रचनाके समाप्तिस्थानकी सूचना देते हुए अपने ग्रन्थकी विशेषताका संक्षेपमें उल्लेख कर दिया है । यथा
तीर्थे श्रीमुलगुन्दनाम्नि नगरे श्रीजैनधर्मालये। स्थित्वा श्रीविचक्रवतियतिपः श्रीमल्लिषेणाह्वयः ॥ संक्षेपात्प्रथमानुयोगकथनव्याख्यान्वितं शृण्वताम्,
भव्यानां दुरितापहं रचितवान्निःशेषविद्याम्बुधिः ॥१॥ अर्थात् संक्षेपसे प्रथमानुयोगका कथन मव्य जीवोंके पापोंको नष्ट करने वाला है। इस पुराणमें महापुरुषके जीवन-वृत्तोंको संक्षेपमें निबद्ध किया गया है। जो भव्य जीव इस पुराणका स्वाध्याय करेंगे उनका दुरितत्तम विच्छिन्न हो जायगा। ३ भैरवपदमावतीकल्प
इस ग्रन्थमें ४०० अनुष्टुप् श्लोक हैं और १० बधिकार हैं । १. मंत्र-लक्षण, २. सकलीकरण, ३. देव्यर्चन, ४. द्वादशरञ्जिकामन्त्रोद्धार, ५. क्रोधादिस्तम्भन, ६. अंगना-आकर्षण, ७. वशीकरण यन्त्र, ८ निमित्त, ९ वशीकरण
और १० गारूड़ तन्त्र । यह मन्त्रशास्त्रका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसपर बन्धुषेणकृत संस्कृत-विवरण भी उपलब्ध है तथा इसी विवरणसहित इसका प्रकाशन भी हुआ है। समस्त ग्रन्थ आर्या और गीति छन्दमें लिखा गया है। मन्त्रीका तात्पर्य साधकसे है। साधक वही हो सकता है जो वीर, पापरहित, गुणोंसे १७४ : तीर्थकर महावीर और उनकी वाचार्यपरम्परा
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
गम्भीर, मौनी और महाभिमानी हो । गुरुजनोंसे उपदेश पाया हुआ तन्द्रारहित, निद्राको जीतनेवाला और कम भोजन करनेवाला ही मन्त्रसाधक हो सकता है। साधकके अन्य लक्षणोंको बतलाते हुए लिखा है
निजितविषयकषायो धर्मामतजनितहर्षगतकायः । गुरुवरगुणसम्पूर्णः स भवेदाराधको देव्याः ।। शुचिः प्रसन्नो गुरुदेवभक्तो दृढव्रतः सत्य-दयासमेतः ।
दक्षः पटुर्बीजपदावधारी मंत्री भवेदीदृश एवं लोके ॥ जिसने विषय और कषायोंको जीत लिया हो, जिसके शरीरमें धर्मरूप अमृतसे उत्पन्न हर्ष भरा हो तथा जो सुन्दर सुन्दर गुणोंसे परिपूर्ण हो वह देवीका आराधक होता है । जो पवित्र, प्रसन्न, गुरु और देवहा नत, उद माताला दयाल, सत्यभाषी, बुद्धिमान, चतुर और वीजाक्षरोंका निश्चय करनेवाला हो, ऐसा व्यक्ति ही लोकमें मन्त्री हो सकता है।
सकलीकरणकी क्रिया में अंगशद्धिकी मान्त्रिक विधि दी गयी है और मन्त्रोंमें शत्रुता एवं मित्रताका निश्चय किया गया है। तृतीय परिच्छेदमें मन्त्रोंके साधनकी सामान्यविधि वर्णित है। दिशा, काल, मुद्रा, आसन एवं पल्लवोंके भेदोंका वर्णन भी आया है। वशीकरण, आकर्षण, उच्चाटन आदि मन्त्रोंको किस आसन और दिशामें सिद्ध करना चाहिए, इसका भी वर्णन आया है।। ___ आह्वानन, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जनको पंचोपचार कहा गया है । पद्मावतीके एकाक्षर, षडक्षर, त्र्यक्षर आदि मन्त्र भी दिये गये हैं। ____ चतुर्थ परिच्छेदमें विभिन्न मन्त्र, यन्त्र और बीजाक्षरोंका कथन किया गया है। पञ्चम परिच्छेदमें स्तम्भन मन्त्रोंका कथन आया है और जल, तुला, सर्प तथा पक्षी स्तम्भनके मन्त्रों और यन्त्रोंका निर्देश किया गया है । षष्ठ परिच्छेदमें इष्टांगनाकर्षणयन्त्रविधि दी गयी है और चार यन्त्रोंका निर्देश आया है । इस प्रकरणमें कई मन्त्र भी हैं। सप्तम परिच्छेदमें ज्वर आदि रोगोंके उपशमन हेतु अनेक यन्त्र दिये गये हैं। इन यन्त्रोंको धारण करनेसे अनेक प्रकारको सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। अष्टम परिच्छेद निमित्ताधिकार है। इसमें अनेक प्रकारके मन्त्र और यन्त्र आये हैं। नवम परिच्छेद तन्त्राधिकार है। इसमें लवंग, केशर, चंदन, नागकेशर, श्वेतसर्षप, इलायची, मनसिल, कूट, तगर, श्वेत कमल, गोरोचन, लाल चन्दन, तुलसी, पाख ओर कुटज आदि द्रव्योंको पुष्य नक्षत्रमें लाकर कुमारी कन्यासे पिसवाकर धतूरेके रसमें गोली बनाकर चन्द्रोदय होनेपर तिलक करनेसे संसार मोहित होता है। इस प्रकार १. भैरवपद्मावतीकल्प, पद्य ९-१० ।
प्रमुखाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १७५
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाना प्रकारको औषधियोंको विभिन्न नक्षत्रोंमें विभिन्न योगों द्वारा तैयार करनेसे अनेक प्रकारकी सिद्धियोंका वर्णन आया है । दशम अधिकार गारुड अधिकार है । गारुड - विद्याके आठ अंग हैं- १. संग्रह, २. अंगन्यास, ३. रक्षा, ४. स्तोभ, ५. स्तम्भन, ६. विषनाशन, ७. सचोद्य और ८ खटिकाफणिदशन । इन आठों अंगों का विस्तारसे वर्णन आया है । इस ग्रन्थकी मन्त्र-तन्त्रविधि में कुछ ऐसे अखाद्य पदार्थों के प्रयोग भी बतलाये हैं, जिनका मेल जैनधर्मके आचारशास्त्र के साथ नहीं बैठता है, पर लौकिक विषय होनेके कारण इसे उचित माना जा सकता है ।
४. सरस्वतीमन्त्रकल्प
इसका दूसरा नाम भारतीकल्प भी है। आरम्भमें कविने लिखा हैजगदीश जिनं देवमभिवन्द्याभिशंकरम् | वक्ष्ये सरस्वतीकल्प समासेनाल्पमेधसाम् || १॥ अभयज्ञानमुद्राक्षमालापुस्तकधारिणी । त्रिनेत्रा पातु मां वाणी जटाबालेन्दुमण्डिता ॥२॥ लब्धवाणोप्रसादेन मल्लिषेणन सूरिणा । रच्यते भारतीकल्पः स्वल्पजाप्यफलब्रदः ||३||
स्पष्ट है कि कविने अभयज्ञानमुद्रावाली अक्षमालाधारिणी और पुस्तकग्राहिणी, जटारूपी बालचन्द्रमासे मण्डित एवं त्रिनेत्रा सरस्वतीकी कल्पना की है । इस सरस्वतीके प्रसादसे व्यक्ति अपने मनोरथोंको पूर्ण करता है । यह सरस्वती अल्प जाप करनेसे ही सन्तुष्ट हो जाती हैं। इसमें ७५ पद्य हैं और साथ में कुछ गद्य भी है। यह भी पद्मावतीकल्पके साथ प्रकाशित है।
५.
ज्वालिनी कल्प
यह मन्यग्रन्थ है । इसकी प्रति सेठ माणिकचन्द्रजी, बम्बईके संग्रहमें है । इसमें १४ पत्र हैं और पाण्डुलिपि वि० सं० १५६२ की लिखी हुई है । यह ज्वालमालिनीकल्पसे भिन्न है ।
६. कामचाण्डाली कल्प
यह भी मन्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ है । इसके आरम्भ में लिखा है
छन्दोलंकारशास्त्र किमपि न च परं प्राकृतं संस्कृतं वा । काव्यं तच्च प्रबन्धं सुकविजनमनोरंजनं यः करोति || कुर्वन्तुर्वीशिलादौ न लिखितं किल तद्याति यावत्समाप्ति । स श्रीमान्मलिषेण जयतु कविपतिर्वाग्वधूमण्डितास्यः ।।
१७६: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
|
स्पष्ट है कि कवि कलाका उद्देश्य मनोरञ्जनमात्र मानता है। वह छन्दोलंकार अथवा भाषासम्बन्धी किसी भी अनुबन्धको महत्त्व नहीं देता । वस्तुतः काव्यके लिए छन्द, अलकायदावश्यक है भी नहीं। उसकी सत्ता ही काव्यका प्राण है । चमत्कारके रहनेसे मनोरञ्जन और रसानुभूतिके होनेसे परमानन्दको प्राप्ति काव्यमें होती है ।
|
मन्त्रका सम्बन्ध लोककल्याणके साथ है, आत्मकल्याणके साथ नहीं ! तान्त्रिक विधियों द्वारा भी लोकानुरञ्जन किया जाता है । अतएव मल्लिषेणने लोककल्याण और लोकरञ्जनके हेतु कामचाण्डालीकल्पकी रचना की है । इस कृतिकी पाण्डुलिपि बम्बई के सरस्वतीभवनमें है ।
प्रवचनसारटीका, पंचास्तिकायटीका, वज्रपंजरविधान, ब्रह्मविद्या आदि कई ग्रन्थ मल्लिषेणके नामसे उल्लिखित मिलते हैं। पर निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि ये ही मल्लिषेण इन ग्रन्थोंके भी रचयिता है। वज्रपंजरविधान और ब्रह्मविद्यामन्त्रग्रन्थ होनेके कारण इन मल्लिषेणके सम्भव हैं । वज्रपंजरविधानकी पाण्डुलिपि श्री जैन सिद्धान्त भवन आरामें है ।
इन्द्रनन्दि प्रथम
|
इन्द्रनन्दि नामके कई आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं । किन्तु यहाँ मन्त्रशास्त्रविज्ञ ज्वालमालिनीकल्पके रचयिता इन्द्रनन्दि अभिप्रेत हैं । एकसन्धिभट्टारक द्वारा विरचित जिनसंहिता में उनके पूर्ववर्ती आठ प्रतिष्ठाचार्योंका उल्लेख आया है । आर्यपने शक सं० १२४१ (वि०सं० १३७६ ) में 'जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय' नामक ग्रन्थ लिखा है । इसमें ९ प्रतिष्ठाचार्योंके उल्लेख आये हैं, जिनमें एक इन्द्रनन्दिका भी है । किन्तु इन्द्रनन्दिके नामकी जो संहिता मिलती है, उसके रचयिता प्रस्तुत इन्द्रनन्दिसे भिन्न इन्द्रनन्दि हैं। पद्य निम्न प्रकार है-बीराचार्यसुपूज्यपादजिनसेनाचार्य संभाषितो
यः पूर्वं गुणभद्रसूरिवसुनन्दीन्द्रादिनन्यज्जितः । यश्चाशावरस्तिमल्लकथितो यश्चैकसन्धिस्ततः । तेभ्यः स्वाहृत्सारमध्यरचितः स्याज्जैनपूजाक्रमः ॥ रायबहादुर डा० हीरालाल जीकी 'A Catlogue of Sanskrit and Prakrit Manscripts in the Central Provinces and Berar' नामक ग्रन्यसूची नागपुरसे ई० सन् १९२६ में प्रकाशित हुई थी। इस ग्रन्थकी प्रस्तावनायें इन्द्रनन्दिके सम्बन्ध में लिखा गया है
१. प्रशस्तिसंग्रह, आरा, १०६० ।
१२
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १७७
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
By this author we have the work Jvalamalini-Kalpa. It deals with the cult of propitiating the goddess of fire, Jvalamalini. The wosk opx:ns with an account of the circumstances of the origin of the cult. Elachatya, a sage and leader of Dravidagana, lived at Hemagrama in Daksindeya. He hal .i female Pupil namel KamalaSji. Once she becante possessed of a Brahma-kakshusa under whose influence she indulged in all sorts of acts and talks decent or indecent. .....Elacharya saught the aid of Vahnidevata that dwelt on the top of the Nilagiri hills. Ele inculcated the art which Indranandi long after him professes to expose in writing. 1
ज्वालमालिनीकल्पकी प्रशस्तिसे अवगत होता है कि इन्द्रनन्दि योगीन्द्र मन्त्रशास्त्रके विशिष्ट विद्वान थे तथा वासवनन्दिके प्रशिष्य और बप्पनन्दिके शिष्य थे। इन्होंने हेलाचार्य द्वारा उदित हए अर्थको लेकर इस ज्वालमालिनीकल्पकी रचना की है। इस ग्रन्थकी आद्यप्रशस्तिके २२ ३ पद्यमें ग्रन्थरचनाका प्रायः पूरा इतिवृत्त दिया गया है। देवीके आदेशसे ज्वालिनीमत नामक एक ग्रन्थ मलय नामक दक्षिण देशके हेम नामक ग्राममें द्रविड़ाधीश्वर हेमाचायने रचा था। उनके शिष्य गङ्गमुनि, नीलग्रीव और बीजाव नामके हुए और 'सात्तिरसञ्बा' नामक आयिका तथा 'बिरुबट्ट' नामक क्षुल्लक भी हुआ 1 इस परिपाटी एवं अविच्छिन्न सम्प्रदायसे चले आये हुए मन्त्रवादका यह ग्रन्थ कन्दर्पने जाना और उसने भी अपने पुत्र गुणनन्दि नामक मुनिके प्रति व्याख्यान किया। इन दोनों के पास रहकर इन्द्रनन्दिने उस मन्त्रशास्त्रका ग्रन्थतः और अर्थतः विशेष रूपासे अध्ययन किया । इन्द्रनन्दिने उस क्लिष्ट प्राचीन शास्त्रको हृदयमें धारणकर ललित आर्या और गीतादि छन्दोंमें हेलाचार्यके उक्त अर्थको ग्रन्थ परिवर्तनके साथ सम्पूर्ण जगतको आश्चर्यचकित करने वाले इस ग्रन्थकी रचना की। रायबहादुर डॉ हीरालाल जीने इन्द्रनन्दिकी गुरुपरम्पराका उल्लेख निम्न प्रकार किया है।
द्राविड़-गण
इन्द्रदेव
इन्द्रनन्दि ( प्रथम ) बासबनन्दि
१. ज्वालामालिनीकल्प, सूरत संस्करण, प्रास्ताविक, पृ०७ पर उघत । १७८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्षनन्दि
हर्षनन्दि ( प्रथम ) हर्षनन्दि ( द्वितीय)
इन्द्रनन्दि ( द्वितीय) इस गुरुपरम्परासे और अन्यत्र प्राप्त पन्थप्रशस्तिसे विरोध आता है। बम्बई और कारंजाकी प्रतियोंमें निम्नलिखित पद्य प्राप्त होते हैं
स श्रीवासवनंदिसन्मुनिपतिः शिष्यस्तदीयो भवेत् ॥ शिष्यस्तस्य महात्मा चतुरनियोगेषु चतुरमतिविभवः । श्रीबप्पनंदिगुरुरिति बुवमधुपनिषेवितपदान्जः ।। लोकं यस्य प्रसादादजान मुनिजनस्तत्पुराणार्थवेदी यस्याशास्तंभमूर्धान्यतिविमलयशः श्रीवितानो निबद्धः । कालास्तायेन पौराणिककविवृषभा द्योतितास्तत्पुराणव्याख्यानाद्बष्पनंदिप्रथितगुणगणस्तस्य किं वयतेत्र शिष्यस्तस्येन्द्रनंदिविमलगुणगणोद्दामधामाभिरामः
प्रज्ञा-तीक्ष्णास्रधारा-विदलितबलाज्ञानवल्लीवितानः । श्री जैन सिद्धान्तभवन आराकी पाण्डुलिपिमें दशम परिच्छेदके अन्त में जो प्रशस्ति दी गयी है, वह इससे भिन्न है। आग वाली प्रतिमें अंकित गुरुपरम्परा रायबहादुर डा. हीरालालजी द्वारा उल्लिखित गुरुपरम्पराके समान है। यथा
स श्रीवासवनन्दिसन्मुनिपति: शिष्यस्तदीयो भवेत् ॥ शिष्यस्तस्य महात्मा चतुरनियोगेषु चतुरमिति विभवः ।
श्री वर्षनन्दिगुरुरिति बुधमघुपनिसेवितपदान्जः ।। लोके यस्य प्रसादादजनि मुनिजनः सत्पुराणार्थवेदी ।
यस्याशास्तम्भमुर्धन्यतिविमलयशः श्रीवितानो निबद्धः xxxपौराणिककविवृषभाद्योतितास्तत्पुराण
व्याख्यानाद्-हर्षनन्दि प्रथितगुणस्तस्य किं वयतेऽत्र
१. जैन प्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली पृ. १३८-१३९ पर उद्धृत ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य ; १७९
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिष्यस्तस्येन्द्रनन्दिचिमलगुणगणोद्दामधामाभिरामः
प्रज्ञतीक्ष्णास्त्राविमलितबलाज्ञानवल्ली वितान:' ।
स्थिति-काल
इन्द्रनन्दिने अपने इस ग्रन्थको रचनाका समय उद्धृत किया है। यह पदा जैन भवनकी प्रतिकरमानन्द जी द्वारा प्रकाशित प्रशस्तिसंग्रह में समान है । पत्र निम्नप्रकार है
अष्टशतस्यैकपष्टि (८६१) प्रमाणशकवत्सरेष्वतीतेषु । श्रीमान्यखेटकटके पर्वप्यक्ष [ अ ] तृतीयायाम् || शतदलसहित चतुःशत्तपरिमाणग्रंथरचनाया युक्तं । श्रीकृष्ण राज राज्ये समाप्तमेतन्मतं देव्या: ॥
अर्थात्, इस ग्रन्थकी समाप्ति मान्यलेट में (वर्तमान मलखेड़ में ) शक सं० ८६१ ई० (सन् ९३९) में अक्षयतृतीया के दिन हुई । अतएव स्पष्ट है कि आचार्य इन्द्रनन्दि योगीन्द्र का समय ई० सन् की दशम शताब्दीका पूर्वार्द्ध है। आचार्य नेमिचन्द्र गुरुके रूप में जिन इन्द्रनन्दिका उल्लेख किया है, समयकी दृष्टिसे वे यही इन्द्रनन्दि सम्भावित हो सकते हैं, पर विषयवस्तु और आगमज्ञानकी दृष्टि से ये दोनों इन्द्रनन्दि भिन्न प्रतीत होते हैं ।
रचना - परिचय
ज्वालमालिनीकल्प मन्त्रशास्त्रका उत्कृष्ट ग्रन्थ है । प्रस्तुत ग्रन्थ दश परिच्छेदोंमें विभक्त है । इन परिच्छेदों के नाम निम्न प्रकार हैं
१. मन्त्रीलक्षण - अर्थात् मन्त्रसाधकके लक्षण
२. दिव्यादिव्यग्रह- दिव्यस्त्रीग्रह, दिव्यपुरुषग्रह, अदिव्यस्त्रीग्रह, अदिव्यपुरुषग्रह |
३. सकलीकरण क्रिया - अंशुद्धि, बीजाक्षरज्ञान |
४. मण्डलपरिज्ञान - सामान्य मण्डल, सर्वतोभद्रमण्डल आदि मण्डलोंका विवेचन |
५. भूताकम्पन तेल
६. रक्षास्तम्भन—बश्य प्रकरण 1
१७. वशीकरण प्रकरण ।
--
१. ज्वालमालिनीकल्प, आरा जैन सिद्धान्त भवनकी हस्तलिखित अन्तिम प्रशस्ति ।
२. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, पू० १३९ पर उधृत |
१८० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
८. पूजनविधि प्रकरण | ९. नीराजनविधि ।
१०. शिष्यपरीक्षा एवं शिष्यप्रदेयस्तोत्र आदि विवरण |
प्रथम परिच्छेद ३५ पद्म हैं। मंगलाचरणके पश्चात् ज्वालामालिनी देवीके स्वरूपका वर्णन किया गया है । पश्चात् ग्रन्थरचनाका कारण बतलाते हुए कमलीकी कथा अंकित है । कमलश्रीको ग्रहबाधा थी, जिसे ज्वालामालिनीदेवी द्वारा मन्त्र प्राप्त कर दूर किया गया। इसी परिच्छेदमें गुरुपरम्पराका भी उल्लेख आया है । इस परम्परा बताया है कि कन्दर्प नामक भुनिने इस मन्त्रशास्त्रका उपदेश गुणनन्दिको दिया और इन्द्रनन्दिने इन दोनोंसे इस ग्रन्थका अध्ययन किया । २८वें पद्यमें ग्रन्थको विषयानुक्रमणिका अंकित है । ३०वें पद्यसे ३५ वें पद्यपर्यन्त मन्त्रसाधकका लक्षण दिया गया है । मन्त्रसाधना करने वालेको गुरुभक्त, सत्यवादी, चतुर, ब्रह्मचारी और भक्तिपरायण होना चाहिये ।
द्वितीय परिच्छेद में ग्रहोंसे अभिभूत होने वाले व्यक्तियोंके लक्षणों का वर्णन है । ग्रहोंके दिव्य और अदिव्य दो भेद कर कौन ग्रह किसको पीड़ा पहुंचाता है, इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। ग्रहोंको कीलित करनेके लिये बीजाक्षर और ध्वनियाँ भी निबद्ध की गयी हैं। इस परिच्छेदमं २२ पद्य हैं ।
तृतीय परिच्छेद में सकलीकरण क्रियाका शरीरके अंग और उपांगोको किनकिन बीजाक्षरों द्वारा शुद्ध और रक्षित किया जा सकता है इसका भी वर्णन आया है । मन्त्रों में जया, बिजया, अजिता अपराजिता, जम्भा, मोहा, गौरी और गान्धारी इन देवियोंके लिए कौन-कौन बीजाक्षर जोड़कर मन्त्र तैयार किये जाते हैं, इसका विवेचन आया है । इस परिच्छेदके अन्तमें ४ रक्षामन्त्र हैं, जिनके द्वारा शरीर, स्थान, आसन आदिको रक्षा की जाती। इस परिच्छेदमें कुल ८३ पद्य है । ज्वालमालिनीका ध्यान करनेकी विधि ग्रहनिग्रहनिधान, भूताख्य गायत्रीमन्त्र और उसकी शक्ति, कामार्थक मन्त्र और उसकी तर्जनी मुद्रा, भंजनमन्त्र, भंजनमुद्रा, आध्यायनमन्त्र, आध्यायनमुद्राके वर्णनके पश्चात् बीजाक्षरोंका ज्ञान और महत्व वर्णित है। बीजोंकी शक्तिय तथा द्वादश विधि-वीजाक्षर एवं साधना विधि भी बतलायी गयी है ।
चतुर्थ परिच्छेद ४४ पद्य हैं। इस परिच्छेदके प्रारम्भमें मण्डल बनानेकी विधि निबद्ध है । मन्त्रसिद्धिके लिए आठ हाथ चौरस भूमिमें मण्डल बनाया जाता है । मण्डल पांच रंगोंके चूर्णेस चार द्वारों वाला एवं अनेक प्रकारकी ध्वजापताकाओं से युक्त होता है। पुरुष प्रवेश करनेके योग्य द्वार पर पीपलके
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: १८१
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
तोरण लगाकर सभी दिशाओंमें मशालके समीप जलसे भरे हर घटोको स्थापित करे । इसके पूर्व आदि आठ कोणोंमें इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत्त, बरुण, यम, कुबेर और ईशान देवाको समस्त लक्षणोंस युवन करे। इन्द्रको पीत, अग्निको अग्नितुल्य, यमको अत्यन्त कृष्ण, नैऋतको हरित, वरुणको चन्द्रमाके समान, वायुको असित
-धूमिल वर्ण, कुबेरका समस्त रंग युक्त और ईशान देवको श्वेत वर्ण युक्त अंकित करे । इनके वाहन क्रमशः गज, मेष, महिप, शत्र, मकर, मृग, तुरंग और वृषभ हैं। इनके हाथों में बत्र, अग्नि, दण्ड, शक्ति, तलवार, पाश, महातुरंग, दात्रि और शल हैं। इन लोकपालोंके बीच में देवीकी आकृति बनाये | अनन्तर मन्त्रीको स्थापना कर पूजा करें। इस प्रकरण विभिन्न प्रकारके मन्त्र भी दिये गये हैं तथा पञ्चोपचारका विधान है। इसके पश्चात् सर्वतोभद्र मण्डल बनाने की विधि वणित है। इस मण्डलमें मेघ, महामेघ, ज्वाल, लोल, काल, स्थित, अनील, रोद्र, अतिरौद्र, सजल, अजल, हिमका, हिमाचल, लुलित, महाकाल और नान्दिके अंकित करनेका निर्देश आया है ।
समयमण्डल एवं विभिन्न मन्त्रोंका उल्लेख करने के पश्चात् सत्यमण्डल रचनाको विधि दी गयी है। इन मण्डलों द्वारा मन्त्राराधनाकी विधि एवं महत्त्व अंकित किया गया है।
पञ्चम परिच्छेदमें २० पद्य हैं। इसमें भूता-झम्पन-तलका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। इस तलको बनानेमें पूतिक, शुक-तुण्डिका, काक-तुण्डिका, अश्वगन्धा, भृकुषमांडि, इन्द्र, वारणी, पूति, दमन, अग्रगन्धा, श्रीपर्णी, असगंध, कुटज, कुकरंजा, गोशृंगि, शृंगिनाग, सर्पविप, मुष्टिका, अंजीर, भीलीसत्, चकांगी, स्वरकर्णी, गोररू, सवलेका, बिप, कनक, बराही, अंकोल, अस्थि, प्रभ, लज्जरिका, पालिका, काम, मदनतरु, भिलावा, काकजंघा, कन्ध्या, देवदारु, बुहती, सहदेवी, गिरिकणिका, नदिल्लिका, अकशल हस्तिकर्णी, नीम, महानीम, सिरस, लोकेश्वरी, दान्य, पारिवृक्ष, महावृक्ष, कटुकहार, उपयोगिमूल, श्वेत और लाल जयादि, ब्राह्मी, कोकिलाक्ष, मंग, देवपालि, कटुकॅबी, सिंहकेसकर, घोषालिका, अर्कभक्ति, पतिलता, मुक्तिलता, अतिमुक्तकलता, भगमुष्कि, नागकेशर, शार्दूलनखी, पुत्रजीवी, शीग्रह, एरण्ड, तुलसी, सन्ध्या, अपामार्ग एवं गजमद आदि
औषधियोंका प्रयोग किया जाता है 1 उपर्युक्त औषधियोंको कूट-पीस कर विभिन्न प्रकारकी वस्तुओं द्वारा भावना देनेकी विधि भी वर्णित है।
षष्ट परिच्छेदमें ४७ पद्य हैं ! सर्वप्रथम सर्वरक्षामन्त्रकी विधिका वर्णन करते हुए द्वादश कमलपत्रोंमें बीजाक्षरोंको सुगन्धित द्रव्य द्वारा लिखनेका वर्णन आया है। यह मन्त्र रोग, पीडा, अपमृत्यु, भय, ग्रह और पिशाचपीडा आदिसे १८२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
रक्षा करता है | मोहनवश्य, स्त्री-आकर्षण, सेनस्तम्भन जिह्वास्तम्भन, क्रोधस्तम्भन आदिका भी वर्णन आया है। आवेष्टनमन्त्र के पश्चात् विभिन्न प्रकारके यन्त्र बनानेकी प्रक्रियाका वर्णन आया है । यन्त्र-मन्त्रकी दृष्टिसे यह परिच्छेद महत्वपूर्ण है ।
सप्तम परिच्छेद में ५१ पद्म हैं । शरपुंखी, सहदेवी, तुलसी, कस्तूरी, कर्पूर गोरोचन, गजमद, मनःशिला, दमनक, जातिपुष्प, अमीपुष्प और हरिकांता को समभाग लेकर तिलक करनेसे सभी लोग कामें होते हैं। इसी प्रकार इलायची, लौंग, चन्दन, लगर, कमल, कूट, कुकुम, उशीर, गौरोचन, नागकेशर, मनशिल, राजिका, हिक्का, तुलसी और पद्मास्त्रको समभाग लेकर पुष्य नक्षत्र में कन्यासे पिसवाये । इसका अंजन करनेसे सभीको पराजित किया जा सकता है । बशीकरण और सुखदायक अंजनोंकी और भी कई विधियां वर्णित हैं। वशीकरण दशरारिक अंजन एवं वश्यप्रयोग भी आये हैं। वश्यनमक, वश्यतैल, कामवारण, चूर्णं, योनिशोधक लेप एवं सन्तानदायक औषधिका वर्णन आया है ।
अष्टम परिच्छेद २५ पद्य हैं । इस प्रकरणमें देबीकी पूजाविधिका कथन आया है । सर्वप्रथम स्नानविधि, अंजनविधि, तिलकविधि एवं देवीकी आरधनाकी विभिन्न विधियाँ अंकित हैं । ज्वालामालिनी देवोकी पूजाविधि और पूजाफल भी वर्णित है । वसुधारमन्त्र, नवग्रहमन्त्र एवं विभिन्न अनुष्ठेय मन्त्रोंका कथन भी किया गया है।
नवम परिच्छेद २५ पद्य हैं और नीराजनविधि गित है नीराजन द्रव्यके साथ मातृकान एवं समन्त्र विभिन्न द्रव्यांसे देवीकी आरती और पूजाकी विधि आयी है ।
दशम परिच्छेदमें २० पद्योंमें शिष्यको विद्या देनेकी विधिके निरूपणके पश्चात् चन्द्रनाथपूजा, ज्वालामालिनीपूजा, हवन और जार्याविधि, ज्वालमालिनीस्तोत्र, मूलमन्त्र, मन्त्रोद्धार, वशीकरणमन्त्र, ज्वालामालिनी देवीके साधनकी तृतीय विधि, ध्यानमन्त्र, पञ्चोपचार मन्त्र, कौमारी देवी, वैष्णवोदेवी वाराहीदेवी, ऐन्द्रीदेवी चामुण्डादेवी, एवं महालक्ष्मीदेवीकी पूजनविधि वर्णित है । गद्यमय ज्वालमालिनीस्तोत्र और चन्द्रप्रभस्तवनके अनन्तर ग्रन्थ समाप्त हुआ है । चन्द्रप्रभस्तोत्रमें शौरसेनी, मागधी, अपभ्रंश, पेशाची, चूलिका पैशाची और संस्कृतका एक साथ प्रयोग किया गया है। शौरसेनी --
विगद दुह देहु मोहारि केदूदयं,
ददि गुरु दुरिद मध विहिद कुमुदक्स्वयं ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १८३
1
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाचतं नमदिजो सकर नद बच्छल
लहदि निच्चदि गदि सोदह णिम्मलं ॥ मागधी
अशुल शुल विलशन लनाय शेविव पदे,
नमिल जय जंतु तुदिन्नशिब दुल पदे । चलन पुल निलद शिशालि शलशी लुदे,
देहि मह शा मिव शालि शाशद पदे ॥ स्तोत्र बीजाक्षरगर्भित है और मन्त्रशास्त्रको दृष्टिसे महत्वपूर्ण है ।
हमारा अनुमान है कि यह स्तोत्र इन्द्रनन्दि विचित नहीं है, किसीने पीछेसे इसे जोड़ दिया है। मूल ग्रन्थ दशम परिच्छेदके अनन्तर समाप्त हो जाता है । अतः बादमें जितने पूजा-पाठ आये हैं, वे सभी अन्य किसीके द्वारा रचित हैं।
इस मन्त्रग्रन्थमें भारतकी ८-९वीं शतीकी मान्त्रिक परम्पराका संकलन किया गया है । आचार्यने जहां-तहाँ पंचपरमेष्ठी और उनके बीजाक्षरोंका निर्देश कर सामान्य मन्त्रपरम्पराको जेनत्वका रूप दिया है । जेनदर्शन और जैन तत्त्वज्ञानके साथ इसका कोई भी मेल नहीं है पर लोकविधिके अन्तर्गत इसकी उपयोगिता है । मध्यकालमें फलाकांक्षी व्यक्ति श्रद्धानसे विचलित हो रहे थे, अत: उस युगमें जैन-मन्त्रोंका विधान कर जनसाधारणको इस लोकैषणामें स्थित किया है।
जिनचन्द्राचार्य सिद्धान्तसार ग्रन्यके रचयिता जिनचन्द्राचार्य हैं । इस ग्रन्थकी उपान्त्य गाथामें बताया है--
पवयणपमाणलक्खणछंदालंकाररहियहियाएण।
जिणइंदेण पउत्तं इणमागमभत्तिजुत्तेण' ॥ इस गाथामें "जिणइदेण' पदसे संस्कृत रूपान्तर जिनचन्द्र ही सिद्ध होता है, जिनेन्द्र नहीं। अतएव भाष्यकारने 'जिनचन्द्रनाम्ना सिद्धान्तग्रन्थ वेदिना' जो अर्थ किया है वह बिल्कुल यथार्थ है । श्री नाथूराम प्रेमीने सिद्धान्तसारादिसंग्रहको प्रस्तावनामें सम्भावना की है कि जिनचन्द्र भास्करनन्दिके गुरु हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके ५५वें शिलालेखमें आया है । सस्वार्थको सुखबोधिका, टीकामें निम्नलिखित प्रशस्ति प्राप्त होती है, जिसमें भास्करनन्दिके गुरु जिनचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रोके पारंगत विद्वान बतलाये गये हैं--- १. सिद्धान्तसारादिसंग्रह, माणिकचन्न दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, पद्य ७८, पृ० ५२ । १८४ : तीपंकर महावीर और उनको श्राचार्यपरभरा
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
तस्यासीत्सुविशुद्धदृष्टिविभवः सिद्धान्तपारंगतः 1 शिष्यः श्रीजिनचन्द्रनामकलितश्चारित्रचूडामणिः ॥ शिष्यो भास्करनन्दिनामविबुधस्तस्याभवत्तश्ववित् । तेनाकारि सुखादिबोधविषया तत्त्वार्थवृत्तिः स्फुटम् ||
सुखबोधिक टीकाका निश्चित समय ज्ञात नहीं है । पर पं० शान्तिराज शास्त्रीने इसका रचना काल वि० सं० १३५३ के लगभग माना है । ग्रन्थके अन्त रंग परीक्षण करनेसे ये जिनचन्द्र सिद्धान्तसारके कर्ता प्रतीत नहीं होते हैं ।
जिनचन्द्र नामके एक अन्य सिद्धान्तवेना विद्वान् और हुए हैं । ये धर्म संग्रहश्रावकाचारके कर्त्ता मेधावीके गुरु और पाण्डवपुराणके कर्ता शुभचन्द्रके शिष्य थे । तिलोयपत्तिकी दान- प्रशस्तिमें इनका परिचय निम्न प्रकार दिया गया है
अथ श्रीमूलसंघेऽस्मिन्नन्दिसंघेऽनघेञ्जनि । बलात्कारगणस्तत्र गच्छः सारस्वतस्त्वभृत् ॥ तत्राजनि प्रभाचन्द्रः सूरिचन्द्राजितांगजः । दर्शनज्ञानवीर्यसमन्वितः ॥ श्रीमाम्बभूव मार्तण्डस्तत्पट्टदयभूधरं । पद्यनन्दी बुधानन्दी तमच्छेदी मुनिप्रभुः ॥ तत्पट्टाम्बुधिमच्चन्द्रः शुभचन्द्रः सतां वरः । पंचाक्षवनदावाग्निः कपक्ष्माधराशनिः ॥ तदीयपट्टाम्बरभानुमालीक्षमादिनानागुणरत्नमाली । भट्टारकथीजिनचन्द्रनामा सैद्धान्तिकानां भुत्रियोस्ति मोभा ॥
सरस्वतीइस दानप्रशस्ति में मेधावीने अपनी गुरुपरम्पराका परिचय देते हुए गच्छके प्रभाचन्द्र - पद्मनन्दि शुभचन्द्रके शिष्य जिनचन्द्रका उल्लेख किया है । जो सैद्धान्तिकोंकी पंक्ति में परिगणित थे । उक्त प्रशस्ति वि०स० १५१० में लिखी गयी है । उस समय जिनचन्द्र वर्तमान थे। सिद्धान्तसारकी प्रभाचन्द्र द्वारा निर्मित एक कन्नड़ टीका भी 'जैन सिद्धान्त भवन आरामें है । यह टीका कब लिखी गयी इसका कोई निर्देश नहीं है । 'कर्नाटक कविचरिते में प्रभाचन्द्रका समय १३ वीं शताब्दी अनुमानित किया है । अतः उक्त दोनों ही जिनचन्द्र सिद्धान्तसारके रचयिता नहीं हैं ।
.
सिद्धान्तसारग्रन्थका अध्ययन करने से यह ज्ञाता होता है कि इस ग्रन्थपर गोम्मटसार जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड इन दोनोंका प्रभाव है। आचार्य नेमिचन्द्रके गोम्मटसारका अध्ययन कर ही इस ग्रन्थकी रचना जिनचन्द्रने की है। सिद्धा
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १८५
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्तसारको प्रारम्भिक गाथाएँ गोम्मटसार जीवकाण्डसे पूर्णतया प्रभावित हैं। जीवकाण्डमें सिद्धगतिका वर्णन करते हए बताया है कि सिद्धजीवोंकी सिद्धगति केवलज्ञान क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, अनाहार और उपयोगकी अक्रम प्रवृत्ति होती हैं।
सिद्धपरमेष्ठी-१४ गुणस्थान, १४ जीव-समास, ४ जीव संज्ञा, ६ पर्याप्ति, १० प्राण-इनसे रहित होते हैं तथा इनके सिद्धगति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और अनाहारको छोड़कर शेष नव मार्गणा नहीं पायी जाती। ये सिद्ध सदा शुद्ध ही रहते हैं, क्योंकि मुक्ति प्राप्तिके बाद पुनः कर्मका बन्ध नहीं होता । यथा
सिद्धाण सिद्धगई केबलणाणं च दसणं खइयं । सम्मत्तमणाहारं उवजोगाणक्कमपउत्ती ।। गुणजीवठाणरहिया सण्णापज्जत्तिपाणपरिहोणा। सेसणवमागणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ॥
जीवगुणठाणसण्णापज्जतीपाणमग्गणणचूर्ण । सिद्धतसारमिणमो भणामि सिद्धे णमंसित्ता ॥ जिला सिमा सण म पलं खइयं ।
सम्मत्तमणाहारे सेसा संसारिए जीवे ॥ इन गाथाओंकी तुलनासे स्पष्ट है कि आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके पश्चात् हो सिद्धान्तसारके रचयिता जिनचन्द्र हुए होंगे । आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई० सन् की दशम शताब्दी है। सिद्धान्तसारपर प्रभाचन्द्रने विक्रमको १३ वीं शताब्दीमें कन्नड़ टीका लिखी है । अतएव जिनचन्द्रका समय नेमिचन्द्र और प्रभाचन्द्रके मध्यमें होना चाहिए । अर्थात् ई० सन् की ११ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध या १२ वीं शताब्दीका पूर्वार्थ निश्चित है। रचना-परिचय
जिनचन्द्रका सिद्धान्तसार प्राकृतभाषामें निबद्ध उपलब्ध है। इस ग्रन्थपर ज्ञानभूषणका संस्कृतभाष्य भी है। इसका प्रकाशन माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे सिद्धान्तसारादिसंग्रहके रूपमें हो चुका है। इसमें ७९ गाथाएं हैं। आचार्यने १४ मार्गणाओंमें जीवसमासों, गुणस्थानों, योगों और उपयोगोंका वर्णन किया है। १४ जीवसमासोंमें योगों और उपयोगोंका एवं १४ गुणस्थानोंमें योगों
१. गोम्मटसार जीवकाण्ड, रायचन्द जैनशास्त्रमाला, पद्य-७३०-३१, पृ. २७२ । २. सिसान्तसाराविसंग्रह, माणिकपन्द्र प्रस्थमाला, पद्य १.२, पृ० १-२ ।
१८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
और उपयोगोंका वर्णन किया गया है। १४ मार्गणाओं, १४ जीबसमामों और १४ गुणस्थानों में बन्धके ५७ प्रत्ययोंका कथन किया किया गया है। ग्रन्थकारने इस ग्रन्थमें १४ मार्गणाओंमें जीवसमासोंका वर्णम ११ गाथाओंमें, पश्चात् मार्गणाओं में गुणस्थानोंका १२से २० अर्थात ९, गाथाओंमें वर्णन किया है । २१वीं गाथासे ३१वीं गाथा तक १४ मार्गणाओंमें १५ योगोंका कथन किया है | ३वी गाथासे ४२वी गाथापयंन्त १४ गुणस्थानोंमें दादा उपयोगीका वर्णन किया गया है ! ४३वीं और ४४वी गाथाम १४ जोवसमासोंमें १५ योगोंका और ४५वीं गाथामें उपयोगोंका वर्णन आया है। ४६वीं गाथामें चतुर्दश गुणस्थानों में यथासम्भव योगोंका और 6दी गाथाम चतुर्दश गुणस्थानों में द्वादश उपयोगोंका वर्णन आया है। ४८वीं गाथासे चतुर्दश मार्गणाओंमें ५७ प्रत्ययोंका कथन ७०वीं गाथा तक किया गया है। ७१वीं गाथासे ७५वीं गाथापर्यन्त चतुर्दश गुणस्थानोंमें प्रत्ययोंका निस्तापण आया है। ७८वीं गाथामें ग्रन्थकारका नामांकन और ७९वी गाथामें सिद्धान्तसारका महत्त्व बतलाया गया है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रन्थमें पर्याप्त संद्धान्तिक विषयोंकी चर्चा आयी है ।
श्रीधराचार्य
___ श्रीधराचायं नामके अनेक जैन विद्वान हुए हैं। श्री प्रेमीजी द्वारा लिखित "दिगम्बर जैन ग्रन्यकर्त्ता और उनके ग्रन्थ' नामक पुस्तवसे एक श्रीधराचार्यकी सूचना मिलती है, जो श्रुतावतार-गध और भविष्यदत्तचरित नामक ग्रन्थोंके रचयिता हैं। सुकुमालचरिज के रचयिताके रूपमें श्रीधाराचार्य अपभ्र शके रचनाकार हैं। इस ग्रन्थको रचनाका कारण बतलाते हुए लिखा है कि बलदके जैनमन्दिरमें, जहाँके शासक गोबिन्दचन्द्र थे, पद्मचन्द्र नामक एक मुनि उपदेश दे रहे थे। उपदेशमें उन्होंने सुकुमालस्वामीका उल्लेख किया । श्रोताओंमें पीछे साहूका पुत्र कुमार नामक एक व्यक्ति था, जिसने सुकुमालस्वामीकी कथाके विषयमें अधिक जाननेकी इच्छा व्यक्त की, किन्तु मुनिराजने कुमारको श्रीधराचार्यसे अभ्यर्थना करनेको कहा, जो कि उसकी जिज्ञासा शान्त कर सकते थे। अतः कुमारने श्रीधराचार्यको सुकुभालचरित रचनेके लिए प्रेरित किया। कुमार साहको पुरवाड़ कुलका बताया है। आचार्यने अपनी कृति भी इन्हींको समर्पित की है । ग्रन्थ समाप्तिकी तिथि भी निम्न प्रकार है
बारहसइयं गयई कयहरिसइं । अट्ठोत्तरई महीयले वरिसई । कसणपक्खे अग्गहणे जाया! | तिजदिवसे ससिवारि समापए ।।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १८७
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थात् १२०८ वर्ष व्यतीत होनेपर मार्गशीर्ष कृष्णा तृतीया चन्द्रवारको यह ग्रन्थ समाप्त हुआ ।
।
एक अन्य श्रीधरने अनंगपालके मन्त्री नट्टलसाहूकी प्रेरणापर सं० १९८९ में 'पासणाहचरिउ' की रचना की है । ये कवि हैं और इन्होंने चन्द्रप्रभचरित और वर्धमानचरितकी भी रचना की है । कवि हरियाणा देशके निवासी थे और अग्रवाल कुलमें उत्पन्न हुए थे। आपके पिताका नाम गोल्हू और माताका नाम बिल्हा देवी था ।
सेनसंघ में श्रीधर नामके एक अन्य प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। ये काव्यशास्त्रके मर्मज्ञ, नानाशास्त्रोंके पारगामी और विश्वलोचनकोषके कर्ता हैं । इनके गुरुका नाम मुनिसेन बताया जाता है ।
श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं० ४२ और ४३ में दो आचार्य आये हैं । एक आचार्य दामनन्दीके शिष्य और दूसरे मलधारिदेव के शिष्य हैं। इस नामके एक आचार्य वैद्यामृतके कर्त्ता भी माने गये हैं । शास्त्रसारसमुच्चयके रचयिता माघनन्दीने अपनी गुरुपरम्परामें श्रीधरदेवका नाम बताया है ।
I
गणितसार के रचयिताका नाम श्रीधराचार्य है । इनके नामके साथ आचार्य शब्द भी जुड़ा हुआ है, अतएव गणित और ज्योतिषमान्य आचार्य श्रीधर उपर्युक्त सभी श्रीधराचार्योंसे भिन्न हैं ।
नन्दिसंघ बलात्कारगणके आचार्यों में श्रीधराचार्यका नाम यथावत् मिलता है । दशभक्त्यादि महाशास्त्र में कविवर वर्धमानने नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावली निम्न प्रकार दी है'
वर्द्धमान भट्टारक, पद्मनन्दि, श्रीधराचार्य, देवचन्द्र, कनकन्चन्द्र, नयकीति, रविचन्द्रदेव, श्रुतीति देव, वीरनन्दि, जिनचन्द्रदेव, भट्टारक वर्धमान, श्रीधर पण्डित, वासुपूज्य उदयचन्द्र, कुमुदचन्द्र, माघनन्दि, वर्द्धमान, माणिक्यनन्दि, गुणकीत्ति, गुणचन्द्र, अभयनन्दि, सकलचन्द्र त्रिभुवनचन्द्र, चन्द्रकीर्ति, श्रुतकीत्ति, बर्द्धमान, विधवासुपूज्य, कुमुदचन्द्र और भुवनचन्द्र ।
J
उपर्युक्त गुर्वावली में श्रीधराचार्य और श्रीधर पण्डित ये दो व्यक्ति आये है । इनमें श्रीधराचार्य गणितसार, जातकतिलक, कन्नड़ लीलावती, ज्योतिर्ज्ञान
१. प्रशस्तिसंग्रह, आरा, पृ० १३३ ।
२. वस्थ मौरवण्यपद्मनन्दित्रैविधेशो गुणालयः ।
अभवच्छ्रीधराचार्यस्तत्सधर्मा महाप्रभः ॥ दश भक्त्यादिमहाशास्त्र, जैन सिद्धान्त
भवन, बारा, पृ० १०१ ।
१८८ : सीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
!
विधि आदि ज्योतिष विषयक ग्रन्थोंके रचयिता और श्रीवर पण्डित जयकुमारचरित के रचयिता है।
स्थितिकाल
'कर्णाटकविचरित' के उद्धरणसं ज्ञात होता है कि श्रीधराचार्य के 'जातकतिलक' का रचनाकाल ईस्वी सन् २०४९ है । महावीराचार्य के गणितसारमें---- धनं वनर्णयोगां मूल स्वर्ण तयोः क्रमात् । ऋणं स्वरूपतोऽज्वगं यतस्तस्मान्न तत्पदम् ॥
धनात्मक एवं ऋणात्मक राशियोंका वर्ग धनात्मक होता है और उस वर्ग - राशिके वर्गमूल क्रमशः धनात्मक और ऋणात्मक होते हैं । यतः वस्तुओंके स्वभाव (प्रकृति) में ऋणात्मक राशि, वर्गराशि नहीं होती, इसलिये उसका कोई वर्गमूल नहीं होता ।
उपर्युक्त गणितसारसंग्रहका सूत्र श्रीधराचार्यका सूत्र है | अतः स्पष्ट है कि श्रीधराचार्य महावीराचार्य के पूर्ववर्ती हैं। महावीराचार्य ने अपने गणितसारसंग्रहमें अमोघवर्षका निम्न प्रकार स्मरण किया है
प्रीणितः प्राणिसस्यौघो निरीतिर्निरवग्रहः । श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वष्टहितैषिणा ||
X
X
X
विध्वस्तैकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवादिनः । देवस्य नृपतुङ्गस्य बर्धतां तस्य शासनम्' ||
इन पद्योंसे स्पष्ट है कि अमोघवर्ष के शासनकाल में गणितसारसंग्रहकी रचना हुई है । राष्ट्रकूटशी इस राजाका समय ईस्वी सन् ८१५-८६५ है । अतएव गणितसारसंग्रहकी रचना नवीं शताब्दीमें हुई है। इस प्रकार श्रीधराचार्यका समय ईस्वी सन् ८० के पहले आता है ।
श्रीधराचार्यका उल्लेख भास्कराचार्य, केशव, दिवाकर, देवज्ञ आदिने आदरपूर्वक किया है।
१. गणितसारसंग्रह, सोलापूर संस्करण, १५२ ॥
२. वही, १ ३ ।
५.
३. वही, ११८
४. यत् पुनः श्रीचराचार्य ब्रह्मगुप्त्या दिभिर्व्यासवर्गाद्दशगुणात्पदं परिधिः स्थूलोऽङ्गीकृतः स सुखार्यम् । न हि तं जानन्तीति — सिद्धान्तशिरोमणि गोलाध्याय, भुवनकोश, श्लो ० ५२ की टीका ।
श्रेष्ठं रिष्टहृतो दशाक्तम् इहोजः श्रीधरादयोदितम् ।
कष्टेष्टघनबलान्तरात् क्व च कृतं तद्युक्तिशून्यं त्वसत् । - केशवीय पद्धति ०३२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १८९
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीधराचार्य द्वारा विरचित ज्योतिर्ज्ञानविधिमें एक प्रकरण प्रतिष्ठामुहूता है, इस प्रकरणके समस्त पद्य वसुनन्दि-प्रतिष्टापाठमें ज्यों-के-त्यों उद्धृत हैं। ज्योतिर्ज्ञानविधि ज्योतिषका स्वतन्त्र ग्रंथ है, अतः प्रतिष्ठापाठके मुहूर्त विषयक श्लोक इस ग्रन्थमेंसे लेकर प्रतिष्ठापाठमें उद्धृत किये गये होंगे। जैनसाहित्य वनादिनामवे तीन लावार्य मिलते हैं....-एकका समय वि०सं० ५३६, दुसरेका वि०सं०७०४ और तीसरेका विक्रम संवत् १३९५ है। मेरा अनुमान है कि अन्तिम बसुनन्दि ही प्रतिष्ठापाठके रचयिता है । अत्तः यह मानना पड़ेगा कि विक्रम संवत् १३९५में श्रीधराचार्यके प्रतिष्ठामुहर्नश्लोकोंका संकलन वसुनन्दिने किया है।
श्रीधराचार्यके समयनिर्धारणके लिए एक और मबल प्रमाण ज्योतिर्ज्ञानविधिका है । इस ग्रन्थमें मासध्रुवा साधनकी प्रक्रिया करने में वर्तमान शकाब्दमेंसे एक स्थानपर ७२० और प्रकारान्तरसे पुनः इस क्रियाके साधनमें ७२१ घटाये जानेका कथन है। ज्योतिषशास्त्र में यह नियम है कि अहर्गण साधनके लिए प्रत्येक गणक अपने गत शकाब्दके वर्षोंको या वर्तमान शकाब्दके वर्षोंको क्रिया करते समयके शकाब्दके वर्षों से घटाकर अन्य क्रियाका बिधान बतलाता है। उदाहरणार्थ ग्रहलाघव आदि कर्णग्रन्थोंको लिया जा सकता है। इन ग्रंथोंके रचयिताओंने अपने समयके गत शकाब्दको घटानेका विधान बताया है । अतएव यह निश्चित है कि श्रीधराचार्यने भी अपने समयके गत शफाब्द और वर्तमान शकाब्दको घटानेका विधान किया है । जहाँ इन्होंने क्रिया करते समयके शकाब्दमेंसे ७२०को घटानेका विधान बतलाया है, वहीं गत शकाब्द माना जायेगा और जहाँ ७२१के घटानेका कथन है, वहाँ वह वर्तमान शक है ।
इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रमाण यह भी है कि प्रकारान्तरसे मासध्रुवानयनमें ७२१को करणाब्दकाल बतलाया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि शक संवत् ७२१में ज्योतिर्ज्ञानविधिकी रचना हुई है । लिखा है
करथिन्यूनं शकाब्दं करणान्दं रयगुणं द्विसंस्थाप्य । रागहृतमदोलब्धं गतमांमाश्चोपरि प्रयोज्य पुनः ।। संस्थाप्याधो राधागणिते खगुणं तु वर्षदेखादि ।।
संत्याज्ये नीचाप्ते लब्धा वारास्तु शेषाः घटिकाः स्युः ।।२।। १. ज्योतिनिविधि-आग पाण्डुलिपि, पृ० २६ । २. वमुनन्विप्रतिष्ठापाठ, प्रथम परिच्छेद, पद्य १-६ । ३. ज्योतिनिविधि, आरा जैनासदान्त भवन को पाण्डुलिपि. पत्र ५ ।
१९० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थात् करथि - ७२१ करणाब्द शकको वर्तमान शक में से घटाकर १२ से गुणा कर गुणनफलको दो स्थानोंमें रखना चाहिये । एक स्थानपर ३२से भाग देनेसे जो लब्ध आये उसे गतमास समझना और गतमासोंको अन्य स्थानबाली राशिमें जोड़ देना चाहिये । पुनः तीन स्थानों में इस राशिको रखकर एक स्थानमें ९ २ से, दूसरे में रसे और तीसरे में २२से गुणा कर क्रमशः एक दूसरेका अन्तर करके रख लेना । जो संख्या हो उसमें ६२का भाग देने पर लब्ध बार और शेष घटिकाएँ होती हैं ।
यहाँ पर शक संवत् ७२१ ग्रन्थरचनाका समय बताया गया है। महावीराचार्यने इसीलिये अपने पूर्ववर्ती श्रीधराचार्यके करणसूत्रको उद्धृत किया है । समस्त जैनेतर विद्वानोंने श्रीधराचार्य के सिद्धान्तोंकी समीक्षा भी इसीलिये की है कि वे उनके सम्प्रदाय के आचार्य नहीं थे ।
यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि श्रीधरके 'जातकतिलक'का रचनाकाल ईस्वी सन् १०४९ निर्धारित किया है। इसका समन्वय किस प्रकार सम्भव होगा ? यहाँ यह ध्यातव्य है कि 'जातकतिलक' में रचनाकालका निर्देश नहीं किया है । विद्वानाने वर्ण्य विषय और भाषाशैलीके आधारपर इस ग्रन्थके रचनाकालका अनुमान किया है । यथार्थतः इसका रचनाकाल ई० सन् १०४९ से पहले होना चाहिये ।
इन आचार्यकी प्राचीनताका एक अन्य प्रमाण यह भी है कि इन्होंने गणितसारमें गणितसम्बन्धी जिन सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया है, उनमें कई सिद्धान्त प्राचीन परम्परानुमोदित हैं । उदाहरणार्थं वृत्तक्षेत्रसम्बन्धी गणितको लिया जा सकता है । वृत्तक्षेत्रकी परिधि निकालनेका नियम - " व्यासवर्गको दससे गुणा कर वर्गमूल परिधि होती है" यह जैन सम्प्रदायका है। वर्तमानमें उपलब्ध सूर्यसिद्धान्त से पहलेके जैनग्रन्थोंमें यह करणसूत्र पाया जाता है । जैनेतर साहित्य में सूर्यसिद्धान्त ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें इस सूत्रको स्थान दिया गया है। जैनेत्तर प्रायः सभी ज्योतिर्विदोंने इस सिद्धान्त की समीक्षा की है। तथा कुछ लोगोंने इसका खण्डन भी । श्रीधराचार्यने इस जैनमान्यताका अनुसरण किया है तथा प्राचीन जैनगणितके मूलतत्त्वोंका विस्तार भी किया है । अतएव श्रीधराचार्य का समय ईस्वी सन्की आठवीं शतीका अन्तिम भाग या नवम शतीका पूर्वाधं है ।
रचनाएँ और उनका परिचय
श्रीधराचार्यकी ज्योतिष और गणित विषयक चार रचनाएँ मानी जाती हैं । १. गणितसार या त्रिशतिका ।
प्रबुद्धाचार्यं एवं परम्परापोषकाचार्य १९९
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
२. ज्योतिर्ज्ञानविधि – करण विषयक ज्योतिष ग्रन्थ
३ जातकतिलक— जातक सम्बन्धी फलित ग्रन्थ ( कन्नड़ भाषा ) |
४. बीजगणित बीजगणितविषयक गणित ग्रन्थ ।
गणितसार
--
गणितसार गणितविषयक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थके अन्त में निम्नलिखित पद्य प्राप्त होता है ।
उत्तरतो हिमनिलयं दक्षिणतो मलयपर्वतं यावत् । प्रागपरोदधिमध्ये नो गणकः श्रीधरादन्यः ॥
इससे स्पष्ट है कि श्रीधराचार्यको कीर्ति कौमुदी उस समय समस्त भारतमें व्याप्त थी । ज्यौतिषशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् महामहोपाध्याय पं० सुधाकर द्विवेदी ने इनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
"भास्करेणाऽस्यानेके प्रकारास्तस्करवदपहृताः । अहो सुप्रसिद्धस्य भास्करादितोऽपि प्राचीनस्य विदुषोऽन्यकृतिदर्शनमन्तरा समये महान् संशयः । प्राचीना एकशास्त्रमात्रै कवेदिनो नाऽऽसन् ते च बहुश्रुता बहुविषयवेत्तार आसन्नत्र न संशयः । "
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि श्रीधराचार्यके गणितसम्बन्धी अनेक नियमोंको भास्कर जैसे घुरन्धर गणकोंने ज्यों-का-त्यों अपना लिया है।
P
गणितसार या त्रिशतिकाकी नागरी अक्षरोंमें लिखी प्रति श्री पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य काशी द्वारा संस्कृतटीकासहित प्राप्त हुई थी । इस प्रतिके संक्षिप्त टिप्पणों के आधारपर इतना ही कहा जा सकता है कि यह गणितका अद्भुत ग्रन्थ है |
इसमें अभिन्न गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्नसमच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध भागमातृजाति, त्रैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, भाण्ड, प्रतिभाण्ड, मिश्रव्यवहार, भाजकव्यवहार, एक पत्रोपकरण, सुवर्णगणित, प्रक्षेपकगणित, समक्रिय विक्रयगणित, श्रेणिव्यवहार, क्षेत्रव्यवहार एवं छायाव्यवहारके गणित उदाहरणसहित दिये गये हैं । इस ग्रन्थका जैन एवं जैनेतरोंमें अधिक प्रचार रहा है। गणिततिलककी संस्कृतभूमिकामें कहा गया है
" गीर्वाणगीगुम्फितो मनोरमविविधच्छन्दोनिबद्धः सपादशतपद्यप्रमितो गणिततिलकसंज्ञकोऽयं ग्रन्थः श्रीधराचार्यकृतत्रिंशत्याधारेण निर्मित्त इत्यनुमीयते कतिपयानां पञ्चानां साम्यावलोकनेन ।"
१ गणक तरंगिणी, पृ० २४ ।
१९२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी वाचार्यपरम्परा
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि श्रीपतिने इनके गणितसारके अनुकरणपर ही अपने गणितग्रन्थकी रचना की है। श्रोमितिलकसूरिने अपनी तिलक नामक कृतिमें गणित्तसारका आधार लेकर गणितविषयक महताओं का निर्देश किया है । इन्होंने अपनी वृत्तिमें श्रीधराचार्य के सिद्धान्तोंको न्यानोकी तरह कला दिया है'। इस ग्रन्थकी जो पाण्डुलिपि प्राप्त है, उसमें ४५ ताड़पत्र हैं, प्रति पत्र में छः पंक्तियां और प्रति पंक्ति ८५ अक्षर हैं। पाण्डुलिपिका मंगलाचरण निम्न प्रकार है...
मत्वा जिनं स्वविरचितपाट्या गणितस्य सारमुद्धृत्य | लोकव्यवहाराय श्रीधराचार्यः ॥
प्रत्रक्ष्यति त्रिशतिकाकी जो मुद्रित प्रति पायी जाती है, उसमें 'जिन' के स्थान पर 'शिव' पाठ मिलता है | मंगलाचरण बदलनेकी प्रथा केवल इसी ग्रन्थ तक सीमित नहीं है, किन्तु और भी कई लोकोपयोगी ज्योति और आयुर्वेद ग्रंथोंमें मिलती है । ज्योतिष और आयुर्वेद दोनों विषय सर्वसाधारण के लिए उपयोगी रहे हैं, जिससे लिपिकर्ताओं या सम्पादकोंकी कृपासे मंगलाचरणों में परिवर्तन होता रहा है । मानसागरी में भी यह परिवर्तन देखा जा सकता है।
ज्योतिर्ज्ञानविधि
ज्योतिषशास्त्रका यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें करण संहिता और महत इन तीनों विषयोंका समावेश किया है । यह ग्रन्थ दस प्रकरणों में विभक्त है१. संज्ञाधिकार – ज्योतिष विषयक संज्ञाएँ वर्णित हैं ।
२. तिथ्याधिकार - तिथिसाधन, तिथिशुद्धि आदि । ३-४ संक्रान्ति - ऋत्वहोरात्रिप्रमाणाधिकार ।
५. ग्रहनिलयाधिकार !
६. ग्रहयुद्धाधिकार 1
७. ग्रहणाधिकार ।
८. लग्नाधिकार ।
९. गणिताधिकार ।
१०. मुहूर्त्ताधिकार 1
इसके प्रारम्भमें साठ संवत्सर, तिथि, नक्षत्र, वार, योग, राशि एवं कराणोंके नाम तथा राशि, अंश, कला, विकला, घटी, पल आदिका वर्णन किया गया
। द्वितीय परिच्छेद में मास और नक्षत्र ध्रुवाका विस्तारसहित विवेचन किया है । इस प्रकरणके प्रारम्भमें शक संवत् निकालनेका सुन्दर करणसूत्र दिया है ।
१. गणिततिलक वृत्ति पृ० ४ ९ ११ १७, ३९ ।
१३
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: १९३
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
नस्टिः षोडशगणित व्ययगत्तमंवत्सरैश्च सम्मिश्रम ।
नवशून्याब्धिसमेतं शकनृपकालं विजानीयात् ॥ अर्थात्-बीती हुई संवत्सर संख्याको १६से गुणाकर ६० जोड़ देनेपर जो संख्या आवे, उसमें ४०९, और युक्तकर देनेपर शक संवत् आ जाता है। तृतीय तिथ्याधिकारमें मध्यम रवि, चन्द्र और स्पष्ट रवि, चन्द्रके साधनके पश्चात् अन्तरांशों परसे तिथि साधनकी प्रक्रिया बसलायी गयी है। मासघ्रवा परसे भी तिथिका साधन किया है । चतुर्थ परिच्छेदमे संक्रातिके साधनकी क्रियाका सुन्दर वर्णन है। प्रारम्भका पद्य निम्न प्रकार है---
मोनवगुणकरणाब्दं वर्षोनं सुकलोद्धतं वारम् ।
न च गुणतद्धृतशेषं घटिका श्रीधरयुक्तं तेन संक्रान्त्या । यहाँ श्रीधर शब्दमें श्लष है; नन्थकर्ताने अपने नामका निर्देश कर दिया है तथा श्रीको धर शब्दसे पृथक कर २०. जोड़नेवाली संख्याको भी बता दिया है।
इस प्रकरणमें दिन-रातका प्रमाण निकालनेकी विधि निम्न प्रकार बतलायी है
मकरादि-कर्कटादि ज्ञात्वा राश्यशक्तिरिह खगुणा । - तत्र नरातप युक्तं नीचहृतं दिवसरात्रिप्रमाणम् ।। अर्थात्-मकरसे लेकर मिथुन तक अभीष्ट सूर्यके राश्यादि शात करे । इस राश्यादिके अंश बनाकर अंशोंको दो से गुणा करे। गुणनफलमें १६२० जोड़े और योगफलमें ६० का भाग देनेसे घटनात्मक दिनप्रमाण आता है। कर्कसे लेकर धनु तक अभीष्ट सूर्यके राश्यशोंके अंश बनाकर दोसे गुणा करनेपर जो आवे, उसमें १६२० जोड़कर योगफलमें ६०का भाग देनेसे घटयात्मक रात्रिप्रमाण आता है। ____ इस प्रक्रिया द्वारा परम दिनमान ३३ घटी आयेगा । अब विचार यह करना है कि यह दिनमान किस स्थान में सम्भव है, क्योंकि ग्रन्थकर्ता जिस स्थानका निवासी होता है, प्रायः उसी स्थानके दिन-मानादिका निरूपण करता है। ज्योतिष गणिसके आधारपर कहा जा सकता है कि उक्त दिनमान १९३८ अक्षांगवाले स्थानका है। विचार करनेपर यह अक्षांश तमिलनाड प्रान्तके कई जिलोंमें आता है । अत्तः यह सम्भव है कि श्रीधराचार्यके इस ग्रन्थका निर्माण तमिलनाडु के किसी जिलेमें हुआ हो अथवा तमिलनाडु श्रीधराचार्यकी जन्मभूमि रही हो। क्योंकि उत्तरभारतमें परम दिनमान ३६ घटी तक रहता है। अतः श्रीधराचार्यको जन्मभूमि सम्भवतः तमिलनाडुमें रही होगी।
पञ्चम परिच्छेदमें शनि, राहु, मंगल, बुध गुरु और शुक्र-इन ग्रहोंका १९४ : तीर्थकर महावीर और उमको आचार्यपरम्परा
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्पष्टीकरण किया गया है। ग्रहोंकी गतिसाधन क्रियाका बहुत ही सुन्दर वर्णन आया है । षष्ठ परिछेदमें ग्रहोंके युद्धका वर्णन किया गया है। प्रारम्भमें ग्रहयुद्धकी परिभाषा बतलाते हुए लिखा है
राश्यंशकलाः सर्वाः यदा भवेयुः समा दुयोर्ग्रहयोः ।
योगस्तयोस्तदा जायते च तयुद्धमिति वाच्यम् || अर्थात् जब दो ग्रहोंके राशि-अंश कला समान हों, उस समय उन दोनोंका योग युद्ध-संज्ञक होता है। इस युद्धके प्रवाजत' पुरतः दष्ट युद्ध और एग्स' दृष्ट युद्ध-ये दो भेद बतलाये तथा इनका विस्तारसहित वर्णन भी किया है। इसके पश्चात् सप्तम परिच्छेद ग्रहणाधिकार नामका है। इसमें विटोप, लम्बन, नति आदिके सामान्य गणितके साथ ग्रहणको दिशा, ग्रास, स्पर्श और मोक्षकी मध्यम घटिकाओंका आनयन किया है। __अष्टम प्रकरण लग्न साधनका है। इसमें शंकुच्छाया, पदच्छाया आदि नाना प्रकारोंपरसे लग्न-साधन किया है । ग्रहोंके संस्कार भी इस प्रकरण में बताये गये हैं। यह प्रकरण पर्याप्त विस्तृत है। गणितके कुछ कर्णसूत्र भी इसमें आये हैं। इसके अनन्तर लग्न-सिद्धि प्रकरण में प्रतिष्ठामुहूर्त, यमघंटक, कुलिक, प्रहराधपात, कचउत्पात, मृत्यु, काण, सिद्ध, अमत आदि योगोंके लक्षण दिये गये हैं। दशम प्रकरण में नक्षत्रोंके वृक्ष, देवता एवं शुभाशुभत्वका प्रतिपादन किया है। यह ग्रन्थ अपूर्ण है।
जातक तिलक कन्नड़ भाषामें लिखित जातक सम्बन्धी ग्रन्य है।
दुर्गदेवाचार्य
दुर्गदेव नामके श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्यमें तीन आचायोंका उल्लेख मिलता है। प्रथम दुर्गदेवका उल्लेख मेघविजयके वर्षप्रबोधमें आया है । इसमें इन्हें षष्ठि-संवत्सरी' नामक ग्रन्यका रचयिता बतलाया है। उद्धरण निन्न प्रकार हैअथ जैनमते दुर्गदेवः स्वकृतषष्ठिसंवत्सरग्रन्थे पुनरेवमाह--
ॐ नमः परमात्मानं वन्दित्वा श्रीजिनेश्वरम् ।
केवलज्ञानमास्थाय दुर्गदेवेन भाष्यते ।। पार्थ उवाच-भगवान् दुर्गदेव ! देवानामधिप ! प्रभो !!
भगवन् कथ्यतां सत्यं संवत्सरफलाफलम् ।) दुर्गदेव उवाच-शृणु पार्थ ! यथावृत्तं भविष्यन्ति तथाद्भुतम् । दभिक्षं च सभिक्षं च राजपीडा भयानि च ॥
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १९५
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
एतद् योऽत्र न जानाति तस्य जन्म निरर्थकम् ।
तेन सर्व प्रवक्ष्यामि विस्तरेण शुभाशुभम् ॥ xxx
भणियं दुग्गदेवण जो जाणइ वियवखणो।
सो रान्चत्य वि पुजो णिच्छयओ लद्धलच्छीय ॥ हितोरा दूर्गदेन कातन्त्रवृत्तिके रचयिता है तथा इस नामके एक आचार्यका उद्धरण आरम्भसिद्धि नामक ग्रन्यकी टीकामें श्री हेमहंसगणिने निम्न प्रकार उपस्थित किया है
दुर्गसिंह:-"मुण्डयितारः भाविष्ठायिनो भवन्ति बघूमूढाम्" इति ।
उपयुक्त दोनों दुर्गदेवोंपर विचार करनेसे यह ज्ञात होता है कि ये दोनों ज्योतिष विषयके ज्ञाता तो अवश्य हैं पर रिष्टसम्मुचयके कर्ता नहीं हैं। रिष्टसमुच्चयको रचनाशैली बिल्कुल भिन्न है। गुरुपरम्परा भी इस बातको व्यक्त करती है कि आचार्य दुर्गदेव दिगम्बर परम्पराके हैं। जैन साहित्य संशोधकमें प्रकाशित 'बृहट्टिमणिका' नामक प्राचीन जैन ग्रन्थ सूचीमें मरणकण्डिका और मन्त्रमहोदधिके कर्ता दुर्गदेवको दिगम्बर आम्नायका आचार्य माना है । रिष्टसमुच्चयकी प्रशस्तिसे भी ज्ञात होता है कि इनके गुरुका नाम संयमदेव' था । संयमदेव भी संयमसेनके शिष्य थे तथा संयमसेनके गुरुका नाम माधवचन्द्र था । __ 'दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ' नामक पुस्तकमें माधवचन्द्र नामके दो व्यक्ति आये हैं। एक तो प्रसिद्ध त्रिलोकसार,क्षपणकसार,लब्धिसार आदि प्रन्धोंके टीकाकार और दूसरे पद्मावती पुरवार जातिके विद्वान् हैं । मेरा अपना विचार है कि संयमसेन प्रसिद्ध माधवचन्द्र अविद्यके शिष्य होंगे। क्योंकि इस गरम्पराके सभी आचार्य गणित, ज्योतिष आदि लोकोपयोगी विषयोंके ज्ञाता हुए हैं । दुर्गदेवने 'रिष्टममुच्चय' ग्रन्थको रचना लक्ष्मीनिवास राजाके राज्यमें कुम्भनगर नामक पहाड़ी नगरके शान्तिनाथ जिनालयमेंकी है। विशेषज्ञोंका अनुमान
जय जए जियमाणो संजमदेवो मुणीरारो इत्य। तहवि हु संजमसेणो माहवचन्दो गुरुतय ॥ रइयं बहुसत्पत्थं उवजीवित्ता हु दुग्गएवंण ।
रिट्ठसमुच्चयसत्थं बयणेण संजमदेवस्स ॥ --रिष्टसमच्यय, गोधाग्रन्थमाला, इन्दौर संस्करण, गाथा-२५४, २५५ । गिरिकुमनयरण (य) ए सिरिलच्छिनिवासनिबइरजमि । सिरिसतिनाह भपणे मुणि-भविव-सम्मउमे (ले) रम्मे ॥
-रिण्टसमुच्चय, गाथा २६१ । १९६ : तीसंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
है कि यह कुम्भनगर भरतपुरके निकट 'कुम्हर', 'कम्भेर' अथवा 'कुम्भेरी' नामका प्रसिद्ध स्थान ही है। महामहोपाध्याय स्व० डा. गौरीशंकर हीराचन्द जो भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि लक्ष्मीनिवास कोई साधारण सरदार रहा होगा तथा कुम्भनगर भरतपुरक निफैटवाला कुम्भेरी, कुम्भेर या कुम्हर ही है, क्योंकि इस ग्रन्थकी रचना शौरसेनी प्राकृतमें हुई है । अतः यह स्थान शौरसेन देशके निकट ही होना चाहिए । कुछ लोग कुम्हागर कुम्भलगढ़को मानते हैं, पर उनका यह मानना ठोक नहीं बँचता, क्योंकि यह गढ़ तो दुर्गदेवके जीवनके बहुत पीछे बना है।
कुम्भराणा द्वारा विनिर्मित मसिन्दा किलेका कुम्भ-विहार भी यह नहीं हो सकता है, क्योंकि इतिहास द्वारा इसकी पुष्टि नहीं होती है। अतएव रिष्टसमुच्चयका रचगास्थान शरसेन देशके भीतर भरतपुरके निकट वर्तमानका कुम्हर या कुम्मेर है। दुर्गदेवके समय में यह नगर किसी पहाड़ीके निकट बसा हुआ होगा, जहाँक शान्तिनाथ जिनालयों इसकी रचना की गया है। यह नगर उस समय रमणीक और भव्य रहा होगा। किसी बंशावलीमें लक्ष्मीनिवासका नाम नहीं मिलता है। अतः हो सकता है कि वह एक छोटा सरदार जाट या जंदन राजपूत रहा हो। यह स्मरणीय है कि भरतपुरमें जाटोंका शासन रहा है जो अपनेको मदनपालका वंशज कहते थे । इतिहास में मदनपालको जदन राजपूत बतलाया गया है। यह टहनपालके, जो ११वीं शताब्दी में बयानाके शासक थे, तृतीय पुत्र थे । अत: इससे भी कुम्भनगर भरतपुरके निकटवाला कुम्हर ही सिद्ध होता है। बुगदेवका पारिवस्य
रिष्टसमुच्चयकी प्रशस्तिमें संयमदेव और दुर्गदेव-इन दोनोंकी विद्वत्ताका वर्णन बाया है । दुर्गदेवके गुरु संयमदेव षडदर्शनके ज्ञाता, ज्योतिष, व्याकरण और राजनीतिमें पूर्ण निष्णात थे। वे वादिरूप मदोन्मत्त हाथियोंके झुण्डको पराजित करनेके लिए सिंहके समान थे | ये सिद्धान्तशास्त्रके पारगामी थे और मनियों में सर्वश्रेष्ठ थे। इन यशस्वी यमदेवके शिष्य दुर्गदेव भी विशद्ध चरित्रवान् और सकलशास्त्रोंके मर्मज्ञ पण्डित थे । लिखा है
संजाओ इहतस्स चारुचरिओ नाणं बुद्धोयं ( धोया ) मई सोसो देसजई सं (वि) बोहणयरो गोसेसबुद्धागमो । नामेणं दुग्गएव विदिओ दागीसरायण्णओ
तेणेदं रइयं विसुद्धमइणा सत्थं महत्थ फुडं ।' १. रिष्टसमुच्चय, गापा--२५८ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १९७
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थात् संयमदेवका शिष्य दुर्गदेव विशुद्ध चरित्रवाला, ज्ञानरूपी जलसे प्रक्षालित बुद्धिवाला, वाद-विवादमें देश भरके विद्वानोंको पराजित करनेवाला, सबको समझानेवाला एवं सम्पूर्ण शास्त्रोंका विद्वान् हुआ, जिसने अपनी विशुद्ध बुद्धि द्वारा स्पष्ट और महान अर्थवाले इस रिष्टसमुच्चयशास्त्रको रचना की। ___ श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने इस पद्यमें आये हुए 'देसजई' का संस्कृत रूपान्तर 'देशयत्ति' मान लिया है और इस मान्यताके आधारपर दूर्गदेवको क्षल्लक बतलाया है, पर यह भूल है। 'देसजई' का संस्कृत रूपान्तर 'देशजयी' है और इसका अर्थ शास्त्रार्थ में देश भरके विद्वानोंका जीतनेवाला है। यदि दुर्गदेव क्षुल्लक होते तो उन्हें चारचरित नहीं कहा जा सकता। यह ग्रन्थ भी उन्होंने मुनियों और भव्य श्रावकोंको सम्बोधित करनेके लिए लिखा है। मुनिको मगि ही सम्बोधित कर सकता है, श्रावक या क्षुल्लक नहीं। अतः स्पष्ट है कि इस ग्रन्थके रचयिता आचार्य दुर्गदेव ज्योतिष, शकुन, मन्त्र आदिके साथ आगम और तर्कशास्त्रके भी ज्ञाता थे। स्थिति-काल
दर्गदेवका स्थिति-काल उनकी रचनाओंसे ज्ञात किया जा सकता है। रिष्ट समचच्यमें रचनाकालका निर्देश करते हए लिखा है
___ संवच्छरइगसहसे बोलीणे णवयसीइ संजुत्ते।
सावणसुक्केयारसि दिअइम्मि ( य ) मूलरिक्वमि ॥ अर्थात् संवत् १०८९ श्रावण शुक्ला एकादशीको मूल नक्षत्रमें इसकी रचना की है। यहाँ पर संवत् शब्द सामान्य आया है। इसे विक्रम संवत लिया जाय या शक संवत् यह एक विचारणीय प्रश्न है। ज्योतिषके अनुसार गणना करनेपर शक संवत् १०८२ में श्रावण शुक्ला एकादशीको मूल नक्षत्र पड़ता है तथा वि० सं० १०८९. में श्रावण शुक्ला एकादशीको प्रातःकाल सूर्योदयमें ३ घटी अर्थात् एक घंटा १२ मिनट तक ज्येष्ठा नक्षत्र रहता है। पश्चात मूल नक्षत्र आता है। निस्कर्ष यह है कि शक संवत् माननेपर श्रावण शुक्ला एकादशीको मूल नक्षत्र दिन भर रहता है और वि० सं० मानने पर सूर्यादयके एक घंटा बारह मिनट पश्चात् मूल नक्षत्र आता है । अतएव कौन-सा संवत् लेना उचित है। सम्भवत: कुछ समालोचक यह तर्क कर सकते हैं कि शक संवत लेनेसे दिनभर मल नक्षत्र रहता है। अन्यकर्ताने किसी भी समय इस नक्षत्रमें ग्रन्थका निर्माण किया होगा। अतएव शक संवत् लेना ही उचित है । १. जैन-अन्य-प्रशस्ति-संग्रह-प्रथम भाग, पृष्ट-९४ । २. रिष्टसमुच्चय, गापा संख्या-२६० । १९८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
शक संवत् मानने में तीन दोष आते हैं। पहला दोष तो यह है कि शक संवत् में अमान्त माम गणना ली जाती है और यहाँ पर पूर्णिमान्त मास गणना की गयी है। दुसरा दोप यह है कि उत्तर भारत में वि० सं० का प्रचार था और दक्षिण भारतमें शक संवत् का। यदि झे शक संवत् मानते हैं तो ग्रन्थकार दक्षिणके निवासी सिद्ध होते हैं, पर जात ऐसी नहीं है। तीसरी बात यह है कि जहाँ-जहाँ शक संवत्का उल्लेख मिलता है, वहाँ संवत्त पूर्व शक विशेषण आता है। सामान्य संवत् शब्द वि० सं० के लिए ही प्रयुक्त होता है । 'रिष्टसमुच्चय' की रचना वि० सं० १०८९ श्रावण शुक्ला एकादशी शुक्रवारको मूर्योदयके १ घंटा १२ मिनटके पश्चात् किसी भी समयमें पूर्ण हुई है। ई० सन् के अनुसार गणना करनेपर २१ जुलाई शुक्रवार ई० सन् १०३२ आता है। अतः दुर्गदेव ई० सन् की ११वीं शतीके विद्वान हैं। रचनाएं दुर्गदेवकी निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं।
१. रिष्टसमुच्चय । २. अर्घकाण्ड । ३. मरणकण्डिका ।
४. मन्त्रमहोदधि । रिष्टसमुच्चय
इस ग्रन्थमें २६१ गाथाएँ हैं। आरम्भमें जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार करनेके पश्चात् मनुष्यजीवन और जैनधर्मकी उत्तमताका निरूपण कर विषयका कथन किया गया है। प्राक्कथनके रूपमें अनेक रोगां और उनके भेदोंफा वर्णन है। यह १६ गाथाओं तक गया है । विषयमें प्रवेश करनेके पश्चात् ग्रन्थकारने रिष्टोंके पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ये सीन भेद बतलाये हैं। प्रथम श्रेणी में शारीरिक अरिष्टोंका वर्णन करते हुए वाहा है कि जिसकी आँन्हें स्थिर हो जायें, पुतलियाँ इधर-उधर न चलें, शरीर कान्तिहीन काष्ठवत् हो जाये और ललाटमें पसीना आवे वह केवल ७ दिन जीवित रहता है। यदि बन्द भुख एकाएक खुल जाये, आंखोंकी पलकें न गिरें, इकटक दृष्टि हो जाये तथा नख-दाँत सड़ जायें या गिर जायें तो वह व्यक्ति सात दिन तक जीवित रहता है । भोजनके समय जिस व्यक्तिको कड़वे, तीखे, कषायले, खट्टे, मीठे और खारे रसोंका स्वाद न आवे उसकी आयु १ माहकी होती है। बिना किसी कारणके जिसके नख, ओठ काले पड़ जायें, गर्दन झुक जाये, तथा उष्ण बस्तु शीत और शीत वस्तु उष्ण प्रतीत हो, सुगन्धित वस्तु दुर्गन्धित और दुर्गन्धित वस्तु सुगन्धित
प्रबुवाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १९९
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
माणूर हो उस व्यक्तिका ना होता है । प्रकृति विपर्यास होना भी शीघ्रमृत्युका सूचक है | जिसका स्नान करनेके अनन्तर वक्षस्थल पहले सूख जाये तथा अवशेष शरीर गीला रहे, वह व्यक्ति केवल पन्द्रह दिन जीवित रहता है। इस प्रकार पिण्डस्थ अरिष्टोंका विवेचन १७ वीं गाथासे लेकर ४० वीं गाथा तक २४ गाथाओंम विस्तारपूर्वक किया है ।
द्वितीय श्रेणी में पदस्थ अरिष्टों द्वारा मरणसूचक चिह्नोंका वर्णन करते हुए लिखा है कि स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण कर सुगन्धित द्रव्य तथा आभूषणसे अपनेको सजाकर जिनेन्द्र भगवानुकी पूजा करनी चाहिये । पश्चात् - "ओं ह्रीं णमो अरिहंताणं कमले कमले विमले- विमलं उदरदेवि इटिमिटि पुलिन्दिनी स्वाहा” इस मन्त्रका २१ बार जाप कर बाह्य वस्तुओंके सम्बन्धोंसे प्रकट होने वाले मृत्युसूचक लक्षणोंका दर्शन करना चाहिये ।
उपयुक्त विधिके अनुसार जो व्यक्ति संसारमें एक चन्द्रमाको नाना रूपोंमें तथा छिद्रोंसे परिपूर्ण देखता है उसका मरण एक वर्षके भीतर होता है । यदि हाथ की हथेलीको मोड़नेपर इस प्रकारसे सट सके जिससे चुल्लू बन जाये और एक बार ऐसा करनेमें देर लगे, तो सात दिनकी आयु समझनी चाहिये । जो व्यक्ति सूर्य, चन्द्र एवं ताराओंको कान्तिको मलिनस्वरूपमें परिवर्तन करते हुए एवं नाना प्रकारसे छिद्रपूर्ण देखता है, उसका मरण छह मासके भीतर होता है । यदि सात दिनों तक सूर्य, चन्द्र एवं ताराओंके बिम्बोंको नाचता हुआ देखे, तो निःसन्देह उसका जीवन तीन मासका समझना चाहिये । इस तरह दीपक, चन्द्रबिम्ब, सूर्यबिम्ब, तारिका, सन्ध्याकालीन रक्तवर्ण घूमधूसित दिशाएँ, मेघाच्छन आकाश एवं उल्काएं आदिके दर्शन द्वारा आयुका निश्चय किया जाता है। इस प्रकार ४१वीं गाथा तक २७ गाथाओं में पदस्थ रिष्टका वर्णन आया है ।
तृतीय श्रेणी में निजच्छाया, परच्छाया और छायापुरुष द्वारा मृत्युसूचक लक्षणोंका बड़े सुन्दर ढंगसे निरूपण किया है। प्रारम्भ में छायादर्शनकी विधि बतलाते हुए लिखा है कि स्नान आदिसे पवित्र होकर -- 'ओं ह्रीं रक्ते रक्ते रक्तप्रिये समस्त समारूढे कूष्माण्डी देवि मम शरीरे अवतर अवतर छायां सत्यां कुरु कुरु ह्रीं स्वाहा' इस मन्त्रका जप कर छायादर्शन करना चाहिये । यदि कोई रोगी व्यक्ति जहां खड़ा हो, वहाँ अपनी छाया न देख सके या अपनी छायाको कई रूपोंमें देखे अथवा छायाको बेल, हाथी, कौआ, गदहा, भैंसा और घोड़ा आदि नाना रूपों में देखे तो उसे अपना ७ दिनके भीतर मरण समझना चाहिये । यदि कोई अपनी छायाको काली, नीली, पोली और लाल देखता है, तो वह
२०० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
I
A
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रमशः तीन, चार, पाँच और छह दिन जीवित रहता है। इस प्रकार अपनी छायाके रंग, आकार, लम्बाई, छंदन- मंदन आदि विभिन्न तरीकोंसे आधुका निश्चय किया गया है।
परछाया दर्शनी विविका निरूपण करते हुए बताया है कि एक अत्यन्त सुन्दर युवकको जो न लम्बा हो, न नाटा हो, स्नान कराकर सुन्दर वस्त्रों से युक्त कर'ओं ह्रीं क्ते रखते रक्तप्रिये सिंहस्तकसमारूढे कूष्माण्डी देवि मम शरीरे अवतर अवतर छायां सत्यां कुरु कुरु ह्रीं स्वाहा मन्त्रका १०८ बार जाप करना चाहिये, पश्चात् उत्तर दिशाकी ओर मुँह कर उस व्यक्तिको बैठा देना चाहिये, अनन्तर रोगी व्यक्तिको उस युवककी छायाका दर्शन करना चाहिये । यदि रोगी व्यक्ति किसी व्यक्तिको छायाको टेढ़ी, अधोमुखी, पराङ्मुखी और और नीलवणंका देखता है, तो दो दिन जीवित रहता है । यदि छायाको हँसते, रोते, दौड़ते, बिना कान, बाल, नाक, भुजा, जंघा, कमर, सिर और हाथ-पैरके देखता है, तो छह महीने के भीतर मृत्यु होती है। रक्त चर्बी, तेल, पीव और अग्नि आदि पदार्थो को छाया द्वारा उगलते हुए देखता है, तो एक सप्ताह के भीतर मृत्यु होती है । इस प्रकार ९५ वीं गाथा तक परछाया द्वारा मरण समयका निर्धारण किया गया है।
छायापुरुषका कथन करते हुए बतलाया गया है कि मन्त्र मन्त्रित व्यक्ति समतल भूमिपर खड़ा होकर गैरोंको समानान्तर कर हाथोंको नीचे लटका कर अभिमान, छल-कपट और विषय-वासना से रहित जो अपनी छायाका दर्शन करता है, वह छायापुरुष कहलाता है । इसका सम्बन्ध नाकके अग्रभागसे, दोनों स्तनों के मध्यभागसे, गुप्तांगोंसे, पैरके कोनोंसे, ललाटसे और आकाशसे होता है । जो व्यक्ति उस छायापुरुषको बिना सिर पैरके देखता है, तो जिस रोगीके लिए छायापुरुषका दर्शन किया जा रहा है, वह छह मास जीवित रहता है । यदि कोई छायापुरुष घुटनोंके बिना दिखलायी पड़े, तो २८ महीने और कमर बिना दिखलायी पड़े तो १५ महीने शेष जीवन समझना चाहिये । यदि छायापुरुष बिना हृदयके दिखलाई पड़े तो ८ महीने, बिना गुप्तांगों के दिखलाई पड़े, तो दो दिन और बिना कन्धोके दिखलाई पड़े तो जीवन एक दिन शेष समझना चाहिये । इस प्रकार छायापुरुषके दर्शन द्वारा मरणसमयका निर्धारण १०७वीं गाथा तक किया गया है ।
मृत्युके लक्षणोंका कथन रातको स्वप्न देखना हो,
इसके पश्चात् १३०दीं गाथा तक स्वप्नदर्शन द्वारा किया है । इस प्रकरणके प्रारम्भमें बताया है कि जिस उसके पूर्व के दिन उपवाससहित मौनव्रत धारण करे और उस दिन समस्त
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २०१
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
आरम्भका त्याग कर विकथा एवं कषायोंसे रहित होकर 'ओ ह्रीं पण्हसवणे स्वाहा' इस मन्त्रका एक हजार बार जाप कर भूमिपर शयन करे। यहाँ स्वप्नोंके दो भेद बतलाये हैं--कथित और सहज । मन्त्रजायपूर्वक किसी देवविशेषकी आराधनासे जो स्वप्न देखे जाते हैं वे देव कथित और चिन्तारहित स्वस्थ एवं स्थिर मनसे बिना मन्त्रोच्चारणके शरीरमें धातुओंके सम होनेपर जो स्वप्न देखे जाते हैं, वे सहज कहलाते हैं । प्रथम प्रहर में स्वप्न देखनेसे उसका फल दश वर्ष में, दूसरे प्रहरमें स्वप्न देखनेसे उसका फल पाँच वर्षमें, तीसरे प्रहरमें स्वप्न देखनेसे उसका फल छह महीने में और चौथे प्रहरमें स्वप्न देखनेसे उसका फल दस दिनमें प्राप्त होता है ।
जो स्वप्न में जिनेन्द्र भगवानकी प्रतिमाको हाथ, पैर, घुटने, मस्तक, जंघा, कंधा और पेटसे रहित देखता है वह क्रमशः ४ महीने, ३ वर्ष, १ वर्ष, पाँच दिन, वर्ष, १ मास और टमास जीवित रहता है । अथवा जिस व्यक्तिके शुभाशुभको ज्ञात करने के लिए स्वप्नदर्शन किया जा रहा है, वह उपर्युक्त समयों तक जीवित रहता है । स्वप्न में छत्रभंग देखनेसे राजाकी मृत्यु, परिवारकी मृत्यु देखने से परिवारका मरण होता है । यदि रच अपनाना होता
तो दो महीने की आयु शेष समझनी चाहिये । दक्षिण दिशाकी ओर ऊँट, गदहा और भैंसेपर सवार होकर घी या तेल शरीरमें लगाये हुए जाते देखे तो एक मासकी आयु शेष समझनी चाहिये । यदि काले रंगका व्यक्ति घरमेंसे अपनेको बलपूर्वक खींचकर ले जाते हुए स्वप्न में दिखलायी दे तो एक मासकी आयु शेष समझनी चाहिये । रुधिर, चर्बी, पीव, चर्म और तैलमें स्नान करते हुए या डूबते हुए अपनेको स्वप्न में देखे या स्वप्न में लाल फूलोंको बांधकर ले जाते हुए देखे, तो वह व्यक्ति एक मास जीवित रहता है । इस प्रकार इस प्रकरणमें विस्तारपूर्वक स्वप्नदर्शनका कथन किया गया है। इसके अनन्तर प्रत्यक्षरिष्ट और लिंगरिष्टोंका कथन करते हुए लिखा है कि जो व्यक्ति दिशाओंको हरे रंगकी देखता है, वह एक सप्ताह के भीतर, जो नीले वर्णकी देखता है वह पांच दिनके भीतर, जो श्वेत वर्णकी वस्तुको पीत और पोत वर्णकी वस्तुको श्वेत देखता है वह तीन दिन जीवित रहता है। जिसकी जीभसे जल न गिरे, जीभ रसका अनुभव न कर सके और जो अकारण अपना हाथ गुप्त स्थानोंपर रक्खे बह सात दिन जीवित रहता है । इस प्रकरणमें विभिन्न अनुमान और हेतुओं द्वारा मृत्युसमयका प्रतिपादन किया गया है ।
ו
प्रश्न द्वारा रिष्टोंके वर्णनके प्रकरण में प्रश्नोंके आठ भेद बतलाये है१. अंगुलि प्रश्न, २. अलक्त प्रश्न, ३. गोरोचन प्रश्न ४. अक्षर प्रश्न,
५.
1
२०२ तीपंकर महावीर और उनकी बाचार्य परम्परा
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दप्रश्न, ६. प्रश्नाक्षरप्रश्न, ७. लग्नप्रश्न और ८. होराप्रश्न । अंगलिप्रश्नका कथन करते हुए बताया है कि श्री महावीरस्वामीकी प्रतिमाके सम्मुख उत्तम मालतीके पुष्पों से-"ओ हों अहणमो अरहताणं ह्रीं अबसर-अवतर स्वाहा' इस मन्त्रका १.८ बार जाप कर मन्त्र सिद्ध करे । पुनः दाहिने हाथकी तर्जनीको १०० बार मन्त्रसे मन्त्रित कर आँखोंके ऊपर रखकर रोगीको भूमि देखनेके लिए कहे। यदि वह सूर्यके विम्बको भूमिपर देखे तो छह मास जीवित रहता है। इस प्रकार अमुलिप्रश्न द्वारा मृत्युसमयको ज्ञात करनेकी विधिके उपरान्त अलक्तप्रश्नकी विधि बतलायी है कि चौरस भूमिको एक वर्णकी गायके गोबरसे लोप कर उस स्थानपर “ओं ह्रीं अरह णमो अरहताणं ह्रीं अवतर अबतर स्वाहा इस मन्त्रको १०८ बार जपना चाहिये। फिर कांसेके बर्तन में अलक्तको भरकर १०० बार मन्त्रो मन्त्रित कर उक्त पृथ्वीपर उस बर्तनको रख देना चाहिए । पश्चात् रोगीक हाथोंको दूधसे भोकर दोनों दाथोंपर मन्त्र पढ़ते हुए दिन, मास और वर्षकी कल्पना करनी चाहिये । पुन: १०० बार उक्त मन्त्रको पढ़कर अलक्तसे रोगीके हाथोंको घोना चाहिये। इस क्रियाक अनन्तर हाथोंके सन्धिस्थानमें जितने बिन्दु काले रंगके दिखलायी पड़ें उतने दिन, मास और वर्षकी आयु समझनी चाहिये । लगभग यही विधि गोरोचनप्रश्नकी भी है।
प्रश्नाकारविधिका कथन करते हुए लिखा है कि जिस रोगीके सम्बन्धमें प्रश्न करना हो वह-ओं ह्रीं बद वद वाग्वादिनी सत्यं हीं स्वाहा" इस मन्त्रका जाप कर प्रश्न करे। उत्तर देनेवाला प्रश्नवाक्यके सभी व्यञ्जनोंको दुगुना और मात्राओंको चौगुना कर जोड़ दे । इस योगफलमें स्वरोंकी संख्यासे भाग देनेपर सम शेष आये तो रोगीका जीवन और विषम शेष आनेपर रोगीकी मृत्यु समझना चाहिये । अक्षरप्रश्नके वर्णनमें ध्वज, धूम, खर, गज, वृष, सिंह, श्वान
और वायस इन आठ आयोंके अक्षर क्रमानुसार आयुका निश्चय करना चाहिये । शब्द प्रश्नमें शब्दोच्चारण, दर्शन आदिके शकुनों द्वारा अरिष्टोंका कथन किया गया है । इस प्रकरणमें शब्दश्रवणके दो भेद बतलाये हैं—१. देवकथित शब्द आर २. प्राकृतिकशब्द । देवकथित शब्द मन्त्रारावना द्वारा सुने जाते है । प्राकृतिक पशु-पक्षी मनुष्य आदिके शब्दश्रवण द्वारा फलका कथन किया जाता है। शब्दप्रश्नका वर्णन बहुत विस्तारसे किया है ।
होराप्रश्न इसका एक महत्त्वपूर्ण अंश है। इसमें मन्त्राराधनाके पश्चात् तीन रेखाएँ खींचनेके अनन्तर आठ तिरछी और खड़ी रेखाएं खींचकर आठ आयोंको रखनेको विधि है तथा इन आयोंके वेष द्वारा शुभाशुभ फलका निरूपण किया है। शनिचक्र, नरचक्र इत्यादि चक्रों द्वारा भी मरणसमयका निर्धा
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २०३
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
रण किया गया है । विभिन्न नक्षत्रोंमें रोग उत्पन्न होनेसे कितने दिनों तक बीमारी रहती है और रोगीको कितने दिनों तक कष्ट उठाना पड़ता है आदिमन है ! तम्प्रदाय कर द्वादश भावोंमें रहने वाले ग्रहोके सम्बन्धसे फलका प्रतिपादन किया है। इस ग्रन्थ में गोमूत्र, गोदुग्ध आदिका भी विधान आया है, पर यह लौकिक दृष्टिसे है । धर्मके साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं । यहाँ यह ध्यातव्य है कि दुर्गदेवने अद्भुतसागर, चरक, सुश्रुत, पुराण आदि ग्रन्थोंसे अनेक विषय ग्रहण कर ज्योंके त्यों निबद्ध कर दिये हैं । अत: इन लौकिक विषयोंका जैनधर्मसे कोई सम्बन्ध नहीं है ।
मरणकण्डिका
इस ग्रंथमें १४६ गाथाएँ हैं, जो 'रिष्टसमुच्चय' को १६२ गाथाओं से मिलती हैं। रिष्टसमुच्चय में १६३ से आगे और बढ़ाकर २६१ गाथाएँ कर दी गयी हैं । 'मरणकण्डिका' की भाषा शौरसेनी प्राकृत है। कुछ विद्वानोंका अनुमान है कि 'मरणकण्डिका' का निर्माण किसी अन्य व्यक्तिने किया है, दुर्गदेवाचार्यने इस ग्रंथका विस्तार कर 'रिष्टसमुच्चय' की रचना की है। पर मेरा मन है कि यह रचना भी दुर्गदेवकी है, यतः कोई ग्रन्थकार भावको तो ग्रहण कर सकता है पर अन्यके पद्योंको यथावत् नहीं ग्रहण करता। अतएव दुर्गदेवने पहले मरण कण्डिकाकी रचना की होगी, किन्तु बादको उसे संक्षिप्त जानकर उसीमें वृद्धिकर एक नवीन ग्रन्थ रच दिया होगा तथा पहले लिखे गये ग्रन्थको ज्योंकात्यों छोड़ दिया होगा ।
अकाण्ड
इसमें १४९ गाथाएँ और दस अध्याय हैं । इसकी रचना शौरसेनी प्राकृतमें है । यह तेजी - मन्दी ज्ञात करनेका अपूर्व ग्रन्थ है। ग्रह और नक्षत्रोंकी विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार खाद्य पदार्थ, सोना, चाँदी, लोहा, ताम्बा, हीरा, मोती, पशु एवं अन्य धन-धान्यादि पदार्थोंकी घटती-बढ़ती कीमतों का प्रतिपादन किया है, सुकाल और दुष्कालका 'कथन भी संक्षेपमें किया है। ज्योतिष चन्द्रके गणनानुसार वृष्टि, अतिवृष्टि और वृष्टि अभावका कथन आया है। साठ संवत्सरोंके फलाफल तथा किस संवत्सर में किस प्रकारकी वर्षा और धान्यकी उत्पत्ति होती है, इसका संक्षेपमें सुन्दर वर्णन आया है । ग्रन्थ छोटा होनेपर भी उपयोगी है । इसमें प्रत्येक वस्तुकी तेजी -मन्दी ग्रहोंकी चाल परसे निकाली गयी है । संहितासम्बन्धी कतिपय बातें भी इसमें संकलित है। ग्रहाचार प्रकरणमें गुरु और शुक्रकी गतिके अनुसार देश और समाजकी परिस्थितिका ज्ञान २०४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
कराया गया है। शनि और मंगलके निमित्तपरसे लोहा और ताँबेकी घटाबढ़ीका कथन किया गया है। मन्त्रमहोदधि
यह मन्त्रशास्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ है। इसकी भाषा प्राकृत है। "रिण्टसमुच्चय' में आये हुए मन्त्रोंसे पता चलता है कि ये आचार्य मन्त्रशास्त्रके अच्छे ज्ञाता थे । मन्त्रों में वैदिकधर्म और जैनधर्म, इन दोनोंकी कतिपय बातें आयी हैं, जिससे अवगत होता है कि मन्त्रशास्त्रमें सम्प्रदाय विभिन्नता नहीं ली जाती थी। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि वैदिकधर्मके प्रभावके कारण ही जैनधर्ममें इस विषयका समावेश किया गया होगा। क्योंकि आठवीं शती में जनधर्मको नास्तिक कहकर विधर्मी श्रद्धालुओंकी श्रद्धाको दुर कर रहे थे। अत: जैनाचार्य
और भट्टारकोंने वैदिकधर्मकी देखा-देवी मन्त्र-तन्त्रवादको जनधर्ममें स्थान दिया। ___ ग्रंथकर्ताके जीतनकी काप ग्रन्थमें रहती है. इस नियमके अनुसार यह स्पष्ट है कि आचार्य दुर्गदेव एक अच्छे मान्त्रिक थे। मन्त्रमहोदधि मन्त्रशास्त्रका महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
मुनि पद्मकीर्ति 'पासणाहचरिज'के कर्ता मुनि पद्मकीर्ति हैं। इस पंथकी प्रत्येक सन्धिके अन्तिम कड़वकके पत्ते में 'पउम' शब्दका उपयोग किया गया है। यह 'पउम' शब्द 'कमल' और 'लक्ष्मी' दोनों ही अर्थों में सन्दर्भके अनुसार घटित हो सकता है। पर चतुर्थ सन्धिके अन्तिम घत्ते में 'पउमभणई तथा पांचवीं, चौदहवीं और अठारहवीं सन्धियोंके अन्तिम पत्तोंमें 'पउमकित्ति' पदका प्रयोग आया है । १४वीं और १८वी मन्धियोंके अन्तिम घत्तोंमें 'पउकित्तिमुणि' का प्रयोग आता है, जिससे स्पष्ट है कि आचार्य पद्मकीर्तिमुनिने 'पासणाहचरिउ'की रचना की। ग्रन्यके अन्त में आचार्यने कविप्रशस्ति निबद्ध की है, जो निम्न प्रकार है
जइ वि विरुद्ध एवं णियाण-बंध जिणिद तुह समये । तह वि तुह चलण-कित्तं कइत्तणं होज्ज पउमस्स ।। रइयं पास-पुराण भमिया पुहवी जिणालया दिट्ठा । इण्इं जीविय-मरण हरिसविसाओ ण पउमस्स ।। सावय-कुर्लाम्म जम्मो जिणचलणाराहणा कइतं च । एया. तिण्णि जिणवर भवि भवे हुतु पजमस्स ।।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २०५
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
णव-सय-णउपाणउये कत्तियमासे अमावसी दिवसे ।
रइयं पास-पुराणं कइणा इह पउमणामेण ॥ अर्थात्-पप्रकीतिने पार्श्वपुराणकी रचना की, पृथ्वीभ्रमण किया और निनालयोंके दर्शन किये अब उसे जीवन-मरणके सम्बन्धमें कोई हर्ष-विषाद नहीं है। श्रावककुलमें जन्म, जिनचरणोंमें भक्ति तथा कवित्व, ये तीन बार्ते हे जिनवर ! पद्मको जन्मान्तरोंमें प्राप्त हो । अन्तिम पद्यमें कविने अपनी रचनाके समयका उल्लेख किया है। १८वीं सन्धिके अन्तिम कड़वकमें आचार्यने अपनी गुरुपरम्पराका निर्देश किया है, जो निम्न प्रकार है
सुपसिद्ध महागइ णियमवरु थिउसेण-संधु इह महिहि बरु । तहि चंदसेणु णामेण रिसी वय-संजम-णियमई जासु किसी ॥ तहाँ सोसु महामइ णियमधारि जयवंतु गुणायरु बंभयारि । सिरि माहउसेणु महाबुमाउ जिणसेणु सीसु पुणु तासु जाउ ।। तहाँ पुन्व-सणेहें पउमकित्ति उप्पण्णु सोसु जिणु जासू चित्ति । तें जिणवर-सासणु-भासिएक कह चिरइय जिणसंगहा मएण ॥
घत्ता–सिरि-गुरु-देव पसाएँ कहिउ असेसु वि चरिउ मई।
पउमकित्ति-मुणिपुगवहो देउ जिणेसरु विमलमइ' ॥ अर्थात् इस पृथ्वीपर सुप्रसिद्ध अत्यन्त प्रतिभाशाली, नियमोंका धारक श्रेष्ठ सेनसंघ हुआ। उसमें चन्द्रसेन नाम ऋषि थे। जिनके जीवित रहनेके साधन ही व्रत, संयम और नियम थे। इनके शिष्य महामति नियमधारी, नयवान्, गुणोंको खान ब्रह्मचारी तथा महानुमाव श्री माधवसेन हुए। तत्पश्चात् उनके शिष्य जिनसेन हुए । पूर्वस्नेहके कारण पद्मकीर्ति उनका शिष्य हुआ, जिसके चित्तमें जिनवर विराजते थे।
गुरुदेवके प्रसादसे यह ग्रन्थ लिखा गया, मुनि पद्यकीतिको जिनेश्वर बुद्धि प्रदान करें। ___इस गुरुपरम्परासे स्पष्ट है कि परकीतिके गुरु जिनसेन, दादागुरु माधवसेन और परदादागुरु चन्द्रसेन थे। सेनसंघ अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है और इस संघमें बड़े-बड़े आचार्य उत्पन्न हुए हैं। पद्मकीर्ति दाक्षिणात्य थे, क्योंकि सेनसंघका प्रभुत्व दक्षिण भारतमें रहा है। 'पासणाहचरिज'के वर्णनोंसे भी इनका दक्षि१. पासणाहरित, अन्तिम अन्य प्रशस्ति । २. पासणाहरित, सम्पादक प्रफुल्ल कुमार मोदी, प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, १८॥२२ ।
२०६ : तीर्थकर महावीर बोर उनकी आचार्य परम्परा
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
णात्य होना सिद्ध होता है। मामाकी कन्याके साथ विवाह करनेकी पद्धतिका वर्णन इस ग्रन्थकी १३वी सन्धिमें आया है। युद्धवर्णन सम्बन्धमें कर्नाटक और महाराष्ट्रके वीरोंकी प्रशंसा की गयी है । अतएव जन्मभूमिके प्रेमके कारण कविको दाक्षिणात्य माननेगें किसी प्रकारको बाधा नहीं है । स्थितिकाल
ग्रन्थ या निर्दे, अधिने प्रसारित किया है। पर यह प्रगस्ति सन् १४७३की प्राचीन पाण्डुलिपिमें उपलब्ध नहीं है। उसके पश्चातकी आमेर भण्डार में सुरक्षित पाण्डुलिपियोंमें उक्त प्रशस्ति पायी जाती है । सबसे प्राचीन प्रतिमें प्रशस्ति न होनेके कारण कुछ सन्देह होता है, पर यह हमें लिपिकारोंका प्रमाद मालम पड़ता है | प्रशस्तिके भावोंको देखनेसे यह स्पष्ट होता है कि प्रशस्ति ग्रन्थकर्ता द्वारा ही लिखित है। यद्यपि प्रशस्ति गाथा छन्दमें लिखी गयी है, पर इससे भी किसी प्रकारकी आशंका नहीं की जा सकती, क्योंकि पुष्पदन्तने भी अपने 'णायकुमारचरिउकी प्रशस्तिका एक भाग गाथाछन्दमें लिखा है। प्रशस्तिके अनुसार इस ग्रन्थकी रचना संवत् ९९९ कार्तिक मासकी अमावस्याको हुई है, पर यहाँ यह विचारणीय है कि यह संवत् शक संवत् है या विक्रम संवत् । श्रद्धेय डा० हीरालाल जैन इसे शक संवत् मानते हैं और प्रो० डा० कोछड़ इसे विक्रम संवत् मानते हैं। पद्मकीर्ति दाक्षिणात्य विद्वान थे और दक्षिण भारतमें काल गणना शक संवत्के अनुसार ली जाती है । वि० सं० का उपयोग उत्तर भारतमें होता रहा है। पयकोतिने अपने गुरुका नाम जिनसेन दादागुरुका नाम माधवसेन और परदादागुरुका नाम चन्द्रसेन बतलाया है । इस गुरुशिष्यपरम्पराके नामोंमें चन्द्रसेन (चन्द्रप्रभ) और माधवसेनके नामोंका उल्लेख "हिरेआबलि' में प्राप्त एक अभिलेखमें गुरुशिष्यके रूपमें हुआ है। इम अभिलेख में उसका समय अंकित है___ "स्वस्ति श्रीमत् विक्रम-वर्षद ४[ ] नेय साधा [रण]-संवत्मरद माघशुद्ध ५ बृ० वारदन्दु श्रीमन्मूल-संघद सेनाणद पोगरि-गरुछद चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेव-शिष्यरष माधवसेन-भट्टारकदेवरु" अर्थात् मूलसेन, सेनगण और पौगीरमच्छके चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेवके शिष्य माधवसेन भट्टारकदेव जिमचरणोंका मनन करके पञ्चपरमेष्ठिके स्मरण कर समाधिमरण धारण कर स्वर्गस्थ हए । चालुक्यवंशी राजा विक्रमादित्य (षष्ठ) त्रिभुवन मल्लदेव शक संवत् ८९.८ ई० सन् १०७६ में सिंहासनारूढ हुआ था और तत्काल ही उसने अपने नामसे एक
१. जन शिलालेखसंग्रह, भाग दो, अभिलेख संख्या २८६, पृ. ४३६ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परागोषकाचार्य : २०७
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
मंवत् चलाया था । गैरोनेट और जैन शिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके सम्पादक
विक्रम वर्षद नामसे निर्दिष्ट किया है। साथ ही इन विद्वानोंने अभिलेखमें अंकित चारके पश्चात् कुछ स्थान रिक्त होने से यह अनुमान किया है कि इस चारके अंकके बाद भी कोई अंक अंकित रहा है, जो अब लुप्त हो गया है और यह लुप्त अंक ९ होना चाहिये । इन विद्वानोंने इस अभिलेखका समय चालुक्य वि० [सं० ४९ वीं वर्ष माना है । यह वर्ष शक संवत् १०४७, ई० सन् १९२४ और वि० सं० १९८१ होता है । अब यदि इस अभिलेखका समय शक सं० १०४७ और उसमें उल्लिखित चन्द्रसेन और माघवसेनको पद्मकीर्तिकी गुरुपरम्परामें माना जाये तो शक सं० २०४७ में माधवसेन जीवित थे, यह मानना पड़ेगा । अभिलेख अनुसार उन्हें हो दान दिया गया था और यदि पद्मकीर्तिके ग्रन्थकी समाप्ति शक सं० १९९ में मानी जाये, तो पद्मकोर्तिके दादागुरु माघवसेन इसके भी पूर्व २५-३० वर्ष अवश्य ही रहे होंगे । मनुष्यकी आयु तो १०० वर्ष सम्भव है, पर ७०-७५ वर्ष तक कोई व्यक्ति आचार्य रहे, यह असाधारण प्रतीत होता है । अब यदि साहचरिउ की समाप्तिका समय वि० सं० १९ माना जाये, तो वि० सं० १९९ - वि० सं० १९८१ में भी वे जीवित थे और यह असभन जैसा प्रतीत होता है । पद्मकीर्तिके गुरु, दादागुरु और परदादागुरु सेन संघके थे और 'हिरेआवलि' शिलालेख के चन्द्रप्रभ और माघवसेन ही पद्मकीर्तिपरदादागुरु और दादागुरु हैं
के
इस चर्चा पर विचार करनेसे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'हिरेआबलि' अभिलेखमें चारकी संख्या के पश्चात् जो ९ के अंककी कल्पना की गयी है, वह ठीक नहीं है । यहाँका अंक ही मानना चाहिये, उसके पश्चात् किसी अंककी कल्पनाकी संभावना नहीं है । जैन शिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके २१२, २१३ और २१४ संख्यक अभिलेख भी इसपर प्रकाश डालते हैं । गेरोनेटने सा०वा० को साधारण संवत्सर माना है, पर चालुक्य विक्रमका ४९ वर्ष साधारण संवत्सर नहीं है । इस वर्ष शिवावसु संवत्सर आता है । अभिलेख संख्या २०३ से स्पष्ट है कि विश्ववसु संवत्सर शक संवत् ९८७ में था और उसके बाद शक संवत् १०४७में आता है । यह शक संवत् २०४७ ही विक्रम चालुक्यका ४९ व वर्ष है । अतएव उक्त विषमताओंसे यह स्पष्ट है कि 'हिरेमावलि' अभिलेखमें ४ अंकके आगे ९ अंक या सा०धा०को साधारण होनेका अनुमान भ्रान्त है । विक्रम चालुक्यका दूसरा वर्ष पिंगल संवत्सर के पश्चात् कालयुक्त और तत्पश्चात् सिद्धार्थिन संवत्सर आते हैं । अतः स्पष्ट है कि विक्रम चालुक्यका तीसरा वर्ष कालयुक्त और चौथा सिद्धार्थिन संवत्सर था । अतएव 'हिरेमावलि' अभिलेखके
२०८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
सा०वा०को सिद्धा मानना चाहिये, जो सिद्धार्थिनका संक्षिप्त रूप है । अतः सिद्धार्थिनः संवत् विक्रम चालुक्यके चौथे वर्ष मे था। इसका समन्वय हिरे आवलि अभिलेखमें अंकित ४ और सा०धा०से हो जाता है।
अभिलेख में चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेवके शिष्य माधवसेन भट्टारकदेवकी स्वर्गप्राप्तिका उल्लेख है । इस उल्लेखसे यह निश्चित हो जाता है कि माधवसेनके जीवित होनेका यदि कहीं निर्देश हो सकता है, तो वह १००२ के पूर्व ही हो सकता है । हुम्मचके एक अभिलेखमें भी माधवसेनका नाम आया है । यह अभिलेख शक संवत् १८४का है। इसमें लौकिकवसदिके लिए 'जम्वहलिल' प्रदान करनेके समय इन माधवसेनको दान दिये जानेका उल्लेख है । हुम्मच्च और हिरे आवलि दोनों समीपस्थ गौत्र हैं । हिरे आवलिमें भट्टारकका पट्ट था, यह हमें जैन शिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके अभिलेख २८६ संख्यकमें उल्लिखित माधवसेनकी भट्टारक उपाधिसे भी ज्ञात हो जाता है । जिस क्षेत्रमें मन्दिर, मठको दान दिया जाता था, वह उस क्षेत्रके मठाधीश या भट्टारकको ही दिया जाता था । अतः यह अनुमान सहज है कि अभिलेख संख्या १९८ के अनुसार जिन माधवसेनको दान दिया गया वे हिरे आवलि शिलालेख के अनुसार दान पानेवाले माधवसेनसे भिन्न नहीं हैं। आशय यह है कि माववसेन शक संवत् ९८४में जीवित थे और शक संवत् १००२में इस लोकका त्याग किया । जैनशिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके १५८ संख्यक अभिलेख से भी माधवसेनके पट्टका परिज्ञान होता है । अतः अनुमान है कि माधवसेन के प्रशिष्य पद्मकीतिको अपने 'पासणाहचरिउ' के लिखनेकी प्रेरणा इसी पाश्वनाथ मन्दिरसे प्राप्त हुई होगी । अब यह अनुमान सर्वथा सत्य है कि हिरे आवलि अभिलेख के माधवसेन ही पद्मकीर्ति दादागुरु हैं और दादागुरुका समय शक संवत् १००१ के आस-पास है । अत: उनका प्रशिष्य उनके पूर्वका नहीं हो सकता । यदि पद्मकीर्तिके ग्रन्थकी समाप्ति वि०सं० ९९९ में मानें तो उन्हें शक संवत् ८६४ में जीवित मानना पड़ेगा जो कि असम्भव है । अतः पासणाहचरिउकी समाप्तिका संवत् शक संवत् ही हैं, विक्रम संवत् नहीं । अतएव --
१. पासणाहचरिउकी समाप्ति शक संवत् ९९९ कार्तिक मास की अमावस्याको हुई है।
२. प्रत्थके रचयिता पद्मकीति गुरुका नाम जिनसेन, दादागुरुका नाम माधवसेन है और परदादागुरुका नाम चन्द्रसेनं है । दादागुरु और परदादागुरुके नामोंकी सिद्धि हिरे आवलि अभिलेख से होती है ।
रचनापरिचय
यह ग्रन्थ १८ सन्धियोंमें विभक्त है । इसके परिमाण आदिके सम्बन्धमें
१४
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापीकाचार्य : २०९
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थकारने स्वयं ही लिखा है
अट्ठारह-संघिउ ऍहु पुराणु तेसट्ठि-पुराणे महापुराणु । सर्याणि दहोत्तर कडवाय णाणा विह छंद-सुहावया हूँ । तेतीस सय तेवीसयाइँ अक्सरई किपि सविसेसयाइँ | ऐउएत्थ सत्थि श्रहा यमाणु फुड पड असेसु विकय-यमाणु । जो को वि अत्थु आरिस बिद्धु सो एत्थु गंधि सहत्व बहु । जं आरिस-पास पुराण वृत्तु जं गणहर - मुणिवर-रिसिहिँ बुत्तु । तं एत्थु सत्यमई वित्थरिउ जं कव्व करतइँ संसरिउ । नउ संजउ जेण विरोहु जाहिँ तं एत्थु गंथिमई कहि गाहि । सम्मत्तहा दुसणु जेणहार आगमण तेण ण वि कज्जु को बि । पत्ता - मित्थत्त करति य कव्वइँ पर सम्मत्तइँ मणहर | किंग व फलोत्रम - सरिसइँ होहिं अति असुहंकरई ॥
अर्थात् १८ संधियोंसे युक्त यह पुराण ६३ पुराणों में सबसे अधिक प्रधान है । नाना प्रकारके छन्दोंसे सुहावने ३१० कड़वक तथा ३३२३ से कुछ अधिक पंक्तियाँ इस ग्रन्थका प्रमाण है । यह स्पष्टतः पुराका पूरा प्रामाणिक है । ऋषियोंके द्वारा जो भी तत्त्व निर्धारित किया गया है, वह सब इस ग्रन्थ में अर्थयुक्त शब्दों में निबद्ध है । जो ऋषियोंने पार्श्वपुराण में कहा है, जो गणधरों, मुनियों और तपस्त्रियोंने बतलाया है तथा जो काव्यकत्र्ताओंने निर्दिष्ट किया है, वह मैंने इस शास्त्रमें प्रकट किया है। जिससे तप और संयमका विरोध हो वह मैने इस ग्रन्थमें नहीं कहा है। जिससे सम्यक्त्व दूषित हो उस आगमसे भी मेरा कोई प्रयोजन नहीं रहा ।
विपरीतसम्यक्त्वसहित किन्तु मनोहर काव्य मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं तथा किंपाक फलके समान अन्तमें अशुभकर होते हैं ।
प्रथम सन्धिमें २३ कड़वक हैं । २४ तीर्थंकरोंकी स्तुतिके पश्चात् कविने लघुता प्रदर्शित करनेके अनन्तर काव्य लिखनेकी प्रेरणाका निर्देश किया है । खलनिन्दा के पश्चात् मध्यदेशका वर्णन किया है । कविने बताया है कि मगध देश धनधान्यसे बहुत ही सम्पन्न है, यहाँके साधारण व्यक्ति भी चोर, शत्रुओंसे मुक्त है । यहक उपवनोंके परिसर फलफूलोंसे संयुक्त हैं । धानके लहलहाते हुए खेत और गाती हुई बालिकाओं द्वारा उनकी रखवाली किसके मनको नहीं आकृष्ट करती है । यहाँ भ्रमर, कमलसमूहों को छोड़कर कृषक बन्धुओंके मुखों
१. पासणाहचरिउ, प्राकृत टेक्स्ट सोसाईटी, १८/२० ।
२१० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
के कपोलोंका सेवन करते थे । यहाँ विविध प्रकारके समस्त विद्वान अपने-अपने देशोंका त्याग कर, यहाँ आकर रहते हैं। देव भी स्वर्गसे च्युत हो यहाँ निवास करनेकी कामना करते हैं। इसी देशमें पोदनपुर नामका नगर है, जो प्राकाट, शालाओं, मठों, जिनमन्दिों, प्रणालियों बड़कों,
मोदी -ॉबी डालिकाओं, आरामों, उपवनों, नदियों, कूपों, वापियों, वृक्षों, चौराहों एवं विभिन्न प्रकारके बाजारसे सुशोभित है । इस नगरमें चौशाला, ऊँचा, विशाल तथा विचित्र ग्रहोंसे युक्त राजभवन था । यह महीतलपर उसी प्रकार सुशोभित था जिस प्रकार नभत्तलमें नक्षत्रोंसहित चन्द्रमा । राजभवनके वर्णनके पश्चात महाराज अरविन्द और उनकी पत्नी प्रभावतीके रूप, सौन्दर्य और गुणोंका वर्णन किया है। अनन्तर राजाके पुरोहित विश्वभूतिके गुणोंका निरूपण किया गया है। इस पुरोहितकी पत्नीका नाम अनुद्धरी था, जो अपने रूपलावण्यसे विश्वभूतिको आकृष्ट करती थी। इस दम्पत्तिके दो पुत्र हुए कमठ और मरुभति । कमठकी पत्नी मदमत्त महागजकी करिणीकी शोभा धारण करनेवाली शुद्ध हृदय तथा शीलवती थी। उसका नाम वरुणा था। मरुभूतिकी पत्नी परलोक मार्गके विपरीत आचरण करने वाली तथा कुशील थी। उसका नाम वसुन्धरी था । एक दिन विश्वभतिको संसारसे बिरक्ति हई और उसने घर-बार छोड़कर अपना पद अपने पुत्रको सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। अनुद्धरीने भी पतिका अनुकरण किया और वह भी प्रवजित हो गयी । राजाने कमठ और मरुभूतिको बुलाकर उन दोनों से मरुभूतिको पुरोहितके पदपर प्रतिष्ठित किया। एक दिन राजा अरविन्दको किसी शत्रुको वश करनेके लिए दूर देश जाना पड़ा, साथमें मरुभूति भी गया । किन्तु वह अपना समस्त परिवार वहींपर छोड़ गया। इसी समय वह दुष्ट, विनष्ट चित्त तथा महामदोन्मत्त कमठ घरमें रहती हुई अपनी भ्रातृवधूको देखकर उसपर अनुरक्त हो गया । कमठने अपने छोटे भाईकी पत्नीके साथ अनुचित व्यवहार किया । जब मरुभूति शत्रु पराजयके अनन्तर वापस घर आया, तो उसे क्मठकी इस अनीतिका पता लगा । पर उदार मरुभूतिने कमठको क्षमा कर दिया । पर राजाको कमठकी यह अनीति पसन्द न आयी और उसने उसे नगरसे निर्वासित कर दिया। कमठ एक तपोवनमें प्रविष्ट हुआ और तापसियोंके आश्रममें जाकर रहने लगा। मरुभूति राजाके द्वारा समझाये जानेपर भी अपने भाईकी तलाश करनेके लिए निकल पड़ा। वह तापसियोंके आश्रममें पहुंचा और वहाँ मरुभूतिको पञ्चाग्नि तप करते हुए देखकर प्रभावित हुआ। उसने भावपूर्वक उसकी तीन प्रदक्षिणाएँ की और प्रणाम करनेके लिए उसके चरणों में सिर झुकाया। कहने लगा "हे महाबल !
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २११
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
आप गुणोंजे आगार मुझे क्षमा करें।" कमटने एक शिलाखण्ड उठाकर मरुभक्ति पर प्रहार किया, जिरास मरुभूतिका प्राणान्त हो गया | मराभूति आतंध्यानसे गरण करने के कारण उनी कामें महागजके रूपमें उलाना हुआ और कमठ कुक्कूट नामका भयंकर सर्प हुआ। मरुभूतिका जीव अपनियोष गजराज अपने समूहके साथ सम्पूर्ण जनमें बड़े अनुरागसे घूमता था, अपने सम्की रक्षा करता था । वह करिणियोंके साथ कमलयुक्त सरोवराम विहार करता था।
द्वितीय मन्धिमें समस्त राज्यका त्याग कर राजा अरविन्दके मनीन्द्र होनेका वर्णन आया है। अविन्द भनिने चिन्तन करते हुए अबधिज्ञान प्राप्त किया। इस सन्दर्भ में नरवा, तियंञ्च, मनुष्य और देव गतिके दुःखोंका वर्णन है । राजा अरबिन्दने शिष्क्रमण किया और पञ्चमुष्टिलोञ्चकर दोक्षा धारण की । द्वितीय सन्धिमें १६ कड़वा है और इसमें राजा अरबिन्दके दीक्षित होने की विचार धाराका चित्रण आया है।
तृतीय सन्धिमें १६ बड़वक हैं। तृतीय सन्ध्रिमें अरविन्दकी तगश्चयों और उनके विहारका चित्रण आया है । इस सन्धि सम्यक्त्वकी महिमा, सम्यक्त्वके दोष, सम्यक्त्वकी प्रशंसा, अणुव्रत, गुणवत्त और शिक्षाप्रतोंका स्वरूप बतलाया गया है। जिनवरकी भवितकी प्रशंसा करते हुए बतलाया गया है कि भवितके प्रभावसे मनुष्य समस्त दर्गतियों के दुःखोंसे छूट जाता है । इसी सन्धिमें अनिघोष गजपति के उद्बोधनका भी सन्दर्भ आया है। अरविन्द मुनिने उसे सम्बो. धित करते हुए कहा-“हे गजबल ! में राजा अविन्द हुँ, पोदनपुरका स्वामी हैं. यहाँ आया है। तू मरुभूति है, जो हाथीके रूप में उत्पन्न हुआ है। विधिवशात तू इस सार्थके पास आया है । मैंने पहले ही तुझे कमठसे पास जानेसे रोका था । उसकी अवहेलना कर तू इस दु:खको प्राप्त हुआ है । हे गजवर ! अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। तू मेरे द्वारा कहे हुए वचनोंका यथासम्भव पालन कर । सम्यक्व और अणुजनोंको ग्रहण कर, यही तेरे कल्याणका मार्ग है।' मुनि अरविन्दने मोक्षलाभ किया ओर गज श्रेष्ठ तपश्चर्याम सलग्न हुआ। ___ चतुर्थ सन्धिमें १२ कड़वक हैं और अपनिघोप गजकी तपस्याका वर्णन आया है । अपनिधोषकी मृत्यु कुक्कुट सर्पके दंशमसे हुई, पर द्वादश भावनाओंका चिन्तन करनेके कारण उसका जन्म सहस्त्रारकल्पमें हुआ और कुक्कूट सर्प पञ्चम नरकमें उत्पन्न हुआ। इस चौथी सन्धिमें राजा हेमप्रभु, राजकुमार विद्यत्वेगको कथा भी वर्णित है। प्रसंगवश मुनिके २८ मूलगुण एवं संयम तपश्चर्या आदिका वर्णन आया है।
पांचवीं सन्धि १२ कड़वक हैं । इस सन्धिमें मरुभूतिका जीव सहस्रार २१२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वर्गसे धुत हो जम्य द्वीपके अगर विदेह क्षेत्रमें पृथ्वीपत्ति होनेका वर्णन आया है। कमठका जीय भोलके रूपमें उत्पन्न हुआ है। मरुभूतिका जीव चक्रायुध सिरके श्वेत बालोंको देखकर संसान्से विरक्त हो तपश्चर्या करने लगा। पूर्व जम्मके वैरभावके कारण कमठका जीव भीलने चक्रायुधपर वाणप्रहार किया, जिससे मनि चकाच ध्यानपूर्वक मरण कर देयकमें देवरूपमें उत्पन्न हुए और भीलका जीच नरकम उत्पन्न हुआ।
छठी सन्धिमें १८ कड़वक हैं। चक्राका जोब वेयकसे च्युत होकर पूर्व विदेह क्षेत्रके विजय देशके मजाके यहाँ कनकप्रभके रूपमें उत्पन्न हुआ। कनकप्रभने बयस्क होकर अपने राज्यपी समृद्धि की। उसके धन-धान्यसे सदा समृद्ध ३२ हजार प्रदेश, ९६ करोड ग्राभ, ५९ हजार खान, स्वर्ण और चाँदीके तोरणोंसे युक्त ८४ लाख श्रेष्ठ पुर, ८४ हजार बरबट, सुखेट और द्रोणमुख थे । उसके मन और पवनकी गति चाले. १८ बारोड़ श्रेष्ठ घोड़े, ८४ लाख मदोन्मत्त हाथी एवं समस्त शत्रु दलका नाश करने वाले उतने ही उत्तम रथ थे। इस राजाके ८४ लाख अंगरक्षक, ती[सौ साठ रसोईआ एवं उबदन और सम्मर्दन करने वाले २०० अनुचर थे। ९६ हजार रानियाँ और तीन करोड़ उत्तम कृषक थे। चतुरंगिणी सेनासे घिरा हुआ वह राजा षट्स्खण्डकी विजयके लिए चल पड़ा। विजयके पश्चात् वह वापस लौटा और आनन्दपूर्वक साम्राज्य करने लगा। उसका अपार ऐश्वयं था । आचार्यने इस सन्धिम बट तुओका वर्णन करते हुए कनकप्रभके भोगविलासका चित्रण किया है । एक दिन कनकप्रभने यशोधर मुनिके दर्शन किये और उनसे कसिद्धान्तका उपदेश सुना । कनकप्रभने दीक्षा ग्रहण की।
सप्तम सन्धिमें १३ कडवक हैं। आरम्भमें मनिदीक्षाको प्रशंसा की गयी है। अनन्तर १२ अंग और १४ पूर्वोका वर्णन आया है। मुनि कनकप्रभने अंग और पूर्वोके अध्ययनके पश्चात पूर्वांगों में आयो हई वस्तुओंकी संख्याका अध्ययन किया है । इस सन्दर्भ में तीन हजार नौ सौ पाहडोंके अध्ययनका कथन आया है। कनकप्रभमुनिने कठोर तपश्चरण कर आकाशगामिनी ऋद्धि प्राप्त की, साथ ही जलचरण, तन्तुचरण, श्रेणिचरण और जंघाचरण ऋद्धियोंके साथ सवांवधि, मनःपर्ययज्ञान आदि प्राप्त किये। विकिया ऋद्धि एवं अक्षीण महानस ऋद्धि भी प्राप्त हुई। कनकप्रभने क्षीरवन में प्रवेश कर गिरिशिखरपर आरूढ़ हो, धर्मध्यान प्रारम्भ किया । इसी समय कमठके जीबने, जो कि सिंहके रूपमें वहाँ निवास करता था, मुनिपर आक्रमण किया और उसने मुनिका प्राणान्त कर दिया । कनकप्रभमुनि समताभावपूर्वक भरण कर वैजयन्त नामक स्वर्गमें देव हुए ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २१३
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
कमठका जीव विभिन्न योनियोंमें जन्य-मरण करता हुआ आहाण कुलमें उत्पन्न हुआ। उसने रशिष्ट नामक नपस्टीके माश नासदीक्षा राम की और वह पञ्चाग्नितप करने लगा। __ आठवी सन्धिमें २३ कड़बक हैं । इस सन्धिमें वाराणमीके राजा हयसन और उनकी पत्नी बामादेवीका वर्णन आया है। तीर्थंकर पार्श्वनाथके गर्भम आनेके छ: महीने पहिलेसे ही देवों द्वारा रत्नोंकी वर्षा हुई और बामादेवीकी सेवाके लिए देवांगनोंका आगमन हुआ । वामादेवीने रात्रिके चतुर्थ प्रहरमें १६ स्वप्न देखे और इन स्वप्नोंका फल राजा हयसेनसे पूछा। हयसेनमे स्वप्नोंके फलपर प्रकाश डालते हुए बतलाया कि तुम्हें संसारोद्धारक पुत्र उत्पन्न होगा। इस पुत्रका महत्त्व सर्वत्र व्याप्त हो जायगा। अनन्तर तीर्थंकर पार्श्वनाथका गर्भावतरण, जन्माभिषेक, कर्णछेदन, नामकरणका वर्णन आया है। इन्द्र तीर्थंकर पार्वको वामादेवीके पास छोड़कर स्वर्ग चला गया ।
नौवीं सन्धिमें १४ कड़वक है और जयसेनको भवनमें किये गये जन्मोत्सवका चित्रण है । पुत्र-उत्पत्तिसे हयसेनको समृद्धि अधिक बढ़ी | शनैः-शनः पार्श्वनाथ बाल्यावस्था पार कर ३१वें वर्ष में प्रविष्ट हाए । हयसेनकी राजसभामं भूटान, मौय, इक्ष्वाकु, कच्छ, सिन्धु आदि विभिन्न देशोंके गजा उपस्थित हुए। एक दिन राजसभामें दूत आया और उसने कुरास्थलो राजा द्वारा दीक्षा ग्रहण किये जानेका वर्णन किया । हृयसेभ इस समाचारसे दुःखित हुआ। इसी बीच दूत्तने कुशस्थलपर यवन राजा द्वारा आक्रमण और धमकी दिये जानेकी बात बतलायी। हयसेनने प्रतिज्ञा की कि यवनका गर्व खवं कर दूंगा। उसने युद्धके लिए प्रस्थान किया ।
दसवीं सन्धिमें १४ कड़वक हैं। इस सन्धिके आरम्भमें बताया गया है कि पार्श्वनाथ यवन सेनाका सामना करनेके लिए चल पड़े । हयसेनने पार्श्वनाथको बहुत समझाया कि अभी तुम बालक हो, युद्ध में प्रौढ़ व्यक्तियोंको ही जाना चाहिये । अत: तुम यहीं निवास करो और मैं युद्धके लिए जाऊँगा। पाश्र्वनाथने निवेदन किया कि शिशु तथा बालकका लालन-पालन करना पिताका कत्र्तव्य है। इसके विपरीत वृद्धावस्थामें पिताकी सेवा-सुश्रुषा करना पुत्रका धर्म है। अत: कुमारने युद्ध में जानेके लिए अत्यधिक आग्रह किया, जिसे पिताको स्वीकार करना पड़ा । चतुरंगिणीसे युक्त कुमार पार्श्वनाथने युद्ध के लिए प्रस्थान किया । मार्गमें नानाप्रकारके शकुन हुए। सरोवरके समीप सेनाका शिधिर पड़ा। इस सन्दर्भ में आचार्य ने सूर्यास्त, सन्ध्या, रात्रि, चन्द्रोदय, सूर्योदय, सैन्यप्रस्थान आदिका सुन्दर चित्रण किया है। कुशस्थलके राजा रविकीतिने कुमार पावका
२१४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वागत किया।
इसके पश्चात् ग्यारहवीं सन्धिके १३ कड़वकोंमें युद्धका वर्णन आया है। बताया है कि कुमारका आगमन सुनकर यवनराज सशंकित हुआ । पारर्धक आ जानेसे रविकीतिकी सेनाका बल बढ़ा और गवनराजकी सेनाके साथ भयंकर पद्ध होने लगा। रविकीर्तिने अपूर्व रणकौशल दिखलाया । यवनराजके बहुतसे सामन्त और वीर रविकीर्ति द्वारो परास्त किये गये।
बारहवीं सन्धिमें १५ कड़वक हैं। आरम्भमें यवनराजके गजबलका रविकीर्तिपर आक्रमण करनेका चित्रण आया है। विकीर्तिने अत्यन्त कौशलपूर्वक गजसेनाका विनाश किया, पर विशाल गजवाहिनी के समक्ष उनकी गषित कुण्ठित होने लगी। रविकीतिके मन्त्रियोंने इस रणदशाको देखकर कमार पावसे निवेदन किया कि आप अब युद्ध करनेके लिा तैयार हो जाइये । आपकी शक्तिके समक्ष त्रलोक्यकी शक्ति नतमस्तक है । कुमार पार्श्व एक अक्षौहिणी अश्व, गज, रथ और पैदल सैनिकों महित रणभूमिमें प्रविष्ट हुए । पाश्चने शत्रुके मजममूहको क्षणभरमें तितर-बितर कर दिया। कमार पात्रके माथ युद्ध करनेके लिए यवनराज अनेक प्रकारको तैयारियां करने लगा और उसने दिव्य अस्त्रोंका प्रयोग किया। यवनराजने विभिन्न अस्त्रोंका प्रयोग किया, पर उसका एक भी वाण सार्थक न हुआ । कुमार पावने यवनराहको बन्दी बना लिग !
तेरहवीं सन्धिमें २० कड़वक हैं। आरम्भमें यवनराजके भटो द्वारा आत्मसमर्पणका वृतान्त आया है। युद्धसमाप्तिके अनन्तर कुमार पायने कुशस्थलीमें प्रवेश किया। रविकीतिने विभिन्न प्रकारसे कुमारका स्वागत और आतिथ्य किया। यवनराजके मन्त्रीने आकर सन्धिका प्रस्ताव उपस्थित किया। कुमार पाश्चने यवनराजको मुक्त कर दिया और सन्धिका प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया गया। रविकीर्तिने अपने मन्त्रियोंसे परामर्श कर अपनी कन्याका विवाह कुमार पावसे करनेकी इच्छा व्यक्त की। विवाहके लिए रवि, चन्द्रसे शुद्ध लान निश्चित की गयी। इसी समय कुमार पावको सूचना मिली कि नगरके बाहर कुछ तपस्वी आये हुए हैं। कुमार पार्श्व उन तपस्वियोंको उद्बोधन करनेके लिए चल पडे । वहाँ जाकर देखा कि जिन लकड़ियोंको जलाकर पञ्चाग्नितप किया जा रहा है, उनमें एक लकड़ीके बीच सपं है। कुमारने रोकते हए कहाइस लकड़ीको मत जलाओ, इसमें साँप है । तपस्वियोंके बीच रहनेवाला कमठ का जीव तापसी रुष्ट हुआ और क्रोधपूर्वक बोला-इस लकड़ीमें सर्प कहाँ है ? यह राजा खल है । मैं अभी इस लकड़ीको फाड़कर देखता हूँ। लकड़ीको फाड़ा गया, तो उसमेंसे एक विषधर भुजंग निकला। सभी देखकर आश्चर्यचकित रह गये। कमठके जीवको तो अत्यधिक पश्चात्ताप हुआ। उसने अनशन कर
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २१५
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीव हिंसा और परिग्रहका त्याग कर पञ्चत्व प्राप्त किया। स्वर्ग गया और वहाँ देवियोंके साथ विचरण करने लगा 1 पार्चकुमारने सर्पको पञ्चनमस्कार मन्त्र दिया जिसके प्रभावले पातालमें. नागराजोंके बीच तीन पल्यकी आयवाला धरणेन्द्रदेव हुआ। सर्पकी मत्युको देखकर कुमारके मनमें विरक्ति हुई और वह संसारके भोगोंको असार समझने लगा। लौकान्तिक देवोंने आकर कुमारके वैराग्यकी वृद्धि की और कुमारने जिनदीक्षा ग्रहण की। कुमारके दीक्षित होनेसे रविकीति और प्रभावतीको विशेष कष्ट हुआ | जब हपसेनाने कुमारकी दीशाका समाचार सूना, तो हतप्रभ हो गया। मन्त्रियोंने उसे बहुत समझाया। माता वामादेवीको भी पुत्रके दीक्षा समाचारसे कष्ट हुआ! मन्द्रियोंने किसी प्रकार हयसेन और वामादेवीको समझाकर सन्तुष्ट किया।
चौदहवीं संधिमें ३० कड़वक है। आरम्भमें पार्श्वनाधके तप और संयमका चित्रण किया है। आकाशमार्गसे जाते हए असुरेन्द्र के विमानका स्थगन होना और स्थगनका कारण पार्श्वकूमारको जानकर असुरेन्द्र द्वारा पार्श्वनाथको मार डालनेका निश्चय करना एवं नाना प्रकारके उपसर्ग देना, और उपसर्गोके शमनके लिया धरणन्द्रका आना, नागराज द्वारा पावकी सेवा करना उधा असुरकुमारको उपर्गन करने के लिए चेतावनी देना आदिका वर्णन आया है। पार्श्वनायकी केवलज्ञानकी उत्पत्ति भी इसी सन्धिमें वर्णित है ।
पन्द्रहवीं सन्धिमें १२ कड़वक हैं ! केवलज्ञानको प्रशंसाको गयी है । देवों द्वारा केवलज्ञानकल्याणक सम्पन्न करनेवाले उत्सवका वर्णन आया है। इन्द्र द्वारा छोड़े गये वज्रसे असुरकुमारका पार्श्वनाथके शरण में जाना, इन्द्र द्वारा समबशरणकी रचना, देवों द्वारा जिनेन्द्रको स्तुति, इन्द्रकी उपदेश देने हेतु प्रार्थना आदि विषय इसी सन्धिमें आये हैं।
सोलहवीं सन्धिमें १८ कड़वक हैं । आरम्भमें गणधर द्वारा लोकोत्पतिपर प्रकाश डालने के लिए आग्रह किया गया है और समवशरण में आवारा, लोकाकाश, मेरु, अधोलोक, उर्व लोक, स्वर्ग आदिके वर्णनके पश्चात् वैमानिक ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासियोंकी आयुका वर्णन आया है । मध्यलोक और उसमें स्थित जम्बूद्वीप, सप्त क्षेत्र, षट् कुलाचल पूर्व-अपर विदेह, गंगादि नदियाँ लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि, पुष्करार्धद्वीप, ढाईद्वीपले क्षेत्र, पर्वतादिद्वीपसमुद्रोमें सूर्य-चन्द्रकी संख्या, तीनों वातपलयोंका स्वरूप एवं कमठासुर द्वारा जिनेन्द्रसे क्षमायाचनाका वर्णन आया है।
सत्रहवीं सन्धिमें २४ कड़वक हैं। इस सन्धिमें कुशस्थलीमें जिनेन्द्रके समयशरणका पहुँचना, रविकीर्तिका जिनेन्द्रके पास आगमन, शलाकापुरुषोंके सम्बन्ध२१६ : तीर्थकर महावीर और उनको आपार्यपरम्परा
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
में जानने की इच्छा, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालचक्र, सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषम दुःषमा, दुःषम- सुषमा, दुःषमा, दुःषम दुःषमा इन छह कालोंका वर्णन किया गया है। तृत्तीय कालके अन्तमें ऋषभदेवादि चतुर्विंशति तीर्थंकरोंकी उत्पत्ति, तीर्थंकरोंकी कायाका प्रमाण, उनके जन्मस्थान, वर्ण, आयु, तीर्थंकरोंके तीर्थ की अवधि द्वादश चक्रवर्ती, नव बलदेव, नव नारायण, नव प्रतिनारायण आदिका वर्णन आया है। रविकीर्ति भी तीर्थंकर पार्श्वनाथके उपदेशसे प्रभाचित होकर दीक्षित हो जाता है और पाश्वंभाथके समवशरण में शौरीपुर पहुँचता है।
P
१८वीं सन्धिमें २२ कड़वक हैं। समवशरण में नरक जानेवाले मनुष्योंके कृत्योंके पश्चात् तिर्यञ्चगतिके जीवोंका विवरण आया है । मनुष्यगत्तिके जीवोंके दो भेद किये हैं- कर्मभूमिके मनुष्य और भोगभूमिके । भोगभूमि में उत्पन्न होने वालेोके सत्कार्यका वर्णन करते हुए ढ़ाई द्वीपकी १७० कर्मभूमियों का विवेचन किया है । देवगति में उत्पन्न करानेवाले सत्कृत्यों का चित्रण कर समवशरण में वामादेवी और हमसेनको उपदेश दिये जानेका कथन आया है | नागराजद्वारा पूर्वजन्मके वृत्तान्तके सम्बन्ध में पूछनेपर दशभवों की कथाका संक्षेप में चित्रण आया है । यसेन भी दीक्षित हो जाता है और अन्त में ग्रन्थ परिचय और ग्रन्थकारकी गुरुपरम्परा के साथ ग्रन्थ समाप्त हो जाता है ।
यह ग्रन्थ जैन सिद्धान्त और काव्यको दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है । इसमें सम्यक्त्व, श्रावकधर्म, सुनिधर्म, कर्मसिद्धान्त, विश्वका स्वरूप आदिका चित्रण आया है । सम्यक्त्वके स्वरूपका विवेचन निश्चय और व्यवहार दोनों ही दृष्टियोंसे किया गया है । इस ग्रन्थ में सम्यक्त्वके चार गुण - १. मुनियोंके दोषोंका गोपन, २. च्युतचारित्र व्यक्तियोंका पुनः सम्यक् चरित्र में स्थापन ३. वात्सल्य और ४ प्रभावना बतलाये हैं । पाँच दोषोंमें - १. शंका, २. आकांक्षा, ३ विचिकित्सा ४ मूढदृष्टि, और ५. परसमयप्रशंसाकी गणना की है। श्रावकधर्म के अन्तर्गत गुणव्रत, अणुव्रत, शिक्षाव्रतका कथन आया है। मुनिर्मके अन्तर्गत २८ मूलगुण -- पांच महाव्रतोंका पालन, पाँच समितियोंका धारण, पंचइन्द्रियोंका निग्रह, षड्आवश्यक, खड़े-खड़े भोजन, एक बार भोजन, बस्त्रत्याग, केशलुञ्च, अस्नान, भूमिशयन और अदन्त धावन मूलाचारके समान ही इस ग्रन्थमें आये हैं । तपके दो भेद किये हैं- बाह्य और आभ्यन्तर । अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशयनासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तपके भेद हैं । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सगं और ध्यान ये छह आभ्यन्तर तपके भेद हैं। इन मूलगुणोंके साथ २२ परीपह और उत्तरगुणोंका भी कथन
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २१७
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
आया है। कर्मसिद्धान्त और सृष्टिविद्याके सम्बन्धमें अनेक महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी है। ___ काव्यको दृष्टि से भी यह ग्रन्थ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसमें महाकाव्यके सभी लक्षण घटित होते हैं । आचार्य ने षड़ऋतु, सन्ध्या, रात्रि, नदी, वन, पर्वत, सूर्योदय, चन्द्रोदय आदिका सुन्दर चित्रण किया है । यहाँ उदाहरणार्थ चन्द्रोदय वर्णनकी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती हैं
ऐल्वंतरि भुअणहा सुहु जणंतु णहि उइउ चंदुतम भाहणंतु । आणंद-जणणु परमत्थ-गब्भु अवयरिउ णाइ पह अमिय-कुंभु । चंदुग्गमे वियसिय कुमुभ-संड मजलिय सरेहि पंकय-उडंड। सास-सोमु विलिमिह णत सूहाइ सुरुग्गम विडसड़ गुणह जाइ । अहवा जगि जो जसु ठियउ चित्ति गुण-रहिउ वि सम्मड देइ तित्ति । मयलंछण-किरणहिं तिमिरु णठ जोण्हाणल परिपुण्ण दिदछ । कोडतह मिहुणहँ सुक्षु जाउ रोमंचित तणु उच्छलिज राउ । पिसि भीसण अलि-उल-सम-सदोस तम-रहिय ससकें किय सत्तोस ।
बहु-दोष वि अहवा महिल होइ परिंगरिय सुपुरिसें सोह देइ । घत्ता--हु सयलु विकिउ अकलंकिउ थिउ सकलंकित चंद-सणु ।
णिय-कज्जहो विउस वि भुल्लाहि गरवर किं पुणु इयर-जणु' !
इसी समय संसारको सुख पहुंचाता हआ तथा अन्धकारपटलका नाश करता हुआ चन्द्रमा नभमें उदित हुआ। आनन्दको उत्पत्ति करनेवाला तथा परमार्थभावको धारण करनेवाला वह चन्द्र नभमें अमसकुम्भके समान अवतरित हुआ । चन्द्रोदयके समय कुमुदसमह विकसित हुआ तथा सरोवरोंमें विकसित कमल मुकुलित हुए। सौम्यचन्द्र भी नलिनीको नहीं सुहाता। वह सूर्योदयपर ही प्रफुल्लित होती है और गुणोंका उत्कर्ण प्राप्त करती है। अथवा इस संसारमें जो जिसके चित्तमें बसा हुआ है, वह गुणहीन होते हुए भी उसकी तृप्ति करता है। चन्द्रमाकी किरणोंसे अन्धकारका नाश हुआ तथा गगन ज्योत्स्नाजलसे परिपूर्ण दिखलायी दिया 1 क्रीड़ामें आसक्त युगलोंको सुख प्राप्त हुआ, उनके शरीरमें रोमांच हुआ और अनुराग उमड़ पड़ा। भ्रमरसमूहके समान काली एवं भीषण रात्रिको चन्द्रमाने तमरहित और शोभायुक्त बनाया अथवा अत्यधिक दोषपूर्ण व्यक्ति भी सत्पुरुषको संगतिमें शोभित होता है । चन्द्रमाने समस्त आकाशको कलंकरहित किया किन्तु स्वयं चन्द्रमाका शरीर कलंक युक्त १. पासणाहचरिउ--१०।११। २१८ : तीर्थकर महावीर और उनकी पाचार्य-परम्परा
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
रहा । जब विद्वान् तथा उत्तम पुरुष भी अपना कार्य भूल जाते हैं, तब फिर अन्य लोगोंकी क्या बात ?
इस प्रकार आचार्य पक्षीतिने धर्म, दर्शन और कान्यकी त्रिवेणो इस ग्रन्थमें एक साथ प्रवाहित को है।
आचार्य इन्द्रनन्दि द्वितीय इन्द्रनन्दि नामके कई आचार्योंके उल्लेख मिलते हैं। श्रुतावतारके कर्ता और ज्यालिनीकल्पके कर्ता इन्द्रनन्दिसे भिन्न कई इन्द्रनन्दियोंके निर्देश प्राप्त हैं। श्रुतावतारके कर्ताको स्व. श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने गोम्मटसार और मल्लिषेणप्रशस्तिके इन्द्रनन्दिसे अभिन्न स्वीकार किया है। श्रतावतारमें वीरसेन और जिनसेन आचार्य तकको ही सिद्धान्तरचनाका उल्लेख है। अतः यदि
नामचन्द्रींचायक पीछे हुए हात सो बहुत सम्भव है कि गोम्मटसारका भी उल्लेख करते | चतुर्थ इन्द्रनन्दि नीतिसार अथवा समयभूषणके कर्ता हैं जो नेमिचन्द्र आचार्यके पश्चात् हुए हैं। उन्होंने नीतिसारके एक पद्यमें सोमदेवादिकके साथ नेमिचन्द्रका भी नामोल्लेख किया है । पञ्चम इन्द्रनन्दि इन्द्रनन्दि-संहिताके रचयिता है । बहुत सम्भव है कि ये ही इन्द्रनन्दि पूजा-विधिक भी कर्ता हो । दायभागप्रकरणके अन्तमें पायी जानेवाली गाथाओंसे बहुत कुछ स्पष्टता प्राप्त होती है
पुज्ज पुज्जविहाणे जिणसेणाइवीरसेणगुरुजुत्तइ । पुज्जस्स या य गुणभसूरीहि जह तहुद्दिट्टा ॥ ६३ ।। वसुणंदि-इंदणंदि य तह य मुणिएमसंधिगणिनाहं (हिं) । रचिया पुरजविही या पुव्वक्कमदो विणिहिट्ठा ॥ ६४ ।। गोयम-समंतभद्द य अचलं कसुमागदिमुणिणाहिं ।।
वसुणंदि-इंदणंदिहिं रचिया सा संहिता पमाणा हु ।। ६५ ।। दूसरी गाषामें वसुनन्दिके साथ एकसंषिमुनिका भी उल्लेख है, जो एक संधि-संहिताके कर्ता हैं, जिनका समय विक्रमको १३वीं शताब्दी है। अतएव इन इन्द्रनन्दिको एकसंधिभट्टारकके बादका विद्वान् मानना होगा। प्रेमीजीने छेद-पिण्डको इन्द्रनन्दिसंहिताके कर्ताकी कृति माना है और इसका प्रधान कारण यह है कि यह ग्रन्थ उक्त संहितामें उसके चतुर्थ अध्यायके रूपमें समाविष्ट पाया जरता है। अतएव प्रेमीजीने छेद-पिण्डके कर्ताको १३वीं शताब्दीके बादका विद्वान् माना है। श्री आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने छेद-पिण्डको स्वतन्त्र कृति माना है
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्भरापोषकाचार्य : २१९
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
और उसका रचयिता इन्द्रनन्दिसे भिन्न कोई अन्य इन्द्रनन्दि है। मुख्तार साहबने लिखा है-"मेरी रायमें यह छेद-पिण्ड जो अपनी रचना शैली आदि परसे एक व्यवस्थित स्वतन्त्र ग्रन्थ मालूम होता है। यदि उक्त इन्द्रनन्दि संहितामें भी पाया जाता है तो उसमें उसी तरह अपनाया गया है जिस तरह कि १७वीं शताब्दोकी बनी हुई भद्रबाहुसंहितामें "भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र' नामके एक प्राचीन ग्रन्थको अपनाया गया है और जिस तरह उसके उक्त प्रकार अपनाये जानेसे वह १७वीं शताब्दीका अन्य नहीं हो जाता, उसी तरह छेद-पिण्डके इन्द्रनन्दिसंहितामें समाविष्ट हो जानेमासे यह वि० की १३वीं शताब्दीकी अथवा उसके बादकी कृति नहीं हो जाता । वास्तवमें छेद-पिण्ड संहिता शास्त्रकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने विषयका एक बिल्कुल स्वतन्त्र ग्रन्थ है। यह बात उसके साहित्यको आद्योपान्त गौरसे पढ़नेपर भली प्रकार स्पष्ट हो जाती है। उसके अन्त में गाथा संख्या तथा श्लोक संख्याका दिया जाना और उसका ग्रन्थ परिमाण प्रकट करना भी इसी बातको पुष्ट करता है। यदि वह मूलतः और वस्तुतः संहिताका एक अंग होता तो ग्रन्थ परिमाण उसी तक सीमित न रहकर सारी संहिताका ग्रन्थ परिमाण होता और वह संहिताके हो अन्तमें रहता, न कि उसके किसी अंगविशेषके अनन्तर ।"
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारके उपर्युक्त कथनसे स्पष्ट है कि छेद-पिण्ड एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसका समावेश इन्द्रनन्दिसंहितामें किया गया है। इसको साहित्यिक प्रौढ़ता, गम्भीरता और विषय-व्यवस्था भी इसे स्वतन्त्र ग्रन्थ सिद्ध करती है। जीवशास्त्र और कल्पव्यवहार जैसे प्राचीन ग्रन्थोंका उल्लेख होनेसे छेद-पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दिकी प्राचीनता स्वत: सिद्ध हो जाती है । थी आचार्य जुगलकिशोरजीने अनुमान किया था कि छेद-पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दि मल्लिषेणप्रशस्तिमें निर्दिष्ट इन्द्रनन्दि है। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिके पद्यमें कहा गया है--
भावेऽ छेदपिंडं जो एवं ईदणदिणिरचिदं । लोइयलोउत्तरिए बवहारे होइ सो कुसलो । इय इंदणदिजोइंदविरइयं सज्मणाण मलहरणं ।
विहियं तं भत्तीए सम्मतपसत्तचित्तण ॥ उपर्युक्त गाथाओंसे मिलता जुलता भाव मल्लिषेण प्रशस्तिके निम्नलिखित पद्यमें पाया जाता है१. पुरातन जैन वाक्य सूची [प्रथम भाग], सम्पादक : आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार,
वीर सेवा मन्दिर, सन् १९५०, प्रस्तावना पृ० १०८ । २. छेदपिण्ड, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, ग्रन्यांक २८, गापा-३६१, ३६२ (१)। २२० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुरित-ग्रह- निग्रहाद्भयं यदि भो भूरि-नरेन्द्र वन्दितम् । ननु तेन हि भव्यदेहिनो भजत श्रीमुनिमिन्द्रनन्दिनम् ॥ १
अर्थात् हे भव्यजीवो ! यदि तुम्हें दुरित-निग्रहोंसे - पापरूपी ग्रहके द्वारा पकड़े जाने से कुछ भय होता है तो अनेक नरेन्द्र वन्दित इन्द्रनन्दि मुनिको भजो ।
इन्द्रनन्दि प्रायश्चित्त विधि द्वारा पापरूप ग्रहका निराकरण करनेवाल हैं । अतएव उनके प्रायश्चित्त शास्त्रके पढ़ने की ओर किया गया संकेत प्रतीत होता है । छेद-पिण्ड ग्रन्थके प्रशस्ति पद्यमें भी इस शास्त्रको मलहरण करने वाला बताया है । अतएव यह अनुमान निर्दोष है कि मल्लिषेण प्रशस्ति में उल्लिखित इन्द्रनन्दि ही छेद- पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दि हैं । मल्लिषेण प्रशस्ति शक संवत् १०५०, फाल्गुन शुक्ला तृतीयाको अति की गयी है । अतएव इन्द्रनन्दिका समय इससे पूर्व होना चाहिए। हमारा अनुमान है कि इन इन्द्रनन्दिका समय ई० सन् की दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या ११वीं शतीका पुर्वाधं होना सम्भव है ।
रचना-परिचय
इन्द्रनन्दिका छेदपिण्ड नामक ग्रन्थ उपलब्ध होता है । इस ग्रन्थका प्रकाशन माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे वि० सं० १९७८ में हुआ है । प्रकाशित प्रतिमें ३६२ गाथाएँ हैं, पर ग्रन्थ में निबद्ध गाथा में ३३३ ही गाथाओंकी संख्या बतायी है और इलोक प्रमाण ४२० बताया गया है—
चउरसयाई वीसुतराई गंथस्स परिमाणं । तेतीसुत्तरतिसयपमाणं गाहाणिबद्धस्स ।।
श्री प्रेमीजीने 'तेतीसुत्तर' के स्थानपर 'बासट्टयुत्तर' पाठ स्वीकार किया है, पर आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने इस मान्यताका खण्डन किया है और उन्होंने मूल गाथाएँ ३३३ ही मानी हैं। शेष गाथाओंको प्रक्षिप्त माना है । २९. गाथाएँ जहाँ-तहाँ प्रक्षिप्त रूपमें समाविष्ट हो गयी हैं। मुख्तार साहबने कुछ गाथाओंकी छानबीनकर उन्हें प्रक्षिप्त सिद्ध किया है, पर हमें मुस्तार साहब के तर्फ समीधीन प्रतीत नहीं होते । हमने समस्त ग्रन्थ ३६२की अक्षर संख्या गिनकर श्लोक मान निकाला तो ४२० श्लोकसे कुछ ही अक्षर बढ़ते हैं । अतएव इस ग्रन्थ में प्रक्षिप्त या व्यर्थकी बढ़ी हुई गाथाओं में न कहीं पुन१. जैनशिलालेख संग्रह, माणिकचन्द्र पन्वमाला, प्रथम भाग, शिलालेख संख्या५४, पद्य - २७, पृ० १०६ ।
२. छेदपिण्ड माणिक चन्द्र ग्रंथमाला, प्रथांक- १८, गाथा - ३६० १०७५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: २२१
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
रुक्ति है, और न ऐसा क्रम ही है जिससे कहीं भी प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना की जाय । लिपिकर्ताको असावधानीसे या अन्य किसी कारणवश 'तेतीसुत्तर' पाठ निम्त हो गया है। नोच कापलेपार २० इयोन माथाओंमें ही पूर्ण होती है।
आरम्भमें आचार्यने प्रायश्चित्त, छेद, मल-हरण, पाप-नाशन, शुद्धि, पुण्य, पवित्र, पाबन-ये सब प्रायश्चित्तके मामान्तर बताये हैं। प्रायश्चित्तके द्वारा चित्तादिकी शुद्धि करके आत्म-विकासको प्राप्त किया जाता है । जो आत्मविकास अथवा मुक्तिको प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें अपने दोषों-अपराधोंपर कड़ी दष्टि रखने की आवश्यकता है। किस दोष या अपराधके लिए कौन-सा दण्ड या प्रायश्चित्त विहित है-यही इस ग्रन्थका वर्ण्य-विषय है। मुनि, आर्यिका, श्रावक और धाविकारूप चतुःसंघ और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्ररूप चतुर्विध वर्णके सभी स्त्री-पुरुषोंको लक्ष्यकर ग्रन्थ लिखा गया है। दोषोंके प्रकारों और उनके आगमादि विहित तपश्चरणादिरूप संशोधनोंका इसमें निर्देश और संकेत किया है। यह अनेक आचार्योंके उपदेशको अधिगत करके जीत और कल्प व्यवहारादि प्राचीन शास्त्रोंके आधारपर निर्मित है। आत्म-शुद्धिका साधन प्रायश्चित्त हो है । इस प्रायश्चित्तसे ही आत्मशुद्धि सम्भव है । आरम्भको ४० गाथाओंमें मूल गुणोंके पश्चात् प्रथम महाव्रतका वर्णन आया है । ग्रन्थका प्रथम मूल गुणाधिकार है और द्वितीय महाव्रताधिकार । इस महाव्रताधिकारके अन्तर्गत प्रथम प्रकरणमें प्रथम महावतका निरूपण किया है। द्वितीय और तृतीय महावताधिकार नामक तृतीय प्रकरण में ४१-४६ गाथाएं हैं। इन छ: गाथाओंमें द्वितीय और तृतोय महाव्रतका वर्णन किया है तथा इन व्रतोंमें होनेवाले दोषों और उनकी प्रायश्चित्त विधियोंका कथन आया है । चतुर्थ प्रकरण चतुर्थ महाव्रताधिकार नामका है । इसमें ४७-६० गाथाएं हैं ! इस व्रतम लगनेवाले दोषों और उन दोषोंको दूर करने हेतु उपवासादि प्रायश्चित्तोका वर्णन है। पञ्चम प्रकरण पञ्चम महाप्रताधिकार नामका है। इसमें ६१से लेकर ६८ तक गाथाएं हैं। परिग्रह परिमाण महाव्रत में प्रमाद या अज्ञानतापूर्वक लगनेवाले दोषं और उनकी प्रायश्चित्तविधियोंका वर्णन आया है । षष्ठप्रकरण रात्रि-भोजन त्याग नामक षष्ठवताधिकार आया है । इसमें ६९-७५ गाथाएं हैं। स्वप्नमें रात्रि-भोजन करना, असमय में भोजन करना, रोगावस्था या उपसविस्थामें बेठकर भोजन करना आदि दोषोंके प्रायश्चितोंका वर्णन आया है । सप्तम प्रकरणसे लेकर एकादश प्रकरण तक ७६१०३ गाथाएं हैं। इनमें पञ्च समितियों में लगने वाले दोष और उनमें विहित प्रायश्चित्तोंका कथन किया है । द्वादश इन्द्रिय निरोधाधिकारमें एक हो २२२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा है । इन्द्रियनिरोधमें होनेवाले अतिचारोंको शुद्धिके लिए एक, दो, तोन, चार और पांच उपवास करनेका वर्णन आया है। १३वो अधिकार केशलुऊचाधिकार है । इसमें १०५-१०८ गाथाएं हैं। समयका अतिक्रमण कर केशलुञ्च करना या आगमोक्त विधिके अनुसार कैशलञ्च न करने सम्बन्धी प्रायश्चित्तोंका वर्णन है। चतुर्दश षडावश्यकाधिकारमें १०९-१२३, पञ्चदश अचेलकाधिकारमें १२४-२५, षोडश अस्नान-अदन्त-मन-क्षितिशयनाधिकारमें १२६वीं गाथा, सप्तदश स्थितिभोजनकमवताधिकारमें १२७वीं गाथा, अष्टादश उत्तरगुणाधिकारमें १२९-१५२ गाथाएँ, एकोनविंशति चलिका प्रकरणमें १५३-१७३ गाथाएं", २०वें दशावध प्रायश्चित्ताधिकारमें १७४-१७५ गाथाए', २१वें आलोचनाधिकारमें १७७-१८१ गाथाएं, २२वें प्रतिकमणाधिकारमें १८२-१८७, २३वें उभयाधिकारमें १८८-१८९ गाथाएँ, २४वें विवेकाधिकारमें १२०-१९३ गाथाएं, २५वें व्युत्सर्गअधिकारमें १९४-२०२, २६वं तपाधिकारमें २०३-२०८, २२६-२४२, २७वें पंचकअधिकारमें २०९-२१५, २८वें मासिक चतुर्मासिक अधिकारमें २१६-२१८, २८वें षापमासिकाधिकारमें २१२-२२५, ३०वें छेदाधिकारमें २४३-२५२, ३१वें मूलाधिकारमें २५३-२६१, ३२वें स्वगणानुपस्थान अधिकारमें २६२-२६९, ३३वे परगणानुपस्थान अधिकार में २७०-२७५, ३३वें पारश्चिक अधिकारमें २७६-२८४, ३४वें श्रद्धानाधिकार में २८५-२८७, ३५वें ऋषि प्रायश्चित्त अधिकारमें २८८वीं गाया, ३६वें संयतिका या श्रवणो नाम अधिकारमें २८९-३०२ और ३७वें त्रिविधश्रावक प्रायश्चित्ताधिकारमें ३३७-३६९ गाथाएँ आयी हैं। नामानुसार तत्तदधिकारमें होनेवाले दोष और उन दोषोंके निराकरणार्थ प्रायश्चित्तविधिका वर्णन आया है । वस्तुतः यह प्रायश्चित्तशास्त्र आत्म-शुद्धिके लिए अत्यन्त उपयोगी है । मलगुण और और उत्तरगुणोंमें प्रमाद या अज्ञानसे लगनेवाले दोषोंका कथन किया गया है।
आचार्य वसुनन्दि प्रथम वसुनन्दि नामके अनेक आचार्य हुए हैं। एक ही वसुनन्दिको आप्तमीमांसावृत्ति, जिनशतकटीका, मूलाचारवृत्ति, प्रतिष्ठासारसंग्रह रचनाएँ सम्भव नहीं हैं । ग्रन्थ परीक्षणोंसे यह अनुमान होता है कि आप्तमीमांसावृत्ति और जिनशतक टीकाके रचयिता एक ही व्यक्ति हैं । इसी प्रकार प्रतिष्ठापाठ और श्रावकाचारके रचयिता भी एक ही वसुनन्दि होंगे, क्योंकि इन दोनों रचनाओं में पर्याप्त साम्य है। वसुन्दि प्रथमने प्रतिष्ठासंग्रहकी रचना संस्कृत भाषामें की है और श्रावकाचार या उपासकाध्ययनकी रचना प्राकृत भाषामें | अतः स्पष्ट है कि ये उभय भाषाके शाता थे। यही कारण है कि बसुनन्दिको उत्तरवर्ती
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २२३
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यांने सैद्धान्तिक उपाधि द्वारा उल्लिखित किया है। श्रावकाचारकी प्रशस्ति में वसुनन्दिने अपनी गुरुपरम्पराका निम्न प्रकार उल्लेख किया है
गायी
सिरिषदसंताणे |
सिरिदिणामेण ||
एमप भव्वणकुमुयवर्णसिसिरयरो कित्ती जस्सिदुसुम्भा सयलभुवणमज्जहिच्छं भमित्ता, णिन्वं सा सज्जणाणं हियम वयण-सोए निवास करेई । जो सिद्धतंबुरासि सुणयतरणमा सेज्जलीलावतिष्णो । वण्णेउ' को समत्यो सयलगुगगणं से वियड्ढो बिलोए ॥ सिस्सो तस्स जिदिसासणरओ सिद्ध तपारंगओ, खंती - मेष्ट्व-लाहबादसहाधम्मम्मि जिओ । पुणे दुज्जल कित्तिपूरिथजओ चारितलच्छीहरो, संजाओ णयनंदिणाममुणिणो भासाणंद ॥ सिस्सो तस्स जिणागम-जल निहिवेलात रंगधोयमणो । संजाओ सयलजए विक्खाओ नेमिचन्दु ति ॥ तस्स पसाएण मए आइरिय परंपरागयं सत्थं । चच्छल्लयाए रइयं भवियाण मुवासयझणं ॥ १
श्री कुन्दकुन्दाचार्यकी आम्नाय में स्वसमय और परसमय के ज्ञायक भव्यजनरूप कुमुदवनको विकसित करनेवाले चन्द्रतुल्य श्रीनन्दि नामके आचार्य हुए। जिसकी घन्द्र भी शुभ कीर्ति समस्त भुवनोंके भीतर इच्छानुसार परिभ्रमण कर पुन: वह सज्जनोंके हृदय, भुख और श्रोत्रमें निवास करती है, जो सुनयरूप नौका आश्रय लेकर सिद्धान्तरूप समुद्रको लीलामात्रसे पार कर गये उन श्रीनन्दि आचार्य के समस्त गुणगणोंका कौन वर्णन कर सकता है ।
उन श्रीनन्दि आचार्यका शिष्य जिनेन्द्रशासनमें रत सिद्धान्तका पारंगत, क्षमा, मार्दय, आर्जव आदि दश प्रकारके धर्ममें नित्य उद्यत, पूर्णचन्द्र के समान उज्ज्वलकीर्ति जलको पवित्र करनेवाला चारित्ररूपी लक्ष्मीका धारक और भव्यजीवोंके हृदयको आनन्दित करनेवाला नयनन्दि नामका मुनि हुआ ।
उस नयनन्दिका शिष्य जिनागमरूप जलनिधिको बेलात रंगोंसे धुले हुए हृदयवाला नेमिचन्द्र - इस नामसे सकल जगत् में प्रसिद्ध हुआ ।
उन नेमिचन्द्र आचार्यके प्रसादसे मैंने आचार्य परम्परासे आया हुआ यह उपासकाध्ययनशास्त्र वात्सल्यभावना से प्रेरित होकर भव्यजीवोंके लिए रचा है ।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि कुन्दकुन्दाचार्यको परम्परा में श्रीनन्दि नामके १. वसुनवि श्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, प्रशस्ति, गाया - ५४० - ५४४ । २२४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य हुए। उनके शिष्य नयनन्दि और नयनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र हुए । नेमिचन्द्रके प्रसादसे वसुनन्दिने यह उपासकाध्ययन लिखा है । __ आचार्य वसुनन्दिने आचार्य नयनन्दिको अपने दादागुरुके रूपमें स्मरण किया है । 'सुदंसगरि 3' की प्रसरितमें बताया है कि पानवेश महाराज भोज अनेक विद्वान और आचार्योंके आश्रयदाता थे । लिखा है
आराम-गाम-पुरवरणिवेस, सुपसिद्ध अवंती णाम देस | सुरवइपुरिव विवहयणइट्ट, तहि अस्थि धारणयरो गरिट्ट ।। रणिदुद्धर अरिवर-सेल-वज्ज, रिद्धिय देवासुर जणिय चोज्जु । तियणु णारायण सिरिणिकेज, तहिं परवइपुंगमु भोयदेव ॥ मणिगणपहसियरविगभस्थि, तहि जिणवर यद्धविहार अस्थि । णिव विक्कम्मकालही बवगएस, एयारह संवच्छर स एसु ।
तहिं केवलि चरिउ अमरच्छरेण, णयणंदी विरयउ वित्थरेण ॥' इस प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि नयनन्दि धारानरेश महाराज भोजके समयविद्यमान थे और उन्होंने वि० सं० ११०० में 'सुदंसणचरिउकी रचना की । नयनन्दि सुप्रसिद्ध ताकिक परीक्षामखसूत्रकार आचार्य माणिकनन्दिके शिष्य थे। बसुनन्दिने अपनी प्रशस्तिमें नयनन्दिको श्रीनन्दिका शिष्य लिखा है। नयनन्दिने अपनी गरुपरम्पसमें श्रीनन्दिके नामका उल्लेख नहीं किया । वसु. नंदिका श्रीनन्दिसे क्या अभिप्राय है—यह स्पष्ट नहीं होता। श्री पं० हीरालालजो सिद्धान्तशास्त्रीका अनुमान है कि रामनन्दिके लिए ही वसुनन्दिने श्रीनन्दिका प्रयोग किया। क्योंकि जिन विशेषणोंसे नयनन्दिने रामनन्दिका स्मरण किया है, उन्हीं विशेषणोंका प्रयोग वसुनन्दिने श्रीनन्दिके लिए किया है । नयनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र हुए और उनके शिष्य वसुनन्दि ।। स्थिति-काल
प्रत्थरचनाकार वसनन्दिने इस ग्रन्थके निर्माणका समय नहीं दिया है। परन्तु उनकी इस कृतिका उल्लेख १३ वीं शताब्दीके विद्वान पंडित आशाधरने अपने 'सागारधर्मामृत'को टोकामें किया है । इससे स्पष्ट है कि इनका समय १३ दी शताब्दीके पूर्व निश्चित है । मूलाचारको आचारवृत्तिमें ११ वीं शताब्दीके विद्वान् आचार्य अमितगतिके उपासकाचारसे पांच श्लोक उद्धृत किये हैं। इससे स्पष्ट है कि वे अमितगतिके बाद हुए हैं। अतएव वसुनन्दि श्रावकाचारको रचना विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें हुई है ।श्री स्व० पण्डित नाथूराम१. सुदंसणबरिउ, प्रशस्तिभाग |
प्राचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २२५
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
जी प्रेमीने लिखा है--"अमितगतिने भी भगवती आराधनाके अन्तमें आराधना. की स्तुति करते हुए एक वसुनन्दि योगीका उल्लेख किया है
या निःशेषपरिग्रहेमदलने दुर्वारसिंहायते, या कुज्ञानतमोघटाविघटने चंद्राशुरोचीयते । या चिन्तामणिरेव चिन्तितफलः संयोजयन्ती जनान्,
सा वः श्रीवसुनन्दियोनिहिता पायातदाराबना॥ या सो ये वसुनन्दियोगी इन वसुनन्दिसे पूर्ववर्ती कोई दूसरे ही है और या फिर अमितगति और वसुनन्दि समकालीन हैं. जिससे वे एक दूसरेका उल्लेख कर सके हैं। यदि समकालीन हैं तो फिर वसुनन्दिको विक्रमको ११ वीं शतीका विद्वान होना चाहिये । अतएव श्रीप्रेमोजी और आचार्य युगलकिशोर मुख्तार इन दोनोंके मतसे वसुनन्दिका समय अमिततके पश्चात् और आशाधरके पूर्व होना चाहिये । हमारा अनुमान है कि इनका समय ई० सन्की ११ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध सम्भव हैं । यतः वसुनन्दिके दादागुरु श्री नयनन्दिने विक्रम संवत् ११०० में 'सुदंसणचरिज' नामक ग्रन्थकी रचना की है। वसुनन्दि द्वारा दी गयी प्रशस्तिसे यह अनुमान होता है कि वसुनन्दि और नयनन्दि समकालीन हैं। उन दोनोंके समयमें कोई विशेष अन्तर नहीं है। श्री पण्डित होरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीने लिखा है-"इतना तो निश्चित ही है कि नयनन्दिके शिष्य नेमिचन्द हुए और उनके शिष्य वसुनन्दि । वसुनन्दिने जिन शब्दोंमें अपने दादागुरुका प्रशंसापूर्वक उल्लेख किया है, उससे ऐसा अवश्य ध्वनित होता है कि वे उनके सामने विद्यमान रहे हैं । यदि यह अनुमान ठोक हो तो १२ वीं शताब्दीका प्रथम चरण वसुनन्दिका समय माना जा सकता है। यदि वे उनके सामने विद्यमान न भी रहे हों, तो भी प्रशिध्यके नाते वसुनन्दिका काल १२ बों शताब्दीका पूर्वार्ध ठहरता है" |"
श्री पण्डित हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीके उक्त कथनसे भी यह स्पष्ट है कि वसुनन्दिका समय ई० सन्की ११वीं शताब्दीका अन्तिम चरण या १२वीं शताब्दीका प्रथम चरण सम्भव है। रखना परिचय ___ आचार्य वसुनन्दिके 'प्रतिष्ठासारसंग्रह', 'उपासकाचार' और 'मूलाचारकी आचारवृत्ति' ये तीन ग्रन्थ इनके हैं। आप्तमीमांसावृत्ति और जिनशतक १. बैन साहित्य और इतिहासमें उद्घृत, पृ. ४६३ । २. बसुनन्विश्रावकाणार, भारतीय ज्ञानपीठ काशी संस्करण, प्रस्तावना, १० १९ ।
२२६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
टोक के रचयिता अन्य वसुनन्दि हैं । इन समस्त ग्रन्थों में इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण रचना उपासकाध्ययन या श्रावकाचार है |
उपासकाध्ययन या श्रावकाचार
श्रावकाचारमें कुल ५४६ गाथाएँ हैं, जो ६५० श्लोकप्रमाण है। मंगलाचरणके अनंतर देशविरति नामक पञ्चम गुणस्थान में दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याम, रात्रिभुक्कित्याम, ब्रा वाला जिमान बटुलतिलाग और उद्दिष्टत्याग ये ११ स्थान - (प्रतिमा) होते हैं। श्रावकको व्रती, उपासक, देशसंयमी और आगारी आदि नामोंसे अभिहित किया जाता है, जो अभीष्ट देव, गुरु, धर्मकी उपासना करता है, वह उपासक कहलाता है। गृहस्य वीतरागदेवकी नित्य पूजा-उपासना करता है, निग्रंथगुरुओं की सेवा वैयावृत्य में नित्य तत्पर रहता है और सत्यार्थधर्मकी आराधना करते हुए यथाशक्ति उसे वारण करता है । अतः बह्व् उपासक कहलाता है । वसुनन्दिने, १९ स्थान सम्यग्दृष्टिके होते हैं, अतः सर्वप्रथम सम्यक्त्वका वर्णन किया है । उन्होंने आप्त आगम और तत्त्वोंका शंकादि २५ दोषरहित अतिनिर्मल श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है । आप्त और आगमके लक्षण के पश्चात् जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यक्त्व बतलाया है । इसी सन्दर्भ में जीवतत्त्वका वर्णन करते हुए जोवोंके भेद-प्रभेद, उनके गुण, आयु, कुल, योनिका कथन किया है । अजीव तत्त्वके भेद बतलाकर छहों द्रव्योंके स्वरूपका वर्णन किया है। बताया है कि इन द्रव्योंमें जीव और पुद्गल ये दो परिणामी है, और ये दो ही क्रियाचान् है, क्योंकि इनमें गमन आगमन आदि क्रियाए पायो जरती हैं। शेष चार द्रव्य क्रियारहित हैं, क्योंकि उनमें हलन चलन क्रियाएं नहीं पायी जातीं । जोब और पुद्गल इन दो द्रव्यों को छोड़ शेष चारों द्रव्यों को परमागम में नित्य कहा गया है क्योंकि उनमें व्यजनपर्याय नहीं पायी जाती है। जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्योंमें व्यंजनपर्याय पायी जाती है । अतएव वे परिणामी और अनित्य है ।
पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच द्रव्य जीवका उपकार करते हैं, अतएव वे कारणभूत हैं । जीव सत्तास्वरूप है, इसीलिये किसी भी द्रव्यका कारण नहीं होता। जीव शुभ और अशुभ कर्मोंका कर्त्ता है क्योंकि वही कर्मो फलको प्राप्त होता है । अतएव वह कर्मफलका भोक्ता भी है। शेष द्रव्य न कमोंके कर्त्ता हैं और न भोक्ता ही हैं। छहों द्रव्य एक दूसरेमें प्रवेश करके एक ही क्षेत्रमें रहते हैं। तो भी एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें प्रवेश नहीं होता, क्योंकि वे सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाही होकर भी अपने-अपने स्वभावको नहीं छोड़ते ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोवकाचार्य : २२७
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
इसके पश्चात् आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वका स्वरूप विश्लेषण किया गया है। अनन्तर सम्यक्त्वके निःशंक, निःकांक्ष, निर्विचिकित्सा, अमूढ़ दृष्टि, उपगहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठ अंगोंका नाम निर्दिष्ट किया गया है । सम्यग्दर्शनके होनेपर संवेग, निर्वेग, निन्दा, महाँ, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा इन आठ गुणोंके उत्पन्न होनेका कथन आया है । आठ अङ्गों में प्रसिद्ध होनेवालोंके नामका कथन करते हुए बताया है कि राजगृह नगरमें अजन नामक चोर निःशंकित अंगमें प्रसिद्ध हुआ। चम्पानगरीमें अनन्तमती नामकी वणिकपुत्री निःकॉक्षित अंगमें प्रसिद्ध हुई । रुद्दवर नगरमें उद्दायन नामक राजा निर्विचिकित्सा अंगमें प्रसिद्ध हआ। मथुरा नगरमें रेवती रानी अमढ़दष्टि अङ्गमें प्रसिद्ध हई। मागध नगर-राजगहमें बारिषेण नामक राजकुमार स्थितिकरण गुण को प्राप्त हआ। हस्तिनापुर नामके नगरमें विष्णुकुमार मुनिने वात्सल्य अंग प्रकट किया। ताम्रलिप्त नगरीमें जिनदत्तसेठ उपगूहन गुणसे युक्त प्रसिद्ध हुआ और मथुरा नगरोमें वनकुमारने प्रभावना अंग प्रकट किया। इस प्रकार सम्यग्दर्शनका स्वरूप बतलाकर दार्शनिक श्रावकका लक्षण कहा गया है। सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध पंच उदुम्बरफलसहित सप्त व्यसनका त्यागी दार्शनिकभावक कहलाता है। यह पंच उधुम्बरफलके साथ सन्धानक, वृक्ष, पुष्प आदिका त्याग करता है।
इसके पश्चात् घुस मद्य-मांस आदि सातों व्यसनोंके दोषोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है तथा किस-किस व्यसनके सेवनसे किस-किस व्यक्तिको कष्ट प्राप्त हुआ, इसका भी वर्णन किया है। व्यसन सेवन करनेवाला व्यक्ति नरकादि गतियोंमें परिभ्रमण करता है। अतएव १३४वीं गाथासे १७६वीं गाथा तक अर्थात् ४२ गाथाओंमें नरकगसिके दुःखोंका वर्णन किया है। नरकगतिमें क्षेत्रकृत, कालकृत एवं पारस्परिक वेरजनित वेदनाओंका निरूपण किया है। पश्चात् छह गाथाओंमें तिर्यञ्चगतिके दुःखोंका, आठ गाथाओंमें मनुष्यगतिके दुःखोंका और १४ गाथाओंमें देवगतिके दुःखोंका वर्णन किया गया है । अन्तमें उपसंहार करते हुए लिखा है
एवं बहुप्पयार दुक्खं संसार-सायरे घोरे।
जीवो सरण-विहीणो विसणस्स फलेण पाउणइ ।' अर्थात्, अनेक प्रकारके दुःखोंको घोर संसारसागरमें यह जीव शरण- .. रहित होकर अकेला ही व्यसनके फलसे प्राप्त होता है । १. वसुनन्दि श्रावकाचार, भारतीय मानपीठ काशी, एलोक २०४ । २२८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०५वीं गाथासे ३१२वीं गाथा तक ११ प्रतिमाओंका वर्णन आया है। ब्रतप्रतिमाके अन्तर्गत पाँच अणुव्रत, तीन गुण ब्रत और चार शिक्षाक्तोंका निरूपण किया है। अतिथिसंविभाग व्रतके अन्तर्गत दानका वर्णन किया है । उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारके पात्र होते हैं। इनमें प्रत, नियम और संयमका धारण करनेवाला साधु उत्तम पात्र कहलाता है । ग्यारह प्रतिमास्थानोंमें स्थित श्रावक मध्यम पात्र है। अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है। जो व्रत, तप और शीलसे सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह कुपात्र है । सम्यक्त्व, शील और अतसे रहित जीव अपात्र है । जिस दातामें श्रद्धा, भक्ति, सन्तोष, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और शक्ति ये सात गुण होते हैं, वह दाता प्रशंस्य है।
इसके अनन्तर दान विधिका आहार, औषध, शास्त्र और अभय दानोंका, दानके फलका वर्णन किया गया है। सल्लेखनावतका वर्णन भी किया गया है 1 अनन्तर सामायिकप्रतिमा, प्रोषधप्रतिमा, सचित्तत्यागप्रतिमा, रात्रिभुक्तित्यागप्रतिमा, ब्रह्मचर्यप्रतिमा, आरम्भनिवृत्तप्रतिमा, परिग्रहत्यागप्रतिमा, अनुमतित्यागप्रतिमा और उद्दिष्टत्यागप्रतिमाके स्वरूपका निरूपण किया गया है 1 रात्रिभोजनके दोषोंका वर्णन करनेके अनन्तर थावकके अन्य विधेय कत्तव्योंका कथन किया है । यथा--
विणओ विज्जाविच्वं कायकिलेसो य पुज्जणबिहाणं ।
सत्तीए जहजोग्गं कायन्वं देसबिरएहि ।।' अर्थात्-देशविरत श्रावकको अपनी शक्तिके अनुसार यथायोग्य विनय वैयावृत्य, काय-क्लेश और पूजन विधान करना चाहिये । दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तप विनय और उपचारविनय ये पांच प्रकारके विनय, बतलाये गये हैं। वैयावृत्यके अन्तर्गत मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इस चतुविध सबके चयावृत्य करनेका वर्णन किया है ! काय-क्लेशके अन्तर्गत व्रत, उपवास एवं पंचमीयत, रोहिणीनत, अश्विनीवत, सौख्यसम्पत्तिवत्त, नन्दीश्वरपक्तिव्रत और विमानपंक्तिव्रत आदि व्रतोंका कथन किया है।
इसके पश्चात् नामपूजा, स्थापनापूजा, आदिका कथन करते हुए प्रतिष्ठाचार्य, प्रतिमा-प्रतिष्ठाकी लक्षणविधि और प्रतिष्ठाफलका कथन आया है। कारापक लक्षण, इन्द्रलक्षण, प्रतिमाविधान, प्रतिष्ठाविधानका विस्तारसे वर्णन आया है । पश्चात् द्रव्यपूजा, क्षेत्रपूजा, कालपूजा, और भावपूजाका कथन आया है। इसके पश्चात् आचार्यनै पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपा. १. वसनन्दि श्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, श्लोक ३१९ ।
प्रयुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २२९
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीत ध्यानोंका वर्णन किया है । पूजनके फलका कथन करते हुए प्रत्येक द्रव्यके चढ़ानेके फलका पृथक्-पृथक् निरूपण किया है। बताया है कि पूजनके समय नियमसे भगवानके आगे जलधारा छोड़नेसे पापरूपी मैलका शमन होता है। चन्दन रसके लेपसे सौभाग्यको प्राप्ति होती है। अक्षतोंसे पूजा करनेवाला व्यक्ति अक्षय नव निधि और चौदह रलोंका स्वामी चक्रवर्ती होता है और रोग शोकसे रहित हो अक्षीण ऋद्धिसे सम्पन्न होता है । पुष्पोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य कमलके समान सुन्दर मुखवाला और विभिन्न प्रकारके दिव्य भागोरो सम्पन्न कामदेव होता है । नैवेदाके चटानेसे मनष्य शक्ति गान, तेजस्वी और सुन्दर होता है। दीपोंसे पूजा करनेवाला व्यक्ति केवलज्ञानको प्राप्त करता है । धूपसे पूजा करनेवाला निर्मल यश, फलसे पूजा करनेवाला निर्वाणफल एवं अभिषेक करनेवाला व्यक्ति इष्ट सिद्धियोंको प्राप्त करता है। भगवानकी पूजा करनेसे संसारके सभी सुख प्राप्त होते हैं | धावक धर्मके पालन करनेके फलका विवेचन करते हुए लिखा है
अणुपालिऊण एवं सावयघम्म तओवसाणम्मि | सल्लेहणं च विहिणा काऊण समाहिणा कालं ॥ सोहम्माइसु जायइ कप्पविमाणेसु अच्युयंतेसु। उववादगिहे कोमलसुयंसिलसंपुडस्सते ।। अंतोमुत्तकालेण तो पज्जत्तिमओ समाणेइ । दिव्यामलदेहधरो पायइ णवजुयणो चेव ।। समचउरससंठाणो रसाइधाहिं यज्जियसरीरो ।
दिणायरसहस्सओणवकुवलयसुरहिणिस्सासो।' इस प्रकार श्रावकधर्मका परिपालनकर और उसके अन्तमें विधिपूर्वक सल्ले. खना करके समाधिसे मरणकर अपने पुण्यके अनुसार सौधर्मस्वर्गको आदि लेकर अच्युतस्वर्गपर्यन्त कल्पविमानोंमें उत्पन्न होता है। वहाँके उपपादगहोंके कोमल एवं सुगन्धयुक्त शिलासम्पुटके मध्यमें जन्म लेकर अन्तर्मुहर्तकाल द्वारा अपनी छहों पर्याप्तियोंको सम्पन्न कर लेता है तथा अन्तर्मुहूर्त के भीतर दिव्य निर्मल देहका धारक एवं नवयौवनसे युक्त्त हो जाता है । वह देव समचतुरस्त्र संस्थानका धारक, रसादि धातुओंसे रहित शरीरवाला, सहस्र सोंके समान तेजस्वी, नवीन कमल के समान सुगन्धित निःश्वासवाला होता है।
इस प्रकार श्रावकधर्मका पालन करनेका फल भोगभूमि, देवगति एवं मनुष्यगतिमें विविध भोगोंकी उपलब्धि होना बतलाया है। बुद्धि, तप, विक्रिया १. वसुनन्दि धावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, एलोक ४९४-४९७ । २३० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
औषध, रस, बल और अक्षीण महानस ऋद्धियों की प्राप्ति भी होती है । मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर मुनिधर्मका आचरण करता हुआ पुण्यात्मा निर्वाणको प्राप्त कर लेता है।
वसनन्दिने एकादश प्रतिमाओंको आधार मान कर श्रावधर्मका प्रतिपादन किया है। इन्होंने कुन्दकुन्दके समान सल्लेखनाको चतुर्थ शिक्षाव्रत बतलाया है । श्रावकके आठ मूलगुणोंका उल्लेख भी नहीं किया गया है। सप्तब्यसनोंमें मांस और मध सेवन ये दो स्वतन्त्र विषय माने गये हैं और मद्य सेवनके अन्तर्गत मधुके परित्यागका भी स्पष्ट निर्देश किया है तथा दर्शनप्रतिमाधारी लिए ससध्यसगोले सापांच उदुम्बरफरतो. सागका भी स्पष्ट कथन आया है । वसुनन्दीने अपने इन विचारों द्वारा अष्टमूलगुणवाली परम्पराका भी समन्वय करनेकी चेष्टा की है। ___ वसुनन्दोके इस श्रावकाचारमें व्रतोंके अतिचारोंका कथन नहीं आया है । प्रतीत होता है कि इन्होंने आचार्य कुन्दकुन्दके 'चारित्रपाहुड'को शैलीका अनुसरण कर अतिचारोंका कथन नहीं किया है। स्वामिकात्तिकेयानूप्रेक्षा और देवसेनके भावसंग्रहमें भी अतिचारोंका कथन नहीं आया है। इस प्रकार वसुनन्दिने अपने उपासकाध्ययनमें अनेक नये तथ्योंका समावेश किया है।
प्रतिष्ठासारसंग्रह
इस ग्रन्थमें छः परिच्छेद हैं। प्रथम और द्वितीय परिच्छेदमें पंचांग शुद्धि और लग्न-शुद्धिका वर्णन आया है। लान-शुद्धिके साथ षड्वर्ग-शुद्धि, गोचरग्रह-शुद्धि आदि भी वर्णित हैं । तृतीय परिच्छेदमें भूमि-शुद्धि, भूमि-परीक्षा, दिग्देवता, वास्तु-पूजा, वास्तुपूजाके मन्त्र, दिशाओंके स्वामो आदि वर्णित हैं । प्रन्थकर्ताने इस परिच्छेदका नाम बास्तुविचार रखा है।
चतुर्थ परिच्छेदके प्रारम्भमें जिनबिम्बके बनानेको विधिका वर्णन करते हुए लिखा है
अथ बिबं जिनेंद्रस्य कर्तव्यं लक्षणान्वित्तम् | ऋज्वायतसुसंस्थानं तरुणांगं दिगंबरम् ।। श्रीवृक्षभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् ।
निजांगुलप्रमाणेन साष्टांगुलशतायुतम् ।। १. जैन सिद्धान्त भवम आराकी हस्तलिखित प्रतिल चतुर्थ परिच्छेद, पञ्च १-२ ।
-
प्रमुखाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २३१
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिमा करु, नाभि, कर्णं, जानु आदि विभिन्न अंगों के प्रमाणका विवेचन किया गया है। इस परिच्छेद में ८२ पद्य हैं और मूर्तिनिर्माणको विधिका पूर्णतया वर्णन किया गया है ।
पञ्चम परिच्छेद में प्रतिष्ठाकी वेदोका वर्णन है और क्षेत्रपाल एवं दिग्पाल के स्वरूपका चित्रण किया गया है । अनन्तर २४ तोर्थंकरोंके यक्षोंके वाहनोंका वर्णन आया है । पश्चात् २४ मन्त्रों द्वारा यक्षों की आहुतियां वर्णित हैं । षष्ठ परिच्छेद में मण्डप - विधि, वैदिक-निर्माण कणिका-निनादेवी बुद्धि विभिन्न मन्त्र आये हैं ।
षोडश विद्या- देवियों की स्थापनाके अनन्तर उनकी पूजाके मन्त्र दिये गये हैं। चतुर्विंशति जिन-मात्रिकाओं, ३२ इन्द्रोंके स्थापना - मन्त्र एवं पूजन-मन्त्र दिये गये हैं । द्वारपाल और दिक्पालको स्थापना विधि भी आयी है । मालास्थापना एवं विभिन्न द्रव्योंके स्थापना - मन्त्र भी अंकित किये गये हैं ।
सकलीकरणको विशिष्ट विधि दी गयी है तथा वेदीशुद्धि और वेदोप्रतिष्ठा के विभिन्न मन्त्र और विधियाँ अंकित हैं । ध्वजारोपण, कलश स्थापना आदिक विधि आयी है । अन्तमें निम्नलिखित प्रशस्ति अंकित है
"इति श्री वसुनन्दिद्धान्तिक विरचिते प्रतिष्ठासारसंग्रहे षष्ठपरिच्छेदः स्वस्ति श्री काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्य माम्नाये भट्टारक दिल्लीपट्टाधीशा श्री १०८ राजेन्द्रकीतिदेवाः तेषां शिष्यपण्डित परमानन्देन लिखितमिदम् ॥"
रामसेनाचार्य : व्यक्तित्व और कार्य
रामसेन नामके कई आचार्य भट्टारक और विद्वान् हुए हैं । उनमेंसे यहाँ तस्वानुशासन के कर्त्ता रामसेनाचार्यके व्यक्तित्व और कर्तृत्वपर विचार करना है । सत्वानुशासनके अन्त में प्रशस्ति दी गयी है जिसमें आचार्यने अपने विद्या गुरु और दीक्षागुरुका निर्देश किया है । प्रशस्ति निम्न प्रकार है
श्री वीरचन्द्र शुभदेव - महेन्द्र देवाः शास्त्राय यस्य गुरवो विजयामरश्च । दीक्षागुरुः पुनरजायत पुण्यमूर्तिः श्री नागसेन मुनिरुद्ध चरित्रकीर्तिः ॥ तेन प्रबुद्ध - धिषणेन गुरूपदेशमासाथ सिद्धि सुख- सम्पदुपायभूतम् ।
२३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वानुशासनमिदं जगतो हिताय
श्रीरामसेन-विदुषा व्यरचि स्फुटार्थम् ॥ अर्थात् वीरचन्द्र, शुभदेव, महेन्द्रधि और विजय विचागुरु हराया - मुर्ति एवं उच्चकोटिके चरित्र पारी कीर्तिमान नागसेन दीक्षागुरु हैं। प्रबद्धबद्धि रामसेन विद्वान्ने गुरुओंके उपदेशको प्राप्तकर इस सिद्धि-सूख-सम्पत्तिके उपायभूत तत्त्वानुशासनशास्त्रको जगत्-हितके लिए रचना की है। यह स्पष्ट अर्थसे युक्त है।
यहाँ यह विचारणीय है कि रामसेनाचार्यने जिस गुरुपरम्पराका उल्लेख किया है उसका समर्थन दूसरे प्रमाणोंसे कहाँ तक होता है। यशस्तिलकचम्पूकी रचना सोमदेवसूरिने शक संवत् ८८१ (वि० सं० १०१६)में की है। स नन्थके आठवें आश्वासके अन्तर्गत 'ध्यान-विधि' नामका एक कल्प आया है। इस कल्पका तत्त्वानुशासन पर कुछ भी प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। सोमदेवने नीतिवाक्यामतकी प्रशस्तिमें जिम महेन्द्रदेव भट्टारकका अपनेको अनुज लिखा है और उन्हें 'वादीन्द्रकालानल' बताया है वे उन महेन्द्रदेवसे भिन्न नहीं हैं, जिनका रामसेनने अपने शास्त्रमुरुओंके रूपमें उल्लेख किया है। अत: आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तारके इस अनुमानकी पुष्टि होती है कि रामसेनके शास्त्रगुरु नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें उल्लिखित महेन्द्रदेव भट्टारक हों। सोमदेवने अपनेको नेमिदेवका शिष्य लिखा है जो कि यशोदेवके शिष्य थे और उन्हें सकलताकिकोंका चुडामणिरूप महाबादी प्रकट किया है। इन भगवान् नेमिदेवके अनेक शिष्योंमें सोमदेव भी एक शिष्य थे। परभनीके ताम्र-शासनसे भी यह सिद्ध होता है।
नेमिदेवके शिष्योंमें जो १०० शिष्य सोमदेवके अमज थे उनमें महेन्द्रदेव प्रमुख विद्वान् तथा सोमदेवके विशेष सम्पर्क में रहनेवाले थे। इसी कारण सोमदेवने नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिमें उनका उल्लेख किया है।
के० के० हेडिकि, उपकुलपति गोहाटी विश्वविद्यालयने अपने 'यशस्तिलक एण्ड इण्डियन कल्चर' (Yasastilak and Indian Culture) नामक ग्रन्थ के परिशिष्ठ संख्या १ में सोमदेवके प्रतिहार राज्य कन्नौजके साथ प्रस्तावित सम्बन्ध विषयमें विचार करते हुए उसे ऐतिहासिक तथ्यके रूपमें स्वीकार नहीं किया है। सोमदेवने यशस्तिलकमें अपनेको देवसंधका बतलाया है और परभनोके १. तत्वानुशासन, वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट प्रकाशन, दिसम्बर सन् १९६३, पद्य २५६,
२५७, पृ. २१५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषनाचार्य : २३३
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताम्रशासनमें उनके दादागुरु यशोदेवको गोडसंघका लिखा है, जिससे कुछ . विद्वानोंने यह निष्कर्ष निकाला है कि सोमदेव गौड (बंगाल)से दक्षिण देशको जाते हुए मार्ग में कुछ समयके लिए कन्नौज ठहरे होंगे। उस समय वहाँके राजा महेन्द्रपाल प्रथमने, जिनका समय ई. सन् ८९३ से ९०७ है या अधिक सम्भाव्य महेन्द्रपाल द्वितीयने, जिनके समयका एक शिलालेख संवत् १००३का प्रतापगढ़से उपलब्ध हुआ है, उन्हें नोतिवाक्यामतको रचनाके लिए प्रेरित किया होगा, पर इस विचारका समर्थन किसी भी पृष्ट प्रमाणसे नहीं होता है। अतः महेन्द्रपालका सोमदेवके साथ सम्बन्ध नहीं है। यह तो महेन्द्रदेव आचार्य हैं, जिनकी प्रेरणासे 'नीतिवाक्यामृत' लिखा गया है | प्रशस्तिमें अंकित 'वादीन्द्रकालानल' विशेषण किसी राजाका नहीं हो सकता है, बल्कि किसी आचार्यका हो सम्भव है । अतएव रामसेनके विद्यागुरु महेन्द्रदेव नेमिदेवके शिष्य और सोमदेवके बड़े गुरुभाई थे । रामसेनके चतुर्थ शास्त्रगुरु विजयदेव हैं । ये विजयदेव सम्भवतः भगवतो आराधनापर विजयोदया टोका लिखनेवाले विजयदेव हैं, जिनका दूसरा नाम अपराजितसूरि था। डॉ. ए. एन० उपाध्येने अपने बहतकथाकोशको प्रस्ताव में अपर सरि मायक' सितारसे विचार किया है । एक विजयका उल्लेख शक संवत् ९९९ में उत्कीर्ण नगर ताल्लुकके ६५ संख्यक अभिलेखमें आया है। इसमें वादिराजके उत्तरवर्ती
l. "It has recently been suggested by some scholars that
Somadeva may have passed some time at Kanouj : and during his rojourn there, he was encouraged to compose his 'Nitivakyamrita' by Mahendra-Pala I (Circa 899-907 A. D.), or more probably, by Mahendrapala II, who is known to have reigned about the middle of the tenth century A. D The Partabgarh Inscription of the time of Mahendrapala II of Kanoujis, lor instance, dated Samvat 1003 = 9:16 A. D. (Ep. Ind. Vol. XIV, pp. 176-189), But thc Supposed connection of Somadeva with the Pratihara cocurt of Kancuj can hardly be accepted as a historical fact, an, unlike his association with the Deccon, it is mentioned neither in the colophona to hit works nor in the Parbhani inscription.' Yayastilak and Indian culture, By K K. Handiqui, Jivaraja Jain Granthamala No. 2,Appendix I. Page 464.
२३४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
कमलभद्राचार्यको एक दान दिया गया है । इसमें पूर्ववर्ती गुरुओंका उल्लेख करते हुए वादिराजमूरिके अनन्तर दो पद्य श्रीविजयकी प्रशंसामें लिखे गये हैं, जिनमें एक पद्य वही है जो वादिराज द्वारा उनकी प्रशंसामें कहा गया है। वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथचरितमें श्रीविजयकी प्रशंसा की है। वादिराजमूरि कारः शंसित विजय ही पदि अपराजितसूर होते तो उनकी विजयोदया टीकामै जिनसेनके महापुराण और अमृतचन्द्राचार्यके ग्रन्थोंका प्रभाव अवश्य रहता, पर ऐसा नहीं है।
एक विजय 'जम्बूदीवपण्णत्ती'के कर्ता पद्यनन्दिके शास्त्रगुरु हैं, जिनके सम्बन्धमें उन्होंने लिखा है-वे नाना नरपतियोंसे पूजित, विगतभय, संघभंगउन्मुक्त, सम्यकदर्शनशुद्ध, सातपशीलसम्पूर्ण, जिनवरवचनविनिर्गत परमागमदेशक, महासत्त्व, श्रीनिलय गुणांसे युक्त और विशेष ख्यातिप्राप्त गरु थे। उनसे आगमको सुनकर तथा प्राप्तकर इस ग्रन्थको रचना की है। इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि जंबूदीवपणास्तीके निर्माणके समय अथवा इसके पूर्व श्रीविजय विद्यमान थे। अतएव यह सम्भव है कि ये ही विजयमुनि रामसेनके शास्त्रगुरु हों।
सेनगणकी पट्टावली में भी रामसेनके साथ विजयका उल्लेख मिलता है। इस पट्टावलीमें एक नागसेनका नाम आया है। बहुत सम्भव है कि ये नागसेन ही रामसेनके दीक्षागुरु हैं ! पट्टावलीमें बताया है
श्रीनेमिसेनाः खलु तत्र पट्टे श्रीरामसेनाः खलु तार्किकाद्याः । श्रीवज्रसेनश्च वसन्ससेनो विनीतसेनो विनयेषु धीमान् ।।
श्रीमन्नागरसेनस्तु विजयश्च मुनीश्वरः । तपस्सु द्वादशाङ्गेषु रतो जिनपरायणः ॥
श्रीरामभद्रो मुनिनागसेनो महेन्द्रसेनो मुनिभद्रनामा।
श्रोजेनमार्गाब्धिविवर्धनाय राकापतित्वं समुपागतास्ते ॥ इस पड़ावलीमें नेमिसेनके पट्टपर रामसेनके आसीन होनेका उल्लेख आया है। इसमें विजय, महेन्द्र और नागसेनके भी उल्लेख हैं। अतएव रामसेनको सेनगणका आचार्य होना चाहिए और इनके दीक्षागुरु नागसेन भी इसी गणके हैं। १. जम्बूदीवपण्णत्ती, सोलापुर संस्करण, १३३१४३-१४५ । २. The Jaina Antiquary Vol. XIHI, N-2, Arrah, Sengana
Pattavali पद्य २३, २४, ३० ।
पयुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २३५
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जुगलकिशोर मुख्तारने काष्ठासंघनन्दितटगच्छकी गुर्वावली उल्लिखितकी है। इस गुर्वावली में निम्नलिखित आठ आचार्यों का निर्देश आया है - १. अर्हद्वल्लभसूरि २ पंचगुरु, ३. गंगसेन, ४. नागसेन, ५. सिद्धान्तसेन, ६. गोपनीय और ८. राम । इस गुर्वावलोके आधार पर रामसेन और नागसेनको काष्ठासंचके नन्दितदगच्छ और विद्यागणका आचार्य बताया है ।
चन्द्रकीर्तिने पार्श्वपुराणको प्रशस्ति में रामसेनको विद्यागणका अधीश्वर, सूरिविद्यामनवध, स्याद्वादविद्याका निवास, विशदवृत्त और कीर्तिमान प्रकट किया है। भट्टारक श्रीभूषणने पाण्डवपुराण में भी रामसेनका उल्लेख किया है । अतएव इन समस्त उल्लेखोंके आधारपर यही कहा जा सकता है कि तत्त्वानुशासनके रचयिता मुनि रामसेन सेनगणके आचार्य है ।
स्थिति-काल
नागसेनके नाम और समयपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि इस नामके कई आचार्य हुए हैं। प्रथम वे नागसेन हैं, जो दशपूर्वके पाठी थे और जिनका समय वि० सं० से २५० वर्ष पूर्व है । दूसरे नागसेन वे हैं, जो ॠषभसेन गुरुके शिष्य थे और जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं० १४ में आया है । इनका समय वि० सं० ७५७ है। तीसरे नागसेन के हैं जो चामुण्डराय के साक्षात् गुरु और भजिससेनके प्रगुरु थे और जिनका चामुण्डरायपुराण में आचार्य कुमारसेनके बाद उल्लेख भाया है । इस पुराणका रचनाकाल वि० सं० १०३५ है । चतुर्थ नागसेन वे हैं जिन्हें रानी अमकादेवीने 'गोणद वेर्डागि' जिनालय के लिए ई० सन् १०४७ में भूमिदान किया था और जो मूलसंघ सेनगण और पोगरिगच्छ के आचार्य थे'। पंचम नागसेन नन्दितटगच्छको गुर्वावली के अनुसार गंगसेन के उत्तरवर्ती तथा सिद्धान्तसेन और गोपसेनके पूर्ववर्ती हुए हैं। इनका समय दशवीं शताब्दीका मध्यकाल है । अतएव नागसेनके समय के आधारपर रामसेनका समय भी निर्णीत किया जा सकता है | हमारा अनुमान है कि मूलसंघ सेनगण और मोगरिगच्छ के विद्वान् आचार्य नागसेन हो रामसेनाचार्य के गुरु हैं । अतएव रामसेनका समय ई० सन् १०४७ के आसपास होना चाहिए।
श्री नाचार्य जुगलकिशोरजी मुख्तारने तत्त्वानुशासनकी प्रस्तावना में रामसेन समयकी पूर्व सीमा वि० सं० ९०० निर्धारित की है । वि० की १३वीं १. Jainism in South india, Page 106
२३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य- परम्परा
:
·
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
शसीके विद्वान् पं० आशाधरजीने इष्टोपदेश आदि टोकाओंमें सत्त्वानुशासनके कितने हीपद्योंको ग्रन्यके नामसहित उद्धृत किया है । किसी-किसी टीकामें उद्धृप्त पद्योंके साथ रामसेनाचार्यका नाम भी दिया है। जिनयज्ञकल्पको प्रशस्ति में इष्टोपदेशकी टोकाके रचनेका उल्लेख आया है और जिनयज्ञकल्पका रचनाकाल वि० सं० १२८५ है। अतएव रामसेनके समयकी उत्तर सीमा वि० सं० १२८५ के पूर्व है।
उत्तरपुराणका एक पद्य तत्त्वातुशासनके पद्यसे बहुत साम्य रखता है। अतः यह स्पष्ट है कि रामसेनने उत्तरपुराणके पद्यका अनुसरण किया है। गुणभद्राचार्य द्वारा विरचित आत्मानुशासनके कतिपय पद्योंका प्रभाव भी तत्त्वानुशासनपर है। यथादेहज्योतिषि यस्य शक्रसहिताः सर्वेऽपि मग्नाः सुरा
ज्ञानज्योतिषि पञ्चतत्त्वसहितं लग्नं नभश्चाखिलम् । लक्ष्मीधामदधद्विधूतचिसतध्वान्तः स घामद्वयं
पन्थानं कथयत्वनन्तगुणगुणभृत्कुन्युभवान्तस्य वः ॥ अर्थात्, जिनके शरीरको कान्तिमें इन्द्रसहित समस्त देव निमग्न हो गये, जिनकी शानरूप ज्योतिमें पञ्चद्रव्यसहित समस्त आकाश समा गया, जो लक्ष्मीके स्थान हैं, जिन्होंने फैला हुआ अज्ञान अन्धकार नष्ट कर दिया, जो आभ्यन्तर और बाह्यके भेदसे दोनों प्रकारके तेजको धारण करते हैं और जो अनन्त गुणोंके धारक हैं, ऐसे कुन्थुनाथ भगवान् सभीके लिए मोक्षमार्ग प्रदर्शित करें। __इसी आशयको लेकर आचार्य रामसेनने भी पद्य रचा है, जो भावकी दृष्टिसे थोड़ा-सा भिन्न होनेपर भी गुणभद्रका अनुकरण है । यथा
देहज्योतिषि यस्य मज्जति जगदुग्वाम्बुराशाविव शान-ज्योतिषि च स्फुटत्यतितरामों भूर्भुवःस्वस्त्रयी। शब्द-ज्योतिषि यस्य दर्पण इव स्वार्थाश्चकासन्त्यमी
सश्रीमानमराचितो जिनपतिज्योतिस्त्रयायाऽस्तु न: ॥ इससे स्पष्ट है कि रामसेनाचार्य गुणभवफे उत्तरकालीन हैं। गुणभद्रका उत्तरपुराण शक संवत् ८१५, वि० संवत् ९५०में पूर्ण हुवा है । अतएव रामसेनके समयकी पूर्वसीमा ९५० तक पहुंच जाती है। १. उसरपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, ६४४५५ । २. तस्वानुशासन, वीरसेवामविर, चलोक २५९ ।
प्रमुवाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २३७
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चास्तिकाय गाथा १४६ की तात्पर्यवृत्तिमै जयसेनाचार्यने 'तथा चोक्तं तत्त्वानुशासनध्यानग्रन्थे' इस वाक्य के साथ तत्त्वानुशासनका ८६वां पद्य उद्धृत किया है। जयसेनाचार्यका समय ई० सन् को १२वीं शताब्दो है । परमात्मप्रकाशके द्वितीय अधिकारके ३६ पद्यकी टीकामें ब्रह्मदेवने तथा 'तथा चोक्तं तत्त्वानुशासने ध्यान ग्रन्थे' इस वाक्यके साथ तत्त्वानुशासनका ८४ संख्यक पद्य उद्धृत किया है। इसी प्रकार द्रव्यसंग्रहकी ५७वीं गाथाकी टीकामें ब्रह्मदेवने इस ग्रंथकी ८३ संख्यक गाथा उद्धृत की है। इससे स्पष्ट है कि रामसेनाचार्य ब्रह्मदेव और जयसेनके पूर्ववर्ती हैं। तत्त्वानुशासनके पद्योंकी समता हेमचन्द्राचायंके योगशास्त्रके पद्योंमें भी प्राप्त होती है। तुलनासे ऐसा ज्ञात होता है कि हेमचन्द्रने तत्त्वानुशासनका अनुसरण किया है।
देवसेनकी आलापपद्धतिके पर्यायाधिकारमें तत्त्वानुशासनका ११२ संख्यक पद्य अंग बन गया है। ब्रह्मदेवका समय भोजका राज्यकाल है । भोजनेवि० सं० १०७५-११०७ तक शासन किया है। अतएव ब्रह्मदेवका रामय ई० सन् की ११ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध या १२वीं शताब्दीका पूर्वार्ध है। इन सब ग्रंथोंके उद्धरणों और प्रमाणोंसे यह स्पष्ट है कि रामसेनका समय ई० सन्की ११वीं शताब्दीका उत्तरार्ध है । इस समयकी सिद्धि उनके गुरुनागसेनके समयसे भी हो जाती है। रचना-परिचय
'तत्त्वानुशासन' नामक ग्रंथ उपलब्ध है। इस ग्रंथमें २५९ पद्य हैं। इस ग्रंथका प्रकाशन माणिकचन्द्र ग्रंथमालाके ग्रंथांक १३में किया गया है। इस प्रकाशनमें इस ग्रंथके रचयिता नागसेन बतलाये हैं, पर आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने इस ग्रन्थका संशोधित संस्करण प्रकाशित किया है, जिसमें इसके रचयिता रामसेनाचार्य सिद्ध किये हैं । यह ग्रन्थ अध्यात्मविषयक है और स्वानुभतिसे अनुप्राणित है। मंगलाचरण, ग्रन्थनिर्माणप्रतिक्रिया, वास्तव सर्वज्ञके अस्तित्व और लक्षण निर्देशके अनन्तर सर्वज्ञके कथनानुसार दुःखके कारण बन्ध और उसके हेतुओंको हेयतत्त्व तथा सुखके कारण मोक्ष और उसके हेतुओंको उपादेयतत्त्व बतलाकर बन्धके स्वरूपका निर्देश किया गया है। बन्धके चार भेद बतलाये हैं-१. प्रकृतिबन्ध, २. स्थितिबन्ध, ३. अनुभागबन्ध और ४. प्रदेशबन्ध । बन्धका कार्य ही संसार-परिभ्रमण है । बन्धके मुख्य सीन हेतु हैं-१. मिथ्यादर्शन, २. मिथ्याज्ञान और ३. मिथ्याचारित्र । इनके लक्षण प्रतिपादित करनेके अनन्तर मिथ्यादर्शनरूप मोहको चक्रवर्ती राजा, मिथ्याज्ञानको मोहका मन्त्री और अहंकार, ममकारको मोहके पुत्र बताया २३८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। इस प्रकार मोहकी सेना और परिवारका कथन किया है। ममकार और अहंकारसे रागद्वेषकी, रागद्वेषसे क्रोधादि कषायों तथा हास्यादि नव कषरयोंकी उत्पत्ति होकर किस प्रकार क्रोके बन्धनादिरूप संसारचक्र चलता है और यह जीव उसके चक्करमें पड़ सदाभ्रमता ही रहता है, कथन कर भव्यात्माको हितकर उपदेश दिया है। "हे आत्मन् ! तू इस दृष्टिविकाररूप मोहको,
और ममकार तथा अहंकारको अपना शत्रु समझ, इनके विनाशका प्रयास कर । इन मुख्य हेतुओं का क्रमशः नाश हो जाने पर शेष रागद्वेषादि बन्धहेतूओंका भी विनास हो जाता है, और संगरपरिभ्रमण हट जाता है । बन्धके हेतुओंका नाश तभी सम्भव है, जब मोक्षके हेतुओंको अपनाया जाय, क्योंकि दोनों शीत तथा उष्ण स्पर्शके समान एक दूसरेके विरुद्ध हैं । लिखा है---
बन्धहेतु-विनाशस्तु मोक्षहेतु-परिंगहात् ।
परस्पर - विरुद्धत्वाच्छीतोष्ण-स्पर्शवत्तयोः ।।' मोक्षहेतु या मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप त्रितयात्मक है, निर्जरा और संवररूप परिणमता हुआ मोक्षफल प्रदान करता है।
इसके अनन्तर ध्यानका मुख्य विषय आया है। ध्यानके चार भेद हैंआतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल । प्रथम + दुर्ध्यान हैं, जो मुमुक्षुओंके लिए त्याज्य हैं और शेष दो सद्ध्यान है एवं बन्धनसे मुक्ति प्राप्त करनेवालों के लिए उपादेय है। अतीतकालमे जिन महानुभावोंने शुक्लध्यानको धारण किया है, उनके निर्देशानुसार, बच्चसंहनन, पूर्ववृतज्ञता और उपशम तथा क्षपकधणी चढ़नेकी सामग्री अपेक्षित है । धर्मध्यानके इच्छुक योगीको ध्याता, ध्येय, ध्यान, ध्यानफल, ध्यानस्वामी, ध्यानक्षेत्र, ध्यानकाल और ध्यानावस्था इन आठका स्वरूप अवगत करना चाहिये । संक्षेपमें इन्द्रियों तथा मनका निग्रह करनेवाला व्याता, यथाअवस्थित वस्तु ध्येय, एकाग्रचिन्तन ध्यान, निर्जरा तथा संवर ध्यानके फल, जिस देश, काल तथा अवस्था में ध्यानकी निर्विघ्न सिद्धि हो, वह क्षेत्र, काल तथा अवस्था है।
ध्यानके स्वामी अप्रमत्त, प्रमत्त, देशसंयत, सम्यग्दष्टि इन चार गुणस्थानवी जीवोंको बताया है । सामग्रीके भेदसे ध्याताओं और उनके ध्यानोंको तीन-तीन भेदोंमें विभक्त किया गया है-उत्तम, मध्यम और जघन्य । उत्तम सामग्नीके योगसे ध्यातामें उत्तम व्यान, मध्यम सामग्रीके योगसे मध्यम ध्यान १. तस्वानुशासन, फ्लोक २३ ।।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २३९
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
एवं जघन्य सामग्रीके योगसे जघन्य ध्यान होता है। इसके पश्चात् धर्मके लक्षणादिभेदसे धर्मध्यानको प्ररूपणा की गयी है। सर्वप्रथम सम्यगदर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रयरूपको लिया गया है । द्वितीय परिभाषाके अनुसार मोह-क्षोभसे बिहीन आत्माके परिणामको धर्म कहा गया है। तृतीय परिभाषाके अनुसार वस्तुके स्वरूप, स्वभाव अथवा याथात्म्यको धर्म कहा है। चतुर्थ परिभाषाके अनुसार उत्तम क्षमादि दानरूप दशलक्षणधर्मका उल्लेख आया है।
परिस्पन्दहित एकाग्र चिन्तानिरोधको ध्यान कहा है और उस ध्यानको संचित कर्मोंकी निर्जरा तथा नये कर्मोके आश्रयद्वारको रोकने रूप संवरका हेतु निर्दिष्ट कर निर्जरा तथा संबर दोनोंको ध्यानके फल सूचित किया है। तदनन्तर ध्यानके लक्षण में प्रयुक्त हए एकाग्रचिन्ता और निरोध शब्दोंके वाच्यार्थको ग्रहण किया है। वस्तुतः यह ध्यान विशुद्धबुद्धिधारक योगीके होता है। जो श्रुतज्ञान उदासीन राम-द्वेषसे रहित, उपेक्षामय यथार्थ और अति निश्चल होता है, वह ध्यानको कोटिमें आ जाता है । उसे स्वर्ग तथा मोक्षफलका दाता भी बतलाया है। __इसके पश्चात् ध्यानकी नितिका निरूपण करते हुए उसकी उत्पत्तिमं सहायभत सामग्रीका निर्देश किया है और वह है परिग्रहोंका त्याग, कषायोंका निग्रह, बतोंका धारण और इंद्रियों तथा मनका जीतना । इन्द्रियोंको उन्मार्गी घोड़ोंकी उपमा दो है और बताया है कि जितेन्द्रिय मानव ही ज्ञान तथा वैराग्य रूपी दो रस्सियोंके द्वारा उन्मार्गगामी घोड़ोंको वश करता है। इसी सन्दर्भ में द्वादश अनुप्रेक्षाओं. पञ्चनमस्कार मन्त्रका प्रभाव एवं जप, ध्यान आदिका फल बतलाया है । गुरुउपदेशपूर्वक ध्यान करनेवाला व्यक्ति सभी प्रकारको सिद्धियोंको इस प्रकार प्राप्त कर लेता है। ध्यानके इच्छुक व्यक्तिके लिए, ध्यानके योग्य, देश, काल, आसन, अवस्था, प्रक्रिया और दूसरी साधनसामग्रीका भी समावेश किया है। ___ तदनन्तर निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोंको दृष्टिसे ध्यानके आगमानुसार दो भेद बतलाये हैं जिनमें निश्चयध्यान स्वरूपावलम्बनरूप और व्यवहारध्यान परावलम्बनरूप होता है। निश्चयनयाश्रित स्वरूपावलम्बी ध्यानको 'अभिन' ध्यान और व्यवहारनयाश्रित परावलम्बी ध्यानको 'भिन्न ध्यान कहा है । भिन्नध्यानमें जिसका अभ्यास परिपक्व हो जाता है, वहो निराकुलतापूर्वक अभिन्नध्यानमें प्रवृत्त होता है।
अनन्तर इस ग्रन्थमें योगके आठ अंगोंमेंसे ध्येय अंगका विषय विशेष रूपसे प्रारम्भ होता है । आशाविचय, अपायविधय, विपाकविचय और संस्थानविचय २४० : तीर्थकर महावीर और सनकी आचार्य-परम्परा
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
|
|
इन चारोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। ध्येयके दूसरे चार प्रकार - नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे बतलाये गये हैं । आत्मज्ञानी इन चारोंको अथवा इन चारोंमेंसे किसी एकको अपनी इच्छानुसार ध्यानका विषय बना सकता है । वाच्यके वाचकको नाम, प्रतिमाको स्थापना, गुणपर्यायचानुको द्रव्य और गुण तथा पर्याय दोनोंको भावध्येय बतलाया है । यहाँ ध्यान करने के लिए कई मन्त्रोंका भी कथन आया है । स्थापनाध्येय, द्रव्यध्येय और भावध्येयका निरूपण भी विस्तारपूर्वक किया गया है। द्रव्यके जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये मूल छन् भेद बतलाये है। इस ग्रन्थ में जीव के स्थानपर पुरुष शब्दका प्रयोग आया है ।
भावध्येयका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि जिस समय ध्याता ध्यानके बलसे शरीरको शून्य बनाकर ध्येयस्वरूपमें आविष्ट हो जानेसे अपनेको तत्सदृश बना लेता है उस समय उस प्रकारकी ध्यानसंवित्तिसे भेदविकल्पको नष्ट करता हुआ वही परमात्मा गरुड़ अथवा कामदेव हो जाता है । व्येय मोर ध्याता दोनों का जो यह एकीकरण है, उसीको समरसोभाव कहते हैं । जो ध्याता बाह्य पदार्थों में समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैषम्य, प्रशम और शान्त जैसे शब्दोंके द्वारा अपने माध्यस्थ्यभावको वृद्धिगत करता है, वह भी वास्तविक ध्येयको प्राप्त कर लेता है |
व्यवहारध्यान परावलम्बनरून है। इसमें
दादि पंचपरमेष्ठियोंके स्वरूपका ध्यान किये जानेका कथन आया है । स्वावलम्बी ध्यान इच्छुक 'स्व' और 'पर' को यथावस्थित रूपमें जानकर तथा श्रद्धानकर 'पर'को निरर्थक समझते हुए त्याग करता है और 'स्व' के जानने-देखने में प्रवृत होता है, वह संस्कारित आत्मामें तल्लीनताको प्राप्त होता है । श्रीतो भावनाका वर्णन श्लोक १४७ - १५२ तक किया गया है। इसमें 'स्व' और 'पर'को भित्र प्रतीति का कथन आया है
अन्यच्छरीरमन्योऽहं चिदहं तदचेतनम् | अनेकमेतदेकोऽहं क्षयोदमहमक्षयः ।।
अचेतनं भवेन्नाऽहं नाऽहमप्यस्म्यचेत्तनम् । ज्ञानात्माऽहं न मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित्' |
अर्थात् - शरीर अन्य है, में अन्य हूँ, क्योंकि में चेतन हूँ, शरीर अचेतन है, यह शरीर अनेकरूप है, में एकरूप हूँ, यह क्षयी - नाशवान् है, में अक्षय अविनाशी हूँ ।
१. तत्त्वानुशासन पद्य १४९-१५० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २४९
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
अचेतन कभी आत्मा नहीं होता, न आत्मा कभी अचेतन । मैं ज्ञानस्वरूप हैं, मेरा कोई नहीं है और न में किसी दूसरेका हूँ।
इस संसारमें मेरा शरीरके साथ जो स्व-स्वामी सम्बन्ध हआ है. शरीर मेरा स्व और में उसका स्वामी बना हूँ तथा दोनोंमें जो एकत्यका भ्रम है, वह सब भी परके निमित्तसे है, स्वरूपसे नहीं।
इस प्रकार श्रीती भावनाका विश्लेषण किया गया है। अनन्तर मुक्तिके लिए नैरात्म्याद्वैतदर्शनकी उत्तिका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि अन्यके प्रतिभाससे रहितको आत्माका सम्यक् अवलोकन है, वही नैरात्म्याद्वैतदर्शन है। अन्यात्मरूपके अभावका नाम नैरात्म्य है और वह स्वात्माको सत्ताको लिए हुए होता है । अतः एकमात्र स्वात्मके दर्शनका नाम ही सम्यक् नैरात्म्यदर्शन है | आत्माको अन्यसे संयुक्त देखना द्वैत है और विभक्त देखना अद्वैत है । इस नेरात्म्याद तदर्शनको धर्म और शुक्ल इन दोनों ही ध्यानोंका ध्येय कहा है। इस प्रकार विस्तारपूर्वक द्वेत, अद्धत एवं आलम्बनरूप वस्तुका कपन आया है। ___इसके पश्चात् ध्यान द्वारा कार्य-सिद्धिके व्यापक सिद्धान्तका कथन आया है । जो जिस कर्मका स्वामी अथवा जिस कर्मके करने में समर्थ है, उसके घ्यानसे व्यासचित्त हा ध्याता उस देवत्तारूप होकर अपने वांछित कार्यको सिद्ध करता है। इसके बाद वैसे देवतामय कुछ ध्यानों और उनके फलोंका निर्देश किया गया है, जिसमें पार्श्वनाथ, इन्द्र, गरुड, कामदेव, वैश्वानर, अमृत और क्षीरोदधिरूप ध्यानों तथा उनके फलोंका विशेषरूपसे उल्लेख आया है ।
तदनन्तर ध्यानका अनुष्ठान करनेवालोंके लिए आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन, विद्रावण, निर्विषीकरण, शान्तिकरण, विद्वेषण, उच्चाटन, निगह आदि दष्टिगोचर होते हैं। ध्यानके परिवारका कथन करते हुए पूरण, कुम्भन, रेचन, दहन, प्लवन, सकलोकरण, मुद्रा, मंत्र, मंडल, धारणा, कर्मके अधिष्ठातादेवोंका संस्थान-लिंग-आसन-प्रमाण-वाहन-चीर्य-जाति-नाम-ज्योतिदिशा-मुखसंख्या-नेत्रसंख्या-भुजसंख्या-क्रूरभाव शान्तभाव-वर्ण-स्पर्श अवस्था, वस्त्र-श्राभूषण-आयुध आदि ध्यानके परिकर बतलाये गये हैं।
तत्पश्चात् लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकारको फलसिद्धियोंका कथन आया है। ध्यानको सिद्धिका मुख्य हेतु गुरु उपदेश, श्रद्धान, निरन्तर अम्बास और स्थिरमन बतलाये हैं। साथ ही यह निर्देश किया है कि लौकिक फल चाहनेवालोंके जो ध्यान होता है, वह या तो माप्तध्यान है अथवा रौद्र । मुमुक्षु इन दोनों ध्यानोंका त्यागकर धर्मध्यान और शुक्लध्यानकी उपासना करते
२४२ : तीथंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं। इन्द्रियविषयोंके सुखको ग्राह्य मानना सर्गया अनुचित है। मास्मिक और इन्द्रिय सुखकी तुलना करते हुए लिखा है
यदत्र चक्रिणां सौख्यं यच्च स्वर्गे दिवौकसाम् । कलयापि न तत्तुल्यं सुखस्य परमात्मनाम् ।।
–तत्वानुशासन २४६ इस प्रकार इस ग्रन्थमें विस्तारपूर्वक ध्यानका वर्णन आया है।
आचार्य गणधरकीर्ति आचार्य गणधरकीत्ति अध्यात्मविषयके विद्वान हैं। ये दर्शन व्याकरण और साहित्यके पारंगत विद्वान थे । गद्य और पद्य लिखनेकी क्षमता इनमें विद्यमान थी। अध्यात्मतरंगिणीके टीकाकारके रूपमें मणधरकोतिको ख्याति है। ये गुजगत प्रदेशकं निवासी थे । इन्होन अपना यह टाका सोमदेव नामके किसी व्यक्तिके अनुरोत्रसे रची है | गणधरकोतिने अध्यात्मतरंगिणो-टीकाको प्रशस्तिमें अपनी गुरुपरम्परा निबद्ध को है। साथ ही गुजरातकी प्रशंसा भी की है
स्फूर्जद्बोधगणेभवधत्तिपति चयम: संयमी, जजे जन्मवतो सुपोतममलं यो जन्मयादो विभोः । जन्यो यो विजयो मनोजनपतेजिष्णोर्जगज्जन्मिनाम,
श्रीमत्सागरनंदिनामविदितः सिद्धान्तवाविधुः ॥ स्थाद्वादसात्मकतपोवनिताललामो भव्यातिसस्यपरिवर्द्धननीरदामः । कामोरुभूरुविकर्तनसंकुठारस्तस्माद्विलोभहननोऽजनि स्वर्णनन्दो ।
तस्माद् गौतममार्गगो गुणगणे गम्यो गुणियामणीगीतार्थो गुरुसंगनागगरुहो गोर्वाणगीर्गोचरः । गुसिग्रामसमग्रतापरिगत: प्रोग्रग्रहोद्गारको, ग्रन्थग्रंथिविभेदको गुरुगमः श्रीपद्मनन्दी मुनिः ।। आचार्योचित्तचातुरोचयचितश्चारित्रचञ्चुः शुचिश्चावसिंचयचित्रचित्ररचनासंचेतनेनोच्चकैः । चित्तानन्दचमत्कृतिप्रविचरन्प्रांचत्प्रचेतोमतां,
प्रभूच्चारुविचारणेकनिपुणः श्रीपुष्पदन्तस्ततः ॥ समभवदिह चातश्चन्द्रवत्कायकान्तिस्तदनुविहितबोधो भव्यसत्केरवाणास् । मुनिकुवलययचन्द्रः कौशिकानन्दकारी, निहिततिमिरराशिश्चारुचारित्ररोचिः।। १. अध्यात्मतरंगिणी टोका, अन्तिम प्रशस्ति, पञ्च ८-१२ ।
प्रसाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २४३
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इनकी गुरु-परम्परामें सागरनन्दि, स्वर्णनन्दि, पानन्दि, पुष्पदन्त, कुवलयचन्द्र और गणधरकीर्तिके नाम आये हैं।
आचार्य सोमदेवने अध्यात्मतरंगिणी ग्रन्थकी रचना की है। इसी ग्रन्थपर गणधरकीतिने टीका लिखी है। सोमदेवका समय वि० सं० १०१६ है। अत: यह टीका उसके बाद ही लिखी गयी होगी। टीका गुजरातके चालुक्यवंशी राजा जयसिंह या सिद्धराज जयसिंह राज्यकालमें समाप्त की गयी है। टीकाके लिखे जानेका समय भी अंकित है
संवत्सरे शुभे योगे पुष्य नक्षत्रसंज्ञके । चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रवौ दिने | सिद्धा सिद्धिप्रदा टीका गणभत्कोतिविपश्चितः । निस्त्रिांशतजितारातिविजयश्रीविराजनि।
जयसिंहदेवसौराज्ये सज्जनानन्ददायिनि ।।' अर्थात् वि० सं० ११८९ चैत्र शुक्ला मंचमी, रविवार पुष्य नक्षत्रमें इस टीकाकी रचना की गयी है। रचना-परिचय
श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने इसकी दो पाण्डुलिपियोंको चर्चा की है। एक पाण्डुलिपि ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वतो भवन झालरापाटनमें है। यह प्रति संवत् १५३३ आश्विन शुक्ला द्वितीयाके दिन 'हिसार' में लिखी गयी है। यह प्रति सुनामपुरके वासी खडेलवालवंशी संघाधिपति श्रावक कल्हके चार पुत्रोंमेंसे प्रथम पुत्र धोराकी पत्नो धनश्रीके द्वारा अपने सानावरणीय कर्मके क्षयार्थ लिखाकर तात्कालिक भट्टारक जिनचन्द्रके शिष्य पण्डित मेधा. गीको प्रदान की गयी है । दूसरी प्रति पाटनके स्वताम्बरी शास्त्रभण्डारमें है । ___ गणधरकोतिने अपनी इस टीकामें पद्यगत वाक्यों एवं शब्दोंके अर्थके साथसाथ कहीं-कहीं उसके विषयको भी स्पष्ट किया है। विषय स्पष्टीकरणमें कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द, जिनसेन आदि आचार्योंके ग्रन्थोंका अनुसरण एवं उल्लेख किया गया है । विषय स्पष्टीकरणकी दृष्टिसे यह टीका महत्त्वपूर्ण है । टोकाका गद्य प्राढ़, समस्यन्त और सानुप्रास है। भाषा और साहित्यकी दृष्टि से भी टोका कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । यथा--
"निखिलसुरासुरसेवावसरमायातसुरसम्बोधनावधारितधर्मावसरण[f] अमरोरगनरेन्द्र श्रीकल्पानोकहारामोल्लासामृताम्भोवरायमाण[f] महापरम१. अध्यात्मप्तरंगिणी टोका, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य १७-१९ । २४४ : तीकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचकल्याणकोकनदकाननोत्पत्तिसागरं]भवाम्भोधिसमुत्तरणैकसेतुबन्धं सम्यक्त्वरत्नं गोणिगणा[न]नुग्राह्यता, अष्टादशसागरोपमकोटीकोटी धा यावन्नष्टत्वा
यादमत्यामादिस्वभावस्य धर्मस्य भरते धर्मकर्माणि प्रवर्तयन् ति] भगवानिति जाताकूतपरिपाकेत समाधि[
विनिष्यदासन्नमृत्युं वैराग्ययोग्या गा] यनीलयसां प्रहितां गोणेिश्वरेण, तां च शृङ्गारादिरसाभिनयदक्षां हाव-भावविभ्रमविलासवती शान्तरसानन्तरसेव नश्वरस्वभावां विभात्यात्मनोऽनश्वरस्वभावतां चिकीर्षुरादिदेव इत्यं योगमुद्रामुन्मुद्रितवानित्याह' ।"
__ आचार्य भट्टवोसरि आचार्य भट्टयोसरि ज्योतिष और निमित्तशास्त्रके आचार्य हैं । ये दिगम्बराचार्य दामनन्दिके शिष्य थे । इन्होंने स्वयं लिखा है--
जं दामनंदिगरुणोऽमणयं आयाण जाणि (य) मुज्झं ।
तं आयणाणतिलए बोसरिणा भन्नए पय ॥ __ "श्रीमहामनन्दिगुरुसकाशात् यत् मया वोसरिणो आया-आयानां मनाक् गुह्यं परिज्ञातमस्ति तदेतस्मिन् स्वयं विरच्यमानायज्ञानतिलकाभिधानशास्त्रे नतनतं दुस्तरसंसारसागरोतीर्ण सर्वज्ञं वीरजिनं सिद्धं संधं पुलिदिनी च नत्वा प्रकट भव्यत्त इति समुदायार्थ:31" । ___ स्पष्ट है कि भट्टवोसरिने गुरु दामनन्दिके पाससे आयोंका रहस्य प्राप्तकर आय-विषयक सम्पूर्ण शास्त्रोंके साररूपमें यह ग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थपर स्वयं अन्धकारकी रची हुई संस्कृतटीका भी है । टीका अथवा मूलग्रन्थमें रचयिताने रचनासमयका निर्देश नहीं किया है । ग्रन्थके सन्धि-वाक्योंमें निम्न प्रकार पुरिएका प्राप्त होती है -. ___इति दिगम्बराचार्य-पंडितश्रीदामनन्दि -शिष्यभट्टवोसरिविरचिते सायश्रीटीकायज्ञानतिलके आयस्वरूपप्रकरणं प्रथमम् ।' ___ प्रत्येक सन्धि-वाक्य के पूर्व एक संस्कृत-पद्य आता है । इन पद्योंमें भट्टवोसरिका जीवनपरिचय प्राप्त होता है। प्रथम सन्धिका पद्य निम्न प्रकार है
प्राच्योदीच्यकुले द्विजोच्युत इति ख्यातस्तस्य यः
श्रीनारायणसज्ञयाभवदतः सूनुः कुलीनाग्रणीः । १. अघ्या. तरंगि०, अन्तिम प्रशस्ति, गधभाग । २. आयज्ञानतिलक, पाण्डुलिपि जैन सिद्धान्त भवन, आरा, गाथा २। ३, वही, द्वितीय गाथाको टोका । ४. वही, प्रथम संधि ।
प्रबुवाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २४५
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
विद्वान् दुर्लभराज इत्यभिहितस्तस्यात्मजो वोसरिः स्वे शास्त्रे रचनां चकार रुचिरानाथस्वरूपस्थितिम् ॥'
इस पद्यसे ज्ञात होता है कि प्राच्य उदीच्य ब्राह्मण वंशमें नारायण नामक व्यक्ति हुआ । इनका पुत्र दुर्लभराज और दुर्लभराजका पुत्र भट्टवोसरि हुआ । भट्टवसरि भाईका नाम 'कोक' बताया गया है। पचम प्रकरणके अन्तिम पासे कोककी सूचना प्राप्त होती है
यत्तत्कालसमागत्तस्य जनयत्युल्लाममात्रादपि प्रष्टुनकर चोविकारटुतिशतिर् । तत्संवत्सर मोहजालपटल प्रध्वंसदिव्यौषधं कार्य ज्ञानमिदं चकार रुचिरं कोकानुजो वोसरि ॥
भट्टवसर आयज्ञानग्रन्थ के पातप्रकरण में 'अणहिलपाटलपुर'का निर्देश किया है। इस पद्यसे यह भी ज्ञात होता है कि सुग्रीव आदि आचार्योंने जिस महाशास्त्रकी रचना की थी, उसका अध्ययन आचार्य दामनन्दिने किया और दामनन्दिसे समस्त विषयका परिज्ञान भट्टवोसरिने प्राप्त किया । पद्य निम्न प्रकार है
सुग्रीवादिमुनीन्द्रगुम्फितमहाशास्त्रेषु यज्जस्थितं साम्नायं गुरुदामनन्दिवचसा विज्ञाय सर्वं पुनः ॥ संक्षेपादण हिल्लपाटलपुरि प्रज्ञापदं ज्ञानिनं पातसमाश्रयं तदघुता चक्रे स्फुटं बोसरि ||
अन्तिम सम्धि वाक्यके पूर्व भी एक प्रशस्तिपद्य आया है, पर पद्य अशुद्ध है । इस पद्यसे भट्ट वोसरिका दिगम्बराचार्यत्व सिद्ध होता है । पथमें बताया है कि महादेव नामके विद्वान्से अल्प विषयको जानकर सुप्रणयिनीके रूपमें शाब्दी कलाको प्राप्तकर कोकके भाई कोसरि सुधीने यह शास्त्र रचा, जो कि स्कुरायमान वर्णोंवाली आयश्री सोमाग्यको प्राप्त है। अथवा उस आयश्री से सुशोभित है। यही कारण है कि आयज्ञानकी स्वोपज्ञ टीकाका नाम आयश्री है। पद्य निम्न प्रकार है-
महादेवान्मांत्री प्रमितविषय रागविमुखो विदित्वा श्रीकोत्कविसमयशा सुप्रणयनीं ||
१. प्रथम प्रकरणका अन्तिम पथ, आयज्ञान तिलक | २. वही, पंचम प्रकरण ।
३. वही, द्वितीय प्रकरण
२४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
कलां दद्ध्याच्छाब्दी विरचदिदं शास्त्रमनुज;
स्फुरद्वयश्रीमुभगमधुना बोसरिसुधीः ॥ संक्षेपमें यह कहा जा सकता है कि वोसरिके पिताका नाम दुर्लमराज, दादाका नाम नारायण और बड़े भाईका नाम कोक था। यह प्राध्य-उदोश्य ब्राह्मण थे। जैनगुरुओंके प्रभावसे ये जैन धर्म में दीक्षित हुए । दिगम्बराचार्य दामनन्दि इनके गुरु थे। ये मन्त्री, मन्त्रवादी, सुधी और रागविमुख-विरक्त दिगम्बराचार्य थे। ___ श्री जुगलकिशोरजी मुख्तारने बताया है कि दामनन्दिके शिष्य भट्टवोसरि वही हैं, जिनका श्रवणबेलगोलके अभिलेख ५. में उल्लेख है। इन्होंने महावादी विष्णुभट्टको पराजित किया था । ये दामनन्दि-अभिलेखानुसार प्रभाचन्द्राचार्यके सघर्मा थे, जिनके चरण धाराधिपति भोजराज के द्वारा पूजित थे और जिन्हें महाप्रभावक उन गोपनन्दि आचार्यका सधर्मा लिखा है, जिन्होंने कुवादि दैत्य धूर्जटोको बादमें पराजित किया था। __ श्री मुख्तार साहबका अनुमान है कि जंटी और महादेव दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। आश्चर्य नहीं कि जिन महादेवका उक्त प्रशस्तिपद्यमें उल्लेख है, वे ये ही धGटी हों और इनकी तथा विष्णुभट्टकी घोर पराजयको देखकर हो भट्टवोसरि जैनधर्ममें दीक्षित हुए हों और इसीसे उन्होंने महादेवसे प्राप्त ज्ञानको 'प्रमित-विषय' विशेषण दिया हो और दामनन्दिसे प्राप्त ज्ञानको 'अमनाक्' विशेषणसे विभूषित किया हो।
इस प्रकार प्रभाचन्द्रका सघर्मा होनेसे भद्र वोसरिका समय भी भोजराजके समकालीन माना जा सकता है । दामनन्दि तो भोजराजके समकालीन हैं हो, अतः उनके शिष्यका समय भी ई. सन्की ११वीं शताब्दीका उत्तरार्ध होना चाहिए। ग्रन्यके अन्तरंग परीक्षणसे भी यही सिद्ध होता है। आयज्ञानका प्रचार १३ वीं शती तक हो प्राप्त होता है। इसके पश्चात् प्रश्नशास्त्रमें आय वाली कल्पना लुप्तप्राय दिखलाई पड़ती है । ग्रह-योग प्रकरणमें जिन योगोंकी चर्चा की गयी है उन योगोंकी स्थिति दशम शताब्दीके उत्तरार्ध या ग्यारहवीं शताब्दीके पूर्वार्षकी है। भाषाशैली और विषय इन दोनों ही दृष्टियोंसे आयभानसिलक ११ वीं शताब्दी के बादकी रचना प्रतीत नहीं होती। रखमपरिचय ____ इस ग्रन्थमें कुल ४१५ गाथाएं और २५ प्रकरण हैं । प्रश्नशास्त्रको दृष्टिसे १. आयज्ञा०, २५वे प्रकरणका अन्तिम पद्य । २. पुरातन जैनवाक्य सूची, वीर सेवा मन्दिर संस्करण, सन् १९५०, पृ० १०३।
प्रवृद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २४५
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह महत्त्वपूर्ण है । इसमें ध्वज, धूम, सिंह, गज, खर, वान, वृष और ध्वांक्ष इन आठ आयों द्वारा प्रश्नोंके फलका सुन्दर वर्णन किया है। इन्होंने आठ आयों द्वारा स्थिर चक और चल-चक्रादिककी रचना कर विविध प्रश्नोंके उत्तर दिये गई है। ग्रन्थप्रकरण निम्न प्रकार है
१. आयस्वरू-आठ आयोंक स्वरूप, गुण और आकृतियोंका विश्लेषण ४७ गाथाओं में किया है।
२. पातविभाग - रुद्र, मद्ध-विमुक्त, रुद्ध-गहीत-विमुक्त, संस्थान, अनकल, प्रतिकूल, चलित, सरित, अभिमुख, पूर्वमुख, अन्तरित आदि १६ पातोंका कथनकर उनके आयरूप अक्षरोंका विवेचन किया है। इसमें ४ गाथाएं हैं।
३. आयावस्था-१९, गाथाओंमें मित्र, शुभ, अशम, ग्पूि आदि सम्बन्धों द्वारा आयोंकी अवस्थाओंका कथन किया गया है।
४. ग्रह-योग-इस प्रकरणमें २८ गाथा है। ग्रहोंके मलतः दो भेद किये हैं-१. सौम्य और २. पाप ! इन दोनों ही प्रकारके ग्रहोंके आयवर्ण एवं शुभाशुभ फलोका निर्देश किया है।
५. पृच्छाकायंज्ञान-१६ गाथाओंमें पृच्छकको चर्या, चेश, दृष्टि एवं वार्तालाग आदिके द्वारा आयोंका आनयन ।
६. शुभाशुभ-इसमें १७ गाथा हैं। इनमें आयों द्वारा आये हग शुभाशुभ वर्णोपरसे फलादेश बतलाया गया है। ___७. लाभालाभ-इस प्रकरण में १० गाथाएँ हैं । इनमें पृच्छकके प्रश्नानुसार आधों का निर्धारण कर लाभालाभ फलादेशका वर्णन किया है।
८. राग-निर्देश- इसमें २: गाथाएं हैं। रोगके सम्बन्धमें किये गये प्रश्नोंके उत्तर दिये गये हैं। सर्वप्रथम रोगको साध्यामाध्यतापर विचार किया गया है । पश्चात् कितने समय तक रोग रहेगा, इसपर भी विचार किया गया है।
२. कन्या-परीक्षण-इस प्रकरण में ११ गाथाएँ हैं। श्रावकत्रमके परिपालन हेतु विवाह आदि क्रियाएँ आयश्यक हैं। अतएव कन्याको परीक्षाका वर्णन इन गाथाओंमें आया है। किस प्रकारके प्रश्नमें भार्या बननेवालो कन्या सुशोल होगी, यह प्रश्नशास्त्रकी दृष्टिसे विचार किया है।
१०. भू-लक्षण-इस प्रकरण में २५ गाथाए हैं। प्रश्नानुसार किस प्रकारको भूमि कुल, गोत्र, धन इत्यादि करनेवाली होगी और किस प्रकारको भूमि हानि करनेवाली होगी, इसका विवेचन किया है। २४८ : तीर्थकर महायोर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६. परिज्ञान- पाधायोंमें प्रत्यकके प्रश्नाक्षरों द्वारा गर्भसम्बन्धी गुह्य प्रश्नोंका उत्तर दिया गया है।
१२. विवाह - इस प्रकरणमें केवल पाँच गायाएँ हैं । इनमें विवाहसम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं ।
१३. गमनागमन - इस प्रकरणमें ९ गाथाएँ हैं । विदेश या दूर देश गये हुए व्यक्तिके लौट कर आनेके समयका विचार किया गया है।
१४. परिचित ज्ञान - ५ गाथाओं में कौन व्यक्ति किस समय मित्र या शत्रुका रूप प्राप्त करेगा तथा किस परिचितसे लाभालाभ होगा — इसका विचार किया गया है ।
१५. जय-पराजय – १३ गाथाओं के जय-पराजयका विचार किया गया है । किस समय आक्रमण करनेसे विजय लाभ होगा और किस समय आक्रमण करनेपर पराजय होगी आदि बातोंका प्रश्नाक्षरों द्वारा विचार किया गया है।
१६. वर्षा -लक्षणमें २८ गाथाएँ हैं । वर्षाकाल में आकर पृष्छकके वर्षा सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। बताया है कि मनुष्यों को सुख, बुद्धि और ऐश्वर्यकी प्राप्ति अन द्वारा होती है और अन्नका हेतु वर्षों है । अतएव वर्षा सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर इस प्रकरण में दिया गया है।
१७. अर्ध-काण्ड - इस प्रकरण में २१ गाथाएँ हैं और तेजी-मन्दीका विचार गया है ।
१८. नष्ट - परिज्ञान — इस प्रकरण में ३१ गाथाएँ हैं और नष्ट हुई, चोरी गयो वस्तुका प्रश्नाक्षरों द्वारा विचार किया गया है ।
१९. तपोनिर्वाह-परिज्ञान — इस प्रकरण में ७ गाथाएँ हैं । संसारसे विरक्त होनेवाला व्यक्ति अपनी दीक्षाका निर्वाह कर सकेमा या नहीं आदि प्रश्नोंका विचार किया गया है ।
२०. जीवित मान - - इस प्रकरणमें ७ गाथाएँ हैं । ग्रहदशावश आयुका परिज्ञान प्राप्त करनेकी विधिका वर्णन है ।
२१. नामाक्षरोद्द ेश – इस प्रकरणमें ११ गाथाएं हैं। आरम्भमें बताया है कि जैसे दानके बिना वन, चन्द्रके बिना रात्रि शोभित नहीं होती उसी प्रकार नामके बिना विद्यमान वस्तु भी शोभित नहीं होती । अतः प्रश्नाक्षरविधि द्वारा वस्तु और व्यक्तिके नामका वर्णन किया है ।
२२. प्रश्नाक्षरसंख्या - इस प्रकरण में ११ गाथाएँ हैं । प्रश्नाक्षरगणना द्वारा शुभाशुभ फलका विवेचन किया है।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २४९
१७
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३. संकीर्ण---इस प्रकरणमें १६ गाथाएं हैं और विविध प्रकारके प्रश्नोंके उत्तर निकालनेको विधि वर्णित है।
२४. काल-सात गाथाओंमें नाना प्रकारके किये गये प्रश्नोंके फल कब प्राप्त होंगे इसका विचार किया है।
२५. चक्रपूजा-इसमें पाँच गाथाएं हैं और अन्तमें १२ पद्योंमें एक स्तुति अंकित की गयी है । अन्तमें १२ मन्त्र भी निबद्ध हैं। ___ इस प्रकार प्रश्नाक्षरों द्वारा फलादेश विधिका निरूपण किया है। प्रश्नकर्ताकी शारीरिक शुद्धिके साथ मान्त्रिक गदि भी अपेक्षित है । आचार्य तममनकी शुद्धिका वर्णनकर अन्तमें मान्त्रिक शुद्धिका विधान किया है । प्रश्नशास्त्रको दृष्टि से यह ग्रन्थ विशेष महत्त्वपूर्ण है ।
उग्रादित्याचार्य आयुर्वेदके विशेषज्ञ विद्वान् उग्रादित्याचायने अपना विशेष परिचय नहीं लिखा है। इन्होंने अपने गुरुका नाम श्रीनन्दि, ग्रन्थनिर्माणस्थान रामगिरि पर्वत बताया है। रामगिरि पर्वत बेंगीमें स्थित था। बेंगी त्रिकलिंग देशमें प्रधान स्थान है । गंगासे कटक तकके स्थानको उत्कल देश कहा गया है । यही उत्तर कलिंग है। कटकसे महेन्द्रगिरि तक पर्वतीय स्थानका नाम मध्य कलिंग है। महेन्द्रगिरिसे गोदावरी तकके स्थानको दक्षिण कलिंग कहते हैं। इन तोनों का सम्मिलित नाम विकलिंग है। इस विकलिंगके बेंगीमें सुन्दर रामगिरि पर्वतके जिनालयमें स्थित होकर उग्रादित्यने इस ग्रन्थको रचना को है।
देङ्गोशत्रिकलिङ्गदेशजननप्रस्तुत्य सानूत्कट: प्रोद्यवृक्षलताविताननिरतैः सिद्धेश्च विद्याधरैः । सर्वेमन्दिरकन्दरोपमगुहाचैत्यालयालङ्कृते
रम्ये रामगिराविदं विरचितं शास्त्रं हितं प्राणिनाम् ॥' यह रामगिरि पर्वत सम्भवतः वही है जिसका पद्मपुराणमें निर्देश आया है । हिन्दी विश्वकोषके सम्पादकने लिखा है-त्रिकलिंग जनपद मन्द्राजके उत्तर पलिकट नामक स्थानसे लेकर उत्तर गंजाम और पश्चिममें विपति बेल्लारी कर्नूल, बिदर तथा चन्दा तक विस्तृत है। श्री नन्दलाल डेने अपने 'The geographical Dictonary of Ancient and Madicvel India' नामक कोषमें मध्यभारतको त्रिकलिंग माना है और नागपुरसे २४ मील उत्तर १. कल्याणकारक, अंतिम प्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, आराके पृ० ५३से उद्धृत । २५० : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
विद्यमान रामटेकको रामगिरि माना गया। श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने भी नागपुरके निकटवर्ती रामटेकको हो रामगिरि बताया है और यहीं पर उग्रादित्याचार्य द्वारा कल्याणकारककी रचना हुई होगी ।
उग्रादित्याचार्यने अपने गुरुका नाम श्रीनन्द बताया है। श्रीनन्दि नामके कई आचार्य हुए हैं। प्रायश्चित्तचूलिका एवं योगसारके कर्त्ता गुरुदासके गुरुका नाम श्रीनन्दि बताया गया है । नन्दिसंघकी पट्टावली में एक श्रीनन्दिका नाम आया है। इसमें इनका समय वि० संवत् ७४९ बताया गया है ओर इन्हें उज्जैन का पट्टाधीश बताया गया है। श्रीचन्द्रके गुरु भी श्रीनन्द बताये गये हैं | आचार्य वसुनन्दिने भी अपने श्रावकाचारमें एक श्रीनन्दिका उल्लेख किया है जो इनके प्रगुरु थे। हमारा अनुमान है कि नन्दिसंघकी पट्टावलीमें उल्लिखित श्रीनन्दि ही उग्रादित्याचार्य के गुरु है ।
स्थिति काल
उग्रादित्यने अपने इस ग्रन्थ में पूज्यपाद, समन्तभद्र, पात्रस्वामी, सिद्धसेन, दशरथगुरु, मेघनाद, और सिंहसेनका उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त श्रुतकीर्ति, कुमारसेन, वीरसेन और जटाचार्यके उल्लेख भी आये है । अतः यह स्पष्ट है कि उग्रादित्याचार्य इन आचार्योंसे उत्तरवर्ती हैं । ग्रन्थकारने लिखा है"इत्यशेषविशेषविशिष्टदुष्ट पिशिताशिवैद्यशास्त्रेषु मांसनिराकरणार्थमुग्रा
दिव्याचार्येनृपतुंगवल्लभेन्द्रमभायामुद्द्द्घोषितं प्रकरणम्”
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि औषधिमें मांसकी निरुपयोगिताको सिद्ध करनेके लिए स्वयं आचार्यंने श्रीनृपतुंगवल्लमेन्द्रकी सभा में इस प्रकरणका प्रतिपादन किया । ग्रंथके अन्त में एक दिये हुए पद्यसे भी यह अवगत होता है कि नृपतुंग अमोघवर्षं प्रथमको राजसभा में मोषत्रिमें मांस सेवनका निराकरण करने के लिए इस ग्रन्थकी रचना सम्पन्न की गयी है ।
ख्यातः श्रीनृपतुंगवल्लभमहाराजाधिराज स्थितः प्रो. रिसभान्तरे बहुविधप्रख्यातविद्वज्जने । मांसाशिप्रक रेंद्रताखिलभिषग्विद्याविदामग्रतो
मांसे निष्फलतां निरूप्य नितरां जेनेंद्र वैद्यस्थितम् ॥
अर्थात् प्रसिद्ध नृपतुंगवल्लभ महाराजाधिराजको सभामें जहाँ अनेक प्रकार के उद्भट विद्वान थे एवं मांसाशनकी प्रधानताको पोषण करनेवाले बहुत से आयुर्वेद विद्वान् थे । उनके समक्ष मांसको निष्फलताको सिद्ध करके इस १. कल्याणकारक हिताहित अध्याय, अन्तिम प्रशस्ति ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: २५१
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनेन्द्र वैद्यने विजय प्राप्त की। अमोघवर्ष प्रथमको नृपतुंग, वल्लभ और महाराजाधिराज उपाधियाँ प्राप्त थीं । इतिहासकारोंके मतसे अमोघवर्षके राज्यारोहणका समय शक संवत् ७३६ (वि. सं०८११) है। गुणभद्रसूरिकृत उत्तरपुराणसे भी ज्ञात होता है कि अमोधवर्ष प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेनका शिष्य था।
यस्य प्रांशनखाशुजालांवसरद्धारान्तराविर्भवत् पादाम्भोजरजःपिशङ्गमुकुटप्रत्यग्ररत्लद्युतिः। संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलं
स श्रीमान्जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलम् ।।' श्रीजिनसेनस्वामीफे देदोप्यमान नखोंके किरणसमूह धाराके समान फैलते थे और उसके बीच उनके चरण, कमलके समान जान पड़ते थे। उनके चरण. कमलोंकी रजसे जब राजा अमोघवर्षके मुकुटमें लगे हुए नवोन रत्नोंकी कान्ति पीली पड़ जाती थी तब वह अपने आपको ऐसा स्मरण करता था कि मैं आज अत्यन्त पवित्र हुआ हूँ। स्पष्ट है कि अमोघवर्षका समय जिनसेनका कार्यकाल हैं। प्रो० सालेतोरने लिखा है
"The next prominent Rastrakuta ruler who extended his patronage to Jainism was Amoghavarsa I, Nripatunga, Atishayadhawala (A. D. 815-877). From Gunabhadra's Uttarpurana (A. D. 898), we know that king Amoghavarsa I, was the disciple of Jinasena, the author of the Sankrit work Adipurana (A, D, 783) Thc Jaina leaning of king Amoghavarsa is turther corroborated by Mahabiracharya, the author of the Jain Mathmatical work Ganitasara sangraha, who relates that, that nonarch was a follower of the Syadwad Doctrine."
इस उद्धरणसे भी सष्ट है कि अमोघवर्ष भगवत् जिनसेनाचार्यके शिष्य थे। अमोघवर्ष स्यावादमतका अनुयायी था-इस बातका समर्थन गणितसारसंग्रहके कर्ती महावीरचार्यके कथनसे भी होता है। इसी अमोघवर्ष के शासनकालमें सिद्धान्तग्रन्यकी जयधवलाटोका वि० सं० ८९४ में समाप्त हुई।
जिनसेनने अपने पार्वाभ्युदयमें भी अमोघवर्षको परमेश्वरको उपाधिसे
१. उत्तरपुराण, प्रशस्ति श्लोक ९ । २. Mediaeval Jainism, Page 38 ।
२५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
विभूषित बतलाया है । पच्चीसवें कल्पाधिकार के अन्त में जो प्रशस्ति दी गयी है उसमें श्रीविष्णुराजका उल्लेख आया है-
श्रीविष्णुराजपरमेश्वरमौलिमालासंलालितांत्रियुगलः सकलागमज्ञः ॥ आलापनीयगुणसोन्नतसन्मुनीन्द्रः । श्रीनंदिनंदित गुरुगु रुरूजितोऽहम् ।।
महाराज विष्णुराजके मुकुटकी मालासे जिनके चरणयुगल शोभित है, जो सम्पूर्ण आगमके ज्ञाता हैं, प्रशंसनीय गुणोंके धारी, यशस्वी, श्रेष्ठ मुनियोंक स्वामी हैं - ऐसे श्रीनन्दिनामके प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। ये आचार्य ही उनादित्य गुरु हैं । यहाँ यह विचारणीय है कि विष्णुराज परमेश्वर कौन है ? श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने इन्हें कलचुरी राजवंशका अनुमानित किया है । पर यह अनुमान भ्रान्त है। डा० ज्योतिप्रसाद जैनने उक्त विष्णु राजको afier पूर्वी चालुक्य नरेश विष्णुवर्धन चतुर्थं सिद्ध किया है और उसी राजाके राज्य के अन्तर्गत रामतीर्थं पर्वतको उग्रादित्यका रामगिरि सूचित किया है ।
—
हमारी दृष्टिसे यह विष्णुराज अमोघवर्ष के पिता गोविन्दराज तृतीयका ही अपर नाम है । जिनसेनने पाश्वभ्युदय में अमोघवर्षको परमेश्वर उपाधि बसलायी है | बहुत सम्भव है कि यह उपाधि राष्ट्रकूटोंको गितु परम्परागत हो । कतिपय ऐतिहासिक विद्वान् विष्णुराजको चालुक्य राजा विष्णुवर्धन मानते हैं, पर इससे उम्रादित्याचायके समय निर्णय में कोई बाधा नहीं आती। सम्भव है कि उस समय इस नामका कोई चालुक्य राजा भी रहा हो । पुरातत्त्ववेत्ता नरसिंहाचार्यने भी यह तथ्य स्वीकार किया है कि कल्याणकारककी रचना उग्रादित्यने अमोघवर्ष प्रथमके शासनकालमें की है । लिखा है
Another manuscript of some interest is the medical work kalyanakaraka of Ugraditya, a Jaina author, who was a contemporary of the Rastrakuta king Amoghavrsa-I and of the Eastern chalukya king kali Vishnuvardhana V. The work opens with the statement that the science of medicine is divided into two parts,
१. कल्याणकारक, परिच्छेद २५, पद्य ५१ ।
२. प्रशस्तिसंग्रह, आरा, पृष्ठ ९४ ।
1. Jaina Sources of the History of Ancient India pp. 204-206,
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २५३
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
namely prevention and cure, and gives at the end a long discourse in Sanskrit prosc WIJ the uselessiERS of a flesh clied, said to have been deliverců by the author all the court of Angliavarsha, where many learned men and doctors haul assembled." ___अर्थात अनेक महत्त्वपूर्ण विषयोंसे परिपूर्ण आयुर्वेदका कल्याणकारक नामक ग्रन्थ उमादित्याचार्य द्वारा बिरचित मिलता है । ये जैनाचार्य राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम एवं चालुक्य राजा कलिविष्णुवर्धन पंचमके समकालीन थे । ग्रन्थका आरम्भ आयुर्वेद तत्त्वके प्रतिपादनसे हुआ है, जिसके दो विभाग किये गये हैं-(१) रोगरोधन और (२) चिकित्सा । अन्तिम एक गद्यस्खण्डमें उस विस्तृत भाषणको अंकित किया है, जिसमें मांसकी निष्फलता सिद्ध की गयी है और जिसे अनेक विद्वान् और बंद्योंको उपस्थितिमें नृपतुंगको सभामें उग्रा. दित्याचार्यने दिया था।
उग्रादित्याचार्यके गुरुका नाम श्रीनन्दि है । इन श्रीनन्दिका समय वि० सं० ७४९ है । यदि इसको शक संवत् मान लिया जाय तो उग्रादित्य आचार्य नन्दि संघके आचार्य सिद्ध होते हैं । रचना-परिचय
उग्रादित्याचार्यका कल्याणकारक नामक एक बहकाय अन्य प्राप्त है । इस ग्रन्थमें २५ परिच्छेदोंके अतिरिक्त अन्तमें परिशिष्ट रूपमें अरिष्टाध्याय और हिताध्याय ये दो अध्याय भी आये हैं। ग्रन्थकर्त्ताने प्रत्येक परिच्छेदके आरम्भमें जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार किया है। ग्रन्थ रचनेकी प्रतिज्ञा, उद्देश्य आदिका वर्णन किया गया है। २५ परिच्छेदोंके विषय-क्रम निम्न प्रकार हैं
(१) स्वास्थ्य-संरक्षणाधिकार-इसमें ४५, पद्य हैं। वैद्यशास्त्रके संक्षिप्त विषय-वर्णनके पश्चात् शकुन, निमित्त और सामुद्रिक शास्त्र द्वारा आयु एवं स्वास्थ्यको परीक्षा की गयी है।
(२) गर्भोत्पत्ति-लक्षण-इस परिच्छेदमें ६० पद्य हैं। गर्भसंरक्षणकी विधि गर्भाधानक्रम, गर्भ-पोषण और गर्भ में शरीर-वृद्धि होनेके क्रमका कथन किया गया है।
(३) सूत्रव्यावर्णन-इस परिच्छेदमें ६९ पद्य हैं। इनमें अस्थि, सन्धि, 1. Mysore Archacological Report 1922, Page 22, २५४ : सीकर महापौर और उनकी श्राचार्य-परम्परा
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
धमनी, मांसरज्जु, मर्मस्थान, दन्त, वात, मूत्र, मल, औषध, स्थूल शरीर, क्षीण-शरीर, मध्यम शरीर, वात-पित्त-कफ आदिका वर्णन आया है ।
(४) धान्यादि-गुणाधिकार--इस परिच्छेद में ४८ पद्यों द्वारा समय वर्णन के पश्चात् विशेष विशेष पालुओं से होने के होनेवाले विशेष धान्योंका गुण वर्णन किया गया है।
प्रयुक्त
(५) अन्नपानविधि-वर्णनाधिकार — इस अधिकारमें ४५ पद्य हैं। जल, यवागू, मण्ड, मुद्गयूष, दुग्ध, दधि, तक्र, नवनीत, घृत, तेल आदिके गुणधर्मोक वर्णनके पश्चात् विभिन्न पशुओंके सूत्रोंका गुणधर्म बताया गया है ।
(६) रसायन विधि - इस परिच्छेद में ४५ पद्य हैं । उद्वर्तन, स्नान, ताम्बूलभक्षण, पादाभ्यंग, ब्रह्मचयं, निद्रा, गोधूमचूर्ण, त्रिफला, यष्टिचूर्ण, विडंग-सार, नागबल, बाकुचीरसायन, वज्रादिरसायन, चन्द्रामृतरसायन आदिका निरूपण किया है ।
(७) व्याधिसमुद्देश -- इस परिच्छेद में ६३ पद्म है । रोगोंकी उत्पत्तिके हेतुका वर्णन करने के अनन्तर रोगोको शय्या, शयन-विधि, दिनचर्या, चिकित्सा, औषधके गुण आदिका कथन आया है ।
(८) वातरोगाधिकार - इस परिच्छेद में ७३ पद्य है और विविध प्रकारके वात रोगों का वर्णन किया गया है ।
(९) पित्तरोगाधिकार - १०३ पद्योंमें विभिन्न प्रकारको पित्तव्याधियों और उनके शमनके उपाय बतलाये गये हैं ।
(१०) कफरोगाधिकार - इस परिच्छेदमें २८ पद्य है। इसमें विविध प्रकारके कफरोगों और उनकी चिकित्साका वर्णन आया है ।
(११) महामायाधिकार - इस परिच्छेद में १८० प हैं और विभिन्न प्रकारकी कुष्ठादि महाव्याधियोंका कथन आया है ।
(१२) द्वादशम परिच्छेदमें १३६ पद्य हैं और इसमें भी वात-पित्त जन्य महाव्यावियोंका स्वरूप और उनकी चिकित्सा बतलायी गयी है ।
(१३-१४-१५-१६-१७) -- इन पाँच परिच्छेदोंमें क्षुद्र रोगोंका वर्णन आया है। त्रयोदशम परिच्छेद में ९१ पद्य हैं और इसमें भगन्दर और उपदंश जैसो व्याधियों की चिकित्सा वर्णित है । चतुर्दश परिच्छेदके ९१ पद्योंमें शोथ, श्लीपद aeमीक-पाद, गलगण्ड, नाड़ी-व्रण, प्रभृति रोगोंकी चिकित्सा बतलायी गयी है । पञ्चदश परिच्छेद में २९२ पद्य हैं। इनमें तालुरोग, जिह्वारोग, दन्तरोग, नेत्ररोग, शिरोरोग आदिको चिकित्सा बतलायी गयी है । षोडश अधिकारमें १०१ पश्च है । इनमें स्वाँस, महास्वांस; तृष्णारोग, छदि रोग, मूत्रावरोध आदि प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: २५५
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेक रोगोंकी चिकित्सा प्रतिपादित है । सप्तदश अधिकार में १२० पद्म हैं और इनमें त्रिदोषोत्पन्न लघुव्याधियों को चिकित्सा बतलायी गयी है ।
(१८) बालग्रहभूत तन्त्राधिकार — इस परिच्छेद में १३७ पद्य हैं और विभिन्न बालरोगोंकी चिकित्सा वर्णित है ।
(१९) विषरोगाधिकार - इस अधिकार में विभिन्न प्रकारके विषोंकी चिकिसावर्णित है ।
(२०) शास्त्र संग्रहाधिकार - ९४ पद्योंमें धातुओं एवं विभिन्न प्रकारके शरीरस्य रोंगों की चिकित्सा बताई गयी हैं ।
(२१) कर्मचिकित्साधिकार -- इस परिच्छेद ६६ पद्य हैं और वमन विरेचनादि चिकित्सा विधियोंका वर्णन है ।
(२२) भैषज्यकर्मोपद्रवचिकित्साधिकार इस परिच्छेद में १७२ पद्य हैं । वमन, विरेचन, परिस्राव, बस्ति धादि वित्रियोंका वर्ण है ।
(२३) सर्वोषधकर्मव्यापच्चिकित्साधिकार — इसमें १०९ पद्य हैं । विभिन्न प्रकारकी वमन विरेचन विधियोंका वर्णन आया है ।
(२४) रसरसायन सिद्धयधिकार - इस परिच्छेद में ५६ पद्य हैं। रसकी महत्ता रसके भेद, रस-शुद्धि तथा पारदसिद्ध रस आदिका वर्णन आया है ।
(२५) कल्पाधिकार में ५७ पद्य हैं। हरीतिकी, त्रिफला, शिलाजतु, पायस, भल्लातपाषाणकल्प, मृत्तिकाकल्प, एरण्डकल्प, क्षारकल्प आदि कल्पोंका प्रतिपादन किया ।
परिशिष्ट रूप में रिष्टाधिकारमें अरिष्टोंका वर्णन और हिताहिताधिकार में पथ्यापथ्यका निरूपण आया है । आयुर्वेदकी दृष्टिसे यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है ।
आचार्य भावसेन त्रैविद्य
आन्ध्रप्रदेशके अनन्तपुर जिलेमें अमरापुरम् ग्रामके निकट एक समाधिलेखमें निम्नलिखित पद्य अंकित है
श्रीमूलसंघसेनगणदवा दिगिरिवज्रदंडमप्प भावसेन त्रैविद्यचक्रवर्तिय निषिधः ||
कातन्त्ररूपमालावृत्तिके रचयिता भी भावसेन व विद्या है। इस ग्रन्थ के अन्तमें आयी हुई प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि ये मूलसंघ सेनगणके आचार्य थे । सेनगणकी पट्टावली में भी इनका उल्लेख आया है-
२५६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
परमशब्दब्रह्मस्वरूपत्रिविद्याधिपारवादिपर्वतवज्रदंडश्रीभावसेनभट्टारकारणाम् ॥
पट्टालिमें आये हुए वादि, पर्वत, बज्र और शब्दब्रह्मस्वरूप इन विशेषणोंसे स्पष्ट है कि प्रस्तुत उल्लेख भावसेन विद्यका ही है। पट्टावलि १७वीं शतीकी है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि भावसेन विद्य अत्यन्त प्राचीन हैं। इतना तो स्पष्ट है कि सेनगणके पुरातन आचार्यों में इनकी गणना की गयी है।
प्रकट है कि इन्हें 'बादिगिरिवजदण्ड' और 'वादिपर्वतवज्र' ये विशेषण वादीरूपी. पर्वतोंके लिये वज्रके समान सिद्ध करते हैं। कातन्त्ररूपमालावृत्तिमें 'परवादिगिरिसुरेश्वर' विशेषण भी आया है, जिससे इनका शास्त्रार्थी विद्वान होना सिद्ध होता है । ग्रन्थपूष्पिकाओंमें इन्हें विद्य, विद्यदेव और विद्यचक्रवर्ती विशेषण दिये गये हैं | जैन आचार्यों में शब्दागम (व्याकरण), तांगम (दर्शन) तथा परमागम (सिद्धान्त) इन तीन विद्याओंमें निपुण व्यक्तिको
विद्य' उपाधि दी जाती थी। इससे स्पष्ट है कि भावसेन तर्क, व्याकरण और सिद्धान्त इन विषयोंके मर्मज्ञ विद्वान थे। विश्वतत्त्वप्रकाशके अन्तमें उनकी शिष्य द्वारा जो प्रशस्ति दी गयी है, उसमें षट्तर्क, शब्दशास्त्र, स्वमत-परमत आगम, वैद्यक, संगीत, काव्य, नाटक आदि विषयोंके ज्ञाता भी इन्हें बताया है । इसमें सन्देह नहीं कि भावसेन चार्वाक, वेदान्ती, योग, भाट्ट, प्राभाकर, सांख्य और बौद्ध दर्शनोंके जाता थे | प्रशस्ति में आया हुआ पद्य निम्न प्रकार है
षटतर्क शब्दशास्त्र स्वपरमतगताशेषराद्धान्तपक्षं वैद्य वाक्यं विलेख्यं विषमसमविभेदप्रयुक्त कवित्वम् । संगीतं सर्वकाव्यं सरसकविकृतं नाटकं वेत्सि सम्यम्
विद्यत्वे प्रवृत्तिस्तव कथमवनौ भावसेननतीन्द्र || यह प्रशस्ति १० पद्योंकी है। अन्य पद्योंमें अभिनवविधि, सीन्द्र, मनिप, वादोभकेशरी इत्यादि विशेषणों द्वारा प्रशंसा की गयी है । इस प्रशस्तिके तीन पद्य कन्नड़ भाषाके हैं और पूर्वोक्त समाधिलेख भी कन्नड़ भाषामें ही है। अस. भावसेनका निवासस्थान कर्नाटक प्रदेश था, यह स्पष्ट है।
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष १, पृ० ३८१ २. सिद्धान्त जिनधीरसेनसदृशः शास्याबभाभास्करः, पट्तवकलंकदेवविधः साक्षा
दयं भूतले । सर्वव्याकरणे विपश्चिवधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं वैवियोसममेषचन्द्र ___ मुनिपो वादीमपंचाननः ।।-नशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, पृ. ६२ । ३. विश्वतत्त्वप्रकाश, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य ५ ।
प्रजाचार्य एवं परम्परापोषकापार्य : २५७
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनाचार्य परम्परा सेन नामके दो अन्य और भी हुए म विद्वान काष्ठासंघ लाडवागडगच्छके आचार्य थे । ये पोसेनके शिष्य और जयसेनके गुरु थे। जयसेनने सन् ९९९में शकलीकरहाटक नगरमें धर्मरत्नाकर नामक संस्कृतग्रन्थ लिखा था। अतः इन भावसेनका समय दशम शक्तीका उत्तराद्ध है। दूसरे भावसेन काष्ठासंघ माथुरगच्छके आचार्य हैं। ये धर्मसेन के शिष्य तथा सहस्त्रकीर्तिके गुरु थे । सहस्त्रकीर्तिके शिष्य गुष्णकीर्तिका उल्लेख ग्वालियर प्रदेशमें सन् १४१२ - १४१७तक प्राप्त होता है । अतः इन भावसेनका समय १४वीं शतीका उत्तरार्धं । प्रस्तुत भावसेन उक्त दोनों आचार्योंसे भिन्न हैं ।
समय- विचार
भावसेनने अपने किसी ग्रन्थ में समयका उल्लेख नहीं किया है । अतः उनके समय - निर्णय में अन्तरंग सामग्री और बाह्य सामग्री का उपयोग करना आवश्यक हैं। विश्वतत्त्वप्रकाशको एक प्राचीन प्रति शक संवत् १३६७ ई० सन् १४४५ ) की है । कातन्त्ररूपमालाकी हस्तलिखित प्रति शक संवत् १३०५ ( ई० सन् १३८३) की उपलब्ध है। इसी ग्रन्थकी एक अन्य प्रतिका उल्लेख कन्नड़ प्रांतीय ताड़पत्रीय ग्रन्थ-सूची में आया है । कातन्त्ररूपमालाको यह प्रति शक संवत् १२८९ ( ई० सन् १३६७) की है । अतएव इन हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर भावसेन विचका समय ई० सन् १३६७के पूर्व सुनिश्चित है । आचार्यने न्यायदर्शनको चर्चा में पूर्व पक्ष के रूपमें भासर्वज्ञकृत न्यायसारके कई पद्य उद्धृत किये हैं। यह ग्रन्थ १० वीं शताब्दी का है । वेदान्तदर्शन के विचार में लेखकने विमुक्तात्मकी इष्टसिद्धिका उल्लेख किया है। तथा आत्माके अणु आकारको चर्चामं रामातुजके विचार उपस्थित किये हैं। इन दोनोंका समय १२ वीं शती है ।
वेदप्रामाण्यको चर्चाके सन्दर्भमें लेखकने तुरुष्कशास्त्रको बहुजन सम्मत कहा है तथा वेदोंके हिंसा उपदेशकी तुलना तुरुष्कशास्त्रसे की है। तुरुष्कशास्त्र मुस्लिमशास्त्रका पर्यायवाची है और उत्तर भारत में मुस्लिमसत्ताका व्यापक प्रसार ई० सन् ११९२ से १२१० तक हुआ तथा सुलतान इल्तुमसके समय ई० सन् १२१० से १२३६ तक यह सत्ता दृढमूल हुई और दक्षिणभारत में भी मुस्लिम सत्ताका विस्तार हुआ । अतः तुरुष्कशास्त्रको बहुसम्मत कहना १३ वीं शताब्दी के मध्यसे पहले प्रतीत नहीं होता । इस तरह भावसेन के समयकी पूर्वावधि ई० सन् १२३६ और उत्तरावधि ई० सन् १३०० के लगभग मानी जा सकती है। मायसेनने १३ वीं सदीके अन्तिमचरण के नैयायिक विद्वान केशवमिश्रको तर्कभाषाका उपयोग नहीं किया है। अतः इन्हें
२५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी भाचार्य परम्परा
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
केशव मिश्र से किंचित् पूर्व अथवा समकालीन होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि भावसेनके समापिलेखकी लिगि १३ वीं शताब्दी के अनुकूल है । इससे भी इनका समय ई० सन्की १३ वीं शताब्दीका मध्यभाग होना संभव है । रचनाएं
मावसेन प्रतिभाशाली विभिन्नविषयोंके ज्ञाता आचार्य हैं। इनकी निम्नलिखित रचनाएँ प्राप्त है-
१. प्रमाप्रमेय-ग्रन्थ के प्रारम्भमें मङ्गलाचरण करते हुए लिखा हैश्री वर्धमानं सुरराज्य पूज्यं साक्षात्कृताशेषपदार्थं तत्वम् । सीख्याकरं मुक्तिपति प्रणम्य प्रमाप्रमेयं प्रकटं प्रवक्ष्ये ॥ ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्ति में भावसेन त्रैविद्यके विशेषणों का प्रयोग आया है । इसमें केवल एक ही परिच्छेद प्राप्त है और यह मोक्षशास्त्रका पहला प्रकरण है तथा प्रमेयकी ही चर्चा की गयी है । ग्रन्थका उत्तरार्ध भाग अप्राप्य है, जिसमें प्रमाचर्चा भी सम्मिल्लित रही होगी । अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है
'इति परवादिगिरिसुरेश्वरश्रीमद्भावसेन त्रैविद्यदेवविरचिते सिद्धान्तसारे मोक्षशास्त्रे प्रमाणनिरूपणः प्रथमः परिच्छेदः ।'
इस ग्रन्थ में प्रत्यक्ष इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, योगिप्रत्यक्ष और स्वयंवेदनप्रत्यक्ष ये चार भेद किये हैं । परोक्षके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, कहापोह, अनुमान और आगम ये छः भेद माने हैं।
अनुमानके पक्ष, साध्य, हेतु दृष्टान्त, उपनय और निगमन ये छः अवयव तथा हेतुका लक्षण अन्यथानुपपत्तिको न मानकर व्याप्तिमान पक्षधर्मको बताया है। अनुमानके भेदोंका निरूपण दो रूपों में किया है-
१. केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी । २. दृष्ट, सामन्यतोदृष्ट और अदृष्ट ।
}
हेत्वाभासके सात भेद बतलाये गये हैं-असिद्ध विरूद्ध अनेकान्तिक, अकिञ्चित्कर, अनध्यवसित्, कालात्ययापदिष्ट तथा प्रकरणसम ।
विपक्ष से समानता बतलाने वाले वाक्यसे दिया हुआ उत्तर जाति कहलाता है । जतियोंकी संख्या बीस है, यतः वर्ण्यसमा जातिमें साध्यसमा जातिका अन्तर्भाव होता है, अतः उसका पृथक् वर्णन नहीं किया है। प्रत्युदाहरण जातिका समावेश साधम्र्म्यसमा जातिमें होता है। अर्थापत्तिसमा तथा उपपत्तिसमा जातियाँ प्रकरणसमा जातिसे भिन्न नहीं है तथा अनित्यसमाजाति अविशेषसमा जाति से अभिन्न है । अतः पुनरुक जातियोंको छोड़ देनेपर जातियाँ बीस होती हैं ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २५९
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस ग्रन्थमें २२ निग्रहस्थान और वादके चार अंगों-१. सभापति, २. सभ्यजन, ३. प्रतिवादी और ४. बादीका सम्यक प्रतिपादन किया गया है। वादके १. तात्त्विकबाद, २. प्रातिभवाद, ३. नियतार्थवाद और ४. परार्थनवादका वर्णन आया है।
पत्रका लक्षण, पत्रके अंग एवं पत्रके विषयमें जय और पराजयकी व्यवस्था वणित है। कथाके वाद, वादवितण्डा, जल्प और जल्पवितण्डा ये भेद किये गये हैं तथा वाद और जल्पको अभिन्न माना गया है । लिखा है
"तस्मात् सम्यक्साधनदषणवत्त्वेन वादान्न भियते जल्पः । तद् वितण्डापि वादवितण्डातो न भिद्यते । ततो वादो जल्प इत्यनान्तरम्। तद्वितण्डेऽपि तथा । तत एव कथायां वीतरागविजिजीविषयविभागो नास्त्येव ।
-प्रमाप्रमेय १।१०८पृ० ६.७.९८ । आगम, आगमाभास, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणके प्रतिपादन प्रसंगमें मान, उन्मान, अवमान, प्रतिमान, तत्प्रतिमान एवं गणमानका स्वरूप भी प्रतिपादित है। उपमानप्रमाणके अन्तर्गत आगमिकपरम्पराके पल्य, रज्जु आदिको गणना भी बतलायी गयी है ।
२. कथा-विचार-इस ग्रन्थका केवल उल्लेख ही प्राप्त होता है। इसमें दार्शनिकवादोंसे सम्बद्ध वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान आदिका विस्तृत विचार किया गया होगा। यह ग्रन्थ अद्यावधि प्राप्त नहीं है।
३. शाक्टायनव्याकरण-टोका-मध्यप्रान्तीय हेस्तलिखित सूची में इस ग्रन्थका निर्देश आया है। इसी आधारपर जैन साहित्य और इतिहास में पंडित नाथूरामजी प्रेमीने और जिनरत्नकोष में श्री वेलणकरने इसका उल्लेख किया है, पर अभी तक इसकी कोई हस्तलिखित या मुद्रित प्रति प्राप्त नहीं है।
४. कातन्त्र रूपमाला-कातन्त्ररूपमाला व्याकरण के सूत्रोंके अनुसार शब्दरूपोंको सिद्धिका वर्णन आया है। ग्रन्थ दो भागोंमें विभक्त है। पूर्वाद्धं और उत्तरार्ध । पूर्वार्धमें २७४ सूत्रों द्वारा सन्धि, नाम, समास और तद्धितके रूपोंको सिद्धि की गयी है। उत्तरार्घमें ८०९ सूत्रों द्वारा तिङन्त कृदन्तके रूपोंका साघुत्व आया है । कातन्त्ररूपमाला यह नाम भावसेनका दिया हुआ है। यों इस ग्रन्थ१. मध्यप्रान्तीय हस्तलिखित ग्रन्थसूची, पु० २५ । २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १५५ । ३. जिनरत्नकोष, पृ० ३७७ । २६. : वीकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
के वास्तविक नाम 'कलाप' और 'कौमार' हैं । लेखकका कथन है कि भगवान् ऋषभदेवने ब्राह्मीकुमारी के लिए इस ग्रन्थको रचना की, अतः यह नाम पड़ा । स्वयं भावसेनने इस व्याकरण के लिए 'सर्वबर्माकृत' इस विशेषणका प्रयोग किया है । इस व्याकरण के दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। पहला संस्करण जैन- ग्रन्थ- रत्नाकर कार्यालय बम्बई और दूसरा वीर पुस्तक भण्डार जयपुरसे प्रकाशित हुआ है । संस्कृत भाषा के आरम्भिक अभ्यासियोंके लिए यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है ।
५. न्यायसूर्यावलि - इस ग्रन्थको पाण्डुलिपि स्ट्रासबर्ग (जर्मनी) के संग्रहालय में है। इसमें मोक्षशास्त्र के ९ परिच्छंद हैं ।
६. भुक्ति-मुक्तिविचार इस ग्रन्थकी पाण्डुलिपि भा उपर्युक्त संग्रहालय में है । इसमें स्त्रीमुक्ति और चर्चा की है। ७. सिद्धान्तसार - जिन रत्न कोषके वर्णनानुसार यह ग्रन्थ मूडविद्रीके मठमें है तथा इसका ७०० श्लोकप्रमाण है । पर श्रीविद्याधर जोहरापुरकरकी सूचनाके अनुसार यह ग्रन्थ वहाँ नहीं है ।
•
८. न्यायदीपिका - इस ग्रन्थकी सूचना लुई राइस द्वारा सम्पादित मेसूर और कुर्गकी हस्तलिखित ग्रन्थसूचीसे प्राप्त होती है । कहा नहीं जा सकता कि यह धर्मभूषणको न्यायदीपिकासे भिन्न कोई स्वतन्त्र कृति है अथवा वही है ।
सप्तपदार्थी टीका — इसका उल्लेख पाटनके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूचीकी प्रस्तावना में आया है ।
-
"
१०. विश्वतत्त्वप्रकाश – इस ग्रन्थ में चार्वाकदर्शनमीमांसा, सर्वज्ञसिद्धि, ईश्वरमीमांसा वेदप्रामाण्यमीमांसा, स्वत्तः प्रामाण्यविचार, भ्रन्तिविचार, मायावादविचार आत्मापुत्वविचार, आत्मविभूत्वविचार आत्मासर्वज्ञश्वविचार, समवायविचार, गुणविचार, इन्द्रियविचार, दिग्द्रव्यविचार, वैशेषिकमतविचार, न्यायमतविचार, मीमांसादर्शनविचार, सांख्यदर्शनविचार और बौद्धदर्शन विचार प्रकरणोंका समावेश किया गया है । विषयोंकी दृष्टिसे सर्वप्रथम आत्माके स्वरूपकी स्थापना की गयी है । चार्वाकोंका आक्षेप है कि जीव नामक कोई अनादि, अनन्त, स्वतन्त्र तत्व किसी प्रमाणसे ज्ञात नहीं है । जीव या चैतन्यकी उत्पत्ति शरीररूपमें परिणत चार महाभूतोंसे हो
१. विएन्ना ओरियेन्टल जरनल सन् १८५७, पृ० ३०५ ।
२, विश्वतत्त्वप्रकाश जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर प्रस्तावना पृ० ६
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: २६१
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
होती है। यह चैतन्य शरीरात्मक है अथवा शरीरका ही गुण या कार्य है । इसके उत्तरमें कहा गया है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं, क्योंकि जीव चेतन, निरवयव, बाह्य इन्द्रियोंसे अग्राह्य और स्पर्शादिसे रहित है । इसके प्रतिकूल शरीर जड़, सावनयबाह्य इन्द्रियोंसे ग्राह्य एवं स्पर्शादि सहित है। चैतम्यकी उत्पत्ति चैतन्यसे ही सम्भव है, जड़से नहीं। शरीर जोवरहित अवस्थामें भी पाया जाता है तथा जीव भी अशरीरी अवस्थामें पाया जाता है। अतएव चेतन्यआत्माको सिद्धि प्रमाणसे होती है ।
आगमके उपदेशक सर्वज्ञका अस्तित्व चार्वाक और मीमांसक नहीं मानते। उनके आक्षेपोंका उत्तर देते हुए भावसेनने बताया है कि सर्वशका अस्तित्व बागम और अनुमानसे सिद्ध होता है । ज्ञानके समस्त आवरण नष्ट हो जानेपर स्वभावतः समस्त पदार्थोंका ज्ञान होता है। ज्ञान और वैरागका परम प्रकर्ष ही सर्वशत्व है। पुरुष होना अथवा वक्ता होना सर्वज्ञत्वमें बाधक नहीं है। सर्वज्ञका अस्तित्व अनुमान द्वारा सुनिश्चित है।
न्यायदर्शनमें सर्वज्ञका अस्तित्व स्वीकार किया गया है। किन्तु सर्वज्ञ जगत्कर्ता है, इसकी मीमांसा की गयी है। ईश्वर जगत्कर्ता है, यह कहनेका बाधार है, जगत्को कार्य सिद्ध करना । कार्य वह होता है, जो पहले विद्यमान न हो तथा बादमें उत्पन्न हो जाये। किन्तु जगत् अमुक समयमें विद्यमान नहीं था, यह कहनेका कोई साधन नहीं है । अतः जगत्को कार्य सिद्ध करना ही गलत है। इस प्रकार कार्यत्वहेतुका खण्डन कर जगत्कर्ताका खण्डन किया है।
मोमांसक सर्वशप्रणीत आगम तो नहीं मानते, किन्तु अनादि अपौरुषेय वेदको प्रमाणभूत आगम मानते हैं। इनका चार्वाकोंने खण्डन किया है। वेदको अपौरुषेय मानना भ्रान्त है, क्योंकि कार्य होनेसे वेदका भी कोई कर्ता होगा ! वेदको अध्ययनपरम्परा अनादि है, यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि काण्व, याज्ञवल्क आदि शाखाओंके नामोंसे उन परम्पराओंका प्रारम्भ उन ऋषियोंने किया था, यह स्पष्ट होता है। वेदककि सूचक वाक्य वैदिक ग्रन्योंमें ही उपलब्ध होते हैं। अतः वेदका प्रामाण्य अपौरुषेयताके कारण नहीं हो सकता है।
वेद स्वतः प्रमाण है, इस मीमांसक मतके सिलसिले में ज्ञान स्वतः प्रमाण होते हैं या परत: प्रमाण होते हैं, इसका विचार लेखकने किया है । ज्ञान यदि वस्तुतत्त्वके अनुसार है, तो वह प्रमाण होता है तथा वस्तुके स्वरूपके विरुद्ध है, तो अप्रमाण होता है । अतः मानका प्रामाभ्य वस्तुके स्वरूपपर आधारित २६२ : तीपंकर महावीर कौर उनको आचार्य-परम्पय
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
है-परतः निश्चित होता है, स्वतः नहीं । इसी सन्दर्भ में ज्ञानके स्वसंवैध और अस्वसंवेद्यकी भी चर्चा की गयी है।
प्रामाध्यके सम्बन्धमें अप्रमाण जानका--भ्रान्तिका स्वरूप क्या है, यह विस्तारसे बतलाया गया है। माध्यमिक बौद्ध सभी प्रकारके पदार्थ के ज्ञानको भ्रम कहते हैं। 'संसारमें कोई पदार्थ नहीं है, सब शून्य है। यह उनका अभिमत है, पर सर्वजनप्रसिद्ध प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि प्रमाणोंका इस प्रकार अभाव बतलाना युक्त नहीं ; राधि प्रमाण जामः' है. जर प्रमेय - बाह्य पदार्थों का भी अस्तित्व अवश्य मानना होगा। इसी प्रकार योगाचार बौद्धोंके विज्ञानवादको भी समीक्षा की गयी है।
जगत्के स्वरूपको भ्रमअन्य माननेवाले वेदान्तदर्शनकी समीक्षा विस्तारसे की है। वेदान्तियोंका कथन है कि प्रपञ्च-संसारकी उत्पत्ति अज्ञानसे होती है, तथा ज्ञानसे उसको निवृत्ति होती है । पर अज्ञान जैसे निषेधात्मक अभावरूप तत्त्वसे जगत् जेमा भावरूप तस्व उत्पन्न नहीं हो सकता है । इसी प्रकार ज्ञान वस्तुको जान सकता है, उसका नाश नहीं कर सकता। वैदिक वाक्योंमें अनेक स्थानोपर प्रपञ्चको ब्रह्मस्वरूप कहा है। अत: ब्रह्म यदि सत्य हो, तो प्रपंच भी सत्य होगा। प्रपंचको गत्यतामें बाधक कोई प्रमाण नहीं है। ब्रह्मसाक्षात्कारसे प्रपंच बाधित नहीं होता। इस प्रकार मायावादकी समीक्षा भी विस्तारसे की गयी है।
पूर्वोक्त दार्शनिक मान्यताओंके अतिरिक्त वेशेषिक और नैयायिक द्वारा अभिमत आत्मसवंगतवादका निरसन किया गया है। वैशेषिक मतमें इन्द्रियोंको पथ्वी आदि भूतोंसे उत्पन्न माना है तथा इन्द्रियों और पदार्थों के सन्निकर्षके बिना प्रत्यक्षज्ञान सम्भव नहीं होता। अन्त में प्रत्येक कर्मके भोगे बिना मुक्ति नहीं मिलती, इस मतका निराकरण किया है, तथा ध्यानबलसे कर्मक्षयका समर्थन किया है।
न्यायदर्शनकी तत्वव्यवस्थामें प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों की गणना की गयो है। इन १६ पदार्थों की समीक्षाके अनन्तर ज्ञानयोग, भक्तियोग और क्रियायोगपर विचार किया है।
भाट्ट मीमांसक अन्धकारको द्रव्य मानते है। नैयायिकादि उसे प्रकाशका अभावमात्र कहते हैं । यहाँ इन सभी मतोंको विस्तृत समीक्षा की गयी है ।
सांख्योंके मतसे जगत्का मूल कारण प्रकृतिनामक जड़तत्व है तथा यह सत्व, रजस् आर तमस् इन तीन गुणोंसे बना है । बुद्धि, अहंकार, इन्द्रिय तथा
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्पयपोषकाचार्य : २६३
।
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचमहाभूत इन्हींसे बने हैं। किन्तु जैनदृष्टिसे बुद्धि, अहंकार ये चैतन्यमय जीवके कार्य हैं, जड़ प्रकृति के नहीं । सांख्योंका दूसरा प्रमुख सिद्धान्त है सत्कार्यबाद। कार्य नया उत्पन्न नहीं होता, कारणमें विद्यमान ही रहता है। यह प्रत्यक्षव्यवहारसे विरुद्ध है । सांस्य पुरुषको अकर्ता मानते है बन्ध और भोक्ष पुरुषके नहीं होते, प्रकृतिके ही होते हैं । इस कथनकी भी जनदृष्टि से समीक्षा की गयी है।
बौद्धाभिमत क्षणिकवादका विवेचन करते हुए लिखा है कि बौद्ध आत्मा जैसा कोई शाश्वत तत्त्व नहीं मानते । रूप, संज्ञा, वेदना, विज्ञान, संस्कार इन पांच स्कन्धोंसे ही सब कार्य होते हैं। नित्य आत्माका अस्तित्व प्रत्यभिज्ञान गद्वार:
रिसे मिकताका निरज हो जाता है । आत्मा नित्य न हो, तो मुक्तिका प्रयास व्यर्थ हो जायगा और पूमर्जम भी घटित नहीं हो सकेगा। इस प्रकार विस्तारपूर्वक क्षणिकबादकी समीक्षा की है। यह विश्वतत्वप्रकाश भी किसी ग्रन्थका एक परिचछेद ही प्रतीत होता है । सम्भवतः पूर्ण ग्रन्थ आचार्यका दूसरा हो रहा होगा।
आचार्य नयसेन धर्मामतके रचयिता आचार्य नयसनका जन्मस्थान धारवाड़ जिलेका मूलगुन्दा नामक तीर्थस्थान है । उत्तरवर्ती कवियों ने उन्हें 'सुविनिकरपिकमाकन्द' 'सुकविज नमन:सरोजराजहंस', 'वात्सल्यरत्नाकर' आदि विशेषणोंसे विभषित किया है। नयोन के गरुका नाम नरेन्द्रसेन था। नरेन्द्रसेन मुनि उच्चकोटिके तपस्वी और द्वादशांग शास्त्रके पारगामी थे। नयसेनने इन्हें सिद्धान्तशास्त्रमें जिनसेनाचार्यके समान व्याकरण और आध्यात्मिक शास्त्रके पाण्डित्यमें पूज्यपादके समान एवं तर्कशास्त्रमें सुप्रसिद्ध दार्शनिक समन्तभद्राचार्य के समान बतलाया है । इन्हें 'विद्यचक्रवर्ती' भी कहा है।
नयसेनाचार्य, संस्कृत, तमिल और कन्नड़के धुरन्धर विद्वान थे । इन्होंने धर्मामृतके अतिरिक्त कन्नड़का एक व्याकरण भी रचा है । घर्मामुतके अध्ययनसे अवगत होता है कि प्रत्यरचनाके समय ये मुनि अवस्थामें थे। इन्होंने अपनेको तर्कवागीश' कहा है तथा अपनेको चालुक्यवंशके भुवनेक्रमल्ल (शक संवत् १०६९-२०७६) द्वारा बन्दनीय कहा है। यह राजा इनकी सेवामें सदा तत्पर रहता था । नयसेनाचार्य अपने समयके प्रसिद्ध आचार्य रहे हैं। स्थिति-काल
धर्मामृतमें सन्थरचनाका समय दिया हुआ है। इससे इनका समय ई० सन्की १२वीं शतीका पूर्वार्ध सिद्ध होता है । धर्मामृतमें बताया है२६४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
--
i
गिरि शिखिवायुमार्ग संख्ययोः
लाबगगमिन्दीवत्तिषु स्तिरे । कालमुन्नतिय नन्दवत्सरोमुयुत्सवं विवशशिरद, भाद्रपदमा सलमद शुक्लपक्ष दल निरुयभप्यहस्तयुता कंवारदोल ॥
1
अर्थात् शक संवत् १०३७ भाद्रपद शुक्लपक्ष में रविवार के दिन हस्त नक्षत्रके रहने पर इस ग्रन्थका निर्माण हुआ । इस शक संवत् में ७८ जोड़ने पर ११२५ ई० सन् आता है । किन्तु नन्दसंवत्सर ई० सन् १९२१ में आता है तथा हस्ताक भी भाद्रपद शुक्ल पक्ष में इसी संवत् में पड़ता है । अतः इनका समय १९२१ ई० मानना पड़ता है |
यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि गिरिशब्दका प्रसिद्ध अर्थ सात त्याग कर चार क्यों ग्रहण किया गया है ? जैन परम्परामें गिरिशब्दका अर्थ चार ग्रहण किया गया प्रतीत होता है । यही कारण है कि ग्रन्थकर्त्ताने भी चारके अर्थ में गिरिशब्दका प्रयोग किया हो ।
रचनाएँ
नयसेनके दो ग्रन्थोंका निर्देश उपलब्ध होता है। धर्मामृत और कन्नड़ व्याकरण | धर्मामृतमें १४ रोचक कथाएं हैं । इन कथाओं द्वारा धर्मतत्वोंका उपदेश दिया गया । पहली कथा चसुभूति और दयामित्र संठकी है। इस कथामें सम्यक्त्वकी महिमा बतलायी गयी है । वसुभूति ब्राह्मणने घन के लोभसे कृत्रिम जिनदीक्षा ली। उसे मुनिदीक्षा में नाना प्रकारके कष्टोंका अनुभव हुआ । परन्तु प्रलोभनोंके कारण आठ दिन तक मुनि बना रहा। इसी बीच घटनाचक्रके बदल जानेसे लुटेरों द्वारा वसुभूति घायल हो गया । दयामित्रने उसे आत्मधर्मका उपदेश दिया । फलतः वसुभूतिको सम्यक्दर्शन उत्पन्न हो गया। सांसारिक पदार्थोंसे उसका मोह हट गया और उसे जेनधर्मकी सत्यतापर विश्वास हो गया । मृत्युके पश्चात् वसुभूतिने स्वर्गलाभ किया। कथा में सम्यक्दर्शन और श्रावक का पर्याप्त उपदेश आया है ।
दुसरी कथा निशकित अंगकी महत्ता बताने वाली ललितांगदेवकी है । इस कथासे स्पष्ट है कि पापी से पापी मनुष्यकी भी जैनधर्म द्वारा सुधार हो सकता है । इस धर्म के सिद्धान्तों का पालन ऐश्वर्यं और विभूतिको हो नहीं देता, अपितु आत्मकल्याणका कारण होता है । अर्हन्त भगवान्की भक्ति कल्पवृक्षतुल्य है । जो व्यक्ति वीतरागी प्रभुकी शरण में पहुंच जाता है, उनके आदर्श द्वारा अपनी आत्माको उन जैसा ही बनानेका प्रयत्न करता है, वह व्यक्ति निश्चय ही उन जैसा भगवान् बन जाता है। जैनदर्शनमें व्यक्तिको होन या निःशक्ति नहीं प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २६५
१८
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
माना गया है। प्रत्येक आत्मा परमात्मा है। विकारोंके दूर करनेसे आत्मा परमात्मा बन जाती है । ललितांगदेव बड़ा उपद्रवी और अधर्मात्मा था, पर निशंकित होकर आत्मघर्मका पालन करनेसे वह महान बन गया ।
तीसरी कथा नि:कांक्षित अंगकी महत्ता प्रकट करनेवाली अनन्तमतीकी है। अनन्तमतीके ऊपर कितने संकट आये, विपत्तियोंके पहाड़ गिरे, पर वह अपने कर्तव्यपथसे विचलित नहीं हुई। उसने धर्मकी आराधना किसी फलप्राप्तिकी आकांक्षासे नहीं की। प्रत्युत धर्म आत्माका स्वरूप है, अतएव धर्ममें स्थित रहना ही मानवता है, ऐसा निश्चय कर वह अपने धर्ममें सदा दृढ़ रही। अनन्समतीको कथा उसके चरित्रपर पूरा प्रकाश डालती है।
चौथी कथामें निर्विचिकित्सा अंगका समुचित पालन करनेसे क्या फल प्राप्त होता है तथा सेवाकार्य प्रत्येक व्यक्तिके जीवनको कितना उन्नत बनाता है, इसका वर्णन किया गया है । जो व्यक्ति घृणा, द्वेष, मात्सर्य आदि दुर्भावों का परित्याग कर सेवामार्गमें लग जाते हैं, वे अपना कल्याण अवश्य कर लेते हैं। राजा उदायन ऐसा ही धर्मात्मा व्यक्ति था। दान देना, सेवा करना, मानवमात्रको सहायता करना, राजा उद्दायनका जीवनवत था । उसकी आत्मा अत्यन्त निर्मल और प्रलोभनोंसे अछूती थी।
पांचवीं कथामें बमबदष्टि अंगकी महत्ता बतलायी गयी है। सच्चा विश्वास कितना फलदायक होता है, यह रेवती रानीकी दृढ़तासे स्पष्ट है। यों तो रेवती रानीको कथा अन्य ग्रन्थों में भी आयी है, पर इस ग्रन्थमें श्रावकघमके वर्णनके साथ विशेषरूपसे प्रतिपादित की गरी है । शान और चारित्र सम्यक्त्वके बिना झूठे हैं। बड़े-बड़े शानी भी सम्यक्त्वके अभावमें नरक-निगोदके पात्र बनते हैं। प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य बाह्याडम्बरोंको जीवन में सरलतासे स्थान दे देता है। धर्म और आत्माधरणके नामपर आडम्बर एवं गुरुडम जीवनको खोखला बनाकर नष्ट कर देते हैं । इस कथामें आडम्बरों और गरुडमोंको जीवनसे पृथक कर जीवनको सात्विक बनानेपर जोर दिया है । प्रत्येक विचारक व्यक्ति आत्माका शोधन करनेके लिए प्रलोभनोंका त्याग करना चाहता है, पर मोहवश वह वैसा नहीं कर पाता है। मुनि या श्रावक दोनोंको ही प्रलोभनोंका त्याग करना पड़ता है। अहंकार और ममकार बात्माके शत्रु हैं, जो इनके अधीन रहता है, वह निश्चयत: आत्मधर्मसे च्युत है । दीक्षा लेना आसान है, भावुकतामें आकर कोई भी व्यक्ति दीक्षा ले सकता है, पर उसका यथार्थ निर्वाह सब किसीसे नहीं हो सकता है। इस कथामें अभव्यसेनमुनिका जीवन चित्रित हुवा है। २६६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
I
+
T
1
छठी कथा उपगूहन अङ्गको विशेषता प्रकट करनेवाली है । इस अङ्गका पालन जिनेन्द्रदत्त सेटने किया था । प्रायः प्रत्येक व्यक्ति अपनी गलतियों और त्रुटियोंको न देखकर दूसरोंकी गलतियों और त्रुटियों को देखता है। परिणाम यह निकलता है कि हम दूसरोंकी गलतियाँ ही देखते रह जाते हैं, अपना सुधार नहीं कर पाते । उपगूह्न अंगको कथा बतलाती है कि दूसरोंके दोषोंका आच्छादन कर उन्हें मागंपर लाया जाये । घृणा हमें पापसे करना चाहिये, पापीसे नहीं ।
सातवीं कथा स्थितिकरण अंगके पालन करनेवाले वारिषेणकुमारकी है । इस कथासे स्पष्ट है कि सच्चा मित्र किस प्रकार अपने मित्रका कल्याण कर सकता है । मित्रका कार्य केवल मनोरंजन करना ही नहीं, प्रत्युत मित्रका सुधार करना है । वारिषेणकुमारने अपने मित्र पुष्पडालका कितना उपकार किया। दीक्षासे विचलित होते हुए मित्रको आत्मकल्याण में स्थिर किया । पुष्पडाल १२ वर्षो तक मुनि बने रहने पर भी अपनी भार्याके मोह में आसक्त रहा । आत्मध्यान के स्थानपर उसके रूपलावण्यका हो चिन्तन करता रहता था । कथा बड़ी ही रोचक है, बीच-बीच में दिया गया धर्मोपदेश जन्म- जरारूपी मलेरियाको दूर करनेके लिए चीनी लपेटी कुनेनकी गोली है ।
आठवीं कथा वात्सल्य अंगके धारी विष्णुकुमारको है। इस कथामे बताया गया है कि साधर्मी माईसे वात्सल्यभाव रखना, संकटमें सहायता पहुँचाना और उसके साथ हर तरहका सहयोग रखना प्रत्येक व्यक्तिके लिए आवश्यक है । जो स्वार्थवश अपना ही लाभ सोचते हैं, अन्य व्यक्तियोंके लाभालाभका विचार नहीं करते, वे मानव नहीं दानव है । मानवशब्द ही इस बातका द्योतक है कि विवेकशील बनकर प्रेमभावसे रहना तथा परोपकार में सदा प्रवृत्ति करना | धर्मद्वेष व्यक्तिको कितना नीचा गिरा देता है, यह राजा बलिके आचरण से स्पष्ट है । सहनशीलता जीवनके विकासके लिए एक आवश्यक और उपयोगी गुण है । जो व्यक्ति छोटी-सी बातको लेकर रुष्ट हो जाता है और बदला लेनेको भावनाको मनमें बैठा लेता है, वह व्यक्ति नीच प्रकृतिका है । विष्णुकुमारमुनिने वात्सल्यसे प्रेरित होकर मुनिसंघकी रक्षा की ।
नवीं कथामें प्रभावना अंगकी महत्ता बतलायी गयी है । इस अंगका पालन वज्रकुमारमुनिने किया है । प्रचलित कथाको अपेक्षा इसमें अनेक अवान्तर कथाएँ आयोजित की गयी हैं । अवान्तर कथाओंके रहनेसे कथा रोचक बन गयी है । धर्ममार्गका उद्योतन करनेके लिए प्रत्येक व्यक्तिको सदा तैयार रहना चाहिये । धर्मं वह रसायन है, जिसका सेवन कर कोई भी व्यक्ति संसार
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २६७
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
सागरसे पार करनेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है। वज्रकुमार मुनिने धर्मप्रचारके लिए संकट सहकर भी ओहिली देवीके जैन रथको चलाया । अतएव प्रत्येक व्यक्तिको धर्मात्माओंकी सेवा करना, धर्ममार्गका उपदेश देना, दुःखी और दीन प्राणियोंको धर्मका सच्चा स्वरूप समझाकर अच्छे मार्गपर लगाना चाहिये ।
दसवीं कथा अहिंसा धर्मकी विशेषता प्रकट करने वाली है। समाज और व्यक्तिको अहिंसाके द्वारा ही शान्ति प्राप्त हो सकती है। राग, द्वेष और मोहके अधीन होकर ही व्यक्ति हिंसामें प्रवृत्त होता है। सेठ गणपालकी कथा विधर्मीको कन्या देनेका विरोध करती है। दशवी कथा द्वारा धनकीति कुमार अल्पहिसाके त्यागसे ही महान बन गया, की सिद्धि की गयी है।
ग्यारहवीं कथा सत्याणुव्रतकी महत्ता बतलानेके लिए लिखी गयी है। जीवनमें अहिंसा धर्मको उसारनेके लिए सत्यका पालन करना परमावश्यक है। निध वचन, कठोर वचन और किसीके दिलको दुखानेवाले वचन असत्य वचनके अन्तर्गत हैं। असल्य भाषण करनेसे संघश्रीकी क्या दुर्गति हुई, यह इस कथासे स्पष्ट है । धनद राजाने बौद्धधर्मानुयायी संघश्रीको जैनधर्ममें दीक्षित कर भी लिया। क्ति अपने मरुके बहकाने में आकर संघश्री असत्य भाषण कर पुनः बौद्ध हो गया। असत्य भाषण के कारण संघश्रीको अन्या बनना पड़ा। जो व्यक्ति जीवन में सत्यव्रतका पालन करते हैं, उनका आत्मकल्याण होने में विलम्ब नहीं होता। ___ बारहवीं कथा तो इतनी रोचक और ज्ञानवर्द्धक है कि पाठक सत्यको प्राप्त करनेके लिए उत्सुक हए बिना नहीं रह सकता है । जीवनसत्य, जो कि कठिन आवरण में छिपा रहता है, इस कथा द्वारा प्रकाशमें आ जाता है । गलतफहमीके कारण स्वार्थवश मनुष्य कितना नीच हो सकता है, धर्मात्माओंपर कितने अत्याचार कर सकता है, यह इस कथा में वणित जिनदत्त सेठके आचरणसे स्पष्ट है । धनका मोह मनुष्यको कितना जघन्य कृत्य करनेके लिए प्रेरित करता है, यह भी इस कथामें आया है। अवान्तर कथाएँ भी बड़ी ही रोचक और आत्मशोधक हैं।
तेरहवीं कथा शीलवतको महत्ता बतलानेके लिए लिखी गयी है । इस ग्रतमें अपूर्व शक्ति है। इसके द्वारा मनुष्य अपनी आत्मशक्तिका विकास करता है। राग-द्वेषरूप विभावरिणति ब्रह्मचर्यव्रतके पालन करनेसे दूर हो जाती है । इस कथामें प्रभातिकुमार और चन्द्रलेखाका अद्भुत चरित्र चित्रित हुआ है। २६८ : शीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
चौहदवी कथामें परिग्रहके दोषोंका विवेचन करते हुए अपरिग्रहकी विशेषता बतलायो गयो है। तृष्णा और लालसा व्यक्तिको कितना बेचैन रखती है, यह इस कथासे स्पष्ट है। विषयासक्ति को लेकर मरण करनेसे व्यक्ति लियंञ्च आदि योनियोभ भ्रमण करता है । इस पाथामें बताया गया है कि राजा अनुपरिचरने मृत्युके समय परिग्रहमें आसक्ति रखने के कारण सर्पयोनिमें जन्म ग्रहण किया। अनन्तवीर्य महाराज द्वारा सम्बोधन प्राप्त होनेपर अपने शत्रसे बदला लेने की भावनाके कारण वह भवनबासी देव हुआ। गश्चात् बहाँसे ज्युत होकर इसी राजाका जीव हस्तिनापुरके राजा जयदत्तके यहाँ गरुदत्त नामका पुत्र हुआ और समय पाकर समस्त परिग्रहका त्याग कर आत्मकल्याण किया। आचार्य ने परिग्रहको समस्त पापोंका खजाना बताया है । इस एक पापर्वः कारण असंख्यात पाप करने पड़ते हैं।
इस प्रकार इस ग्रन्थमें कथाओंके माध्यमसे धर्मके महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं। श्रावकाचारको प्राय: सभी बातें इस ग्रंथमें बतायी गयी हैं । सप्ततत्त्व, षद्रव्य, पंचास्तिकाय, अष्टांग सम्यक्दर्शन, कर्मसिद्धान्त, सप्त व्यसनत्याग, अष्टमलगुण, द्वादशउत्तरगण, सल्लेखना आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन पाया है | विषय प्रतिपादन करनेकी विधि अत्यन्त सरल और सरस है। कथात्मक शैलीम धर्मसिद्धान्तोंका निरूपण किया गया है ।
वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती
आचारसारके रचयिता वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती मलसंघ पुस्तकगच्छ और देशीयगणके आचार्य हैं । आचारसार ग्रंथके अन्तमें जो प्रशस्ति दी गयी है, उससे इतना ही ज्ञात होता है कि इनके गुरु मेघचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। लिखा है
श्रीमेघचन्द्रोज्ज्वलमूत्तिकोत्तिः समस्तसैद्धान्तिकचक्रवर्ती।
श्रोवीरनन्दी कूतवानुदारमाचारसारं यत्तिवृत्तसारम् ।। ग्रंथके प्रत्येक अधिकारके अन्समें जो पुष्पिका दो गयी है उसमें भी आचार्य वारनन्दिने अपने गुरु मेषचन्द्रका उल्लेख किया है
"इति श्रीमन्मेषचन्द्रत्रविद्यदेवपादप्रसादाऽऽसादितात्मप्रभावसमस्तविद्याप्रभावसकलदिग्पत्तिकोतिनोमवीरनंदिसतांतिकचक्रवत्तिप्रणीते श्री'आचारसार' नाम्नि ग्रंथे शीलगुणवर्णनात्मको द्वादशोऽधिकारः"॥ १. आचारसार, माणिकचन्द्र ग्रन्पमाला, ग्रन्यांक ११, १२।३३ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २६९
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस प्रशस्ति और पुष्पिकावाक्यसे यह स्पष्ट है कि वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवीके गुरु मेघचन्द्र थे और इनका परिचय श्रवणबेलगोलाके अभिलेख नं० ४७ में निम्न प्रकार प्राप्त होता है
तकन्यायसुवज्रवेदिरमलार्हत्सूक्तिसन्मौक्तिक: शब्दग्रंथविशुद्धशंखलित: स्याद्वादसद्विद्रुमः । व्याख्यानांजितपोषणप्रविपुल प्रजोदवीचीचयो जीयाद्विश्रुतमेद्यचन्द्रमुनिपस्त्रविद्यरत्नाकरः ।। श्रीमूलसंघकृतपुस्तकगच्छदेशो
योद्यद्गणाधिपसुतार्किकचक्रवर्ती । द्धान्तिकेश्वरशिखामणिमेषचन्द्र
स्त्रविद्यदेव इति सद्विबुधाः स्तुवन्ति ।। सिद्धान्ते जिन-वीरसेनसदशाः शास्त्राब्जनीभास्कर: पटतर्केष्वकलंकदेवविबुधः साक्षादयं भतले । सवव्याकरण विपाश्चदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं
विद्योत्तममेधचन्द्रमुनिपो वादीभपंचाननः' । इन पद्योंसे स्पष्ट है कि वीरनन्दिके गुरु मेघचन्द्र न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त आदि सभी विषयोंके अपूर्व विद्वान् थे । उनके अनेक शिष्य थे, जिनमें प्रभाचन्द्र और शुभचन्द्र आदि कई प्रधान शिष्योंक स्मृतिलेख श्रवणबेलगोलाको शिलाओं पर अंकित हैं।
'कर्णाटकाविचारते'से अवगत होता है कि इन मेघचन्द्रने पूज्यपादके समाधितन्त्रको एक टोका लिखी है और ये अभिनव पम्प (नागचन्द्र के गुरु बालचन्द्रके सहाध्यायी थे। मेघचन्द्रको गुरुपरम्परा निम्न प्रकार है।
गोलाचार्य
अभयनन्दि
सोमदेव
सकलचन्द्र
मेषचन्द्र १. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, भिलेखसंख्या ४४, पव २८, २९, ३०
पठ ६२ । २७० : सीकर महावीर और चनको वाचार्य-परम्परा
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस ग्रंथको प्रशस्तिसे तथा श्रवणबेलगोलाके ५०वें अभिलेखसे यह भी मात होता है कि आचार्य दोरनन्दि सिमान्तचक्रवर्तीका मेघचन्द्रके साथ गुरु-शिष्यके साथ पिता-पुत्रका भी सम्बन्ध था
वैदग्ध्यश्रावधूटोपतिरतुलगुणालंकृतिर्मेघचन्द्रविद्यस्यात्मजातो मदनमहिभृतो भेदने वज्रपातः । सैद्धान्तव्यूहचूडामणिरनुपचिन्तामणिभूजनानां
योऽभूत्सौजन्यरून्द्रश्रियमवति महो वीरनन्दी मुनोन्द्रः ॥ यही पछ अभिलेखसंख्या ५० का ५० वा पद्य भी है। इससे स्पष्ट है कि मेधचन्द्रके पुत्र वीरनन्दी थे। स्थिति काल
श्रवणबेलगोलके अभिलेखसंख्या ४७,५० और ५२ से ज्ञात होता है कि आचार्य मेषचन्द्रका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ (वि० सं० १९७२) में और उनके शुभचन्द्रदेवनामक शिष्यका स्वर्गवास शक संवत् १०६२ (वि० सं०१२०३) में हुआ था तथा उनके द्वितीय शिष्य प्रभाचन्द्रदेवने शक संवत् १०४१ (वि० सं० ११७६) में एक महापूजा प्रतिष्ठा करायी थी। इससे प्रतीत होता है कि आचारसारके कर्ता पौरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती इसी समयके लगभग अर्थात् ई० सन्की १२वीं शताब्दीके पूर्वाधमें हुए होंगे।
'कर्णाटकविचरिते' के अनुसार नागचन्द्रका समय वि० सं० ११६२ के लगभग निश्चित किया गया है और इनके गुरु बालचन्द्रको मेघचन्द्रका सहा. ध्यायी बताया है। अतएव स्पष्ट है कि मेधचन्द्रके शिष्य वीरनन्दीका समय ई० सन्की १२वीं शताब्दीका मध्य भाग है।
प्रस्तुत वीरनन्दि 'चन्द्रप्रभचरित' के कर्ता आचार्य वीरनन्दिसे भिन्न हैं। अभयनन्दिके शिष्य और गुणनन्दिके प्रशिष्य थे। रचना-परिचय
वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीको एक हो कृति प्राप्त है-'आचारसार' । इसमें मुनियोंके आचारका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। ग्रन्थ १२ परिच्छेदोंमें विभक्त है। ग्रन्थका प्रमाण स्वयं ही ग्रन्थकाने बताया है
अन्थप्रमाणमाचारसारस्य श्लोकसम्मितम् ।
भवेत्सहनं द्विशतं पंचाशचनांकतस्तथा ॥ १. बापारसार, १२।३२ । २. वही, अन्तिम पर।
प्राचार्य एवं परम्परापोवफाचार्य : २७१
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम अधिकार में ४९ पद्य हैं और २८ मूलगुणों का कथन आया है। द्वितीय अधिकार में ९४ पद्य हैं और मुनिके रहन-सहन आचार-विचार, क्रिया-कलाप आदिका वर्णन किया गया है। तृतीय अधिकार में ७५ पद्य हैं और दर्शनाचारका वर्णन आया है। चतुर्थ अधिकारमें ए७ पद्यों द्वारा नाफाका कर्म किया गया है । पंचम अधिकारमें १५१ पद्म हैं और चारित्राचारका विस्तारपूर्व निरूपण किया गया है । षष्ठ अधिकारमें १०२ पद्म हैं और तपाचारका वर्णन आया है । सप्तम अधिकारमें २६ पद्य हैं और बीर्याचारका कथन किया है । अष्टम अधिकार में ८४ पद्य हैं और अष्टशुद्धियों का विस्तारपूर्वक कथन आया है | नवम अधिकारमें स्वाध्याय पर्व कर्त्तव्य एवं समताका वर्णन आया है दशम अधिकारके ६३ पद्यों में ध्यानका वर्णन है। एकादश अधिकार में १९० पद्य हैं और जीव तथा कर्मीको प्ररूपणा की गयी है । द्वादश अधिकार में ३३ पद्य है और शीलका वर्णन आया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ मुनियोंके आचार-विचारको अवगत करने के लिए उपादेय है । पंचाचार और बडावश्यकोंका मूलाचारके समान ही वर्णन आया है । व्यवहारचर्याके वर्णन में कतिपय नवीन बातें भी सम्मिलित को गया हैं, जिनका सम्बन्ध लोकाचार के साथ है।
आचार्य श्रुतमुनि
1
श्री डॉ० ज्योतिप्रसादजीने १७ श्रुतमुनियोंका निर्देश किया है । पर हमारे अभीष्ट आचार्य श्रुतमुनि परमागमसार, त्रिभंगी, मार्गणा, आसव, सत्तात्रिच्छित्ति आदि ग्रन्थोंके रचयिता हैं । ये श्रुतमुनि मूलसंघ देशीगण पुस्तकगच्छ और कुन्दकुन्द आम्नायके आचार्य है । इनके अणुव्रतगुरु बालेन्दु या बालचन्द्र थे। महाव्रतगुरु अभय चन्द्र सिद्धान्तदेव एवं शास्त्रगुरू अभयसूरि और प्रभाचन्द्र थे | आस्रवत्रिभंगो के अन्त में अपने गुरु बालचन्द्रका जयघोष निम्न प्रकार किया है
इदि मग्गणासु. जोगो पच्चयभेदो मया समासेण | कहिदो सुदमुणिणा जो भावइ सो जाइ अप्पसुहं ॥ पयकमलजुयलविणमियविणेय जणकयसुपूयमाहप्पो । णिज्जियमयणमहावो सो बालिदो चिरं जयक ॥ आरा जैन सिद्धान्त भवनमें भावत्रिभंगीकी एक ताड़पत्रीय प्राचीन प्रति
१. जैन सन्देश, शोषक १० पृ० ३५८-६१ ।
२. मानव-त्रिभङ्गी, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, ग्रन्यांक २०, पद्म ६१,६२, पु० २८३ ।
२७२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य-परम्परा
I
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
है, जिसमें मुद्रित प्रतिको अपेक्षा निम्नलिखित सात गाथाएं अधिक मिलती हैं । इन गाथाओंपरसे ग्रन्थरचयिताके समयके सम्बन्धमें जानकारी प्राप्त होती है--
''अणुवदगुरुबालेंदु महथ्वदे अभयचंदसिद्धति । सत्थेऽभयसूरि-पहाचंदा खलु सुयमुणिस्त गुरू ।। सिरिमूलसघदेसिय पुत्थयगच्छ कोंडकुंदमुणिणाहं (?) । परमण्ण इंगलेसबम्मिजादमुणिपहदाहाण) स्स ।। सिद्धताहयचंदस्स य सिस्सो बालचंदमणिपवरो। सो भवियकूचालयाणं आणंदकरो सया जयत ।। सदागम-परमागम-तमकागम-निरवसेसवेदो हु । विजिदसयलण्णवादी जयउ चिर अभयसरिसिद्धति ॥ गयणिक्खेवपमाणं जाणित्ता विजिदसयलपरसमझो। वरणिवइणिवद्वंदियपयपम्मो चारुकित्तिमुणी ॥ णादणिखिलत्थसत्यो सयलणरिदेहिं पूजिओ विमलो। जिणमग्गगमणसूरो जयउ चिरं चारकित्तिमुणी ।। वरसारत्तयणिउणो सुइं परओ वियिपरभाओ।
भवियाणं पडिबोहर्षयरो पहाचंदणाममुणो॥ इन गाथाओंसे स्पष्ट है कि देशीयगण पुस्तकगच्छ इंगलेश्वरबलीके आचार्य अभयचन्द्रके शिष्य बालचन्द्रमुनि हुए । आचार्य अभयचन्द्र व्याकरण, परमागम, तर्क और समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता थे। इन्होंने अनेक नादियोंको पराजित किया था। गाथाओंमें आये हुए आचार्यों पर विचार करनेसे इनके समयका निर्णय किया जा सकता है ।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंके अनुसार श्रुतमुनि अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य थे । इनके शिष्य प्रभाचन्द्र हुए और उनके प्रिय शिष्य श्रुतकीर्तिदेव हए । इन श्रुतकीतिका स्वर्गवास शक संवत् १३०६ (ई० सन् १३८४) में हुआ ! इनके शिष्य आदिदेव मुनि हुए।पुस्तकगच्छके श्रावकोंने एक चैत्यालयका जीर्णोद्धार कराकर उसमें, उक्त श्रुतकीर्तिकी तथा सुमतिनाथ तीर्थरको प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की थी।' ___ बालचन्द्रमुनिने श्रुतमुनिको श्रावकधर्मकी दीक्षा दी थी । आस्रवत्रिभंगीमें धुतमुनिने इनका स्मरण किया है।
अभयचन्द्र-ये मूलसंघ देशीयगण पुस्तकगच्छ और कुन्दकुन्द आम्नायके १. एपि कर्णा० ४, हनसूर, १२३ ।
प्रबुखाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २७३३
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य थे और इङ्गलेश नामक स्थानके मुनियोंमें प्रधान थे। ये व्याकरण, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र आदि विशेष विषयोंके ज्ञाता थे । बालचन्द्रभुनि इनके शिष्य थे। श्रुतमुनिने इनसे मुनि-दीक्षा ली थी और शास्त्राध्यया भी किया था।
प्रभाचन्द्र-समयसार, पञ्चास्तिकाय और प्रवचनसारके ज्ञाता थे, परभावोंसे रहित थे और भजनोंको प्रतिबोधित करनेवाले थे ! ये शनमुनिके विद्यागुरु थे।
चारुकीर्ति - ये नय, निक्षेप और प्रमाणके ज्ञाता, समस्त परवादियोंको जीतनेवाले, बड़े-बड़े राजाओं द्वारा पूजित और समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता थे।
'कर्णाटककविचरिते' के कर्त्ताने श्रतमुनिके गुरु बालचन्द्रका समय वि० सं०१३३० के लगभग बताया है। उनका अभिमत है कि बालचन्द्रमुनिने शक संवत् ११९५ में द्रव्यसंग्रहको एक टोका लिखी है और उसमें उन्होंने अपने गुरुका नाम अभयचन्द्र लिखा है । इससे सिद्ध है कि श्रुतमुनिका समय ई. सन् की १३वीं शताब्दी है। श्रवणबेलगोलामें श्रुतमुनिकी निषद्यापर मंगराज कविका एक ७५ पद्योंका विशाल संस्कृत अभिलेख है। यह निषद्या शक संवत् १३५५ (वि० सं० १४९०) में प्रतिष्ठित की गयी है । इसमें प्रधानतः श्रुतकीति, चारुकीति, योगिराट् पण्डिताचार्य और श्रुतमुनिकी महिमावा वर्णन आया है। यह निषद्या श्रुतमुनिके १०० या १२५ वर्ष पश्चात् प्रतिष्ठित की गयो होगी। अतः श्रुतमुनिका समय ई० सन् की १३वीं शताब्दीका अन्तिम भाग है। रचना-परिचय
श्रुतमुनिको तीन रचनाएँ प्राप्त होती है१. परमागमसार २. आस्रवत्रिभनी ३, भावत्रिभनी
१. आस्रवत्रिभङ्गीमें ६२ गाथाएँ हैं। आस्रवके ५७ भेदोंका गुणस्थानोंमें कथन किया गया है तथा सन्दृष्टि भी दी गयी है। इसी प्रकार योग, कषाय आदिका भी गुणस्थानक्रमसे वर्णन आया है।
२. भावत्रिभङ्गीमें ११६ गाथाएं हैं । पर जैनसिद्धान्त भवन आराकी प्रतिमें इसके आगे प्रशस्तिमूलक सात गाथाएँ भी मिलती हैं। इस ग्रन्थमें गणस्थान और मार्गणाक्रमानुसार भावोंका वर्णन आया है। औपशामक, क्षायिक, क्षायोपमिक, औदयिक और परिणामिक इन भावोंका विशेष वर्णन किया गया
२७४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। पांच ज्ञानोंमें कौन क्षायिक होते हैं और कौन क्षायोपमिक, इस वर्णनके पश्चात् मिथ्यात्वगुणस्थानमें कौन-कौनसे ज्ञान रहते हैं तथा शेष गुणस्थानोंमें कौन-कौनसे ज्ञान सम्भव हैं । इसी प्रकार चक्षु-दर्शन, अचक्षु-दर्शन, अवधि-दर्शन और केवलज्ञान-दर्शनका भी कथन किया है। गुणस्थान और मार्गणा प्रत्ययोंमें भावोंको अवगत करनेके लिए यह ग्रन्थ उपयोगी है।
३. परमागमसारग २३० गाथाएं हैं और आगमके स्वरूप तथा भेद-प्रभेदोंका वर्णन आया है। श्रुतमनिकी ये तीनों रचनाएँ उनके सिद्धान्तज्ञानका महत्त्व प्रकट करती हैं। इन रचनाओं पर गोम्मटसार कर्मकाण्ड और जीवकाण्डका प्रभाव पूर्णतया ज्ञात होता है । भावविभङ्गी में पांचों भावोंके उत्तर भेदों से किस स्थानमें कितने भाव होते हैं और कितने नहीं होते और कितने भाव उसी स्थान में होकर आगे नहीं होते इन तीनों बातोंका स्पष्टीकरण किया है। इसी कारण इस ग्रन्थका नाम त्रिभंगी है। इसी प्रकार आस्रवप्रत्यय किस गुणस्थानमें कितने होते हैं, कितने नहीं होते और कितने प्रत्यय उसी गुणस्थान तक होते हैं, आगे नहीं होते इन तीनोंका कथन किया है। दोनों त्रिभंगी ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला ग्रन्थसंख्या २० में प्रकाशित हैं।
आचार्य हस्तिमल्ल
___ जिस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय में रामचन्द्र नाटककारके रूपमें ख्यात हैं, उसी प्रकार दिगम्बर सम्प्रदायमें हस्तिमल्ल । हस्तिमल्ल वत्स्यगोत्रीय ब्राह्मण थे और इनके पिताका नाम गोविन्दभट्ट था। ये दक्षिण भारतके निवासी थे। विक्रान्तकौरबकी' प्रशस्तिसे अवगत होता है कि गोविन्दभट्टने स्वामी समन्तभद्र के प्रभावसे आकृष्ट होकर मिथ्यात्वका त्याग कर जैनधर्म ग्रहण किया था। गोविन्दभट्टके छह पुत्र थे--१. श्रीकुमारकवि, २. सत्यवाक्य, ३. देवरवल्लभ, ४. उदयभूषण, ५. हस्तिमल्ल और ६. वर्तमान ! ये छहों पुत्र कवीश्वर थे।
हस्तिमल्लके सरस्वतोस्वयंवरवल्लभ, महावितल्लज और सूक्तिरत्नाकर
गोविन्दभट्ट इत्यासीद्विद्वान्मिथ्यात्वजितः । देवागमनसूत्रस्य श्रुत्या सद्दर्शनान्धितः ॥१०॥ --विक्रान्तकौरवप्रशस्ति ।
श्रीकुमारकनिः सत्यवाक्यो देरवल्लभः ॥१२॥ -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति । उच्चभूषणनामा च हस्तिमल्लाभिधानकः । वर्धमानकविश्चेति षडभूवन् कवीश्वराः ।।१३।। -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २७५
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरुद थे। उनके बड़े भाई सत्यवाक्यने कविता साम्राज्यलक्ष्मीपति कहकर हस्तिमल्लकी सूक्तियोंकी प्रशंसा की है । 'राजावलिकथे' के कर्त्ताने उन्हें 'द्वयभाषा कविचक्रवर्ती' लिखा है ।
प्रतिष्ठासारो द्वार के रचयिता ब्रह्मसूरिने अपने वंशका परिचय देते हुए लिखा है कि पाण्डवदेश में गुडिपत्तनके शासक पाण्डय नरेन्द्र थे । ये पाण्डय राजा बड़े धर्मात्मा, वीर, काकुशल और पण्डितों का सम्मान करते थे। वहाँ ऋषभदेवका रत्न स्वर्णजटित सुन्दर मन्दिर था, जिसमें विशाखमन्दि आदि मुनि रहते थे । गोविन्द भट्ट भी यहीं निवास करते थे ।
हस्ति पुत्रका नाति बताया जाता है जो कि पिता के समान ही यशस्वी और बहुशास्त्रज्ञ था । बहु अपने वशिष्ठ काश्यपादि बन्धुओंके साथ होयसल देशकी राजधानी छत्रत्रयपुरोमें जाकर रहने लगा। पार्श्वपण्डित चन्द्रप, चन्द्रनाथ और वैजय पुत्र हुए। चन्द्रपके पुत्र विजयेन्द्र और उनके पुत्र इन्द्रसूरि हुए। अतएव स्पष्ट है कि गुडिपत्तनद्वीप वत्तंमान तजौर जिलान्तर्गत दीपनगुडि स्थान ही है । नाटककार हस्तिमल्ल इसो स्थानके निवासी थे । हस्तिमल्ल गृहस्थावस्था में पुत्र-पौत्रादिसे समन्वित थे । इनका यह वास्तविक नाम नहीं है । यह उपाधिप्राप्त नाम है। वास्तविक नाम मल्लिषेण था । आपटेने दक्षिणके ग्रन्थागारोंके ग्रन्थोंकी जो सूची तैयार की थी, उसमें मल्लिषेण और हस्तिमल्ल ये दोनों नाम मिलते हैं। मल्लिषेण नाम सेनगणीय आचार्योंको परम्परामें अपनेको सम्मिलित करने का सूचक है, क्योंकि दक्षिण में उन दिनों से नगणोय आचार्यों की बड़ी प्रतिष्ठा' थी । परवादीरूपी हस्तियों को वश करनेके कारण हस्तिमल्ल यह उपाधिनाम पीछे प्रसिद्ध हुआ होगा ।
हस्तिमल्ल युवावस्था में उद्धत और अभिमानी थे, यह विक्रान्तकौरवकी प्रस्तावना से स्पष्ट है । वे अपनेको सरस्वती द्वारा स्वयं वृत्तपत्ति समझते हैं । निःसंदेह • हस्ति मल्ल भ्रमणप्रिय थे । यही कारण है कि सुभद्रानाटिका में भ्रमणको उन्होंने पुरुषोंका सुख मौना है । पिताको आशाको ये अलंघ्य मानते ४ थे । ये अपने प्रारम्भिक जीवन में कौतिके अभिलाषी थे। इन्होंने अपने जीवनमें १. सूत्रधार अस्ति किल सरस्वतीस्वयंवरवल्लभेन भट्टारगोविन्दस्वामिसूनुना हस्तिमल्लनाम्ना महाकवि तल्लजेन विरचितं विक्रान्तकौरवं नाम रूपकमिति । -विक्रान्तकौरवप्रशस्ति, पृ० ३, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई १९७२ ।
P
२. प्रशस्ति संग्रह, आरा, पृ० १०५ ।
३. नानादेशपरिभ्रमो नामकं सौख्यं पुरुषस्य सुभद्रा नाटिका, पृ० २। ४. पितः स्तु संकेतमलंघनीयं – विक्रान्तकौरव, ७४१५ ।
२७६ : तीर्थंकर महावोर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोति प्राप्त भी की। इन्हें भाग्यवादी भी माना जा सकता है। इसका कारण यह है कि पहले राज्य द्वारा तिरस्कृत हुए, पश्चात् इन्हें सम्मान प्राप्त हुआ। सभी नाटकोंमें भाग्य और पूर्वजन्ममें किये गये कर्मोको मान्यता प्रकट करनेवाले अनेक स्थल आये 1 इनके नाटकोंके अध्ययनसे अवगत होता है कि आचार्यहस्तिमल्ट, बहभाषाविद्, कामशास्त्रज्ञ, सिद्धान्ततर्क विज्ञ एवं विविध शास्त्रोके ज्ञाता थे। संगीतगास्त्रको अनेक महत्त्वपूर्ण वातें विक्रान्तकोग्व और मैथिलीकल्याण में आती हैं। गुरुपरम्परा
विक्रान्सकौरवमें जो वंशपरम्परा दी है, उससे इनके समय एवं गुर्वावलोपर प्रकाश पड़ता है । वंशपरम्परा निम्न प्रकार है
समन्तभद्र
शिवकोटि
शिवायन
वीरसेन
जिनसेन
गुणभद्र
अन्यशिष्य
गोविन्दभट्ट
(पुत्र) हस्तिमल्ल नेमिचन्ददेवने प्रतिष्ठातिलकमें जो वंशपरम्परा दी है वह निम्न प्रकार है
चीरसेन
जिनसेन
वादीसिंह
वादिराज
हस्तिमल्ल
प्रबुद्धाचार्य एवं परमरापौषकाचार्य : २७७
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
परवादिमल्ल
लोकपालाचार्य
समयनाथ
कविराजमल्ल
चिन्तामणि
अनन्तवीर्य
पायनाथ
आदिनाथ
जहादेव
देवेन्द्र
आदिनाथ नेमिचन्द विजयप यह वंशपरम्परा प्रस्तुत हस्तिमल्लकी है, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता। यदि इन्हीं हस्तिमल्लकी है, तो उनके दो पुत्र होने चाहिये एक पाश्वपण्डित और दूसरा परवादिमल्ल । पाचपण्डिसकी परम्परामें ब्रह्मसूरि और परवादिमल्लकी परम्परामें नेमिचन्द माने जायेंगे। ___ अय्यपार्य द्वारा जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदयमें जो वंशपरम्परा दी गयी है वह गुरुशिष्य परम्परा है । हस्तिमल्लके पूर्वकी तो वही परम्परा है, जो हस्तिमल्ल और ब्रह्मसूरि द्वारा दी गयी है। हस्तिमल्लके पश्चातकी गुरु-शिष्यपरम्परा निम्नप्रकार है
१. हस्तिमल्ल २. गुणवीर सूरि ३. पुष्पसेन ४. करुणाकर
५. (पुत्र) अय्यपार्य २७८ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
विक्रान्तकौरवमें जो गुरु-शिष्यपरम्परा दी गयी है उसके अनुसार समन्तभद्रकी शिष्य-परम्परामें शिवकोटि और शिवायन हए । शिवायन शिवकोटिका छोटा भाई था और इनकी परम्परामें वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, अन्य शिष्य गोविन्दभट्ट और हस्तिमल हुए। अतएव संक्षेपमें यह माना जा सकता है कि हस्तिमल्ल सेनसंघके आचार्य हैं और ये वीरसेन और जिनसेनकी परम्परामें हुए हैं। स्थितिकाल
'कर्णाटककविचरिते के अनुसार कवि हस्तिमल्लका समय वि० सं० १३४७ (ई. सन् १२९०) है । अय्यपार्य नामक विद्वानने जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदयनामक अन्य वस्तुनन्दिप्रतिष्ठापाठ, इन्द्रनन्दिसंहिता, आशाधरप्रतिष्ठापाठके आधारपर लिखा है। यह जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय वि० संवत् १३७६ ई० मन १३१९) में रचा गया है । अतः इस्तिमल्लके समयकी उत्तरवर्ती सीमा ई० सन् १३१९के पश्चात नहीं हो सकती । हस्लिमल्लकी पूर्ववर्ती समयसीमा गणभद्राचार्यक बाद ही होना चाहिये। इनके प्राप्त नाटकोंकी कथावस्तुका आधार 'महापुराण' और 'पद्मचरित' है । अतएव इनका समय ई० सन्की ९वीं शतीके पूर्व सम्भव नहीं है। श्री एम० कृष्णभाचार्यरने अपनी History of classical anskrit Hae.taketx. में ऋमिन्फरे, माया विचार करते हुए लिखा है
"Hiy fatlıcr was a remote disciple of Gunabhadra, the disciple of Jinasena who lived about Saka 705. Hastimalla probably lived in the 9th Century A.1)."
अतः स्पष्ट है कि हस्तिमल्लके पिता गणभद्रके शिष्य थे। इस कारण हस्तिमल्लका समय गुण भद्रके पश्चात् और ई० सन् १३१९के पूर्व होना चाहिये । अब विचारणोय यह है कि हस्तिमल्लको इस समयसीमाके बीच कहाँ रखा जाय? हस्सिमल्ल पाण्डयनरेश द्वारा सम्मानित थे तथा सुन्दरपाण्डयने, जो कि पाण्डयनरेशका उत्तराधिकारी था, कविका सम्मान किया था। सुन्दरकाण्डयका राज्यकाल वि० सं० १२०७१ ई० सन् १२५०) है । अतएव इनका समय ई० सन की १३वीं शताब्दी होना चाहिये। श्री वासुदेव पटवर्धनने अपनी अंग्रेजी प्रस्तावनामें निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है
"In Conclusion the only thing we can say about Hastimalla's १. History of classical Sanskrit literature. Madras 1937, Page
641-42.
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २७९
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
date is that he livedl souctimes between the end of the 9th and the end of the 13111 century AD."
अप्पार्य नामक चिद्गानने मन् १३२० में अपना प्रतिष्ठापाठ लिखा है । उन्होंने इसकी आरम्भिक प्रशस्ति में पण्डित आशाधर और हस्तिमल्लके नामका उल्लेख किया है। उस प्रशस्तिमें यद्यगि आशाधरका उल्लेख पहले और हस्तिमल्लका उल्लेख आशाधरके पश्चात् आया है, इससे इन दोनोंका समकालीन होना सिद्ध होता है । अतएव हमारी नम्र सम्मतिके अनुसार हस्तिमल्लका समय वि० संवत् १२१७-१२३७ (ई. सन ११६१-१९८१) तक माना जाना चाहिये ।
रचना
उभयभाषाकविचमा माघार्य ही मह निकालिखित चा नाटक और एक पुराण ग्रन्थ प्राप्त है। इनके द्वारा विरचित एक प्रतिष्ठापाठ भी बताया जाता है।
विक्रान्तकौरव-इस नाटकमें छह अङ्ग हैं। महाराज सोमप्रभके पूत्र कौरवेश्वरका काशीनरेश अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाके साथ स्वयम्बरविषिसे विवाह सम्पन्न होनेकी कथावस्तु वर्णित है । कविने सुलोचना और कौरवेश्वरके प्रेमाकर्षणका सुन्दर चित्रण किया है।
जब स्वयंवरमें सुलोचना कौरवश्वरका वरण कर लेती है, तो चक्रवर्ती भरतका पुत्र अर्ककीति काशीनरेशसे रुष्ट हो जाता है। राजा अकम्पन अपनी छोटी पुत्री रत्नमालाके साथ विवाह कर देना चाहता है, पर अकीर्ति सहमत नहीं होता। फलतः कोरवेश्वरका अर्ककोतिके साथ युद्ध होता है, जिसमें अर्ककीर्ति परास्त हो जाता है। महाराज अकम्पन इस युद्धसे बहुत ही चिन्तित हैं। इसी बीच चक्रवर्तीका सन्देश प्राप्त होता है, जिसमें वे अर्ककोतिके अनुचित व्यवहारकी भर्त्सना करते हैं। फलतः अर्ककीर्ति अकम्पनके प्रस्तावको स्वीकार कर लेता है और रत्नमालाके साथ उसका विवाह सम्पन्न हो जाता है । अनन्तर अकम्पन कौरदेश्वरके साथ सुलोचनाका विवाह भी सम्पन्न कर देता है।।
नाटककारने कथावस्तुका संघटन नाटकीय सिद्धान्तोंके आधारपर किया है। इसमें प्रारम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम नामक पाँचों अवस्थाएं घटित हुई हैं। कथावस्तुका क्रमनियोजन सरलरेखाके रूप में सम्पन्न नहीं हुआ है । कथाका क्रम वक्ररेखाके रूपमें गतिशील होकर उद्देश्यको प्राप्त १. 'अन्जनापवर्नजयं नाटक सुभद्रा नाटिका च'का Introduction, Fage 14,
माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई १९५० । २८० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
हुआ है। नायक धीरोदात्त और तिनाया तोड़ा। कनिने रोदनुभूतिमें सहायक मानवीय व्यापारों और उनके परस्पर सम्मिलित संघर्षोंका वर्णन किया है। कथावस्तुका अन्तिम लक्ष्य ऐहिक सिद्धि है। कविने भरत बाक्यमें काम और धर्म दोनों पुरुषार्थो की प्राप्तिकी कामना की है।
२. मैथिलीकल्याणम् --यह पांच अंकोंका नाटक है। इसमें बताया गया है कि वसंतोत्सबके अवसरपर सीता उपवनमें कामदेवके मन्दिर के निकट झला शलते ममय रामके अपूर्व सौन्दर्यका दर्शन कर अभिभूत हो जाती हैं और राम भी सीताके दर्शनसे प्रेमविह्वल होते हैं। माधवी बनमें पुन: सीता और रामका साक्षात्कार होता है। इस प्रकार कविने स्वयं बरके पूर्व राम और सीताके मिलनाकर्षणका सुन्दर चित्रण किया है। स्वयम्वरमें बचावतं धनुषके तोड़ने की शर्त रखो जाती है 1 अनेक राजा धनुषपर अपनी शक्ति आजमाते हैं. पर उनके प्रयत्न विफल हो जाते हैं। राम सहजभावसे आकर धनुषकी प्रत्यञ्चाको चढ़ाते हैं और धनुष टूट जाता है। जनक रामके साथ सीताका विवाह कर
३. अजनापवनंजय-इसमें सात अंक हैं। विद्याधरराजा प्रहलादके पुत्र पवगंजय एवं विद्याधरकुमारी अजनाके बिवाहका वर्णन है। महेन्द्रपुरके राजमहलमें अञ्जना अपनी सखी वसंतमाला और मधुलिका तथा मालतो नामक परिचारिकाओं के साथ प्रवेश करती है। उनकी चर्चा का विषय है निकट भविष्यमें होनेवाला स्वयंवर तथा उसका परिणाम | पवनंजय छिपकर अपने मित्र विदषकके साथ राजमहलमें सस्त्रियोंके वार्तालापको सुनता है और उसे यह मिथ्या विश्वास हो जाता है कि अजना उससे वास्तविक प्रेम नहीं करतो । अतः विवाहके पश्चात् अञ्जनाका परित्याग कर देता है। वरुणके विरुद्ध रावणको सामरिक सहायता देनेके लिए पवनंजय जाता है। वह वहाँ कुमुदवतीके तीरपर चक्रवाकीको कामाभिभूत देख अञ्जनाकी स्मतिसे आकुलित हो जाता है । फलतः वह विमान द्वारा आदित्यपुरमें आता है और अंजनाके भवन में रात्रि व्यतीत कर प्रातःकाल होनेके पूर्व ही समरभूमिको चला जाता है। अजनाके प्रकट होते हुए गर्भाचल्लोंको देखकर, उसपर दुराचारिणी होनेका अभियोग लगाया जाता है। अजनाको घरसे निर्वासित कर दिया जाता है। कूमार जव विजयसे लौटकर आता है, तो अञ्जनाको न पाकर बहुत दुःखी होता है और उसकी तलाशमें निकल पञ्जता है। किसी प्रकार दोनोंका मिलन होता है। ४. सुभद्रानाटिका-इस नाटिकामें चार अंक हैं। महारानी बेलासी महा
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २८१
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
राज भरत और सुभद्राके प्रेममें विघ्न बनती है । सुभद्रा और भरतका प्रेमाकर्षण अर्निश वृद्धिंगत होता जाता है । अन्तमें नमि अपनी बहिन सुभद्राका विवाह भरत महाराजके साथ यह कहकर सम्पन्न करते हैं कि ज्योतिषियोंने यह भविष्यवाणी की है कि सुभद्राका विवाह जिसके साथ सम्पन्न होगा, वह चक्रवर्ती बनेगा । महारानी बैलाती पति-अभ्युदयको सुनकर उक्त प्रस्तावसे सहमत हो जाती है और सुभद्राका विवाह भरतके साथ सम्पन्न हो जाता है ।
५. आदिपुराण-जैन सिद्धान्त भवन आरा ग्रन्थागारमें इस ग्रन्थकी पाण्डलिपि वर्तमान है । कथावस्तु जिनसेनके आदिपुराणके समान ही है ।
उपर्युत चार नाटफोंके अतिरिक्त १. उदयनराज २. भरतराज, ३. अर्जुन राज और ४. मेघेश्वर ये चारनाटक और इनके द्वारा विरचित्त माने जाते हैं | भरतराज सम्भवतः सुभद्रानाटिका और मेघेश्वर विक्रान्तकौरवका ही अपरनाम है। उदयनराज और अर्जुनराज इन दो नाटकोंके सम्बन्धमें अभी तक यथार्थ जानकारी उपलब्ध नहीं है। आचार्य हस्तिमल्ल अत्यन्त प्रतिभाशाली और वहुशास्त्रज्ञ विद्वान् हैं |
आचार्य माघनन्दि जैन साहित्य में माघनन्दि नामके तेरह आचार्योका उल्लेख प्राप्त होता है । १. एक आचार्य कुन्दकुन्दके आम्नायमें कुलभूषणके शिष्य माधनन्दिका उल्लेख आता है। यह गुरु-शिष्यपरम्परा निम्न प्रकार है
कुलभूषण माघनन्दि शुभचन्द्रत्रविद्य चारुकोतिपण्डित माघनन्दिनतो
अभयचन्द्र
बालचन्द्रपण्डित
रामचन्द्र २. दूसरे माधनन्दिवती चारुकीति पण्डितके शिष्य हैं। ३. तीसरे माघ२८२ : तीथंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
नन्दि कोल्हापुरीय हैं जो कुलचन्द्रदेवके शिष्य थे | इनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार है
गोल्लाचार्य काल्ययोगों
अविद्धकर्ण पमनन्दि (कौमारदेव)
कुलभूषण
प्रभाचन्द्र
कुलचन्द्रदेव
माघनन्दि मुनि (कोल्हापुरीय) गण्डविमुक्त देव
!. ... .-.भानुकोति
देवकोत्ति (स्वर्ग० १०८५ ४. मातुर्म माघान्ति मू: येसोग र सुन्दकुन्दान्वयके हैं। इस आम्नायमें देवेन्द्र सिद्धान्तदेवके पश्चात् चतुर्मुखदेवका द्वितीय नाम वृषभनन्द्याचार्य दिया है। चतुर्मुखदेवके शिष्योंमें महेन्द्रचन्द्र पण्डितदेवका नाम प्रसिद्ध है । माघनन्दिके शिष्योंमें त्रिरत्ननन्दिका नाम अधिक प्रसिद्ध है । श्रवणबेलगोलाके ५५वें अभिलेखमें चतुर्मुखदेवके ८४ शिष्योंके नाम आये हैं। इन्हीं शिष्योंमें एक माघनन्दि भी हैं । ५. पंचम माघनन्दि गुप्तिगुप्तके शिष्य हैं । इनकी गुरुपरम्परामें भद्रबाहुके शिष्य गुप्तिगुप्त, गुप्तिगुप्तके शिण्य मावन्दि, माघनन्दिके शिष्य जिनचन्द्र और जिनचन्द्रके शिष्य कुन्दकुन्द बताये गये हैं। ये माघनम्दि धृतज्ञानियोंमें परिगणित हैं। ६. छठे माधनन्दि नयकीतिके शिष्य हैं। इनका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके अभिलेखसंख्या ४२, १२४ और १२८में आया है। बताया है
"गाम्भीर्ये मकराकरो वितरणे कल्पद्रुमस्तेजसि प्रोचण्ड-झुमणिः कलास्वपि शशी धैर्ये पुनमंन्दरः । सोनी-परिपूर्ण-
निर्मल-यशो-लक्ष्मी - मनोरञ्जनो भास्यस्यां भुवि माधनन्दिमुनिपो भट्टारकाग्रेसरः॥" १. जैन शिलालेखसंग्रह प्रथम भाग, अमिलेखसंख्या ४२, पद्यसंस्था ३६, पृ. ४० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २८३
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस पद्य में माघनन्दिको समद्रके समान गम्भीर, कल्पवृक्षके समान दानशील, सूर्यके समान तेजस्वी, चन्द्रमाके समान कलपवान्, मन्दराचल के समान धैर्यशील और समस्त पृथ्वी में निर्मल यशस्वी प्रकट किया गया है। ७. सप्तम माघनन्दि श्रीधरके शिष्य हैं। श्रवणबेलगोलाके ४२वें अभिलेखमें बताया है कि ये माधनन्दि सिद्धान्तचक्रेश्वर कहलाते थे। ८. अष्ठम माधनन्दि मूलसंघ देशोय. गण पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वयके हैं। इनका निर्देश निम्नलिखित अभिलेख में आया है__ 'स्वस्ति थोमलसंघदेशियगण-पोस्तकगच्छद कोण्डकुन्दान्वय कोल्लापुरद सावन्तन बसदिय प्रतिबद्धद श्री माघनन्दि-सिद्धान्त-देवर शिष्यरु शुभचन्द्र
विद्य-देवर शिष्यरप्प मागरणन्दि-सिद्धान्तदेवरिगे वसुधैक-बान्धव श्री करणाद रेचिमय्यदण्डनायकरु शान्तिनाथ-देवर प्रतिष्ठेयं माडियारा पूर्वक कोट्टरु।" ९. नवम माधर्नान्द योगीन्द्र हैं। इन्होंने शास्त्रसारसमुच्चय नामक ग्रन्धको रचना की है। इस ग्रन्थ के अन्त में एक पद्य अंकित है, जिसमें माधनन्दि योगीन्द्रको सिद्धान्ताम्बोधिचन्द्रमा' कहा गया है.---
श्रीमाधनन्दियोगीन्द्रः सिद्धान्ताम्बोधिचन्द्रमाः।
अचीकरद्विचित्रार्थ शास्त्रसारसमुच्चयम् ॥ कर्णाटककवि चरितेके अनुसार एक माघनन्दिका समय ई० सन् १२६० है और उन्होंने इस ग्रन्थपर एक कन्नड़-टीका लिखी है तथा ये हो माधनन्दि श्रावकाचारके रचयिता भी हैं। इससे अवगत होता है कि शास्त्रसारसमुच्चयके कर्ता ई० सन् १२६० के पहले हुए हैं।
मद्रास ओरियण्टल लाइब्रेरी में प्रतिष्ठाकल्पटिप्पण या जिनसंहिता नामका एक ग्रन्थ है, जिसके प्रारम्भमें लिखा है
श्रीमाघनन्दिसिद्धान्तचक्रवतित्तनूभवः ।
कुमुदेन्दुरहं वच्मि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणम् ।। और अन्त में लिखा है'इति श्रीमाघनन्दिसिद्धास्तचक्रवर्तितनूभवचतुर्विधपांडित्यचक्रवर्तिश्रीवादिकुमुदचन्द्रमुनीन्द्रविरचिते जिनसंहिताटिप्पणे पूज्यपूजकपूजकाचार्यपूजाफलप्रतिपादनं समाप्तम् ।।' ___ इससे स्पष्ट है कि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणके कर्ता कुमुदचन्द्र माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य थे। १. जैन शिला लेख संग्रह, अभिलेखसंख्या ४७१ पृ० ३७५ । २८४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
माघनन्दि-थावकाचार और शास्त्रसारसमुच्चयके टीकाकार माघनन्दिने 'कर्णाटककविचरिते के अनुसार कुमुदेन्द्रको अपना गुरु बताया है। सम्भव है किमानसारमा मन्दिके शिष्य मुदचन्द्र ही श्रावकाचारके रचयिताके गुरु हों। श्री प्रेमीजीका यह अनुमान सत्य प्रतीत होता है कि दादा और पौत्रके नाम समान हो सकते हैं। अतएव शास्त्रसारसमुच्चयके कर्ताका समय ई० सन् को १२वीं शताब्दीका अन्तिम भाग है । रचना-परिचय __ यह ग्रन्थ चार अध्यायोंमें विभक्त है । प्रथम अध्यायमें तीन काल, दश कल्पवृक्ष, चतुर्दश कुलकर, षोडश भावना, चतुर्विशति तार्थंकर, ३४ अतिशय, पञ्चमहाकल्याण, चार घातियाकर्म, १८ दोष, ११ समवशरणभूमि, द्वादश गणघर, अष्टमहापातिहायें, अनन्तचतुष्टय, द्वादश चक्रवर्ती, सप्त अग, चतुर्दश रत्न, नवनिधि, दशांग भोग, नव वासुदेव, नव नारद और एकादश रुद्रोंका कथन आया है। यह अन्य सूत्रशैलीम लिखा गया है। प्रथम अध्यायम २० सूत्र हैं।
द्वितीय अध्यायमें ४५ सूत्र हैं । तीन लोक, सात नरक, ४९ पटल, इन्द्रक, प्रकीर्णक और धैणीबद्ध बिल, चार प्रकारके दुःख, जम्बद्वीप, लवणसमुद्रादि द्वीप और समुद्र, मनुष्यलोक, ९६ कुभोगभूमि, पञ्चमन्दराचल, जम्बवृक्ष, शाल्मलीवृक्ष, शतसरोवर, सहस्र कनकाचल, शतवक्षारगिरि, षष्ठिविभंगनदी, भोगभूमि, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवोंका कथन आया है।
तृतीय अध्यायमें ६६ सूत्र हैं। इसमें पञ्च लब्धि, तीन करण सम्यक्त्वके भेद-प्रभेद, अष्ट अंग, अष्ट गण, पञ्च अतिचार, ११ निलय, सस व्यसन, तीन शल्य, आठ मूलगुण, पञ्च अणुव्रत, तीन गुणवत्त, चार शिक्षाप्रत, दैनिक षट्कर्म, दशविध पुजा, चार प्रकारके दान, १२ अनुप्रेक्षा, १० धर्म, २८ मलगुण, पाँच प्रकारके स्वाध्याय, चार प्रकारके ध्यान आदि वर्णित हैं।
चतुर्थ अध्याय ६५ सूत्र हैं 1 इसमें छः द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सप्त तत्व, नव पदार्थ, दो प्रकारके प्रमाण, पाँच प्रकारके ज्ञान, तीन कुज्ञान, मतिज्ञानके ३३६ मेद, श्रुतज्ञानके भेद-प्रभेद, नब नय सप्त भंग, पाँच भाव, गुणस्थान, जीव समास, प्राण, संज्ञा, लेश्या, अष्ट कर्म, चार प्रकारके बन्ध, कर्मोकी मल उत्तर प्रकृतियां और सिद्धोंके अष्टगुण प्रतिपादित हैं। छोटा-सा ग्रन्थ होनेपर भी सिद्धान्त, तत्त्वज्ञान और आचारकी जानकारी प्राप्त करनेके लिए उपयोगी है।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २८५
-
-
-
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
वजूनन्दि
मल्लिषेण प्रशस्ति में वज्रनन्दिका है। इन्हें वो एशि बताया है। लिखा है
नवस्तोत्रं तत्र प्रसरति कवीन्द्राः कथमपि प्रणामं वज्रादो रचयत परन्नन्दिनि मुनी । नवस्तोत्रं येन व्यरचि सकलात्प्रवचनप्रपञ्चान्तर्भाव-प्रवण-वर सन्दर्भसुभगं ॥
—
आचार्य जिनसेनने अपने हरिवंशपुराण में भी वज्रसूरिका उल्लेख किया हैवज्रसूरेविचारिण्यः सहेत्वोर्बन्धमोक्षयोः ।
प्रमाणं धर्मशास्त्राणं प्रवक्तॄणामिवोक्तयः २ ॥
अर्थात्, जो हेतुसहित बन्ध और मोक्षका विचार करनेवालो हैं, ऐसी श्री वज्रसूरिकी उक्तियाँ धर्मशास्त्रका व्याख्यान करनेवाले गणधरोंकी उक्तियों के समान हैं, प्रमाणरूप हैं । इस कथनसे यह ध्वनित होता है कि वज्रसूरि प्रसिद्ध सिद्धान्तशास्त्र के बेत्ता हुए है। अपभ्रंश भाषाके कवि धवलने अपने हरिवंशपुराण में लिखा है
वज्जसूरि सुपसिद्ध मुणिवरु, जेण पमाणगंथु किउ जंगल ! अर्थात् वज्रसूरि नामके प्रसिद्ध मुनिवर हुए, जिन्होंने सुन्दर प्रमाणग्रन्थ बनाया । जिनसेन और धवल दोनोंने ही वज्रसूरिका उल्लेख पूज्यपाद के पश्चात् किया है। अतएव ये वही वज्रनन्दि मालूम होते हैं जो पूज्यपादके शिष्य थे और जिन्हें देवसेनसूरिने अपने दर्शनसारमें द्राविडसंघका संस्थापक बतलाया है । नवस्तोत्रके अतिरिक्त इनका कोई प्रमाणग्रन्थ भी था । जिनसेनके उल्लेख से इनके किसी सिद्धान्तग्रन्थके होने को भी सम्भावना की जा सकती हैं । महासेन द्वितीय
जिनसेन प्रथमने अपने हरिवंशपुराणमें सुलोचना कथा के रचयिता महासेनका उल्लेख किया है । लिखा है
महासेनस्य मधुरा शीलालङ्कारधारिणी । कथा न वर्णिता केन वनितेव सुलोचना ॥
१. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या ५४, पद्य ११ । २. हरिवंशपुराण, ज्ञानपीठ संस्करण, ११३२ । ३. वही, १/३३ ॥
२८६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थात् माधुर्य गुणसे सहित अलङ्कार और रसयुक्त महाकवि महासेनकी सुलोचनाकथा किसके मनका हरण नहीं करती है । धवल कविने भी अपभ्रंशके हरिवंशपुराण में सुलोचनाकथाकी प्रशंसा की है—
मृण महसेणु सुलोयणु जेण, पउमचरिउ मुणि रविसेणेण ।
कुवलयमाला के रचयिता उद्योतनसूरिने भी महासेनकविकी सुलोचनाकथाकी चर्चा की है । यह कथा सम्भवतः प्राकृत में रही होगी । लिखा हैसणिहिय जिणवरिदा धम्मक हा बंधदिविखयणरिदा । कहिया जेण सुकहिया सुलोयणा समवसरणं व ||३९||
अर्थात् जिसने समवशरण जैसी सुकथिता सुलोचनाकथा लिखी, जिस तरह समवशरण में जिनेन्द्र स्थित रहते हैं और धर्मकथा सुनकर राजा लोग दीक्षित होते हैं, उसी प्रकार सुलोचनाकथामें भी जिनेन्द्र सन्निहित हैं और उसमें राजाने दीक्षा ले ली है ।
उद्योतनसूरिने जिनसेन प्रथमसे ५ वर्ष पूर्व अपने ग्रन्थकी रचना की है । अतएव यह निश्चित है कि दोनोंके द्वारा प्रशंसित सुलोचनाकथा एक हो है । महासेनका समय ई० सन्की ८ वीं शताब्दीका उत्तरावं या ९ वीं शताब्दी का पूर्वाधं होना चाहिये 1
आचार्य सुमतिदेव
मल्लिषेणप्रशस्ति में सुमतिदेव नामके आचार्यका उल्लेख है, जो सुमतिसमक के रचयिता है। लिखा है
सुमति- देवममुं स्तुतयेन वस्सुमति - सप्तकमाप्तरायाकृतं । परिहृत्तापथ-तत्त्व - पथात्थिनां सुमति-कोटि-विवर्तिभवात्तिहृत् ॥ १३॥
श्री प्रेमीजीने वादिराजसूरि द्वारा पार्श्वनाथचरित उल्लिखित सन्मति आचार्यको सुमतिदेवसे अभिन्न स्वीकार किया है और इन सन्मतिने सिद्धसेनके संमतिप्रकरण नामक ग्रन्थपर टीका लिखी थी । श्री प्रेमीजीने मल्लिषेणप्रशस्तिमें कुन्दकुन्द, समन्तभद्र सिंह्नन्दि, वक्रग्रीव, वज्रनन्दि और पात्रकेसरीके पश्चात् सुमतिदेवकी स्तुति किये जानेके कारण इनका समय ७ वीं, ८ वीं शताब्दी अनुमानित किया है ।
१. जैनशिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या ५४, पद्य १३ |
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २८७
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
पद्मसिंह मुनि पद्मसिंह मुनिने ज्ञानसार नामक प्राकृतग्रन्थकी रचना वि० सं० १०८६ में अम्बका नामके नगरमें की है। लिखा है
णियमणपडिवोहत्थं परमसरूबस्स भावणणिमिनं । मिरिपउमसिहमणिणा हिम्मत्रियं णाणसारमिणं ।। सिरिविक्कमस्स काल दशसयछासीजुमि बहमाणे !
सादणसियणवमीए अंवयणयरम्म कयमेयं ।। इन गाथाओंसे स्पष्ट है कि पद्मसिंहमुनिने ६३ गाथाएं ७४ श्लोक प्रमाण रची हैं। विज्ञान, प्रमाण, नय, कसिद्धान्त आदि विषयोंका पूर्ण ज्ञाता है। भगवान् वर्द्धमानस्वामीको नमस्कार करनेके पश्चात् बताया है कि पार्मसम्बद्ध जीव वास्तविक ज्ञानको प्राप्ति न होनेसे दुःखभारसे आक्रान्त हो चतुर्गति में भ्रमण बारता है---
जीवा कम्मणबद्धो संशारा धोरे । बुदई दुवखातो अलहतो पाणबोहित्यं ।।
माधवचन्द्र विद्य मावचन्द्र नामः १०-११ विद्वान् दिखलाई पड़ते हैं। एक माधवचन्द्र विनदेव है, जोन बिलोकसारपर संस्कृत-टीका लिखी है। ये प्राचार्य नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीक शिष्य थे । इनका ममय ई० सन् ९७५-१००० होना चाहिए ।
दसरे माधवचन्द्र विद्यदेव वे हैं जिनके शिष्य नागचन्द्रदेवके पुत्र मादेवसेन बोवको तोलपुरुष विक्रम शान्तरकी रानी पालियक्कने अपनी माताको स्मृतिमें निर्मापित पालियबमति के लिए दान दिया था। लईस राईसने इस अभिलम्वका समय लगभग १५० ई० अनुमानित किया है, किन्तु स्वयं तोलपुरुष विक्रमशान्त ग्या शिलालख ई० सन् ८.९७ का प्राप्त है । अतः यह माधवचन्द्र विद्यदेव, जो इस नामके सर्वप्रथम ज्ञात आचार्य हैं, २,००ई० के लगभग हए होंगे । एक माधवचन्द्र नन्दिसंघ बलात्कारमा सरस्वतीगच्छको पट्टावली में महीचन्द्र पूर्व उल्लिवित हैं । पट्टावलोके अनुसार उनका समय ई. सन् २३३-९६६ है ।'' १. ज्ञानमार, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, गन्यांक १३, माथा ६१-६२ । २. वही, गाथा २ । ३. एपि वर्ण० ८, नागर ४५ । ४. एपि० कर्ण०८, नागर ६० । ५. जैनसिद्धान्तभास्कर, भाग १, कारण २, पृष्ठ १११ । २८८. : सोथंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ माधवचन्द्र वे हैं, जिनका स्मरण दुर्गदेवने किया है । दुर्गदेवने श्रीनिवास राजाके राज्य में कुम्भनगरमें रिष्टसमुच्चयको रचना को थो । स्व. डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द्रन श्रीनिवास या लक्ष्मीनिवासको एक साधारण सरदार माना है और कुम्भनगरको भरतपुरके निलम्बाला तुम्भे गा कुम्टो कटा है। दुर्गदेवने अपने गुरुसंयमसेनके साथ माधवचन्द्रका भी स्मरण किया है। इन्होंने माधवचन्द्रके सम्बन्धमें लिखा है
__ जयउ जए जियमाणो संजमदेवो मुणीसरो इत्य ।
तहवि हु संजमसेणो माहवचन्दो गुरू सह य ।। अर्थात् संयमदेवके गुरु संघमसेन और संयमसेनके गुरु माधवचन्द्र बताये गये हैं। दुर्गदेवके गुरुका नाम संयमदेव है और दुर्गदेवका समय ई. सन् १०३२ है। अतएव माधवचन्द्रका समय इनसे ५० वर्ष पूर्व होना चाहिए । इस प्रकार ये माधवचन्द्र नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य माधवचन्द्रसे अभिन्न प्रतीत होते हैं।
एक अन्य माधवचन्द्रका निर्देश देवगढ़के ई. सन् १०८२ के अभिलेखमें आया है। मलसंघ देशीयगण पुस्तकगन्छ हनसोगेबलिके आचार्यके रूप में भी एक माषवचन्द्रका निर्देश प्राप्त होता है । विष्णवर्धन होयसलने अपने पुत्रके जन्मोपलक्ष्य में इन्हें द्रोह घरट्ट जिनालयके लिए प्रामादि दान दिये थे | यह उल्लेख नयकीति सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य नेमिचन्द्र पण्डितदेवको उसी जिनालयके लिए वर्ष 'प्रमादिन में दिये गये शासनमें हुआ है। ल. राईसने इस अभिलेखका समय ११३३ ई० अनुमानित किया है। अतः यह माघवचन्द्र ई. सन् १९००-१२२५ के लगभग होने चाहिए।
एक अन्य माधवचन्द्र शुभचन्द्र सिद्धान्तदेवके शिष्य थे। ई० सन् ११३५ के लगभग विष्णुवर्धनके प्रसिद्ध दण्डनायक गंगराजके पुत्र बोपदेव दण्डनायकने अपने पिताके बड़े भाई बम्मदेवके पुत्र तथा अनेक बसतियोंके निर्माता एच. राजकी मृत्युपर इनको निषद्या बनवाकर उन्हींके द्वारा निर्मापित बसतियोंके लिए स्वयं एच० राजको पत्नी और माताको प्रेरणापर इन माधवचन्द्रको धारापूर्वक दान दिया था 13
हमारे अभीष्ट माधवचन्द्र नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य माधवचन्द्र विद्य हैं, जिन्होंने अपने गुरुको सम्मतिसे कुछ गाथाएं यत्र-तत्र समाविष्ट की हैं । यथा१. रिष्टसमुच्चय, गोधा जैन ग्रन्थमाला, इन्दौर, वि०सं० २००५, पृ० १६८, पद्य२५४ । २. एपि. कर्णः ५, बल्लूर, १२४ । ३. जैनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या १४४ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : २८९
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुरुमिचंदसम्मदक दिवयगाहा जहि तर्हि रइया | माहवदतिविज्जेणिय मणु सदणिज्ज मज्जेहि ॥
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार और प्रेमीजी दोनों ही गोम्मटसार में उल्लिखित तथा त्रिलोकसारके संस्कृतटीकाकारको नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका शिष्य मानते हैं, पर डॉ० ज्योतिप्रसादजीने क्षपणासारको प्रशस्तिके आधारपर उसका रचनास्थान दुल्लकपुर / छुल्लकपुर / कोल्हापुर बताया है। उसमें तत्कालीन शासक प्रशस्ति में उल्लिखित भोजराज वही शिलाहारवंशी भोजदेव प्रतीत होते हैं, जिनके राज्यमें सन् १२०५ ई० में आचार्य सोमदेवने शब्दाव चन्द्रिकाकी रचना की थी । इन माघवचन्द्रके प्रगुरु सिद्धान्ताधिप नेमिचन्द्रगणि गोम्मटसार त्रिलोकसारादिके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती नहीं, किन्तु बृहदद्रव्यसंग्रहके कर्त्ता नेमिचन्द्रले अभिन्न प्रतीत होते हैं । अतः क्षपणासारके कर्त्ता माधवचन्द्र विद्य आचार्य नेमिचन्द्रगणिके शिष्य माधवचन्द्र बिद्यसे भिन्न हैं ।
त्रिलोकसार-संस्कृत टीका के रचयिता और यत्र-तत्र गाथाअंकि निर्माता माधवचन्द्र विद्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य ही हैं, उनसे भिन्न अन्य कोई माघचचन्द्र नहीं ।
आचार्य नयनन्दि
आचार्य नयनन्दि अपने युग के प्रसिद्ध आचार्य हैं। इनके गुरुका नाम माणि क्यनन्दि विद्यथा । नयनन्दिने अपने ग्रन्थ 'सुदंसणचरिउ' में अपनी गुरुपरम्परा अंकित की है। उन्होंने बताया है कि महावीर जिनेन्द्रके महान् तीर्थ में कुन्दकुन्दान्वयकी क्रमागत परम्परा में नक्षत्र नामके आचार्य हुए। तत्पश्चात् पद्मनन्दि, विष्णुनन्दि और नन्दनन्दि आचार्य हुए। अनन्तर जिनोपदिष्ट धर्मकी शुभरश्मियोंसे विशुद्ध, अनेक ग्रन्थोंके रचयिता, समस्त जगतमें प्रसिद्ध, भवसमुद्रके लिए नौकास्वरूप विश्वनन्दि हुए। तत्पश्चात् क्षमाशील सैद्धान्तिक विशाखनन्दि हुए । इनके शिष्य जिनेन्द्रागमके उपदेशक, तपस्वी, लब्धप्रतिष्ठ, नरेन्द्रों और देवेन्द्रों द्वारा पूज्य रामनन्दि हुए। इनके शिष्य महापण्डित माणिक्यन दि जो अशेष ग्रन्थोंके पारगामी, तपस्वी, अंगोंके ज्ञाता, भव्यरूपी कमलोंके लिए सूर्य तुल्य एवं त्रिलोकको आनन्ददायी थे । उनके प्रथम शिष्य जगत् विख्यात नयनन्दि हुए लिखा है
हुए,
जिणिदस्स वीरस्स तित्थे महंते । महाकुन्दकुन्दण्णए एतते ॥ सुणक्खाहिहाणो तहा पोमणंदी । पुणो विण्डुणंदी तो गंदिणंदी ||
२९० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिद्दिट्ठधम्प सुरासीविसुद्ध । कयाणेयगंथो जयते पसिद्धो ॥ भवबोहिपोओ महाविस्सणंदी | खमाजुत्सु सिद्धतिओ विसहृणंदी || जिणिदागमाहासणे एयचित्तां । कायारणिट्टाए लाए हु || गरिदामरिदेहिं सो णंदबंदी । हुओ तस्स सीसो गणी रामणंदी || असेसाण गंथाण पारम्मि पत्तो । तवे अंगवी भव्वराईवमित्तो ॥ गुणावासभूओ सुतिल्लोक्कणंदी | महापंडिओ तस्स माणिक्कणंदी || धत्ता- पढमसीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि णयदि अणिदिउ ।
चरिउ सुदंसणणाहो तेण अवाहद्दो विरइ बुहुअ हिनंदिउ ||९|| प्रशस्ति से स्पष्ट है कि सुनक्षत्र, पद्मनन्दि, विश्वनन्दि, नन्दनन्दि, विष्णुनन्दि, विशाखनन्दि, रामनन्दि, माणिक्यनन्दि और नयनन्दि नामक आचार्य हुए हैं । स्थिति-काल
'सुदंसणचरिउ' का रचनाकाल स्वयं ही ग्रन्थकर्त्ताने अंकित किया है । यह ग्रन्थ विक्रम संवत् ११०० में रचा गया है। आचार्यने बताया है कि अवन्ति देशकी धारा नगरीमें जब त्रिभुवननारायण श्रीनिकेतनरेश भोजदेवका राज्य था, उसी समय धारा नगरीके एक जैन मन्दिरके महाविहारमें बैठकर वि० सं० ११०० में सुदर्शनचरितकी रचना की। प्रशस्तिमें उल्लिखित मालवा के परमारवंश सुप्रसिद्ध नरेश भोजदेव हैं, जिनके राज्यकालके अभिलेख वि० सं० १०७७ से ११०४ तक पाये जाते हैं। भोजका राज्य राजस्थानके चित्तोड़से लेकर दक्षिण में कोंकण व गोदावरी तक विस्तीर्ण था । अतएव नयनन्दिका समय वि० [सं० की ११वीं शताब्दीका अन्तिम और १२वीं शतीका प्रारम्भिक भाग है ।
रचना
नयनन्दिकी 'सुदंसणचरित' और 'सयलविहिविहाणकव्व' नामक दो रचनाएँ उपलब्ध हैं । सुदंसणचरिउ अपन शका एक प्रबन्धकाव्य है, जो महाकाव्यकी कोटि में परिगणित किया जा सकता है। रोचक कथावस्तुके कारण आक
क होनेके साथ सालंकार काव्यकलाकी दृष्टिसे भी यह ग्रन्थ उच्चकोटिका है । पञ्चनमस्कार मन्त्रका फल प्राप्त करने वाले सेठ सुदर्शनके चरितका वर्णन किया गया है । चरितनायक धीरोदात्त नायकके गुणोंसे परिपूर्ण है । ग्रन्थ १२ सन्धियोंमें विभक्त है ।
१. सुदंसणचरिउ, सम्पादक डॉ० हीरालाल जैन, प्रकाशक जैन शास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली ( बिहार ) सन् १९६०, १२९ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २९१
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम सन्धिमें णमोकारमन्त्रका पाठ करनेसे एक ग्वाला सुदर्शनके रूपमें जन्म ग्रहण करता है। इस सन्धिमें जम्बूद्वीप, मगधदेश, राजगृह नगर और विपुलाचल पर्वतपर स्थित भगवान् महावीरके समवशरणका वर्णन किया गया है। द्वितीय सन्धिमें राजा श्रेणिकने गौतमगणघरसे पन्चनमस्कारमन्त्रके फलके सम्बन्धमें प्रश्न किया। उसके उत्तरमें गौतमगणधरने त्रैलोक्यका वर्णन करके अंगदेश, चम्पानगरी, दधिवाहन राजा, वहाँके निवासी सेठ ऋषभदास, उनकी पत्नी अहंदासी तथा उनके सुभग नामक ग्वालेका वर्णन किया है। इस ग्वालेको एक बार वनमें मुनिराजके दर्शन हुए और उनसे णमोकारमन्त्र प्राप्त कर उसका पाठ करने लगा। सेठने उसे मन्त्रका माहात्म्य समझाया और धर्मोपदेश दिया। उस ग्वालेने गंगानदीमें जलक्रीड़ा करते हुए ठूठसे आहत होकर मन्त्रके स्मरण पूर्वक प्राण त्याग किये।
तृतीय सन्धिमें ग्वालेका वह जीव सेठ ऋषभदासके यहाँ पुत्रके रूपमें जन्म ग्रहण करता है। सुभग और शुमलक्षणोंसे युक्त होनेके कारण पुत्रका नाम सुदर्शन रखा जाता है। वयस्क होने पर सुदर्शन अनेक प्रकारकी विद्याओं और कलाओंमें निपुणता प्राप्त करता है। सुदर्शनको सुन्दरताके कारण नगरकी नारियों उसपर आसक्त होने लगती हैं।
चतुर्थ सन्धिमें बताया गया है कि सुदर्शनका एक घनिष्ठ मित्र कपिल था। एक दिन वह अपने इस मित्रके साथ नगर-परिभ्रमण कर रहा था कि सुदर्शनकी दृष्टि मनोरमा नामक कुमारी युवतीपर पड़ी और वह उसपर कामासक्त हो गया। मनोरमा भी उस पर मोहित हो गयी।
पञ्चम सन्धिमें सुदर्शन और मनोरमाके विवाहका वर्णन आया है और इसी सन्धिमें महाकाव्यको प्रथित परम्पराके अनुसार सूर्यास्त, सन्ध्या, रात्रि, प्रभात एवं वर-वधूको विभिन्न कामक्रीड़ाओंका निरूपण किया गया है।
षष्ठ सन्धिमें सदर्शनके पिता सेठ ऋषभदास मुनिका दर्शन करते हैं और मुनिके उपदेशसे प्रभावित होकर विरक हो आते है तथा अपने सुत्र सुदर्शनको गृहस्थमार्गको शिक्षा देकर और उसे समस्त कुटुम्बका भार सौंपकर वे मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं और अन्त में उन्हें स्वर्गकी प्राप्ति होती है।
सप्तम सन्धिमें बताया गया है कि सदर्शनके मित्रकी पत्नी कपिला उनपर मोहासक्त होता है और छलसे उसे अपने यहां बुलाती है। सुदर्शन बहाना बनाकर किसी प्रकार अपने शीलकी रक्षा करता है। वसन्त ऋतुका आगमन हुआ और उत्सव मनानेके लिए राजा एवं प्रजा सभी उपवनमें सम्मिलित हुए। रानी अभया सुदर्शनके रूपलावण्यको देखकर मुग्ध हो गयी और उसने फपिला
२९२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
से मर्मको बातें कर प्रतिज्ञा की कि वह सुदर्शनको वशीभूत करेगी । अष्टभ सन्धिमें अभया रानांकी विरहवेदनाका वर्णन है । अभयाकी दयनीय अवस्था देखकर उसको पण्डिता नामक सखीने बहुत समझाया, पर रानीका हठ न छूटा और अन्ततः विवश होकर पण्डिताको अभयाकी कामवासना तृप्त करानेके लिए वचनबद्ध होना पड़ा । पण्डिताने एक कुटिल चाल चलो। उसने कुम्हारसे मनुष्याकृतिके मिट्टी के सात पुतले बनवाये । वह प्रतिपदा से लेकर सप्तमी तक कमसे एक-एक पुतला ढँककर अपने साथ लाती, प्रतोलीके द्वारपर द्वारपालसे झगड़कर पुतला फोड़ डालती और द्वारपालको रानीका भय दिखाकर आगे लिए उसे चुप करा देती । इस प्रकार पण्डिताने महलके सातों द्वारपालोंको अपने अधीन कर अन्तःपुरका प्रवेश निर्वाध बना दिया। अमोके दिन सुदर्शन श्मशान में कायोत्सर्ग करनेके लिए गया । पण्डिताने उसके पास जाकर पहले तो उसे ध्यानच्युत एवं प्रलोभित करनेका प्रयत्न किया, पर जब उसे इस असप्रयास में सफलता न मिली, तो वह सुदर्शनको उठाकर राजमहल में ले गयी । रानो अभधाने सुदर्शनको विचलित करनेके लिए अनेक प्रयास किये, पर सुदर्शन सुमेरुकी तरह अडिग रहा। जब प्रयास करते-करते ममस्त रात्रि व्यतीत हो गयी, तो रानीने दूसरा कपटजाल रचा और सुदर्शन पर शीलभंग करनेका आरोप लगाया । राजाने बिना सोचे-समझे सेठ सुदर्शनको प्राणदण्डका आदेश दिया । राजपुरुष उसे पकड़कर श्मशान ले गये और उसकी हत्याका प्रयास करने लगे। सुदर्शनके धर्मंध्यानके प्रभावसे एक व्यन्तरदेवने हत्यारों को स्तम्भित कर दिया और सुदर्शनके प्राणोंकी रक्षा की ।
नवम सन्धिमें व्यन्तरदेवका राजाकी सेना एवं राजाके साथ भयानक युद्ध होनेका वर्णन आया है। राजाको अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ी और व्यन्तरदेवकी आदेशानुसार उसे सुदर्शनके शरण में जाना पड़ा। सुदर्शनने उसे क्षमा कर दिया |
दशम सन्धिमें जीवन संकटसे मुक्त होकर जिनमन्दिर में गया और वहां उसने विमलवाहन मुनिसे अपने भवान्तर पूछे। मुनिने उसके क्रमशः व्याघ्र नामक क्रूर भील, श्वान तथा सुभग गोपाल इन तीन भवोंका वर्णन किया । इसी प्रसंग में णमोकार मन्त्र के प्रभावका भी कथन किया। साथ हो मनोरमाकी पूर्वभवावलि भी बतलायी। मुनिका धर्मोपदेश सुनकर सुदर्शनने महाव्रत धारण कर लिये ।
एकादश सन्धिमें मुनि सुदर्शनके ऊपर आये हुए उपसर्गीका वर्णन है । अभय के जीव व्यन्तरीने सुदर्शनको नाना प्रकारसे विचलित करनेका प्रयास fear | एक व्यन्तरने आकर उनकी रक्षा की।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापशेषकाचार्य : २९३
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारहवीं सन्धिमें आया है कि सुदर्शन मुनिने चार घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। स्वर्गसे आकर इन्द्रने उनकी स्तुति की और कुवेरने समवसरणकी रचना की । केवलोके अतिशय तथा उनके उपदेशको सूनकर अभयारानीके जीव व्यन्तरीको भी वैराग्यभाव हो गया और उसने सम्यक्त्वभाव धारण किया ।
इस प्रकार इस महाकाव्य में आकर्षक कथावस्तु गम्फित है। कोमल पद, गम्भीर अर्थ और अलंकारोंकी अद्भुत छटा काव्यसौन्दर्यको वृद्धिगत करती है। सयलविहिविहाण
'सकलविधिविधा काय परियों का सहमा है, पर यह ग्रन्थ अपूर्ण ही उपलब्ध है । इसमें १६ सन्धियां नहीं हैं । प्रारम्भको दो तोन सन्धियोंमें ग्रन्थके अवतरण आदि पर प्रकाश डाला गया है । १२वीं से १५वीं सन्धि तक मिथ्यात्वके कालमिथ्यात्व और लोकमिथ्यात्व आदि अनेक मिथ्यावोंका स्वरूप बतलाते हुए क्रियावादी और अक्रियावादी आदि मेदोंका विवेचन किया है । १५वीं सन्धिसे ३१वी सन्धि तक १६ सन्धियों प्राप्त नहीं हैं। कविने इस ग्रंथमें बिलासिनी, भुजङ्गप्रिया, मजरी, चन्द्रलेखा, मौक्तिकमाला, पादाकुला, मदनलीला आदि विविध छन्दोंका प्रयोग किया है । अतएव छन्दशास्त्रकी दुष्टिसे भी यह ग्रंथ महनीय है। ३२वीं सन्धिमें मद्य, मांस, मधुके दोष, उदम्बरादि पंचफलोंके त्यागका विधान बताया है। ३३वीं सन्धिमें पञ्चअणुव्रतोंको विशेषताओंका वर्णन है और उनमें प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले व्यक्तियोंके आख्यान भी आये हैं। ५६वीं सन्धिके अन्तमें सल्लेखनाका उल्लेख है। इस ग्रन्थमें गृहस्थाचारका वर्णन विस्तारके साथ आया है।
इतिहासकी दृष्टिसे भी यह ग्रंथ कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसमें काञ्ची पुर, अम्बाइय और बल्लभराजका कथन आया है। इस ग्रंथकी रचनाको प्रेरणा मुनि हरिसिंहने को थो । प्रशस्तिमें वररुचि, वामन, कालिदास, कौतूहल, वाण, मयूर, जिनसेन, वादरायण,श्रीहर्ष, राजशेखर, जसचन्द्र, जयराम, जयदेव, पादलिप्त, धिंगल, वीरसेन, सिंहनन्दि, सिहभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, अकलंक, रुद्रगोविन्द, दण्डो, भामह, माघ, भरत, चउमुह, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, श्रीचन्द्र, प्रभाचन्द्र और श्रीकुमारका निर्देश आया है। ___इस ग्रंथको सामग्री अत्यन्त महत्वपूर्ण है । संसारको असारता और मनुष्यको उन्नति-अवनतिका इसमें हृदयग्ग्राही चित्रण आया है।
२९४ : तीर्थकर महाबोर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय परिच्छेद
परम्परापोषकाचार्य
प्रास्ताविक
आयार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्परासे वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं । जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त वाङमयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करनेके लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है ।
यह सत्य है कि वाङ्मय निर्माण की प्रतिभा किसी भी जाति या समाजकी समान नहीं रहती है। आरम्भमें जो प्रतिभाएँ अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
-२९५
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुछ शताब्दियों के बाद उनमें नूतनता नामको वस्तु कम ही शेष रह जाती है । 'तीर्थंकर महावीर की जो आरातोय परम्परा आरम्भ हुई, शनैः-शनैः उस परम्परा में भी मौलिकताका ह्रास होने लगा | प्राचीन आचार्योंने जिन विषयों पर ग्रन्थ-रचनाएं की थीं, उन्हीं विषयोंपर भाषा और शैली बदलकर रचनाएँ लिखी जाने लगों | अध्यात्म, सिद्धान्त दर्शन, काव्य, आख्यान, चरित आदि विविध प्रकारके वाङ् मयका निर्माण तो अवश्य हुआ, पर मौलिकताका अभाव होने के कारण एक प्रकारसे परम्पराका निर्वाह ही होता रहा ।
परम्परा के निर्वाहिका एक कारण राजनीतिक अस्थिरता भी है । १३वीं शताब्दी से ह्रासका प्रवेश हुआ और मुस्लिम युगने साहित्य एवं संस्कृतिके विकास में बहुत अधिक योगदान नहीं दिया है। हिन्दू राजाओंकी राजशक्ति क्षीण हो रही थी, फक्तः देश में स्थिरता और शान्तिका अभाव था | इस वातावरण के प्रभावसे वाङ्मय भी अछूता न रहा और जैनाचार्यों में ही नहीं, समस्त भारतीय लेखकों में मौलिक प्रतिभाका अभाव दिखलायी पड़ने लगा |
सारस्वताचार्यों और प्रबुद्धाचार्योंने
किया श्री. उन्हीं नामोंको लेकर सरल और चमत्कारशून्य शैली में रचनाओंका पुनरावर्तन प्रारम्भ हुआ । यद्यपि दो-चार प्रतिभाशाली आचार्य इस पुनरावृत्तिकाल में भी उत्पन्न हुए, पर बहुसंख्यक आचार्योंने भावों और सन्दर्भोंका पिष्टपेषण ही किया ।
परम्परा पोषणका नेतृत्व भट्टारकों के हाथमें आया, जो कि मठाधीशके रूप में अपनी विद्याबुद्धिका चमत्कार जनसाधारणके समक्ष प्रस्तुत किया करते थे । वाङमय-सृजन की मौलिक प्रतिभा और अध्ययनका गाम्भीर्यं प्रायः इन्हें प्राप्त नहीं था । श्रनी-मानी शिष्योंसे वेष्टित रहकर तन्त्र-मन्त्र या जादू-टोनेकी चर्चाएँ कर जन-मानस को ये अपनी ओर आकृष्ट करते थे। धर्मप्रचार करना, पूजा प्रतिष्ठाओं द्वारा सर्वसाधारणको धर्मके प्रति श्रद्धालु बनाये रखना एवं वाङमयका संरक्षण सम्बद्धन करना प्रायः भट्टारकों का लक्ष्य हुआ करता था । यही कारण है कि भट्टारकों द्वारा मद्दियोंपर समृद्ध ग्रन्थागार स्थापित किये गये । नवीन रचनाओं के साथ आर्ष और मान्य आचार्यों एवं साहित्यकारों द्वारा रचित विभिन्न प्रकारके वाङ्मयकी प्रतिलिपियाँ भी इन्होंके तत्त्वावधान में प्रस्तुत की गयीं ।
इसमें सन्देह नहीं कि इन भट्टारकोंने परम्पराके संरक्षण में अपना पूरा योगदान किया है | पर युगकी मांग के अनुसार उत्तम कोटिके वाङमयका प्रणयन नहीं किया गया । धर्मप्रचारार्थं कथाकाव्य -- चरितकाव्य लिखे हैं और
२९६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
अधिकांश भटारकोंने अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है, पर इन रचनाओंसे परम्पराका संरक्षण ही हुआ है, विकास नहीं। धर्म और संस्कृतिके विकासका उत्तरदायित्व भट्टारकोंने सम्हाला । आरम्भमें यह वर्ग निश्चय ही निस्पही, ज्ञानी, त्यागी एवं जितेन्द्रिय था । स्वयं विद्वान होनेके साथ मनीषी विद्वानोंका संपोषण भी भट्टारकोंकी गद्दियों द्वारा होता रहा ।
परम्परापोषणके इस युगमें रखे गये ग्रन्थोंकी संस्था तहलो हैं । कर इनका गुणात्मक मूल्य अल्प है । अतः यह युग ग्रन्थ-परिमाणकी दृष्टिसे भले ही महस्वपूर्ण हो, पर मूल्योंको दृष्टिसे उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है।।
इस परम्पराकी एक विशेषता यह है कि लोक-जीवनसे सम्बन्ध रखनेवाली विविधविषयक रचनाएं सम्पन्न हुई हैं। परम्परापोषक आचार्यों द्वारा निर्मित वाङ्मयको निम्नलिखित वगों में विभक्त किया जा सकता है
१. न्याय-दर्शनविषयक वाङ्मय २. अध्यात्म एवं सिद्धान्त सम्बन्धी वाङ्मय ३. चरित्र या आचारमुलक धार्मिक वाङमय ४. पौराणिकचरितग्रन्थ ५. लघुप्रबन्धग्रन्थ ६. दूतकाव्य ७. प्रबन्धात्मक प्रशस्तिमूलक ग्रन्थ ८. ऐतिहासिक ग्रन्थ ९. सन्धानकाव्य १०. सुक्तिकाव्य ११. स्तोत्र, पूजा और भक्ति विषयक साहित्य १२. संहिताविषयक साहित्य १३. मन्त्र-तन्त्र एवं चमत्कार विषयक साहित्य १४. प्रत्तमाहात्म्यसम्बन्धी साहित्य १५. उद्यापन एवं क्रियाकाण्ड विषयक साहित्य १६. ज्योतिष-आयुर्वेदविषयक साहित्य
परम्परापोषक आचार्योने वैदिक और बौद्ध तन्त्र-मन्त्रवादका अध्ययनकर कतिपय रचनाएं उन्हीं ग्रन्थोंके आधारपर लिखी हैं, जो जैनदर्शन और आगमको दृष्टिसे अनुकूल सिद्ध नहीं होती । शासन-देवोंको महत्त्व देकर, उनके आरामना विषयक ग्रन्थ लिखे हैं। अध्यात्म और कर्मसिद्धान्तके स्थानपर चमत्कारोंका प्रणयन विशेषरूपमें हुआ है । यह सत्य है कि भट्टारकोंने अपने युगकी आव
प्रवृद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २९७
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्यकताके अनुसार लोकमानसको श्रद्धालु बनाये रखनेके लिये चमत्कारोंका प्रणयन किया है। यदि भट्टारक अपने युगमें लोकचेतनाका अध्ययन न करते, और तदनुकूल साहित्यका प्रणयन न करते, तो बहुत सम्भव है कि जैनधर्मके अनुयायियोंकी शृखला टूटने लगती। अतः परम्पराके निर्वाह के लिए भट्टारकोंको बाध्य होकर लोक-साहित्यका सृजन करना पड़ा।
परम्परापोषक आपागों द्वारा रनित नरिनकायोंमें काव्यात्मक अलंकृत शैलीका विकास नहीं हो पाया है। आचार्योंने पौराणिक कथाको ग्रहणकर वर्णन विस्तार और चमत्कारके बिना ही कथाको धाराको प्रवाहित किया है । परिणाम यह निकला है कि परम्परा-पोषक आचार्यो द्वारा रचित काव्य पुराण तक ही सीमित रह गये। काव्यचमत्कार एवं रसोबोधके लिए जिस सौन्दर्यानुभूतिको आवश्यकता रहती है और जिस सौन्दर्यानुभूतिकी अभिव्यञ्जनासे पौराणिक इतिवृत्तकाव्य बनता है, उसका प्रायः अभाव ही रह गया है । अनु ष्टुप्, उपजाति, वंशस्थ, शार्दूलविक्रीडित और मालिनी छन्दोंका ही प्रयोगपाया जाता है । छन्दवैविध्य और चित्रमयता प्रस्फुटित नहीं हो पायी है। कथावस्तुमें गहनताकी अपेक्षा व्यासका समावेश हया है। घटनाओं, पात्रों या परिवेशको सन्दर्भपुरस्सर व्याख्याके स्थानपर केवल वातावरणके सौरभका ही नियोजन हो सका है । अतः इस युगमें पुराण और काव्य साधारणीकरणको स्थितिको प्राप्त नहीं हो सके। मर्मस्पर्शी कथानकोंके स्थानपर अवान्तर और जन्म-जन्मान्तरके आख्यानोंका विस्तृत जाल इन आचार्यों की रचनाओं में गुम्फित है। जन्म-सन्तति, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पापका चित्रण विशेषरूपमें सम्पन्न हुआ है । लघुकाव्योंमें केवल कथामात्र हो लिखी गयी है। इसे हम पद्यबद्ध कथा कह सकते हैं। कथाको अलंकृत करने या रसमय बनानेका प्रयास नहीं किया गया है । कल्पनाशक्तिका विराटरूप, महद् उद्देश्य एवं विभिन्न मानसिक दशाएं प्रस्फुटित नहीं हो पायी हैं।
चरित और आचार मूलक रचनाओंमें श्रावकाचार मा मुन्याचारका वर्णन मिलता है । श्रावकाचारका आधार आचार्य समन्तभद्रका 'रत्ककरण्डश्रावकाचार' ही रहा है । इस क्षेत्रमें नयी उद्भावनाएं नहीं हो सकी हैं, पर इतना सत्य है कि श्रावकाचारके विषयका प्रचार इन परम्परापोषक आचार्यों ने विशेषरूपसे किया है। जीवनमूल्यों, आदर्शों और नैतिक मान्यताओंका स्पष्टीकरण विशेषरूपसे हुआ है।
संहिताविषयक रचनाएं विशेषरूपमें सम्पन्न हुई हैं। हमें जैन साहित्यमें दो प्रकारके जीवनमूल्य दृष्टिगोचर होते हैं। प्रथम प्रकारके वे जीवनमूल्य २९८ : तीर्थकर पहावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं, जो भौतिक, शारीरिक, सम्पत्ति तथा सुखभोगके त्यागसे सम्बन्ध रहते हैं, तो दूसरे वे जीवनमूल्य हैं जो ऐहिक सुखभोगके साधनोंको प्राप्त करनेके लिए मन्त्र-तन्त्र एवं आराधनाके उपयोगपर जोर देते हैं । यद्यपि अनेकान्तात्मक दृष्टिसे उक्त दोनों प्रकारके जीवनमूल्योंका समन्वय कर अन्तिम लक्ष्य त्याग या निवृत्तिको ही स्थापित किया है और भारम्भिक प्रवृत्तिको निवृत्तिको ओर ले जानेवाला हो कहा है। परम्परापोषक आचार्योंने इस प्रकारके साहित्यका प्रचुररूपमें प्रणयन किया है । जो भौतिक सुख एवं ऐश्वर्यको वृद्धिके लिए सभी प्रकारके नैतिक साधनोंका उपयोग कर लेनेके औचित्यका समर्थन करता है। इसमें सन्देह नहीं कि विभिन्न जीवनमल्योंके आपेक्षिक महत्व और उनका लाभ करनेवाले साधनोंको आपेक्षिक उपादेयताके सम्बन्धमें लम्बा एवं गहरा चिन्तन किया है। अतः जीवनके बढ़ते हुए अनुभव, सम्पत्तिके बदलते हुए उपयोग, विभिन्न सुखभोग सम्बन्धी सामनोंकी एप्तके देत आगधास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, निमित्त आदि विषयोंका समावेश हुआ है ।
संक्षेपमें परम्परापोषक आचार्योंने अपनी प्रतिभाका पूर्ण प्रदर्शन कर लोकहित साधक वाङ्मयका प्रणयन विशेषरूपमें किया है। भले ही आगम, दर्शन, अध्यात्म आदि विषयों में नूतनताका समावेश न हुआ हो, पर लौकिक साहित्य का प्रभूत प्रणयन कर जनमानसको अपनी ओर आकृष्ट करने का पूर्ण प्रयास किया है।
वृहप्रमाचन्द्र ईस्वी सन् १९४४में आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तारने वोरसेवामन्दिरसे ब्रहप्रभाचन्द्र के तत्त्वार्थसूत्रका प्रकाशन किया है। यह प्रभाषन्द्र कौन हैं, कब हए? इसके संबंधमें निश्चित जानकारी नहीं है । श्री मुख्तार साहबने अपनी प्रस्तावनामें चार प्रभाचन्द्रोंका उल्लेख किया है। प्रथम प्रभाचन्द्र तो वे हैं, जिन्होंने प्रमेयकमलमातण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे न्यायग्रन्थोंकी रचना को है । इनसे पूर्ववर्ती एक अन्य प्रभाचन्द्र भी हुए हैं, जो परलुरु निवासी विनयनन्दि आचार्यके शिष्य थे और जिन्हें चालुक्य राजा कीर्तिवर्मा प्रथमने एक दान दिया था। ये आचार्य वि० की ६वीं और ७वीं शताब्दीके विद्वान हैं । अतः उक्त कीर्तिवर्माका अस्तित्व शक संवत् ४८९ है। तीसरे प्रमाचन्द्र वे हैं, जिनका देवनन्दि आचार्यने जैनेन्द्र व्याकरणके 'रात्रेः कृतिप्रभाचन्द्रस्य' द्वारा उल्लेख किया है। इन प्रभाषन्द्रका समय भी वि०की छठी शताब्दीसे पूर्व होना चाहिये । १. साउथ इण्डिया जयनिज्मा, भाग २, पृ० ८८ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २९९
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ प्रभाचन्द्र वे हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके प्रथम शिलालेखमें पाया जाता है और जिनके सम्बन्धमें यह कहा जाता है कि वे भद्रबाह श्रतकेवलीके दीक्षित शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त थे। इनका समय वि० सं० से भी ३०० वर्ष पूर्व है।
प्रभाचन्द्रके तत्त्वार्थसूत्रका अध्ययन करनेसे कुछ ऐसे तथ्य उपस्थित होते हैं, जिनके आधारपर उनके समयका अनुमान किया जा सकता है । प्रभाचन्दने ५वें अध्यापन अन्यका १५ बसला रसिया है--
सत्त्वं द्रव्यलक्षणम् ॥६॥
उत्पादादियुक्तं सत् ॥७॥
सहक्रमभाविगुणपर्ययवद्व्यम् ॥८॥ द्रव्यके इन लक्षणोंपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रने जहाँ गृद्धपिच्छाचार्यके सूत्रोंका संक्षेपीकरण किया है, वहां अष्टमसूत्रमें वृद्धि की है। गुणोंको सहभावी और पर्यायोंको क्रमभावी बतलाया गया है । इस लक्षणपर स्पष्टत: अकलंकदेवका प्रभाव मालूम पड़ता है। अकलंकदेवने अपने न्याय विनिश्चयमें बतलाया है
'गुणपर्ययवद्व्यं ते सहक्रमवृत्तयः' अर्थात् गुण सहभावी और पर्याय क्रमभावी बतलायी गयी हैं । अतःप्रभाषन्द्रने अपना तत्त्वार्थसूत्र गद्धपिच्छाचार्य के अनुसरणपर लिखा और सुचोंमें जहां-तहां परिवर्द्धन और परिवर्तन पूज्यपाद, अकलंकदेव आदिके आधारपर किया है। अतएव इन प्रभाचन्द्रका समय अकलंकदेवके पश्चात् होना चाहिये। प्रभाचन्द्रके नाममें प्रयुक्त 'बृहद' विशेषण अन्य प्रभाचन्द्रोंसे उन्हें पृथक करता है । तत्त्वार्थसूत्रके प्रत्येक अध्यायकी पुष्पिकामें बृहद् विशेषण प्राप्त होता है । यथा
इति श्रीवृहत्प्रभाचन्द्र-विरचिते तत्त्वार्थसूत्र प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ प्रभाचन्द्रके नामसे अहंद्प्रवचन नामका एक ग्रन्थ भी मिलता है। इस अर्हत्प्रवचनके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि अर्हत्प्रवचनके रचयिता प्रभाचन्द्रने बृहत्प्रभाचन्द्रके तत्वार्थसूत्रका अवलोकन किया है ! अकलंकदेवने अपने 'तत्त्वार्थवातिक' ५।३८ में 'उक्तव्च महत्प्रवचने' लिखकर एक अहस्त्रवचनका निर्देश किया है, जिससे यह अनुमान किया जा सकता है कि अपने इस अहप्रवचन नामक सूत्रग्रन्यको उसके कर्त्ताने प्राचीन अर्हप्रवचनके अनुसरणपर
३०० : तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परमरा
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
लिखा है। इसी कारण उन्होंने-"अथातोहत्प्रवचनं सूत्र' व्याख्यास्यामः" लिखा है। इस कथनसे स्पष्ट है कि इन्होंने महत्प्रवनसूत्रका व्याख्यान किया है। अर्थात् प्राचीन ग्रन्थमें जिन मुख्य तत्वोंका प्रतिपादन किया गया था, उन्हींका निरूपण है। ___'तत्त्वार्थसूत्र' और 'अर्हत्प्रवचन' इन दोनोंके अध्ययनसे यह अवगत होता है कि बहत्प्रभाचन्द्रके 'तस्वार्थसूत्र'का अवलोकन 'अहेस्प्रवचन'के रचयिता प्रभाचन्द्रने किया है । अहंप्रवचनमें ५ अध्याय हैं और ८४ सूत्र हैं। इसमें प्रतिपाद्य वस्तुभोंकी संख्या बतलायी गयी है। जीवोंके छह निकाय हैं, पांच महाव्रत हैं, पांच अणुव्रत हैं, तीन गुणवत हैं, चार शिक्षाप्नत है, सीन गप्तियाँ हैं और पांच समितियाँ हैं । इस प्रकार विषयका वर्णन न कर संख्या ही निर्देश किया है ।
प्रस्तुत बहत्प्रभाचन्द्रके नामसे जो तत्त्वार्थसूत्र नामक ग्रन्थ उपलब्ध होता है उसमें १० अध्याय हैं और १०७ सूत्र हैं। सूत्रोंको संख्याका क्रम निम्न प्रकार है
१५ + १२+१८+६+६+ १४ + ११+ ८++५=१०७
इसमें गुपिच्छाचार्य द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्रके सूत्रोंका संक्षिप्तीकरण ही पाया जाता है । यथा
प्रमाणे द्वे ॥६॥ नयाः सप्त ॥
अखण्ड केवलम् ॥१४॥ स्पष्ट है कि तस्वार्थसूत्रके सूत्रोंका यह संक्षिप्तीकरण है । तृतीय अध्यायके अन्तमें ६३ शलाकापुरुष, ११ रुद्र, ९ नारद, २४ कामदेव बतलाये गये हैं। यह कथन गृपिच्छाचार्यको अपेक्षा अधिक है। इसी प्रकार सप्तम अध्यायमें श्रावकोंके ८ मूलगुण और मुनियोंके २८ मूलगुण बतलाये गये हैं। __ कतिपय सूत्रोंमें तत्स्वार्थ सूत्रकी अपेक्षा अधिक स्पष्टीकरण पाया जाता है । तत्त्वार्थ सूत्र में दानकी परिभाषा 'अनुग्रहार्य स्वस्यातिसर्गो दान के रूपमें की है, पर बृहत्प्रभाचन्द्रने
स्वपरहिताय स्वस्यातिसर्जनं दानम् ॥११॥ १. माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला द्वारा सिद्धान्तसाराविसंग्रहके अन्तर्गत, पृ.
११४-११६ प्रकाशित। २. बहनभाचन्द्रका तस्वार्थ सूत्र ११ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्भरापोषकाचार्य : ३०१
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थात् अपने और परके हितके लिए अपनी वस्तुका त्याग करना दान है। यहाँ 'स्वपरहिताय' पद गृपिच्छाचार्यके 'अनुग्रहार्थम्' पदसे अधिक स्पष्ट है। इसी प्रकार षष्ठ अध्यायके चतुर्थ सूत्रमें ज्ञानावरण और दर्शनावरणके हेतुओंका कथन भी इन ग्रंथमें अधिक स्पष्ट है । गृपिच्छने 'तत्प्रदोषनिन्हव' आदि सूत्र लिखा है, पर प्रभाचन्द्रने 'गरुनिम्हवादयो' पद प्रयुक्त किया है, जिससे उक्त सूत्रकी अपेक्षा अधिक स्पष्टोकरण आ गया है। अतएव प्रभाचन्द्रका यह तत्त्वार्थसूत्र गद्धपिच्छाचायंके अनुकरणपर लिखा होनेपर भी कई बातें विशेष है।
___ आचार्य पार्श्वदेव आचार्य पार्श्वदेव लौकिक विषयोंके मर्मज्ञ पण्डित हैं। इन्होंने अन्य शास्त्रोंगे नाग संगी। समीना भी रचना की है । एक प्रशस्तिमें इनके सम्बन्धमें बताया गया है-"श्रीमदभयचन्द्र-मुनीन्द्र चरणकमलमधुकरायितमस्तकमहादेवाशिष्यस्वरविमलविद्यापूत्रसम्यक्त्वचूडामणिभरतभाण्डीक - भाषाप्रवीणश्रुतिज्ञानचक्रवर्तीसंतोताकरनामधेयपावदेवविरचिते सङ्गीतसमय
सारे"
संगीतसमयसारकी मुद्रित प्रतिमें प्रशस्ति निम्न प्रकार है-"श्रीमदभिनवभरताचार्यसरविमलहेमणाविद्यापुत्रश्रुतिज्ञानच(क)वातिसङ्गीताकरनामधेयपाश्चदेवविरचिते-संगीतसमयसारे" | __इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि पार्श्वदेव महादेवार्य के शिष्य और अभयचन्द्रके प्रशिष्य थे | कृष्णमाचार्यने इन्हें श्रीकान्त जातिके आदिदेव एवं गौरीका पुत्र बताया है। इनकी 'श्रुतज्ञानचक्रवर्ती', 'संगीताकर' और 'भाषाप्रवीण' उपाधियाँ थीं । श्रीनारायण मोरेश्वर खरेने पार्श्वदेवको दाक्षिणात्य अनुमानित किया है। उन्होंने लिखा है-"स्थायीके नामोंको देखते हुए ऐसा मालूम होता है कि महाराष्ट्र तथा कर्नाटकमें प्रचलित संगीतकी ओर विशेष ध्यान दिया है। कर्नाटकके नाम बहुत बार देखने में आते हैं, इससे अन्धकार स्वयं कर्नाटककी ओरके हों; ऐसी बहुत सम्भावना होती है।"
पार्श्वदेवने संगीतसमयसारके द्वितीय अधिकरणके प्रथम श्लोकमें भोजराज और सोमेश्वरका उल्लेख किया है। भोजराजका समय ई० सन् १०५३ और सोमेश्वरका ११८३ है। इससे यह ध्वनित होता है कि 'संगीतसमयसार के रचयित्ता पार्श्वदेवका समय ई० सन् १९८३ के पश्चात होना चाहिये । इस
१. जैन सिद्धान्तमास्कर, आरा, भाग १०, किरण १, पृ० १७ ।
३०२ : तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्यका निर्देश 'रागविबोध'कार श्रीसोमनाथदेवने अपने 'रागविबोध'के तृतीय विवेक में प्रबन्धके सम्बन्धमें स्पष्ट करते हुए लिखा है-"तथा च पाचदेवः" एवं-"चतुभिर्धातुभिः षड्भिश्चांगर्यस्मात्प्रबध्यते। तस्मात्प्रबन्धः कधितो गोतलक्षणकोविदः ॥" स्पष्ट है कि रागविबोधकार पार्श्वदेव और उनके संगीतसमय सारसे सुपरिचित थे। इनका समय शक संवत् १५३१ अर्थात ई. सन १६०० के लगभग है । अतएव पावंदेवका समय ई० सन् ११८३ और ई० सन् १६०० के बीच होना चाहिये। संगीतसमयसारपर संगीतरत्नाकरका प्रभाव है और संगीतरत्नाकरका समय ई. सन् १२१०-१२४७ ई० है। इन दोनों ग्रन्थोंके रचयिताओंने एक-दूसरेका उल्लेख नहीं किया है। सम्भवत: एक-दूसरेने इन दोनों ग्रंथोंका अवलोकन न किया हो। दोनों ग्रन्थों का विषय एक है, पर भाषा भिन्न है। संगीत रत्नाकरमें प्रत्येक विषयका विशद वर्णन है जब कि संगीतसमयसारमें ऐसा नहीं है। मार्ग और देशी इन दोनों पद्धतियोंका संगीतरत्नाकरमें वर्णन आया है, पर संगीतसमयसारमें केवल देशी संगीतपर ही विचार किया गया है । देशी संगोतके जितने विषयोंका प्रतिपादन संगीतरत्नाकरमें मिलता है, उतनेका हो संगीतसमयसारमें भी। रागोंके नाम और लक्षण भी दोनों ग्रंथों में समान है। विषय-नियोजन और भाषा दोनों ग्रंथकी भिन्न-भिन्न है। अतएव पाश्चदेवका समय १२वीं शताब्दीका अन्तिम पाद या १३वीं शताब्दीका प्रथम पाद होना संभव है।
कुछ विद्वान पार्श्वदेवको कदम्बवंशीय शासकोंका समकालीन मानकर पार्श्वदेवको उक्त बंशके राजा विजयशिवमृगेश वर्माका समकालीन मानते हैं, जिससे इनका समय ई० सन् की ६ठी-७वीं शताब्दी आता है। पर ग्रंथके अन्तरंग परीक्षणसे यह तिथि सिद्ध नहीं होती। ग्रन्थमें भोज आदि राजाधोंका उल्लेख होने एवं संगीतके अन्य ग्रंथोंका प्रभाव रहने के कारण पार्श्वदेवका समय १२वीं शताब्दीका अन्तिम पाद स्वीकार किया जा सकता है।
रचना-परिचय-पार्श्वदेवको 'संगीतसमयसार' नामक एक ही कृति उपलब्ध है, जिसका प्रकाशन त्रावंकोरसे त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सिरीज द्वारा हुआ है। ग्रंथ नव अधिकरणोंमें समाप्त हुआ है। प्रथम अधिकरणमें नादोत्पत्ति, नादभेद, ध्वनिस्वरूप, उसके भेद, मिश्रध्वनि, शारीरलक्षण, गीतलक्षण और उसके भेद, आलप्ति, वर्ण, अलंकार आदि विषयोंका समावेश है। नादोत्पत्तिके पश्चात् स्वर, श्रुति, मूछना आदिकी व्याख्याएँ दी गयी है। स्थायो और दूसरे मिलाकर १३ अलंकार एवं सात गमक दिये गये हैं। मंगलाचरणके पद्यसे ध्वनित होता है कि ऋषभ नामक प्रथम स्वरका नामकरण आदि
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३०३
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीर्थंकर ऋषभदेवके नामपर हुआ है और इसे संगीत स्वरोंमें प्राथमिकता दी गयो है । मुद्रालंकार द्वारा आचार्यने ऋषभस्वरको उत्पत्तिपर प्रकाश डाला है
नाभेस्समुदितो वायुः कण्ठशीर्षसमाहतः ।
ऋषभ विनदेद् यस्मात्तस्माद् ऋषभ ईरितः ॥ अर्थात् नाभिसे उठनेवाला वायु कण्ठ तथा शीषंभागसे समाहत होता है, सब ऋषभस्वरकी उ:शहता है। इस प्रकार ऋषभदेवके मंगलाचरणसे संगीत 'ऋषभ' स्वरका बोध कराया है।
स्वर, गीत, वाद्य और ताल इन चारोंनी सिद्धि नादके द्वारा ही सम्भव है। नादकी उत्पत्तिका कथन करते हुए लिखा है कि नाभिमें ब्रह्मस्थान है, जिसे ब्रह्मग्रन्यि माना जाता है, उस ब्रह्मग्रन्थिमें, उसके केन्द्र में प्राणको स्थिति है, उस केन्द्रस्थ प्राणसे अग्निको उत्पत्ति होती है । जब अग्नि और मारतका संयोग हो जाता है, तब नाद उत्पन्न होता है । 'नाद'के 'न' और 'द' ये दोनों वर्ण क्रमशः प्राणमारत और प्राणाग्निके वाचक हैं। नादके पांच भेद हैं.-१. अति सूक्ष्म २. सूक्ष्म ३, पुष्ट ४. अपुष्ट और ५. कृत्रिम । नाभिमें अतिसूक्ष्म, हृदय प्रदेश में सूक्ष्म, कण्ठमें पुष्ट, शिरोदेशमें अपुष्ट और मुख में कृत्रिम नादकी स्थिति नादभेदसे भासित होती है। यथा--
नाभौ यद् ब्रह्मणः स्थानं ब्रह्म ग्रन्थिश्च यो मसः । प्राणस्तन्मध्यवर्ती स्यादग्नेः प्राणात् समुद्भवः ||४|| अग्निमारुत्तयोर्योगाद् भवेनादस्य सम्भवः । नकार: प्राण इत्युक्तो दकारो वह्निरुच्यते ।।५।। अर्थोऽयं नादशब्दस्य संक्षेपात् परिकीर्तितः । स च पंचविधो नादो मसंगमुनिसम्मतः ।।६।। अतिसूक्ष्मश्च सूक्ष्मश्च पुष्टोऽपुष्टश्च कृत्रिमः । अतिसूक्ष्मो भवेनामी हृदि सूक्ष्मः प्रकाशते ॥७ पुष्टोऽभिव्यज्यते कण्ठे त्वपुष्टः शिरसि स्मृतः ।
कृत्रिमो मुखदेशे तु स्थानभेदेन भासते || ध्वनि चार प्रकारको बतलायी गयो है-१. काबुल-खाबुल, २. बम्बल, ३. नाराट और ४. मिश्रका ध्वनिके विचारक्रममें कण्ठसम्बन्धी गुण और अवगुणोंपर भी प्रकाश डाला गया है । कण्ठके १. माधुयं, २. श्रावकत्व, ३. स्निवत्व ४. घनता और ५. स्थानकत्रयशोभा ये पांच गण माने हैं तथा खेटि, स्वेगि और भग्न शब्द ये तीन कण्ठदोष बताये हैं। इन सभीको परिभाषाएं भी निबद्ध ३०४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
की गयी हैं। आलप्तिके भेदोंका कथन भी किया गया है । सालक, विषम, सालक प्रान्जल, साक्षरा, अनक्षरा और अताला आलतियोंके लक्षण निबद्ध किये हैं। इस प्रकार प्रथम अधिकरणमें नाद, ध्वनि और आलप्ति सम्बन्धी विचार किया गया है।
द्वितीय अधिकरणमें आप मंद, स्थायीका नामकरण मोर उनके स्वरूप दिये हैं । इस अधिकरणमें कर्नाटक देशमें प्रचलित संगीतपर विशेष प्रकाश डाला है । वादीस्वरकी व्याख्या करते हुए लिखा है
"सप्तस्वराणा मध्येऽपि स्वरे यस्मिन् सुरागता ।
स जीवस्वर इत्युक्तं अंशो वादी च कथ्यते ॥ संवादी, विवादी और अनुवादीकी व्याख्या भी इसी अधिकरणमें की गयी है। रागोंके सम्बन्ध विचार भी इसी प्रकरणमें पाया जाता है | ग्रह, न्यास, अंश, व्याप्ति और रसका कथन भी इसी अधिकरण में है। राग, रागाङ्ग, भाषाङ्ग, क्रियाङ्ग आदिक विचारके साथ यादी, संवादी और विवादी स्वरोंके संयोगी भेद भी बतलाये है। संगोके पाडव और ओढव रूपोंका वर्णन करने के साथ, भैरव, हिंडोल, मालकंस इत्यादि रागोंका वर्णन भी किया है । तृतीय अधिकरणमें तोड़ी, वसन्त, भैरव, श्रीराग, शुद्धबंगाल, मालश्री, धराडी, गोड, धनाश्री, गुण्डकृति, गर्जरी और देशी इन तेरह रागाङ्ग रागोंका लक्षणसहित निरूपण किया है। वेलावली, अंधाली, आसावरी, मंजरी, ललिता, केशकी, नाटा, शुद्ध बरारी और श्रीकण्ठी ये ९ भाषाङ्ग राग दिये गये हैं। इस तृतीय अधिकरणमें सब मिलाकर ३३ रागोंके लक्षण लिखे गये हैं। यहाँ उदाहरणार्थ भैरव और श्रीरागके लक्षण दिये जा रहे हैं
भिन्नषड्जसमुद्भूतोमन्यासोधांशभूषितः । समस्वरोरिपत्यकः प्रार्थने भैरवः स्मृतः ॥
श्रीरागष्टकारागाङ्गमतारो मन्द्रगस्तथा । रिपंचविहीनोऽयं समशेषस्वराश्रयः ।
षड्जन्यासमहासश्च रसे वीरे प्रयुज्यते ॥ चतुर्थ अधिकरणमें प्रबन्धकी व्याख्या दी है । यह व्याख्या, सोमनाथने भी अपने रागविबोषमें उद्धृत की है । चार षातु और छह अङ्गोंसे जिसका नियमन होता है, वह प्रबन्ध है। जिस प्रकार आस्थायी, अन्तरा, आभोग और संचारी ये ध्रुपदके प्रबन्धक धातु बताये गये हैं । इसके पश्चात् पाद, बन्ध, स्वरपद,
प्रमवापार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३०५
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
चित्र, तेन, मिश्र इत्यादि करणोंकी व्याख्या एकादश ध्रुवोंके अनन्तर उनका उपयोग करनेकी विधि बतलायी गयी है। प्रत्यक्ष गायन किस प्रकार करना चाहिये, इसके सम्बन्धमें भी महत्त्वपूर्ण सूचनाएं अंकित की गयी हैं।
पञ्चम अधिकारमें अनवद्यादि चार प्रकारके वाद्योंके भेद बतलाकर तत्सम्बन्धी परिभाषा भी अंकित को गयी है। पाठवायके १२ मेद बतलाये हैं और किन-किन अक्षरोंको किस-किस वाद्यपर किस प्रकार बजाना चाहिये, यह भी बतलाया गया है।
षष्ठ अधिकरणमें नृत्य और अभिनयके सम्बन्धमें प्रकाश डाला गया है। अंग-विक्षेपके विभिन्न प्रकार दिये गये हैं। भरतमुनिने अपने नाट्यशास्त्रमें जिन अभिनयोंका जिक्र किया है, उनका वर्णन भी इस अधिकरण में है।
सप्तम अधिकरणमें तालका उद्देश्य, लक्षण और उसके नाम दिये गये हैं। अन्तमें संगीतमें तालका महत्त्व प्रतिपादित करनेवाला निम्न पद्य पाया जाता है--
तालमलानि गेयानि ताले सर्व प्रतिष्ठितम् ।
तालहीनानि मेयानि मंत्रहीना यथाइति: ।। अष्टम अधिकरण गीताधिकरण है। इसमें गीत गानेकी विधि, गीतके गुणदोष, नतंक, वादक आदिको परिभाषाएँ एवं उत्तम, मध्यम और जघन्य गायकके लक्षण बताये गये हैं। प्रबन्धगीत, तालगीत एवं आलापगीत आदि भेदोंका भी कथन किया है।
नवम अधिकरणमें प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट आदिका वर्णन किया गया है। इस संगीतसमयसारमें ११वीं-१२वीं शताब्दीके देशी संगीतका विस्तृत विवेचन किया गया है। अन्धकार मार्गसंगीतके प्रपंचमें नहीं पड़ा है। उसने केवल देशी संगीतका ही अंकन किया है। इसमें सन्देह नहीं कि पाश्चदेवने संगीतको मोक्षशास्त्रके समान ही उपादेय बताया है। रागवर्द्धक होनेपर भी संगीत वीतरागताको ओर ले जाता है। इसका प्रधान कारण यह है कि भगवद्भक्तिके लिये तन्मयता उपादेय है और यह संगीतमें प्राप्त होती है। वीणाको झंकार, वेणुको स्वरमाधुरी, मृदंग, मुरज, पणव, दुदुर, पुष्कर मंजीर, आदि वाद्योंको स्वरलहरी आत्मा और प्राणों में एकोमाव-उत्पन्न करती है और इस एकी. भावसे ध्यानकी सिद्धि होती है। मन, वचन, काय एकनिष्ठ होकर समाधिका अनुभव करते हैं । इस प्रकार पावदेवने अपने इस ग्रन्थमें संगीतको उपादेयता स्वीकार की है और इसे समाधिप्राप्तिका एक कारण माना है। प्रथम अधि३०६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परभरा
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
करणमें रचयिताने गमकों द्वारा मनकी एकाग्रताका निरूपण किया है। लिखा है
स्वधतिस्थानसंभूतां छायां श्रुत्यन्तराश्रयाम् । स्वरो यद् गमयेद् गोते गमकोऽसी निरूपितः ।।४।। स्फुरितः कम्पितो लीनस्तिरिपुश्चाहतस्तथा ।
आन्दोलितस्त्रभिन्नश्च गमकाः सप्त कीर्तिताः ॥४२|| इस प्रकार धर्मशास्त्रके समान ही संगीतशास्त्रका महत्त्व स्वीकार किया है।
भास्करनन्दि तत्त्वार्थके टीकाकारोंमें भास्करनन्दिका अपना स्थान है । टीकाको अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है
'तस्यासीत् सुविशुबदृष्टिविभवः सिद्धान्तपारङ्गतः, शिष्यः श्रीजिनचन्द्रनामकलितश्चारित्रभूषान्वित्तः । शिष्यो भास्करनन्दिनाम विबुधस्तस्याभवत् तत्त्ववित्,
तेनाकारि सुखादिबोधविषया तत्त्वार्थवृत्तिः स्फुटम् ॥४॥ अर्थात् भास्करनन्दिके गुरुका नाम जिनचन्द्र है। ये जिनचन्द्रसिद्धान्तके पारगामी तथा चारित्रसे भूषित थे। ग्रन्यके पुष्पिकावाक्योंमें महासिद्धान्त जिनचन्द्रभट्टारक नाम दिया गया है। प्रशस्तिमें जिनचन्द्रभट्टारकके गुरुका नाम सर्वसाधु लिखा है। बताया गया है कि सर्वसाधुने संन्यासपूर्वक मरण किया है । ___ तत्त्वार्थवृत्तिके अध्ययनसे स्पष्ट है कि भास्करनन्दिके गुरुका नाम जिनचन्द्र और जिनचन्द्रके गरुका नाम सर्वसाधु था। यहाँ यह विचारणीय है कि जिनचन्द्र कौन हैं और इनका समय क्या है ? इतिहासके अवलोकनसे जिनचन्द्र नामके चार-पांच आचार्यों का परिज्ञान प्राप्त होता है। एक जिनचन्द्र चन्द्रनन्दिके शिष्य थे, जिनका उल्लेख कन्नड़ कवि पोनने अपने 'शान्तिपुराण' में किया है | भास्करनन्दिके गुरु जिनचन्द्र सर्वसाधुके शिष्य है अत: पोन द्वारा उल्लिखित जिमचन्द्र भास्करनन्दिके गुरु नहीं हो सकते हैं। दूसरे जिनचन्द्र सिद्धान्तसारके रचयिता हैं। इनकी गुरुपरम्परा ज्ञात नहीं है। अत: इनका सम्बन्ध भी भास्करनन्दिके साथ नहीं जोड़ा जा सकता है। तृतीय जिनचन्द्र धर्मसंग्रहश्रावकाचारके रचयिता मेघावीके गुरु और पाण्डवपुराणके रचयिता शुभचन्द्राचार्यके शिष्य थे । तिलोयपण्णन्ति'को प्रशस्ति में इनका उल्लेख निम्न प्रकार पाया है
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३०७
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्पट्टाम्बुधिसच्चन्द्रः शुभचंद्रः सतां वरः । पंचायणदावाग्निः कामापसशनिः ।। तदीयपट्टाम्बरभानुमाली क्षमादिनानागुणरत्नशाली । भट्टारकः जिनचन्द्रनामा सैद्धान्तिकानां भुवि योऽस्ति सीमा ।।१७॥ स्याद्वादामतपानप्ततमनसो यस्यातनोत्सर्चतः, कोत्तिभूमितले सशाधवला सुज्ञानदानात्सतः । चार्वाकादिमतप्रवादितिमिरोष्णांशोभुनीन्द्रप्रभोः,
सूरिश्रीजिनचन्द्रकस्य जयतात्संघो हि तस्यानघः' ||१८|| इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि जिनचन्द्र वि० सं० १९१५ में विद्यमान थे। अतएव शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र भास्करनन्दिके गुरु सम्भव नहीं हैं ।
चौथे जिनचन्द्र श्रवणबेलगोलके अभिलेखसंख्या ५५ में द्वितीय माघन्दिके आचार्यके पश्चात् उल्लिखित हैं । पण्डित ए० शान्तिराज शास्त्रीने सुखवीधवृत्तिको प्रस्तावनामें इन्हीं जिमचन्द्रको भास्करनन्दिके गुरु होनेको सम्भावना व्यक्त की है। बताया है कि माधनन्दि आचार्य संवत् १२५० में जीवित थे। अत्तः इनके उत्तरकालमें होनेवाले जिनचन्द्रका समय संवत् १२७५ सम्भव है।
श्रवणबेलगोलाके उक्त अभिलेखका सम्भावित समय शक संवत् १०२२ (वि० सं० ११५७) है। उसमें उल्लिखित माधन्दिका समय संवत् १२५० कैसे हो सकता है। कर्नाटककविरितेके अनुसार एक माघनन्दिका समय ई० सन् १२६० है। वे माघनन्दिश्रावकाचारके कर्ता हैं और उन्होंने शास्त्रसारसमुच्चयपर कन्नड़में टीका लिखी है। पण्डित शान्तिराजजीका अभिप्राय सम्भवतः उक्त माघनन्दिसे ही है, पर अभिलेखमें प्रतिपादित माधनन्दि इनसे भिन्न हैं । अतः जिनचन्द्रका समय पण्डित शान्तिराजजी द्वारा निर्धारित सम्भव नहीं है। पुष्ट प्रमाणके अभावमें श्रवणबेलगोलाके अभिलेखमें निर्दिष्ट जिनचन्द्रको भास्करनन्दिका गुरु नहीं माना जा सकता । अभिलेखमें जिनचंद्रको व्याकरणमें पूज्यपादके समान, तकमें अकलंकके समान और काव्यप्रतिभामें भारविके समान बतलाया है, पर भास्करनन्दिके गुरु महासैद्धान्तिक हैं । इनके पाण्डित्यको जानकारी सुखबोधवृत्तिसे ही प्राप्त की जा सकती है।
भास्करनन्दि पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानंदके पश्चात् हुए हैं। यह उनकी टीकाके मंगलश्लोकमें आगत 'विद्यानन्दाः' पदसे स्पष्ट है । भास्करनन्दिने यशस्तिलक, गोम्मटसार, संस्कृतपञ्चसंग्रह, और वसुनन्दिप्रावकाचारके १. जैन सिद्धान्तभास्कर आरा, किरण २, भाग ११, पृ० १०९ । ३०८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
पद उद्धृत किये हैं । वसुनन्दिका समय विक्रमको १२वीं शताब्दी है । अतएव भास्करनन्दिका समय इसके पश्चात् होना चाहिये। हमारा अनुमान है कि इन भास्करनन्दिका समय १४वीं शताब्दीका अन्तिम पाद सम्भव हैं । भास्करनन्दिने अपनी वृत्ति पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि के अनुकरणपर लिखी है। इसमें विभिन्न आचार्यकिं पद्य भी उद्धृत किये हैं और टीकाकी शैली १३वों, १४वीं शताब्दीकी होने से इनके समय के सम्बन्ध में उक्त अनुमान यथार्थ प्रतीत होता है । यो पं० मिलापचन्द्र कटारियाने तृतीय प्रशस्तिपद्य में आये हुए 'शुभगति' पाठके स्थानपर 'शुभमत' पाठ मानकर भास्करनन्दिके प्रगुरु शुभचन्द्र मुनिको माना है । इन शुभचन्द्रका समय वि० सं० १४५०-१५०७ है । इनके पट्टपर जिनचन्द्र आसीन हुए और उनका समय वि० सं० १५०७ - १५७१ है । इन जिनचन्द्रने मुड़ासा में जीवराज पापड़ीवालकी वि० सं० १५४८ में प्रतिष्ठा करायी थी | श्रावकाचारके कर्त्ता मेधावी भी इनके शिष्य थे। अतः इस आधारपर भास्करनंदिका समय वि० सं० १६वीं शती है ।
रचना
भास्करनन्दिकी एक रचना उपलब्ध है- 'तस्वार्थ सूत्रवृत्ति - सुखसुबोधटीका । इसका प्रकाशन मैसूर विश्वविद्यालयने किया है। टीकाकारने पूज्यपादके साथ अकलंक और विद्यानन्दके ग्रंथोंसे भी प्रभाव अर्जित किया है। प्रथम सूत्रकी वृत्ति लिखते हुए भास्करनन्दिने अन्य वादियोंके द्वारा माने गये मोक्षके उपायोंका समालोचन करते हुए सोमदेबरचित 'यशस्तिलकचम्पू' के छठे माश्वाससे बहुत कुछ अंश ग्रहण किया है । तीसरे अध्यायके १०वें सूत्रकी वृत्तिमें अकलंकदेव तत्त्वार्थवातिकसे विदेहक्षेत्रसम्बन्धी वर्णनको ग्रहण किया है । इस वृत्तिकी प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार है-
१. विषयपष्टीकरणके साथ नवीन सिद्धान्तों की स्थापना ।
२. पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को आत्मसात् कर उनका अपने रूपमें प्रस्तुतीकरण ।
३. ग्रंथान्तरोंके उद्धरणोंका प्रस्तुतीकरण ।
४. मूल मान्यताओं का विस्तार
५. पूज्यपादकी शैलीका अनुसरण करनेपर भी मौलिकताका समावेश |
इनकी एक अन्य रचना ध्यानस्तव भी है, जो रामसेन के तत्त्वानुशासनके आधारपर रचित है ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ३०९
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब्रह्मदेव अध्यात्मशेलीके टीकाकारोंमें आचार्य ब्रह्मदेवका नाम उल्लेखनीय है । ये जैनसिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान थे। इन्होंने 'स्व' समव और पर समयका अन्डा अध्यया किया है। इनके सम्बन्धमें वृहद्रव्यसंग्रहको भूमिकामें पंडित जबाहरलालजोने लिखा है कि ब्रह्म उनको उपाधि है, जो बतलाती है कि वे ब्रह्मरारी थे और देव उनका नाम है । कई ग्रन्थकारोंने अपने नामके प्रारम्भमें ब्रह्मशब्द का उपयोग उपाधिके रूपम किया है। यथा-आराधनाकथाकोशके कर्ता ब्रह्म नेमिदत्त और श्रुतस्कन्धके रचयिता ब्रह्म हेमचन्द्र । इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्म नेमिदत्त ब्रह्मचारी थे, पर 'ब्रह्म' यह उनकी उपाधि न होकर सम्भवतः ब्रह्मदेव यही पूरा नाम रहा हो। उनके उपलब्ध ग्रन्थोंसे उनके पाण्डित्यका तो परिज्ञान होता ही है, साथ ही अनेक विषगोंको जानकारी भी मिलती है। ब्रह्मदेवके परिचयके सम्बन्धमें उनके ग्रन्थोंसे कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती है। श्री पण्डित परमानन्दजो शास्त्रीने अपने एक निबन्ध में बताया है कि 'द्रव्यसंग्रह के रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव, वृत्तिकार ब्रह्मदेव
और सोमराज थष्टि ये तीनों ही समसामयिक हैं। उन्होंने अपने कथनकी पुष्टि के लिए 'बृहद्रव्यसंग्रह' को टोकाके उत्थानवाक्यको उपस्थित कर लिखा है
'पहले नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव द्वारा सोमनामके राजश्रेष्ठिके निमित्त मालव देशके आश्रमनामक नगरके मुनिसूबत चैत्यालयमें २६ गाथात्मक द्रव्यसंग्रहके लघुरूपमें रचे जाने और बादमें विशेष तत्वपरिज्ञानार्थ उन्हीं नेमिचन्द्रके द्वारा वृहद्रव्यसंग्रहकी रचना हुई है । उस बृहद्रव्यसंग्रहके अधिकारोंके विभाजनपूर्वक यह वृत्ति आरम्भ की जाती है। साथमें यह भी सूचित किया है कि उस समय आश्रमनामका यह नगर महामण्डलेश्वरके अधिकारमें था और सोम नामका राजश्रेष्ठि भाण्डागार आदि अनेक नियोगोंका अधिकारी होनेके साथसाथ तत्वज्ञानरूप सुधारसका पिपासु' था ।"
श्री परमानन्दजोका अनुमान है कि ब्रह्मदेवके उक्त घटनानिर्देश और लेखनशैलीसे यह स्पष्ट है कि ये सब घटनाएं उनके सामने घटी हैं। अतएव वृत्तिकार ब्रह्मदेवको नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेवके समकालीन या उनसे कुछ ही उत्तरकालवर्ती मानना चाहिए।
द्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव मालवदेशके निवासी थे। इन्होंने आश्रमनगरको अपने निवाससे पवित्र किया था और भव्यचातकोंको ज्ञाना
१. अनेकान्त वर्ष १९, पृ० १४५ । ३१० : तीथंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
मृतका पान कराया था। मुनि श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तदेयने पहले सोमश्रेष्ठिके विशेष निमित्त २६ गाथात्मक पदार्थलक्षणरूप लघुद्रव्यसंग्रहकी रचना की, पश्चात् तत्त्वपरिज्ञानार्थ ५८ गाथात्मक बृहद्रव्यसंग्रहकी रचना को, जिसका उल्लेख वृतिकारने उत्थानवाक्यमें किया है। वृत्तिकार ब्रह्मदेवने उसी आश्रम नगरके मुनिसुव्रत चैत्यालयमें अध्यात्मरसभित द्रव्यसंग्रहको महत्त्वपूर्ण टीका लिखी है। यह टोका और मलग्रन्थरचना भोजदेवके राज्यकाल वि० सं० १०७०-१११०के मध्य लिखी गयी है। उत्थानिकावाक्यसे यह स्पष्ट है कि ब्रह्मदेवकी टीका और द्रव्यसंग्रह दोनों ही भोजके कालमें रने गये हैं। अतएव ब्रह्मदेवका समय वि० सं० को १२वीं शताब्दी होना चाहिए। ___ डॉ० ए०एन० उपाध्येने ब्रह्मदेवको जयसेनके बादका विद्वान बतलाया है। पर ब्रह्मदेव इनसे पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं, क्योंकि जयसेनने 'पञ्वास्तिकाय' की पहली गाथाकी टोकामें ग्रन्थके निमित्तकी व्याख्या करते हुए लिखा है-अथ प्राभूतग्रंथे शिवकुमारमहाराजो निमित्तं अन्यत्र द्रव्यसंग्रहादी सोमश्रेष्ठयादि ज्ञातव्यं"। इससे स्पष्ट है किजयसेन निमित्त कथनकी बातसे परिचित थे। अतएव वे ब्रह्मदेवके उत्तरवर्ती जात होते हैं। यों तो ब्रह्मदेवकी टीकाशैली जयसेनाचार्य जेसो ही प्रतीत होती है। जयसेनाचार्यने टीकाओं में शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थका कथन करनेका निर्देश किया है। मंगलादिकी चर्चा एवं व्याख्यान करनेकी पद्धति जयसेनाचार्य जैसी ही प्रतीत होती है। अतः सहसा ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मदेवने अयसेनाचार्यका अनुसरण किया हो । जयसेनने 'पंचास्तिकाय'की १४६वीं गाथा और समयसारकी २१७वीं गाथाकी टोकामें, द्रव्यसंग्रहको ५७वीं माथाको टीकामें उद्धत उद्धरणोंको अपनाया है। अतः अनुमान यह है कि 'बृहद्व्यसंग्रह'को १३वी गाथामें उद्धृत गद्यवाक्योंके आधारपर पण्डित आशाधरजीने श्लोकको रचना को है__ "सहजशुद्धकेवलज्ञानदर्शनरूपाखण्डकप्रत्यक्षप्रतिभासमयनिजपरमात्मप्रभृतिषड्दव्यपञ्चास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थेषु मुदत्रयादिपञ्चविंशतिमलरहितं वीतरागसर्वज्ञपणीतनविभागेन यस्य श्रद्धानं नास्ति स मिथ्यादृष्टिर्भवति । पाषाणरेखासदशानन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभान्यतरोदयेन ........." इन्द्रियसुखादिपरद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणोतनिश्चयव्यवहारमयसाध्यसाधकभावेन मन्यते, परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीततस्करवदात्मनिन्दासहितः सनिन्द्रियसुखमनुभवतीयविरतसम्यग्दष्टेलक्षणम् । यः पूर्वोक्तप्रकारेण सम्यग्दृष्टि: सन् भूमिरेखादिसमानक्रोधादिद्वितीय१. परमात्मप्रकाश, प्रस्तावना (अंग्रेजी), पृ०७२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३११
।
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
कषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेनेकदेशरागादिरहितस्वाभाविकसुखानु भूतिलक्षणेषु बहिविषयेषु पुनरेकदेशहिंसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणेषु" दमणबयसामाझ्यपोराहसचित्तराइभत्तया......स एव सदृष्टि लिरेन्वादिदृशकोपादितृतीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेन रामाहापाधिरहितस्वशुद्धात्मसंवित्तिसामुान्नसुखामृतानुभवलक्षणेषु बहिर्विषयेषु पुन: सामस्त्येन हिंसानृतस्तेयब्रह्मपरिग्रनिवृत्तिलक्षणेषु च पञ्चमहाव्रतेषु वर्तते स एव जलरेखादिशदृशसंज्वलनकषायमन्दोदये.. ."सत्यपूर्वपरमालादैकसुखानुभूतिलक्षणापूर्वकरणोपशमकक्षपकसंज्ञोऽष्टमगुणस्थानवर्ती भवति ।"१ - यही अभिप्राय पण्डित आशाधरजीके निम्नलिखित पद्यमें अंकित उपलब्ध होता है
भूरेखादिसदक्कषायवशगो यो विश्वदश्वाज्ञया हेयं वैषयिक सुखं निजमुपादेयं विति श्रद्दधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवात्मनिंदादिमान
शर्माक्षं भजते रुजत्यपि पर नोत्तप्यते सोप्यघः ॥ उक्त गद्य-पद्यमें शब्द और अर्थ सादृश्य है । अतः यह मानना पड़ता है कि किसी एकने दूसरेका अनुसरण किया है। आशाधरजीका समय वि० की १३वीं शताब्दी है। आशाधरजीने बहदद्रव्यसंग्रहको टीकाके अनेक वाक्य ग्रहण किये हैं- अतः ब्रह्मदेव आशाघरके पूर्ववर्ती हैं। इनका समय जयसेनसे पूर्व है।
पं० अजितकुमार शास्त्रीके सम्पादकत्वमें प्रकाशित बृहद्रव्यसंग्रहकी भूमिकामें लिखा है--"जयसलमेरके श्वेताम्बरीय भण्डारमें वि० सं० १४८५ श्रावण सुदी तेरस शनिवारकी लिखी हुई टीकावाली द्रव्यसंग्रहकी एक प्रति है । जो माण्डवगढ़ वर्तमान माण्डूमें काष्ठासंघ, माथुरसंघके भट्टारक गुणकोतिके शिष्य भट्टारक यश कीति, हरिभूषणदेव और ज्ञानचन्द्रको आम्नायमें अग्रवालवंशी, मगंगोत्री थावक साह धीनुके पुत्र हींगाकी धर्मपत्नीने अपने ज्ञानाबरणकमके क्षयार्थ लिम्बबायी थी। इससे स्पष्ट है कि ब्रह्मदेवका समय इस पाण्डुलिपिकी तिथिसे पूर्ववर्ती है। अतः निष्कर्षरूपमें ब्रह्मदेवका समय ई० सन् को १२वीं शती है। रचनाएँ
१. बृहद्रव्यसंग्रहकी टीका १. बृहद्रव्यसंग्रह, प्रथम संस्करण, गाथा १३, पृ० ३३-३५ । २. सागारधर्मामृत, १।१३ ।
३१२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
२. परमार्थप्रकाशको टोका ३. तत्वदीपक
४. ज्ञानदीपक
५. प्रतिष्ठा तिलक
६. विवाहपटल कथाकोष
७.
बृहद्व्यसंग्रहको टीका - बृहद्रव्य संग्रहको टीकामें अनेक सैद्धान्तिक बातोंका समावेश किया गया है । १०वीं गाथा के व्याख्यान में समुद्घातका, तेरहवीं के व्याख्यानमें गुणस्थान और मार्गणाओंका ३५वीं गाथाके व्याख्यान में १२ अनुप्रेक्षाओंका और विशेषतः तीनों लोकों का बहुत ही विस्तार के साथ वर्णन किया है। ज्ञान और दर्शनके प्रकरणमें ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंकी चर्चा कर दर्शनोपयोगका वर्णन किया गया है ।
द्वितीय अधिकारको प्रारम्भिक गाथाओंकी उत्थानिकामें परिणामि जीवमुत्तं' गाथा उद्धृत कर छहों द्रव्यों का विस्तारसे व्याख्यान किया है । लिखा है
परिणामपरिणामिनी जीवपुद्गलो स्वभावविभाव पर्यायाभ्यां कृत्वा शेषचत्वारि द्रव्याणि विभावव्यञ्जनपर्यायाभावान्मुख्यवृत्त्या पुनरपरिणामीनीति । 'जीव' शुद्धनिश्चयेन विशुद्धज्ञानदर्शन स्वभावं शुद्धचैतन्यं प्राणशब्देनोच्यते, तेन जीवतीति जीवः । व्यवहारनयेन पुनः कर्मोदयजनितद्रव्यभाव रूपेश्चतुभिः प्राणैर्जीवति, जीविष्यति जीवितपूर्वो वा जीवः । पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणि पुनरजीवरूपाणि । "मुतं" शुद्धात्मनो विलक्षणस्पर्शगन्धवर्णवती मूर्तिरुच्यते, तत्सद्भावान्मूर्त: पुद्गलः । जीवद्रव्यं पुनरुपचरिता सद्भूत्तव्यवहारेण मूर्त्तमपि शुद्धनिश्चयनयेनामूर्त्तम्, धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि चामूर्त्तानि । " सपदेसं" लोकमात्रप्रमितासंख्येrप्रदेशलक्षणं जीवद्रव्यमादि कृत्वा पंचद्रव्याणि पंचास्तिकाय संज्ञानि सप्रदेशानि । कालद्रव्यं पुनर्बहुप्रदेशलक्षणकायत्वाभावादप्रदेशम् । '
अर्थात् स्वभाव और विभाव पर्यायों द्वारा परिणामसे जीव एवं पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं। शेष चार द्रव्य अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश और काल विभावव्यञ्जनपर्यायके अभावकी मुख्यतासे अपरिणामी हैं। 'जीव' शुद्ध निश्चय नयसे निर्मल ज्ञान-दर्शनस्वभावधारक शुद्ध चैतन्यरूप है | आगममें शुद्ध चैतन्यको प्राण कहते है । उस शुद्ध चेतन्यरूप प्राणसे जो जीता है, वह जीव १. बृहद्रव्यसंग्रह प्रथम संस्करण, द्वितीय अधिकार, चूलिका प्रकरण, १०७६-७७ १ प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : ३१३
२१
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं । व्यवहारनय से कर्मोंके उदयसे प्राप्त द्रव्य तथा भावरूप चार प्राणोंसे अर्थात् इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास नामक प्राणसे जीता है, जोयेगा और पहले जीता था, वह जीव है। पुद्गल आदि पाँच द्रव्य अजीवरूप हैं । शुद्ध आत्मा से विलक्षण, स्पर्श, गन्ध, रस तथा वर्णका सद्भाव जिसमें पाया जाता है, वह मूर्तिक है । पुद्गल मूर्तिवाला होनेसे मूर्ति कहलाता है । जीवद्रव्य अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयसे मूर्त है किन्तु शुद्ध निश्चयको अपेक्षा अमूर्त है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य भी अमूर्तिक हैं । लोकाकाशके बराबर असंख्यात प्रदेशोंको धारण करनेसे जीवादि पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय नामसे कहे जाते हैं और बहुप्रदेशरूप कायत्व के न होनेसे कालद्रव्य अप्रदेश है | इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा द्रव्योंका विस्तारसे निरूपण किया है । द्रव्यों के इस विवेचनप्रसंग में शंका-समाfare भी प्रस्तुत किया गया है। बताया है कि यदि जीव-अजीव ये दोनों द्रव्य सर्वथा अपरिणामी ही हैं, तो संयोगपर्यायरूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है और यदि सर्वथा अपरिणामी हैं, तो जीव अजीब द्रव्यरूप दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं, आत्रवादि सात पदार्थ नहीं ? इस शंकाका उत्तर देते हुए बताया है कि कथंचित् परिणामी होनेसे सात पदार्थोंका कथन संगत होता है । जीव शुद्धद्रव्याथिकनयसे शुद्ध चिदानन्द स्वभावरूप है, पर अनादि कर्मबन्धरूप पर्यायके कारण राग आदि परद्रव्यजनित उपाधिपर्यायको ग्रहण करता है । यद्यपि जीव पर्यायरूपसे परिणमन करता है, तो भी निश्चयनयसे अपने शुद्ध रूप को नहीं छोड़ता है। इसी प्रकार अन्य द्रव्योंका भी कथन किया है ।
इस प्रकार टीकाकार ब्रह्मदेवने गाथाका शाब्दिक व्याख्यान ही नहीं किया, अपितु उसका विशेष विवेचन या व्याख्यान किया है। जैन आगमिक परम्परानुसार मति, श्रुत ज्ञानको परोक्ष कहा है, किन्तु ब्रह्मदेवने गाथा ५की टीकामें शंका-समाधानपूर्वक उन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है। इसी प्रकार गाथा ४४की व्याख्या में दर्शनका स्वरूप तर्कशास्त्र और सिद्धान्त ग्रन्थानुसार उपस्थित किया गया है । ब्रह्मदेवने इस स्वरूपका विवेचन धवला और जयधवला टीकाओंके आधारपर किया है। निश्चयतः ब्रह्मदेवने आगम और अध्यात्मके प्रकाशमें द्रव्यसंग्रहको टीका लिखी हैं। इस टीकामें उद्धरणपद्योंकी बहुलता है । समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमार्थप्रकाश, योगसार, मूलाचार, भगवती अराधना, इष्टोपदेश, यशस्तिलक, आप्तस्वरूप, त्रिलोकसार और तत्त्वानुशासन के उद्धरण उपलब्ध होते हैं । गाथा ४९ में पंचनमस्कारग्रन्थ, लघुसिद्धचक्र ओर बृहदसिद्धचक्रका कथन आया है। पंच
३१४ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमस्कार ग्रन्थको १२००० श्लोकप्रमाण कहा है-"अन्यदपि द्वादशसहस्रप्रमितपंचनमस्कारग्रन्थकथितक्रमेण लघुसिद्धचक्रं बृहत्सिद्धचक्रमित्यादिदेवार्चनविधानं भेदाभेदरलत्रयाराधकगुरुप्रसादेन ज्ञात्वा ध्यातव्यम् ।" इसी प्रकार पंचपरमेष्ठिप्रन्थका कथन भी आया है | लिखा है-"तथैव विस्तरेण पंचपरमेष्ठिग्रन्थकथितक्रमेण, अतिविस्तारेण तु सिद्धचक्रादिदेवार्चनाविधिरूपमन्त्रवादसम्बन्धिपंचनमस्कारग्रन्थे चेति।" इस प्रकार बृहद्रव्यसंग्रहकी टीकामें अनेक ग्रन्थ और ग्रन्थकारोंका निर्देश आया है, जो इतिहासकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण हैं।
परमार्थप्रकाशवृत्ति-परमार्थप्रकाशकी यह टीका भी बृहद्रव्यसंग्रहकी टीकाके समान विस्तृत है। यह सत्य है कि इसमें द्रव्यसंग्रहकी टीकाके समान सैद्धान्तिक विषयोंका समावेश नहीं हो सका है । भावनात्मकग्रन्थ होनेके कारण टीकाकारने आत्मा, भक्ति, वीतरागता एवं सरागताका विस्तारपूर्वक कथन किया है । द्रव्यसंग्रहके समान इसमें भी शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थकी पद्धतिको अपनाया गया है। विषयोंके लिए शंका-समाधानपूर्वक प्रत्येक विषयका स्पष्टीकरण किया है। गाथा २०१७ के व्याख्यानमें बताया है कि निश्चयसम्यक्त्व वीतरागचारित्रका अविनाभावी है, पर निश्चयसम्यक्त्व तो गृहस्थाबस्थामें भी सम्भव है, पर वीतरागचारित्र वहाँ नहीं रहता है। अतः पूर्वापर विरोध आता है। इस विरोधका परिहार नयष्टि द्वारा किया गया है। इसी प्रकार शुद्धात्माका ध्यान करनेसे मोक्षकी प्रासि होती है, पर अन्यत्र यह भी बताया गया है कि द्रव्यपरमाणुभावमें परमाणुका ध्यान करनेसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है। इस शंकाका समाधान भी तात्विकदष्ट्रिसे किया है। टोकाके अन्तमें बताया है कि "इस ग्रन्थमें अधिकतर पदोंकी सन्धि नहीं की गयी है और सुखपूर्वक बोध कराने के लिए वाक्य भी पृथक-पृथक् रखे गये हैं। अतः विद्वानोंको इस ग्रन्थमें लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सन्धि, समास, विशेष्य, विशेषण, वाक्य, समाप्ति आदि सम्बन्धी दूषण नहीं देखना चाहिये।"
टोकाको व्याख्यानशैलीका निरूपण करते हुए स्वयं टीकाकारने लिखा है"एवं पदखण्डनारूपेण शब्दार्थः कथितः । नयविभागकथनरूपेण नयार्थो भणितः । बौद्धादिमतस्वरूपकथनप्रस्तावे मतार्थोऽपि निरूपितः, एवं गुणविशिष्टाः सिद्धा मुक्ताः सन्तीत्यागमार्थः प्रसिद्धः । अत्र नित्यनिरञ्जनज्ञानमयरूपं परमात्मद्रव्यमुपादेयमिति मावार्थः । अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावार्थो व्याख्यानकाले १. बृहद्र्व्यसंग्रह, प्रथम संस्करण, गाया ४९, पृ० २०८ । २. वही. गाथा ५४, पृ. २२२ ।
'प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३१५
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
यथासम्भव सर्वत्र ज्ञातव्यः ।" सन्धि आदिके सम्बन्धमें इसी आशयका कथन वृहद्रव्यसंग्रहको टीकामें भी पाया जाता है। बताया है—अत्र ग्रन्थे विवक्षितस्य सन्धिर्भवति' इति ववनात्पादानां सन्धिनियमो नास्ति । वाक्यानि च स्तोकस्ताकानि कृतानि सुखबोधनार्थम् । तथैव लिङ्गवचनक्रियाकारकसम्बन्धसमासविशेषणवावयसमाप्त्यादिषणं तथा च शुद्धात्मादितत्त्वप्रतिपादनविषये विस्मतिदूषणं च विद्वद्भिर्न ग्राह्यमिति"। ____ इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि ब्रह्मदेवकी टीकाशेली भाष्यात्मक होनेपर भी सरल है। व्याख्याएं नये रूपमें प्रस्तुत की गयी हैं । अन्य ग्रन्थोंसे जो उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं, उनका विषयके साथ मेल बैठता है। टीकाकारके व्यक्तित्वके साथ मूललेखकका व्यक्तित्व भी ब्रह्मदेचमें समाविष्ट है ।
रविचन्द्र आचार्य रविचन्द्र अपनेको मुनीन्द्र कहते हैं । उनका निवासस्थान कर्नाटकप्रान्तके अन्तर्गत 'पनसोज' नामका स्थान है। कर्नाटकके शिलालेखोंमें रविचन्द्रका नाम कई स्थानोंपर आया है। अभिलेखोंसे इनका समय ई. सन्की दशम शताब्दी सिद्ध होता है। धारवाड़के सन् १९६२ ई० के एक अभिलेख में रविचन्द्र मुनिका उल्लेख आया है। तृतीय रवीचन्द्रका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके अभिलेख सं० .३ में आया है। इस अभिलेखके अनुसार सन् ११३०में वे वर्तमान थे। एक अन्य रविचन्द्रका उल्लेख मासोपवासी सैद्धान्तिकके रूप में प्राप्त होता है। इस अभिलेख में माघनन्दिकी गुरुपरम्परा दी गयी है। बताया है कि नन्दिसंघ बलात्कारगणके वत्तमान मुनि होय्सल राजाओंके गुरु थे। श्रीधर विद्यपद्ममन्दि विद्यदासुपूज्य सैद्धान्तिशुभचन्द्र-भट्टारक-अभयनन्दिभट्टारक-अरुहदि सिद्धान्ति, देवचन्द्र अष्टोपवासि कनक चन्द्र, नयकीति, मासोपवासि रविचन्द्र, हरियनन्दि, श्रुतकीति विद्यवीरनन्दिसिद्धान्ति, गण्डविमुक्त, नेमिचन्द्रभट्टारक,
१. परमार्थप्रकाश, टी० पृ० ७-८ } २. बृहद्व्य संग्रह, गाथा ५८, पृ० २४० ॥
Epigraphic Carcatica, XII, Gulbi Taluk, NO 57, Journal of ___the Bombay Branch of the R. A.S, X, PP. 171-2, 20+ t
डा० ए० एन० उपाध्ये, आराधनासमुच्चय, योगसारसंग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ, सन्
.१९६७, पृ०७। ४. दक्षिणभारतीय एपिग्राफिकाका वार्षिक प्रतिवेदन, सन् १९३४-३५, पृ० ७ । अभि
लेखसंख्या ४३२ ।
३१६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
गणचन्द्र, जिनचन्द्र, वर्षमान, धीवर, वासुपूज्म, विद्यादि स्वामि, कट कोपाध्याय श्रुतकीर्ति, वादिविश्वासघातक मलेयालपाण्डपदेव, नेमिचन्द्र मध्याह्नकल्पवृक्ष वासुपूज्य' । इस अभिलेखसे स्पष्ट है कि माधव द्रको गुरुपरम्पगमें मासोपवासि रविचन्द्र हुए हैं। इन रविचंद्रका समय ई. सन्को १३ वीं शती सिद्ध होता है। 'आराधनासारसमुच्चय'के रचयिता रविचन्द्र उपर्युक्त रविचन्द्र ही हैं या इनसे भिन्न हैं, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है। ग्रन्थान्तमें आचार्यने अपना परिचय एक ही पद्यमें दिया है
श्रीरविचन्द्रमुनीन्द्रः पनसोगेग्रामवासिभिग्रंन्यः ।
रचितोऽयमखिलशास्त्रप्रवीणविद्वन्मनोहारी ।।४।। इस परिचयसे इतना तो स्पष्ट है कि आचार्य दक्षिणभारतके निवासी थे और इन्होंने जैन आगमका पाण्डित्य प्राप्त किया था।
आराधनासारमें रविचन्द्रने पूर्वाचार्योंके अनेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इन उद्धरणोंसे इनके समयके सम्बन्धमें अनुमान लगाया जा सकला है। इन्होंने रामसेन द्वारा विरचित तत्वानुशासनका निम्नलिखित पद्य आराधनासारसमुच्चयमें 'उक्तञ्च' कहकर उद्धृत किया है
तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु ।
शुभाशुभमलाभावाद्विशुद्धं शुक्लमभ्यदु: ॥२०४।। अर्थात् अपूर्वकरण आदि स्थानोंमें जो उदासी-अनासक्तिमय तत्त्वज्ञान होता है, वह शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके मलके नाश होने के कारण शक्लध्यान कहा गया है। श्री पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारने रामसेनका स्थितिकाल दशम शतीका मध्य माना है। अतएव रविचन्द्रका समय रामसेनके बाद आता है।
'आराधनासारसमुच्चय'का उल्लेख शुभचन्द्रने स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी संस्कृतव्याख्यामें किया है। शुभचन्द्रने अपनी यह व्याख्या ई० सन् १५५६में पूर्ण की है। अतएव यह निश्चित है कि रविचन्द्रकी ख्याति उस समय तक व्याप्त हो चुकी थी। अतएव उनका समय ई० सन् १५५६ के पूर्व अवश्य है । माघचन्द्रको गुरुपरम्पराके अवलोकनसे ऐसा प्रतीत होता है कि आराधनासारसमुच्चयके रचयिता हू,लेबीडके कन्नड़ लेख में वर्णित रविचन्द्र ही हैं । यह अभिलेख ई० सन् १२०५ का है। इसी प्रकार १३ वीं शतोक 'केलगेरे के अभिलेखमें भी मासो१. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ४ । २. तत्वानुशासन, पय ३४२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३१७
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
पवासी रविचन्द्र सिद्धान्तदेवका उल्लेख है। अतएव इनका समय ई० सन्की १२वीं शताब्दी का अन्तिम पाद या १३वीं शतीका प्रथम पाद संभव है ।
रविचन्द्रका आराधनासारसमुच्चय संस्कृतपद्योंमें लिखा गया उपलब्ध है । इस ग्रन्थमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकनारित्र और सम्यक्तप इन चारों आराधनाओंका वर्णन किया गया है । सम्यक्चारित्र आराधनामें अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ इन द्वादश अनुप्रेक्षाओंका भी वर्णन आया है। तपाराघनाका स्वरूपविश्लेषण करनेके पश्चात् आराध्य, आराधक, आराधनोपाय, आराधनाफलका भी चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थमें दो प्राकृत और पांच संस्कृतके उद्धरण भी आये हैं। भाषा प्रांजल है । आचायने विषयका प्रतिपादन बहुत ही सुन्दररूपमें किया है। अनेक पद्योंपर कुन्दकुन्दका प्रभाव दिखलायी पड़ता है। सम्यग्दर्शनका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है
वृक्षारः बापा भूलं नाय च पथः हाशिष्ठानम् । विज्ञानचरिततपसां तथा हि सम्यक्त्वमाधारः ॥३८॥ दर्शननष्टो नष्टो न तु नष्टो भवति चरणतो नष्टः ।। दर्शनमपरित्यजतां परिपतनं नास्ति संसारे ॥३९।
लोक्यस्य च लाभादर्शनलाभो भवेत्तरी श्रेष्ठः । लब्धमपि त्रैलोक्यं परिमितकाले यतश्च्यवते ॥४०॥ निर्वाणराज्यलक्ष्म्याः सम्यक्त्वं कठिकामत: प्राहुः ।
सम्यग्दर्शनमेव निमित्तमनन्ताव्यययसुखस्य ॥४१।। इन पद्योंपर कुन्दकुन्दको निम्नलिखित गाथाओंका स्पष्ट प्रभाव मालूम पड़ता है
दंसणमूलो धम्मो उवइट्टो जिणवरेहि सिस्साणं । तं सोऊण सकण्णे दसणहीणो ण वंदिव्चो 1॥ २॥ दसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णस्थि णिब्वाणं। सिज्झति चरियभट्टा दसणभट्टा ण सिति ।। ३ ।। सम्मत्तरयणभट्टा जाणता बहुविहाई सत्थाई । आराहणाविरहिया भमति तत्येक तत्थेव ।। ४ ॥ सम्पत्तविरहियाणं सुद्ध वि उग्गं तवं चरंताणं ।
ण लहंति बोहिलाई अवि वाससहस्सकोठीहि ॥ ५॥ १. सम्पादक डॉ० ए० एन० उपाध्ये, बाराषनासारसमुच्चय १।३८-४१ । २. सणपाहु, गाथा २५ ।
३१८ : सीकर महाबीर और उमको बाचार्य-परम्परा
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
रविचन्द्रने यह समस्त ग्रन्थ आर्याछन्दोंमें लिखा है ।
अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ, कोण्डकुन्दान्वयको इंगलेश्वरी शाखाके श्रीममुदायमें माघनन्दि भट्टारक हुए हैं। इनके नेमिचन्द्र भट्टारक और अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ये दो शिष्य हुए हैं। अभयचन्द्र वालचन्द्र पण्डितके श्रुतगुरु थे । लिखा है___ "स्वस्ति श्रीमूलसंघदेशियगणपुस्तकगच्छकोण्डकुन्दान्वर्यादङ्गालेश्वरदबलिय श्रीसमुदायद-माधनन्दिभट्टारक-देवरप्रियशिष्यसं श्रीमन्नेमिचन्द्र-भट्टारक-देवसं श्रीमदभयचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवतिगलं.....शकवर्ष ११९७ नेषभावसंवत्सरद भाद्रपद शुद्ध १२ बुधवारद......।''
हलेबीडके एक संस्कृत और कन्नड़ मिश्रित अभिलेख में अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके समाधिमरणका उल्लेख आया है । यह अभिलेख शक संवत् १२०१ (ई० सन् १९७९)का है। इसी स्थानके एक अन्य अभिलेखमें अभयचन्द्रके प्रिय शिष्य बालचन्द्र के समाधिमरणका निर्देश है । यह अभिलेख शक संवत् ११९७ (ई० सन् १२७४)का है ।
ईस्वी सन १२०५के हलेबाडके एक अन्य कन्नड भिलेखमें माघनन्दिकी गुरुपरम्परामें अभयनन्दि भट्टारकका नाम आया है। केलगेरके अभिलेग्न में भी अभयनन्दि उल्लिखित हैं । यह अभिलेख ईस्वी सन्की तेरहवीं शती के उत्तराद्धंका है।५
उपर्युक्त अभिलेखोंमें अभयचन्द्रका निर्देश आनेसे उनका समय ईस्वी सन् १३वीं शती सिद्ध होता है । बहुत संभव है कि ये १३वीं शतीके प्रारम्भमें हुए हों और ७९ वर्ष तक जीवित रहे हों। ___ रावन्दूरके संस्कृतमिश्रित कन्नड़ अभिलेखमें अभय चन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य श्रुतिमुनि और उनके शिष्य प्रमेन्द्र के नाम आये हैं 1 भारंगीके एक शिलालेखमें बताया गया है कि राय राजगुरु मण्डलाचार्य महावादवादोश्वर १. जनशिलालेखसंग्रह भाग ३, अभिलेख ५१४ । २-३, वही, अभिलेख ५२४ । ४. जनशिलालेखसंग्रह, भाग ४, अभिलेख ३४२ । वही, अभिलेख, ३७६ । ५. जनशिलालेखसंग्रह, सतुर्थ भाग, अभि० सं० ३७६ । ६. जनशिलालेखसंग्रह, तृतीय भाग, अभि० सं० ५८४ ।
प्रबुदाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३१९
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
रायवादि पितामह अभयचन्द्र सिद्धान्तदेवका ज्येष्ठ शिष्य बुल्लगौड़ था, जिसका पुत्र गोपगोड़ नागरखण्डका शासक था । नागरखण्ड कर्नाटक प्रदेशमें था।' बुल्लगौड़के समाधिमरणका उल्लेख भारंगीके एक अन्य अभिलेखमें भी मिलता है, जिसमें बताया गया है कि बुल्ल या बुल्लुपको यह अवसर अभयचन्द्रकी कृपासे प्राप्त हुआ था । हुम्मचके एक अन्य अभिलेखमें अभयचन्द्रको चैत्यवासी कहा है।
अभयचन्द्र के समाधिमरणसे सम्बन्धित अभिलेखमें कहा गया है कि वह छन्द, न्याय, निघण्टु, शब्द, समय, अलंकार, भचक्र, प्रमाणशास्त्र आदिके विशिष्ट विद्वान थे। इसी तरह श्रुरिती परमार ...रके उसमें बायपद्रमूरि परिचय देते हुए लिखा है
सागम-परमागम-तक्कागम-णिरवसेसवेदी हु ।
विजिद-सयलण्णवादी जयउ चिरं अभयसूरि-सिद्धती ।। इससे भी अभयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीके पाण्डित्यपर प्रकाश पड़ता है । श्रुतमुनिका परमागमसार शक संवत् १२६३में समाप्त हुआ है । अतएव श्रुतमुनिका समय ई० सन्को १३वीं शताब्दी निश्चित है। रचना
अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीने कमप्रकृतिनामक ग्रन्थकी रचना की है। श्री आचार्य जुगलकिशोर मुस्तारने इनको गोम्मटसार जीवकाण्डको मन्दप्रबोधिका टीकाका रचयिता भी माना है। कर्मप्रकृतिके आदि और अन्तमें मंगलपद्य दिये गये हैं, जो निम्नप्रकार हैं
प्रक्षीणावरणद्वैतमोहप्रत्यूहकर्मणे । अनन्तानन्तपीदृष्टिसुखवीर्यात्मने नमः ॥
x
जयन्ति विधताशेषपापाजनसमुच्चया:।
अनन्तानन्तधीदृष्टिसुखवीर्या जिनेश्वराः ।। इन दोनों पद्योंके अतिरिक्त शेष समस्त ग्रन्थ गद्यमें लिखा गया है। १. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ३, अभि० सं० ६१० । २. वही अभि० सं० ६४६ । ३, बहो. अभि ० सं०६६७ । ४. अनेकान्त, वर्ष ८, किरण १२, १० ४४१ ।
३२० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
मंगलाचरणके पश्चात् तीन प्रकारके कर्म बतलाये गये हैं तथा द्रव्यकर्मके चार भेद हैं
"आत्मनः प्रदेशेषु बद्ध कर्म द्रव्यकर्म भावकम नोकर्म चेति त्रिविधम् !"
"तत्र प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन द्रव्यकर्म चतुर्विधम् ।" आत्मप्रदेशों में बंधा हुआ कर्म द्रध्यकर्म, भावकम और नोकर्म इस तरह तीन प्रकारका होता है । द्रव्यकर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके मेदसे चार प्रकारका होता है। अभयचन्द्रने प्रकृतिका स्वरूप ज्ञानप्रच्छदनादि स्वभाव बतलाकर उसने तीन भेद किये हैं—१. मूलप्रकृति, २. उत्तरप्रकृति और ३. उत्तरोत्तरप्रकृति । __"तत्र ज्ञानप्रच्छादनादिस्वभावः प्रकृति । सा मूलप्रकृतिरुत्तरप्रकृतिरुत्तरीत्तरप्रकृतिरिति विधा।"
इसके पश्चात् मूलप्रकृतिको ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप आठ प्रकारको बतलाकर प्रत्येकका पृथक-पथक स्वरूप निदिष्ट किया है। उत्तरप्रकृतियोंके १४८ भेद बतलाये हैं तथा प्रत्येक प्रकृतिका स्वरूप भी बतलाया है। स्वरूपप्रतिपादन बड़ी सरलता. पूर्वक किया गया है, जिससे साधारण पाठक भी कर्मप्रकृतिके स्वरूपको हृदयंगम कर सकता है। ज्ञानावरणीयकर्मको पाँच उत्तरप्रकृतियोंके स्वरूप निदर्शनको यहाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है-"तत्र पंचभिरिन्द्रियैर्मनसा च मननं ज्ञानं मतिज्ञानं तदावृणोतोति मतिज्ञानावरणीयम् । मतिज्ञानगृहीत्तादिन्यस्यार्थस्य ज्ञानं श्रुतज्ञानं तदावृणोतीति धुतज्ञाभावरणीयम् । वर्णगन्धरसस्पर्शयुक्तसामान्यपुद्गलद्रव्यं तत्संबन्धिसंसारीजोबद्रव्याणि च देशान्तरस्थानि कालान्तरस्थानि च द्रव्यक्षेत्रकालभवभावानवधीकृत्य यत्प्रत्यक्ष जानातोत्यवधिज्ञानं तदावणातीस्थवधिज्ञानावरणीयम् । परेषां मनसि बर्तमानमर्थं यज्जानाति तन्मनःपर्ययज्ञानं तदाबृणोतीति मनःपर्ययज्ञानावरणीयम् । इन्द्रियाणि प्रमाशं मनश्चानपेक्ष्य त्रिकालगोचरलोकसकलपदार्थानां युगपदवभासनं केवलज्ञान तदावृणोतीति केवलज्ञानावरणीमम् ।" __ इस प्रकार इस ग्रन्थमें समस्त १४८ उत्तरप्रकृतियोंका स्वरूपनिर्धारण और भेद बतलाये गये हैं। नोकर्मवर्णन प्रसंगमें संसारी जीव, मुक्त जीव, भव्य, अभव्य आदिका वर्णन किया है। सम्यक्त्ववर्णनके सन्दर्भ में क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यतालब्धि और करणलब्धिका वर्णन किया है। १४ गुणस्थानोंके वर्णनके पश्चात् मतावस्थाका चित्रण किया गया है।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३२१
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
भट्टारक पद्मनन्दि
संस्कृतभाषा के उन्नायकों में भट्टारक आचार्य पद्मनन्दिकी गणना की जाती है । ये प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। कहा जाता है कि दिल्ली में रत्नकीदिके पट्टपर वि० सं० १३१० की पौष शुक्ल पूर्णिमाको भट्टारक प्रभाचन्द्रा अभिषेक हुआ था। इनका जन्म ब्राह्मण जातिमें हुआ था । स्वम्भात वाग. देवगिरि आदि स्थानों में बिहार कर धर्म और संस्कृतिक प्रचार-प्रसार किया था | इन्होंने दिल्ली में नासिरुद्दीन मुहम्मदशाह को भी प्रसन्न किया था। प्रभाचन्द्र ७४ वर्ष तक पट्टाधोश रहे |
एक बार प्रतिष्ठा महोत्सवके समय व्यवस्थापक गृहस्थ उपस्थित नहीं रहे, तो प्रभाचन्द्रने उसी उत्सवको पट्टाभिषेकका रूप देकर पद्मनन्दको अपने पट्ट पर अभिषिक्त कर दिया था। इन्होंने वि० सं० १४५० की वैशाख शुक्ला द्वादशी को एक आदिनाथस्वामीकी मूर्ति प्रतिष्ठित करायी थी। ये मूलसंघ स्थित नन्दिसंघ बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छके आचार्य थे !
भट्टारक पद्मनन्दिके तीन प्रमुख शिष्य थे, जिन्होंने भट्टारकपरम्पराएँ स्थापित अन्य शिष्यों के साथ मदनदेव, नयनन्दि और मदनकीति इन प्रमुख शिष्योंके भी नामोल्लेख पाये जाते हैं ।
स्थितिकाल
आचार्य पद्मनन्द भट्टारक और मुनि दोनों विशेषणों द्वारा अभिहित हैं । इनका पट्टाभिषेक वि० सं० १३८५ ( ई० सन् १३२८) में हुआ था । ये पन्द्रह् वर्ष, सात माह और १३ दिन गृहस्थी में रहे । पश्चात् १३ वर्ष तक दीक्षित हो ज्ञान और चारित्रकी साधना करते रहे । २९ वर्षकी अवस्थाके अनन्तर ये पट्टपर अधिष्ठित हुए और ६५ वर्षों तक पट्टाधीश बने रहे। इस प्रकार इनका जन्म समय ई० सन् १३०० के लगभग आता है | आदिनाथस्वामीकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा वि० सं० १४५० ( ई० सन् १३९३ ) में इनके द्वारा सम्पन्न हुई है । वि० १. श्रीमत्प्रभाचन्द्रमुनीन्द्र पट्टे शश्वत्प्रतिष्ठः प्रतिभाग रिष्ठ |
विशुद्धसिद्धान्त रहस्यरत्न - रत्नाकरो नन्दतु पद्मनन्दी || २८ ॥ गुर्वावली, जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ० ५३ ।
२. वि० सं० १३८५ पोस सुदि ७ पद्मनन्दिजी गृहस्थ वर्ष १५ मास ७ दीक्षा वर्ष १३, मास ५ पट्टवर्ष ६५ दिवस १८ अन्तर दिवस १० सर्व वर्ष ९९ दिवस २८ जाति ब्राह्मण पट्ट दिल्ली । -भट्टारकसम्प्रदाय, लेखांक २३७ ॥
३. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक २३९ ।
३२२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
'
सं० १४६५ ( ई० सन् १४०८) और वि० सं० १४८३ ( ई० सन् १४२६ ) के विजीलिया शिलालेखों में इनकी प्रशंसा की गयी हैं और वहाँ मानस्तम्भों में इनकी प्रतिकृति अंकित मिलती है ।
टोडानगर में भूगर्भ से २६ दिगम्बर जैन प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं, जिन्हें वि० [सं०] १४७० ( ई० सन् १४१३) में प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य और मट्टारक पद्मनन्दिके शिष्य भट्टारक विशालकीर्त्तिके उपदेशसे खण्डेलवाल जातिके गंगेलवाल गोत्रीय किसी श्रावकने प्रतिष्ठित कराया था । इससे स्पष्ट है कि भट्टारक पद्मनन्दि ई० सन् १४१३ के पूर्ववर्ती हैं। अतएव संक्षेपमें पट्टावलियों और प्रशस्तियों के आधारपर आर्यनका समय ई० वीं शती है।
रचनाएँ
आचार्य पद्मनन्दिके नामसे कई स्तोत्र मिलते हैं। पर गुरुका नाम निर्दिष्ट न होने से यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि प्राप्त स्तोत्र इन्हीं पद्मनन्दिके हैं या किन्हीं दूसरे आचार्यके । अतएव यहाँ सुनिर्णीत और संदिग्ध दोनों हो प्रकारको रचनाओं का निर्देश किया जाता है
१. जीरापल्ली पार्श्वनाथस्तवन
२. भावनापद्धति
३. श्रावकाचा रसारोद्धार
४. अनन्तव्रतकथा
५. वर्द्धमानचरित
सन्दिग्ध कृतियाँ
१. वीतरागस्तोत्र
२ शान्तिजिनस्तोत्र
३. रावणपार्श्वनाथस्तोत्र
१. जीरापल्लीपार्श्वनाथस्तोत्र में जीरापल्ली स्थित देवालयके मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथकी स्तुति की गयी है। इस स्तोत्र में १० पद्य हैं । कविने रथोद्धता, शालिनो और वसन्ततिलका छन्दों का प्रयोग किया है । कवि आराध्यकी स्तुति करता हुआ कहता है
दुस्तरेऽत्र भव-सागरे सतां कर्म - चण्डिम भरान्निमज्जताम् । प्रास्फुरीति न करावलम्बने त्वत्परो जिनवरोऽपि भूतले ॥
१. प्रशस्तिसंग्रह प्रथम भाग, दिल्ली १९५४ प्रस्तावना, पू० १९ ॥
वाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य १२३
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्वत्पदाम्बुज-युगाऽऽश्रयादिदं
पुण्यमेति जगतोऽवतां सताम् । स्पृश्यतामपि न चाऽन्यशीर्षगं तव ( त्वत्) समोऽत्र तवको निगद्यते' ||
अन्तिम पद्य में अंकित अनन्वय अलंकार द्वाराध्यको उपमारहित और सर्व श्रेष्ठ सिद्ध करता है । इस संसार सागर में कर्मभारके कारण निमज्जित होने वाले प्राणियों को भगवान पार्श्वनाथका करावलम्बन हो रक्षा करने में समर्थ है। अतएव जगत उद्धारकके रूपमें गल नायक पार्श्वनाथ ही प्रसिद्ध हैं । २. भावनापद्धति
इम रचनाका दूसरा नाम भावनाचतुत्रिंशक्तिका भी है। भावनाको निर्मल करने के लिए ३४ पद्यप्रमाण यह भावपूर्ण स्तुति है । रूपक अलंकारको योजना करता हुआ कवि कहता है कि यह मानसहंस जिनेन्द्र सेवारूणी मन्दाकिनीक निर्मल जल में विचरण करें । यतः यमराज जाल होनेपर यह प्राणी किस प्रकार आनन्दपूर्वक विचरण कर सकेगा । अतएव समय रहते हुए सजग होकर भक्तिरूपी भागीरथीम स्नान करने की चेष्टा करनी चाहिये ।
अद्यैव मानस-मराल ! जिनेन्द्र सेवा
देवापगांभसि रमस्व मनस्विमान्ये 1 यातेऽथवा विधिवशाद्दिवसावसाने,
कीनाश-पाश-पतितस्य कुत्तो रतिस्तं |||
इस पद्य में 'मानसमराल' और 'जिनेन्द्रसवादेवापगाभास' में रूपक अलंकारकी सुन्दर योजना को गयी है ।
कवि सम्पत्ति, बल, वैभवको विद्युत् के समान चपल और पुत्रमित्र, सुहुत, सुवर्णादिक को भी नितान्त अस्थिर और विनश्वर अनुभव करता हुआ अपनेको सम्बोधित करता है और कहता है कि संकड़ों अहमिन्द्रा के द्वारा जिनके चरणकमलोंकी पूजा की जाती है उन सनातन चैतन्यस्वभाव, ज्ञान-दर्शन स्वरूप, आनन्द के आगार जिनेन्द्र में मेरा मन लीन हो । यथा
संमेव संपदबला चपला घनाली
लालं वपुः सुत- सुहृत्- कनकादि-सर्व । ज्ञात्वेति सोऽहमहमिद्र-शत स्तुताहे !
लय मुदा त्वयि सनातन ! चित्स्वभावे ||१४||
१. अनेकान्त व
किरण ७ जुलाई १९३८ में प्रकाशित 1
२. अनेकान्त वर्ष ११, किरण ७-८, सन् १९५२, पृ० २५८-५९ पर प्रकाशित |
३२४ सार्थंकर महावीर और उनको आचार्य - परम्परा
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
कवि आचार्य आतंक, शोक और जन्म-मरणको उत्तंग शेलका रूपक देकर सांसारिक कष्टोंकी अभिव्यंजना करते हुए कहते है कि इस उत्तुग शैलपर बारबार चढ़ने और उतरनेके महान कष्टके कारण में कठिन संतापसे पीड़ित हूँ। अतएव प्रभो ! मैं आपके वचनरूपी पवित्र निर्मल सरोवर में प्रवेश करता है। जिस प्रकार पर्वतार बार-बार चढ़ने और उतरनेसे अनेक प्रकारका संताप होता है और उस संतापको दूर करनेके लिए स्नानादि अनेक क्रियाएँ सम्पन्न की जाती हैं, इसी प्रकार जन्म-मरण, रोग-शोक आदिको दूर करनेके लिए भगवान् जिनेन्द्रके वचनोंका अवलम्बन लेनेसे शान्ति प्राप्त होती है
आतंक शोक-मरणोद्भव-तुंगशैल
__ रोहाऽवरोहकरणेमम पीडितस्य । दुरितापहनये भवताजिनेश !
युष्मद्वचः शुचि-सुधा-सरसि प्रवेशः ॥१५॥ कवि भावविभोर होकर गगनले प्रार्थना पता हुमाकाहाना है कि भो! जो आपकी पाषानिमित मूर्तिका ध्यान करता है वह भी संसारमें पतनसे बच जाता है फिर जो आपके ज्ञानात्मक रूपका ध्यान करेगा, वह किस फलको प्राप्त होगा, यह कहा नहीं जा सकता है
प्रावादि-निम्मित-शुभप्रतिमासु यस्त्वां
ध्यायत्यमर्त्य-पतितामुपयाति सोऽपि । ज्ञानात्मक तु भजतां भवत: स्वरूपं
कीदृक्कियत्फलमलं तदहं न जाने ॥ ३. श्रावकाचारसारोद्धार- इसमें तीन परिच्छेद हैं। तृतीय परिच्छेदके अन्तमें लिखा गया है-'इति श्रावकाचारसारोद्वारे श्रीपद्धन्दिमनिविरचिते द्वादशप्रतवर्णनो नाम तृतीयः परिच्छेदो समाप्त:" । इस ग्रन्थमें गृहस्थविषयक . आचारका वर्णन किया गया है। इस श्रावकाचारके प्रणयनकी प्रेरणा लम्बकञ्चककुलान्वय साहू बासाधरसे प्राप्त हुई थो । साहू बासाघरके पितामह 'गोकर्ण'ने 'सूपकारसार' नामक ग्रन्थको रचना की थी। गोकर्णके पुत्र सोमदेव हुए। इनकी धर्मपत्नोका नाम प्रेमा था। इनके सात पुत्रों में बासाधर सबसे बड़े पुत्र' थे।
४. अनन्तवतकया---इसमें ८५ पद्य हैं। अनन्तचतुर्दशीके व्रतको सम्पन्न करनेवाले फलाधिकारी व्यक्तिको कथा वणित है। अन्तम कविने अपना परिचय भी दिया है। ९. इसका पाण्डुलिपि आमेरक शास्त्र भण्डारमें है।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३२५
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
५. बर्द्धमानचरित-इस संस्कृतग्रन्थमें तीर्थंकर वर्द्धमानका इतिवृत्त वणित है। पद्यसंख्या अनुमानत: ३०० है ।
सदिग्ध ग्रन्शीको सम्बन्धम कुछ नहीं कहा जा सकता है। आचार्य पमनन्दिकी रचनाओं में भक्तिसम्बन्धी आदर्श उच्च कोटिका पाया जाता है ।
__ भट्टारक सकलकीर्ति विपुल साहित्य निर्माणकी दृष्टिसे आचार्य सकलकीतिका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने संस्कृत एवं प्राकृत वाङ्मयको संरक्षण ही नहीं दिया, अपितु उसका पर्याप्त प्रचार और प्रसार किया। हरिवंशपुराणको प्रशस्तिमें ब्रह्मजिनदासने इनको महाकवि कहा है
तत्पपङ्कजविकासमास्वान् बभूव निर्ग्रन्थवरः प्रतापो ।
महाकवित्वादिकलाप्रवीणः तपोनिधि: श्रीसकलादिकीतिः ।।
इससे स्पष्ट है कि इनकी प्रसिद्धि महाकवीश्वर के रूप में थी। आचार्य सकलकोतिने प्राप्त आचार्यपरम्पराका सर्वाधिकरूपमें पोषण किया है। तीर्थयात्राएँ कर जनसामान्य में धर्मके प्रति जागरूकता उत्पन्न की और नवमंदिरोंका निर्माण कराकर प्रतिष्ठाएं करायीं । आचार्य सकल कीतिने अपने जीवनकालमें १४ बिम्बप्रतिष्ठाओंका संचालन किया था। गलियाकोटमें संघपति मूलराजने इन्हींके उपदेशसे चतुर्विशति जिनबिम्बकी स्थापना की थी। नागदह जातिके श्रावक संघपति ठाकुरसिंहने भी कितनी ही विम्बप्रतिष्ठाओंमें योग दिया। आबूम इन्होंने एक प्रतिष्ठा महोत्सवका संचालन किया था, जिसमें तीन चौबीसोको एक विशाल प्रतिमा परिकरसहित स्थापित की गयी थी।
निःसन्देह आचार्य सकलकोतिका असाधारण व्यक्तित्व था। तत्कालीन संस्कृत, अपभ्रश, राजस्थानी आदि भाषाओपर अपूर्व अधिकार था। भट्टारक सकलभूषणने अपने उपदेशरत्नमाला नामक ग्रन्थको प्रशस्तिमें सकलकोतिको अनेक पुराणग्रन्थों का रचयिता लिखा है। भट्टारक शुभचन्द्रने भी सकलकोतिका पुराण और काव्य ग्रन्थोंका रचयिता बताया है। लिखा है__ 'ताच्छष्याग्रेसरानेकशास्त्रपयोधिपारप्राप्तानाम, एकावलि-द्विकालि-कनका. बलि - रत्नावलि - मुक्तावलि - सर्वतोभद्र-सिंहविक्रमादिमहातपोवज्रनाशितकर्मपर्वतानाम् , सिद्धान्तसार-तत्त्वसार-यत्याचाराद्यनेकराद्धान्तविधातृणाम्, मिथ्यात्वतमोविनाशकमाण्डिानाम्, अभ्युदयपूर्वनिर्वाणसुखावश्यविधायि-जिनधर्मा. म्बुधिविवर्द्धनपूर्णचन्द्राणाम्, यथोक चरित्राचरणसमर्थननिग्रंथाचार्यावर्याणाम श्रीश्रीश्रीसकलकीत्तिभट्टारकाणाम् ।' १. शुभचन्द्राचार्यपट्टावलि, ७ अनुच्छेद । ३२६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थात्-पानन्दिक शिष्य, अनेक शास्त्रोंक पारगामी. ॥ कालि, द्विकालि, रत्नालि, मुक्तावलि, सर्वतोभद्र, सिहविक्रम आदि महातपोंके आचारणद्वारा कमरूपी पतीको नष्ट करने वाले, सिद्धान्तसार, तत्त्वसार, यत्या चार आदि आगमग्रन्थोंके रचयिता, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारकोमट करने के लिए सूर्यतुल्य, जिनधर्मरूपी समुद्रको वृद्धिगत करनेके लिए चन्द्रमातुल्य और यथोक्त चारित्र.. का पालन करनेवाले निग्रंथाचार्य सफलकोत्ति हुए।
अतः स्पष्ट है कि निग्रंथाचार्य सकलकत्ति एक बड़े तपस्वी, ज्ञानी धर्मप्रचारक और ग्रन्थरचयिता थे । उस युगमें यं अद्वितीय प्रतिभाशाली एवं शास्त्रों. के पारगामी थे।
आचार्य सकलकीतिका जन्म वि० सं० १४४३ (ई. सन् १३८६)में हा था। इनके पिताका नाम धमसिंह और माताका नाम शोभा था । ये हूंबड़ जातिके थे और अहिपुर पट्टनके रहने वाले थे । गर्भ में आने के समय माताको स्वप्नदर्शन हुआ था। पति ने इस स्वप्नका फल योग्य, कर्मठ और यशस्वी पूत्रकी प्राप्ति होमा बतलाया था ।
बालकका नाम माता-पिताने पूर्णसिंह या पूनसिंह रखा था । एक पट्टावली में इनका नाम 'पदार्थ भी पाया जाता है। इनका वर्ण राजहंसके समान शुभ्र और शरीर ३२ लक्षणोंसे युक्त था। पाँच वर्षको अवस्थामें पूर्णसिंहका विद्यारम्भ संस्कार सम्पन्न किया गया। कुशाग्रबुद्धि होने के कारण अल्पसमयमें ही शास्त्राभ्यास पूर्ण कर लिया। माता-पिताने १४ वर्षको अवस्थामें ही पूर्णसिंहका विवाह कर दिया । विवाहित हो जानेपर भी इनका मन सांसारिक कार्योके बन्धनमें बँध न सका। पुत्रकी इस स्थितिसे माता-पिताको चिन्ता उत्पन्न हई और उन्होंने गमझाया-'अपार सम्पत्ति है, इसका उपभोग युवावस्या में अवश्य करना चाहिये । सयम प्राप्तिके लिए तो अभी बहुत समय है। यह तो जीवनके चौथे पनम धारण किया जाता है। पिता-पुत्रके बीच में जो वार्तालाग हआ उसे भट्टारक भुवनकोतिने निम्नलिखित रूपमें व्यक्त किया है
.............
.
..
१. घोऊद श्रितालि प्रभागि पूरइ दिन पुत्र जनमीउ । २. न्याति मांहि मुहृतवत हूंबड हघि यखाणिदए ।
करमसिंह वितपन्न उदयवंत इम जाणीइए ।। शोभित तरस अरघांगि, मूलि सरीस्य सुदरीय । सील स्यंगारित अङ्गि पेखु प्रत्यक्षे पुरंदरीय ॥ -सकलकोतिरास, जैन सन्देश, शोषात १६ में उद्धृत ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परमरापोषकाचार्य : ३२७
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
देखवि चञ्चल चित्त माता पिता कहि वछ सुणि । अहम् मंदिर बह वित्त आविसिह कारणि कवइ॥ लहुआ लीलावंत सुख भोगवि संसार तणाए। पछइ दिवस बहूत, अछिह संयम तप तणाए । वयणि तं जि सुणेवि पुत्र पिता प्रति हम कहिए । निजमन सुविस करेवि धीर जे तरणि तप गहिए । ज्योवन गिइ भमार पछइ पालइ शीयल घण।
ते कुहु कवण विचार विण अवसर जे वरसीयिए । कहा जाता है कि माता-पिताके आग्रहसे ये चार वर्षों तक घरमें रहे और १८वें में प्रवेश करते ही वि० सं० १४६३ (ई० सन् १४०६) में समस्त सम्पत्तिका त्याग कर भट्टारक पधनन्दिके पास नेणवांमें चले गये। भट्टारक यशःकीर्ति शास्त्रभण्डारको पट्टावलीके अनुसार ये २६वें वर्ष में नेणवां गये थे। ३४३ वर्षमें आचार्य पदवी धारण कर अपने प्रदेशमें वापस आये और धर्मप्रचार करने लगे। इस समय ये नग्नावस्थामें थे।
आचायं सकलकीर्तिने बागड़ और गुजरातमें पर्याप्त भ्रमण किया था और धर्मोपदेश देकर थावकोंमें धर्मभावना जागृत की थी। उन दिनोंमे उक्त प्रदेशों में दिगम्बर जैन मन्दिरोंकी संख्या भी बहुत कम थी तथा साधुके न पहुँचनेके कारण अनुयायियोंमें धार्मिक शिथिलता आ गयी थी। अतएव इन्होंने गांवगांवमें विहार कर लोगोंके हृदयमें स्वाध्याय और भगवद्भक्तिकी रुचि उत्पन्न की।
बलात्कारगण इडर शाखाका आरम्भ भटारक सकलकोतिसे ही होता है। ये बहुत ही मेधावो, प्रभावक, ज्ञानी और चरित्रवान थे। बागड़ देशमें जहां कहीं पहलं कोई भी प्रभाव नहीं था, वि० सं० १४९२ में गलियाकोटमें भट्टारक गद्दीको स्थापना को तथा अपने आपको सरस्वतीगच्छ एवं बलात्कारगणसे सम्बोधित किया। ये उत्कृष्ट तपस्वी और रत्नावली, सर्वतोभद्र, मुक्तावली आदि व्रतोंका पालन करने में सजग थे। स्थितिकाल
भट्टारक सकलकीति द्वारा वि० सं० १४९० (ई. सन् १४३३) वैशाख शुक्ला नवमी शनिवारको एक 'चौबीसी मूर्ति; विक्रम संवत् १४९२ (ई० सन् १४३५) वैशाख कृष्ण दशमीको पार्श्वनाथमूर्ति; सं० १४९४ (ई० सन् १४३७) १. भट्टारकसम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ३३१ । २. वही, लेखांक ३३१ । ३२८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैशाख शुक्ला त्रयोदशीको आबू 'पर्वतपर एक मन्दिरको प्रतिष्ठा करायी गयी; जिसमें तीम चौबीसीकी प्रतिमाएँ परिकरसहित स्थापित की गयी थीं । वि० सं० १४९७ (ई० सन् १४४०) में एक आदिनाथस्वामीकी मूर्ति तथा वि० सं० १४९९ (ई. सन् १४४२)में सागवाड़ामें आदिनाथ मन्दिरकी प्रतिष्ठा की थी। इसी स्थानमें आपने भट्टारक धर्मकोतिका पट्टाभिषेक भी किया था।
भट्टारक सकलकीतिने अपनी किसी भी रचनामें समयका निर्देश नहीं किया है, तो भी मूतिलख आदि साधनोंके आधारपरसे उनका निधन वि. सं० १४२९ पौष मारामें महसाना (गजरात) में होना सिद्ध होता है। इस प्रकार उनकी आयु ५६ वर्ष की आती है।
"भट्टारकसम्प्रदाय ग्रन्थमें विद्याधर जोहरापुरकरने इनका समय वि० सं० १४५०-१५१० तक निर्धारित किया है । पर वस्तुतः इनका स्थित्तिकाल वि० सं० १४४३-१४९९ तक आता है । रचनाएँ
आचार्य सकलकीति संस्कृतभाषाके प्रौढ़ पंडित थे। इनके द्वारा लिखित निम्नलिखित रचनाओंकी जानकारी प्राप्त होतो है
१. शान्तिनाथचरित २, वर्द्धमानचरित ३. मल्लिनाथचरित ४. यशोधरचरित ५. धन्यकुमारचरित ६. सुकमालचरित ७. सुदर्शनचरित ८. जम्बूस्वामीचरित ९. श्रीपालचरित
१. भ० सं० लेखांक ३३३ । २. वहीं, लेखांक ३३४ । ३. वही, लेखांक ३३० । ४ प्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, प्रस्तावना पृ० ११ तथा डॉ० कासलीवाल
द्वारा लिखित तीन ऐतिहासिक पदावलियाँ । ५. भट्टारकसम्प्रदाय, सोलापुर पृ १५८, बलात्कारगण, इष्टरशाखा कालपट 1
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३२९
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
१० मूलाचारप्रदीप ११. प्रश्नोत्तरोपासकाचार १२. आदिपुराण..वृषभनाथचरित ५३. उत्तरपुराण १४. मदापितावली-मूक्तिमुक्तावली १५. पारनाथपुगण १६. सिद्धान्तसारदीपक १७. व्रतकथाकोष २८. पुसा मह ११. कर्मविपाक २०. स्वार्थसारदीपक २१. परमात्मराजस्तोत्र २२. आगममार २३. सारचतुर्विंशतिका २४. पञ्चपरमेष्ठीपूजा २५. अष्टालिकापूजा २६. सोलाकारणपूजा २७. द्वादशानुप्रेक्षा २८. गणधरवलयपूजा
२९. समाधिमरणोत्साहदीपक राजस्थानी भाषामें लिखित रचनाएं
१. आराधनाप्रतिवोधसार २. नेमीश्वर-गीत ३. मुक्तावली-गीत ४. णमीकार-गीत ५. पाश्वनाथाष्टक ६. सोलहकारण रासो ७. शिखामणिरास
८. रत्नत्रयरास १. शान्तिनाथचरित
इस चरितकाव्यमें १६ अधिकार हैं और ३४७५ पद्य हैं। इसमें १६वें ३३० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीर्थंकर शान्तिनाथका जीवनवृत्त अंकित है। काव्यचनत्कार यत्र-तत्र पाया जाता है । महाकाव्यत्व के स्थानपर पौराणिकताका ही समावेश हुआ है । २. बर्द्धमानचरित
इस चरितकाव्य में अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमानके पावन जीवनका वर्णन किया गया है। कथावस्तु १९ सर्ग या अधिकारोंमें विभक्त है। प्रथम छह मुर्गी में महावीर के पूर्व भवोंका और शेष १३ सर्गों में गर्भकल्याणकसे लेकर निर्वाणकल्याणक तक विभिन लोकोत्तर घटनाओंका विस्तृत वर्णन मिलता हैं। भाषा सरल और काव्यमय है ।
३ मल्लिनाथचरित
इस चरितकाव्यमें ७ सर्ग या परिच्छेद हैं और ८७४ श्लोक हैं । इसमें तीर्थंकर मल्लिनाथका चरित वर्णित है । ग्रन्थकर्त्ताने आरम्भ में मल्लिनाथ स्वामीको ही नमस्कार किया है-
नमः श्री मल्लिनाथाय कर्ममल्लविनाशिने । अनन्तमहिमाप्ताय त्रिजगत्स्वामिनेऽनिशं ॥ शेषान् सर्वान् जिनानुवन्दे धर्मचक्रप्रवर्तकान् । विश्वभव्य हितो क्तान् पंचकल्याणनायकान् ।।
-- प्रथम सर्ग, पद्य १, २
कवि वस्तुवर्णन में भी कुशल है । अनुष्टुप् जैसे छोटे छन्द में ग्राम, नगर, परिखा, ऋतु सरित, वसन्त आदिका चमत्कारपूर्ण वर्णन करता है। वीतशोका नगरी, विस्तीर्ण खाइयों, ऊंचे परकोटों और तोरणों आदिके वर्णन में उत्प्रेक्षाका प्रयोग चमत्काररूपमें किया गया है।
दीर्घखातिक्रया तुङ्ग शालगोपुरतोरणेः । मनोज्ञेयं दभाज्जंबूद्वीपवेथब्धदत्तराम् ॥ पुण्यचद्धामकूटाग्रध्वज हस्तैर्मरुद्वशेः । नाकिनामाह्वयतीव मुक्तये यद्भुवस्तराम् ||
- प्रथम सर्ग पद्य १९, २०
इस काव्य में दान, अहिंसा, रत्नत्रय, भक्ति, पूजा आदिका भी वर्णन आया है । काव्यतत्त्वके साथ दर्शनतत्त्वको अवगत करने के लिए यह रचना महत्त्वपूर्ण है । यशोधरचरित
यशोधरकी कथा अत्यन्त लोकप्रिय रही है । इस कथाको आधार मानकर अनेक जैन कवियो विभिन्न भाषाओं में काव्योंकी रचना की है | सकलकीर्तिकी
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषनाचार्य ३३२
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह रचना सस्कृत भाषाम है। इसमें माह स हैं। इन हिंसाका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। धन्यकुमारचरित
इस चरितकाव्यमें धन्यकुमारको कथा वर्णित है। इसमें सात सर्ग या अधिकार हैं। कविने घटनाओंको काव्यशैलीमें प्रस्तुत किया है और धन्यकुमारके जोवनकी कौतुहलपूर्ण घटनाओंको काव्यात्मक रूपमें उपस्थित किया है। सुकुमालचरित
इस काव्यमें सुकूमालके जीवनका पूर्वभवसहित वर्णन किया गया है । सम्पूर्ण कथा-वस्तु ९. सर्गों में विभक्त है। पूर्वभवमें किया गया बैरभाव जन्मजन्मान्तरमें कितना कष्टकारी होता है, इसका चित्रण इस काव्य में सुन्दररूपमें किया है । सुकुमाल दैभवपूर्ण जीवनयापन करता है, पर मुनि अवस्थामें अत्यन्त घोर तपश्चरण कर आत्मशद्धि लाभ करता है। सुदर्शनचरित ___ इस चन्तिकाव्यमें सेठ सुदर्शनका जीवनवृत्त वर्णित है और कथावस्तु ८ परिच्छेदों में विभक्त है। शोलनतके पालन में सुदर्शनको दृढ़ताका चित्रण बड़े ही सुन्दर रूपमें हुआ है | कविने अन्तर्द्वन्द्वोंका विकास बड़े ही सुन्दर रूपमें किया है। कपिलाके यहाँ सुदर्शनके पहुंचनेपर एवं कपिला द्वारा कमोत्तेजनाओंके उत्पन्न होनेपर भी सुदर्शनकी दृढ़ता किसके हृदयको स्पर्श नहीं करती। अभया रानी सूदर्शनको विचलित करनेका प्रयास करती है, पर वह सुमेरुकी चट्टानके समान दृढ़ रहता है । सुदर्शनके चरित्रको यह दृढ़ता और शीलकी अटलता काव्यका उदात्तीकरण है। कविने मुनि अवस्थामें पाटलीपुत्र देवदत्ता गणिका द्वारा जो उपसर्ग दिखलाये हैं या जिन कामचेष्टाओंका वर्णन किया है, वे पूनरुक्त जैसी प्रतीत होती हैं। शीलके चित्रणमें आठों कारकोंका नियोजन किया गया है--
शीलं मुक्तिवधूप्रियं भव शीलं सशीलाः श्रिताः शालेनात्र समाप्यत शिवपदं शोलाय तस्मै नमः । शोलान्नास्त्यपरः सुधर्मजनकः शीलस्य सर्वे गुणाः
शोले चित्तमनारतं विदधतं मां शील मुक्ति नय ।।३।१३० संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि यह चरितकाव्य काव्य मुणोंसे युक्त उदात्त ३३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
शैली में लिखा गया है । अष्टम सर्गमें सुदर्शनको आराधना रूपक अलंकारमें चित्रण किया है । भाषा सरल और कथा रससे परिपूर्ण है। सूक्तियाँ और धर्मोपदेश पर्याप्त मात्रामें हैं। श्रीपालचरित ____ इसमें कोटीभट्ट श्रीपालके जीवनको प्रमुख विशेषताओंका वर्णन आया है। समस्त कथावस्तु ७ सर्ग या परिच्छेदोंमें विभक्त है। श्रीपालका राजासे कुष्ठी होना, समुद्र में गिरना, शूलीपर चढ़ना आदि कितनी ही ऐसो घटना हैं, जो पाठकों के मन में कौतुहल जागृत करती हैं। कविने नाटकीय ढंगसे घरनाओंका नियोजन किया है। इस चरितकाव्यको रचना कर्मफर के सिद्धान्तको प्रतिष्ठित करने के लिए की गयी है। विश्वके समस्त प्राणी हार्मकृतफलको प्राप्त करते हैं। निकाचितकर्म फल दिये बिना नहीं रहते हैं। काव्यको भाषा सरल और परिमार्जित है। मूलाचारप्रदीप __ यह आचारसम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमे मुनिक जावनका समस्त क्रियाओं, विधिओं और साधनाओंका निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थमें १२ अधिकार हैं, जिनमें २८ मूलगुण, पंचआचार, दशलक्षणधर्म, द्वादशानुप्रेक्षा एवं द्वादशतपोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । प्रश्नोत्तरोपासकाचार
इस ग्रन्थमें श्रावकोंके आचारधर्मका वर्णन है। इसमें २४ परिच्छेद हैं । मूलगुण, द्वादशवत, अणुव्रत, गुणव्रत शिक्षावत आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । इस ग्रन्थकी विशेषता यह है कि भट्टारक सकलकातिने श्रद्धालु भक्तोंके आचाविषयक प्रश्नोंका समाधान करनेके लिए इस ग्रन्धकी रचना की है। आदिपुराण ____ इस पुराणमें भगवान आदिनाथ, भरत, बाहुबलि, सुलोचमा, जयकुमार आदिके जीवनवृत्तका वर्णन किया गया है। यह २० सर्गौम विभक्त है और इसमें ४६२८ पद्य हैं। इस कृतिका दूसरा नाम वृषभनाथचरित भी है। प्रधानतः इसमें आदि तार्थंकर ऋषभदेवका जोवन वणित है । उत्तरपुराण
प्रथम तीर्थंकरको छोड़ शेष २३ तीशंकरोंका जीवनवृत्त इस पुराणमें वर्णित है। माथ ही इसमें चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण आदि शलाकापुरुषों के जीवन भी अंकित हैं। इसमें १५ अधिकार है।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३३३
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
सद्भाषितावली
इस सुभाषित ग्रन्थ में धर्म, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व इन्द्रियजय स्त्रीसहवास, कामसेवन, निग्रन्थसेवा, तप, त्याग, राग-द्वेष, कोध, लोभ, मोह आदि विभिन्न विषयोंका विवेचन किया है। इसमें कुल ३८९ पद्य हैं। सभी पद्य उपदेशप्रद ई. --
'
सर्वषु जीवेषु दया कुरु त्वं सत्यं वचो ब्रूहि धनं परेषाम् | चाब्रह्मसेवा त्यज सर्वकाल, परिग्रह मुंच कुयोनिबाज ||
पार्श्वनाथपुराण
इसका दूसरा नाम पार्श्वनाथचरित भी है। इसमें २३ वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के जीवनका वर्णन है । कथाका आरम्भ वायुभूतिके जीवनसे हुआ है । वायुभूति अपनी साधना द्वारा पार्श्वनाथ बन निर्वाण प्राप्त करता है । समस्त कथावस्तु २३ सर्गों में विभक्त है ।
सिद्धान्तसारदीपक
यह रचना करणानुयोगसम्बन्धी है । इसमें उर्ध्वलोक, मध्यलोक एवं अधोलोक इनसानों लोकोंका एवं इन तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकियों का विस्तृत वर्णन किया है । "तिलोयपण्णत्त' और 'त्रिलोकसार के विषयको इस कृति में निबद्ध किया गया है । इसका रचनाकाल वि० सं० १४८१ और रचनास्थान बडालो नगर है । समस्त ग्रन्थ १६ अधिकारोंमें विभक्त है ।
व्रतकथाकोश
इस ग्रन्थमें विभिन्न व्रत सम्बन्धी कथाएं निबद्ध की गयी हैं । व्रतपालन द्वारा जिन व्यक्तियोंने अपने जीवन में विभूतियाँ प्राप्त की हैं, उन व्यक्तियोंके आख्यानों का वर्णन इस कथाकोशग्रन्थ में किया गया है।
पुराणसारसंग्रह
प्रस्तुत ग्रन्थ में आदिनाथ, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान इन छह तीर्थंकरोंके चरितांको निबद्ध किया गया है। तीर्थंकरोंका जोवनवृत्त अत्यन्त संक्षेपमें लिखा गया है।
कर्मविपाक
यह ग्रन्थ संस्कृतगद्य में लिखा गया है। इसमें आठ कर्म तथा उनके १४८ भेदों
३३४ कर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
का वर्णन है। प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध एवं अनुभागबन्धको अपेक्षासे ककि बन्धका वर्णन सुन्दर एवं बोधगम्य है। इसमें ५४७ पद्य हैं। तत्त्वार्थसारदीपक
जीव-अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वोंका १२ अध्यायोंमे वर्णन किया गया है। प्रथम सात अध्यायोंमें जीब एवं उसकी विभिन्न अवस्थाओंका चित्रण है। अष्टम अध्यायसे द्वादश अध्याय तक अजाब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षका क्रमशः वर्णन है। इस ग्रन्थको आचार्यने आध्यात्मिक रचना कहा है। परमात्मराजस्तोत्र
यह लघु स्तोत्र है । इसमें १६ पद्य हैं । रचना भावपूर्ण है।
आचार्यद्वारा लिखित पूजासाहित्य भी कम लोकप्रिय नहीं रहा है। नाम अनुसार, पंचपरमेष्ठी, अष्टलिका और सोलहकारण आदिको पूजाएँ अंकित हैं । द्वादशानुप्रेक्षामें अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व आदि भावनाओंका चित्रण किया गया है। इस प्रकार आचार्य सकलकीनिने सिद्धान्त, तत्वज्ञान, अध्यात्म, कर्मसिद्धान्त, आचार एवं चरितम्रन्थाकी रचना कर संस्कृतसाहित्यको समृद्ध किया है।
राजस्थानी भाषामें आचार्य सकलकीतिने गीत, रास और फाग विषयक रचनाओंका प्रणयन किया है । गीतों में लघुगीत और प्रबन्धगीत दोनों ही पाये जाते हैं। राजस्थानीके साथ गुजराती भाषाका प्रयोग भी जहाँ-तहाँ उपलब्ध होता है।
निःसन्देह आचार्य सकलकीति अपने युगके प्रतिनिधि लेखक हैं । इन्होंने अपनी पुराणविषयक कृतियोंमें आचार्यपरम्परा द्वारा प्रवाहित विचारोंको ही स्थान दिया है। चरित्रनिर्माण के साथ सिद्धान्त, भक्ति एवं कर्मविषयक रचनाएँ परम्पराके पोषणमें विशेष सहायक हैं । सिद्धान्तसारदीपक, तत्त्वार्थसार, आगमसार, कर्मविपाक जैसी रचनाओंसे जैनधर्मके प्रमुख सिद्धान्तोंका उन्होंने प्रचार किया है। मुन्याचार और श्रावकाचारपर रचनाएं लिखकर उन्होंने मुनि और श्रावक दोनोंके जोवनको मर्यादित बनानेकी चेष्टा की है। इनकी हिन्दीमें लिखित 'सारसोखामणिरास' और 'शान्तिनाथफाग' अच्छी रचनाएं हैं। इनमें विषयका प्रतिपादन बहुत ही स्पष्टरूपम हुआ है ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३३५
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
भट्टारक भुवनकीर्ति सकलकोतिके प्रधान शिष्यों में भट्टारक भुवनकीर्तिकी गणना की गयी है | सकलकीर्तिको मृत्यु के पश्चात् इन्हें भट्टारकपद किस संवत्में प्राप्त हुआ था, इसका कोई निश्चित उल्लेख नहीं मिलता है। श्री जोहरापुरकरने अपनी भट्टारकसम्प्रदाय नामक पुस्तक में इनका समय वि० सं० १५०८-५५२७ माना' है । पर अन्य भट्टारकपट्टालियांम सकलकोतिके पश्चात् धर्मवोति एवं विमलेन्द्रकीतिके भट्टारक होनेका निर्देश पाया जाता है। इन्हीं पटावलियोंके अनुसार धर्मकीर्ति २४ वर्ष और विमलेन्द्र कीति ९ वर्ष तक भट्टारक रहे । इस प्रकार सकलकोतिके ३३ वर्षके पश्चात् भुवनकीतिको वि० सं० १५३२ में भट्टारकपद मिला होगा, पर भुवनकीसिके पश्चात् होनेवाले सभी विद्वान् और आहारकोंने उक्त दोनों भट्टारकोंका कहीं भी निर्देश नहीं किया है। इससे पह निष्कर्ष निकलता है कि आचार्य सकल कीर्ति की परम्परामें भुवनकीति हो प्रथम शिष्य और भट्टारक हुए हैं। इन्हें वि० सं० १४९९ के पश्चात् किसी भी मामय पटपर अभिषिक्त कर दिया गया होगा तथा भट्टारकपट्टावली भट्टारकः यशःकोति-शास्त्रभण्डार (ऋषभदेव) में प्राप्त है।
आचार्य भुबन कीति विविध भाषाओं और शास्त्रों के ज्ञाता थे। इन्हें विभिन्न कलाओंका परिज्ञान भी था। ब्रह्मजिनदासने अपने रामचरितकाव्यमें इनकी कीतिका गुणानुवाद किया है तथा इन्हें यतिराज कहा है । यथा
पट्टे तदीयं गुणावान् मनीषी क्षमानिधाने भुवनादिकोतिः । जीयाच्चिरं भव्यसमूहबंद्या मानायतिनातनिपेवणीयः ।।
जगति भुवनकोतिर्भूतलख्यातकीतिः, श्रत जलनिधिवेत्ता अनंगमानप्रभेक्ता । विमल गुर्णानवासः छिन्नसंसारपाशः
स जयति यति राजः साधुराजिसमाजः ॥ भुवनकोतिक सम्बन्ध में ब्रह्मजिनदास, भट्टारक ज्ञान काति आदिन बताया है कि पहले य मुनि रहे हैं और सकलकार्तिको मृत्युके पश्चात् इन्हें भट्टारकपद प्रदान किया गया है । शुभचन्द्र-पटालिम भी इसका उल्लेख मिलता है ।
१. भट्टारकसम्प्रदाय, पु. १५८ । २. देखें, राजस्थानके जैन रास्त, पृ० १७५ के फुटनोट नं. ३ में । ३. रामचरित्र (७० जिनदास) श्लोक १८५-१८६ । ३३६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
:
!
"तत्पट्टाभरणानेकदक्षमोरव्यनिष्पादन सकलकलाकलाप कुशल रत्नसुवर्णरौप्य पित्तला श्मप्रतिमा-तन्त्रप्रतिष्ठायात्राचंनविधानोपदेशाज्जितकोत्तिक पूंरपूरितत्रैलोक्यविवरणानाम्, महातपोधनानां श्रीमद्भुवनकीर्तिदेवानाम् ।
·
:
सकलकार भूषणतुल्याएको र बर्ग, रौप्य, पित्तल, पाषाणकी प्रतिमा, यन्त्र और प्रासादमन्दिरकी प्रतिष्ठा और अर्चनविधानजस्य कीति कर्पूर से त्रिभुवनविवरको पूरित करनेवाले महातपस्वी श्री भुवनकीर्त्तिदेव हुए |
भुवनको तिने ग्रन्थरचना के साथ-साथ प्रतिष्ठाएं भी कराया थीं। वि० सं० १५११ मे इनके उपदेशसे हूबड़ जातीय श्रावक करमण एवं उसके परिवारने चौबोस प्रतिमा स्थापित की थी ।
सं० १५१३ में इन्हींके तत्वावधानमं चतुर्विंशतिप्रतिमाको प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई थी ।
स० १५१५ में गंधारपुरमें प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई थी तथा इन्हीके उपदेशसे जूनागढ़ में एक शिखरवाले मन्दिरका निर्माण कराया गया और उसम बालुकी आदिनाथस्वामीकी प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी। इस उत्सव में सौराष्ट्र के छोटेबड़े राजा-महाराजा भी सम्मिलित हुए थे । भुवनकांति इसमें मुख्य अतिथि थे।
सं० १५२५ मं नागदहाजाति, श्रावक पूजा एवं उसके परिवारवालोन इन्हींके उपदेश से आदिनाथस्वामीको धातुमय प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी 1
सं० १५२७ में वैशाख कृष्ण एकादशाको भुवनकोत्तिने बणजातीय जयसिंह आदि श्रावको बाकी रत्नत्रय चौबीसी प्रतिष्ठित कराया थी ।
रचनाएँ
आचार्य भुवनकी तिने 'जीवन्धररात', 'जम्बूस्वामोरारा' और 'अञ्जनाचरित' ग्रन्थ उपलब्ध हैं । 'जीवन्ध र रास' में जीवन्धरके पुण्यचरितका और जम्बूस्वामी रासमें जम्बूस्वामी के पावनचरितका रासशैली में अकन किया गया
१. शुभचन्द्र पट्टावलि, अनुच्छेद ८ ।
२. संवत् १५११ वर्षे वैशाख बदी
श्रीशांतिनाथ नित्यं प्रणमति ।
३. संकलकी तिनूरास, पद्म १९-२१ ।
४. संवत् १५२७ वर्षे वैशाख वदी ११ उपदेशात् बड ब्रह्म जयसिंग भार्या भूरी
बुधे श्रीमूलसं मट्टारक श्री भुवनकीति सुतधर्मा भार्या हीरु भ्राता वीरा भार्या
मरगदी सुत माड्या भूवर खीमा एते श्री रत्नत्रयचतुविंशतिका नित्यं प्रणमति ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ३३७
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
है | अञ्जनाचरित छोटा-सा नरितकाव्य है । इसमें सती अञ्जनाके आख्यानको निबद्ध किया है ।
ब्रहम जिनदास
ब्रह्मजिनदास संस्कृतके महान् विद्वान् और कवि थे। ये कुन्दकुन्दान्वय, सरस्वती गच्छके भट्टारक सकलकीर्तिके कनिष्ठ भ्राता और शिष्य थे । बलात्कारगणको ईंडर शाखाके सर्वाधिक प्रभावक भट्टारक सकलकोर्तिके अनुज होनेके कारण इनकी प्रतिष्ठा अत्यधिक थी ।
srat माताका नाम शोभा और पिताका नाम कर्णसिंह था। ये पाटनके रहनेवाले तथा बड़ जातिके श्रावक थे । पर्याप्त धनिक और समृद्ध थे । कुछ समयके बाद इन्हें घरसे विरक्ति हो गयो और इन्होंने श्रमण जीवन स्वीकार किया । इन्होंने गुरुके रूपमें सकलकीर्तिका आदरपूर्वक स्मरण किया है ।
स्थितिकाल
ब्रह्मजिनदासकी जन्म तिथि के सम्बन्धमें कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है, पर वि० सं० १५१० से आचार्यं ब्रह्मजिनदास ख्याति प्राप्त कर चुके हैं तथा अनेक मूर्तिलेखों में उनके निर्देश मिलते हैं । सकलकीर्तिका जन्म वि० सं० २४४३में हुआ है । अतः लघुभ्राता होने के कारण इनकी जन्म तिथि ४-५ वर्ष बाद मी स्वीकार की जाये तो वि० सं० १४५० के पूर्व ही इनकी जन्मतिथि जाती है। इन्होंने वि० सं० १५१० माघ शुक्ला पञ्चमीको एक पञ्चपरमेष्ठीकी मूर्ति स्थापित की थी । यथा
" सवत् १५१० वर्षे माहमासे शुक्लपक्षे ५ खौ श्रोमूल भट्टारक पद्मनन्दितत्यट्टे भ० श्रोसकलकीति तच्छिष्य ब्रह्मजिनदास हुंबड जातीय सा तेजु भा० मलाई ।”
कबिने गुजराती हरिवंशरासमें उसका रचनाकाल वि० सं० १५२० (ई० सन् १४६३) अंकित किया है। कहा जाता है कि भट्टारक सकलकीर्तिने वि० सं० १९८१ में संघसहित बडालीमें चातुर्मास किया था और वहाँके अभीझरा पार्श्वनाथ चैत्यालय में बैठकर 'मूलाचारप्रदीप' नामक ग्रन्थ अपने अनुज और शिष्य ब्रह्मजिनदासके आग्रहसे वि० सं० १४८१ श्रावण शुक्ला पूर्णिमाके दिन पूर्ण किया था। कविके संस्कृत हरिवंशपुराणकी पाण्डुलिपि मार्गशीर्ष कृष्णा त्रयोदशो रविवार वि० सं० १५५५ की प्राप्त होती है। अतः इनका यह ग्रन्थ ई० सन् १४९८ के पूर्व अवश्य ही रचा गया होगा । अतएव हमारा अनुमान ३३८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
है कि ब्रह्मजिनदासका समय वि० सं० १४५०-१५२५ होना चाहिए। इस समयावधि में कविकी रचनाओंका लेखन भी सम्भव है ।
इनकी रचनाओंसे अवगत होता है कि मनोहर, मल्लिदास, गुणदास और नेमिदास इनके शिष्य थे । ब्रह्मजिनदास ग्रन्थरचयिता होने के साथ कुशल उपाध्याय भी थे । यही कारण है कि इनके सानिध्य में अनेक शिष्योन ज्ञानार्जन
किया था ।
रचनाएँ (संस्कृत)
१. जम्बूस्वामीचरित
२. रामचरित
३. हरिवंशपुराण ४. पुष्पाञ्जलिव्रतकथा
५. जम्बूद्वीपपूजा ६. सार्द्धद्वयद्वीपपूजा
राजस्थानी
१. आदिनाथ
२. हरिवंशपुराण ३. राम-सीतारास
४. यशोधररास
५. हनुमंतरास ६. नागकुमार रास
७. परमहसरास ८. अजितनाथरास
९.
होलीरास १०. धर्मपरीक्षारास
११. ज्येष्ठजिनवर रास
१२. श्रेणिकरास
१३. समकित मिथ्यात्वरास १४. सुदर्शन रास
७. सप्त षिपूजा
८. ज्येष्ठ जिनवर पूजा ९. सोलह्कारणपूजा
१०. गुरुपूजा
११. अनन्तव्रतपूजा
१२. जलयात्राविधि
१५. अम्बिकारास
१६. नागश्रीरास
१७. श्रीपालरास
१८. जम्बूस्वामी रास
१९. भद्रबाहुरास
२०. कर्मविपाक रास २१. सुकौशलस्वामीरास
२२. रोहिणीरास
२३. सोलहकारणरास
२४. दशलक्षण रास
२५. अनन्तव्रत राम
२६.
२७. चारुदत्तप्रबन्धरास
२८. पुष्पाञ्जलिरास
• धन्नकुमार राम
१. शिष्य मनोहर रुपड़ा ब्रह्म मल्लिदास गुणदास ।
पढ़ो पढ़ावो बहु भाव सों जिन होई सांख्य विकास ॥ हरिवंशपुराणकी प्रशस्ति
ब्रह्मजिनदास शिष्य निरमला नेमिदास सुविचार |
पढ़ाई पढ़ावो विस्तरो परमहंस अवतार ॥ - परमहंसरास, पद्य ८ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ३३९
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९. घनपालरास ३०. भविष्यदत्तरास
३१. जीवन्धररास ३२. नेमीश्वररास
३३. करकण्डुरास ३४. सुभीमचक्रवर्तीरास
१९. अलांबीरामानसुगपणास ३६. मिथ्यादुवड़विनती
३७. बारवतगीत
३८. जीवड़ागोत
३९ जिन्दगीत
४०. आदिनाथस्तवन ४१. आलोचनाजयमाल
४२. गुरुजयमाल
४३. शास्त्रपूजा
४४. सरस्वतीपूजा
४५. गुरुपूजा
४६. जम्बूद्वीपपूजा ४७. निर्दोष सप्तमीव्रतपूजा ४८. रविव्रतकथा
४९. चौरासीजातिजयमाल
५०. भट्टारक विद्याधर कथा ५१. अष्टांगसम्यक्त्वकथा
५२. व्रतकथा ५३. पञ्चपरमेष्ठी गुणवर्णन
जम्बूस्वामीचरित इस चरितकाव्य में अन्तिम केवली जम्बूस्वामीका जीवनवृत्त अंकित है । सम्पूर्ण काव्य ११ सर्गों में विभक्त है । शृङ्गार और वोररसका सुन्दर वर्णन पाया जाता है। अलंकारोंकी दृष्टिसे उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिंग, निदर्शना, परिसंख्या आदि सभी प्रमुख अर्थालंकार प्राप्त है । भाषाशैलीको सशक्त बनाने के लिए सुभाषितोंका भी प्रयोग किया गया है।
हरिवंशपुराण -- इस पुराण में रखें तीर्थंकर नेमिनाथ और श्रीकृष्णके वंश हरिवंशमें उत्पन्न हुए व्यक्तियोंका वर्णन किया गया है। कौरव और पाण्ड वोकी कथा भी निबद्ध है । समस्त कथा ४० सर्गों में विभक्त है । रस, अलंकार, गुण और रीति की दृष्टि से भो इस पुराणका पर्याप्त मूल्य है । सृष्टि-विद्या, श्रावकाचार, श्रमणाचार, गुण-द्रव्य, तत्त्वज्ञान, नय आदिका भी कथन आया है ।
रामचरित - रविषेणाचार्य के पद्मपुराणके आधारपर इस रामकथाकी रचना को गयी है। समस्त इतिवृत्त ८३ सर्गो में विभक्त है और १५०० पद्य प्रमाण हैं । माषा के सरल होने पर भी शैली अलंकृत है ।
आदिनाथपुराण - राजस्थानी मिश्रित हिन्दी में रचा गया यह पुराण ग्रन्थ कविको सबसे बड़ी रचना है । ऋषभदेव, बाहुबलि, भरत आदि महापुरुषोंके जीवनवृत्त अंकित हैं। आदि तीर्थंकर ऋषभदेवकी पूर्वभवावली,
३४० : सीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
I
भोभूमिको समृद्धि, कुलकरोंकी उत्पत्ति तथा उनके द्वारा विभिन्न समयों में सम्पादित विभिन्न कृत्योंके निर्देश, कर्मभूमियोंका प्रारम्भ एवं इन फर्मभूमियों में घटित होनेवाली विभिन्न अवस्थाओंका चित्रण किया गया है । ] आचार्यने देशी भाषा में ग्रन्थका रचे जानेका कारण बतलाते हुए लिखा है-
भविण भावें सुणो आज रास कहो मनोहार । आदिपुराण जोई करी, कवित करूं मनोहार ॥ बाल गोपाल जिम पढ़े गुणे, जाणे बहु भेद । जिन सासण गुण निरमला, मिथ्यामत छेद || कठिन नारेल दीजे बालक हाय, ते स्वान न जाणे । छोल्यां केला द्राख दीजे, ते गुण बहु माने ॥ तिम ए आदपुराण सार, देस भाषा बखाणं 1 प्रगुण गुण जिम विस्तरे, जिन सरसण बखाणू हरिवंशपुराण - इस ग्रन्थका दूसरा नाम नेमिनाथरास भी है । कविने संस्कृत में लिखे गये अपने पुराणपर ही राजस्थानी भाषामें इस काव्यग्रंथकी रचना की है। इसका रचनाकाल वि० सं० १५२० है ।
रामसीतारास - राम के जीवनवृत्तको राजस्थानी भाषामें निवद्ध किया गया है । यह रचना वि० सं० १५०८ मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशीको लिखी गयी है ।
यज्ञाधररास - - महाराज यशोधरकी कथा अहिंसाका महत्व वर्णित रहनेके कारण साहित्य स्रष्टाओंके लिए विशेष प्रिय रहे हैं। ब्रह्मजिनदासने भी उक्त यशोधरकथाको आधार मानकर इस कृतिको रचना की है। भाषाशैलीको दृष्टिसे यह रचना ग्राह्य है ।
हनुमतरास-पुण्य पुरुष हनुमानका जीवन जैन आचार्य और जैन लेखकोंको विशेष प्रिय रहा है । यह एक लघु काव्य है, जिसमें चरितनायक हनुमानके जीवनकी मुख्य-मुख्य घटनाओंका वर्णन किया गया है। इस रासमें ७२७ दोहा, चौपाई बन्ध है ।
नागकुमाररास - ज्ञानपंचमीव्रतका माहात्म्य दिखलानेके लिए नागकुमारको कथा प्रसिद्ध है। इस कथा के आधार पर संस्कृत, अपभ्रंश और प्राकृत आदि भाषाओंम भी काव्य लिखे गये हैं । ब्रह्मजिनदासने राजस्थानीमिश्रित हिन्दी में नागकुमारसकी रचना कर पंचमीव्रतका माहात्म्य प्रकट किया है। परमहंसरास — इस आध्यात्मिक रूपककाव्यका नायक परमहंस नामक प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ३४१
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
गजा है और चेतनानामक रानी नायिका है। नायक मायारानीके वश होकर अपने शद्ध स्वरूपको भूल जाता है और कायानगरीय रहने लगता है। राजाका अमात्य मन है, जिसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति नामक दो पलियाँ हैं । इस काव्यका प्रतिनायक मोह है। इस प्रकार मोह और परमहंसका संघर्ष दिखलाकर मोहका पराजय और परमहंमको विजय दिखलायी गयी है । यह प्रतीक रचना बड़ी सुन्दर है।
अजितनाथरास-इस रासग्रन्थमें द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथका जीवन वणित है। रचयिताने अजितनाथके जीवनकी प्रमुख घटनाओंको संक्षेपमें निबद्ध करनेका प्रयास किया है।
होलोरास--रचयिताने जेन मान्यताके आधारपर होलीकी कथा अषित की है। इस रासग्रन्थमें कुल १८८ पद्य हैं, तथा दोहा, चौपाई और वस्तुबन्ध छन्दोंका प्रयोग किया गया है। ___ धर्मपरोक्षारास- मनुष्यको पापप्रवृत्तियोंसे हटाकर शुभप्रवृत्तियोंको ओर अग्रसर करनेके लिए इस ग्रन्थकी रचना को गयी है। इस रायमें दो व्यक्तिगोंके कार्य-कलाप विशेष रूपसे अंकित है । एक व्यक्ति मनोवेग है, जो शद्धाचरण वाला है और दूसरा व्यक्ति पवनवेग है, जो सन्मार्गसे भ्रष्ट हो चुका है । इन दोनों व्यक्तियोंके आधारसे कथावस्तुका विकास हुआ है।
ज्येष्टजिलवररास- यह लघुकथाकाव्य है। बताया गया है कि सोमाने प्रतिज्ञा की थी कि वह प्रतिदिन एक कलश जल लेकर श्रीजीका अभिषेक करेगी। उसने विभिन्न परिस्थितियोंके आनेपर भी अपनी इस प्रतिज्ञाका निर्वाह किया है। कविने सोमाकी इस प्रतिज्ञाका बड़े ही उदात्त रूप में वर्णन किया है । पद्यसध्या १२० है।
श्रेणिकरास-इस कृतिमें मगधसम्राट् श्रेणिकका जीवनवत्त अंकित हैं। ये भगवान्के प्रमुख श्रोता थे। यह रासग्रन्थ दोहा और चौपाई छन्दमें लिखा गया है । भाषा सरल और सुन्दर है।
समकितमिथ्यातरास-इस लघुकाय रासमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका चित्रण किया गया है । इसमें ७० पद्य हैं। पाखण्डमूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ताका अच्छा निराकरण किया गया है । फलप्राप्तिके हेतु किसी भी देवकी आगवना करना मिथ्यात्व है। सम्यक्ष्टिकी श्रद्धा दृढ़ और निर्मल होती है । बह ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप आत्माका ही श्रद्धान् करता है। उसकी दष्टि में अपने किये हुए कर्मोंका फल भोक्ता यह संसारी जीव है। अतएव किसी भी देवविशेषकी उपासना करनेसे पुत्र,धन आदिकी प्राप्ति संभव नहीं है।
३४२ : नीशंकर महादोर और उनको आचार्य-पगपग
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुदर्शनरास--इस रामकाव्यमें ३३७ पद्यों द्वाग सुदर्शनकी कथा वर्णित है । कविने विकारों और कषायोंका अच्छी चित्रण किया है।
अम्बिकारास--१५८ छन्द्रों द्वारा अम्बिकादेवीका चरित निबद्ध किया गया है। काव्यगणोंका सामान्यतया समावेश हुआ है।
नागमोरास-इस रासमें रात्रिभोजनके त्यागका महत्त्व वर्णित है। इस व्रतका पालन नागश्रीने किया है। अतः कविने २५३ पद्योंमें नागश्रीका चरित लिखा है।
श्रीपालरास—इस रास काव्यमें ४४८ पद्य हैं और इसमें कोटिभट श्रीपालके जीवनका चित्रण हुआ है । कविने भाग्यवादका महत्त्व बतलाया है श्रीपालके अतिरिक्त, मंना सुन्दरी, रयण मंजूषा, धवल सेठ आदि पात्रोके चरितका चित्रगर किया गया है।
जम्बूस्वामीरास--१००५ पद्योंमें अन्तिम केवली जम्बस्वामीके चारतका अंकन रासशैली में किया गया है ।
भद्रवाहरास-सिम श्रतकावली भद्रबाहस्वामीक जीवनका चित्रण इस रासकाव्यमें किया गया है। मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त भद्रवाहुक्के शिष्य थे।
रविव्रतकथा-४६ पद्यों में रविव्रतका माहात्म्य वर्णित है। इस कृतिकी भाषा सरल और सुबोध है ।
कविने पूजासाहित्यमें नामानुसार पूजाओंका अंकन किया है। गोत और स्तवनोंमें भावोंकी गहराई पर्याप्त रूपमें पायी जाती है । ब्रह्मजिनदासको काव्यप्रतिभा अमाधारण है । ग्रन्थबाहुल्यको दुटिसे इनका स्थान जैन साहित्यमें प्रमुख है। संस्कृतको अपेक्षा राजस्थानीमिश्रित हिन्दी-रचनाएं अधिक सरस हैं । अञ्जनाको गोदसे शिशु हनुमानके गिरनेका चित्रण करता हआ कवि कहता है
अझै विधाय तनयं यावत्पश्येत्तदजनी। लोलत्वात्पतितस्तावदर्भकः पर्वतापरि ॥ शतखण्डगतातत्र शिला बालकगतः । हाहाकार बिमाने हि जातं तत्र नभस्तले ।। अजनासुन्दरी तावद्रोदनं विदधे परम् । हा पुत्र हा गुणाधार हा माग्मदशाकृते ।। समाप्तिञ्च मया नीता: सर्वे दुःखकदम्बकाः । त्वया नवीना विहितास्तत्किं करवाण्यहम् ॥
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३४३
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूर्णीभूतां शिला दवा शिशुञ्चोपद्रवोप्सित्तम् । उत्तानशय्यामाश्रित्याधयमान कराङ्गलिम् ।।
हनुमच्चरित ५।१.२-१४७ पद्योंमें संगीतात्मयत भी पायी जाती है । निम्नलिखित पद्म दर्शनीय हैतरलतरतरंगास्त.गाजबीना, बग्घटपटुताभोगजितावारेणन्द्राः । दतपथमचनोग्रा मनीषा सिर. ..यो ।
हनुमच्चरित ६१२२ कविने काव्यकी समाप्तिकी सूचना देते हुए लिखा हैजैनेन्द्रशासनसुधारसपानपुष्टो,
देवेन्द्रकोत्तियतिनायकनैष्टिकात्मा । तच्छिष्यसंयमधरेण चरित्रमेतत्, सृष्टं समीरणसुतस्य महद्धिकस्य ।।
हनुच्चरित १२।९१ हरिवंशपुगणको प्रशस्तिमें कविने भुवनकोतिकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
जगति भुवनकोतिः भूतले ख्यातकीतिः
धुतजलनिधिवेत्ताऽनंगमात्रप्रमेत्ता । विमलगणनिवासश्छिन्नसंसारपाला:
___ स जयति जिनराजः साधुराजीसमाजः ।। ३९॥३८ प्रवन्ध-संघटनमें आचार्यको पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है । कथाके माध्यमसे पौराणिक, धार्मिक और दानिक तथ्यों की सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। चरित, धर्म और दर्शनको परम्पराका पोषण चरित और रास काव्योंके रूपमें किया गया है। ये भट्टारक सकलकीति और भुवनकीत्तिके संघमें प्रविष्ट थे और उन्हें गुरुतुल्य मानते थे। इनकी रचनाएँ ६० से भी अधिक हैं ।
. सोमकीर्ति पन्द्रहवीं शताब्दीके प्रमुख साहित्यसेवियोंमें भट्टारक सोमकीतिको गणना को गयो है । आत्मसाधनाके साथ स्वाध्याय, साहित्यसजन एवं शिष्योंके पठनपाठनमें ये प्रवृत्त रहते थे । ये काष्ठासंघको नन्दितट-शाखाके भद्रारक थे तथा १०वीं शताब्दीके प्रसिद्ध भारत रामसेनकी परम्पसमें होनेवाले भट्टारक थे | इनके दादागुरुका नाम लक्ष्मीसेन और गरुका नाम भीमसेन था । इन्होंने सं० १५१८में रचित एक ऐतिहासिक पट्टावलीमें अपने आपको काष्ठासंघका ८७वां ३४४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
भट्टारक लिखा है । साहित्यिक और पट्टावलियोंके निर्देशसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि वि० सं० १५१८ में इन्हें भट्टारकपद प्राप्त हो चुका था। श्रीविद्याधर जोहरापूरकरने इनका समय वि० सं० १५२६-१५४० बतलाया है। जोहरापुरकरने लिखा है
"भीमसेनके पट्टशिष्य सोमकीति हुए। आपने सवत् १५३२ में वीरसेन सूरिके साथ एक शीतलनाथस्वामीको मूर्ति स्थापित की (ले० ६५१) | संवत् १५३६में गोढिलोमें यशोघरचरितकी रचना पूरी की (ले०६५२) तथा संवत १५४० में एक मर्ति स्थापित की (ले० ६५३), आपने सुल्तान पिरोजशाहके राज्य. कालमें पावागढ़में पद्मावतीकी कृपासे आकाशगमनका चमत्कार दिखलाया या (ले०२ ६५४) ।" ___ सोमकीतिने 'प्रद्युम्नचरित' और 'सप्तव्यसनकथा' की रचना क्रमशः वि० सं० १५३१ तथा १५२६में की है। अतएव सोमकीर्तिका समय १५२६के पूर्व होना चाहिये। जिन मूर्तिलेखोंमें इनका नामांकन मिलता है, वे मूतिलेख वि० सं० १५२६के पश्चात्के हैं । इन्होंने कुछ प्रतिष्ठाएं करायी थीं । एक मूर्तिलेखमें आया है
"संवत् १५२७ वर्षे वैशाख सुदि ५ गरी श्रीकाष्ठासंघे नंदतटगच्छे विद्या. गणे भट्टारक श्री सोमकीति आचार्य श्री वीरसेन युगवं प्रतिष्ठिता। नरसिंह राज्ञा भार्या सांपडिय गोत्रे........."लाखा भार्या मांक देल्हा भार्या मान् पुत्र बना सा० कान्हा देल्हा केन श्री आदिनाथ बिम्ब कारापिता ।"
अर्थात् वि० सं० १५२७ वैशाख सुदी पञ्चमीको इन्होंने वीरसेनके साथ नरसिंह एवं उसको भार्या सापड़ियाके द्वारा आदिनाथस्वामीकी मूर्ति प्रतिष्ठितकी थी। ___ वि० सं० १५३२ वीरसेनसूरिके साथ शीतलनाथ स्वामीको मूर्ति प्रतिष्ठितकी थी।
वि० सं० १५३६में अपने शिष्य वीरसेनसूरिके साथ हूँबड़ जातीय श्रावक भूपा भार्या राजके अनुरोधसे चौबीसी मूर्ति प्रतिष्ठित की थी।
वि० सं० १५४०में भी इन्होंने एक मूर्तिकी प्रतिष्ठा करायों थी। १. भट्रारक सम्प्रदाय, सोलापुर, पृ० सं० २९८ । २. भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० २९३ । ३. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखाङ्क ६५१ । ४. वही, लेखाङ्क ६५३ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्मरापोषकाचार्य : ३४५
२३
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
इन सब तिथियोंसे स्पष्ट है कि भट्टारक सोमकोतिका जन्म वि० सं० १५००के आस-पास होना चाहिये । ऐतिहासिक पट्टावलीके अनुसार वि० सं० १५१८में इन्हें भट्टारकपद प्राप्त हो चुका था। इसके कार्यकालका ज्ञान वि० सं० १५४० पश्चात् नहीं होता है । इनकी अवस्था यदि ६० वर्षकी भी रही हो, तो इनका जन्म वि० सं० १४८०के लगभग आता है।
इनके शिष्योंमें यशः कीर्ति, वीरसेन और यशोधर ये तीन प्रधान हैं । इनकी मत्युके पश्चात् यशःकीति ही भट्टारक बने । सोमकीर्ति लब्धप्रतिाल विद्वान थे और इनकी वाणी में अमत जैसा प्रभाव था । रचनाएं
आचार्य सोमकोतिने संस्कृत एवं हिन्दी इन दोनों ही भाषाओं में ग्रन्थप्रणयन किया है। उपलब्ध रचनाएँ निम्न प्रकार हैसंसामा पहनाएँ
१. सप्तव्यसनकथा २. प्रद्युम्नचरित
३. यशोधरचरित राजस्थानी-रचनाएँ
१. गुर्वावलि २. यशोधररास ३. ऋषभनाथको धूलि ४. मल्लिगीत ५, आदिनाथविनती
सप्तव्यसनकथा--इस कथाग्रन्थमें सात सर्ग हैं। प्रथम सर्गमें धूतव्यसनकथा, द्वितीयमें स्तेयव्यसनकथा, तृतीयमें आखेटव्यसनकथा, चतुर्थमं वेश्याव्यसनकथा, पंचममें पररमनीसेवनव्यसनकथा, षष्ठमें मद्यसेवनव्यसनकथा
और सप्तममें मांससेबनव्यसनकथा लिखी गयी है। ग्रन्थ पद्यबद्ध है। अन्त में ग्रंथसमाप्तिकी तिथि अंकित है । बताया है
रसनयनसमेते वाणयुक्तेन चन्द्रे (१५२६) गतति सति नूनं विक्रमस्यैव काले प्रतिपदि धवलायां माघमासस्य सोमे
हरिभदिनमनोज्ञे निमितो ग्रन्थ एषः ।।७।। ३४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आषार्य-परम्परा
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
|
1
प्रद्युम्नचरित -- इस चरितकाव्य में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्नका जीवनचरित अंकित है | समस्त कथावस्तु १६ सर्गो में विभक्त है । इसका रचनाकाल वि० सं० १५३१ पौष शुक्ला त्रयोदशी बुधवार है ।
यशोधरचरित - यशोधरका जीवन जैन कवियोंको विशेष प्रिय रहा है । यशोधरके इस आख्यानको कविने आठ सर्गों में विभक्त किया है। रचनाकालपर प्रकाश डालते हुए कविने स्वयं लिखा है-
वर्षे षटत्रिंशसंख्ये तिथिपरगणनायुक्त संवत्सरे (१५३६) वे | पंचम्या पोषकृष्णे दिनकरदिवसे बोतमस्य हि चंद्र | गोढिल्या : मेदपाटे जिनवरभवने शीतलेन्द्ररम्ये । सोमादिकीत्तिनेदं नृपवरचरितं निर्मितं
शुद्धभक्त्या ।।
गुर्वावलि - यह एक ऐतिहासिक रचना है। इसमें कविने अपने संघके पूर्वाचार्यो का संक्षिप्त वर्णन किया है। गुर्वावलि संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखी गयी है। हिन्दीमें गद्य-पद्य दोनोंका उपयोग किया गया है | इसकी समाप्ति वि० सं० १५१८में की गयी है। इसमें काष्ठासंघका इतिहास अंकित है । इस संघके नन्दीतटगच्छ, माथुरगच्छ, वागड़गच्छ एवं लाटबागड़ गच्छका परिचय दिया गया है । इस गुर्वावली में आचार्य अहंदूवलिको नन्दोतर गच्छका प्रथम आचार्य लिखा है । अनन्तर अन्य आचार्योंका संक्षिप्त इतिहास बतलाते हुए ८६ आचायका नामोल्लेख किया है और ८७वें आचार्य भट्टारक सोमकीर्ति ही बतलाये हैं । इस गच्छ के आचार्य रामसेनने नरसिंहपुरा जातिकी तथा नेमिसेनने भट्ट्टपुरा जातिकी स्थापना की थी ।
यशोधररास यह एक प्रबन्धकाव्य है । कविने इसमें प्रबन्धकाव्य के समस्त गुणों का समावेश किया है। समस्त काव्य १० ढालों (सर्गो) में विभक्त है । आचार्यने यशोधरको जीवनकथा सोधे रूपमें प्रारम्भ न होकर साधुयुगलसे कहलायी गयी है। इस कथाको सुनकर राजा मारिदप्त हिंसक जीवन छोड़कर अहिंसक बन जाता है ! वस्तुव्यापारोंका वर्णन कविने विस्तारपूर्वक किया है ।
त्रेपन क्रियागीत - श्रावकके पालन करने योग्य त्रेपन क्रियाओंका वर्णन इस गीतिकाव्य में किया गया है । वर्णनपद्धति गीतिकाव्यकी है। इस प्रकार कविने गीतिशैली में श्रावकाचारसम्बन्धी विशेषताओंका निरूपण किया है ।
ऋषभनाथकी धूलि - यह प्रबन्धकाव्य है और इसमें आदितीर्थंकर ऋषभ - देवका जोवनवृत्त वर्णित है । समस्त कथावस्तु चार ढालों या सगों में विभक्त है | कविने इस ग्रन्थका प्रारम्भ करते लिखा है
हुए
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषणाचार्य : ३४७
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
|
प्रणमवि जिनवर पाउ, तु गड त्रिभवन नुए । समरवि सरसति देव तु सेवा सुरनर करिए || गाइसु आदि जिणंद आणद अति उपजिए । कौशल देश मझार तु सुसार गुण आगलुए ॥ नाभि नरिद सुरिंद जिसु सुरपुर बराए । मुरा देवी नाम अरधंग सुरंगि रंभा जिसी ए ।।
इस प्रकार सोमकीर्तिने अहिंसा, श्रावकाचार अनेकान्त आदि विषयों का प्रतिपादन किया है |
,
आचार्य ज्ञानभूषण
ज्ञानभूषण नामके चार आचार्योंका उल्लेख प्राप्त होता है । प्रथम ज्ञानभूषण भट्टारक कीर्तिकी परम्परामें भट्टारक भुवनकीतिके शिष्य हुए हैं । द्वितीय ज्ञानभूषण सूरत शाखा के भट्टारक देवेन्द्रकी र्तिकी परम्परा में भट्टारक वीरचन्द्र के शिष्य के रूपमें हुए हैं। इनके भट्टारक होने का समय सं० १६००१६१६ है । तृतीय ज्ञानभूषणका सम्बन्ध अटेर - शाखाके साथ रहा है और इनक समय १७ वीं शताब्दी माना जाता है। चौथे ज्ञानभूषण नागौरके भट्टारक रत्नकोर्तिके शिष्य थे। इनका समय १८ वीं शताब्दीका अन्तिम चरण है ।
विवेचनीय ज्ञानभूषण प्रारम्भ में भट्टारक विमलेन्द्रकोति के शिष्य थे । किन्तु उत्तरकालमें इन्होंने भुवनकीर्तिको अपना गुरु स्वीकार किया है। ज्ञानभूषण एवं ज्ञानकीति ये दोनों ही सगे भाई एवं गुरुभाई थे । ये गोलालारे जातिके श्रावक थे । वि० सं० १५३५ में सागवाड़ा एवं नोगाममें एक साथ एक ही दिन आयोजित होने के कारण दो भट्टारक परम्पराएं स्थापित हुई । सागवाड़ा में होनेवाली प्रतिष्ठा के संचालक भट्टारक ज्ञानभूषण थे और नोगामके प्रतिष्ठा महोत्सव के संचालक ज्ञानकीर्ति थे । यहींसे ज्ञानभूषण बड़साजनोंके गुरु और ज्ञानकीर्ति लोहड़साजनों के गुरु कहलाने लगे ।
नन्दिको पट्टावलिसे ज्ञात होता है कि ज्ञानभूषण गुजरात के रहनेवाले थे । गुजरात में इन्होंने सागारधर्म धारण किया, अहोर (आभीर) देशमें ११ प्रतिमाएँ धारण कीं और वागवट या बागड़देशमें दुर्धर महाव्रत ग्रहण किये । तौल देश के यतियोंमें इनकी बड़ी प्रतिष्ठा हुई । तैलंगदेशके उत्तम - उत्तम पुरुषोंने इनके चरणों की वन्दना को । द्रविड़ देशके विद्वानोंने उनका स्तवन
१. राजस्थान के जैन सन्स, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जयपुर, १० ४९
३४८ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
किया, महाराष्ट्रमें उन्हें बहुत यश मिला, सौराष्ट्रके धनी धावकोंने उनके लिए महामहोत्सव किया, सयदेश (ईडरके आस-पासका प्रान्त) के निवासियोंने उनके वचनोंको अतिशय प्रमाण या, मेदपार मेशात) मनामी लोगों को जन्होंने प्रतिबोधित किया, मालवेके भव्यजनोंके हृदयकमलको विकसित किया, मेवातमें उनके अध्यात्मरहस्यपूर्ण व्याख्यानसे विविध विद्वान श्रावक प्रसन्न हुए, कुरुजाङ्गलके लोगोंका अज्ञानरोग दूर किया, तूरवके षड्दर्शन और तर्कके जाननेवालोंपर विजय प्राप्त किया, वैराट (जयपुरके आस-पास) के लोगोंको उभयमार्ग (सागार-अनगार) दिखलाये, नमियाळ (निमाड़) में जिनधर्म की प्रभावना की, टगराट हडी-बटी नागट चार्ल (?) आदि जनपदों में प्रतिबोधके निमित्त विहार किया, भैरव राजाने उनकी भक्ति की, इन्द्र राजाने चरण पूजे, मजाधिराज देवराजने चरणोंकी आराधना की, जिनधर्मके आराधक मुदिलिपार, रामनाथ राय, घोम्मरसराय, कलपराय, पाण्डुराय आदि राजाओंने पूजा की और उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा को । व्याकरण-छन्द-अलंकार-साहित्य-तर्क-आगम-अध्यात्म आदि शास्त्ररूपी कमलोंपर विहार करने के लिए वे राजहंस थे और शुद्ध ध्यानामृतपानकी उन्हें लालसा' थी"।
नन्दिसंघकी पट्टावलीमें जो यह प्रशस्ति दी गयी है वह आंतशयोक्तिपूर्ण मालूम पड़ती है, पर इसमें सन्देह नहीं कि भट्टारक ज्ञानभूषण मेधावी और प्रभावशाली थे।
इनके व्यक्तित्वके सम्बन्धमें शभचन्द्र-पट्टालिसे पूरा प्रकाश प्राप्त होता है। इस पट्टावलिके नवम अनुच्छेदमें बताया है कि इन्होंने अनेक जनपदोंमें विहार कर प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। लिखा है___"इनके (भुवनकोतिके) पट्टरूपी उदयाचलके लिए सूर्य के समान, गुर्जरदेशमें सर्वप्रथम सागारधर्मके प्रचारक, अहीर-आभीर देश में स्वीकृत एकादश प्रतिमासे पवित्र शरीरवाले, वाग्वर देशमें अंगीकृत दुर्द्धर महावतके भारको धारण करनेवाले, कर्णाटक देशमें ऊंचे-ऊंचे चैत्यालयोंके दर्शनसे महापुण्यको उपार्जित करनेवाले, तौलव देशके महावादीश्वर विद्वज्जनों और चक्रवत्तियोंमें प्रतिमा प्राप्त करनेवाले, तैलंग देशके सज्जनोंसे पूजित चरणकमलवाले, द्रविड देशके सुविज्ञोस स्तुति किये जानेवाले, महाराष्ट्र दशमें उज्ज्वल यशका विस्तार करनवाले, सौराष्ट्र देशके उत्तम उपासकोंसे महोत्सव मनाये जानेवाल. सम्यग्दर्शनसे युक्त रायदेशके निवासी प्राणिसमूहसे प्रमाणीकृत वाक्यवाले, मेदपाट १. नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, सन् १९४२, पृ.
५२९-३०।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : ३४९
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
देशके अनेक अज्ञजनोंको उद्बोधित करनेवाले, मालव देशके भव्योंके हृदयकमलको विकसित करनेके लिए सूर्यके समान, मेवात देशके अन्यान्य विज्ञ उपासकोंको अपने आध्यत्मिक व्याख्यानोंसे रजित करनेवाले, कुरुजांगल देशके प्राणियोंके जान लेंगको स्टार के लिए वैद्यके समान, तुरब देशमें षड्दर्शन न्याय आदिके अध्ययनसे उत्पन्न अखर्व गर्वको दबाकर विजय प्राप्त करनेवाले, विराट् देशमें उभय मार्गको प्रदर्शित करनेवाले, नमियाड़ देशमें जिनधर्मकी अत्यन्त प्रभावना और नव हजार उपदेशकोंको नियत करनेवाले, रंग, राट, हड़ी, वटो, नाग और चाल आदि अनेक जनपदोंमें ज्ञानप्रचारके लिए विहार करनेवालं श्रीमलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छके दिल्ली सिंहासनके अधिपति, अपने प्रतापसे दिङमण्डलका आक्रमण करनेवाले, अष्टांगयुक्त सम्यक्त्व आदि अनेक गणगणसे अलंकृत और श्रीमान् इन्द्रादि भूपालोंसे पूजित चरणकमलवाले, गजान्तलक्ष्मी, ध्वजान्तपुण्य, नाटधान्तभोग, समुद्रान्तभूमिभागके रक्षक, सामन्तोंके मस्तकसे घृष्ट चरणवाले श्री देवरायसे पूजितपादपनवाले, जिनधर्मके आराधक मुदितपालराय, रामनाथराय, बोम्मसराय, कल्पराय, पाण्डुराय आदि अनेक राजाओंसे चचित चरणयुगलवाले, अनेक तीर्थयात्राओंको सम्पन्न करनेवाले, मोक्षलक्ष्मीको वशीभूत करनेवाले, रत्नत्रयसे सुशोभित शरीरवाले, व्याकरण, छन्द, अलंकार, साहित्य, न्याय और अध्यात्मप्रमुख शास्त्ररूपी मानसरोवरके राजहंस, शद्धध्यानरूपी अमतपानको लालसा करनेवाले और वसुन्धराके आचार्य श्रीमद्भट्टारकवर्य श्रीज्ञानभूषण हुए' !" स्थितिकाल
आचार्य ज्ञानभूषण भट्टारक भुवनकोतिके पश्चात् सागवाड़ाके पट्टपर आसोन हुए। इनका प्राचीन उल्लेख निम्नलिखित मूर्तिलेखमें पाया जाता है_ "संवत् १५३१ वर्षे वैसाख ददो ५ बुधे श्रीमूलसंघे भ० श्रीसफलकोतिस्तत्पट्टे भ० भुवनकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीज्ञानभूषणदेवस्तदुपदेशात् मेघा भार्या टीगू प्रणमंति श्री गिरिपुरे रावल श्री सोमदास राज्ञी गुराई सुराज्ये" अर्थात् वि० सं० १५३१ वैशाख कृष्णा द्वितीयामें इनके सान्निध्य में यह प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई है। श्री जोहरापुरकरने ज्ञानभूषणका भट्टारक-काल १५३४ माना है, पर यह समय युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। डॉ० प्रेमसागरने अपने हिन्दी जैनभक्तिकाव्य और कवि'में इनका समय वि०सं० १५३२-१५५७ माना १. शुभचन्द्र पट्टालि, अनुच्छेद ९ । २. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, १० १५८ । ३, हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, भारतीय ज्ञानपीठ, पृ० ७३ । ३५० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-पराम्परा
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
है, पर डूंगरपुरवाले अभिलेखसे ज्ञात होता है कि मानभूषण वि० सं० १५३१ या इसके पहले ही भट्टारक गद्दीपर आसीन हए थे। इन्होंने वि० सं० १५६० में 'तत्त्वज्ञानतरंगिणी की रचना की है, जिसकी पुष्पिकामें इनके नामके पूर्व 'मुमुक्षु' शब्द जुड़ा हुआ मिलता है। इससे यह ध्वनित होता है कि वि० सं० १५६० या उसके दो-एक वर्ष पूर्ण हो मे भट्ताकद छोड़ के अन्य अभिलेखोंसे यह ज्ञात होता है कि वि० सं० १५५७ तक ये निश्चितरूपसे भट्टारक पदपर आसीन रहे हैं। इसके पश्चात् ये अपने शिष्य विजयकोतिको भट्टारक पदप र प्रतिष्ठित कर स्वयं साहित्यसाधनामें प्रवृत्त हुए हैं।
भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित होते ही ज्ञानभूषणके कार्यकाल में अनेक महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठाएं सम्पन्न हुई हैं। इन्होंने १५३१में डूगरपुरमें सहस्रकूट प्रतिष्ठाका संचालन किया । १५३४ फाल्गुन शुक्ला दशमोमें आयोजित प्रतिष्ठा महोत्सबके समय प्रतिष्ठित की गयी मतियां अनेक स्थानोंपर आज भी प्राप्त होती है। वि० सं० १५३५में इन्होंने दो प्रतिष्ठाओंमें भाग लिया था। एक प्रतिष्ठाका निर्देश जयपुरके छाबड़ोंके मन्दिरमें और दूसरोका उल्लेख उदयपुरके मन्दिरमें मिलता है। वि० सं० १५४० में हंवड़ जाति श्रावक लाखा एवं उसके परिवारने इन्हींके आदेशसे आदिनाथस्वामीकी प्रतिष्ठा करायी थी। इनके तत्त्वावधान में वि० सं० १५४३, १५४४ एवं १५४' में विविध प्रतिष्ठा-महोत्सव सम्पन्न हुए थे। वि० सं० १५५२में एक बृहद् आयोजन हुआ, जिसमें भट्टारक ज्ञानभूषण सम्मिलित हुए थे। वि० सं० १५५७ तक सम्पन्न हुई प्रतिष्ठाओंमें इनके सम्मिलित होनेके उल्लेख प्राप्त होते हैं। वि० सं० १५६० और १५६१में सम्पन्न हुई प्रतिष्ठाओंमें इनके शिष्य भट्टारक विजयकीतिका उल्लेख मिलता है ! यथा___ "संवत् १५६० वर्षे श्री मूलसंधे भट्टारक श्री ज्ञानभूषण तत्पट्टे भ० श्री विजयकोतिगुरूपदेशात् बाई श्रीग्रोद्धन श्रोबाई श्रीविनय श्रोविमान पंक्तियतउद्यापने श्रीचन्द्रप्रभ"....."
"संवत् १५६१ वर्षे चैत्र वदो ८ शुक्र श्री मूलसंधे सरस्वतीगच्छे भट्टारक श्री सकलकोति तत्पट्टे भ० श्री भवनकोति तत्पट्टे भ. श्रीज्ञानभूषण तत्पट्टे भ० विजयकात्तिगुरुपदेशात् हवड ज्ञातीय श्रेष्ठि लखमण भार्या मरगदी सुत श्रे० समथर भायों मचकू सुत श्रे० गंगा भार्या वल्लि सुत हरखा होरा झठा नित्यं श्री आदोश्वर प्रणमंति बाई मचक पिता दोसो रामा भार्याः पूरी पुषी रंगी एते प्रणमति ।" अतएव भट्टारक ज्ञानभूषणका समय वि० सं० १५००-१५६२ है।
प्रभुताचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३५१
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
रचनाएँ
भट्टारक ज्ञानभूषणने संस्कृत और हिन्दो दोनों ही भायोंमें रचनाएँ लिखी हैं । निम्नलिखित संस्कृत-रचनाएँ प्रसिद्ध है
१. आत्मसम्बोधन काव्य २. ऋषिमण्डलपूजा ३. तत्त्वज्ञानतरंगिणी ४. पूजाष्टकटीका ५. पञ्चकल्याणकोद्यापनपूजा ६. नेमिनिर्वाणकाध्यकी पञ्जिकाटीका ७. भक्तामरपूजा ८. श्रुतपूजा ९. सरस्वतीपूजा १०. सरस्वतीस्तुति
११. शास्त्रमण्डलपूजा हिन्दी रचनाएँ
१. आदीश्वरफाग २. जलगालनरास ३. पोसहरास ४. पट्कमरास ५. नागद्रारास
आत्मसम्बोधन-आत्मसम्बोधन आध्यात्मिक कृति है। इसकी प्रति जयपुरके बाबा दुलोचन्दके शास्त्रभण्डारमें संग्रहीत है!
सत्त्वज्ञानतरंगिणी-इस ग्रन्थमें १८ अध्याय हैं और समस्त पद्यसंख्या ५३६ है । कविने अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार निबद्ध किया हैजातः श्रीसकलादिकोतिमुनिपः श्रीमूलसंघेग्नगी
स्तत्पट्टोदयपर्वते रविरभूद्भथ्यांबुजानंदकृत् । विख्यातो भुवनादिकोतिरथ यस्तत्पादकंजे रतः
तत्वज्ञानतरंगिणीं स कृतवानेता हि चिद्भूषणः ॥२१॥ स्पष्ट है कि ज्ञानभूषणके प्रगुरु सकलकीति और गुरु भुवनकोति थे। इस १. तत्त्वज्ञानतरंगिणी, १८।२१ । ३५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ में शुद्ध चैतन्यस्वरूपका प्रतिपादन किया गया है। ध्यान, मेद-विज्ञान,
कार-ममकारका त्याग, रत्नत्रयस्वरूप, शुद्ध चैतन्यरूपका विस्तारसे विवेचत किया गया है। बताया है कि शुद्ध चैतन्यस्वरूपका स्मरण ही समस्त सुख प्रदान करनेवाला, मोहको जीतनेवाला, अशुभ आस्रव एवं दुष्कर्मों का हर्ता, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और प्रन्यचारिक प्रतिसाधक और मनुष्यजन्मको सफलताका सूचक है ।
सौख्यं मोहजयोऽशुभास्रवहतिर्नाशोतिदुष्कर्मणा
मत्यंसं च विशुद्धता नरि भवेदाराधना तात्त्विकी । रत्नानां त्रितयं तुजन्म सफलं संसारभीनाशनं
चिद्रूपोर्मितिस्मृतेश्च समता सद्भ्यो यशः कीर्त्तनं ॥ आचार्यने बताया है कि मेदविज्ञानके बिना शुद्ध विरूपका ध्यान नहीं किया जा सकता है । जो भेद-विज्ञानका धारी है, उसे यह सारा संसार भ्रान्त प्रतीत होता है । अतएव भेदविज्ञान की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास करना चाहिये | आचार्यने लिखा है
उन्मत्तं प्रांतियुक्तं गतनयनयुगं दिग्विमूढं च सुप्तं
निश्चित प्राप्तमूर्च्छ जलवहनगतं बालकावस्थमेतत् । स्वस्याधीनं कृतं वा ग्रहिलगतिगत व्याकुलं मोहधूर्तः
सर्वं शुद्धात्मदृग्भीरहितमपि जगद् भाति भेदज्ञचित्तं । इस प्रकार इस तत्त्वज्ञानतरंगिणीमें शुद्ध चेतन्यकी प्रासिके लिये परद्रव्योंके त्यागका वर्णन किया है । आत्मतत्त्वको अवगत करनेके लिए यह ग्रन्थ उपादेय है ।
भक्तामर श्रुत, सरस्वती, शास्त्रमण्डल आदि पूजाग्रन्थों में तत्तदपूजाओंका संकलन किया गया है। पूजाष्टकमें आठ पूजाओंकी स्वोपज्ञ टीका है। समस्त कृति दश अधिकारों में विभक्त है। इसका रचनाकाल वि० सं० १५२८ है । अन्तिम पुष्पिका निम्न प्रकार है
" इति भट्टारकश्रीभुवनको सिशिष्य मुनिज्ञान भूषणविरचितायां स्वकृताष्टकदशकटीकायां विद्वज्जनबल्लभसंज्ञायां नन्दीश्वर द्वीपजिनालयाचन वर्णनीयेनाम दशमोऽधिकारः ॥"
१. त० तरंगि०, २५ २. वही, ६२ ।
प्रभुद्धाचार्य एवं परम्परापोवकाचार्य: ३५३
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
आदोश्वरफाग--फागसम्बन्धी हिन्दीको रचनामोंमें इस कृतिका विशिष्ट स्थान है। इस कृतिमें आदितीर्थकरका जीवनचरित वर्णित है। आरम्भका अंश संस्कृतमें लिखा गया है और अवशिष्ट हिन्दीमे । २३९ पद्य संस्कृतमें लिखे गये हैं और शेष २६२ हिन्दीमें। समस्त पद्योंकी संख्या ५०१ है। तीर्थकर आदिनाथका जन्म, शैशवावस्था और युवावस्थाका सांगोपांग चित्रण किया गया है। नीलाञ्जनाके नत्य करते समय विलीन हो जाने के कारण आदिनाथ संसारसे विरक्त हो जाते हैं। कविने इस घटनाका सजीव चित्रण करते हुए लिखा है--
आहे धिग-धिग इह संसार, बेकार अपार असार । नहीं सम मार समान कुमार, रमा परिवार ।। आहे घर पुर नगर नहीं निज रज सम राज अकाज । ह्य गय पयदल चल मल सरिखड नारि समाज ॥ आहे आयु कमल दल सम चंचल चपल शरीर । यौवन धन इच अथिर करम जिय करतल नोर ।। आहे भोग वियोग समन्तित रोग तण घर अंग। मोह महा मुनि निदित निदित नादीय संग ।। आहे छेदन भंदन वेदन दोठोय नरग मझारि।
भामिनी भोग तणइ फलि तउ किम बांधइ नारि ।। पोसहरास-यह व्रतविधानके महात्म्यपर आधारित रास है। भाषा एवं शैलीकी दटिसे इसमें रासोकाव्य जेसी सरसता और मधुरता पायी जाती है। कविने कृतिके अन्तमें अपना नामांकन किया है--
वारि रमणियमुगतिज सम अनुप सुख अनुभव ! भव म कारि पुनरपि न यावइ इह बू फलजस गमइ ।। ते नर पोसह कान भावइ एणि परि पोसह धरइज नर नारि सुजण । ज्ञान भूषण गुरु इम भणइ, ते नर करइ बखाण !!
इसी प्रकार षट्कर्मरास कर्मसिद्धान्सपर आधारित है। इसमें देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, सयम, तप और दान इन षट्कर्मों के पालन करनेका सुन्दर उपदेश दिया है। इसमें ५३ छन्द हैं और अन्तिम छन्दमें कविने अपने नामका उल्लेख किया है।
'जलगालनरास' में ३३ पद्य हैं। इसमें जल छाननेकी विधिका रासशैलीमें वर्णन है । इस प्रकार ज्ञानभूषणने साहित्य, संस्कृति और समाजके उत्थानके कार्य किये हैं। ३५४ : तीर्थंकर महावीर और उनको नाचार्य-परम्परा
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
भट्टारक अभिनव धर्मभूषण धर्मभूषण नामके कई आचार्य हुए हैं। एक धर्मभूषण वे हैं, जो भट्टारक धर्मचन्द्रके पट्टपर आसीन हए थे, जिनका उल्लेख बरार प्रान्तके मतिलेखोंमें पाया जाता है। ये मतिलेख शक संवत् १५२२, १५३५, १५७२ और १५७७ में उत्कोणित हैं। द्वितीय धर्मभषण वे हैं, जिनके आदेशानुसार केशववर्णीने अपनी गोम्मटसारको जीवतत्वप्रदीपिका नामक कन्नडटीका शक संवत् १२८१ । ई० सन् १३५९) में रची है। तृतीय धर्मभूषण वे हैं, जिनका विजयनगरके शिलालेख नं० २में उपर्युक्त दो धर्मभूषणोंसे पहले उल्लेख आया है। सम्भवतः ये अमरकीतिके गुरु थे। चतुर्थ धर्मभूषण अमरकोतिके शिष्यके रूपमें और पूर्वोक्त धर्ममा प्रशिक्षण में स्थिति है और ये सिंहन्दी व्रतीके सधर्मा' हैं। ____ अभिनव धर्मभूषण उक्त चारों धर्मभूषणोंसे भिन्न व्यक्ति हैं। इनका उल्लेख विजयनगरके शिलालेख नं० रमें दर्द्धमान भट्टारकक शिष्यके रूपमे आया है। न्यायदीपिकामें तृतीय प्रकाशकी पुष्पिकावाक्यमें तथा ग्रन्थान्तमें आये हुए पछमें धर्मभूषणने अपने को बर्द्धमान भट्टारकका शिष्य बतलाया है । लिखा है
"इति श्रीमदर्तमानभट्टारकाचार्यगुरुकारुण्यसिद्धसारस्वतोदयश्रीमदभिनवघूर्मभूषणाचार्यविरचितायां न्यायदीपिका परोक्षप्रकाशस्तृतीयः ।।"
मद्गुरोवंदमानेशो बर्द्धमानदयानिधेः ।
श्रीपादस्नेहसम्बन्धात्सिद्धेर्य न्यायदीपिका ।। विजयनगरके शक संवत् १३०७ ई० सन् १३८५)के अभिलेखमें अभिनव धर्मभुषणको गुरुपरम्परा प्राप्त होती है । इस परम्परामें मूलसंघ, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छमें पानन्दि, धर्मभूषण, अमरकीति, धर्मभूषण भट्टारक द्वितीय, वर्द्धमान मुनीश्वर और धर्मभषण तृतीयका निर्देश प्राप्त होता है । इसी प्रकार श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं० १११में भी धर्मभूषणको गुरुपरम्परा निर्दिष्ट मिलती है। यह अभिलेख शक संवत् १२९५का है। इसमें मूलसंघ बलात्कारगणके आचार्योंका उल्लेख करते हुए देवेन्द्रकीर्ति, विशालकीर्ति, १. यो डॉ० दररारीलाल कोठिया द्वारा लिखित न्यायदीपिकाकी प्रस्तावना, वीरसेवा
मन्दिर, सन् १९४५, पृ० ९१ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३५५
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुभकोतिदेव मट्टारक, धर्मभषण प्रथम, अमरकीतिप्राचार्य, धर्मभूषण द्वितीय और वर्द्धमानस्वामीके नाम आये हैं । इन दोनों अभिलेखोंका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे धर्मभूषण, अमरकोति, धर्मभूषण द्वितीय और वर्द्धमान मुनि ये नाम समानरूपसे आते हैं। इस तुलनासे यह भी स्पष्ट है कि शक संवत् १२९५के पश्चात् तृतीय धर्मभूषण जिनका नाम अभिनव धर्मभूषण है हुए होंगे। श्रवण बेलगोलाके अभिलेखसे यह स्पष्ट है कि शक संवत् १२९५के पश्चात् ही अभिनव धर्मभूषणको भट्टारक पद मिला होगा। स्थितिकाल
अभिनव धर्मभूषणको निश्चित तिथिका परिज्ञान नहीं है 1 डॉ० प्रो० होरालालजीने द्वितीय धर्मभूषणको निषद्याके निर्माणका समय शक संवत् १२९५ बतलाया है । डॉ० दरबारालाल कोठियाने लिखा है कि 'केशवव को अपनी गोम्मटसारकी जीवतत्त्वप्रदीपिका नामक टोका लिखने की प्रेरणा एवं आदेश जिन धर्मभुषणसे प्राप्त हुआ, वे धर्मभूषण हो द्वितीय धर्मभुषण होंगे । इनके पट्टका समय यदि २५ वर्ष भी हो, तो पट्टारूढ़ होनेका समय शक संवत् १२७० पहुंच जाता है । केशववर्णीने अपनी उक्त टोका शक संवत् १२८१में पूर्ण को। इतनी विशाल टोकाको लिखने में ११ वर्षका समय लगना सम्भव है । अतएव प्रथम और तृतीय धर्मभूषण केशववर्णीके प्रेरक नहीं हो सकते हैं। तृतीय धर्मभूषण जीवतस्वप्रदीपिकाके समाप्तिकालसे लगभग १९ वर्ष पश्चात् गरुपट्टके अधिकारी हुए जान पड़ते हैं । अतएव टोकाकी प्रेरणाके समय उनका अस्तित्व ही न रहा होगा। प्रथम धर्मभूषण भी टोकाके प्रेरक नहीं हो सकते, क्योंकि इनका पट्टकाल सम्भवतः शक संवत् १२२०-१२४५ होना चाहिये । अतएव द्वितीय धर्मभूषणको ही केशववर्गीका प्रेरक माना जा सकता है।'
तृतीय धर्मभूषण शक संवत् १२९५-१३०७के मध्य किसी भी समय अपने गुरु वर्द्धमान भट्टारकके पदपर आसीन हुए हैं। यदि पट्टपर आसीन होनेके समय इनको अवस्था.२० वर्ष भी मानी जाये, तो जन्मतिथि शक संवत् १२८० (ई० सन् १३५८)के लगभग आती है। इसकी पुष्टि विजयनगर साम्राज्यके अभिलंखोंसे भी होती है। इस साम्राज्यके स्वामी प्रथम देवराय और उनकी पत्नी भीमादेवो वखमान गुरुके शिष्य धर्मभूषणके परम भक्त थे तथा उन्हें अपना गुरु मानते थे । पद्मावती बस्तीके एक अभिलेखसे अवगत होता है कि राजाधिराज परमेश्वर देवराय प्रथम व मान मुनिके शिष्य धर्मभूषण गुरुके
१. न्यायबीपिका, प्रस्तावना, पृ० ९२-९७ ।
३५६ : सीपंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
चरणोंमें नमस्कार किया करते थे । इस कथन की पुष्टि दशभक्त्यादिमहाशास्त्रसे भी होती है
राजाधिराजपरमेश्वरदेवरायभूपालमौलिलसदंधिसरोजयुग्मः । श्रीबद्ध मानमुनि वल्लभमोदय मुख्यः श्रीधर्मभूषण सुखी जयति क्षमादयः " ।।
उपर्युक्त पद्यसे स्पष्ट होता है कि विजयनगरनरेश प्रथम देवराय ही 'राजाधिराजपरमेश्वर' को उपाधिसे विभूषित थे । इनका राज्यकाल सम्भवतः ई० सन् १४१८ तक रहा है और द्वितीय देवरायका समय ई० सन् १४१९ से १४४६ तक माना जाता है । अतः इन उल्लेखोंके आधारसे यह ध्वनित होता है कि वृद्ध मानके शिष्य धर्मेभूषण ही प्रथम देवरायके द्वारा सम्मानित थे । अतएव अभिनव धर्मभूषण प्रथम देवरायके समकालीन हैं। इस प्रकार इनका अन्तिम समय ई० सन् १४१८ आता है ।
०
उपर्युक्त विवेचनके आधारपर अभिनव धर्मभूषण का समय ई० सन् १३५८१४१८ है | श्री डॉ० दरबारीलाल कोठियाने बताया है कि 'न्यायदीपिका पृ० २१ में 'बालिशाः' शब्दोंके साथ सायणके सर्वदर्शनसंग्रहसे एक पंक्ति उद्धृत की है । सायणका समय शक संवत् १३वीं शताब्दिका उत्तरार्द्ध है क्योंकि शक सं १३१२का एक दानपत्र मिला है, जिससे वे इसी समयके विद्वान सिद्ध होते हैं । न्यायदीपिका में आया हुआ बालिशाः पद अभिनव धर्मभूषणको सायणका समकालीन सिद्ध करता है। दोनों ही विद्वान विजयनगरके रहनेवाले थे । अतएव उनका समकालीन होना भी सिद्ध है ।'
रचनाएँ
अभिनव धर्मभूषण राजाओं द्वारा मान्य एवं लब्धप्रतिष्ठ यशस्वी विद्वान थे। इनके द्वारा रचित न्यायदीविकानामक एक न्यायग्रन्थ उपलब्ध होता है । इस ग्रन्थ में तीन प्रकाश या परिच्छेद है । प्रथम प्रकाशमें प्रमाणका सामान्य लक्षण, उसकी प्रभाणता, बोद्ध, भाट्ट, प्राभाकर और नैयायिकों द्वारा मान्य प्रमाणलक्षणों की समीक्षा की गयी है । द्वितीय प्रकाशमें प्रमाणके भेद और प्रत्यक्षका लक्षण वर्णित है । बौद्धों द्वारा अभिमत प्रत्यक्षलक्षणका निराकरण करनेके पश्चात् योगाभिमत सन्निकर्षका निराकरण किया गया है। प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्षके स्वरूप और भेदोंका कथन किया है । इस प्रकाशके अन्तमें सर्वज्ञसिद्धि एवं अरहन्तको सर्वेश सिद्ध किया गया है ।
|
१. प्रशस्तिसंग्रह जैन सिद्धान्त भवन, आरा, १० १२५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोवकाचार्य : ३५७
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय प्रकाशमें परोक्षप्रमाणका विस्तारसे वर्णन किया है। परोक्षके मेद और उनमें ज्ञानान्तरसापेक्षताका कथन कर स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमानका निरूपण किया है । साधन और साध्यके लक्षणकथनके अनन्तर स्वार्थानुमान और परार्थानुमानोंका प्रतिपादन किया गया है । बौद्धाभिमत वैरूप्य और नैयायिकाभिमत पाञ्च्यरूप्यका निराकरण कर विजिगीषुकथा और वीतरागकयाका समालोचन किया है । अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुके समर्थन के पश्चात् हेत्वाभास, उदाहरणाभास, उपन्याभास और निगमनाभासके लक्षण बतलाये गये हैं । आप नय, अनेकान्त और सप्तभंगीके भेदोंका प्रतिपादन किया है । इस प्रकार इस छोटेसे ग्रन्थ में न्यायशास्त्रसम्बन्धी सिद्धान्तोंका अच्छा समावेश किया गया है ।
भट्टारक वर्द्धमान प्रथम
वर्द्धमान भट्टारकने बरांगचरितकी रचना की है। ये मूलसंघ बलात्कारगण और भारतीगच्छके आचार्य हैं। 'परवादिपंचानन' इनकी उपाधि थी । कहा जाता है कि बलात्कारगणमें सरस्वतीगच्छ और उसके पर्याय भारती, वागेश्वरी, शारदा आदि नामोंका प्रयोग वि० सं० १४वीं शतोसे प्रारम्भ हुआ है । सरस्वती या भारतीगच्छ के सम्बन्धमें यह मान्यता प्रचलित है कि दिगम्बर संघके आचार्य पचनन्दिने श्वेताम्बरोंसे विवाद कर पाषाणको सरस्वती मूत्तिसे मन्त्रशक्तिद्वारा निर्णय कराया था। यह विवाद गिरिनार पर्वतपर हुआ कहा जाता है । इसी कारण कुन्दकुन्दान्वय प्रचलित हुआ ।
बलात्कारगणका सबसे प्राचीन उल्लेख आचार्य श्रीचन्द्रने किया है । इनके दीक्षागुरु आचार्य श्री नन्दी और विद्यागुरु आचार्य सागरसेन थे । ये महाराज भोजके समय में धारानगरी में निवास करते थे । इस गण में दूसरे आचार्य केशवनन्दि हुए । अनन्तर पक्षोपवासी पद्मप्रभ हुए। इनकी शिष्यपरम्परामें नयनन्दी, श्रीधर, चन्द्रकौति, श्रीधर, वासुपूज्य, नेमिचन्द्र, पद्मप्रभ कुमुदचन्द्र, वेशनन्दि, श्रवणसेन, वनवासि वसन्तकीर्ति प्रभृति आचार्य हुए हैं। इस परम्पराकी २६वीं पीढ़ी में वर्द्धमान भट्टारकका उल्लेख मिलता है । कविने इस काव्यकी प्रशस्तिमें लिखा है
स्वस्तिश्रीमूलसंघे भुवि विदितगणे श्रीबलात्कारसंज्ञे श्रीभारत्याख्यगच्छे सकलगुणनिधिर्वर्द्धमानाभिधानः ।
१. भट्टारक सम्प्रदाय, विद्याधर जोहरापुरकर, सोलापुर १९५८ ई० पृ० ४४-४५ ।
,
३५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
!
आसोट्टारकोऽसौ सुचरितमकरोच्छ्रो वराङ्गस्य राज्ञो भव्यशांसि तन्वत् भूमि चरितमिदं वर्ततामार्फतारम् ॥!
स्थितिकाल
i
आचार्य वर्द्धमानने अपने गुरुका निर्देश नहीं किया है। जैन साहित्य परम्परामे नन्दिसंघके एक वर्द्धमान भट्टारक हैं, जिनका दशभक्त्यादिमहाशास्त्र है और जो देवेन्द्रकीतिके शिष्य हैं। इनका समय ई० सन् १५४ के लगभग है । बलात्कारगणमें दो वद्धमान प्रसिद्ध हैं । प्रथम वद्धमान वह हैं, जो न्यायदीपिका के कर्त्ता धर्मभूषणके गुरु हैं और द्वितीय हुम्मच्च शिलालेख के रचयिता हैं | विजयनगर के शिलालेख से अवगत होता है कि चद्ध मानके शिष्य धर्मभूषण हुए। इनके समयमें शक संवत् १३०७ ( ई० सन् १३८५) को फाल्गुन कृष्णा द्वितीयाको राजा हरिहरके मन्त्री चैत्रदण्डनायकके पुत्र इरुगप्पने विजयनगर में कुन्यनाथका मन्दिर बनवाया था ।
बरांग० १३/८७
1
न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल कोठियाने न्यायदीपिका की प्रस्तावना में लिखा है — "विजयनगरनरेश प्रथम देवराय ही राजाधिराज परमेश्वरकी उपाधि से विभूषित थे । इनका राज्य सम्भवतः १४१८ ई० तक रहा है और द्वितीय देवराय सन् १४१९-१४४६ ई० तक माने जाते है। अतः इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि वर्द्ध मानके शिष्य धर्मभूषण तृतीय ( ग्रन्थकार ) ही देवराय प्रथमके द्वारा सम्मानित थे । प्रथम अथवा द्वितीय धर्मभूषण नहीं, क्योंकि वे वद्धमानके शिष्य नहीं थे । प्रथम कर्मभूषण शुभकीर्तिके और द्वितीय धर्मभूषण अमरकीर्तिके शिष्य थे । अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि अभिनव धर्मभूषण देवराय प्रथमके समकालीन हैं ।"
|
इस सन्दर्भ में श्रीकोठियाजीने धर्मभूषणको सायणका समकालीन सिद्ध कर उनके समयकी पूर्व सीमा शक संवत् १२८० ( ई० सन् १३५८) मानी है ।
इस अध्ययन के प्रकाशमें वर्द्धमान भट्टारकका समय धर्म भूषण के गुरु होनेके कारण ई० सन्की १४वीं शतीका उत्तराद्ध है।
१. स्वस्ति शकवर्षे १३०७ प्रवर्तमाने क्रोधनवत्सरे फाल्गुन मासे कृष्णपक्षे द्वितीयायां तिथी शुक्रवासरे --- जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, ५० ९० ।
२. न्यायदीपिका, वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, वर्तमान दिल्ली, सन् १९४५ ई०, प्रस्ता
बना पु० ९९ ।
३. न्यायदीपिकाका 'बालिशा:' पद उन्हें मायणके समकालीन होने की ओर संकेत करता है । वही पु० ९९ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३५९
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
1 !
!
१
विन्ध्यगिरिके एक अभिलेखसे वर्द्धमान भट्टारकका समय शक संवत् १२८५ ( ई० सन् १३६३) सिद्ध होता है। श्री डॉ० ए० एन० उपाध्येने जटासिनन्दी द्वारा विरचित वराङ्गचरितकी अंग्रेजी प्रस्तावना में भट्टारक ईमानका समय १३वीं शतोके पश्चात् हो अनुमानित किया है । अतएव वराङ्गचरित महाकाव्य के रचयिता बर्द्धमान भट्टारकका समय ई० सन्की १४वीं शती है।
रचना
भट्टारक वर्द्धमानने संस्कृत भाषा में 'वरांगचरित' नामक महाकाव्य लिखा है । इसमें १३ सगँ हैं। सगों का नामकरण कथावस्तुके आधारपर किया गया है । वरांग, २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ और श्रीकृष्णके समकालीन धोरोदात्त नायक हैं। इनको कथावस्तु कवियोंको बहुत प्रिय रही है। यही कारण है कि ७वीं शती से ही उक्त नायकपर महाकाव्य लिखे जाते रहे हैं । संस्कृत के अतिरिक्त कन्नड़में धरणि पं० का वराङ्गचरित एवं हिन्दीमें लालचन्द्र और कमलनयनकृत वराङ्गवरित भी उपलब्ध हैं । प्रस्तुत काव्यका प्रमाण १३८३ श्लोक है ।
.
इस काव्य में कथाको अन्विति सर्गविभाजन और छन्दोंमें अभिव्यन्जन ये तीनों मिलकर प्रबन्धके बाह्य रूपका निर्माण करते हैं। विचारप्रधान होनेसे इस काव्य में प्रकृति-चित्रणकी अल्पता है। फिर भी भावात्मक चित्रोंकी कमी नहीं है । कथावस्तु भी श्रृंखलाबद्ध है । दर्शन या धर्मतत्त्व घटनाओंके क्रममें बाधक नहीं है । घटनाओं, प्रसंगों और वर्णनोंको इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है, जिससे मार्मिक स्थल स्वयं उपस्थित होते गये हैं। राजकुमार वरांग जन्म लेता है । उसका १० सुन्दरियोंके साथ विवाह हो जाता है और उसकी योग्यता से प्रभावित होनेके कारण बड़े पुत्रके रहते हुए भी राजा धर्मसेन उसे युवराज बना देता है । विमाताको यह बात खटकती है । उसका सौतेला भाई सुषेण मी राजकुमार वरांगसे ईर्ष्या करता है । विमाता और भाई दोनों मन्त्री से मिलकर षड्यन्त्र रचते हैं और एक दुष्ट घोड़े द्वारा कुमारका अप हरण करा देते हैं । घोड़ा एक अन्धकूपमें कुमारको लेकर कूद जाता है । उस अन्धकूपसे निकलने में असमर्थ रहनेसे उस दुष्ट घोड़ेकी मृत्यु हो जाती हैं और कुमार किसी प्रकार बचकर निकल आता है। इस घोर अरण्यमें उसे व्याघ्र, अजगर, भिल्ल आदिका सामना करना पड़ता है। वह किसी प्रकार इन संकटोंसे मुक्ति प्राप्त करता है । कविने इन घटनाओंको सप्राण बनानेके १. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख - सं० १११, पृ० २२४ ।
३६० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
लिये नाटकीय तत्त्वोंकी योजना भी की है। फलतः आन्तरिक द्वन्द्व सहजरूपमें उपस्थित हुए हैं। किसी भी काव्यका प्रबन्ध तभी प्राणवंत होता है, जब उसमें जीवनके समानविरोधी स्वरोंकी योजना की जाये । कविने आत्मनिष्ठ अनुभूतिको वस्तुपरक बिम्बों द्वारा पाठकों तक प्रेषित करनेका प्रयास किया है।
शृङ्गार, वीर, करुण और शान्त रसोंका परिपाक सुन्दररूपमें हुआ है । कविने कुमार वराङ्गकी विचारधाराका अंकन करते हुए लिखा है
वियोगवन्तो भवभोगयोगा वायुःस्थिरं नो नवयौवनं च । राज्यं महाक्लेशसहस्रसाध्य ततो न नित्ये भवि किंचिदस्ति ॥ १३४ लक्ष्मीरियं वारितरङ्गलोला, क्षणे क्षणे नाशमुपैति तायुः । तारुण्यमेतत्सरिदम्बुपूरोपमं नृणां कोऽत्र सुखाभिलाषः ।।१३।५ कविने इस काव्यमें सम्पूर्ण जीवनमूल्योंका उल्लेख किया है ! कवि आध्यात्मिक जीवन के साथ लोकजीवनका मो महत्त्व देता है। वह धर्मबुद्धि, गुरुविनय, मित्र-बन्धुस्नेह, दीन-अनाथकरुणाभाव, शत्रुओंके मध्य प्रतापप्रदर्शनको जीवनके लिए आवश्यक मानता है । जीवनका अन्तिम लक्ष्य भले ही मक्तिलाभ है, पर संसारके मध्य रहते हए कठोर श्रम द्वारा संयमित आचारध्यवहारको जीवनमें उतारना ही वास्तविक उपलब्धि है । कविने जीवनशोधनके उपकरणोंका विश्लेषण करते हुए लिखा है
सम्यग्ज्ञानं सूचरणयुतं प्राप्तसम्यक्त्वमुच्चे:
पात्रे दानं जिनपत्तिविभोः पूजन भावनं च। धर्मध्यानं तपसि च मति साधुसङ्ग वितन्वन
श्रेयोमार्गप्रकटनपरः श्रीवराङ्गो रराज ॥ ३४२ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रपूर्वक पात्रदान देना. जिनेन्द्रकी पूजा-भक्ति करना, धर्मध्यान-शुभध्यान करना, तपश्चरण करना, साधु-सज्जन और सदाचारी व्यक्तियोंकी संगति करना एवं कल्याणकारी मार्गका अनुसरण करना जीवन लक्ष्य है। __कविने रात्रिभोजनत्याग, शोधित अन्न-जलका ग्रहण, मौनपूर्वक भोजन, नवनीतत्याग, कन्द-भक्षण-त्याग, पंचोदम्बरभक्षणफल-त्याग आदिको भी जीवन के लिए आवश्यक बताया है। यह काव्य धर्म, दर्शन, संस्कृति और लोकजीवनके सिद्धान्तोंसे सम्पृक्त है ।
प्रयुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३६१
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
भट्टारक विजयकीर्ति
भट्टारक सकलकीर्तिने अपने त्याग एवं विद्वत्तापूर्ण जीवनसे गुजरात और राजस्थान में भट्टारक संस्थाको लोकप्रिय बना दिया था। इनके पश्चात् भुवनकीर्ति और ज्ञानभूषणने भी जैनपरम्परा के प्रचार और प्रसार में पूर्ण योगदान दिया । विजयकीर्ति भट्टारक ज्ञानभूषण के शिष्य थे और सकलकीर्ति द्वारा स्थापित भट्टारकगद्दी पर आसीन हुए थे। विजयकीर्ति के प्रमुख शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र थे, जिन्होंने अपने गुप्त की है।ट्टारक विजयकीर्तिके प्रारम्भिक जीवनके सम्बन्धमें निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं होती । पर शुभचन्द्र के गीतोंमें पाये जानेवाले उल्लेखोंसे यह ज्ञात होता है कि इनके पिताका नाम शाहगंग और माताका नाम कुँअरि था। इनका शरीर कामदेव के समान सुन्दर था । बाल्यकाल में इन्होंने विशेष अध्ययन नहीं किया था, पर भट्टारक ज्ञानभूषण के सम्पर्क में आते ही इन्होंने गोम्मटसार, लब्धिसार और त्रिलोकसार जैसे सैद्धान्तिक ग्रन्थोंके साथ न्याय, काव्य, व्याकरण आदि विषयोंका भो अध्ययन किया था । युवावस्था में ही इन्होंने साधुजीवन ग्रहण कर लिया था और पूर्णतः संयमका पालन कर कठोर साधना स्वीकार की थी ।
विजयकीर्तिकी साधनाका वर्णन आचार्य शुभचन्द्र ने रूपक काव्य के रूपमें किया है। बताया है कि जब कामदेवको आचार्य विजयकीतिको सुन्दरता एवं संयमका ज्ञान हुआ तो वह ईर्ष्यासि जलभुन गया और क्रोधित होकर उसने उन्हें संयमसे विचलित करनेका निश्चय किया । उसने देवाङ्गनाओंको बुलाया और उन्हें विजयकीर्ति संयमको भंग करनेका आदेश दिया । विजयकी तिकी साधना के समक्ष देवाङ्गनाएँ अपने क्रियाकलाप में निष्फल हो गयीं। इसके पश्चात् कामदेवने क्रोध, मान, मद एवं मिथ्यात्वकी सेना एकत्र की। चारों ओर वसन्त ऋतु व्याप्त हो गयी और अमराइयों में कोयलको मधुर कूज सुनायी पड़ने लगी । रणभेरी बज उठी और आचार्य विजयकीतिको कामदेवकी सेनाने आवेष्टित कर लिया । क्रोध, मान आदि विकारोंने अपने-अपने प्रहार आरम्भ किये, पर विजयकीति के संयम के समक्ष कामदेवका एक भी सैनिक ठहर न सका। मोहसेना में भगदड़ मच गयो । विजयकीर्ति ध्यान में तल्लीन हो गये । उनके समा, दम और यमके समक्ष मदनराज पराजित हो गया तथा विजयकीर्तिके चारित्रकी निर्मलता सर्वत्र व्याप्त हो गयी । श्रेणिकचरितमें विजयकीतिको यतिराज, पुण्यमृति आदि विशेषणों द्वारा उल्लिखित किया है
जयति विजयकीर्तिः पुण्यमूर्तिः सुकीर्तिः, जयतु च यतिराजो भूमिपैः स्पृष्टपादः ।
३६२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
नयनलिनहिमांशुज्ञानभूषस्य पट्टे
विविधपर-विवादि क्षमांधरे वचपात:' ।। विजयकीर्तिने अनेक सांस्कृतिक और सामाजिक कार्योका सम्पादन किया है। वि० सं० १५५७, १५६०, १५६१, १५६४, १५६८ एवं १५७० आदि वर्षों में सम्पन्न होनेवाली प्रतिष्ठाओंमें इन्होंने भाग लिया है। वि० सं० १५६१ में
इन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान एवं सम्यक्चारित्रकी महत्ताको व्यक्त करनेके लिए रलत्रयकी मूर्ति प्रतिष्ठापित की' यो । स्थितिकाल
भट्टारक विजयकीति ज्ञानभूषणके पट्टपर आसीन हुए थे। ज्ञानभूषण वि० सं० १५५७ तक गद्दीपर आसीन रहे हैं। असएव वि० सं० १५५७-१५७० तक इनके भट्टारकपदपर आसीन रहनेका उल्लेख मिलता है। श्री डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवालने विजयकीतिक जीवनका स्वर्णकाल वि० सं० १५५२१५७० माना है। उन्होंने लिखा है-"इन १८ वर्षों में इन्होंने देशको एक नयी सांस्कृतिक चेतना दी तथा अपने त्याग एवं तपस्वी जीवनसे देशको आगे बढ़ाया । संवत् १५५७ में इन्हें भट्टारकपद अवश्य मिल गया था।" अतएव विजयकोतिका समय विक्रमको १६वीं शताब्दी है। डॉ. जोहरापुरकरने लिखा है-"भट्टारक ज्ञानभूषणके पट्टशिष्य भट्टारक विजयकीर्ति हुए । बापने संवत् १५५७ को माघ कृष्णा पंचमीको तथा संवत् १५६० की वैशाख शुक्ला द्वितीयाको शान्तिनाथमूर्तियाँ तथा संवत् १५६१ की वेशाख शुक्ला दशमीको रत्नत्रयमति स्थापित की | संवत् १५५८ की फाल्गुन शुक्ला दशमीको श्रीसंघने अपनी मांगनी आर्यिका देवश्रीके लिए पचनन्दि-पंचविंशतिकी प्रति लिखवायो थी। पट्टावलोके अनुसार मल्लिराय, भेरवराय और देवेन्द्ररायने विजयकोतिका सम्मान किया था।"
विजयकीति शास्त्रार्थी विद्वान थे। इन्होंने अपने विहार और प्रवचन द्वारा बैनधर्मका प्रचार एवं प्रसार किया था । इनके द्वारा लिखित कोई भी प्रत्य अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है ।
१. राजस्थानके जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जयपुर, पृ० ६६ पर उद्धृत । २. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखार ३६४ । ३. राजस्थानके जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जयपुर, पु. ६७ । ४. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, पृ० १५४-१५५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३६३
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य शुभचन्द्र
भट्टारक शुभचन्द्र विजयकीतिके शिष्य थे। इन्होंने भट्टारक ज्ञानभूषण और विजयकीति इन दोनों के शासनकालका दर्शन किया था। इनका जन्म वि० सं० १५३०-१५४० के मध्य में कभी हुआ होगा । शैशवसे इन्होंने संस्कृत, प्राकृत एवं देशी भाषाका अध्ययन प्रारम्भ किया था । व्याकरण, छन्द, काव्य, न्याय आदि विषयोंका पाण्डित्य सहज में ही प्राप्त कर लिया था। त्रिविधविद्याधर और षद्भाषाकविचक्रवर्ती ये इनकी उपाधियाँ थीं। इन्होंने अनेक देशों में विहार किया था । गौड, कलिंग, कर्नाटक तौलव, पूर्व, गुर्जर, मालव आदि देशोंके वादियोंको पराजित किया था । इनका धर्मोपदेश सुननेके लिए जनता टूट पड़ती थी । इन्होंने अन्य भट्टारकोंके समान कितने ही प्रतिष्ठा -समारोहोंमें भी सम्मिलित होकर धर्मको प्रभावना की थी। उदयपुर, सागवाड़ा, डूंगरपुर, जयपुर आदि स्थानोंके मन्दिरोंमें इनके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं ।
आचार्य शुभचन्द्रकी शिष्यपरम्परामें सकलभूषण, वर्णी क्षेमचन्द्र, सुमतिकीर्ति, श्रीभूषण आदिके नामोल्लेख मिलते हैं। इनकी मृत्युके पश्चात् सुर्मातकीति इनके पट्टपर आसीन हुए थे ।
स्थितिकाल
डॉ० जोहरापुरकरने शुभचन्द्रका भट्टारककाल वि० सं० १५७३-१६१३ माना है | शुभचन्द्रकी मृत्युके पश्चात् सुमतिकीर्ति उनके पदपर आसीन हुए हैं और सुमतितिका समय वि० सं० १६२२ है । अतः भट्टारक शुभचन्द्रका जीवनकाल वि० सं० १५३५ - १६२० होना चाहिए। ४० वर्षों तक भट्टारक पदपर आसीन रहकर शुभचन्द्र ने साहित्य और संस्कृतिकी सेवा की है । इन्होंने त्रिभुवनकीर्तिके आग्रहसे वि० सं० १५७३ की आश्निी शुक्ला पञ्चमीको अमृतचन्द्रकृत समयसार कलशोंपर अध्यात्मतरंगिणी नामक टीका लिखी है । संवत् १५९० में ईडर नगरके षड्जातीय श्रावकोंने ब्रह्मचारी तेजपाल के द्वारा पुण्याश्रवकथा कोशकी प्रति लिखवाकर इन्हें भेंट की थी। संवत् १५८१ में इन्हीं के उपदेश से बड़जातीय श्रावक साह, होरा, राजू आदिने प्रतिष्ठामहोत्सव सम्पन्न किये थे ।
" संवत् १५८१ वर्षे पोष वदी १३ शुके धामूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलास्कारगणे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री ज्ञानभुषण तत्पट्टे श्री भ० विजयकीति तत्पट्टे भ० श्री शुभचन्द्रगुरुपदेशात् बड़जाति साह हीरा मा० राजू
३६४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत सं० तारा द्वि० भार्या पोई सुत्त सं० माका भार्या हीरा दे..."भा० नारंग दे भ्रा० रत्नपाल भा-विराला दे सुत रखभदास नित्यं प्रणमति ।"
संवत् १५९९में डूंगरपुरके आदिनाथचैत्यालय में इन्हींके उपदेशसे अंगप्रज्ञप्तिको प्रतिलिपि करवाकर विराजमान की गयी थी । संवत् १६०७की वैशाख कृष्णा तत्तीयाको एक पंचपरमेष्ठीकी मूर्ति स्थापित की थी। संवत् १६०८ की भाद्रपद द्वितीयाको सागवाड़ामें 'पाण्डवपुराण' की रचना पूर्ण की थी । संवत् १६११ में करकण्डचरित और संवत् १६१३ में कार्तिकेयानुप्रेक्षाको टोका लिखी । इस प्रकार आचार्य शुभचन्द्रका जीवनकाल १५३५-१६२० तक आता है। रचनाएं
शुभचन्द्र ज्ञानके सागर एवं विद्याओं में पारंगत थे। ग्रन्थ-परिमाण और मूल्यको दृष्टिसे इनकी रचनाएं उल्लेखनीय हैं। संघ व्यवस्था, धर्मोपदेश एवं आत्मसाधनाके अतिरिक्त जो भी समय इन्हें मिलता था, उसका सदुपयोग इन्होंने ग्रन्थरचनामें किया है। वि० सं० १६०८ में इन्होंने पाण्डव-पुराणको रचना की है। इस ग्रन्थको प्रशस्तिसे अवगत होता है कि इस रचनाके पूर्व इनकी २१ कृतियां प्रसिद्ध हो चुकी थीं । संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में इनकी रचनाएं उपलब्ध हैं। संस्कृत-रचनाएं १. चन्द्रप्रभचरित
१३. अष्टानिकाकथा २. करकन्डरित
१४. कर्मदहनपूजा ३. कीर्तिकेयानुप्रेक्षाटीका १५. चन्दनषष्ठीव्रतपूजा ४. चन्दनाचरित
१६. गणधरवलयपूजा ५. जीवन्धरचरित्त १७. चारित्रशुद्धिविधान ६. पाण्डवपुराण
१८. तीसचौबीसोपूजा ७. श्रेणिकचरित
१९. पञ्चकल्याणकपूजा ८. सज्जनचित्तवल्लम २०. पल्लीव्रतोद्यापन ९. पाश्र्वनाथकाव्यपञ्जिका २१. तेरहतीपपूजा १०. प्राकृतलक्षण
२२. पुष्पाञ्जलिव्रतपूजा ११. अध्यात्मतरंगिणी २३. साढवयद्वीपपूजा १२. अम्बिकाकल्प
२४. सिद्धचक्रपूजा हिन्दी रचनाएँ १. महावीरछन्द
३. गुरुछन्द २. विजयकीतिछन्द
४. नेमिनापछन्द
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३६५
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
५. तत्त्वसा रहा ६. अष्टानिकगीत जनाओं
कार्तिकेयानुपेक्षारीका, सज्जनचित्तबल्लभ, अम्बिकाकल्प, गणघरवलयपूजा, चन्दनषष्ठीव्रतपूजा, तेरहद्वीपपूजा, पंचकल्याणक पूजा, पुष्पाञ्जलिव्रतपूजा, साद्ध द्वयद्वोपपूजा एवं सिद्धचक्रपूजा आदि संवत् १६०८ के पश्चात् अर्थात् पाण्डवपुराणके बादको कृत्तियाँ है ।
७. क्षेत्रपालगीत
१. करकण्डुचरित -- करकण्डुका जीवन इस काव्यकी मुख्य कथावस्तु है और यह १५ सर्गों में विभक्त है । वि० सं० १६११ में जवाच्छपुरके आदिनाथचैत्यालय में इस ग्रन्थ की रचना पूर्ण हुई है। इस ग्रन्थ के सहायक शुभचन्द्रके प्रमुख शिष्य सकलभूषण भट्टारक थे । ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है
श्रीमूलसंधे कृति नदिसंघे गच्छे बलात्कार इदं चरित्रं । पूजाफलेद्ध करकण्डुराज्ञो भट्टारकश्री शुभचन्द्रसूरिः ॥ न्द्याष्टे विक्रमत्तः शते समहते चैकादशाब्दाधिके । भाद्रे मासि समुज्वले युगतिथौ बजे जाचाछपुरे । श्रीमच्छ्री वृषभेश्वरस्य सदने चक्रे चरित्रं त्विदं । राज्ञः श्रीशुभचन्द्रसूरियतिपश्चंपाधिपस्याद् घ. व्रं ॥ श्रीमत्सकलभूषेण पुराणे
पाण्डवे कृतं तदाकारस्वसिद्धये ॥
तेनाऽत्र
साहाय येन
२. अध्यात्मतरंगिणी - इस ग्रन्थका आधार आचार्य अमृतचन्द्र के समयसारके कलश हैं । इस आध्यात्मिक कृतिमें निश्चय और व्यवहार नयकी अपेक्षा रचना एक प्रकारसे समयसारपर आवृत १५७३ है |
आत्मतत्त्वका वर्णन किया गया है। यह टीका है । इसका रचनाकाल वि० सं०
३. कार्तिकेयानुप्रेक्षाटीका - प्राकृत भाषामें लिखित स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी यह टीका है । इस ग्रन्थको आचार्य शुभचन्द्रको संस्कृतटीकाने विशेष लोकप्रिय बनाया है । इस ग्रन्थकी रचना वि० सं० १६०० माघ शुक्ला के एकादशीके दिन हिसार नगर में हुई है। ग्रन्थकी प्रशस्तिमें बताया है
श्रीमत् विक्रमभूपतेः परमिते वर्षे शते षोडशे, माघे मासिदशाप्रवह्निमहिते ख्याते दशम्यां तिथो । श्रीमह्रीमहीसार-सार नगरे चैत्यालये श्रीपुरोः । श्रीमी शुभचन्द्रदेवविहिता टीका सदा नन्दतु ॥
३६६ : सीर्थंकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह टीका शुभचन्द्रके शिष्य वर्णी वीमचन्द्रके आपसे लिखी गयी है। टोका सरल और ग्रन्थके हार्दको स्पष्ट करती है।
जीवन्धरचरित-कुमार जीवन्धरका जीवनवृत्त संस्कृप्तके कवियोंको विशेष प्रिय रहा है। शुभचन्द्रने पुण्यपुरुष जीवन्धरके आख्यानको ग्रहण कर १३ सर्गप्रमाण यह रचना लिस्त्री है। इसकी समाप्ति वि० सं० १६०३ में
चन्द्रप्रभचरिस-अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभके पावन चरितको १२ सगोमें निबद्ध किया गया है। ग्रन्यके अन्तमें आचार्यने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि न तो छन्द-अलंकारका परिज्ञान है, न काव्यशास्त्रका, न जैनेन्द्रव्याकरणका, न कलापका और न शाकटायनका। त्रिलोकसार एवं गोम्मटसार जैसे महान ग्रन्थोंका भी अध्ययन नहीं किया है। यह रचना में भक्तिवश लिख रहा हूँ।
चन्दनाचरित यह एक कथाकाव्य है। इसमें सती चन्दनाके पावन एवं उज्जवल जीबनका चित्रण किया गया है । काव्यको कथावस्तु पाँच स!में विभक्त है । इसकी रचना वागड प्रदेशके डूंगरपुर नगरमें हुई है 1
शास्त्राण्यनेकान्यवगाह्य कृत्वा पुराणसल्लक्षणकानि भूयः ।
सच्चंदनाचारुचरित्रमेतत् चकार च श्रीशुभचन्द्रदेवः ।। पाण्डवपुराण-जैन साहित्यमें कौरव और पाण्डवोंकी कथाका आरम्भ जिनसेन प्रथमके हरिवंशपूराणसे होता है । स्वतन्त्ररूपमें इस चरितका प्रणयन देवप्रभ सूरिने वि० सं० १२५० में किया है। पश्चात् आचार्य शुभचन्द्रने वि० सं० १६०८ में इस चरितकी रचना की है। कथाके प्रारम्भमें भोगभूमिकालमें होनेवाले १४ कुलकरोंके उत्पत्तिक्रमके कथनके पश्चात् बताया है कि ऋषभदेवने इक्ष्वाकु, कौरव, हरि और नाथ नामक चार क्षत्रियगोत्र स्थापित किये। कुरुवंशकी परम्परामें सोमप्रभ, जयकुमार, अनन्तवीर्य, कुरुचन्द्र, शुभंकर और धुतिकर आदि राजाओंके पश्चात् विश्वसेन राजाके पुत्र शान्तिनाथ तीर्थङ्कर हए। इसी परम्परामें भगवान् कुन्थ और अर्हनाथ तीर्थकर उत्पन्न हुए। इसके पश्चात् इस परम्परामें शान्तनु राजा उत्पन्न हुआ । इसकी पत्नीका नाम सवको था। इन दोनोंके परासर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। परासरका विवाह रनपुरनिवासी जननामक विद्याधरकी पुत्री गङ्गाके साथ हुआ । इनके पुत्रका नाम गाङ्गेय भीष्म पितामह था । परासर राजाने योग्य समझकर गाङ्गेयको युवराजपदपर प्रतिष्ठित किया । एक दिन परासर यमुनाके तटपर गये और वहाँ वे धीवरकी कन्याको देखकर मोहित हो गये। कालान्तरमें गाङ्गेयको
प्रधाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३६५
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
भीष्मप्रतिज्ञाके अनन्तर गुणवती या सम्पन्न हुआ । इस पत्नीसे परासरको पत्नीका नाम सुभद्रा था और इससे उत्पन्न हुए। इनमें धृतराष्ट्रका विवाह मथुरा निवासी कन्या गान्धारीके साथ सम्पन्न हुआ। इससे धृतराष्ट्रको उत्पन्न हुए। विदुरका विवाह देवक राजाकी पुत्री
योजनगंधाके साथ परासरका विवाह व्यासनामक पुत्र उत्पन्न हुआ । व्यासकी धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर ये तीन पुत्र राजा भोजकवृष्टिकी दुर्योधनादि १०० पुत्र कुमुदवत्तीके साथ
सम्पन्न हुआ ।
धृतराष्ट्रने पाण्डु के लिए राजा अन्धकबुष्टिसे उनकी पुत्री कुन्तोकी याचना की । परन्तु पाण्डु के पाण्डुरोगसे पीडित होने के कारण अन्धकवृष्टिने उसे स्वीकार नहीं किया । पाण्डु कामरूपणी मुद्रिका द्वारा अपना रूप बदलकर कुन्ती के महलमें जाने-आने लगा । फलतः कुन्ती गर्भवती हुई और इस पुत्रका नाम कर्ण रखा गया । विधिवत् विवाह न होनेके कारण, कर्णको एक पेटीमें रखकर यमुना में प्रवाहित कर दिया गया और वह पेटी चम्पापुरीके राजा भानुको प्राप्त हुई। उसने उस तेजस्वी बालकको अपनी पत्नी राधाको दे दिया और राधाने उसका विधिवत् पालन किया । कालान्तर में अन्धकवृष्टिने कुन्ती और माद्री इन दोनों कन्याओं का विवाह पाण्डुके साथ कर दिया । कुन्तीसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ये तीन पुत्र तथा माद्रीसे नकुल और सहदेव ये दो पुत्र हुए। ये पाँचों ही पाण्डव कहलाये । कौरव और पाण्डवोंको द्रोणाचार्यने धनुर्वेदको शिक्षा दो । एक दिन पाण्डु माद्रीके साथ क्रीड़ार्थ वनमें गये और वहाँ आकाशवाणी सुनकर विरक्त हो गये । उन्होंने अपनी १३ दिन आयु शेष जानकर दीक्षा ग्रहण की और पांचों पुत्रोंको बुलाकर उन्हें राज्य देकर घुतराष्ट्रके अधीन कर दिया । कालान्तर में कौरवों और पाण्डवोंकी ईर्ष्या प्रज्वलित हुई। दुर्योधनते लाक्षागृह में पाण्डवोंको दग्ध करनेका प्रयास किया, पर वे सुरंगके रास्तेसे बच कर निकल गये और ग्रामानुग्राम देशाटन करने लगे । हस्तिनापुर लौट आने के पश्चात् अर्जुनका विवाह द्रौपदी और सुभद्राके साथ सम्पन्न हुआ । तदनन्तर युधिष्ठिर द्यूतक्रीड़ा में समस्त राज्य हार गये और १२ वर्षों तक उन्हें बनवासमें रहना पड़ा। अन्त में राज्यके लिए कौरवों और पाण्डका भयंकर युद्ध हुआ ।
यह कथा पच्चीस पर्थो में विभक्त है । २वें पर्व में युद्ध के पश्चात् पाण्डव दीक्षा ग्रहण करते हैं और दुर्धर तपश्च रणके अवसरपर उन्हें उपसर्गादि सहन करने पड़ते हैं। वे अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व मादि १२ भावनाओंका चिन्तन कर कर्मोकी निर्जरा करते हैं । फलतः युधिष्ठिर, भीम और अर्जुनको मुक्तिलाभ होता है एवं नकुल और सहदेवको सर्वार्थसिद्धिलाभ होता है ।
२६८ तीर्थंकर महावीर और उनकी लाचार्य-परम्परा
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यने धर्मका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है
धर्माद्वैरिजनस्य भेदनमहो धर्माच्छुभं सत्प्रभम् धर्माद्बन्धुसमागमः सुमहिमालाभः सुधर्मात्सुखम् । धर्मात्कोमलकम्रकायसुकला धर्मात्सुताः समता:
धर्माच्छीः क्रियतां सदा बुधजना शास्त्रेति धर्म: श्रियैः ।। पूजाग्रन्थोंमें तत्तत् विषयोंकी पूनाएँ निबद्ध हैं । हिन्दीरचनाओं में महावीरछन्दमें भगवान महावीरके सम्बन्धमें २७ पद्योंमें स्तवन हैं। विजयकातिछन्द एक ऐतिहासिक कृति है। यह कविके गुरु विजयकोतिकी प्रशंसामें लिखा गया है। इसमें २९ पद्य हैं। यह एक रूपककाव्य है। इसके नायक विजयकीर्ति हैं और प्रतिनायक कामदेव । इस रूपककाव्यमें अध्यात्मशक्तिको विजय दिखलायी गयी है। गरुन् ? पद्य हैं और बटारा दिजगकी निकर मानबाद किया गया है। नेमिनाथछन्दमें तीर्थकर नेमिनाथकै पावन जीवनका चित्रण २५ पद्योंमें किया है। तत्त्वसारगुहा में ९१ दोहे एवं चौपाइयाँ हैं । सात तत्त्वोंका वर्णन है । इस प्रन्थकी रचना दुलहा नामक श्रावकके अनुरोधसे की गयी है।
भट्टारक विद्यानन्दि आचार्य विद्यानन्दि बलात्कारगणकी सूरत-शाखाके भट्टारक थे। इस शाखाका आरम्भ भट्टारक देवेन्द्रकीतिसे हुआ है। ये भट्टारक पद्मनन्दिके शिष्य थे। पदमन्दिके तीन शिष्योंने तीन भट्टारक-परम्पराएँ आरम्भ की हैं। शुभचन्द्रन दिल्ली-जयपुरशाखा, सकलकोतिने ईडर-शाखा और देवेन्द्रकीतिने सूरत-शाखाको समृद्ध किया है । बलात्कारगण उत्सर शाखामें वि० सं० १२६४ में वसन्तकीर्ति, वि० सं० १२६६ में विशालकोति, तत्पश्चात् शुभकीति, वि० संवत् १२७१-१२९६ में धर्मचन्द्र, वि० सं० १२९६-१३१० में रत्नकीति, वि० सं० १३१०-५३८४ में प्रभाचन्द्र और वि० सं० १३८५-१४५० में पद्मनन्दि भट्टारक हुए। इन पद्मनन्दिके शिष्य देवेन्द्रकीर्ति वि० सं० १४९३ में पट्ट पर आसीन हुए। देवेन्द्रकीतिके शिष्य विद्यानन्दि हए । इन्होंने वि० सं० १४९९ की वैशाख शुक्ला द्वितीयाको एक चौबीसो मूर्ति, वि० सं १५१३ की वैशाख शुक्ला दशमीको एक मेरू तथा चौबीसो मूर्ति, वि. सं १५१८ को माघ शुक्ला पंचमीको दो मतियाँ, वि० सं० १५२१ को गैशाख कृष्णा द्वितीयाको एक चौबीसी मूर्ति एवं वि० सं० १५३७ की वैशाख शुक्ला द्वादशीको एक अन्य१. पाण्डवपुराण, १८.२०१ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३६९
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूर्ति स्थापित की है । वि० सं० १५१३ की चौबीसी मूर्ति आर्यिका संयमश्रीके लिये घोघामें प्रतिष्ठित को गयी थी । विधानन्दिके सम्बन्धमें निम्नलिखित अभिलेख उपलब्ध हैं
सं० १५३७ वर्ष वैशाख सुदि १० गुरौ श्रोमूलसंघे म० जिनचन्द्राम्नाये मंडलाचार्य विद्यानन्दि तदुपदेशं गोलारारान्वये पियू पुत्र
||"
X
X
x
X
x
" संवत् १५४४ वर्षे साल सुदि ३ सोमे श्रीमूलसंघे भ० श्रीविद्यानन्दि भट्टारक श्रीभुवनकीति भ० श्रीज्ञानभूषण गुरूपदेशात् हूंबड साह चांदा, भार्या रेमाई" ..२४ I
इन अभिलेखोंस स्पष्ट है कि विद्यानन्दिने मन्दिर प्रतिष्ठा और मूर्ति प्रतिष्ठा में पूर्ण योगदान दिया था। साह लखराजने पञ्चास्तिकायकी एक प्रति खरीद कर इन्हें अर्पित की थी | पंचस्तिकायकी पुष्पिकामें बताया गया है
"स्वस्ति श्रीमूलसंचे हुंबड ज्ञातीय सा० कान्हा भार्या रामति एतेषां मध्ये सा० लखराजेन मोचथित्वा पंचास्तिकायपुस्तकं श्रीविद्यानंदिने ज्ञानावर्णीकर्मक्षयार्थ दत्तं शुभं भवतु ।
इनके शिष्य ब्रह्माजिसने भडच में हनुमत्चरितकी रचना की है। इनके अन्य शिष्य छाडने वि० सं० १५९१ से भडचमें धन्यकुमारचरितकी एक प्रति लिखी है । इनके तृतीय शिष्य ब्रह्मघर्मपालने सं० १५०५ में एक मूर्तिकी स्थापना की है ।
विद्यानन्दिने सुदर्शन चरितकी रचना की है। इस ग्रन्थको प्रशस्ति में पूर्वाचायका स्मरण करते हुए अपनी गुर्वावह्नि अंकित की है। लिखा है
श्रीमूलसड्ये वरभारतीये
गच्छे
जात:
बलात्कारगणेऽतिरम्ये 1 प्रभाचन्द्रमहामुनीन्द्रः ॥
श्री कुन्दकुन्दाख्यमुनीन्द्रवंशे पट्टे सदीये मुनिपानन्दो भट्टारको भव्यसरोज भानुः । जातो जगत्त्रयहितो गुणरत्नसिन्धुः कुर्यात् सतां सारसुखं यतीशः ॥
१. भट्टारक सम्प्रदाय, जीवराज जैन मन्थमाला, प्रथाक ८, सोलापुर, वि० सं० २०१४ लेखांक ४२७-४३३ ।
२. वही, लेखांक २५७,३५६ ।
३. वही, लेखांक ४३५ ।
३७० : तोर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्पट्टपद्माकरभास्करोऽत्र देवेन्द्रकीतिर्मुनिचक्रवर्ती । तत्पादपङ्कजसुभक्तियुक्तो विद्यादिनन्दी चरितं चकार ।। तत्पादपट्टेऽजनि मल्लिभूषणगुरुश्चारित्रचूडामणिः
संसाराम्बुधितारणकचतुरश्चिन्तामणिः प्राणिनाम् । सूरिश्रीश्रुतसागरो गुणनिधिः श्रीसिंहनन्दी गुरुः ।
सर्वे ते यतिसत्तमाः शुभतराः कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ॥ इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि सूरत-शाखाके बलात्कारगणके आचार्योंमें देवेन्द्रकोतिके शिष्य विद्यानन्दि है। ग्रन्थके भारम्भमें भी गुरुपरम्पराका स्मरण किया गया है।
विद्यानन्दिके गृहस्थ जीवन सम्बन्धी कोई भी वृत्तान्त ग्रन्थप्रशस्तियोंमें उपलब्ध नहीं होता है। केवल एक पट्टावलीमें 'अष्टशाखाप्राग्वाटवंशावतंस' तथा 'हरिराजकुलोद्योतकर कहा गया है, जिससे ज्ञात होता है कि ये प्राग्वाट पोरवाड़) जातिके थे तथा इनके पिताका नाम हरिराज था । पौरवाड़ जातिमें अथवा उसके निदी पक वर्ग में थाट शालाओंकी मान्यता प्रचलित रही होगी। इस जातिका प्रचार प्राचीनकालमें गजरात प्रदेशमें रहा है। इस प्रदेशकी प्राचीन राजधानी श्रीमाल थी। इश प्रागवाट जातिमें विद्यानन्दिके गुरुभट्टारक देवेन्द्रकीतिका विशेष सम्मान रहा है। इन्होंने पौरपाटान्वयकी अशाखावाले एक श्रावक द्वारा वि० सं० १४९३ में एक जिनमूर्तिकी स्थापना करायी थी।
_ "संवत् १४९३ शाके १३५८ वर्षे वैशाख वदि ५ गुरौ दिने मूलनक्षत्रे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ. श्रोप्रभाचन्द्रदेवाः तत्पट्टे वादिवादीन्द्र भ० पद्मनन्दिदेवाः तत्पटे श्रीदेवेन्द्रकीतिदेवाः पौरपाटान्वये अष्टशाखे आहारदानदानेश्वर सिंघई-लक्ष्मण तस्य भार्या अखसिरी कुक्षिसमुत्पन्न अर्जुन......"
अतएव स्पष्ट है कि प्राग्वाट, पौरपाट और पोरवाड़ एक ही जातिके वाचक हैं। डॉ० हीरालालजी जैनका अनुमान है कि भटटारक देवेन्द्रकीर्ति भी इसी जातिमें उत्पन्न हुए होंगे और उन्हींके प्रभावसे विद्यानन्दि भी दीक्षित हुए होंगे। वि० सं० १४९९ के मूर्तिलेखमें उन्हें देवेन्द्रकीतिका शिष्य कहा गया है, पर वि० १. हा. हीरालास जैन, सुदर्शनचरित, सन् १९७०, श्लोक १२।४७-५० । २. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ४३९ । ३. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ४२५ । ४. सुदर्शनपरित, सम्पादक हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, सन् १९५०
प्रस्तावना, पृ० १६ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३७१
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
संवत् १५१३ के मूर्ति लेखमें उनका श्रीदेवेन्द्रफीति दीक्षित आचार्य श्रीविद्यानन्दिके रूपमें उल्लेख आया है। संवत् १५३७ के मूर्तिलेख में देवेन्द्रकीर्तिपदे प्रतिष्ठित विद्यानदिको बताया है। इससे स्पष्ट है कि वे संवत् १५१३ के पश्चात् और संवत् १५३७ के पूर्व भट्टारक गद्दी पर आसीन हो चुके थे। श्री जोहरापुरकरने वि० सं० १४९९ - १५३७ उनका भट्टारककाल माना है ।
विद्यानन्दने पर्याप्त भ्रमण किया था। पट्टावली के अनुसार उन्होंने सम्मेदशिखर, चम्पा, पावा, उर्जयन्तगिरि आदि समस्त तीर्थक्षेत्रोंकी यात्रा की थी । इनका सम्मान राजाधिराज महामण्डलेश्वर वज्राङ्ग- गङ्ग-जयसिंह- व्याघ्र-नरेन्द्र आदिके द्वारा किया गया था । इनके द्वारा प्रतिष्ठित करायी गयी मूर्तियोंमें बहुजाति श्रावकों के उल्लेख अधिक आये हैं । अन्यजति और वर्ग सम्बन्धी निर्देशों काष्ण न पड़ जाति, इकबालजाति, गोलश्रृंगारवंश, पल्लोवालजाति एवं अग्रोतकान्वय ( अग्रवाल) के नाम प्राप्त होते हैं ।
पट्टा वलियों, मूर्तिलेखों एवं ग्रन्थप्रशस्तियोंके आधारपर विद्यानन्दिका समय वि० सं० १४९९ १५३८ पाया जाता है । इस कार्यकालके भीतर उन्होंने धर्मप्रचारके लिये धर्मोपदेशके साथ मूर्ति एवं मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा करायी । रचनाएँ
भट्टारक विद्यानन्दिके द्वारा सुदर्शनचरितनामक चरितकाव्यकी रचना गन्धार नगर या गन्धारपुरीमें की गयी है। इस गन्धार नगरका उल्लेख अन्य आचार्यों के ग्रन्थोंमें भी मिलता है । सम्भवतः यह सूरत नगरका ही नामान्तर है। इस कृतिकी रचना वि० सं० १३५५ के लगभग सम्पन हुई है ।
इस ग्रन्थ में पुण्यपुरुष सुदर्शनका आख्यान वर्णित है । कथावस्तु १२ अधिकारोंमें विभक्त है। प्रथम और द्वितीय अधिकारमें तीर्थंकर महावीरका विपुलाचलपर समवशरण प्रस्तुत होता है और उसमें गोतम गणधर उनसे धर्मविषयक प्रश्न पूछते हैं। स्तवनप्रकरणमें गणधरोंके नमस्कारके पश्चात् - कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पात्रकेसरी, अकलंक, जिनसेन, रत्नकीर्ति, गुणभद्र, प्रभा चन्द्र, देवेन्द्रकोति और आशाधरका संस्मरण किया है। श्रेणिक जिनेन्द्रकी पूजा-स्तुतिके अनन्तर गौतम गणधरसे पञ्चम अन्तः कृतु केवली सुदर्शनमुनिके चरित वर्णनकी प्रार्थना करते हैं। गौतम गणधर उस चरितका वर्णन करते है । विद्यानन्दिने इस प्रकार तृतीय अधिकारमें सुदर्शनके जन्ममहोत्सवका वर्णन किया है। चतुर्थं अधिकारमें सुदर्शन मनोरमा विवाह, पंचममें सुदर्शनकी श्रेष्ठिपद प्राप्ति, षष्ठ में कपिलका प्रलोभन तथा रानी अभयमतीका व्यामोह, सप्तममें अभयाकृत उपसर्ग निवारण और शीलप्रभाव वर्णन, अष्टम में सुदर्शन और
३७२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी श्राचार्य - परम्परा
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनोरमा पूर्वभव, नवममें द्वादशानुप्रेक्षा, दशममें सुदर्शनका दीक्षा ग्रहण और तप, एकादशमें केवलज्ञानोत्पत्ति और द्वादशमें सुदर्शनमुनिकी मोक्षप्राप्तिका वर्णन आया है । समस्त ग्रन्थ अनुष्टुप छन्दोंमें निर्मित है । सर्गान्तिमें छंदपरिवर्तन हुआ है । कविने प्रसंगवश सुभाषितोंका भी प्रयोग किया है। पुण्यका माहात्म्य बतलाते हुए लिखा है
पुण्येन दूरतरवस्तुसमागमोऽस्ति
पुण्यं बिना तदपि हस्ततलात्प्रयाति । तस्मात्सुनिर्मलधियः कुरुत प्रमोदात् पुष्पं जिनेन्द्रकथितं शिवशर्मंश्री जम्' ॥
इस प्रकार सुदर्शनचरितके द्वारा कविने पुराण, धर्मशास्त्र और दर्शनका प्रणयन किया है। इस ग्रन्थकी कुल श्लोकसंख्या १३६२ है ।
भट्टारक भलिभूषण
विद्यानन्दिके पट्टशिष्यों में मल्लिभूषणको गणना की जाती है । इन्होंने वि० संवत् १५४४ को वैशाख शुक्ला तृतीयाको खम्भात में एक निषदिका बनवायी थी । इस निषदिकापर जो अभिलेख प्राप्त हुआ है, उससे आर्यिका रत्नश्री, कल्याणश्री ओर जिनमतोका परिचय प्राप्त होता है । यह अभिलेख आर्थिकी मूर्तिपर उत्कीर्ण है
"सं० १५४४ वर्षे वैशाख सुदी ३ सोमे श्रीमूलसंघे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे भ० श्रीविद्यानन्ददेवा: तत्पट्टे भ० श्रीमल्लीभूषण श्रीस्तंभतीर्थे हुंबड ज्ञातेय श्रेष्ठी चांपा भार्या रूपिणी तत्पुत्री श्रीअजिका रत्नसिरी क्षुल्लिका जनमती श्रीविद्यानंदीदीक्षिता आर्जिका कल्याणसिरी तत्त्वल्ली अग्रोतका ज्ञातो साहदेवा भार्या नारिंगदे पुत्री जिनमती नस्सही कारापिता प्रणमत श्रेयार्थम्" ।
मल्लि भूषण गोपालकी यात्रा की थी और गयासुद्दीन के द्वारा सम्मान प्राप्त किया था। महिलभूषण पद्मावती के उपासक थे । पट्टावलीमें इनके वादी होने का भी निर्देश मिलता है । मल्लिभूषणते धर्मोपदेश, शास्त्रार्थ आदिके द्वारा धर्मकी प्रभावना की थी। बताया है
१. सुदर्शनचरित, डा० दीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, सन् १९७०, श्लोक
४|१०६ ।
२. मट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ४५८ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३७३
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
ין
1
i
“तत्पट्टोदयाचलबालभास्कर - प्रवरपरवादिगजयूथकेसरि-मंडपगिरिमंत्रवादसमस्याप्त चन्द्रपूर्णविकटवादि — गोपाचल दुर्ग मेघा कर्ष कभविकजन-सस्यामृतवाणिवर्षणसुरेंद्रनागेंद्रमृगेंदादिसेवितचरणारविंदानां ग्यासदीन सभामध्यप्राप्त सन्मानपद्यावत्युपासकानां श्रीमल्लिभूषणभट्टारकवर्याणाम् ॥"
स्पष्ट है कि मल्लिभूषण अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य और धर्मप्रचारक थे । इनके पट्टशिष्य लक्ष्मीचन्द्र हुए। इसी भट्टारकशाखा में एक अन्य विद्या - नन्दि भी हुए हैं । इन्होंने वि० सं० १८०५ में सूरत में एक आदिनाथमूर्ति स्थापित की थी ।
आचार्य वीरचन्द्र
भट्टारकीय बलात्कारगण सूरत शाखाके भट्टारक देवेन्द्रकीतिकी परस्परा में लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य आचार्य वीरचन्द्र हुए हैं। वीरचन्द्र अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् थे । व्याकरण एवं न्यायशास्त्र के प्रकाण्डवेत्ता था। छन्द, अलंकार एवं संग सास्ती के बाद वाया में भी वे निपुण थे । साधुजीवनका निर्वाह करते हुए वे गृहस्थोंको भी संयमित जीवन यापन करनेको शिक्षा देते थे । भट्टारकपट्टावली में उनका परिचय निम्न प्रकार प्राप्त होता है
श्रीलक्ष्मीचंद्र | नाति श्रृंगार |
श्रीवीरचंद्र सूरी मणी चित्तनिरोध विचार
X
X
सूरि श्रीमल्लिभूषण जयो जयो तास वंश विद्यानिलु लाड
X
X
"तद्वंशमंडनकंदर्पदलन विश्वलो कहृदय रंजन - महाव्रसिपुरंदराणां नवसहस्रप्रमुख देशाधिपतिराजाधिराज श्री अर्जुनजीयराजसभामध्य प्राप्त सन्माना षोडशवर्षपर्यन्तशाकपाकपक्वान्नशाल्योदनादिसर्पिः प्रभूतिस रसाहारपरिवर्जितानां....... सकलमूलोत्तरगुणगणमणिमंडितविबुधवरश्रीषोरचंद्रभट्टा रकाणाम्” ।
उपर्युक्त प्रशस्तिसे यह स्पष्ट है कि आचार्य वीरचन्द्रने नवसारीके शासक अर्जुन जीवराजसे सम्मान प्राप्त किया था तथा १६ वर्षो तक नीरस आहारका सेवन किया था । वीरचन्द्रकी विद्वत्ताके सम्बन्ध में अन्य विद्वानोंने भी प्रकाश
१. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ४५८ । २. वही, लेखांक, ४७८, ४७९ ।
३७४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
डाला है। भट्टारक शुभचन्द्रने अपनी कीर्तिकेयानुपेक्षाकी संस्कृतटोकामें इनकी प्रशंसा की है
भट्टारकपदाधीशाः मूलसंघे विदांवगः ।
रमावोरेन्दु-चिद्रूपाः गुरवो हि गणेशिनः ॥ भद्दारक सुमतकीतिने भी इन्हें वादियों के लिये अजेय बतलाया है। प्राकृतपंचसंग्रहको टोकामें इन्हें यशस्वी, अप्रतिम विद्वान बतलाया है
दुरदुर्वादिकपर्वतानों वज्रायमानो बरबीरचन्द्रः।
तदन्वये सूरिवरप्रधाना ज्ञानादिभूषो गणिगच्छराजः ।। लक्ष्मीचन्द्रक शिष्य होने के कारण वीरचन्द्रका समय वि० सं० १५५६. १५८२ के मध्य है। इनके द्वारा चित कृतियोंमें जो समय प्राप्त होता है, उससे
भी पनामा कार्यकाल नि. दीपाली कालगन्दी सिद्ध होता है। रचनाएँ
आचार्य वीरचन्द्र संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और गुजरातीके निष्णात बिद्वान थे । इनके द्वारा लिखित आठ रचनाएँ प्राप्त है।
१. वीरविलासफाग २. जम्बूस्वामोवेलि ३. जिनान्तर ४. सीमन्धरस्वामीगीत ५. सम्बोधसत्ताणु ६. नेमिनाथरास ७. चित्तनिरोधकथा ८. बाहुबलिवेलि
१. वीरविलासफाग-इस काव्यमें रखें तीर्थकर नेमिनाथके जीवनकी एक घटना वर्णित है । इस फाग में १३७ पद्य हैं । रचनाके प्रारम्भमें नेमिनाथके सौन्दर्य एवं शक्तिका वर्णन है, तत्पश्चात् राजुलको सुन्दरताका चित्रण किया गया है। विवाहके अवसर पर नगरकी शोभा दर्शनीय होती है। बारात बड़ी साज-सज्जाके साथ पहुंचती है, पर तोरणद्वारके निकट पहुँचनेके पूर्व ही पशुचीत्कारको सूनकर नेमिनाथ विरक्त हो जाते हैं। जब राजलको उनके वैरा
ग्यकी घटना ज्ञात होती है, तो वह घोर विलाप करने लगती है। वह स्वयं ____ आभूषणोंका त्याग कर तपस्विनी बन जाती है। आचार्यने नेमिनाथके तपस्वी
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३७५
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवनका अच्छा चित्रण किया है । नेमिनाथकी सुन्दरताका चित्रण करते हुए लिखा है
वेलि कमलदल कोमल, सामल वरण शरीर | त्रिभुवनपत्ति त्रिभुवन निलो, नीलो गुण गंभीर ।। माननी मोहन जिनवर, दिन दिन देह दिपंत ।
प्रलंब प्रताप प्रभाकर, भवहर श्री भगवंत ।। राजुलकी सुन्दरताका चित्रण करते हुए लिखा है--
कठिन सुपीन पयोधर, मनोहर अति उतंग । चंपक वर्णी चंद्राननी, माननी सोहि सुरंग ।। हरणी हरखी निज नयणोउ बयणीउ साह सुग। दंत सुपंती दीपंती, सोहंती सिखेणी बंध | कनक केरी जसी पूसली, पातली पदमनी नारि ।
मतीय शिरोमणि सुन्दरी, भवतरी अवनि मझारि ।। कविका राजुल-विलाप वर्णन भी बहुत ही मर्मस्पर्शी है । इस फागके रचना कालका निर्देश नहीं है, पर यह वि० सं० १६०० के पूर्वकी रचना है ।
जम्मूस्वामी वेलि–अन्तिम केवली जम्बस्वामीका जीबन जैन कवियोंको बहत्त प्रिय रहा है। यही कारण है कि संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं राजस्थानी आदि विभिन्न भाषाओंमें रचनाएँ लिखी गयी हैं । इस देलिकी भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी है। कविने आरम्भमें अपने पट्टका परिचय प्रस्तुत किया है
श्री मूलसंधे महिमा निलो, अने देवेन्द्र कीरति सूरि राय । श्री विद्यानंदि वसुधां निलो, नरपति सेवे पाय ।। तेह वारें उदयो गति, लक्ष्मीचन्द्र अण आण । श्री मल्लिभूषण महिमा धणो, नमे ग्यासुदीन सुलतान ।। तेह गुरुचरणकमलनमी, अनें वेल्लि रची छे रसाल ।
श्री वीरचन्द्र सूरीवर कहें, गांता पुण्य अपार ।। जिनआन्तरा-इस कतिमें चतुर्विशति तीर्थकरोंके मध्यमें होनेवाले अन्तरकालका इसमें वर्णन किया गया है। काव्यसौष्ठवको दृष्टिसे यह रचना सामान्य है। उदाहरण निम्न प्रकार है
श्री लक्ष्मीचन्द्र गुरु गच्छपती, तिस पाटें सार श्रृंगार । श्री वीरचन्द्र मोरें फह्या, जिन आंतरा उदार ।।
३७६ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्बोधतताणु भावना - यह एक उपदेशात्मक कृति है, इसमें ५७ पद्म है।
सभी दोहे भावपूर्ण हैं । यहाँ उदाहरणार्थं कुछ दोहे प्रस्तुत हैं
धर्म कारन प्राणि
धमं धर्म नर उच्चरे, न धरे घर्मनो मर्म । निष्ठुर कर्म || ३ ||
हणे, न गणे
X
X
गहे धर्म नूनाम |
नते निज राम ||६||
X
X
X
धर्मं धर्मं सहु को रास राम पोपट पढ़े, बूझे
कहो,
X
X
X
सवली अप्रमाण ।
दया बोज विणजे क्रिया, ते शीतल संजल जल भर्या जेम
जण्डाल न बाण ||१९||
X
X
X
X
नीचनी संगति परिहरो, धारो उत्तम आचार |
दुर्लभ भव मानव तणो, जीव तूं आलिम हार ॥४०॥
नेमकुमार रास - इस कृति में नेमिनाथको वैवाहिक घटनाका वर्णन है । डा० कस्तूरचन्द काशलीवाल की सूचना के अनुसार इसकी पाण्डुलिपि उदयपुरके अग्रवाल दिगम्बर जैन मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है । इम ग्रन्थको रचना वि० सं० १६७ में समाप्त हुई है। आचार्यने लिया है-संवत सोलताहोत्तरि, श्रावण सुदि गुरुवार । दशमी को दिन संपडो, रास रच्चो मनोहार ||
चित्त निरोधक्रथा बाहुबलि और सीमन्धर स्वामीगीत छोटी रचनाएँ हैं । इनमें नामानुसार विषयोंका अंकन हैं। चित्तविरोध कथामें चित्तको वश करनेका उपदेश दिया गया है । इस कृति में केवल १५ पद्य हैं ।
२५
वीरचन्द्रकी उपलब्ध रचनाओं में सभी रचनाएँ गुजराती मिश्रित राज - स्थानी में है । विषयसे अधिक महत्त्व भाषाका है । १६वीं शताब्दीकी हिन्दी भाषाका रूप अवगत करनेके लिये ये सभी रचनाएँ उपादेय है ।
सुमतिकीर्ति
सुमतिकीति नामके दो भट्टारकोंका उल्लेख मिलता है। एक मट्टारक शुभचन्द्रके शिष्य और दूसरे भट्टारक ज्ञानभूषण के शिष्य हैं। 'उपदेशरत्नमाला' में भट्टारक शुभचन्द्रके शिष्य के रूपमें सुमतिकीतिका निर्देश आया है
।
भट्टारक श्रीशुभचन्द्रसूरिस्तत्पट्टपंके रुहतिज्मरश्मिः त्रै विद्यवंद्यः सकलप्रसिद्धो वादी मसिहो जयतात् परिण्यां ॥
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोवकाचार्य : ३७७
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
पट्टे तस्य प्रीणितप्राणिवर्ग शांतो दांतः शीलशाली सुधीमान् ।
जीयात्सूरिः श्रीसुमत्यादिकोतिः गच्छाधीशः कमुकान्तिकलावान् ।। सकलभूषणने वि० सं० १६२७ में उपदेशरत्नमालाको समाप्त किया था। इन्होंने अपने आपको सुमतिकीतिका गुरुभाई होना स्वीकार किया है। ब्रह्म कामराजने अपने 'जयकुमारपुराण में भी सुमतिकोतिको भट्टारक शुभचन्द्रका शिष्य लिखा है
तेभ्यः श्रीशुभचन्द्रः श्रीसुमतिकोतिसंयमी।
गणकीयाहया आसन् बलात्काराणश्वरः ।। वि० सं० १७२२ में भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति द्वारा लिखित 'प्रद्युम्नप्रबंध में भी सुमत्तिकीतिको शुभचन्द्रका शिष्य कहा गया है।
दूसरे सुमतिकीतिका उल्लेख भट्टारक ज्ञानभूषणके शिष्यके रूपमें आता है। इन ज्ञानभूषणने कर्मकाण्डको टीका सुमतिकोतिकी सहायतासे लिखी
तदन्वये दयांभोधि ज्ञानभूषो गणाकरः ।
टीका हि कर्मकांडस्य चक्रे सुमतिकोत्तियुक्॥ ये समतिकीर्ति नन्दिसंघ' बलात्कारगण एवं सरस्वत्तोगच्छके भवारक वीरचन्दके शिष्य थे। इनके पूर्व इस परम्परामें लक्ष्मीभूषण, मल्लिभूषण एवं विद्यानन्दि हो चुके हैं। सुमत्तिकी तिने प्राकृतपंचसंग्रहको टोकाको वि० सं० १६२० भाद्रपद शुक्ला दशमोके दिन ईडरके ऋषभदेव जिनालय लिखा है । इस टोकाका संशोधन ज्ञानभूषण भट्टारकने किया है ।
यहाँ जिन सुमतिकोतिका निरूपण किया जा रहा है, वे भट्टारक देवेन्द्रकौतिकी परम्परामें होनेवाले भट्टारक ज्ञानभूषणके शिष्य हैं । सम्भवतः ये सुमतिकीति किसी भट्टारक गद्दो पर आसीन नहीं हुए हैं । अपितु बिरक्त साधुके रूपमें विचरण करते रहे हैं । भट्टारक-विरुदावली में बताया गया है
"अनेकदेशनरनाथनरपत्तितुरगपतिगजपतियवनाधीशसभामध्यसंप्राप्तसन्मान श्रीनेमिनाथत्तीथंकरकल्याणिकपवित्र श्रीऊर्जयंतशयुंजय-तुंगीगिरि-चूलमिर्यादिसिद्धक्षेत्रयात्रापवित्राकृतचरणानां
................""सकसिद्धांतवेदिनिग्रंथाचार्य १. श्रीमद्विमभूपतेः परिमिते वर्षे शते षोडशे। विंशत्यग्रगते (१६२०) सिते मुभतरे
भाद्रे दशम्यां तिथों ॥ ईलावे वृषभालयं वृषकरे सुश्रायके धामिके। सूरिश्रीमुम
तीशी तिविहिता टीका सदा नंदतु ।। प्राकृतपंचसंग्रहकी टीकाका अन्तिम पध । ३७८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
वयंशिष्य श्रीसुमतिकीति-स्वदेशविख्यातशुभमूर्तिश्रीरत्नभूषणप्रमुस्वसूरिपाठकसाधुसंसेवितचरणसरोजाना...."भट्टारकश्रीज्ञानभूषणगुरुणाम्" ।
स्पष्ट है कि सुमत्तिकीति सिद्धान्तवेदि एवं निग्रन्थाचार्य थे। इनका समय १६वीं शताब्दीका अन्तिम भाग और १७वीं शताब्दीका मध्यभाग है । रचनाएं
भट्टारक सुमतिकोतिने 'कर्मकाण्ड' और 'प्राकृतपञ्चसंग्रह' जैसे सिद्धान्तअन्योंकी टीका लिखी है। इन टोकाओंसे इनके सिद्धान्तविषयक पाण्डित्यका परिज्ञान होता है। ये आचार, दर्शन, कसिद्धान्त, अध्यात्म एवं काव्यके निष्णात विद्वान थे। संस्कृत रचनाएँ १. कर्मकाण्डटीका
२. पञ्चसंग्रहटीका हिन्दी रचनाएँ
१. धर्मपरीक्षारास ४. जिनवरस्वामीविनती २. बसन्तविद्याविलास ५. शीतलनाथगीत
३. जिह्वादन्तसंवाद ६. फुटकरपद्य १. कर्मकाण्ड-टोका-आचार्य नेमिचन्द्रने प्राकृतमें कर्मकाण्डकी रचना को है। इस अन्थकी संस्कृतटोका भट्टारक ज्ञानभूषणको सहायतासे सुमत्तिकोतिने की है। टीकाके आरम्भमें लिखा है
महावीरं प्रणाम्यादी विश्वतत्त्व-प्रकाशकं । भाष्यं हि कर्मकाण्डस्य वक्ष्ये भव्यहितकरं ।। विद्यादि-सुमल्ल्यादिभूष-लक्ष्मीन्दु-सद्गुरून् ।
वीरेन्दं शानभूषं हि वंदे सुमतिकोतियुक् ।। टोका द्वारा विषयका स्पष्टीकरण तो होता ही है, साथ हो कई स्थानों पर नरे विषयोंका समावेश भी पाया जाता है।
२. प्राकृतपंचसंग्रहदोका-आचार्य अमितगति द्वारा वि० सं० १०७३ म प्राकृत-पंचसंग्रहका संशोधन कर संस्कृत-पचसंग्रह ग्रन्थका गठन किया गया है।
१. भट्टारकसम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ४८६ ।
प्राचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३७९
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
यों यह ग्रन्थ पर्याप्त प्राचीन है, इसमें पांच प्रकरण हैं और इस पर भाष्य एवं संस्कृतटीकाएं लिखी गयी हैं। इस पंचसंग्रहके संस्कृत-टोकाकार भट्टारक सुमतिकीति हैं। टीकाके आरम्भमें गद्यभाग है और अन्त में पद्योंमें प्रशस्ति दो गयी है। प्रशास्तके पद्य निम्नप्रकार हैं
श्रीमलसंवेऽजनि नन्दिसंधो वरो बलात्कारगणप्रसिद्धः । श्रीकुंदकुंदो वरसूरिबर्यो बभी बुधो भारतिगन्छसारे ॥ तदन्वये देवमनीन्द्रवंद्यः श्रीपदमनन्दी जिनधर्मनंदी। ततो हि जातो दिविजेन्द्रकोतिविद्या[दि]नंदी बरधर्ममूर्तिः ॥ तदीयपट्टे नपमाननीयो मल्लयादिभूषो मुनिवंदनोयः । ततो हि जातो वरधर्मधर्ता लक्षम्यादिचन्द्रो बहुशिष्यकर्ता । पंचाचाररतो नित्यं सूरिसद्गुणधारकः । लक्ष्मीचंद्गुरुस्वामी
भट्टारकशिरोमणिः ।। दुर्वारदुर्वादिकपर्वतानां वज्रायमानो वरवीरचन्द्रः ।
तदन्वये सूरिवरप्रधानो ज्ञानादिभूषो गणिगच्छराजः ।। ३. धर्मपरीक्षारास—यह हिन्दी रचना है। इसका उल्लेख पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीने भी अपने प्रशस्ति संग्रहकी भूमिकामें किया है। इस रासका रचनाकाल वि० सं० १६२५ है । बताया है
संवत् सोल पंचवीसमे, मार्गसिर सुदि बीज वार ।
रास रुड़ो रलियामणो, पूर्ण किधो छ सार ।। इस धर्मपरीक्षारासमें प्रसिद्ध ग्रन्थ धर्मपरीक्षाका सारभाग निबद्ध किया गया है।
४. बसन्तविलास-तीर्थंकर नेमिनाथका विवाह-सन्दर्भ अत्यन्तमर्म स्पर्शी घटना है। इस घटनाको आधार मानकर अनेक जैनकवियोंने काव्योंको रचना की है। प्रस्तुत वसन्तविलासमें ३२ छन्द हैं और उक्त सन्दर्भको लेकर रासरूप में इसकी रचना की गयी है । भाषा मुजराती प्रभावित राजस्थानी है।
५. जिल्ह्यावन्तसंवाद-इस लघुकाय रचनामें ११ पद्य हैं। जिह्वा और दांतोंके बीच होनेवाले विवादका काव्यात्मक वर्णन किया है। भाषा सरल और गुजराती प्रभावित राजस्थानी है ।
६ जिनवरस्वामीविनती-इस स्तवनमें २३ पद्य हैं। और जिनेन्द्र भगवान्की स्तुति, वर्णित है । कविने बताया है कि इन्द्रियाएं उसीकी सफल हैं, ३८० : सीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
जो प्रभु स्तुति, पूजन, वन्दन और नामस्मरण आदि करता है । इन्द्रियों की सार्थकता प्रभुभक्ति में ही है । कविने लिखा है
धन्य हाथ ते नर तणा, जे जिन पूजन्त । नेत्र सफल स्वामी हवां, जे तुम निरखन्स ||
शीतलनाथ गोत्तमें शीतलनाथ तीर्थंकरकी स्तुतिको गयी है । फुटकर पदों में संसार, शरीर और भोगोंके चित्र अंकित किये गये हैं । इनकी एक अन्य गणित विषयक रचनाको सूचना पण्डित परमानन्दजीने दी है। यह रचना उसरछत्तीसी नामको है । डॉ० कस्तूरचन्द काशलीवाल की सूचना के आधार पर इस कविकी हिन्दी और संस्कृतको अन्य रचनाएँ भी होनी चाहिये। सुमतिकी तिने ग्राम और नगरों में बिहारकर धर्मविमुख जनताको धर्मको ओर अग्रसर किया है और मिथ्याडम्बर में फंसे हुए व्यक्तियों का उद्धार किया है | आत्मसाधना में संलग्न होने के हेतु इन्होंने जनजागरणका अद्भुत कार्य किया है । अतएव धर्मप्रचार और साहित्यसेवाको दृष्टिसं इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
कारक दिनचन्द्र
दिल्लोको भट्टारकगद्दी के आचार्यों में जिनचन्द्रका महत्त्वपूर्ण स्थान है । यों तो जिनचन्द्र नामके तीन आचार्य हुए हैं । प्रथम गुणचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र, द्वितीय मेरुचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र और तृतीय शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्रपट्टावली में बताया गया है“सं० १५०७ जेष्ठ वदि ५ भ० जिनचन्द्रजी गृहस्थवर्षं १२ दिक्षावर्ष १५ पट्टवर्ष ६४ मास ८ दिवस १७ अंतर दिवस १० सर्व वर्ष ९१ मास ८ दिवस २७ बघेरवाल जाति पट्ट दिल्ली ।
" इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि वि० संवत् १५०७ ज्येष्ठ कृष्णा पंचमीको इनका पट्टाभिषेक बड़ी धूम-धामके साथ हुआ था । १२ वर्षकी अवस्था में इन्होंने घर छोड़कर दीक्षा ग्रहण की और १५ वर्षो तक शास्त्रोंका अध्ययन किया । ६४ वर्ष तक ये भट्टारक पदपर आसीन रहे। इनकी आयु ९१ वर्ष आठ माह, सत्ताईस दिन थी । ये बघेरबाल जातिके थे। जिनचन्द्र ने राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब एवं दिल्लीके विभिन्न प्रदेशों में पर्याप्त विहार किया और जनताको धर्मोपदेश दिया । प्राचीन ग्रन्थोंकी नयी-नयी प्रतियां लिखवाकर मन्दिरोंमें विराजमान करायों तथा नये-नये ग्रन्थोंका स्वयं निर्माण भी किया। पुरातनमन्दिरोंका जीर्णोद्धार एवं नये मन्दिरोंकी प्रति१. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक २४८ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचा : ३८१
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
-----
ष्ठाएँ कराकर जैनसंस्कृति और धर्मका पर्याप्त प्रचार किया । वि० सं० १५४८ में जीवराज पापड़ीवालने जो प्रतिष्ठा करायी थी, उसका आचार्यत्व आपके तत्त्वाधान में ही सम्पन्न हुआ । 'पउमचरिय' को प्रशस्ति एवं दर्शन यन्त्र पर उत्कीर्णित अभिलेखसे यह प्रमाणित होता है कि जिनचन्द्रने १६वीं शताब्दी में जैनधर्म के जागरण के लिये अनेक कार्य किये हैं । ग्रन्थलेखन, प्रतिलिपि संपादन धर्मोपदेश, मूर्तिप्रतिष्ठापन आदि कार्यों द्वारा इन्होंने धर्म और संस्कृतिका उत्थान किया है । संवत् १५१२ की आषाढकृष्णा द्वादशीको नेमिनाथचरितकी एक प्रतिलिपि कराया गयी थी, जिसे इन्हें नयनन्दिमुनिने घोघा बन्दरगाहमें समर्पित की थी ।
वि० सं० १५१७की मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी में झूजणपुर में 'तिलोयपण्णत्ति' की एक प्रति लिखायी गयो । इसी प्रकार वि० सं० १५२१की ज्येष्ठशुक्ला एकादशीको ग्वालियर में 'पउमचरिय की एक प्रति लिखायी गयी, जो नेत्रिनन्दिमुनिको अर्पण को गयी थी । वि० सं० १५३६७ वैशाख शुक्ला दशमीको जिनचन्द्रको आम्नायमें विद्यानन्दने एक महावीर स्वामीको मूर्ति स्थापित की
थी । संवत् १५४३ को मार्गशार्ष कृष्णा त्रयोदशोको जिनचन्द्रने सम्यग्दर्शनयन्त्र स्थापित किया तथा वि० सं० १५४५ को वैशाख शुक्ला दशमोको ऋषभदेवकी एकमूर्ति स्थापित की। निश्चयतः जिनचन्द्र अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् भट्टारक थे 1
रचनाएँ - आचार्य जिनचन्द्रने मौलिक ग्रन्थलेखनके साथ प्राचीन ग्रन्थों की पाण्डुलिपियां तैयार करायीं । उन्होंने इन लिपियों का उपयोग स्वयं किया तथा अन्य मुनियों और त्यागियोंका पठनार्थं प्रतिलिपियाँ अर्पित की। इनके महत्वके सम्बन्ध में पण्डित मेघावीने वि० सं० १५४१ में लिखित धर्म संग्रहश्रावकाचार में इनकी पर्याप्त प्रशंसा की है। लिखा हैं— तस्मान्नीरनिधेरिवेन्दुरभवच्छ्रीमज्जिनेन्दुगंणी स्याद्वादाम्बरमण्डले कृतगतिदिग्वाससां मण्डनः । यो व्याख्यानमरीचिभिः कुवलये प्रल्हादनं चक्रवा न्सद्वृत्तः सकलः कलविकलः षट्कर्मनिष्णातधीः ॥
१. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक २५१ ।
२. वही, लेखांक २५४ ।
३. वही, लेखांक २५५ ।
४. धर्मसंग्रहश्रावकाचार प्रकाशक बाबू, सूरजभानु वकील, देवबंद (सहारनपुर) मन् १९१०, अन्तिम प्रशस्ति, पद्म १२ ।
३८२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आवय-परम्परा
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थात जिसप्रकार जलदसे चन्दमा समुद्भूत होता है उसी प्रकार शुभपन्द्रमुनिराजसे जिनचन्द्र उत्पन्न हुए। ये स्याद्वादरूपी गगनमंडल में विहार
करनेवाले मुनिराजोंके अलंकारस्वरूप, सदाचारयुक्त, भव्यजनोंके बांधव । रूप एवं समस्त कला और शास्त्रोंके विज्ञ हुए। इनकी निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध हैं
१. सिद्धान्तसार २. जिनचतुर्दिशतिस्तोत्र
१. सिद्धान्तसार-सिद्धान्तसारमें ७१ गाथाएं हैं । इस ग्रन्थ पर ज्ञानभूषणकी संस्कृत्तटीका भी है। श्री पण्डित नाथूराम प्रेमीने सिद्धान्तसारादिकी भूमिकामें शुभचन्द्राचार्यके शिष्य और पण्डित मेषावीके गुरु जिनचन्द्रको हो इस कृतिका लेखक माना है। यों तो उन्होंने भास्करनन्दिके गुरु जिनचन्द्रके भी लेखक होनेकी सम्भावना व्यक्त की है, पर उनका अभिमत मेधावीके गुरु जिनचन्द्रभट्टारकको ही इसका रचयिता माननेकी ओर अधिक है। सिद्धान्तशास्त्रके संस्कृतटीकाकार शानभूषणका समय वि० सं० १५३४-१५६१ है । इस प्रकार टीकाकार और मलग्रन्य रचयिता समसामयिक सिद्ध होते हैं।
सिद्धान्तसारमें वर्णित विषयोंका अंकन प्रथमगाथामें ही कर दिया गया है। बताया है
जीवगुणस्थानसंशापर्याप्तिप्राणमार्गणानयोनान् ।
सिद्धान्तसारमिदानों भणामि सिद्धान् नमस्कृत्य ।। अर्यात् जोवसमास, गुणस्थान, संज्ञा, पर्याप्ति, प्राण और मार्गणाओंका इसमें वर्णन किया गया है। १४ गुणस्थानोंमें चतुर्दश मार्गणाओंका सुन्दर विवेचन आया है। इस प्रकार मार्गणाओंमें जीक्समासोंकी संख्या भी दिखलायी गयी है । ७८वीं गाथामें लेखकका नाम अंकित है
पवयणपमाणलक्षणछंदालंकाररहियहियएण ।
जिणइंदेण पउत्तं इणमागमभत्तिजुत्तेण ॥ २. जिनचतुविशतिस्तोत्र--संस्कृत भाषामें २४ तीर्थंकरोंकी स्तुतियां निबद्ध की गयी हैं। यह स्तोत्र जयपुरके विजयराम पाण्ड्याके शास्त्रमण्डारके एक गुटकेमें संग्रहीत है।
जिनदेवके शिष्योंमें ररनकोति, सिंहकोति, प्रमाचन्द्र, जगतकोति, चारुकोति, जयकीर्ति, भीमसेन और पण्डित मेधावीके नाम उल्लेखनीय हैं । रस्तकोतिने वि० सं० १५७२में नागौरमें भट्टारक गद्दीकी स्थापना की । सिंहकीर्तिने
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३८३
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
C
बटेर में भट्टारक गद्दी स्थापित की। इस प्रकार भट्टारक जिनचन्द्रने अपने समय में साहित्य, पुरातत्त्व एवं धर्मकी सेवा की ।
भट्टारक प्रभाचन्द्र
प्रभाचन्द्र नामक चार भट्टारकों का उल्लेख मिलता है। प्रथम प्रभाचन्द्र बालक शिष्य थे, जो लगभट्टारक से तथा जिनका समय १२वीं शताब्दी है । द्वितीय प्रभाचन्द्र भट्टारक रत्नकीर्तिके शिष्य थे, जो गुजरातकी बलात्कारगण उत्तर शाखा के भट्टारक थे। चमत्कारी कार्य करनेके रूपमें इनका यश व्याप्त था । एक बार इन्होंने अमावस्याको पूर्णिमा बनाकर प्रदर्शित किया था 1 देहली में राघव चेतनमें जो विवाद हुआ था, उसमें इन्होंने विजय प्राप्त की थी। अपनी मन्त्रशक्ति के कारण ये पालकी सहित आकाश में उड़ गये थे । इनकी मंत्रशक्ति के प्रभाव से बादशाह फिरोजशाहकी साम्राज्ञी इतनी प्रभावित हुई कि उन्हें उसको राजमहल में दर्शन देनेके लिये आना पड़ा । तृतीय प्रभाचन्द्र भट्टारक जिनचन्द्रके शिष्य थे और चतुर्थ प्रभाचन्द्र भट्टारक ज्ञानभूषणके शिष्य थे । यहाँ जिनचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्रके व्यक्तित्वपर प्रकाश डाला जाता है । इनके सम्बन्ध में पट्टावलीम बतलाया है—
“संवत् १५७१ फाल्गुन वदी २ भ० प्रभाचंद्रजी गृहस्थवर्ष १५ दिक्षावर्ष ३५ पट्टवर्ष ९ मास ४ दिवस २५ अंतर दिवस ८ सर्ववर्ष ५९ मास ५ दिवस २ एक बार गछ दोय हुआ चीतोड अर नागोरका सं० १५७२ का अध्वाल' 1"
प्रभाचन्द्र खण्डेलवाल जातिके श्रावक थे । ये १५ वर्षों तक गृहस्य रहे । एक बार भट्टारक जिनचन्द्र विहार कर रहे थे कि उनकी दृष्टि प्रभाचन्द्र पर पड़ो । प्रभाचन्द्रको प्रतिभासे जिनचन्द्र प्रभावित हुए और उन्हें अपना शिष्य बना लिया । यह घटना वि० सं० १५५१ की होगी । २० वर्ष तक अपने पास रखकर विद्याध्ययन कराया और वाद-विवादमें पटु बना दिया । वि० सं० १५७१ की फाल्गुनकृष्णा द्वितीयाको दिल्लीमें धूम-धामसे इनका पट्टाभिषेक हुआ । पट्टावलौके अनुसार ये १५ वर्ष तक भट्टारकपदपर रहे। भट्टारक बननेके अनन्तर इन्होंने अपनी गद्दीको दिल्लीसे चित्तोड़में स्थानान्तरित कर लिया । स्थानान्तरणका समय वि० सं० १५७२ है । इन्होंने अपने समय में मण्डलाचायकी नियुक्ति की । धर्मचन्द्र पहले मण्डलाचार्य हैं। वि० सं० १५९३ में धर्मचन्द्र मण्डलाचार्य द्वारा कितनी ही मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हुई हैं । इन्होंने माँवा नगर में
१. भट्टारक सम्प्रदाय, सालापुर, लेखांक २६५ ।
३८४ : तीर्थंकर महावीर और उनको आघायं-परम्परा
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
F
अपने तीन गुरुओं को निषेधिकाएं स्थापित कीं, जिससे यह ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रका इनके पूर्व ही स्वर्गवास हो चुका था । एक लेखप्रशस्तिमें प्रभाचन्द्रके पूर्वांचल दिनमणि षट्तर्कतार्किकचूडामणि, वादिमदकुद्दल, अबुधप्रतिबोधक आदि विशेषण पाये जाते हैं, जिससे इनकी विद्वत्ता, तर्कशक्तिका परिचय मिलता है। प्रभाचन्द्रने अपने जीवनकाल में ग्रन्थसंरक्षगका सबसे बड़ा कार्य किया है । इन्होंने प्रमुख ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियां करायी और ग्रन्थभण्डार में विराजमान की । दि० सं० १५७५ मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्थीको पार्वतीबाईने पुष्पदन्तकृत 'जमहरचरिउ' की प्रतिलिपि करायों और भट्टारक प्रभाचन्द्रको भेंट दी । वि० सं० १५८९ में टोकनगर में विहार हुआ और वहाँ पण्डित नरसेन कृत 'सिद्धचक्रकथा' की प्रतिलिपि करायी और उसे बाई पद्मश्रीको स्वाध्यायके लिये भेंट किया 1 सं० १५८२ में घटबालीपुर में श्रीचन्द्रकृत रत्नकरण्डकी प्रतिलिपि करायी गयी और उसे ग्रन्थागार में विराजमान किया गया । संवत् १५८३ की आसाढ़ शुक्ला तृतीयाके दिन इनके प्रमुख शिष्य मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र के उपदेश यशःकीर्ति विरचित 'चन्दप्प चरिज' को प्रतिलिपि को गयी, जो जयपुरके आमेर-शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । वि० सं० १५८४ में महाकवि धनपालकृत 'बाहुबलि चरित' की बघेरवालजाति में उत्पन्न शाह माधो द्वारा प्रतिलिपि करावी भी वीशिचारी रत्नकीर्तिको स्वाध्यायके लिये भेंट में दो गयी । निस्संदेह आचार्य प्रभाचन्द्रने विभिन्न स्थानों में विहार कर अनेक जीर्णग्रन्थोंका उद्धार किया और उनकी प्रतियाँ विभिन्न शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत की गयीं ।
प्रभाचन्द्र ग्रन्थ- जीर्णोद्धार के साथ नवीन मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा कराने में भी भी अपूर्व सहयोग प्रदान किया। वि० सं० १५७१ की ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीयाको षोडशकारणयन्त्र एवं वि० सं० १५७३ की फाल्गुन कृष्णा तृतीयाको दशलक्षणयन्त्र प्रतिष्ठित किया। सं० १५७८ की फाल्गुन शुक्ला नवमीके दिन तीन चौबीसी की मूर्ति प्रतिष्ठित करायी और इस तरह संवत् १५८३ में भी चौबीसी की प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी ।
वि० सं० १५२३ में मण्डलाचार्य धर्मचन्द्रने आंचा नगर में होनेवाले बड़े प्रतिष्ठामहोत्सवका नेतृत्व किया और उसमें शान्तिनाथस्वामीकी एक विशाल एवं मनोश मूर्ति प्रतिष्ठित की। इस प्रकार प्रभाचन्द्रने साहित्य, पुरातत्त्व अन्योद्धार एवं जनसाधारणमें धर्मके प्रति अभिरुचि उत्पन्न करनेके कार्य सम्पन्न किये।
प्रभुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ३८५
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
भट्टारक जिनसेन द्वितीय जिनसेननामके दो भट्टारकोंका निर्देश मिलता है। एक सोमसेनके पट्ट पर आसीन होनेवाले जिनसेन हैं। इन्होंने शक संवत् १५७९५ को मार्गशीर्ष शुक्ला दशमीको पाश्र्वनाथको मूर्ति प्रतिष्ठित की थी और शकसंवत् १५८० में पद्मावतोको मूर्ति । यह प्रतिष्ठा कारजामें सम्पन्न हुई थी। शक संवत् १५८१ की फाल्गुन शुक्ला त्रयोदशोको चरिया माणिकने रत्नाकर विरचित समवशरणपाठको एक प्रति आपको समर्पित की थी। कहा जाता है कि अचलपुरमें आपको एकवरर सर्पदंश हआ और दूसरी बार धोखेसे भोजनमें बचनाग खिला दिया गया, पर दोनों ही बार विषापहार स्तोत्रके पाठसे आप नारोश हो गये : समा जागिर रायमलशाहके पुत्र थे। इनकी जन्मभूमि खम्भात थी। इन्होंने विद्याभ्यास पद्मनंदिके पास किया था । और कारजा में पाभिषेक हुआ था । गिरनार, सम्मेदशिखर, माणिक्यस्वामी आदिकी यात्राएँ इन्हाने की थीं। इनके द्वारा सोयराशाह, निम्बाशाह, माधवशाह, गनवाशाह ओर कान्हाशाह इन पांच व्यक्तियों को संधपतिको उपाधि प्राप्त हुई थी। ये म्यूपिच्छ धारण करते थे। पूरनमलने इनकी स्तुति की है--
मलसंघ कुलतिलक, गछ पुष्कर मे सोहे। चारित्र गणमे मुख्य सेनगण महिमा मोहे ।। भट्टारक जिनसेन गुरु मारपीछ हस्ते धरे ।
पूरनमल यों कहे भव्यलोक तारण तरण || द्वितीय जिनसेन भट्रारक यशःकोतिके शिष्य हैं। इनकी एक कृति नेमिनाथरास उपलब्ध हई है, जिसकी रचना वि० सं० १५५८ माध शबला पंचमी गुरुवार सिद्धयोगमें जवाच्छ नगरमें सम्पन्न हई है। ग्रन्थके अन्त में अपने गुरु एवं रचनाकालका निर्देश किया है
श्री याकरति सूरीनि सूरीश्वर कहीइ, महीपलि महिमा पार न लही रे । तात रूपवर वरसि नित वाणी, सरस सकोमल अमीय सयाणी रे ।। तास चलणे चित लाइउ रे, गाइड राइ अपरख रास रे। जिनसेन युगति करी दे, तेह ना वयण तणाउ वली वास रे ॥११॥
चंद्र वाण संवच्छर कीजि, पंचाणु पुण्य पासि दीजि । माघ सुदि पंचमी भणीजि, गुरुवारि सिद्धयोग ठवीजिरे ॥ जाक्छ नयर जगि जाणोइ रे, तीर्थंकर बली कहींइ सार रे ।
शांतिनाथ तिन्हां सोलमु रे। कस्यु राम तेह मवण मझार रे ।।९३॥ ३८६ : तीर्थकर महावीर और उनको नाचार्य-परम्भग
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्पष्ट है कि इन जिनसेनका समय वि० स० की १६वीं शताब्दी है 1 इनका एक मात्र कृति नमिनाथरास उपलब्ध है। इसमें तीर्थकरनेमिनाथके जीवनका चित्रण किया गया है। जन्म, वरात, विवाहकंकणको तोड़कर वैराग्य ग्रहण करना, तपश्चरण, कैवल्यप्राप्ति एवं गिर्वाणलाभ इन सभी घटनाओंका संक्षेपमें वर्णन है। यह रास प्रबन्धकाव्य है और जीवनको समस्त प्रमुख घटनाएं इसमें चित्रित हैं। समस्त रचनामे ९३ पद्य हैं। इसकी प्रति जयपुरके दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर तेरह पंथी शास्त्रमण्डार में संग्रहीत है। प्रतिका लेखनकाल वि० सं० १५१६ पौवा क्ला पूर्णिमा है। रामको भाषा दरजस्थानी है जिसपर गुजरातीका प्रभाव है।
ब्रह्म जीवन्धर भट्टारक ब्रह्म जीवन्धर भट्टारक सोमकोसिके प्रशिष्य एवं यशःकोतिके शिष्य थे। भट्टारक सोमकीति काष्ठासंघको नन्दितट-शाखाके गुरु थे तथा ये १०वीं शताब्दीके भट्टारक रामसेनकी परम्परामें हुए हैं। सोमकीत्तिके अनेक शिष्योंमें यशःकीति, वीरसेन और यशोधर प्रसिद्ध हए हैं। इन्हीं यशःकोतिके शिष्य ब्रह्म जीवन्धर हैं। इन्होंने वि० सं० १५९० वैशाख शक्ला त्रयोदशी सोमवारके दिन भट्रारक विनयचन्द्र 'स्वोपज्ञचनडीटीका' की प्रतिलिपि अपने ज्ञानावरणीयकर्मके क्षयार्थ की थी। अत: इनका समय वि० सं० की : ६वीं शताब्दी है। इनकी निम्नलिखित रचनाएँ प्राप्त हैंरचनाएँ
१. गुणस्थानवेलि २. खटोलारास ३. झुबुकगीत ४. श्रुतजयमाला ५. नेमिरित ६. सतीगीत ७. तीनचौबीसोस्तुति ८. दर्शनस्तोत्र ९. ज्ञानविरागविनती १०. आलोचना ११. बीससीर्थंकरजयमाला १२. चौबीसतीर्थकरजयमाला
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य : ३८५
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणस्थानवेलि-आत्मविकासके १४ सोपान बतलाये गये हैं। ये गुणस्थान मोह और योगके निमित्तसे उत्पन्न होते हैं। मिथ्यात्वगुणस्थानमें दर्शनमोहके उदयसे जीवकी दृष्टि विपरीत होती है। और स्वाद कटुक होता है । वस्तुतत्त्व उसे रुचिकर प्रतीत नहीं होता है। जीव मिथ्यात्वगुणस्थानमें अनन्त कालतक निवास करता है । मिथ्यात्वके पाँच भेद है--१. विपरीत, २. एकान्त, ३. विनय, ४. संशय और ५. अज्ञान । मिथ्यात्वके इन भेदोंके कारण जीवके परिणामोंमें अस्थिरता बनी रहती है । उसे हितकर मार्ग नहीं सूझता है। इसी कारण वह संसारमें अनेक पर्यायों में परिभ्रमण करता रहता है। कविने आदितीर्थकरके समवशरण में भरतचक्रवर्ती द्वारा गुणस्थानोंके सम्बन्ध में किये गये प्रश्नके उत्तरस्वरूप, गुणस्थानोंका स्वरूप प्रतिपादित किया है । उत्थानिकामें बताया है
सात नगर अाणिया माविया सब परिवारे जी रिसहेयर पाय वंदीए, पूजीए अट्ठपयारे जो अदृपयारीय रचीय पजा भरत राजा पछए। गुणठाण चौद विचार सारा भणहि जिण सुणि बच्छए । मिथ्यात नामै गुणहठाणे वसहिं कालु अनंतए ।
मिथ्यात पंचहु नित्य पूरे भहि चिंहुगति जंतुए।। दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे जो तत्वरुचि उत्पन्न होती है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होते ही आत्मामें निर्मलता उत्पन्न होती है और कषायोंका कालुष्य उत्तरोतर क्षीण होने लगता है। आत्मनिरीक्षण करनेसे चारित्र और ज्ञानकी भी वृद्धि होती है। इस प्रकार चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ, सप्तम आदि गुणस्थानोंका क्रमशः आरोहण करता हा जीव अपने का निर्मल बनाता है। इस प्रकार इस कृतिमें स्वात्मापलब्धि. का चित्रण किया गया है।
२. खटोला रास—इस रासमें १२ पद्य हे और खटोलेका रूपक देकर आत्मतत्त्वका विश्लेषण किया है। यह आत्मसम्बोधक रूपककाव्य है । खटोलेमें चार पाये होते हैं, दो पाटी और दो सेरुवे । आत्मतत्त्वरूपी खटोला रत्नत्रयरूपी बानसे बुना हुआ है। उसपर शुद्धभावरूपी सेजको संयमश्रीने बिछाया है। उसपर बैठा हुआ आत्माराम परमानन्दकी नींद लेता है। मुक्ति-कान्ता पंखा झलती है और सुर-नरका समूह सेवा करता है। वहां आत्मप्रभुको अनन्तचतुष्टयरूप स्वात्मसम्पत्ति या सम्पदाका उपभोग करता है।
नेमिचरितरास—इस रासकाध्यमें ११५ पद्य हैं। वसन्तऋतुके वर्णनके ३८८ : मीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याजसे कविने २२ वें तीर्थंकर नेमिजिनका चरित अंकित किया है । वसन्तaj में कविने पुरानी रूढ़िके अनुसार अनेक वृक्षों, फलों, पुष्पोंके नामोंकी गणना की है। लिखा है
-
वसंत ऋतु प्रभु आइयउ फूली फलो बनराइ । फुली करणी केतकी फूली, मउल सिरि जाइ ॥ १६॥ फूली पाडलिने वाली फूली लाल राय वेलि फूली भली, जाकी वासु फूलिउ मरुत्रो मोगरो, अरु फूले फूली कणियर सेवती, फूले सरि फुले कदंबक चंपकी अरु फूली जुही चमेली फूलसी, फूली वन वसन्तोत्सव मनानेके लिये द्वारावती के सभी नर-नारी जन उल्लाससे भर रहे हैं और वे टोलियोंके रूपमें बनकी ओर जा रहे हैं। सुन्दर गीतों की ध्वनिसे मार्ग वाचाल बना हुआ है। उनके पशु-पक्षी भी कलरव कर रहे हैं । राजकुलमें बड़ी चहल-पहल है। श्रीकृष्ण की रुक्मिणी, सत्यभामा आदि पट्टमहिषियाँ सज-धजकर केशर, कर्पूर, मिश्रित बावनचन्दनके घोलको तैयारकर साथमें ले जा रही है। जिन की भाभियोंकोरणा वसन्तो लिये तैयार हो रहे हैं । वनमें पहुँचकर सभीने वसन्तोत्सव सम्पन्न किया । वसन्तोत्सवसे वापस लोटनेपर कविने प्रसिद्ध घटनाकी ओर ध्यान आकृष्ट किया है। एक दिन राजसभामें नेमिजिनके बलका कथन हो रहा था । बलदेवने कहा कि नेमिजिनसे बढ़कर कोई शक्तिशाली नहीं है। इस कथनको सुनकर श्रीकृष्णको अभिमान उत्पन्न हो गया और उन्होंने नेमिजिनसे कहा कि यदि आप अधिक बलशाली हैं, तो मल्लयुद्ध कर देख लिजिये। तब नेमिजिनने उत्तर दिया- " योद्धा मल्लयुद्ध करते हैं, सत्य है, पर राजकुमारोंके बीच शक्तिपरीक्षा के लिये मल्लयुद्धका होना उचित नहीं है। यदि तुम्हें मेरे बलकी परीक्षा करनी है, तो मेरे हाथ या पैरकी उंगलीको झुकाओ । किन्तु श्रीकृष्ण हाथ या पैरको जंगलीको झुका नहीं सके । मिजिनने अपनी उंगलीसे ही श्रीकृष्णको झुला दिया, जिससे उन्हें उनकी शक्तिका परिज्ञान हुआ । जब नेमिजिनके विवाहका उपक्रम किया गया, तो श्रीकृष्णने षड्यन्त्रकर पशुओंको एक बाड़ेमें एकत्र कर दिया। जब बारात जूनागढ़ पहुँची, तो नेमिजिन पशुओं का करुण क्रन्दन सुन विरक्त हो गये । उन्होंने दिगम्बरी दीक्षा धारण की और उज्जयन्तगिरिपर तपस्या करने चले गये ।
जब राजुलको नेमिजिनको विरक्तका समाचार मिला, तो वह मूच्छित प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ३८९
गुलाल | रसाल ॥ २७॥ मचकुंद
अरविंद ||२८||
कचनार । कल्हार ||२९||
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
होकर गिर पड़ी। वह सखियों के साथ गिरनारपर जाने के लिये तैयार हो गयी । माता-पिता और परिजनोंने बहुत समझाया, पर वह न मानी और दीक्षा लेकर तपश्चरण करनेमें संलग्न हो गयो । कविने लिखा है
परम महोच्छकि आइए, नेमिजिन तोरण द्वार | शिव संबुदेहि दयाज, पशुवह किउ पुकार ||१०|| दोन वयणु सुर्णेवि करि, सारथि पुंछित ताम | तिसु कहणी मेठ जाणियों, अवधि नेमि जिनु ताम ॥ १०५ ॥ नेमीसम इम बोलए विंग् धिग् यह संसार । राज्य विवाहे कारणको करइ जीउ संसार ॥ १०६ ॥ घरि विरागु र फेरियउ, तिहा तैं करुणाधार |
पश बंधन छोड़ाविकरि नेमि चढ़े गिरनार ॥ १०७ ॥
X
X
X
X
राजमती संयमधरी समकित रयण अच्युत स्वर्ग सुर भयो नारी लिंगु
सहाय । विहाय ॥
इसप्रकार नेमिचरित उच्चकोटिका काव्य है । इसमें खण्डकाव्यके सभी गुण पाये जाते हैं ।
४. झुंबिकगीत---इस कृति में नवदेवोंका कथन किया है । बताया है कि जो व्यक्ति भक्ति भाव से नवदेवोंकी आराधना करता है, वह इस कलिकालमें सभी प्रकार की सुख-समृद्धियोंको प्राप्त करता है। इस रचनाके उदाहरणरूप दो पद्य प्रस्तुत हैं
नवमउ झुंबुक शासनहि, पूजह सुरनर भव्य । अक्किट्टिम कट्टिम पडिमा तेहंड बंदउ सब्ब 11 जिन मारम नवदेवता माने नहि जो लोइ । काल अनंत परिभमइ, सुक्खु न पावइ सोइ ।।
५. श्रुतजयमाला - यह रचना संस्कृत-पद्यबद्ध है। इसमें आचारांगादि द्वादश अगोंका परिचय दिया गया है। आगमके विषय परिचयके साथ कवितामें अलंकारिकता भी पायी जाती है ।
६. चतुविशतिजिनस्तवन - यह संस्कृत में रचित स्तुतिकाव्य है । २४ तीर्थंकरोंकी संस्कृत भाषा में स्तुति लिखी गयी है । कविता रसात्मक और सरल है । कविने उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक जैसे अलंकारोंका भी प्रयोग किया है।
३९० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
७. सतीगीत - इसमें २७ पद्य है । शीलकी महत्ता अंकित की गयी है । प्रत्येक गीत में सतोमाहात्म्य वर्णित है ।
८. बोसतीर्थंकरजयमाला - बीस तीर्थंकरोंकी महत्त्वसूचक स्तुतियाँ अंकित
और त्रिकालवर्ती
९. सोमोसीस्तुति इस रचना चौबीस तीर्थंकरों की स्तुतियाँ गुम्फित हैं ।
१९
श्रुतसागरसूरि
श्रुतसागरसूरि केवल परम्परा परिपोषक ही नहीं हैं, अपितु मोलिक संस्थापक भी हैं । इनकी तत्त्वार्थसूत्र पर एक श्रुतसागरी नामकी वृत्ति उपलब्ध है, जिससे इनका मौलिकताच परिचय प्राप्त होता है। श्रुतसागरने अपनी रचनाओं के अन्त में अपने गुरु आदिका नाम अंकित किया है। ये मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके आनायं हैं । इनके गुरुका नाम विद्यानन्द था । विद्यानन्दिके गुरुका नाम देवेन्द्रकीति और देवेन्द्रको तिक गुरुका नाम पद्मनन्दि था | ये पद्मनन्द सम्भवतः वहा हैं, जिनकी गिरनार पर्वतपर सर स्वतोदेवीने दिगम्बर पंथ के सच्चे होनेकी सूचना दी थी। इन्हींकी एक शिष्यशाखा में सकलकोति, विजयकीति और शुभचन्द्र भट्टारक हुए हैं। ये बलात्कारगणको सूरत- शाखा के भट्टारक हैं। विद्यानन्दिके पश्चात् मल्लिभूषणभट्टारक हुए, जो श्रुतसागर के गुरुभाई थे । मल्लिषेणके अनुरोध से श्रुतसागरने यशोधरचरित, मुकुटसप्तमीकथा और पल्लविधानकथा आदिको रचना की है ।
I
श्रुतसागरके अनेक शिष्य हुए हैं, जिनमें एक शिष्य श्रीचन्द्र थे, जिनके द्वारा रचित वैराग्यमणिमाला उपलब्ध है । आराधना कथाकोश, नेमिपुराण आदिग्रन्थोंक रचयिता ब्रह्मनेमिदत्तने भी श्रुतसारको गुरुभावसे स्मरण किया है । ये ब्रह्मनेमिदत्त मल्लिभूषण के शिष्य थे ।
१
श्रुतसागरने अपनेको देशव्रती, ब्रह्मचारी या वर्णों लिखा है तथा 'नक्मवतिमहावादिविजेता, तर्क-व्याकरण- छंद - अलंकार - सिद्धान्त-साहित्यादि-शास्त्रनिपुण, प्राकृतव्याकरणादि अनेकशास्त्रचञ्चु उभयभाषा कविचक्रवर्ती, तार्किक शिरोमणि, परमागमप्रवीण आदि विशेषणोंसे अलंकृत किया है । तत्त्वार्थवृत्तिके १. " इत्यनवद्यगद्यपद्यविद्या विनोदितप्रमोदपीयूष रसपानप विनमतिस भाज रत्नराजमतिमा - गरयति राजराजितार्थं न समर्थेन तर्कव्याकरण छन्दोऽलङ्कार साहित्या दिशास्त्र निशितमविना श्रीमद्देवेन्द्र कांतिभट्ट । रकप्रशिष्येण शिष्येण सकलविद्वज्जनविहित चरणसेवस्य श्री
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३९१
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तिम सन्धिवाक्यसे ज्ञात होता है कि इन्होंने तत्त्वार्थं श्लोकवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, तत्त्वार्थं वार्तिक और अष्टसहस्त्री आदि ग्रंथोंका गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया है। इससे स्पष्ट है कि श्रुतसागर अपने समयके अच्छे विद्वान् और ग्रन्थकार थे ।
,
श्रुतसागरसूरि द्वारा रचित पल्लिविमानकथामें ईडरके राजा भानु अथवा रावभाणजीके राज्यकालका निर्देश है। इस ग्रन्थको प्रशस्ति में बताया है कि भानुभूपतिकी भुजारूपो तलदारके जलप्रवाह में शत्रु कुलका विस्तृत प्रभाव निमग्न हो गया था और उनका मंत्री हुम्मड कुलभूषण भोजराज था । उसकी परमीका नाम दिनदेवी था जी की परिद्रता साध्वी और जिनचरणकमलोंकी उपासिका थो । उसके चार पुत्र उत्पन्न हुए थे, जिनमें प्रथम पुत्र कर्मसिंह, जिसका शरीर भरि रहनगुणोंसे विभूषित था और दूसरा पुत्र कुलभूषण था, जो शत्रुकुलके लिये कालस्वरूप था। तीसरा पुत्र पुण्यशाली श्री घोष था, जो सघनपापा गरीन्द्रके लिये वञ्चके समान था और चौथा गंगाजलके समान निर्मल मन वाला गंगा था। इन चार पुत्रोंके पश्चात् इनकी एक बहन भी थीं, जो जिनवर के मुख़से निकली हुई सरस्वती के समान थी । श्रुतसागरने स्वयं उसके साथ संघ सहित गजपन्थ और तुंगोगिरि आदिको यात्रा' की थी ।
श्रुतसागरका व्यक्तित्व एक ज्ञानाराधक तपस्वीका व्यक्तित्व है, जिनका एक-एक क्षण श्रुतदेवताको उपासना में व्यतीत हुआ है | श्रुतसागर निस्सन्देह अत्यन्त प्रतिभाशाली विद्वान है । ये कलिकालसर्वज्ञ कहे जाते थे । तार्किक होनेके कारण असहिष्णु भी प्रतीत होते हैं । अन्य मतका खण्डन और विरोध करनेमें अत्यन्त सतर्क रहे हैं ।
विद्यानन्ददेवस्य संदितमिथ्यामतदुर्गारेण श्रुतसागरंग सूरिया विरंचितायां श्लोकवातिक-राजवार्तिक-सर्वार्थसिद्धि-न्यायकुमुदचन्दोदय- प्रमेय कमल मार्तण्ड-प्रचण्डाष्ट सहश्रीप्रमुख ग्रन्थ सन्दर्भावलोकनबुद्धि विराजिताया" - श्रुतसागरीतस्वार्थवृत्ति भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृ० ३२६ पर उद्धृत । तथा---' -" तर्क- व्याकरणात प्रविल सत्सिद्धांतसारामलदो तिपूर्व नव्यकृ तषीसं श्रव्यकाव्योच्च ये ” – जैनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, यशोधर चरितप्रशस्ति पृ० ३१ ।
१. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, बोरसेवामन्दिर, दिल्ली, सन् १९५४, प्रस्तावना, पृ० १६ ।
३९२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थितिकाल
ध्रुतसागरने अपने किसी भी ग्रन्थमें रचनाकाल अंकित नहीं किया है, किन्तु अन्य आधारोंसे उनके समयका निर्णय किया जा सकता है ।
१. पद्मनन्दिके शिष्य देवेन्द्रकीतिका एक अभिलेख देवगढ़म है, जिसपर सं० १४९,३ अंकित है। ये देवेन्द्र कीर्ति श्रुतसागरके दादागुरु' थे।
२. सुरतके एक मूर्ति-अभिलेखमें संवत् १४९९ और एकमें संवत् १५१३ अंकित है । ये दोनों मतियाँ देवेन्द्रकोतिके शिष्य विद्यानन्दिके उपदेशसे प्रतिष्ठित हुई थीं। विद्यानन्दिके उपदेशसे प्रतिष्ठित अन्य मूर्तियोंपर वि० सं० १५१८, १५२१ और १५३७ अंकित है।
३. सूरतमें पद्यावतीको एक मूर्तिपर वि० सं० १५४४ अंकित है। उस समय विद्यानन्दिके पट्ट पर मल्लिभषण विराजमान थे। इन्हीं मल्लिभूषणके उपदेशसे श्रुतसागरने कुछ कथाएँ लिखी हैं और ये श्रुतसागरके गुरुभाई थे । ___ ४. ब्रह्मनेमिदत्तने अपने आराधनाकथाकोशको प्रशस्तिमें विद्यानन्दिके पट्टयर मस्लिभूषण और उनके शिष्य सिंहह्नन्दिका गुरुरूपमें स्मरण करके श्रुतसागरका जयघोष किया है । इससे ध्वनित होता है कि वे उस समय जीवित थे। इन्हीं ब्रह्मनेमिदत्तने वि० सं० १५८५में श्रीपालचरितकी रचना की है और उसमें श्रुतसागरसूरि द्वारा रचित 'श्रीपालचरित'का निर्देश करते हुए इनको पूर्वसूरि तथा उनके द्वारा 'श्रीपालचरित'को पुरारचित कहा है। इससे ज्ञात होता है कि उस समय श्रुतसागरका देहावसान हो चुका था।
५. पल्लिविधानकथाको प्रशस्तिसे भी श्रुतसागरका समय वि० सं० १५०२१५२२ तक आता है। विद्यानन्दि और मल्लिभूषणके पट्टकालों पर विचार करनेसे भी श्रुतसागरका समय वि० सं० १५४४-१५५६ आता है। इस प्रकार भट्टारक श्रुतसागरसूरिका समय वि० को १६वीं शताब्दी है।
१. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलपुर, लेखांक ४२५ । २. वही, लेखांक ४२५ । ३. वही, लेखांक ४५८ । ४. वही, लेखांक ४६६ । ५, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, विल्ली, प्रथम भाग, पु० १७ । ६. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ४६३ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३१३
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
रचनाएं
प्रससागरसूरिकी अबतक ३८ रचनाएं प्राप्त हैं। इनमें आठ टोकाग्रन्थ है, और चौबीस कथाग्रन्य हैं, शेष छह व्याकरण और काव्य ग्रन्य हैं। १. यशस्तिलकचन्द्रिका
२०. पुष्पाञलिव्रतकथा २. तत्त्वार्थवृत्ति
२१. आकाशपंचमीव्रतकथा ३. तत्त्वत्रयप्रकाशिका
२२. मुक्तावलीवतकथा ४. जिनसहरूलनामटीका
२३. निदुःखसप्तमीकथा ५. महाभिषेकटीका
२४. मुगवटसमीकशा ६. षट्पाहुडटीका
२५. श्रावणद्वादशीकथा ७. सिद्धभक्तिटीका
२६. रत्नत्रयव्रतकथा ८. सिद्धचक्राष्टकटीका
२७. अनन्तव्रतकथा ९. ज्येष्ठजिनवरकथा
२८. अशोकरोहिणीकथा १०. रविव्रतकथा
२९. तपोलक्षणपंक्तिकथा ११. सप्तपरमस्थानकथा
३०. मेरुपंक्तिकथा १२. मुकुटसप्तमीकथा
३१. विभानपंक्तिकथा १३. अक्षयनिधिकथा
३२ पल्लिविधानकथा १४. षोड़सकारणकथा
३३. श्रीपालचरित् १५. मेधमालाव्रतकथा
३४. यशोधरचरित् १६. चन्दनषष्ठीकथा
३५. औदार्यचिन्तामणि १७. लब्धिविधानकथा
(प्राकृत व्याकरण) १८. पुरन्दरविधानकथा
३६, श्रुतस्कन्धपूजा १९. दशलाक्षणीव्रतकथा
३७. पार्श्वनाथस्तवन
३८. शान्तिनाथस्तवन यशस्तिलकचन्द्रिका--श्रुतसागरने यशस्तिलकग्रंथपर चन्द्रिका नामकटीका लिखी है | टीकामें बताया है
"इति श्रीपमनन्दि-देवेन्द्रकीति-विद्यानन्दि -मल्लिभूषणाम्नायेन भट्टारकश्रीमल्लिभूषणगापरमाभीष्टगरुभ्रात्रा गुर्जररदेशसिंहासनस्थभट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्द्रकाभिमतेन मालबदेशभट्टारकश्रीसिंहन्दिप्रार्थनया यतिथीसिद्धान्तसागर व्याख्याकृतिनिमित्तं नवनवतिमहावादिस्याद्वादलब्धविजयेन तर्क-व्याकरणछन्दोलंकारसिद्धान्तसाहित्यादिशास्त्रनिपुणमतिना व्याकरणानेकशास्त्रचञ्चुना सूरिश्रीश्रुतसागरेण विरचितायां यशस्तिलकन्द्रिकाभिधानायां यशोधरमहा३९४ : तीर्थकर महावीर और उनको बाचार्य-परम्परा
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजचरितचम्पूमहाकाव्यटीकायां यशोधरमहाराजराजलक्ष्मी विनोदवर्णनं नाम तृतीया श्वासचन्द्रिका परिसमाप्ता"" ।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि श्रुतसागरने अपने परिचय के साथ यशस्तिलक की टीका लिखनेका निर्देश किया है। श्रुतसागरने इस टीकामें विषयोंके स्पष्टीकरण के साथ कठिन शब्दोंकी व्याख्या भी प्रस्तुत की है । यशस्तिलक में जितने नये शब्दों का प्रयोग सोमदेवने किया है, उन सभीका व्याख्यान इस टीका में किया गया है । यशस्तिलकको स्पष्ट करनेके लिये यह टीका बहुत उपादेय है ।
श्रुतिसागरी टीका - इस वृत्तिमें तत्त्वार्थमूत्रपर रचित समस्त वृत्तियों का निचोड़ अंकित है। श्रुतसागरने तत्त्वार्थ सूत्रकार उमास्वामी के साथ पूज्यपाद, प्रभाचन्द्र, विद्यानन्द और अकलंकका भी स्मरण किया है। ये चारों ही आचार्य तत्वार्थ के टीकाकार हैं । वृत्तिका प्रारम्भ सर्वार्थसिद्धिकी आरम्भिक शब्दों की शैलीको अपनाकर किया है। सर्वार्थसिद्धि में प्रश्नकर्त्ता भव्यका नाम नहीं लिखा है, पर श्रुतसागरने 'द्वैयाकनामा' लिखा है । १३वीं शताब्दी के बालचन्द्र मुनि द्वारा तत्त्वार्थसूत्रकी जो कन्नड़टीका लिखी गयी है, उसमें उस प्रश्नकर्ताका नाम सिद्धय्य पाया जाता है। सर्वार्थसिद्धिके प्रारम्भ में निबद्ध मंगलश्लोक - 'मोक्षमार्गस्य नेत्तारं' आदिका व्याख्यान आकि
श्रुतसागरने भी किया है। श्रुतसागरसूरिका पूरा व्याख्यान एक तरह से सर्वार्थसिद्धि नामक वृत्तिका ही व्याख्यान है, जो बातें सर्वार्थसिद्धि में संक्षेपरूप में कही गयी हैं, उन्हीं बातोंको विस्तार और स्पष्टता के साथ इस वृत्तिमें अंकित किया गया है । यथास्थान ग्रन्थात रोंके प्रमाण देकर विशेष कथन भी किया गया है । ग्रन्थातरोंके उद्धरण प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं। पाणिनि और कातन्त्र व्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण भी प्राप्त हैं ।
श्रुतसागर के व्याख्यानमें कतिपय विरोध भी प्राप्त होते है । न्यायाचार्य पण्डित महेन्द्रकुमारजीने श्रुतसागर के स्खलनका निर्देश किया है । सर्वार्थसिद्धिमें 'द्रव्याश्रया निर्गुणा: गुणा:' ( ५/४१ ) सूत्रकी व्याख्या में 'निर्गुण' इस विशेषणको सार्थकता बतलाते हुए लिखा है -- "निगुण इति विशेषणं द्वयणुकादिनिवृत्त्यर्थम्, तान्यपि हि कारणभूतपरमारद्रव्याश्रयाणि गुणवन्ति तु तस्मात् 'निर्गुणाः ' इति विशेषणात्तानि निवर्तितानि भवन्ति ।"
अर्थात् द्व्यणुकादि स्कन्ध नैयायिकों को दृष्टिसे परमाणुरूप कारणद्रव्यों में श्रित होने से द्रव्याश्रित हैं और रूपादि गुणवाले होने से गुणवाले भी हैं। अतः
१. तत्त्वार्थवृत्ति, भारतीयज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावना, पृ० १०० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३९५
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
יד
इनमें भी उक्त गुणका लक्ष्ण अतिव्यास हो जायेगा । इस कारण इनकी निवृत्तिके हेतु 'निर्गुणाः' यह विशेषण दिया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरिने लिखा है
" निर्गुणः इति विशेषणं द्वणूक त्र्यणुकादिस्कन्वनिषेधार्थम्, तेन स्कन्धाश्रया गुणा गुणा नोच्यन्ते । कस्मात् ? कारणभूतपरमाणुद्रव्याश्रयत्वात् तस्मात् कारणात् निर्गुणा इति विशेषणात्स्कन्ध गुणा गुणा न भवन्ति पर्यायाश्रयत्वात्। " अर्थात् 'निर्गुण' यह विशेषण ह्यणुक, व्यणुक आदि स्कम्बके निषेधके लिए है । इससे स्कन्धमें रहनेवाले गुण गुण नहीं कहे जा सकते, क्योंकि वे कारणभूत परमाणुद्रश्यमें रहते हैं । अतएव स्कन्धके गुण गुण नहीं हो सकते, क्यांकि वे पर्याय में रहते हैं । यह हेतुवाद बड़ा विचित्र है और है सिद्धान्तके प्रतिकूल | सिद्धान्त में रूपादि चाहे घटादि स्कन्धों में रहनेवाले हों, या परमाणुमें सभी गुण कहे जाते है । ये स्कन्धके गुणोंको गुण ही नहीं कहना चाहते, क्योंकि पाश्रित हैं। अलए 'निर्माण' पदकी सार्थकताका मेल नहीं बैठता है । इस असंगति के कारण आगे शंका-समाधानमें भी असंगति प्रतीत होती है ।
श्रुतसागरी वृत्तिके २८१ वें पृष्ठपर गुणस्थानोंका वर्णन करते समय लिखा है कि मिध्यादृष्टिगुणस्थान से सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में पहुँचनेवाला जीव प्रथमो - पशमसम्यक्त्वमें ही दर्शनमोहन की तीन और अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम करता है। यह सिद्धान्तविरुद्ध है, क्योंकि प्रथमोपशमसम्यक्त्वमें दर्शन मोहनीयकी केवल एक प्रकृति मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार इस तरह ५ प्रकृतियोंके उपशमसे ही प्रथमोपशमसम्यक्त्व बताया गया है । सातका उपशम तो, जिनके एकबार सम्यक्त्व हो चुकता है, उन जीवोंके द्वारा प्रथमोपशम के समय होता है । ९२/४७ सूत्रकी वृत्ति में श्रुतसागरने द्रव्यलिंगकी व्याख्या करते हुए असमर्थ मुनियोंको अपवाद रूपसे वस्त्रादि ग्रहण करने पर सहमति प्रकट की है
,
"केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृह्णन्ति न तत् प्रक्षालयन्ति न तत् सोव्यन्ति न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति । केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लज्जितत्वात् तथा कुर्वन्तीति व्याख्यानमाराधनाभगवतोप्रोक्ताभिप्रायेण अपवादरूपं ज्ञातव्यम् । उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिबलवान् इत्युत्सर्गेण तावद् यथोक्तमाचेलक्यं प्रोक्तमस्ति, आर्यासमर्थदोषवच्छरीराद्यपेक्षया अपवादव्यास्थाने न दोषः ।' अर्थात् असमर्थ - मुनि शीतकाल आदिमें कम्बल वगेरह ग्रहण कर लेते हैं, किन्तु न तो वे उसे धोते हैं, न सीते हैं और न कोई उसके लिये प्रयत्नादि ही करते हैं । शीतकाल
३९६ : तीर्थंकर माहवीर और उनकी माचार्य-परम्परा
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीतने पर उसे त्याग देते हैं। कुछ मुनिशरीर में दोष उत्पन्न होनेसे लज्जावश वस्त्रको ग्रहण कर लेते हैं । यह व्याख्या भगवतीआराधनामें कहे हुए अभिप्रायसे अपवादरूप जाननी चाहिये । पर भगवती आराधनामें इस तरहका कोई विधान नहीं है, उसके टीकाकार अपराजितसूरिने अपनी विजयोदयाटोकrमें आचेलar आदि दश कल्पोंका निरूपण करनेवाली ४२१वीं गाथाकी व्याख्या करते हुए आचारांग आदि सूत्रोंमें पाये जानेवाले कुछ वाक्योंके आधारपर यह माना है कि यदि भिक्षुका शरीरावयव सदोष हो, अथवा वह परीषह सहन करनेमें असमर्थ हो, तो वह वस्त्र ग्रहण कर सकता है । अपराजितसूरिने तो समन्वयार्थ इस प्रकारकी व्याख्या की है, पर श्रुतसागरसूरि दिगम्बर होते हुए, क्यों इस प्रकारकी भूल कर गये ?
षट्प्राभूतटीका - आचार्य श्रुतसागरसूरिने षट्प्राभृतकी टीका प्रारम्भ करते हुए लिखा है
"अथ श्रीविद्यानन्दिभट्टारक पटाभरणभूतश्री मल्लिभूषणभट्टारकाणामादेशादध्येषणावशाद् बहुगः प्रार्थनावशात् कलिकालसर्वज्ञविरुदावलीविराजमानाः श्रीसद्धर्मोपदेशकुशला निजात्मस्वरूपप्राप्ति पञ्चपरमेष्ठिचरणान् प्रार्थयन्तः सर्वजगदुपकारिण उत्तमक्षमाप्रधानतपो रत्नसंभूषितहृदयस्थला भव्यजनजनकतुल्याः श्रीश्रुतसागरसूरयः श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचितषट्प्राभृतग्रन्थं टोकयन्तः स्वरुचिविरचितसदृदृष्टयः ।" अर्थात् कलिकालसर्वज्ञ आदि विरुदावलिसे सुशोभित, श्रीसम्पन्न, आधर्म के उपदेशमें कुशल, पञ्चपरमेष्ठी के चरणों को प्रार्थना से आत्मस्वरूपके ध्याता, सर्वजगतके उपकार करनेवाले उत्तमक्षमादि तपोंसे विभूषित, सम्यग्दर्शनयुक्त और भव्य जीवोंके लिए पिताके समान सुखदायक श्रुतसागरसूरि श्रीविद्यानन्दि भट्टारक सम्बन्धी पट्टके अलंकारस्वरूप श्रीमल्लि भूषणभट्टारककी आज्ञासे, प्रेरणासे और अनेक जीवोंकी प्रार्थनासे श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित 'षट्प्राभृत' ग्रन्थकी टीका करनेके लिये प्रवृत्त हुए हैं ।
इस टोकामें भी 'तयाचोक्तं' कहकर अनेक स्थानोंके उद्धरण संकलित किये हैं। कुन्दकुन्दस्वामोके मूलवचनोंका व्याख्यान सरल और संक्षेपरूपमें किया है । यद्यपि इस टीकामें श्रुतसागरीवृत्ति जैसी गम्भीरता या प्रौढ़ता नहीं है, तो भी विषयको स्पष्ट करने की क्षमता इस टीकामें है । टोकाकी शैली बहुत ही सरल, स्वच्छ और स्पष्ट है । दर्शन, चरित्र, सूत्र, बोध, भाव और मोक्ष इन छह प्राभृतोंका व्याख्यान श्रुतसागरसूरिने किया । टोका केवल भावोंके स्पष्टीकरण
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापाषकाचार्य : ३९७
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
लिये की गयी है। मोक्षप्राभूतके अन्त में पूर्व प्रशस्ति भी दी गयी है । इस प्रकार संक्षेपमें पद्माभृतको टीका कुन्दकुन्दके अन्यको स्पष्ट करती है।
तत्त्वत्रयप्रकाशिका-यह ज्ञानावणंवके गद्यभागकी संस्कृत टोका है। यह टीका अभी तक अप्रकाशित है। शुभचन्द्राचार्यने योगविषयको लेकर ज्ञानार्णबको रचना की है। श्रुतसागरने केवल इसके गद्यांशपर ही संस्कृत टीका लिखी है ।
जिनसहस्रनामटोका-यह १० आशाधर कृत सहस्रनामकी विस्तृत टीका है। टीकाके अन्त में निकला है -
श्रुतसागरकृतिवरवचनामृतपानमन येविहितम् । जन्मजरामरणहरं निरन्तरं तैः शिवं लब्धम् । अस्ति स्वात्ति समस्तसङ्कतिलक श्रीमलसङ्घोऽनघं वृत्तं यत्र मुमुक्षुवगंशिवदं संसेवितं साधुभिः । विद्यानन्दिगुरुस्विहास्ति गुणवद्गच्छे गिरः साम्प्रतं
तच्छिष्यश्नुतसागरेण रचिता टीका चिर नन्दतु ॥ महाभिषेकटोका-पं० आशाधरके नित्यमहोद्योतकी यह टीका है । इसका प्रणयन उस समय हुआ था, जब श्रुतसागर देशव्रती या ब्रह्मचारी थे।
औदार्यचिन्तामणि-प्राकृत भाषाका शब्दानुशासन है। दो अध्यायोंमें पर्ण हआ है। प्रथम अध्यायमें २४५ सूत्र और द्वितीय अध्यायमें २१३ सुत्र हैं। प्रथम अध्यायके अन्तमें लिखा है--
श्रीपूज्यपादसूरिविद्यानन्दी समन्तभद्रगुरुः ।
श्रीमदकलवदेवो जिनदेवो मङ्गलं दिशतु !! __ "इत्युभयभाषाकविचक्रवत्तिव्याकरणकमलमार्तण्डतार्किकबुधशिरोमणिप - रमागमप्रवीणसूरिश्रीदेवेन्द्रकीतिप्रशिष्य - मुमुक्षुश्रीविद्यानन्दिप्रियशिष्यश्रीमूल . सघपरमात्मविदुस्सुरिश्रीश्रुतसागविरचिते औदार्यचिन्तारत्ननाम्नि स्वोपज्ञवृत्तिनि प्राकृत्तव्याकरणे वर्णादेशनिरूपणो नाम प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।"
द्वितीय अध्यायके अन्त में भी इसी प्रकारकी प्रशस्ति है। इस अध्यायका नाम संयुक्त अव्ययनिरूपण है। इसमें संयुक्त वर्णविकार और अव्ययोंके निपातका कथन आया है। प्रथम अध्यायमें स्वर और व्यञ्जनोंके विकारका निरूपण है । इस अध्यायका प्रथम सूत्र
तदार्षञ्च बहुलम् ॥२॥ तत्प्राकृतमषिप्रणीतमार्षमनार्षच बहुमित्यधिकृतं वेदितव्यम् । तत्र
३९८ : तार्थंकर महावार और उनकी आचार्य-परम्परा
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऋ, ऋ, ल, लु, ए, औ, छ, ञ, श, ष प्लुत्त स्वर व्यञ्जन द्विवचन चतुर्थी बहुवचनानि च न स्युः । के अवं | सौ अरिवंकौरवा । इति च दृश्यते । सर्वविधिांवकल्पश्चार्षे ॥
अर्थात् प्राकृतमें ऋ, ऋ, ल, ल, ऐ, ओ, छ, त्र, ष प्लुत नहीं होते हैं। द्विवचन और चतुर्थी विभक्ति भो नहीं है। आर्ष प्रयोगोंमें सभी विधियाँ विकल्पसे प्रयुक्त होती हैं ।
प्रथम अध्यायके द्वितोय सूत्रमें समासमें परस्पर ह्रस्व और दोघं की व्यवस्था बतायी गयी है । यथा-अन्तर्वोद अन्तावई । सप्तबित्तिः सत्तावोसा। अप्रवृत्तौ जुवइअणो। विकल्पे वारिमइ, वारिमई ! भुजयन्त्र भत्रायंत, भुअयंत । पतिगृहपईहर, पइहरं । गोरीगृहं गोरिहर, गोरोहरं ।
तृतीयसूत्रमें सन्धिव्यवस्था, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ एवं सप्तममं भी सन्धिव्यवस्थापर प्रकाश डाला गया है। नवम, दशम और एकादश सूत्र में उपसगंव्यवस्था बतलायी गयी है। चतुर्दश सूत्रसे विशति सूत्र पर्यन्त शब्दोंके आदेशका कथन आया है । इक्कोस और बाइस सूत्रमें अनुस्वारव्यवस्थाका कथन है। इसके पश्चात् शब्दोंके आदेशोंका निरूपण किया गया है । अध्यायके अन्तमें कतिपय विशेष शब्दोंकी व्यवस्था बतलायी गयी है। तथा दन्त्य नकारके स्थानपर मधन्य णकारका कथन आया है । इस प्रकार प्रथम अध्यायमें स्वर और व्यम्जनोंको व्यवस्था बतलायो गयी है।
द्वितीय अध्यायके प्रारम्भमें मृदुत्व आदि पांच शब्दोंमें संयुक्त वर्णके स्थान पर ककारको व्यवस्था बतलायी गयो है ।
को वा मृदुत्त्व-रुग्ण-दष्ट-मुक्तसक्तेषु ।। १ ।। मृदुत्त्वादिषु पञ्चसु शब्देषु यः संयुक्तो वर्णस्तस्य ककारो भवति वा । मदत्त्वं माउत्तणं माउक्के, रुज्यतेस्म रुग्ण:-भुग्णपर्यायः (१) रामादिना वक्रीभूते लुम्गो लुक्को । दष्ट:-दट्ठो डक्को, मुक्तः-मुत्तो-मुक्को, शक्तः सत्तो सक्को ।
खः क्षस्य झछौ च क्वचित् ।। २ ।। क्षकारस्य खकारो भवति । झछौ च क्वचिद्भवतः लक्षणं-लक्खणं, क्षयः खो, क्षीयते-झिज्जइ छिज्जइ खिज्जइ, क्षीणं-झीणं छीणं स्वीणं ।
इसी प्रकार इस अध्यायमें स्क, क, स्थ, स्फ, स्त आदिके विकारका भी अनुशासन वर्णित है। संयुक्त वोकी व्यवस्था विस्तारके साथ बतलायी गयी
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३९९
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। अव्ययोंके निपातकी व्यवस्था १७१वें सूत्रसे २१३वे सूत्र तक वर्णित है। इसप्रकार इस प्राकृतव्याकरणमें स्वर ओर व्यञ्जन परिवर्तनके साथ शब्दरूप एवं अव्ययोंका कथन आया है। धातुरूप सदाकृदन्तप्रत्ययोका अनुशासन इसमें वणित नहीं है। इस व्याकरणके दो ही अध्याय उपलब्ध है, शेष दो अध्याय अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं। ये दो अध्याय जेन सिद्धान्त भवन बारा, एवं व्यावरके ग्रन्थागरमें उपलब्ध हैं।
श्रीपालचरित---इस चरितकाव्यके आरम्भमें मंगलाचरण पद्यबद्ध है तथा अन्तमें प्रशस्ति भाग भी पद्यमें दिया गया है। मध्यका कथाभाग संस्कृत-गद्यमें लिखा गया है। श्रीपालके पुण्य चरितका अंकन इस काव्यमें है । सिद्धचक्रविधानके महात्म्यको दिखलानेके लिये यह काव्यग्रन्थ लिखा गया है । अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है
सिद्धचक्रवतात्सोऽयमीदशाऽभ्युदयो बभौ ।
निःश्रेयसमितोऽस्मभ्यं ददातु स्वर्गात प्रभुः ।। यशोधरधरित-पुण्यपुरुष यशोधरको कथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंशके जैन कवियोंको विशेष रुचिकर रही है। यही कारण है कि यशोधरके रितको लेकर अनेक काव्य लिखे गये हैं। आरम्भमें नमस्कारात्मक पद्य लिखे गये हैं, जिनमें विद्यानन्द, अकलंक, समन्तभद्र, उमास्वामी, भद्रबाह, गुप्तिगप्त आदिका स्मरण किया गया है । अन्तिम प्रशस्तिमें श्रुतसागरने अपना परिचय लिखा है। इस परिचयमें गुरुपरम्परा एवं अपना पाण्डित्य बतलाया गया है । अहिंसावतका माहात्म्य बतलानेके लिये यशीघरको कथा विशेष आकर्षक है। यह कथा वहीं है, जिसका अंकन सोमदेवते अपने यशस्तिलकचम्पू किया है।
अतस्कन्धपूजा-श्रुतस्कन्धका पूजन निबद्ध किया गया है। श्रुतके माहात्म्यके साथ श्रुतज्ञानके पदों और अक्षरोंकी संख्या भी बतलायो गयी है । यह छोटी-सी कृति है, इसको पाण्डुलिपि बम्बईके सरस्वतीभवनमें है।
वतकयाकोश-श्रुतसागरने आकाशपञ्चमी, मुकुटसप्तमी, चन्दनषष्ठी, अष्टालिका, ज्येष्ठजिनवर, रविव्रत, सप्तपरमस्थान, अक्षयनिधि षोड़शकारण, मेघमाला, लब्धिविधान, पुरन्दरविधान, दशलाक्षणीव्रत, पुष्पाञ्जलिव्रत, मुक्तावलीवत, निदुःखसप्तमी, सुगन्धदशमी, श्रावणद्वादशी, रत्नत्रय, अनन्तव्रत, अशोकरोहिणी, तपोलक्षणपंक्ति, मेरुपंक्ति, विमानपंक्ति और पल्लिविधान व्रतोंको कथाएं लिखी हैं । इन कथाओंकी संख्या २४ है। पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीने इन कथाग्रन्योंको स्वतन्त्ररूपमें स्थान दिया है और एक कथाकोश म मानकर २४ कथाग्रन्थ माने हैं। उन्होंने बताया है कि भिन्न-भिन्न कथाएं
४०० : तीर्थकर महावीर और उनको बाचार्य परम्परा
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
भिन्न-भिन्न व्यक्तियोंके लिये भिन्न-भिन्न महानुभावों के अनुरोधसे लिखी गयी हैं । अतएव वे स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं ।
जैन ग्रन्थप्रशस्ति संग्रह प्रथम भाग में १४३ ग्रन्थसंख्यासे १६६ ग्रन्थ संख्यातक २४ कथाग्रन्थोंकी प्रशस्तियाँ संकलित की गयी हैं। ज्येष्ठजिनवरव्रतकथा के आदिमें मंगलाचरण करते हुए लिखा है
ज्येष्टं जिनं प्रणम्यादाव कलंककलध्वनि । श्रीविद्यादिनंदिनं ज्येष्ट जिनद्रतमथोच्यते ॥ १ ॥
प्रायः प्रत्येक कथाग्रन्थ के अन्तमें अंकित प्रशस्ति में श्रुतसारकी गुरुपरम्परा उपलब्ध होती है । इन कथाग्रन्थोंकी शैलीसे भी इनका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है । प्रत्येक कथा के अन्त में, जो प्रशस्ति भाग दिया गया है, वही उसका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध करता है । ये कथाएं चांद कथाकोशके रूपमे लिखी जातीं, तो प्रत्येक कथाके अन्त में प्रशस्ति देनेकी आवश्यकता नहीं थी । रत्नत्रयकथा, अनन्तव्रतकथा और अशोक रोहिणीकथा के अन्तमें दी गयी प्रशस्तिको उदाहरणार्थ प्रस्तुत करते हैं
सर्वज्ञसारगुणरत्नविभूषणांम
विद्या दिनदिगुरुरुतरप्रसिद्धः । शिष्येण तस्य विदुषा श्रुतसागरेण रत्नत्रयस्य सुकथा कथितात्मसिद्धये ॥
X
X
X
X
सूरिर्देवेन्द्रको तिविबुधजननुतस्तस्थ पट्टाब्धिचंद्रो रुद्री विद्यादिनंदा गुरुरमलतपा भूरिभव्याब्जभानुः । तत्पादांभोजभृंगः कर्त्तामुष्याऽनन्तव्रतस्य श्रुतसमुपपदः सागरः शं क्रियाद्वः ॥
कमलदल्लसल्लोचनश्चंद्रवक्त्रः
X
X
x
X
गच्छे श्रीमति मूलसंघतिल के सारस्वते निर्मल तत्त्वज्ञाननिधिर्बभूव सुकृतो विद्यादिनन्दी गुरुः । तच्छिष्यश्रुतसागरेण रचिता संक्षेपतः सत्कथा
रोहिण्या: श्रवणामृतं भवतु वस्तापच्छिदं संततम् ॥ उक्त दोनों प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है कि ये ग्रन्थ स्वतन्त्र हैं ।
श्रुतसागर की शैली और जैन संस्कृतिको देन श्रुतसागरकी भाषा और शैली सुबोध है । उनकी शैलोमें कहीं भी जटिलता नहीं है । स्वतन्त्ररूप से लिखे गये चरित और कथाग्रन्थों में भाषा की प्रौढ़ता पायो जाती है । यथा
श्रीमद्वीर जिनेन्द्र शासन - शिरोरत्नं सतां मंडनं साक्षादक्षयमोक्षकारि करुणा कृन्मूलसंघेऽभवत् ।
—
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापीषकाचार्य: ४०१
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-----
वंशे श्रीमत्कुंदकुंदविदुषो देवेन्द्रकीतिगुरुः
पट्टे तस्य मुमुक्षरक्षयगणो विद्यादिनंदीश्वरः ।। तत्पादपावनपयोरुहमत्त,ग: श्रीमल्लिभूषणगरुर्गरिमप्रधानः । संप्रेरितोहममुनाभयमच्यभिख्ये भट्टाकरेण चरिते श्रुतसागगख्यः ।।
इन पद्योंसे स्पष्ट है कि चरितम्रन्थोंकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और कान्योचित है। इसी प्रकार कथाग्रन्थोंकी भाषा भी कायोचित है । यतसागरसरिने ग्रन्थरचना द्वारा तो जैनधर्मका प्रकाश किया ही, पर शास्त्रार्थ द्वारा भी उन्होंने जैनधर्मका पर्याप्त प्रकाश किया है। श्रुतसागर अपने समयके बहुत ही प्रसिद्ध मान्य और प्रभावक विद्वान रहे हैं। इन्होंने अपने समयके राजाओं, सामन्तों और प्रभावक व्यक्तियोंको भी प्रभावित किया था। श्रतसागरका व्यक्तित्व बहुमुखी है। उसमें प्रयुक्त विशेषण ही यह सिद्ध करते हैं कि वे कलिकाल गौतम थे। जिस प्रकार गौतम गणधरने श्रुतका बीजरूपमें प्रचार और प्रसार किया, उसो प्रकार, परमागमप्रवीण, ताकिकशिरोमणि श्रुतसागरने अनेक वादियोंको पराजित कर जैनधर्मका उद्योत किया है ।
ब्रह्मनेभिदत्त ब्रह्म नेमिदत्त मूलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगणके विद्वान भट्टारक मल्लिभूषणके शिष्य थे । इनके दोभागुरु भट्टारक देवेन्द्रकीतिके शिष्य विद्यानन्दि थे। इन्हीं विद्यानन्दिके पट्टपर मल्लिभूषण प्रतिष्ठित हुए, जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रयसे सुशोभित थे। आराधनाकथाकोशकी प्रशस्तिमें मल्लिभूषणकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
श्रीमज्जैनपदाब्जसारमधुकृच्छीमलसंघाग्नणीः । सम्यग्दर्शनसाधुबोधविलसच्चारित्रचूड़ामणि: ।। विधानन्दिगुरुप्रपट्टकमलोल्लासप्रदो भास्करः।
श्रीभट्टारकमाल्लभूषणगुरुभूयात्सता शर्मणे || ब्रह्मनेमिदत्त संस्कृत, अपदंश, हिन्दी और गुजराती भाषाके विद्वान थे । इन्होंने संस्कृतमें चरित, पुराण, कथा आदि ग्रन्थोंकी रचना की है। इन्होंने मालारोहिणी नामक एक प्रसिद्ध रचना लिखा है, जिसमें मूलसंधके आचार्य श्रतसागरको नमस्कारकर फूलमाला कहने की प्रतिज्ञा की गयी है। मोंगरा, पारिजात, चम्पा, जूही, चमेली, मालती, मुचकुन्द, कदम्ब एवं रक्तकमल आदि सुगन्धित पुष्प समूहोंसे गुम्फित जिनेन्द्रमालको स्वर्गमीक्ष सुखकारिणी बताया है और इसे समस्त दुःख-दारिद्र दूर करनेवाली कहा है। इस मालारोहिणीसे प्रतीत होता है कि ब्रह्मजिनदासको स्वाभाविक कविप्रतिभा ४०२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आमार्य-परम्परा
-
--
-
-
-
-.
.
.
'
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राप्त थी । वे सरस्वतीके वरद पुत्र थे । इनका व्यक्तित्व बहुमुखी था । प्रतिभानिर्माण और मन्दिर निर्माण के कार्यों में सहयोग भी देते थे। एक मूर्तिलेख में ब्रह्ममिदत्त के साथ ब्रह्ममहेन्द्रदत्त के नामका भी उल्लेख आया है, जिससे वे इनके सहपाठी प्रतीत होते हैं। ये अग्रवालजातिके थे और इनका गोत्र गोयल था | मालव देशके आशानगर के निवासी थे। इन्होंने अपने ग्रन्थोंकी रचना प्रमुख व्यक्तियोंके अनुराधसे की है, जिससे यह ध्वनित होता है कि अनेक व्यक्ति इनके सम्पर्क में रहे हैं ।
स्थितिकाल
ब्रह्मनेमिदत्तको रचनाओं में उनके समयका निर्देश प्राप्त होता है, जिससे इनके स्थितिकालपर सम्यक् प्रकाश पड़ता है । इन्होंने वि० सं० १९८५ में श्री शान्तिदासके अनुरोधसे श्रीपालपरितकी रचना की है। सं० १५७५ में आराधनाकथाकोश लिखा है । नेमिनाथपुराणकी रस्ता भी १५८५ में हुई है । अतएव इनका समय विक्रमको १६वीं शताब्दी है । सुदर्शनचरितकी प्रशस्ति में कविने पद्मनन्दि, प्रभाचन्द्र, देवेन्द्रकीति, विद्यानन्दि, मल्लिभूषण और श्रुतसागरकी प्रशंसा की है। इस प्रशंसा के अध्ययनसे स्पष्ट ज्ञात होता कि मल्लिभूषण वि० की १६ वीं शताब्दी में हुए हैं और उनके प्रसिद्ध शिष्य ब्रह्मनेमिदत्त भी इसी शताब्दीमें हुए हैं। अतएव ब्रह्मनेमिदत्तका समय वि० की १६ वीं शताब्दी है । सुदर्शनचरित के अन्त में लिखा है
श्री मूलसंधे वरभारतीये गच्छे बलात्कारगणेतिरम्ये । श्री कुन्दकुंदाख्यमुनींद्रवंशे जातः प्रभाचन्द्रमहामुनींद्रः ॥ २॥ पट्टे तदीये मुनिपद्मनन्दीभट्टारको भव्यसरोज भानुः । जातो जगत्रयहितो गुणरत्न सिंधुः कुर्यात् सतां सारसुखं यतोशः ॥३॥ तत्पट्टपद्माकरभास्करोऽत्र देवेंद्रकीतिमुनिचक्रवनों । तत्पादपंकेज सुभक्तियुक्तो विद्यादिनंदी चरितं चकार ॥८॥ तत्पटेऽजनि मल्लभूषणगुरुचारित्रचूडामणिः,
संसारांबुधितारकचतुरश्चितामणिः प्राणिनां । सूरिः श्रश्रुतसागरो गुणनिधिः श्रोसिंहनन्दी गुरुः,
सर्वे ते यतिसत्तमाः शुभतारा कुर्वंतु वो मंगलं ॥५॥ गुरूणामुपदेशेन सच्चरित्रमिदं शुभं । नेमिदत्तो व्रती भक्त्या भावयामास शम्मंद " ||६||
१. प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, सन् १९५०, पृ० ६७-६८ पर उद्भूत |
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकरचार्य : ४०३
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
रचनाएँ अझ नेमिदत्त को लगभग १२-१३ रचनाएं प्राप्त हैं १. आराधनाकथाकोश २. नेमिनाथपुराण ३. श्रीपालचरित ४. सुदर्शनचरित ५. रात्रि-भोजनत्यागकथा ६. प्रोसकरमहामुनिनरित ७. धन्यकुमारचरित ८. नेमिनिर्वाणकाव्य-इसको प्रति ईडरमें प्राप्त है। ९. नागकुमारकथा १०, धर्मोपदेशपीयूषवर्षश्रावकाचार ११. मालारोहिणी १२. आदित्यचारनतरास
आराषनाकथाकोश-आराधनाकथाकोश प्रसिद्ध कथानन्य है। इसका प्रकाशन हो चुका है। इसको सभी कथाएं अहिंसादि व्रतोंसे सम्बद्ध हैं । सामान्य व्यक्ति भी इन कथाओंके अध्ययनसे अपने चरितको उज्वल कर सकता है। संसारके विषय-कषायोंमें निमग्न व्यक्तिको ये कथाएं आत्मोत्थानकी ओर प्रेरित करती हैं। वास्तव में ब्रह्मनेमिदत्तके आराधनाकथाकोशका कथासाहित्यकी दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
भोपालचरित-इस ग्रन्थमें ९ अधिकार हैं और श्रीपालको कथा वर्णित है। इसको प्रशस्तिमें कविने अपना परिचय लिखा है। ९३ अधिकारके अन्त में दी हुई प्रशस्तिमें बताया है
"इति श्रसिद्धचक्रपूजातिशयं प्राप्ते श्रीपालमहाराजचरिते भट्टारकश्रीमल्लि. भूषणशिष्याचार्य श्रीसिंहर्नान्दब्रह्मश्रीशांतिदासानुमोदिते ब्रह्मनेभिदविरचिते श्रीपालमहामुनींद्रनिर्वाणगमनो नाम नवमोधिकारः समाप्तः ।"
इस चरितके रचनेका उद्देश्य कविने सिद्धचक्रका महात्म्य बतलाया है। सर्गबद्ध कथा नियोजित है । श्रीपालके जन्मसे लेकर उनके निर्वाणपर्यन्त चरितका अंकन किया गया है । भाव और शैलीको दृष्टिसे यह रचना अध्ययनीय है।
नेमिनापपुराण-इस पुराणग्रन्थकी रचना सोलह अधिकारोंमें की गयी है और इसमें नेमिनाथका चरित अंकित है। उनके गभं, जन्म, तप, ज्ञान और केवल इन पांचों कल्याणकोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। नेमिनाथको अपूर्व शक्तिसे ४०४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
-
--
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रभावित होकर राजनीतिज्ञ कृष्ण द्वारा प्रस्तुत की गयी कूटनीतिका भी चित्रण आया है । श्रीकृष्णको कूटनीतिके फलस्वरूप ही नेमिनाथ विरक्त होते हैं । विलखती हुई राजुलके आँसुओंका प्रभाव भी उनपर नहीं पड़ता । कविने सभी मर्मस्पर्शी कथांशोंका उद्घाटन किया है। अन्तमें इस चरितको मोक्षप्रद बताया गया है । लिखा है
यस्योपदेशवशतो जिनपुगवस्य
नेमिपुराणमतुलं शिवसौख्यकारी, चक्र मयापि मतितुच्छतयात्र भवत्या,
कूर्यादिदं शुभमतं मम मंगलानि ।। सुदर्शनचरित–सुदर्शनचरितके रचयिता यद्यपि आचार्य विद्यानन्दि हैं । पर एकादश अधिकारके अन्तमें ब्रह्मनेमिदत्तका नाम आया है, तथा
गुरूणामुपदेशेन सच्चरित्रमिदं शुभम् ।
नेमिदत्तो व्रती भक्त्याभावयामास शर्मदम् ।। इस पद्यमें 'भावयामास' पद आया है, जिसका अर्थ, प्रकट किया, प्रदर्शित किया या पालन-पोषण किया अथवा मनन द्वारा पावन किया, किया है। अतएव यहाँ प्रकट किया था निर्मित किया यह अर्थ लेनेसे विरोध आता है। जिसका समाधान कुछ विद्वान यह कह कर करते हैं कि सुदर्शनचरितके दश अधिकार मुमुक्षु विद्यानन्दि द्वारा विरचित है और ११वें अधिकारके रचयिता ब्रह्मनेमिदत्त है । हमारी दृष्टिसे यहाँ 'भावमामास'का अर्थ रचना किया गया न होकर संशोधन या सम्बर्द्धन किया गया होना चाहिये। अतएव ब्रह्मनेभिदत्त सुदर्शनचरितो रचयिता नहीं हैं, अपितु उसके संशोधनकर्ता या सम्पादनकर्ता हैं।
धर्मोपदेशपीयूषवर्षों श्रावकाचार-इस ग्रन्थमें श्रावकाचारका निरूपण किया गया है। प्रारम्भमें लिखा गया है--
श्रीसर्वज्ञं प्रणम्योच्चैः केवलज्ञानलोचनम् ।
सद्धर्म देशयाम्येष भत्र्यानां शमहेतवे ।। इस मगलाचरणसे स्पष्ट है कि ब्रह्मनेमिदत्त सधर्मका उपदेश भव्यजीवोंके कल्याणके लिये लिखते हैं । इस ग्रंयमें श्रावकोंके मूलगुण और उत्तर गुणोंका विवेचन करनेके पश्चात् व्रत्तोंके अतिचारोंका निरूपण आया है । श्रावककी दैनिक षट क्रियाओं, पूजा-भक्ति एवं आराधना आदिका भी उल्लेख किया गया है। यह ग्रन्य पांच अधिकारोंमें विभक्त है और पंचम अधिकार सल्लेखना नामका है। अन्तका पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापागकाचार्य : ४०५
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
'इति धर्मोपदेशपीयूपवर्पनामथावकाचार भट टारकश्रीमलिनभूषणशिष्यब्रह्मनेमिदत्तविरचिते सल्लेखनाक्रमव्यावर्णनो नाम पंचमोऽधिकारः' ।
रात्रिभोजनत्यागकथा--रात्रिभोजनत्याग व्रतका महत्त्व बतलानेके लिए नागथीको कथा लिखी गयी है । आचार्यने कथाके मध्यमें रात्रिभोजनके दोषों का भी निरूपण किया है ! अनिमें पुष्पिकावाक्य निम्नप्रकार आया है
"इति भट्टारकथीमल्लिभूगणशिष्याचार्यश्रीसिंहनन्दिगुरूपदेशेन ब्रह्मनेमिदत्तविरचिता रात्रिभोजन-गरित्यागफलदृष्टान्त-श्रीनागश्रीकथा समाप्ता।"
मालारोहिणी—इस फूलमालामें आरम्भमें २४ तीर्थंकरोंका स्तवन किया गया है। मध्यमें धन, सम्पत्ति, यौवन, पुत्र, कलत्र आदिको क्षणविध्वंशी कहकर दान देनेकी प्रवृत्तिको प्रोत्साहित किया गया है। संसारके समस्त ऐश्वर्योको प्राप्तकर जो व्यनित्त प्रभावित नहीं करता, तीर्थंकरोंके चरणोंकी आराधना नहीं करता, वह अपने जन्मको निरर्थक व्यतीत करता है। इस पंचम कालमें तीर्थंकरभक्ति ही आत्मोत्थानका साधक है। भक्त सरलतापूर्वक अपने राग, द्वेष, रोग, शोक, दारिद्रय आदिको दूर कर देता है। रचना निम्नप्रकार है
वृषभ अजित संभव अभिनन्दन,
सुमति जिणेसर पाप निकंदन ! पम प्रभु जिन नामें गज्जउँ श्रीसुपास चंदप्पह पुज्जउँ। पुष्फयंतु सीयल पुज्जिज्जइ,
जिणु सेयंसु महिं भाविज्जइ । वासुपुज्ज जिण पुज्ज करेप्पिणु,
विमल अणंत धम्मुझाएप्पिणु ।। xx सुरासुर किनर खेयर भूरि, जिपिाद पयचहिं णचहि णारि । सुरअप्छर गावहि सोक्खह धाम, जिणिदह सोहइ मोत्तिय दाम ॥
गलति झत्ति जाइ कालु मोह जालु वट टए । सु होहि जाणु भव्य भाणु अग्गि जेम कड़ढए । जिणिद चंद पाय पूज्ज धम्मकज्जकिज्जए,
सुपत्तदाणु पुण्णठाणु वयणिहाणु लिज्जए॥ ४०६ : तीर्थकर महावीर और उनकी वाचायपरम्परा
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
आदित्यव्रतरास- इसमें १३२ प है । जगती मिश्रित हिन्दीमें यह रचना लिखी गयी है। रवि कथा वही अंकित है, जो अन्यत्र गायी जाती है । आरम्भमें ही विने लिखा है
ग्राम जिनेगर व प्रगति परमानंदन | भवन्सायर तरणतारण भवीयण गुहतरुवंदनु || श्रीशारदा हिमांश निर्मल सौख्यनिधाननु | आदित्यव्रतबस्वाणगुं ए जिनपासनपरवाननु ||
इस प्रकार ब्रह्मनेमिदत्त पुराणकाव्य और आचार शास्त्र के रचयिता हैं । इनके ग्रन्थामें मौलिकताकी कमी हो सकती है, पर पुराने कथानकको ग्रहण कर उसे अपनी शैली में निवद्ध करनेकी प्रक्रिया में आचार्य पारंगत हैं ।
यशःकीर्ति
काष्ठासंघके माथुरान्वय पुष्करगणके भट्टारकोंमें भट्टारक यशःकीर्तिका नाम आया है । यों तो यशकीनि नामके कई आचार्य और भट्टारक हुए हैं । एक यशःकीति पद्मनन्दिके शिष्य जेस्ट शाखाके भट्टारक हैं। इनका समय वि०की १७वीं शती है । दूसरे यशः कोति नेमिचद्रके शिष्य हुए हैं। ये नौ वर्ष गृहस्थीम रहे थे और ४० वर्ष तक उन्होंने पटूट पर निवास किया था। तीसरे यशःकीर्ति माथुरगच्छके पद्मनन्दिके शिष्य हैं । इनका समय वि०की १८वीं शताब्दी है । यशकीनि रत्नकीत्तिके मिष्य हैं। वि०सं० १९५३ के पश्चात् नागाम में इनका पट्टाभिषेक हुआ था और वि०० १६४३में उनका स्वर्गवास हुआ | इन कीर्ति पश्चात् मिहनन्दि तथा उनके पञ्चात् गुणचन्द्र भट्टार हुए। छठ्ठे यणःकीति रामकीतिके शिष्य हैं। रामकीर्तिका समय विकी १९वीं शती है । ये बलात्कारगण ईश्वर यावाक भट्टारक थे। इनके दादागुरु चन्द्रकीर्तिने वि०मं० १८२२ केसरियाजी तोर्थक्षेत्र में २४ तीर्थकरों की चरणपादुकाएं स्थापित की श्री चन्द्रकीति के पदचात् रामकीर्ति और उनके पश्चात् यशः कीर्ति भट्टारक हुए। इनके उपदेशसे संवत् १८६३की आषाढ़ शुक्ला तृतीया को केसरियाजी मन्दिरके परकोटेका निर्माण पूरा हुआ था। श्रीब्रह्मचारी शीतलप्रसादजों ने ईडरके भट्टारकों का जो वृतान्त लिखा है, उसमें यशः कौतिके पश्चात् क्रमशः सुरेन्द्रकोति, रामकोर्ति, कनककीर्ति और विजयकीर्तिका उल्लेख किया है। सातवें यशःकीति विजयसेनके शिष्य हैं और वें यशःकीति विमलकीर्तिक विष्य बताये गये है । जगतसुन्दरोप्रयोग मालामें
१. दानवोर माणिकचन्द्र, पृ० ३२ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ४०७
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमलकीतिको प्रशंसा की गयी है और उनके शिष्य यश:कीर्ति भी प्रशंसनीय माने गये हैं।
मंजाउ तस्न मीनो चिवटो सिरिबिमलइत्ति विवखाओ। विमलपनि खडिया धलिया धूणिय गयणाययले ।। जगत्ति ग्राम पपडो परामयम्जुअलपडियभन्धयणो ।
ममिण जणदुलहं तेण हहिय समुरियं ।। अगनोग मकाःकोनि कामासंघ, माथुरगच्छको पुष्करगण शाखाके सर्वाधिक यशस्वी, उच्चकोटिके. साहित्यकार, कठिन तपस्वी, प्राचीन जीर्ण-शीर्ण ग्रन्थोंके उद्धारक, गयी पीढ़ी के साहित्यकारों के प्रेरक, उगदेष्टा एवं कला-साहित्य सम्बन्धी विभिन्न प्रवृत्तियोंके मर्मज्ञ विद्वान थे। इनकी प्रतिभाग राजन्यवर्ग, श्रेष्ठिवर्ग एवं सामान्य जन-गमह प्रभावित था। भविष्यदत्ताञ्चमीकथावी प्रशस्तिमें इन्हें गणकीतिका शिल्य कहा गया है___ "संवत् १४८६ वर्षे आपाढदि ७ गुरुदिने गोपाचलदुर्गे राजाडूंगरसिंह राज्यप्रवर्त्तमाने श्रोकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणं आचार्यथीसहस्रकीर्तिदेवा: तत्पट्टे आचार्यश्रीगुणकीर्तिदेवाः तच्छिष्य श्रीयशःकीर्तिदेवाः तत्पट्टे आचार्य श्रीगुणकीर्तिदेवा: तच्छिय श्रीयश:कीर्तिदेवाः तेन निजज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थ इदं भविष्यदत्तपञ्चमीकमा लिन्त्रापितम्।" महाकवि रइयून इन्हे अगन गुरुको रूपमं स्मरण किया है । उन्होंने लिखा है--
........" | सिरि गुकित्तिसुरि पायउजणि । तह शिहामण सिहर परिट्ठिउ । मुत्तिरमणि राराणीव-ठिउ || सुजसयमर बागि दिवासउँ । सिरि जकित्ति णाम दिव्वासउँ ।
-सम्मइ० १०१३०११-१३
तह पुणु सुतवतावपियंगो। भन्बकमलसंबोहपयंगो। णिच्चान्भासियमययणअंगो। वंदिवि शिरि जकित्ति अरांगो॥
-सम्मतगुण शश६-७ पुणु तह पट्टि पदर जसभायणु । सिरि जसकित्ति भञ्च सुहदायणु ।।
-महेसर० १।३।५ अर्थात् गुणकीर्त्तिके सिंहासन पर स्थित, मुक्तिरूपी रमणीसे अनुराग करनेके लिए उत्कंठित, प्रातःकालीन सूर्यके समान तेजोन्मुख, यशस्वी, दिव्य नाम धारी और तपायुक्त यशःकोर्ति हुए। ये भव्यजन-कमलोंको सम्बोधित १. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ५५७ । ४०८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
करनेवाले, अंगसाहित्य के प्रवचनकर्ता, निष्परिग्रही, यतीश्वर, मन्दर, गौम्य. मुनिगणतिलक और धर्मानुरागी थे। महाकवि रइधूने इनको गुणकीर्त्तिका भाई भी बतलाया है । लिखा है--
......"जो गुणस्मुकित्ति मामलो ॥ सुतासु पट्टि भायरो। वि आयत्यसायगे। रिसीस गच्छणायको । जगत्तमिस्बदायको | जसक्लुकित्ति सुंदरो। अंकयु णायमंदिरो ||
—पामणाह० १२।८-११ इस कथन पुष्टि अन्य प्रशस्तिसे भी होती है
संयमविवेक निलयान् विवुधकुलसिलकान् भट्टारवा-लघु-भ्राता यता:कीर्तिदेवाः । ___ अर्थात् भट्टारकयशःकीर्ति भट्टारकगणकीर्तिके भाई, आगमग्रन्थोंके अर्थके लिए सागरके समान, ऋपीश्वरोंके गच्छमायक, विजयकी शिक्षा देनेवाले, सुन्दर, निर्भीक, ज्ञानमन्दिर, भट्टारक गुणकीर्ति के शिष्य तथा क्षमागुणसे सुशोभित थे।
भट्टारकयशःकोतिको गुणकीर्तिका लघुभाई महाकविसिंहने 'पज्जुण्याचरिउ'को अन्त्य पुष्पिकामें बताया है। भट्टारकयशःकीर्तिने भी अपनेको गुणकीर्त्तिका भाई लिखा है--
तह विक्खायउ मुणि गुणकित्तिणामु । तब तेएं, जासु सरीस खामु । तहो णियबदउ जसकित्ति जाउ ।।
.-यश कीर्ति पाण्डवपुराण, अन्त्य प्रशस्ति । अतः यह सम्भव है कि यशःकीति गृहस्थावस्थामें गुणकीर्तिके लघुभाई रहे हों। गुणकीर्तिके पट्टासीन होनेपर ये उनके शिष्य हो गये होंगे।
भट्टारक परम्पराके इतिहास पर दृष्टिपात करनेसे अवगत होता है कि मध्यकालीन माथुरगच्छ परम्पराका आरम्भ माधवसेनसे हुआ है। इनके दो शिष्य हुए-उद्धरसेन और विजयसेन । उद्धरसेनके पश्चात् क्रमशः देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति और गुणकीर्तिभट्टारक हुए । गुणकीर्तिके आम्नायमें वि०सं०१४६८में ग्वालियरमें राजा वीरमदेवके राज्यकालमें अग्रवाल साध्वी देवश्रीने पञ्चास्तिकायकी प्रति लिखवायी थी। आपने संवत् १४७३में एक मूर्ति स्थापित की थी। १. आमेर प्रशस्ति संग्रह ( जयपुर ), पृ० १३७ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४०९
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुणकीर्तिके पट्टशिष्य-यशःकोर्ति हुए तथा इनके पट्टशिष्य मलयकीर्ति हुए। यसःकीर्ति अपने समयके अत्यन्त प्रसिद्ध और यशस्वी व्यक्ति थे । स्थितिकाल ___ 'भविष्यदत्तचरित'के प्रतिलिपिकी पुष्पिकासे स्पष्ट है कि वि०सं० १४८६में डूंगरसिंहके राज्यकालमें भट्टारकयश कीर्ति यशस्वी हो चुके थे। भट्टारक यगःकीर्तिने जीर्णशीर्ण ग्रन्थोडावे
लागु अन्योंकी लिपियोंका भी कार्य कराया था। इन ग्रन्थोंमें दो रचनाएँ प्रधान हैं---१. सुकुमालचरित' ( अपभ्रश) और २. भविध्यदत्तचरित 1 इन दोनों ग्रन्थोंके लेखक पं० विवध श्रीधर थे। पं० थल कायस्थने इन दोनों ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियां की थीं। इन प्रतिलिपियोंके पुष्पिकाओं एवं ग्वालियरके एक मूर्ति लेखमे यश कीर्तिका समय वि०सं० १४८६-१५१० सिद्ध होता है ।
ग्रशःकीत्तिंने पाण्डवपुराणको रचना वि० सं० १४२.७ में की है तथा गोपाचल दूर्गकी श्रीआदिनाथ मतिका एक अभिलेख वि० सं०१४९७ का प्राप्त है, जिसमें गुणकीर्तिकं पट टपर यशःकीर्तिके आसीन होनेकी चर्चा है। इस मूर्तिका प्रतिष्टाकार्य पं० रधुने सम्पन्न किया था। वि० सं० १५१० के मूर्ति लेखोंमें मलयकीतिका उल्लंख मिलने लगता है तथा एकाध मूर्ति लेखमें यग कीर्शिका भी नाम हैं । इगसे यह निष्कर्ष निकलता है कि वि० सं० १५१० के लगभग यशः कीति अपना पटट विमलकीर्तिको दे चुके थे। वि० सं० १५०२ के एक मन्त्र लेख में भी मलय कीर्तिका निर्देश है। इस आधार पर श्री जोहरापुरकग्ने यशःकीत्तिका गभय १४८६-१४५७ वि० सं० माना है। पर गोपाचलके मूर्ति लेखोंमें इनका निर्देश वि० १५१० तक पाया जाता है। अतएव इनका समय वि०म० की पन्द्रहवीं गतीका अन्तिम भाग तथा सोलहवींका पूर्व भाग है । ___ यम.कोत्तिका व्यक्तित्व बहुमुखी है । ग्रन्थकर्ता, ग्रंथोद्धारकर्ता, ग्रन्थसंरक्षक होनेके मात्र नये साहित्यकारों के प्रेरणास्रोत भी ये रहे हैं। मूर्ति प्रतिष्टाओंमें भी इन्होंने योगदान दिया है। इस प्रकार जैन संस्कृतिके प्रचार और प्रसारको दष्टिसे यम:कीतिक कार्योका महत्त्व कम नहीं है।
....-..
१. म० ३.४८६ व अश्विणिर्वाद १३ सोगदिने गोपापलदुर्गे राजा डूंगरसिंह देवविजय
राजप्रवत्ताने श्रीनाष्टाचे माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्रीभावसेन देवास्तपट्टे श्रीराहसकोति देवास्तत्पटे श्रीगुणकोति देवात्तच्छिष्येण श्री यश-कीर्तिदेवन |
४१० : ताथवर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
रचनाएँ
आचार्ययशः कीर्त्तिकी चार रचनाएँ प्राप्त हैं
१. पाण्डवपुराण ( अपभ्रंश ) | २. हरिवशपुराण ( अपभ्रंश ) ३. जिण रतिकहा ( अपभ्रंश ) 1
४. रविवयका | अपभ्रंश }
१. पाण्डवपुराण - इस ग्रन्थ में २४ सन्धियाँ हैं । इस ग्रन्थकी रचना मुवाकि शाह के राज्यकालमें साधुवील्हा के पुत्र हेमराजकी प्रेरणासे की गयी है । हेमराज योगिनीपुर के निवासी और अग्रवालवंशीय थे । ग्रन्थ में हेमराजकी प्रशंसा करते हुए बतलाया है कि ये सत्यवादी, व्यवसनरहित, जिनपूजक, र स्त्रीत्यागो, उदार और परोपकारी हैं। इनकी माताका नाम घेताही और पिताका नाम साधुवील्हा तथा धर्मपत्नीका नाम गंधा था। हेमराजका परिवार धर्मात्मा और कर्त्तव्यपरायण था ।
इस ग्रन्थ में पाण्डव और कौरवोंके साथ श्रीकृष्ण का चरित भी अंकित किया गया है । रचनाकी भाषाशैली प्रौढ़ है।
२ हरिवंशपुराण- इस रचनाका प्रणयन हिसारनिवासी अग्रवाल गर्भगोत्रीयसाहूदिवड्ढा के अनुरोध से किया गया है । ग्रन्थकर्त्ताने प्रशस्ति में बतलाया है कि योगिनीपुर में पं० डूंगरसिंह और दिवड्ढा निवास करते थे | दिवड्ढा सुदर्शन के समान शुद्धमनवाले, कर्मपरायण, दैनिक षट्कर्मका आचरण करनेवाले, दयालु, एकादश प्रतिमाओं के अनुष्ठाता एवं ज्ञानी थे । इनकी प्रेरणा प्राप्त कर यशः कीर्त्तिने हरिवंशपुराणकी अपभ्रंश भाषामें रचना की। इसमें १३ सन्चियाँ और २७१ कड़वक हैं। हरिवंशको कथा अंकित है । ३. जिणरतिकहा- इस लघुकाय काव्य में महादीरकी निर्वाणरात्रि कार्तिककृष्णा चतुर्दशीकी रात्रिका काव्यात्मक चित्रण है ।
४. रविवयकहा या आदित्यवार कथा- इसमें रविव्रतकथा अंकित है । छोटी-सी यह रचना भी उपादेय है ।
शुभकीर्त्ति
शुभकीर्ति नामके अनेक आचार्य हुए हैं। इनमें एक शुभकीर्त्तिवादीन्द्र विशाल कीर्त्तिके पट्टधर थे । इनके सम्बन्धमें बताया है
I
"तपो महात्मा शुभकोर्त्तिदेवः ।
एकान्त राद्युन्नतपोविधानाद्धातेव सन्मार्गविधेर्विधाने
पट्टावलिशुभचन्द्रः
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोधकाचार्य: ४११
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्पट टेजनि विख्यातः पंचाचार पवित्रधीः । शुभकीर्त्तिमुनिश्रेष्ठः शुभकीत्ति शुभप्रदः ॥
-सुदर्शनचरितम्
अर्थात् शुभकीतिं पञ्चाचारके पालन करनेमें दत्तनित थे और सन्मार्गके विधिविधान में ब्रह्मा तुल्य थे। मुनियोंमें श्रेष्ठ और शुभप्रदाता भी इन्हें कहा गया है । एक मूर्ति अभिलेख से इनका समय त्रि० की १३ वीं शताब्दी सिद्ध होता हैं। गुर्वावलिमें बताया है
ततो महात्मा शुभकीर्तिदेवः ।
एकान्तराद्युग्रतपोविधाता धातेव सन्मार्गविधेविंधाने ||
एक अन्य शुभकीर्तिका नाम चन्द्रगिरिपर्वतके अभिलेख में आया है। इस अभिलेखमें कुन्दकुन्दाचार्य से प्रारम्भ कर मेघचन्द्रवती तककी परम्परा दी गयी है । मेघचन्द्र के गुरुभाईका नाम बालचन्द्रमुनिराज बताया है । तत्पश्चात् आचार्य शुभकीर्तिका उल्लेख किया है, जिनके सम्मुख वादगे बौद्ध मीमांसकादि कोई भी नहीं ठहर सकता था । यह अभिलेख शकसंवत् १०६८ का है । अतः शुभकीर्तिका समय इसके कुछ पूर्व ही होना चाहिये' ।
तीसरे शुभकीर्ति कुन्दकुन्दान्वयी प्रभावशाली रामचन्द्रके शिष्य थे । चतुर्थ शुभकीर्ति अपभ्रंश शान्तिनाथ चरितके रचयिता है। इस चरितकाव्य में ग्रन्थकर्नाका किसी भी प्रकारका परिचय प्राप्त नहीं है । ग्रन्थकी पुष्पिकामें निम्नलिखित वाक्य उपलब्ध होता है- "उद्यभाषाचक्कवटिट सुह कित्तिदेव विरइये " अर्थात् ग्रन्थ रचयिता संस्कृत और अपभ्रंश दोनों भाषाओंके निष्णात विद्वान् थे । कविने ग्रन्थके अन्तमें देवकीर्तिका उल्लेख किया है। एक देवकीर्ति काष्ठासंघ माथुरान्वयके विद्वान हैं। उनके द्वारा विक्रम सं० १४९४ आषाढ़ वदी द्वितीयाके दिन एक धातुमूर्ति प्रतिष्ठित की गयी थी, जो आगराके कचौड़ा बाजारके मन्दिरमें विराजमान है। मूर्तिलेख में बताया है- सं० १४९४ अषाढ़ दि २ काष्ठासंघे माथूरान्वय श्रीदेवकीर्ति प्रतिष्ठिता ।" उपलब्ध शान्तिनाथ - चरितकी प्रति वि० सं० १५५१ में लिखी गयी है। अतः इसका रचनाकाल इसके पूर्ववर्ती होना चाहिये | देवकीर्तिका समय वि० सं० १४९४ है, अत: बहुत
१. श्रीबालचन्द्र मुनि राजपवित्र पुत्रः
प्रोट्टतत्रादि जनमानलतालवित्रः ।
जीयादयं जितमनोजभुजप्रतापः
स्याद्वादसूक्तिशुभग शुभकोतिदेवः || जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथमभाग, अभिलेख सं०
५० पृ० ७७, पद्य ३७ ।
"
४१२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्भव है कि शुभकीति इनके समान रहे हों उनका समय दि० सं० की १५ वीं शताब्दी आता है |
रचना
शुभकीर्ति द्वारा विरचित अपभ्रंश शान्तिनाथचरित उपलब्ध होता है । जिसकी पाण्डुलिपि नागोरके शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है । ग्रन्थ १९ सन्धियों में पूर्ण हुआ है। इसमें १६ वें तीर्थंकरशान्तिनाथका जीवनचरित्र वर्णित है 1 शान्तिनाथ पंचम चक्रवर्ती भी थे। इन्होंने पद्खण्डों को जोत कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था । पश्चात् दिगम्बर दीक्षा ले तपश्चरणरूप समाधिकसे महादुर्जय मोहकर्मका विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और अन्तमें अघातियाकर्मोंका नाशक अचल अविनाशी सिद्धपदको प्राप्त किया । ग्रन्थ के आरम्भमं आचार्यने गौतम गणधर जिनसेन, पुष्पदन्तका स्मरण क्रिया है और बताया है कि जिस चरितको जिनराजने गौतम गणधर कहा, उस चरितको जिनसेन और पुष्पदन्तने अपने ग्रन्थोंमें निबद्ध किया । उसी चरितको शुभकीति रूपचन्दके अनुरोधसे निबद्ध करते हैं। रूपचन्दका परिचय देते हुए लिखा है कि इक्ष्वाकुवंशमें आशाधर हुए, जो टक्कुर नामसे प्रसिद्ध थे और जिनवासन के भक्त थे। इनके 'नवउ' ठक्कुर नामका एक पुत्र हुआ, जिसकी पत्नीका नाम लोनावती था और जो सम्यक्त्व से विभूषित थी । इन्हीका पुत्र रूपचन्द्र हुआ, जिसके अनुरोधसे कविने शान्तिनाथचरित लिखा 1 ग्रन्थके पुष्पिका वाक्य में रूपचन्दका परिचय निम्न प्रकार दिया गया है
इक्ष्वाकूणां विशुद्ध जिनवर विभवाम्नाय समासे, तस्मादाशाधरीया बहुजनमहिमा जात जमालवंश 1 लीलालंकारमा रोद्भवविभवगुणासारखकारकुद्धेः 1 सुद्धिमिद्धार्थसारां परियणगुणी रूपचन्द्रः सुचन्द्रः ॥
afar के अन्तमें एक संस्कृत पद्यमें उसका रचनाकाल १४३६ दिया है । यह ग्रन्थ को नामक संवत्सर में फाल्गुन मासमें कृष्णतृतीया बुधवारको समाप्त हुआ है ।
आसीद्विक्रमभूगतेः कलियुगे शांनोत्तरे संगते, सत्यं कवननामधेयविपुले संवच्छ समते । दत्ते त्रयचतुर्दशे तु परमां पद्भिशके स्वांशके । मास फाल्गुण पूर्वपक्षक बुधे सम्यक् तृत्तीयां तिथौ ||
इससे स्पष्ट है कि शुभकीतिका समय निश्चितरूपसे वि० की १५वीं शताब्दी है और उनका शान्तिनाथचरित महाकाव्य है। इस ग्रन्थकं प्रारम्भ में ही महा
प्रवृद्धाचार्य एवं परम्पराणोकाचार्य: ४१३
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्याधित उपकरणांका निर्देश करते हुए, सब्दालंकार और अर्था-नारोंके साा गण, नैति और रसभावोंको महत्त्व दिया गया है। सिद्धान्त विषयोंक परिचय प्रसंगमें गणरभान, मार्गणा, ध्यान एवं तगोंका विवेचन किगा गया है। इगरी स्पष्ट है कि काव्य, सिद्धान्त और आचार इन तीनोंकी त्रिवेणी इस ग्रन्थमें पायो जाती है ।
टीकाकार नेमिचन्द्र नेमिचन्द्र नामके अनेक आचार्योका निर्देश जैन इतिहास प्राप्त होता है। गोम्मटमार और त्रिलोकसार आदि ग्रन्थोंके रचयिता सिद्धान्तचक्रवतीने नेमिचन्द्र और द्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्रके अतिरिक्त गोम्मटसारको जीवतत्त्वप्रदीपिकाके रचयिता नेमिचन्द्र भी उपलब्ध होते हैं। इनके अतिरिक्त विजयकीतिक शिष्य नामचन्द्र, जिनका समय विकी १८वीं शताब्दी है, निर्देश प्राप्त होता है। बलात्कारगण ईडर शाखाक पदापर नरेन्द्रकीत्तिके पश्चात् क्रमशः विजयकोति, नेमिचन्द्र और चन्द्रकीति भट्टारक हुए हैं। बलात्कारगणके आचार्योंमें श्रीधर शिष्य नेमिचन्द्रका उल्लेख प्राप्त होता है। श्रवणबेलगोलाके अभिटेखोम कोण रके अभिलेखमें बताया है
आ मुनिमुख्यन शिष्यं श्रीमच्चारित्रक्रिसुजनविलासं ।
भमिपकिरीटताडितकोमलनखरश्मिनेमिचन्द्रभनी ।। श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें नयकोतिके शिष्य नेमिचन्द्रका निर्देश मिलता है। अभिलेखसंख्या १२२ और १२४में नयोति सिद्धान्तदेवकी परम्परामें भानुकीति, प्रभाचन्द्र, माघनन्दि, पद्मनन्दि और नेमिचन्द्र के नाम आते हैं। ये अभिलेख शकसंवत् ११०३ और शकसंवत् ११२२के हैं। इससे नेमिचन्द्रका समय चि०सं० को १३वीं शताब्दी सिद्ध होता है। __ नेमिचन्द्र नामके एक अन्य भट्टारकः सहस्रकीर्तित शिष्यके रूपमें उल्लि. खित मिलते हैं। इनका समय वि०को १७वीं शताब्दी प्रतीत होता है । पट्टावलीमें नमिचन्द्रके गृहस्थवर्ष, दीक्षावर्ष और स्वर्गारोहणवर्षका उल्लेख है। बताया गया है कि सहस्रकीतिके पट्टपर वि० सं० १६५०को श्रावण शुक्ला त्रयोदशीको नेमिचन्द्रका पट्टाभिषेक हआ। ये ११ वर्षों तक भट्टारक पदपर आसीन रहे। संवत् १६५४की आषाढ़ कृष्णा एकादशीको अजमेरमें इनकी शिष्या बाई सवीराके लिए वसुनन्दिचावकाचारको एक प्रति लिखायी गयी | १. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक ९१, पद्य २३ । २. भट्टारक-सम्प्रदाय, लेखांक २८५ । ३. वसुनन्दि-श्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीट काशी, सन् १९४४, प्रस्तावना, पृ० १५ । ४१४ : तीर्थकर गहावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस समय दिल्ली-जयपुर शाखा में भट्टारक चन्द्रकीर्ति पट्टाधीश थे । नेमिचन्द्र लिए पाण्डवपुराण की भी एक प्रति लिखायी गयी थी । वि०सं० १६७२ फाल्गुन शुक्ला पञ्चमीको पाटणीगोत्र के भट्टारक ययःकीति रेवा नहर पट्टाश्री हुए, तथा १८ वर्ष तक पट्टपर आसीन रहें ।
इस प्रकार जैन साहित्य में कई नेमिचन्द्रों का उल्लेख प्राप्त होता है । गोम्मटसारको जीवत्यदीपिकाने टीकाकार को और इनकी गुरुपरम्परा क्या थी ? यह सब विचारणीय हैं। गोम्मटसार के कलकत्ता संस्क रणमें एक प्रशस्ति प्राप्त होती है, जिससे नेगिचन्द्रके संघ, गच्छ, गण आदिका परिचय प्राप्त होता है । प्रशस्ति में लिखा गया है
ויי
तत्र श्रीशारदागच्छे वसत्कारगणोज्ज्वयः । कुन्दकुन्दमुनीन्द्रस्य नन्द्याम्नायोऽपि नन्दतु ॥ यो गुणगुणमृदगोतो भट्टारकशिरोमणिः । भक्त्या नमामि तं भूवो गुरु श्रीज्ञानभूपणम् || कर्णाटप्रायदेशशमल्लिभूपालभक्तितः । सिद्धान्तः पाठितां येन मुनिन्द्रं नमामि तम् ॥ योऽभ्य धर्मवृद्धयर्थं मह्यं सूरिपदं ददौ । भट्टारकशिरोरत्नं प्रभेन्दुः स नमस्यते ॥ विविधविद्याविख्यातविशालकीर्तिसूरिणा । सहायोऽस्यां कृती कऽधीता च प्रथमं मुदा ॥ श्रीधर्मचन्द्रस्याभयचन्द्रगणेशिनः सूरे: वणिलालादिभव्यानां कृते कर्णाटवृत्तितः ॥ रचिता चित्रकूटे श्रीपार्श्वनाथालयेमुना । साधु सांगास साभ्यां प्रार्थितेन मुमुक्षुणा || गोम्मटसारवृत्तिहि नद्यादुभयैः प्रवत्तिता । शोधयन्त्वागमात् किंचिद्विरुद्धं चेत् बहुश्रुताः ॥ निर्ग्रन्थाचार्यवर्येण विद्यचक्रवर्तिना ।
1: L
संशोध्याभयचन्द्रंणालेखि प्रथमपुस्तिका ॥
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि संस्कृत जीवप्रदीपिकाटीकाके रचयिता मूलसंघ बलात्कारगण शारदागच्छ कुन्दकुन्दान्वय और नन्दि आम्नायके नेमिचन्द्र हैं ।
१. जैनसिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, १० ३९ ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २८८ ।
३. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पृ० २०९७-९८ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्थ : ४१५
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
ये ज्ञानभूषण भट्टारकके शिष्य थे। प्रभाचन्द्र भट्टारवाने इन्हें आचार्यगद प्रदान किया था। कर्नाटकके जैन गजा मल्लिभूपालक भक्तिवश इन्हें मुनिचन्द्रने सिद्धान्तशास्त्रका अध्ययन कराया था। श्रीलालावीके आग्रहसे ये गुर्जर देशसे आकर चित्रकूट जिनदास शाह द्वारा निर्मापित चैत्यालयमें ठहरे थे । यहां इन्होंने सूरिधी धर्मचन्द्र, अभयचन्द्र भद्रारक और लालावी आदि भव्य जीवोंके लिए खण्डेलवाल वंशके शाह साँगा और शाह सहेसकी प्रार्थनागर कर्नाटकीय बृत्तिके अनुसार जीवतत्त्वप्रदीपिकावृत्ति लिखी । इसकी रचनामें विद्यविद्यात्रिख्यातविशालकीर्तिसग्नेि सहायता की और उसे प्रथम बार हर्षपूर्वक पड़ा | अविध चक्रवती निग्रंन्याचार्य अभयचन्द्र ने उसका संशोधन करके उसकी प्रथम प्रति तैयार को श्री ।
अतः उपर्युक्त प्रशस्तिके अनुसार केदाबवर्गीकी कम्मड़ टोकाके आधारपर जीवाचप्रदीपिका टीकाके रचयिता नेमिचन्द्र हैं। इस टोकाके अन्तमं जो सन्धिवाक्य आते हैं, उनमें भी नेमिचन्द्रका उल्लेख है। यथा---'इत्याचार्यथोनेमिचन्द्रकृतायां मोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ'–यहाँ 'नेमिचन्द्रकृत्तायायां' यतिका विज्ञपण है, गोम्मटमारका नहीं। अतएव यहाँ गोम्मटसारके रचयित्ता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका भ्रम नहीं होना चाहिये ।
टीकाके प्रारम्भमें जो मंगलाचरण किया गया है, वह भी नेमिचन्द्र टीका. कारको सूचित करता है। टीकाकारने यहाँ श्लेप द्वारा अपना और अपने गुरुका नाम प्रस्तुत किया है । यथा
नेमिचन्द्रं जिन नरवा सिद्ध श्रीज्ञानभूषणम् ।
वृत्ति गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाटवृत्तितः ॥ केशववर्णीने गोम्मटसारकी कर्नाटकवृत्ति लिखी है। इस वृत्तिका नाम भी जीवतत्त्वप्रदीपिका है। केशववर्णीको ही कुछ लोग संस्कृत जीवतत्त्रप्रदीपिकाका रचयिता मानते हैं। पर डॉ० ए० एन० उपाध्येने केशबवर्णीको कन्नन टीका बत्तलायी है और इस टीकाके आधारपर नेमिचन्द्रने संस्कृत्तमें जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका लिखी है। कर्नाटकवृत्ति के रचयिता केशववर्णीके गुरु अभयचन्द्र सूरि सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। इन्होंने गोम्मटसारको वृत्ति शक संवत् १२८१ । वि०सं० १४१६ )में पूर्ण की है । स्थितिकाल
वृत्तिकार नेगिचन्द्रने अपनी प्रशस्तिमें समयका निर्देश नहीं किया है। केशवत्रीने अपनी कर्नाटक वृत्तिको शक संवत् १२८१ ( वि०सं० १४१६)में १. अनेकान्त वर्ष ४, किरण १, पृ० ११३ । ४१६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
समाप्त किया हैं। जीवतत्त्वप्रदीपिका कटक्रवृत्ति के अनुसरणपर लिखी गयी है। अत: उसका रचनाकाल वि०सं० १४१६के पश्चात् होना चाहिये। पण्डित टोडरमलजीने संस्कृत-जीवतत्त्वप्रदीपिकाके आधारपर हिन्दी-टीकाका निर्माण वि०सं० १८१८में किया है । अत्तः इन दोनों समय-सीमाओंके बीच में ही जीवतत्त्वप्रदीपिकाका रचनाकाल सम्मान है। ___टीकाकी प्रशस्तिमें कर्नाटप्रायदेशके स्वामी मल्लिभूपालका उल्लेख आया है। डॉ० ए० एन० उपाध्येने संस्कृत-जीवतत्त्वप्रदीपिकाका रचनाकाल ई० सन्की १६वीं शताब्दी बतलाया है । डॉ० उपाध्येने लिखा है-'जैन साहित्यके उद्धरणोंपर दृष्टि डालने। मुझे मालूम होता है कि मल्लिनामका एक शासक कुछ जैन लेखकोंके साथ प्रायः सम्पर्कको प्राप्त है। शुभचन्द्र-गविलीक अनुसार विजयकीति ( ई० सन् १६वीं शताब्दीके प्रारंभमें । मल्लिभपालके द्वारा सम्मानित हुआ था। विजयकीत्तिका समकालीन होनेसे उस मल्लिभूपालको १६वीं शताब्दीके प्रारम्भमें रखा जा सकता है। उसके स्थान और धर्म विषयका हमें कोई परिचय ज्ञात नहीं। दूसरे, विशालकात्तिके शिष्य विद्यानन्दिके विषयमें कहा जाता है कि ये मल्लिरायके द्वारा पूजे गये थे और ये विद्यानन्दि ई० सन् १५४१में दिवंगत हुए हैं । इससे भी मालूम होता है कि १६वीं शताब्दीके प्रारम्भमै एक मल्लिभूपाल था। हुम्मचका शिलालेख इस विषयको और भी स्पष्ट कर देता है। उसमें बताया गया है कि यह राजा जो विद्यानन्दिके सम्पर्क में था, सालुव मल्लिराय कहलाता था। यह उल्लेख हमें मात्र परम्परागत किंवदन्तियोंसे हटाकर ऐतिहासिक आधारपर ले आता है। सालुब नरेशोंने कनारा जिलेके एक भागपर राज्य किया है और वे जैनधर्मको मानते थे। मल्लिभूपाल मल्लिरायका संस्कृत किया हुआ रूप है । और मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नेमिन्द्र सालुवसयका उल्लेख कर रहे हैं। यद्यपि उन्होंने उनके वंशका उल्लेख नहीं किया है। १५३० ई०के लेखमें उल्लिखित होनेसे हम सालुव मल्लिरायको १६वीं शताब्दी के प्रथम चरणमें रख सकते हैं। और उसके विद्यानन्दि तथा विजयंकीत्ति विषयक सम्पकके साथ भी अच्छी तरह संगत जान पड़ता है। इस तरह नेमिचन्द्र के सालुव मल्लिरायक समकालीन होनेसे हम संस्कृत-जीवतत्त्वप्रदीपिकाको रचनाको ईसाकी १६वीं शताब्दी के प्रारम्भकी ठहरा सकते हैं।"
डॉ० उपाध्येके उक्त कथनसे स्पष्ट है कि टीकाकार नेमिचन्द्रका समय १६ वीं शती है। अब यह विचारणीय है कि प्रशस्ति और मंगलाचरणमें जिन ज्ञान१. अनेकान्त वर्ष ४, किरण १, पृ० १२० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४१७
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
भषणका उल्लेख आया है, उनके समयप' विचार करने से भी नेमचन्द्रकी तिथि ज्ञात की जा सकती है | जैन साहित्यमें मार ज्ञानभूषणोंका उल्लेख मिलता है। गक ज्ञान भपण भुवनकोतिक शिष्य है गरे नकीसिक शिम है, नीसरे वीरचन्द्र के शिष्य हैं और चौथे गोलभपण जिग्य । भवनकोनिमा लिप्य ज्ञानभषण बलात्कारगण रमाबाक भट्रारक थे । इन्होंने वन १९६८ म चारित्रयन्त्र, संवत् १५३५ में एक नयमिति और गंवा १:४२ में गुदपप्रभमतिवी प्रतिष्ठा करायी थी । वि० गं० .८८ नशातगणीची रचना' भी इन्हीं ज्ञानभूषणने की है। नन्दिपकी पट्टानला। कावा गचय दिया गया है। अतः भवनकत्तिके शिष्य ज्ञानभूपणही नांगयन्द्रका होगात है । जानपण गजरातके रहनेवाले थे और दक्षिण तथा उत्तरगः प्रशाम जयन्य थे। मचन्द्र भी गुजरातसे चित्रकूट गये थे।
नेमिचन्द्रको सूरिपद भट्रारक प्रभाचन्द्रने प्रदान किया था। यादिचन्द्रन विक्रम संवत् १५४० में पाश्वपुराण और वि० सं० १६४८ में ज्ञानमयोदय नाटक लिखा है। इन्होंने अपने गुरुका नाम भट्टारक प्रभाचन्द्र बतलाया है, साथ ही अपनेको ज्ञानभूषणका प्रशिष्य और प्रभावको शिष्य बताया है। इनके द्वारा रचित श्रीपालाख्यान नामक गुजराती ग्रन्थमें इनकी गुरुपरम्परामें विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र और वादिचन्द्र के माम आये हैं । अतः इस परम्पराके अनुसार तत्त्वज्ञानतरंगिणीके रचयिता भट्टारक ज्ञानभूषणके शिष्य भट्टारक प्रभाचन्द्र थे । इन्हीं प्रभाचन्द्र भट्टारकने नेमिचन्द्रको सूरिपद प्रदान किया था। अतः ज्ञानभूषण और प्रभाचन्द्रकी संगति नेमि'चन्द्रके साथ बैठ जाती है। अतएव टीकाकार नेमिचन्द्रका समय १६वीं शती सिद्ध होता है और जीवतत्त्वप्रदीपिकाका समाप्तिकाल ई० सन् १५१५ के लगभग आता है। श्री पं० नाथूराम प्रेमीने भी दीर निर्वाण संवत् २१७७-६०५ = १५७२ माना है। पर वे इसे शक संवत् मानते हैं, जो गलत है। यह विक्रम संवत् है, शक नहीं। इस प्रकार नेमिचन्द्रका समय ईस्वी सन्की १६वीं शतीका मध्य भाग है।
नेमिचन्द्रवी 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' नामक गोम्मटसारकी संस्कृत-टीका प्राप्त १. यदैव विक्रमातीताः शतपञ्चदशाधिकाः । षष्टिः संवत्सरा जातास्तदेयं निर्मिता कृतिः ।।
-तत्त्वज्ञान० कलकत्ता १९१६, १८०२३ । २. जैनसिद्धान्तभास्कर भाग १, किरण ४, पृ० ४३-४५ 1
४१८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
:
है । यह टीका कृत ही महत्वपूर्ण है । इसमें गम्भीर और कठिन विषयको अत्यन्त सरलतापूर्वक स्पष्ट किया गया है। सैद्धान्तिक विषयोंकी चर्चाके साथ ही साथ गणित संख्यात, असंख्यान, अनन्त, श्रेणि, जगत्प्रतर, घनलोक आदि या कपन है, उसे मनानियों द्वारा अंकसंदृष्टिके रूपमें स्पष्ट किया गया है | रामरन गूढ़ और gha fवपयोंका स्पष्टीकरण सम्यक्तया किया है । जीव और कवि प्रत्येक चर्चित विषयका सैद्धान्तिक रूपमें सुन्दर विवेचन किया है। टीकाके अध्ययन से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि टीकाकारको विषय, भाषा, गणित, सिद्धान्त, आचार आदिका स्पष्ट ज्ञान था ।
कलकी यह विशेषता है कि इसमें न तो अनावश्यक विस्तार है और अत्यधिक संकोच हो । विषयके विवेचनमें पर्याप्त सन्तुलन रखा गया है ।
इस टीका संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओक शताधिक उद्धरण प्रस्तुत किये गये । इन्होने मगन्तभद्राचार्य आप्तमीमांसा, विद्यानन्दके आप्तपरीक्षा, नामदेव के मस्तिक, नमिचन्द्रके त्रिलोकसार और आगाधरके अनगारधर्मात प्रभृति प्रयास अपने विपयकी पुष्टि के लिए उद्धरण दिये हैं। टीकामें बनिवृपभ, भूतवली, समन्तभद्र, भट्टाकलंक, नेमिचन्द्र, माधवचन्द्र, अभयचन्द्र और कंगवर्णी आदि ग्रन्थकारोंक नामोंका भी निर्देश किया है ।
यह राज्य है कि यह संस्कृत टीका न होती, तो पं० टोडरमलजी गोम्मटसारका रहस्योद्घाटन नहीं कर पाते। केशववर्णीकी कर्णाटक वृत्तिका आश्रय लिया गया है।
मुनि महनन्दि
भुनि महनन्दिभट्टारक वीरचन्दके शिष्य थे । ये अपने युग अत्यन्त प्रतिष्ठित साहित्यकार थे । इनके द्वारा विरचित 'बारहखड़ी दोहा' या 'पाहुड दोहा ' ग्रन्थ प्राप्त हैं | इसमें ३३३ दहे हैं । इन्होंने ग्रन्थके आदिमं अपने गुरुका नाम उल्लेख किया है
बारह विउणा जिण नवमि किय वारह अक्खरकक्क । मह्यंदिण भवियायण हो, णिसुणहु श्रिरमण थक्क || भत्र दुक्खह निव्विणएण, वीरचन्द सिस्से | भवियह पडिनोहण कथा, दोहा कव्वमिसेण || उपलब्ध पाण्डुलिपिके अन्त में निम्नलिखित ग्रन्थ-प्रशस्ति पायी जाती है" संवत् १६०२ वर्षे वैशाख सुदि १० तिथी रविवासरे उत्तराफाल्गुनक्षत्रे । राजाधिराज साहि आलम राये | नगर चंपावतीमध्ये श्रीपार्श्वनाथचैत्यालये ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषाचार्य: ४१०
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमूलसंघे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे भट्टारक श्रीकुंदकुंदाचार्यन्वये । भट्टारक श्रीपद्यनन्दिदेवास्तत्पटे भट्टारक श्रीशुभचन्द्रदेवास्तपट्टे भट्टारकश्रीजिनचन्द्रदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीप्रभाचन्द्रदेवस्तच्छिष्य मंडलाचार्य श्रीधर्मचन्द्रदेवास्तदाम्नाये ।"
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि यह पाण्डुलिपि वि० सं० १६०२ में तैयार की गयी है । यह प्रति चम्पावतीके पाश्वनाथके चैत्यालय में लिखी गयी है । महनन्दिने अपना विशेष परिचय नहीं दिया है और न इस ग्रन्थ के लिखनेका काल ही दिया है। भट्टारक वीरचन्द्र, जिनको इन्होंने अपना गुरु माना है वह भी निश्चितरूपसे कौन वीरचन्द्र हैं, यह नहीं कहा जा सकता है। बलात्कारगण संघ सूरत- शाखाके भट्टारकोंमें भट्टारक लक्ष्मीचन्द्रके दो शिष्यों के नाम आते हैं— अभयचन्द्र और वीरचन्द्र । वीरचन्द्रका समय एक मूर्तिलेख के आधारपर १६ वीं शताब्दी प्रतीत होता है । यदि इन्हीं वीरचन्द्रके ये शिष्य हों, तो महनन्दिका समय भी १६ वीं शतीका उत्तरार्द्ध होना चाहिये । महनन्दि मुनि थे, भट्टारक नहीं । अतएव वीरचन्द्रकी पट्टावली में इनके नामका उल्लेख न होना स्वाभाविक ही है । अतः हमारा अनुमान है कि लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य वीरचन्द्र ही इनके गुरु हैं और इनका समय वि० सं० की १६ वीं शताब्दी है ।
रचना
महनन्दिकी एक ही रचना प्राप्त है— पाहुडदोहा। यह रचना बाहरखड़ीके क्रमसे लिखी गयी है । इस बारहखड़ीमें य, श, ष, ङ, ञ और ण इन वर्णोंका समावेश नहीं किया है और न इन वर्णोंपर कोई दोहा ही लिखा गया है । इसमें ३३३ दोहे हैं, जिनकी संख्याकी अभिव्यञ्जना कविने विभिन्न रूपों में की है ।
एक्कु या रु प शारदह ङ ण तिन्निवि मिल्लि । चवीस गल तिणिसय, विरइए, दोहा वेल्लि ॥ ४ ॥ तेतीसह छह छंडिया, विरइय सत्तावीस | बारह गुणिया तिष्णिसय, हुअ दोहा चउबीस ॥ ५ ॥ सो दोहा अप्पाणयहु, दोहो जोण मुणेइ ।
मणि महामंदिण भासिय, सुणिविण चित्ति धरे ॥ ६ ॥
यह रचना उपदेशात्मक, आध्यात्मिक और नीति सम्बन्धी है । कविने छोटेछोटे दोहोंमें सुन्दर भावका गुम्फन किया है । स्थापत्यकी दृष्टिसे भी इसका कम महत्त्व नहीं है । बारह खड़ी शैलीमें कविने दोहोंका सृजन किया है। प्रत्येक दोहे के आरम्भ में क, का, की, कि, कु- कू, के, कै, को, कौ कं कः तथा ख खा, खी, खि, खु, खू, खे, खे, खो, खो, खं खः के क्रमसे दोहों का सृजन किया
1
४२० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
गया है । विषय आरम्भ करते समय कवि अहिंसाकी महत्ताका निरूपण करते हुए कहता है कि संसार में समस्त धर्मका सार अहिंसा है । अतएव प्राणीको हिंसक आचरण द्वारा इस संसार में निमग्न नहीं होना चाहिये | अहिंसाका आचरण व्यक्ति के जीवनको उन्नत बनाता है, भावोंको विशुद्ध करता है और निर्वाण मार्ग की ओर ले जाता है । कविने लिखा है
किजइ जिणवर भासिय, धम्मु अहिंसा सारु । जिम छिनइ रे जीव तुहु, अवलीढउ संसारा ॥ ९ ॥
कवि आत्माकी अमरता और शरीर की नश्वरताका चित्रण करता हुआ कहता है कि जिस प्रकार दूधमें घी, तिलमें तेल और काष्ठमें अग्नि रहती है, उसी प्रकार शरीरमें आत्मा निवास करती है । अतएव जो क्षुद्र भावोंकी त्यागकर स्वभाव धारण करता है, वही तप, व्रत और संयम धारण कर कर्मोंका क्षय करता है। जो ध्यान द्वारा कर्मोंका क्षपण करता है, बहू सात-आठ या दो-तीन भवमें मुनिपद प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है । कवि व्रत, संयम, नियम और तपपर विशेष जोर देता है। वस्तुतः जो आराधक सम्यक्त्वको प्राप्त कर व्रत और संगम द्वारा अपनी आत्माको पवित्र करता है, वह शीघ्र हो निर्वाणपद पाता है । कवि शरीरप्रमाण सर्वांगीण आत्माकी सिद्धि करता हुआ कहता है-
खीरह मज्झइ जेम घिउ, तिलठ मंज्झि जिम तिलु 1 कहि वास जिम वसई, तिम देहहि देहिल्लु || २२ || खुददभाव जिय परिहहिं सुहभाव हि मणुदेहि । तव वर्याणमहिं संजमह, दुक्किय कम्म खबेहि ॥ २३ ॥ स्वणाम वंदणि पडि कर्माण, झाण सयण मकरीसि । सतह दुहु-तिहि भवहि, मुणिणिव्वाणु लहोसि ॥ २४ ॥ आचार्य ने बताया है कि जो व्यक्ति जीवनपर्यन्त इन्द्रियनिग्रह, दया,
·
उसके मरण करनेमें कोई हानि
संयम, नियम और तपका आचरण करता है, या कष्ट नहीं है । इस मनुष्यपर्यायका उद्देश्य व्रत और संयम धारण करना है । यदि जीवन में व्रत और संयमकी प्राप्ति हो गयी, तो यह मनुष्यपर्याय सार्थक हो जाती है । जीवनका अन्तिम लक्ष्य आत्मशुद्धि है, जो व्यक्ति इस आत्मशुद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है, वह मनुष्यभवको सार्थक कर लेता है । दमुदय संजमु पियमुतउ, आजं मुवि किउ जेण ।
1
तासु मर तह कवण भऊ कहियउ महइदेण ॥ १७५ ॥ आचार्यने दानके चार भेद बतलाये हैं— जीवदया, आहारदान, औषधदान
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ४२१
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
और विद्यादान । जो श्रावक इन चारों दानोंको देता रहता है, वह अपने कर्मोकी शीन्न निर्जरा कर लेता है । गृहस्थाबस्थामें दान, पूजन और स्वाध्याय ही कर्मक्षयका कारण है । लिखा है
दाणु चउविह जिणवरह, कहियउ सावय दिज्ज ।
दय जीवई चउसंघहवि, भोयण कसह विज ॥ १७६ ॥ इसी प्रकार समाविमरणके सम्बन्धमें लिखते हुए कविने पण्डितमरणको श्रेष्ठ बताया है
बाल मरण मुणि परिहरहि, पंडिय मरणु मरेहि ।
बारह जिण सासणि कहिय, अणुवेक्खउ सुमरेहि ॥ २२६ ।। कत्रिने ग्रन्थको समाप्त करते हुए लिखा है
जो पदइ पहावई संभलइ, दचिणु दवि लिहाबइ । मयंद, भणं सो निनुलर, अवावद् सोक्नु परावइ ।। ३३३ ।।
गुणचन्द्र भट्टारक गुणचन्द्र मूलसंघ सरस्वतीगन्छ बलात्कारगणके भट्टारक रत्नकीतिके प्रशिध्य और भट्टारक यश कीतिक शिष्य थे। यशःकीति अपने समयके अच्छे बिद्वान हैं । पट्टावलीमें यश कीतिका उल्लेख निम्न प्रकार आया है
श्रीरत्नकोतिपदपुष्करालिरादेष्टमुख्यो यशकीतिरिः ।।
पदी भजामि सुहृवेष्टमूतिर्देदीप्याता को मुनिचक्रवर्ती ॥ ३८ ॥ भट्टारक-सम्प्रदायके लेखक जोहरापुरकरके अनुसार भानपुर-शाखाके भट्टारकोंमें रत्कीतिका समय वि० सं० १५३५, यश-कीतिका समय १६१३ और गुणचन्द्रका समय वि०सं० १६३०-१६५३ बताया गया है । गुणचन्द्रका पट्टाभिषेक साँवला गाँवमें हुआ था। इनका स्वर्गवास सागवाड़ामें वि० सं० १६५३में हुआ है। एक ऐतिहासिक पत्रमें बताया है-'तेणानो पादे गाम साबले... समस्त संघ मिली आचार्य गुणचन्द्र स्थापना करवानी सं० १६५३ वर्षे आचार्यश्री गुणचन्द्रजी सागवाडे काले करयो ।" ___ गुणचन्द्रके पश्चात् इस पट्टपर सकलचन्द्र भट्टारक पट्टाधीश हुए हैं। भट्टारक गुणचन्द्र संस्कृत और हिन्दी भाषाके विद्वान् और कवि हैं। इनका समय वि० की १७ वीं शताब्दी हैं । यशःकीर्तिका स्वर्गवास वि० सं० १६१३ में हुआ था
और इसके पश्चात् भट्टारक गुणकीर्ति उनके पट्टपर आसीन हुए। ऐतिहासिक १. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ४०१ । २. वहीं, लेम्झांक ४०५ ।
४२२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्र भोतिके सहारक होनेयः, यही समय दिया है। लिखा है-"पीछे संवत् १६१३ वर्षे जसकीति ये वागड़ माहे गाम भीलोडे काल करयो तेणानेपाटे गाम सावले पछोरी खाता पछोरी छा छादी समस्त संघ मीली आचार्य गुणचन्द्र स्थापना करवाने" । अतएव भट्टारक गुणचन्द्रका समय वि० सं० १६१३-१६५३ है। रचनाएं
भट्टारक गुणचन्द्रकी संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओंमें रचनाएं पायी जाती हैं | इनको निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध हैं---
१. अनन्तनाथपुजा ( संस्कृत ) २. मौनवतकथा , ३. दयारसरास (हिन्दी) ४. राजमतिरास ५. आदित्यव्रतकथा ६. बारहमासा ७. बारहवत ८. विनती ९. स्तुति नेमिजिनेन्द्र .. १०. ज्ञानचेतनानुप्रेक्षा , ११. फुटकर पद ,
अनन्तनाथपूजा-कविने इसे वि० सं० १६३० में हुम्मड़वंशी सेठ हरग्लुचन्द दुर्गादास नामक वणिककी प्रेरणासे सागवाड़ाके आदिनाथ मन्दिर में रहकर उन्हींके व्रत-उद्यापनार्थ रचना की गयी है। इस रचनामें अनन्तनाथ भगवानकी पूजा और बिधि अंकित है । इस पूजाके अन्तमें कृतिका रचनाकाल एवं कविने अपनी गुरुपरम्परा अंकित की है। लिखा है
संवत् षोडशत्रिशतैष्यपलके पक्षेवदाते तिथौ पक्षत्यां गुरुवासरे पुरजिनेट श्रीशाकमार्गे पुरे । श्रीमन्दु बड़वंशपद्मसविता हर्षास्यदुर्गी वणिक्
सोयं कारितवाननंतजिनसत्पूजां बरे वाग्वरे ।। मौनव्रतकथा-मौनवत्तकथामें मौनव्रतका महत्त्व बतलानेके लिए कथा १. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १६, किरण २, पृ० ११४ । २. अनेकान्त, वर्ष १७, किरण ४, पृ० १८९ । ३. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ४०४ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४२३
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंकित की गयी है । यह कृति भाव, भाषा और शैलीको दृष्टिसे साधारण है।
हिन्दी रचनाओंमें राजमतिरास, दयारसरास ही महत्त्वपूर्ण हैं | शेष रचनाएँ सामान्य है। इनकी भाषापर गुजराती प्रभाव स्पष्ट है। राजमतिरासमें २०४ पद्य हैं और दयारसरासमें ९५ । राजमतिरासमें २२खें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ और राजमतिका जीबन अंकित किया गया है। नेमिनाथ की विरक्तिके पश्चात् राजुलका विरह मार्मिक रूपमें चित्रित हुआ है। राजुल आत्मशक्ति एकत्र कर स्वयं तपस्विनी बनती है। इस रासमें राजुल और सस्तीका संवाद बहुत ही मार्मिक है | सखी कहती है
तव सखि भणइ न जानसि भावा, रुति असाढ कामिनि सरु लावा । वादर उडि रहे चहुँ देसा, विरहनि नयन भरइ अलिकेसा ॥ इस प्रकार कविकी रचनाएँ जनसामान्यको तो प्रभावित करती ही है, द्वानोंक की प्रेरणा देता है। य.वि वि. सं० १६३९, की मार्गशीर्ष शुक्ला एकमको षड़ावश्यककी एक प्रति अपने डूगराको दी थी।
नरेन्द्रसेन नरेन्द्रसेन नामके कई आचार्य हुए हैं, पर हमें 'प्रमाणप्रमेयकलिका' के रचयिता नरेन्द्रसेनका व्यक्तित्व और कृतित्व उपस्थित करना अभीष्ट है। एक नरेन्द्रसेनका उल्लेख वादिराजने अपने न्यायविनिश्चयकी अन्तिम प्रशस्तिमें किया है । वादिराजने इनकी गणना विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, पूज्यपाद, दयापाल, सन्मतिसागर, कनकसेन, अकलंक और स्वामी समन्तभद्रकी श्रेणी में की है। वादिराजका समय ई० सन् १०२५५ है, अतः नरेन्द्रसेन इनके पूर्ववर्ती हैं । । दूसरे नरेन्द्रसेन वे हैं, जिनको गुणस्तुति मल्लिषेण सूरिने नागकुमार चरितकी अन्तिम प्रशस्तिमें की है।
तस्यानुजश्चारुचरित्रवृत्तिः प्रख्यातकीर्तिभुवि पुण्यमूर्तिः ।
नरेन्द्रसेनो जितवादिसेनो विज्ञाततत्त्वो जिसकामसूत्रः ।। मल्लिषेणने इन नरेन्द्रसेनको जिनसेनका अनुज बतलाया है और उन्हें उज्ज्वल चरित्रका धारक, प्रख्यातकीर्ति, पुण्यमूर्ति, वादिविजेता, तत्त्वज्ञ एवं कामविजयोके रूपमें वर्णित किया है। वादिराज और मल्लिषेण दोनों समकालीन हैं । अतएव दोनोंके द्वारा उल्लिखित नरेन्द्रसेन एक ही व्यक्ति हो सकते हैं। १. अनेकान्त, पृ० १९० से उद्धृत । २. प्रशस्तिसंग्रह, वीरसेवा मन्दिर, दिल्ली, पृ० ६१ । ४२४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाघार्यपरम्परा
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
i
'
तृतीय नरेन्द्रसेन "सिद्धान्तसारसंग्रह' और 'प्रतिष्ठादीपक' के रचयिता हैं । प्रशस्तियों में उनकी उपाधि पण्डिताचार्य प्राप्त होती है। ये नरेन्द्रसेन अपनेको वीरसेनका प्रशिष्य और गुणसेनका शिष्य बतलाते हैं । इनके सम्बन्धमें पहले लिखा जा चुका है।
चौथे नरेन्द्रसेन काष्ठासंघ के लाइबागडगच्छकी पट्टावलीमें उल्लिखित हैं । इन्होंने अल्पविद्याजन्य गर्वसे युक्त अशाधरको सूत्रविरुद्ध प्ररूपणा करनेके कारण अपने गच्छसे निकाल दिया था। ये नरेन्द्रसेन पद्मसेनके शिष्य थे। पट्टाबली में गुरु-शिष्योंकी लम्बी परम्परा दी गयी है। इसमें त्रिषष्टिपुराणपुरुष चरितकर्त्ता महेन्द्रसेन, चतुर्दशतीर्थंकर्त्ता अनन्तकीति, उसनस्थीविजेता विजयसेन, लाडवागडगच्छके जन्मदाता चित्रसेन, पद्मसेन और नरेन्द्रसेन के नाम आये हैं। पट्टावलीसे यह भी अवगत होता है कि पद्मसेनशिष्य नरेन्द्रसेन प्रभावशाली विद्वान् थे । इनके द्वारा बहिष्कृत किये गये आशाधरको श्रेणिगच्छमें जाकर आश्रय लेना पड़ा था । पूर्वे नरेन्द्रसेन वे हैं, जिनका उल्लेख वीतरागस्तोत्रमें उसके कर्ताके रूपमें हुआ है
श्रीजेनसूरि-विनत-क्रमपद्मसेनं,
हेला - विनिर्दलित- मोह- नरेन्द्रसेनम्' ।
इस स्तोत्र में पद्मसेनका भी उल्लेख है। ये दोनों आचार्य स्तोत्रकर्ता द्वारा गुरुरूपसे स्मृत किये गये है। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार ने इस स्तोत्रका रचयिता कल्याणकीर्तिको बतलाया है । स्तोत्रमें पद्मसेन और नरेन्द्रसेनका उल्लेख होनेसे ये चतुर्थं नरेन्द्रसे भिन्न नहीं हैं ।
छट्ठे नरेन्द्रसेन संस्कृत-रत्नत्रयपूजाके कर्ता हैं। इस पूजाके पुष्पिकावाक्य में लिखा है" इति श्री लाडवागडीयपण्डित्ताचार्य श्रीमन्नरेन्द्रसेन विरचिते - रत्नत्रयपूजाविधाने दर्शनपूजा समाप्ता ।"
सिद्धान्तसारके कर्ता नरेन्द्रसेनकी उपाधि भी पण्डिताचार्य है तथा वे भी लाडवागङगच्छके आचार्य है । अतः बहुत सम्भव है कि ये दोनों व्यक्ति अभिन्न हों ।
१. तदन्वये श्रीमत्लाटव टप्रभावश्रीपद्मसेनदेवानां तस्य शिष्य श्री नरेन्द्रसेन देवैः किंचिदविद्यागत असून प्ररूपणादाशाधरः स्वगच्छान्निः सारितः कदामहृग्रस्त' श्रेणिगच्छमशिश्रियत् । —भट्टारक सम्प्रदाय, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, लेखांक ६३२ २. अनेकान्स वर्ष ८, किरण - ६-७ ० २३३ ।
३ भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० २५३, लेखांक ६३३ ।
२८
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४२५
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
७वें नरेन्द्रसेन सेनगण पुष्करगण्छकी गुरुपरम्परामें छत्रसेन के पट्टाधिकारी हुए हैं । इन्होंने शक संवत् १६५२ में कमलेश्वर ( नागपुर ) के एक जिनमन्दिर में ज्ञानयंत्रकी प्रतिष्ठा करायी थी ।
श्रीमज्जैनमते पुरन्दरनुते श्रीमूलसंघे वरे श्रीशूरस्थगणे प्रतापसहिते सभूपवृन्दस्तुते | गच्छे पुष्कर नामके समभवत् श्रीसोमसेनो गुरुः तत्पट्टे जिनसेनसम्मतिरभूत धर्मा मतादेशकः ||१|| तज्जोऽभूद्धि समन्तभद्रगुणवत्तु शास्त्रार्थ पारंगतः तत्पट्टोदयतर्कशास्त्रकुशलो ध्यानप्रमोदान्वितः । मद्विद्यामृतवर्षणैकजलद: श्रीछत्रसेनो गुरुः तत्पट्टे हि नरेन्द्रसेनचरणी संपूजयेऽहं मुदा ॥२॥ इस उद्धरण से स्पष्ट है कि इसमें छत्रसेनको 'तर्कशास्त्रकुशल' और दादागुरु समन्तभद्रको 'शास्त्रार्थपारंगत ः ' कहा गया है । अतएव छत्रसेनके शिष्य नरेन्द्रसेन तर्कशास्त्री विद्वान् थे |
इनके एक शिष्य अर्जुनसुत सोयराने शक संवत् १६७३ में 'कैलास उप्पय'की रचना की है, जिसमें इन्हें 'वादिविजेता' और सूर्य के समान 'तेजस्वी' कहा गया है ।
तस पट्टे सुखकारनाम भट्टारक जानो । नरेन्द्रसेन पट्टधार तेजे मार्त्तण्ड बखानो । जीतो बाद पवित्र नगर चम्पापुर माहे । करियो जिनप्रासाद ध्वजा गगने जइ सोहे ||२६||
प्रमाणप्रमेयकलिका इन्हीं छत्रसेन के शिष्य नरेन्द्रसेन की है ।
'यशोधरचरित' और 'नरेन्द्रसेनगुरुपूजा' में अंकित इनकी गुरुपरम्परामें सोमसेन, जिनसेन, समन्तभद्र, छत्रसेन और नरेन्द्रसेन के नाम आते हैं । काष्ठासंघ - मन्दिर, अंजनगांवको विरुदावलीमें विस्तृत गुरुपरम्परा मिलती है—
"निखिलतार्किकशिरोमणि श्रीसोमसेन - माणिक्यसेन- गुणभद्र-अभिनवसोमसेन भट्टारकाणाम् तत्पट्टे निखिलजन रंजनगुणात्मविद्या निधिश्री जिनसेन भट्टारकाणाम् । तदन्वये श्रीसमन्तभद्र भट्टारकाणाम् तशे श्रीछत्रसेनभट्टारकाणाम् तत्पट्टे श्रीमन्नरेन्द्र सेन भट्टारकाणाम् स्वस्ति श्रीमद्राय राजगुरुश्रीमदभिनव
१. नरेन्द्रसेन गुरुपूजा, उद्धत म० सम्प्रदाय, पू० २०, लेखांक ६६ ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ६९ ।
४१६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
शान्तिसेन तपो राज्याभ्युदयसमृद्धथर्थम् "" ।
▸
इस विरुदावली में सोमसेनसे पूर्व गुणभद्र, वीरसेन श्रुतवीर, माणिक्यसेन, गुणसेन, लक्ष्मीसेन, सोमसेन (प्रथम), माणिक्यसेन (द्वित्तीय), गुणभद्र (द्वितीय) के नाम आये हैं और उक्त सोमसेनको अभिनव सोमसेन कहा गया है । नरेन्द्रसेन के बाद उनके पट्टपर बैठनेवाले शान्तिसेनका भी निर्देश आया है । अतएव इस विरुदावलिसे भी नरेन्द्रसेनके गुरु छत्रसेन और दादागुरु समन्तभद्र सिद्ध होते हैं ।
नरेन्द्रसेन के दो शिष्यों के नाम भी मिलते हैं - १. शान्तिसेन २ अर्जुनसुत सोयरा । शान्तिसेन नरेन्द्रसेनके पट्टाधिकारी हुए । अजु नसुत सोयरा गृहस्थ थे, इन्होंने कैलाश छप्पयकी रचना की है।
नरेन्द्रसेन के समय और व्यक्तित्वपर विचार करते हुए डॉ० प्रो० दरबारी लाल कोठियाने लिखा है
'नरेन्द्रसेनका समय प्राय: सुनिश्चित है । इन्होंने विक्रम संवत् १७८७ में ज्ञानयन्त्रकी प्रतिष्ठा करवायी थी और विक्रम संवत् १७९० में पुष्पदन्तके 'जसहरचरित' की प्रतिलिपि स्वयं की थी । अतः इनका समय वि० सं० १७८७१७९० ( ई० सन् १७३० - - १७३३ ई०) है २ ।
रचना
नरेन्द्रसेनकी प्रमाणप्रमेयकलिका न्यायविषयक रचना है। इसमें प्रमाणत स्वपरीक्षा और प्रमेयतत्त्वपरीक्षा निबद्ध की गयी हैं। प्रमाण और प्रमेयका विस्तारइस प्रश्नपूर्वक विचार किया गया है । मङ्गलाचरणके पश्चात् तत्त्व क्या है, का उत्तर देते हुए लिखा है- 'यतस्तत्वपरिज्ञानाभावान्म तदाश्रिता मीमांसा प्रमाणकोटि कुटी रकमटाट्यते । आधारपरिज्ञाने आधेयपरिज्ञानाभावात् । अथ भवतु नाम नामतः सिद्धं किंचित्तत्त्वम्, यतस्तत्त्वं सामान्येनाभ्युपगम्य पश्चाद्विचार्यते, तत्त्वसामान्ये केषांचिद्विप्रतिपत्त्यभावात्' ।'
इस उत्थानिकाके पश्चात् इस प्रकरण में प्रभाकरके 'ज्ञातृव्यापार', सांख्ययोगके 'इन्द्रियवृत्ति', जरन्नैयायिक भट्ट जयन्तके 'सामग्री' अपरनाम कारकसाकल्य और योगोंके 'सन्निकर्ष प्रमाणलक्षणोंकी परीक्षा कर स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानको प्रमाणका निर्दोष लक्षण सिद्ध किया है। ज्ञानके कारणोंपर विचार करते हुए इन्द्रिय और मनको ज्ञानका अनिवार्य कारण बतलाया है। ज्ञानोत्पत्तिमें कारण
१. भट्टारक परम्परा, सोलापुर, लेखांक ७६ ।
२. प्रमाण- प्रमेयकलिका, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावना, पृ० ५९
३. प्रमाणप्रमेयकलिका, पू० १ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ४२७
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
माने जानेवाले अर्थ एवं आलोककी सोपपत्तिक समीक्षा की है। प्रमाणका फल और उसका प्रमाणसे कथञ्चित् भिन्नभिन्नत्व सिद्ध किया गया है। बौद्धके अविसंवादी ज्ञानको समालोचना कर उसे व्यवसायात्मक स्वीकार किया है। ज्ञानके अस्वसंवेदी-स्वसंवेदी मतोंपर भी विचार किया है।
प्रमेयतत्त्वमें सांख्योंते सामान्यका, गौड के विशेष लक्ष शेशिदोंने परस्पर निरपेक्ष सामान्यविशेषोभयका और वेदान्तियोंके परमब्रह्मका विस्तारपूर्वक परीक्षण किया है । बौद्धोंके निर्विकल्पक प्रत्यक्षकी भी आलोचना की है। प्रमेयको सामान्य-विशेषात्मक सिद्ध किया गया है। यह लघुकाय ग्रन्थ प्रमाण और प्रमेप सम्बन्धी विषयोंकी दृष्टिसे विशेष उपादेय है।
मलयकीर्ति मलयकोति नामके दो भट्टारकोंका उल्लेख प्राप्त होता है । एक मलयकीर्ति भट्टारक यशःकीतिके शिष्य हैं । इनके सम्बन्धमें यन्त्रलेख और मूर्तिलेख उपलब्ध हैं। इन्होंने वि०सं० १५०२में एक यन्त्र' तथा वि०सं० १५१०में एक मूर्ति स्थापित की थी। इन मलयकोतिके पश्चात् गुणभद्र भट्टारक हुए। इनके आम्नायमें अग्रवाल जिनदासने सं० १५१०में डूंगरसिंहके राज्यकालमें समयसारकी एक प्रति लिखवायी। सं० १५१२में गुणभद्रने पञ्चास्तिकायकी एक प्रति ब्रह्मधर्मदासको दी।
दूसरे मलयकीति भट्टारक धर्मकीतिके शिष्य हैं। धर्मकीतिके तीन शिष्य हुए-हेमकीति, मलयकीति और सहस्रकीर्ति । ये तीनों ही गुजरात प्रदेशमें विहार करते रहे। मलयकीर्तिके पट्टशिष्य नरेन्द्रकोर्ति हुए। इन्होंने कलबुरगाके पिरोजसाहको सभामें समस्यापूर्ति करके जिनमन्दिरका जीर्णोद्धार करानेकी अनुज्ञा प्राप्त की तथा प्रस्तरीमें राजा बैजनाथसे सम्मान पाकर पाश्र्वनाथमन्दिरमें सहस्रकूट-जिनमन्दिरकी स्थापना की। १. संवत् १५०२ वर्षे कातिक सुदि ५ भोमदिने श्रीकाष्ठासंघभ. श्री गुणकीतिदेवाः
तत्प? श्रीयशकीतिदेवाः तत्पट्ट धीमलकीतिदेवान्वये साहु बरदेवा तस्य भार्या जैणी।
भट्टारक सम्प्रदाय, आभ० ५६३ । २. संवत् १५१० माघ सुदि १३ सौमे श्रीकाष्ठासंघे आचार्य मलयकोतिदेवाः तयो प्रति
ष्टितम् । भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ५६४ । ३. वही, लेखांक ५६५ । ४. वही, लेखांक ५६६ । ५, वही, लेखांक ६४० ।
४२८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तुत मलयकीति अनेक विषयोंके पण्डित थे। इनके दादागुरु त्रिभुवनकीर्ति थे और गुरु धर्मकीति । धर्मकीर्तिके समय वि०सं० १४३१में केसरियाजी तीर्थक्षेत्रपर विमलनाथमन्दिरका निर्माण हुआ। मलयकीर्ति काष्ठासंघ पुन्नाट, लाडबागडगच्छके आचार्य हैं। दिल्लीके साह फैरूने वि०सं० १४९३में श्रुतपञ्चमी-उद्यापनके निमित्त मूलाचारको एक प्रति मलयकीतिको अपित्त की। इस ग्रन्थकी प्रशस्ति ऐतिहासिक दृष्टिसे विशेष महत्त्वपूर्ण है। इसमें श्रुतधर, सारस्वत और प्रबुद्धाचार्योंके नाम आये हैं। प्रशस्तिमें अङ्गपूर्वादिके पाठी आचार्योंका उल्लेख करनेके पश्चात् धरसेन, भूतबलि, जिनपालित, पुष्पदन्त और समन्तभद्रादिके नाम बागडसंघकी पट्टावलिमें परिगणित किये हैं। इन आचार्योके अतिरिक्त सिद्धसेन, देवसूरि, वज्रसूरि, महासेन, रविषेण, कुमारसेन, प्रभाचन्द्र, अकलंक, बीरसेन, आंग्रेससम, जिनसेन, बायसेन, रामसेन, माधवसेन, धर्मसेन, विजयसेन, सम्भवसेन, दायसेन, केशवसेन, चारित्रसेन, महेन्द्रसेन, अनन्तकीर्ति, विजयसेन, जयसेन और केशवसेनके नाम भी उल्लिखित हैं।
प्रशस्तिमें यह भी बताया है कि वि० सं० १४२३ में योगिनीपुर (दिल्ली)के पास बादशाह फिरोजशाह तुगलक द्वारा बसाये गये फेरोजाबाद नगरमं, जो उस समय धन-धान्यसे परिपूर्ण था, अग्रवाल वंश, गर्ग गोत्री साह लाख निवास करता था। उसकी प्रेमवती नामकी पत्नी थी, जो पातिव्रतादि गुणोंसे अलंकृत थी । इनके दो पुत्र थे साहू खेतल और मदन । खेतलको धर्मपत्नीका नाम सरो था। इस पत्नीसे खेतलको फेरू, पल्ह और बीधा नामक तीन पुत्र हुए। इन तीनोंकी काकलेही, माल्हाही और हरिचन्दही नामकी क्रममः धर्मपत्नियाँ थीं। खेतलके द्वितीय पुत्र पल्लूके मण्डन, जाल्हा, घिरीया और हरिश्चन्द्र नामके चार पुष उत्पन्न हुए। इस परिवारके सभी व्यक्ति विधिवतजैनधर्मका पालन करते और आहार, औषध, अभय और ज्ञान दानादि चारों दानोंका उपयोग करते थे । साहू खेतलने गिरिनगरका यात्रोत्सब किया । साहू फेरूकी धर्मपत्नीने अपने स्वामीसे अनुरोध किया कि श्रुतपञ्चमीका उद्यापन कराइये। इसे सुनकर फेरू अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने मूलाचार नामक ग्रन्थ श्रुतपञ्चमीके निमित्त लिखाकर मुनि धर्मकीर्ति के लिए अर्पित किया । इन धर्मकीतिके स्वर्ग चले जानेपर उक्त ग्रन्थ यम-नियममें निरत तपस्वी मलयकोतिको सम्मानपूर्वक अर्पित किया गया । मलयकोतिने उक्त ग्रन्थकी प्रशस्ति लिखी है। यह प्रशस्ति ऐतिहासिक दृष्टिसे बहुत उपयोगी है। प्रशस्तिमें ३६ पद्य हैं और पद्योंके मध्यमें गद्यांशका भी उपयोग किया गया है।
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६३७ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४२९
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रशस्तिका निर्माणकाल वि० सं० १४९३ है । अतएव मलयकीर्तिका समय विक्रमकी १५वीं शताब्दी है । मलयकीर्तिने एलदुग्गके राजा रणमलको उपदेश देकर तरसुम्बामें मूलसंघका प्रभाव कम किया तथा शान्तिनाथको विशाल मूर्ति स्थापित की। बताया है
" तत्पट्टे भ० श्रीमलयकोतिदेवानां निजबोधनशक्तितः एलदुग्गाधीश्वर राजश्री रणमल्ल प्रतिबोध्य तरसु बानगरे केकापिछायान हटान् महाकायश्री शांतिनाथस्य प्रासादः कारितः । "
मलकीर्ति द्वारा लिखित रचनाओंमें केवल मूलाचारको प्रशस्ति ही अभी तक उपलब्ध है । इस प्रशस्तिके प्रारम्भ में ही लिखा है
'मूलाचार पुस्तकस्य प्रशस्ति चकार मलयकीतिः' तथा अन्तिम पद्मोंमें धर्मकीर्ति और उनके शिष्योंका परिचय भी इन्होंने लिखा है। बताया हैश्रीधर्मकीर्ति बने प्रसिद्धिस्तत्पट्ट रत्नाकरचंद्र रोचिः । षट्तकत्ता गतमानमायक्रोधारिलोभोऽभवदत्र पुण्यः ॥ तस्य पादसरोजालिगु णमूर्तिर्विचक्षणः । मलयोत्तरकीतिर्वा मुदं कुर्याद्दिगम्बरः ।। हेमकी तिगुणज्येष्ठो ज्येष्ठो मत्तः कुशाग्रधीः । धर्मध्यानरतः शान्तो दान्तः सुनृतवाग्यमी ॥ ततोऽनुजी मुनींद्रस्तु सहस्रो त्तरकीर्तियुक् । गुर्जरीं जगतीं शास्तो द्वौ यती महिमोदयौ ॥ वयं त्रयोऽपि धीमन्तः साधीयांसो निरेनसः । धर्मकी भगवतः शिष्या इव रेवः करः ॥
श्रुतकीर्ति
भट्टारक श्रुतकीर्ति नन्दिसंघ बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छके विद्वान् हैं | यह भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिके प्रशिष्य और त्रिभुवनकोर्तिके शिष्य थे । श्रुतकीर्ति सुलेखक, चिन्तक और प्रभावक विद्वान् हैं । इन्होंने अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है।
श्रुतकीर्तिका समय उनकी रचनाओंके आधारपर विक्रम संवत्को १६वीं शती सिद्ध होता है । इनकी रचनाओंमें हरिवंशपुराण सबसे बड़ा है । जैन सिद्धान्तभवन आरामें उसकी पाण्डुलिपि वि०सं० १५५३की है, जो मण्डपाचलदुर्ग के
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६३९ ।
२. अनेकान्त, वर्ष १३, किरण ४, पृ० ११०, श्लोक २१–२५ ।
४३० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुल्तान गयासुद्दीनके राज्यकालमें दमोवा देशके जोरहट नगरके महाखान और भोजखानके समयमें लिखी गयी है। ये महास्नान और भोजखान जोरहट नगरके सूबेदार जान पड़ते हैं। इतिहाससे स्पष्ट है कि सन् १४०६ में मालवाके सुबेदार दिलवरखाको उसके पुत्र अलफखाने विष देकर मार डाला था और मालवाको स्वतन्त्र उद्घोषित कर स्वयं राजा बन गया था । इसकी उपाधि हशंगशाह थी। इसने माण्डवगढ़को सुदृढ़ कर अपनी राजधानी बनाया था। उसीके वंशमें शाह गयासुद्दीन हुआ। जिसने माण्डवगढ़से मालबाका राज्य वि० सं० १५२६ से १५५५ तक किया। इसके पुत्रका नाम नसीरशाह था । भट्टारक श्रुतकीर्तिने जेरहट नगरके नेमिनाथचैत्यालयमें हरिवंशपुराणको रचना वि० सं० १५५२ माघ कृष्णा पञ्चमी सोमबारके दिन हस्तनक्षत्रमें की है।
संवतविक्कमसेण-नरेसह, साहिगयासुपयावअसेसई । णयरजेरहटजिणहरु चंगउ, णेमिणाहजिबिंबु अभंगउ। गंथसउण्णु तत्त्थ इह जायउ, चविहसंसूणिसुणिअणुरायउ । माकिण्हपंचमिससिबारई, हत्थणखत्तसमत्तुगुणालई ।
ग' राउणु गाउ दिन, कमरामि मित्त जं उत्तउ । भ. श्रुतकीतिने वि०सं०१५५२में धर्मपरीक्षाकी भी रचना की है। 'परमेष्ठी प्रकाशसार'की रचना भी वि० सं० १५५३ को श्रावण मास पञ्चमीके दिन हुई है। इस समय गयासुद्दीनका राज्य था और उसका पुत्र राज्यकार्यमें अनुराग रखता आ । पूज्यराज नामके वणिक उस समय नसीरशाहके मन्त्री थे।
दहपणसयतेवण गयवासइ, पुण विक्कमणिवसंवच्छ रहे तह सावण मासह गुरुपंचमि,
सहु गथु पुण्णु तय सहस तहे ।। योगसार ग्रन्थकी प्रशस्तिसे भी अवगत होता है कि इस ग्रन्थको रचना भी वि० सं० १५५२ मार्गशीर्ष शुक्ल पक्षमें हुई है। अतएव यह स्पष्ट है कि भट्टारक श्रुतकीतिका समय वि० सं० की १६वीं शती है | रचनाएँ
भ० श्रुतकीत्ति बहुश्रुतज्ञ विद्वान् हैं। इनके द्वारा लिखित निम्नलिखित कृतियाँ उपलब्ध हैं१. अनेकान्त, वर्ष १३, किरण ११-१२, पृ० २७९ । २. वही, पृ. २८० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४३१
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. हरिवंशपुराण, २. धर्मपरीक्षा, ३. परमेष्ठीप्रकाशसार,
४. योगसार। १. हरिवंशपुराण
हरिबंशपुराण बृद्काय रचना है । इसमें ४७ सन्धियाँ हैं और २२वें तीर्थकर भगवान् नेमिनाथका जीवनचरित अंकित है। प्रसंगवश इसमें श्रीकृष्ण आदि यदुवंशियोंका संक्षिप्त जीवन परिचय भी आया है। यह ग्रन्थ काव्य, सिद्धान्त, आचार आदि सभी दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है। २. धर्मपरीक्षा ___ इस ग्रन्थमें १७९ कड़वक हैं । इसमें पौराणिक मान्यताओंकी व्यंग्यशैलीमें समीक्षा की गयी है। ३. परमेष्ठीप्रकाशसार ___ इस ग्रन्थकी पाण्डुलिपि आमेर-भण्डारमें सुरक्षित है। इसमें तीन हजार पद्य हैं और ग्रन्थ सात्त परिच्छेदोंमें विभक्त है। ४. योगसार ___ यह प्रन्थ दो परिच्छेदों या सन्धियोंमें विभक्त है। इसमें गृहस्थोपयोगी सैद्धान्तिक बातोपर प्रकाश डाला गया है। साथ ही कुछ मुनिचर्याका भी उल्लेख किया है। श्रुतकोत्ति अपने समयके उद्भट विद्वान् थे और ग्रन्धरचना करने में प्रवीण थे।
धर्मकीर्चि भट्टारक परम्परामें धर्मकीसि नामके चार भट्टारकोंका निर्देश प्राप्त होता है। एक धर्मकीर्ति त्रिभुवनकोतिके शिष्य हैं, जिनका निर्देश मलयकीर्तिके प्रसंगमें किया जा चुका है। दूसरे धर्मकीति बलात्कारगण नागौर शाखामें भवनकीतिके शिष्य है। इन धर्मकीतिक सम्बन्धमें पट्टावलीमें बताया गया है कि ये वि०सं० १५९० चैत्र कृष्णा सप्तमीको पट्टारूढ़ हुए और दश वर्ष तक पट्टपर रहे। ये जातिसे सेठी थे। वि०सं० १६०१की फाल्गुन शुक्ला नवमीको इन्होंने एक चन्द्रप्रभकी मूर्ति स्थापित की थी। बताया है
"संवत् १५९० चैत्र वदि ७ भ० धर्मकीतिजी गृहस्थ वर्ष १३, दीक्षा वर्ष ३१, पट्ट वर्ष १०, मास १, दिवस २०, अंतर मास १, दिवस १०, सर्व वर्ष ४३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५, मास १ दिवस ४, जाति सेठी, पट्ट अजमेर" ॥
तीसरे धर्मकीर्ति सिंहकीर्तिके शिष्य है । बलात्कारगण अटेर शाखाका प्रारम्भ सिंहकीर्ति से होता है । ये सिंहकीति मट्टारक जिनचन्द्रके शिष्य थे । इन्होंने वि०सं० १५२०की आषाढ़ शुक्ला सप्तमीको एक महावीरमूर्ति प्रतिष्ठापित की थी। सिंहकीर्तिके बाद धर्मकीर्ति और उनके पश्चात् शीलभूषण भट्टारक हुए ।
चतुर्थ धर्मकीर्ति ललितकीर्तिके शिष्य हैं। ये बलात्कारगण जेरहट शाखाके आचार्य हैं। इस शाखाका प्रारम्भ भट्टारक त्रिभुवनकीन होता है । ये भट्टारक देवेन्द्रकीतिकं शिष्य थे । त्रिभुवनकीतिके पश्चात् क्रमशः सहस्रकीर्ति, पद्मनन्दि, यशः कीर्ति, ललितकीति और धर्मकीर्ति भट्टारक हुए । धर्मकीतिने संवत् १६४५ माघ शुक्ला पञ्चमीको एक मूर्ति संवत् १६६९ चैत्र पूर्णिमाको एक चन्द्रप्रभुमूर्ति तथा एक पार्श्वनाथमूर्ति और संवत् १६७२ वैशाख शुक्ला पञ्चमीको एक नन्दीश्वरमूर्ति स्थापित की। अभिलेख निम्न प्रकार है"सं० (१६) ४५ माघ सुदि ५ श्रीमूलसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० यशकीर्तिपट्टे भ० ललितकीति पट्टे भ० श्रीधर्मकीर्ति उपदेशात् पौरपट्टे छितिरा मूर गोहिलगोत्र साधु दीनू भार्या ॥"
X
X
X
"संवत् १६६९ चैत सुद १५ रवौ मूलसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० यशोकीर्ति तत्पटुट्टे भ० ललितकीति तत्पट्टे भ० धर्मकीर्ति उपदेशात्॥"
Xx
x
X
x
X
"संवत् १६६९ चैत सुदी १५ रवी भ० ललितकीर्ति भ० धर्मकीर्ति तदुपदेशात् सा० पदारथ भार्या जिया पुत्र दो खेमकरण पमायेता नित्यं नमति । "
X
X
x
X
" संवत् १६७१ वर्षे वैसाख सुदि ५ मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० यशकीर्ति तत्पट्टे भ० ललितकीति तत्पट्टे भ० धर्मकीति उपदेशात् पौरपट्टे सा० उदयचंदे भार्या उदयगिरेन्द्र प्रतिष्ठा प्रसिद्ध ||"
यही धर्मकीति ग्रन्थरचयिता होनेके कारण इस प्रस्तुत सन्दर्भमें उल्लेख्य हैं । ये मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके आचार्य थे। इनकी दो रचनाएँ उपलब्ध हैं | प्रथम रचना पद्मपुराण वि०सं० १६६८ में सावन महीनेकी तृतीया शनिवार के दिन मालव देशमें पूर्ण की गयी है। और हरिवंशपुराण वि०
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २८० ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २२५-२२८ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४३३
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
|
संवत् १६७१ आश्विन कृष्णा पञ्चमी रविवार के दिन पूर्ण हुआ है । ग्रन्थरचनाके कालका उल्लेख करते हुए बताया है
वर्षे द्व्यष्टशते चैकाग्रसप्तत्यधिके रवी । आश्विने कृष्णपंचम्यां ग्रंथोय रचितो मया ॥
,
इससे स्पष्ट है कि धर्मकीर्तिका समय वि० की १७ वीं शताब्दी है । इन धर्मकीर्ति उपदेशसे वि०सं० १६८१ माघ शुक्ला पूर्णिमा गुरुवार के दिन पार्श्वनाथकी मूर्ति प्रतिष्ठित की गयी थी और इन्हीके उपदेशसे वि०सं० १६८२ मार्गशीर्ष वदीको षोडशकारणयन्त्रको प्रतिष्ठा की गयी है । अतएव धर्मकीर्तिका यश जैनसंस्कृतिके प्रचार और प्रसारकी दृष्टिसे भी कम नहीं है ।
धर्मकीतिकी दो रचनाएँ उपलब्ध हैं- पद्मपुराण और हरिवंशपुराण | पद्मपुराणकी रचना रविषेणके पद्मचरितके आधारपर की गयी है। मूल कथामें कुछ भी परिवर्तन नहीं किया है ।
हरिवंशपुराण में भी रखें तीर्थंकर नेमिनाथका चरित अंकित है । रचनाओमें मौलिकताको अपेक्षा अनुकरण ही अधिक प्राप्त होता है ।
भद्रबाहुचरितके रचयिता रत्नकीर्ति या रत्ननन्दी
जैन साहित्य में रत्नकीति नामके आठ आचार्य उपलब्ध हैं। एक रत्नकीर्ति अभयनन्दीके शिष्य हैं। इनका समय वि० की १७वीं शती है । ये बलात्कारगण सूरत शाखाके आचार्य थे । तीर्थंकर महावीरके निम्नलिखित मूर्तिलेखसे इनका संक्षिप्त परिचय प्राप्त होता है-
"सं० १६६२ वर्षे वैसाख वदो २ शुभदिने श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री अभयचन्द्रदेवाः तत्पट्टे भ० श्री अभयनन्द तच्छिष्य आचार्य श्रीरत्नकीर्ति तस्य शिष्याणी बाई वीरमती नित्यं प्रणमति श्रीमहावीरम्"। इस अभिलेखसे स्पष्ट है कि मूलसंघ सरस्वत्तीगच्छ बलात्कारगण कुन्दकुन्दाचार्यान्वयमें रत्नकीर्ति हुए हैं । इनके गुरुका नाम अभयनन्द और दादागुरुका नाम अभयचन्द्र है ।
दूसरे रत्नकीति जिनचन्द्रके शिष्य हैं। बलात्कारगण नागौर शाखाका आरंभ भट्टारक रत्नकीर्तिसे होता है। ये जिनचन्द्रके शिष्य थे। इनका पट्टाभिषेक वि० सं० १५८१ श्रावण शुक्ला पञ्चमीको हुआ था । तथा आप २१ वर्षों तक पट्टपर आसीन रहे । पट्टावलीमें बताया है---
१. सं० स०, लेखांक, ५२९ 1
२. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ५२२ ।
४३४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
"संवत् १५८१ श्रावण सुदि ५ भ० रत्नकोतिजी गृहस्थ वर्ष ९, दीक्षा वर्ष ३१, पट्ट वर्ष २१ मास ८ दिवस १३, अन्तर दिवस ५ सर्व वर्ष ६१ मास ८ दिवस १८ पट्ट दिल्ली।"
तीसरे रत्नकीर्ति भट्टारक देवेन्द्रकीतिके शिष्य हैं। इनका समय विक्रम संवत् १९५३ के पूर्व है, क्योंकि रत्नकोतिका स्वर्गवास अचलपुरमें वि० सं० १९५३में हो चुका था।
चौथे रलकीति धर्मचन्द्रके शिष्य हैं। भद्रारक सम्प्रदाय ग्रन्थ में धर्मचन्द्रका भट्टारक काल वि० सं० १२७१-१२९६ और भट्टारक रत्नकीर्तिका वि० सं० १२९६-१३१० माना है। रत्लकीति वि० सं० १२९६ भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशीको पट्टारूढ़ हुए थे 1 ये १४ वर्ष तक पट्टपर आसीन रहे । ये हूँवड जातिके थे और अजमेरके निवासी थे। ___ पांचवें रलकीति लक्ष्मीसेनके गुरु हैं । छठे रत्नकीति सुरेन्द्रकोतिके शिष्य हैं । ये वि० सं० १७४५ में पट्टाधीश हुए। इनका गोधा गोत्र था और काला डहराके निवासी थे । सातवें रत्नकीर्ति ज्ञानकोतिके शिष्य हैं। ये बलात्कारगणभानपुर शाखाके आचार्य हैं। इन्होंने वि० सं० १५३५ में नवर्गांवम दीक्षा ग्रहण की थी।
"रत्नकीति हता तेणे सं० १५३५ वर्षे श्रीनोगामे दीक्षा लीधी हती त्यारे रत्नकोतिने भट्टारक पदवी आपवानु स्थापन करी । __ आठवें रत्नकोति ललितकीतिके शिष्य हैं। ललितकीतिक दो शिष्य थेधर्मकीर्ति और रत्नकीर्ति । धर्मकीर्ति वि० सं० १६४५ से १६८३ तक पट्टपर आसीन रहे हैं। एक यन्त्र अभिलेखमें ललितकीतिके पट्टपर मण्डलाचायं रत्लकीतिके आसीन होनेका संकेत प्राप्त होता है । यन्त्र अभिलेखमें बताया है--
“संवत् १६७५ पोह सुदि ३ भौमे श्रीमूलसंधे भ० ललितकीति तत्प मंडलाचार्य श्रीरलकीर्ति तत्पट्टे आचार्य श्रीचन्द्रकीति उपदेशात् साहु रूपा भार्या पता..||" xx
"संवत् १६८१ वरषे चैत्र सुदी ५ रवी श्रीमूलसंघे भ० श्रीललितकीर्ति तत्प? मंडलाचार्य श्रीरत्नकीति तत्पट्टे आचार्य चंद्रकीर्तिस्तदुपदेशात गोलापूर्वान्वये खागनाम गोत्रे सेठीभानु भार्या चन्दनसिरी"||" १. वही, लेखांक २७७ । २. ऐतिहासिक पत्र, जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १३, पृ० ११३ । ३. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ५३९, ५४० ।
प्रबुजाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४३५
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
भद्रबाहुचरितमें ग्रन्थरचयिताने जो अपनी प्रशस्ति अंकित की है, उसमें अपने गुरुका नाम ललितकीर्ति बताया है। प्रशस्तिमें लिखा है-प्रतिवादीरूपी गजराजके मदको नष्ट करनेके लिए केसरीकी उपमासे युक्त है, जो शीलपीयूषका जलधि है और जिसने उज्ज्वल कीर्तिसुन्दरीका आलिंगन किया है, उन्हीं अनन्तकीति आचार्यके विनेय और अपने शिक्षागुरु श्री ललितकीति मुनिराजका ध्यान कर मैंने इस निर्दोष चरितग्रन्थका संकलन किया है ।
वादीमेन्द्रमदप्रमदनहरेः शीलामृताम्भोनिधेः
शिष्यं श्रीमदनन्तकीतिगणिनः सत्कोतिकान्ताजुषः । स्मृत्वा श्रीललितादिकोर्तिमुनिपं शिक्षागुरुं सद्गुणं
चक्र चारुचरित्रमेतदनचे रलादिनन्दी मुनिः ॥ विचार करनेपर भद्रबाहुचरितके रचयिता रत्नकीर्ति पूर्वोक्त सभी रत्नकीर्तियोंसे भिन्न प्रतीत होते हैं, क्योंकि रत्ननन्दी या रत्नकीर्तिके गुरु ललितकोतिं थे और उनके दादागुरु अनन्तकीर्ति थे। बलात्कारगण जेरहट शाखामें रत्लकीर्तिके गुरु ललितकीर्ति तो अवश्य उपलब्ध होते हैं, पर दादागुरु अनन्तकीर्ति न होकर यश कीर्ति हैं। अतः ग्रन्थकी प्रशस्तिके साथ उसका समन्वय घटित नहीं होता है। अतएव अनन्तकोतिक प्रशिष्य और लालतकार्तिक शिष्य रलनन्दी या रत्नकीर्ति कोई भिन्न व्यक्ति हैं। स्थितिफाल
भद्रबाहुचरितमें उसके रचनाकालका उल्लेख नहीं है, पर ग्रन्थमें लुकामतको समीक्षा की गयी है । इस समीक्षा-सन्दर्भमें बताया है
मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते । दशपञ्चशतेऽब्दानामसीते शृणुताऽपरम् ।। लुङ्कामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मणः ।
देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजिनिर्जरे । अर्थात् महाराज विक्रमकी मृत्युके पश्चात् १५२७ वर्ष बीत जानेपर गुजरात देशके अणहिल नगरमें कुलुम्बीवंशीय एक महामानी लुका नामक व्यक्ति हुआ। इसने लुकामत-इढ़ियामतका प्रादुर्भाव किया । इस उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि ग्रन्थकार वि० सं० १५२७ के पश्चात् हुआ है। तभी उसने इस ग्रन्थमें १. भद्रयाहु चरित्र, प्रकाशक मूलचन्द किसनदास कापड़िया, दिगम्बर जैन पुस्तकालय,
गांधी चौक, सूरत, श्लोक १७५ । २. श्रीभद्रबाहुचरित, सर्ग ४, श्लोक १५७-१५८ । ४३६ : तीथंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
लुकामतकी समीक्षा की है। इससे स्पष्ट है कि भद्रबाहुचरितके रचयिता रत्ननन्दीका समय विक्रमकी १६वीं शतीका उत्तरार्द्ध है। रचना
रत्ननन्दी या रत्लकीर्तिकी एक ही रचना उपलब्ध है— भद्रबाहुचरित । इसमें चार परिच्छेद या सर्ग हैं और भदबाहका जीबनवत्त वर्णित है। प्रथम परिच्छेदमें १२९ पद्य हैं और इसमें भद्रबाहुके बाल्यकाल, शिक्षा, पाण्डित्य, वाद-विवाद शक्ति आदिका वर्णन किया गया है। बताया गया है कि गोबर्धनाचार्य विहार करते हुए पुण्ड्रवर्द्धन देशके कोट्टपुर नगरमें पधारे, वहाँ सोम शर्म नामक द्विजके पुत्र भद्रबाहुको एकके ऊपर एक गोली रखकर, इस प्रकार धतुर्दश गोलियां चढ़ाते हुए देखा और अपने ज्ञानबलसे उसे भावी श्रुतकेवली जानकर आत्रार्य बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने द्विजकुमारसे उसका परिचय पूछा और वे उसके माता-पिताके पास पहुंचे। माता सोमश्री और पिता सर्व मुनिराजको अपने यहाँ आया हुआ देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्हें आसन देकर प्रार्थना को कि प्रभो ! अपने आनेका कारण बतलाइये । गोबर्द्धनाचार्यने उत्तर दिया, भद्र ! यह तुम्हारा पुत्र भद्रबाह समस्त विद्या में पारंगत होगा; अतएव मैं इसे अपने साथ शिक्षाप्राप्तिके लिए ले जाना चाहता है। आचार्य के वचन सुनकर सोमशर्म बहुत प्रसन्न हआ और उसने उनको अपने पुत्रको सौंप दिया । गोबर्द्धनाचार्य भद्रबाहुको अपने साथ ले गये और उसे व्याकरण, साहित्य, न्याय, सिद्धान्त आदि विषयोंका अध्ययन कराया। भद्रबाहुने गोबर्द्धनाचार्यसे समस्त शास्त्रोंका अध्ययन किया। विद्या समाप्त कर वे गुरुके आदेशसे अपने घर लौट आये। तदनन्तर संसारमें जैनधर्मके उद्योतकी इच्छासे उन्होंने परिभ्रमण किया और राजा पपधरकी सभामें अनेक विद्वानोंको पराजित कर जैनधर्मका प्रभाव स्थापित किया । भद्रबाहके तेजसे प्रभावित होकर राजा पमधर भी जैन हो गया। इस प्रकार भद्रबाहुने अनेक स्थानों में अपनी विद्याका महत्व प्रदर्शित किया । कुछ समयके पश्चात् भद्रबाहुको सांसारिक सुख नीरस प्रतीत होने लगे । अतएव वह अपने माता-पितासे आदेश प्राप्त कर गोबद्धनाचार्य की शरणमें गया और प्राथना कि प्रभो! कर्मोको नाश करनेवाली पवित्र दीक्षा मुझे दीजिये। गोबर्द्धनाचार्यने भद्रबाहुको निर्ग्रन्थ-दीक्षा प्रदान की । कुछ दिनोंके पश्चात् गोबर्द्धनाचार्य ने भद्रबाहुको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया।
द्वितीय परिच्छेदमें बताया है कि गोबर्द्धनाचार्यने चार प्रकारके आहारके परित्यागपूर्वक चारों प्रकारको आराधनाओंको ग्रहण किया । कुछ समय पश्चात् समाधिपूर्वक उन्होंने शरीरका त्याग किया । भद्रबाहु अपने संघको लेकर विहार
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४३७
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
करते हा उज्जयिनी में पधारे। इस नगरीमें उस समय चन्द्रगुप्त राजा अपनी चन्द्रधी महिपोके माथ निवास कर रहा था ! उसने रात्रिके पिछले भागमें १६ स्वप्न देखे और इन स्वप्नोंका फल जानने के लिए वह आकुलित था। जब उसे भद्रबाहके ससंघ पधारनेका समाचार प्राप्त हुआ तो वह आचार्यके संघका दर्शन करने गया और वहीं पर अपने स्वप्नोंका फल उनसे जाना। स्वप्नोंका फल अवगत करते ही चन्द्रगुप्तको विरक्ति हो गयी और उसने भद्रबाहु गुरुसे जिनदीक्षा ग्रहण कर ली।
एक दिन आचार्य भद्रबाहु जिनदाम सेठके धरपर आहार करनेके लिए पधारे। उनके यहाँ एक निर्जन कोष्टमें साठ दिनकी आयुवाला एक बालक पालने में झूल रहा था, वह मुनिराजको देखकर कहने लगा-जाओ, जाओ। बालकके अद्भुत वचन सुनकर मुनिराजने पूछा-वत्स । कितने वर्ष तक ? बालकने कहा १२ वर्षपर्यन्त । बालकके इन वचनोंसे मुनिराजने समझा कि मालवदेवामें १२ वर्षपर्यन्त मीषण दुभिधा पड़ेगा। अत: वे अन्तराय समझकर अपने स्थानपर वापस लौट आये। उन्होंने संघके समस्त मुनियोंको एकत्र कर कहा कि अब इस देशमें रहना उचित नहीं है, अतएव दक्षिण भारतको ओर प्रस्थान करना चाहिये वहींपर हमारी चर्या सम्पन्न हो सकेगी। रामल्य, स्यूलाचार्य और स्थूलभद्रादि साधुओंको छोड़ शेष सभी साधु-संघ दक्षिणको ओर विहार कर गया। __ तृतीय परिच्छेदमें बताया है कि भद्रबाहुस्वामी विहार करते हुए किसी सधन अटबीमें पहुँचे। वहाँ उन्हें आकाशवाणी सुनायी पड़ी, जिससे उन्होंने समझा कि अब उनकी आयु बहुत कम शेष रह गयी है। अतएव उन्होंने विशाखाचार्यको संघका माचार्य नियत किया और स्वयं वहींपर शेलकन्दसमें संन्यास ग्रहण कर लिया । चन्द्रगुप्त मुनि आचार्य भद्रबाहुकी सेवाके लिए वहींपर रह गये और शेष संघ विशाखाचार्यको अध्यक्षतामें दक्षिणकी ओर गया।
चन्द्रगुप्त मुनिकी चर्या वहीं पर वन-देवताओं द्वारा सम्पादित होने लगी।
चतुर्थ परिच्छेदमें विशाखाचार्यका संघ मालवदेशमें लोट आता है। और रामल्य, स्थूलभद्र तथा स्थूलाचार्य शिथिलाचार्य बनकर नये सम्प्रदायका प्रचार करते हैं । इस परिच्छेदमें अर्जुफालक सम्प्रदाय, श्वेताम्बरमत,लु कामत आदिकी समीक्षा की गयी है ।
इस प्रकार इस काव्यमें पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित्त भद्रबाहके चरितको निबद्ध किया है। रत्ननन्दीने स्वयं स्वीकार किया है कि मैं गुरुओंसे प्राप्त इस भद्रबाहुचरितको लिखता हूँ४३८ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
शक्तया होनोऽपि वक्ष्येऽहं गुरुभक्तया प्रणोदितः ।
श्रीभद्रबाहचरित यथा ज्ञातं गुरूक्तित्तः ॥ रत्ननन्दीका यह ग्रन्थ पुराणशैलीमें लिखा गया है, जिससे अध्येताओंका मन सहज रूपमें रम जाता है। चन्द्रगुप्त और भद्रबाहुके इतिहास प्रसिद्ध आख्यानको मागमें स्थान दिया गया है !
श्रीभूषण थीभूषण नामके दो भट्टारकोंका परिचय प्राप्त होता है। एक श्रीभूषण भानुकीतिके शिष्य हैं। पट्टावलीमें इनका परिचय देते हुए लिखा है
"संवत् १७०५ आश्विन सुदी ३ श्रीभूषणजी गृहस्थ वर्ष १३ दीक्षा वर्ष १५ पट्ट वर्ष ७ पाछे धर्मचन्द्रजी नै पट्ट दियो पार्छ १२ वर्ष जीया संवत् १७२४ ताई जाति पाटणी पट्ट नागौर"।। ___अर्थात् वि०सं० १६९०में भानुकोति पट्टारूढ़ हए और १४ वर्ष तक पट्ट पर आसीन रहे। इनके शिष्य भट्टारक श्रीभूषण वि०सं० १७०५ आश्विन शुक्ला तृतीयाको पट्टाधीश हुए और १९ वर्ष तक पट्ट पर प्रतिष्ठित रहे। इनका गोत्र पाटणी था। पद प्राप्तिके ७ वर्षके पश्चात वि०सं० १७१२ चैत्र शुक्ला एकादशीको अपने शिष्य धर्मचन्द्रको भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित किया था।
दूसरे थीभूषण विद्याभूषणके शिष्य हैं। ये काष्ठासंघी नन्दीतटगच्छके आचार्य थे। संवत् १६३४ में श्वेताम्बरोंके साथ इनका विवाद हुआ था, जिसके परिणाम स्वरूप श्वेताम्बरोंको देश त्याग करना पड़ा था । इनके पिताका नाम कृष्णशाह और माताका नाम माकुही था। __ "माकुही मात कृष्णासाह तात श्रीभूषण विख्यात दिन दिनह दिवाजा वादीगजघट्ट दीयत सुथट्ट न्यायकुहट्ट दीवादीव दीपाया।"
इन्होंने वादीचन्द्रको बादमें पराजित किया था।
श्रीभूषणको उपाधि षभाषाविचक्रवर्ती थी। ये सोजिना ( भंडौंच ) को काष्ठासंघकी गद्दीके पट्टधर थे। श्रीभूषणके शिष्य भट्टारक चन्द्रकीर्ति द्वारा विरचित पाचपुराण ग्रन्थ उपलब्ध है। इस गन्यमें चन्द्रकीर्तिने अपने १. भद्रबाहुचरिवम् , श्लोक ६ । २. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २९१ । ३. वही, लेखांक ६८१ । ४. वही, लेखांक ६८८ ।
प्रयुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४३९
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
i
गुरु विश्वभूषणको सच्चारित्र, तपोनिधि, विद्वानोंके अभिमानशिखरक तोड़ने वाला वज्र, स्याद्वादविद्याप्रवीण बतलाया है और लिखा है कि उनके आगे गुरु (बृहस्पति) का गुरुत्व नहीं रहा, उष्णा ( शुक्राचार्य ) की बुद्धिको भी कोई प्रशंसा नहीं ।
स्थिति काल
श्रीभूषण ने संवत् १६३६ में पार्श्वनाथकी एक मूर्ति स्थापित की | वि०सं० १६६० में पद्मावती की मूर्ति, वि०सं० १६६५ में रत्नत्रययन्त्र एवं वि०सं० १६७६ में चन्द्रप्रभु मूर्तिको स्थापना की है । अतएव भट्टारक श्रीभूषणका समय विक्रमकी १७वीं शताब्दी है । इन्होंने शान्तिनाथपुराणकी रचना भी वि०सं० १६६९ में की है।
रचनाएँ
श्रीभूषण की कई रचनाएँ होनी चाहिये। क्योंकि ये अपने युगके बहुत बड़े विद्वान् थे | अभी तक इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं-
१. शान्तिनाथ पुराण, २. द्वादशांगपूजा, ३. प्रतिबोधचिन्तामणि ।
१. पुराण
शान्तिनाथपुराण में १६ वें तीर्थंकर शान्तिनाथका जीवनचरित्र वर्णित है । कथावस्तु १६ सर्गों में विभक्त है । शान्तिनाथपुराणमें जो प्रशस्ति दी गयी है उसमें काष्ठासंघके नन्दीतटगच्छके आचार्योकी गुरुपरम्परा समाविष्ट है । इस परम्परामें रामसेनके अन्वयनें क्रमसे नेमिसेन, धर्मसेन, विमलसेन, विशालकीर्ति, विश्वसेन, विद्याभूषण और श्रीभूषणके नाम दिये गये हैं । प्रशस्तिका कुछ भाग निम्न प्रकार है
काष्ठासंघावगच्छे विमलतरगुणे सारनंदीतटांके ख्याते विद्यागणं वै सकलबुधजनैः सेवनीये वरेण्ये । श्रीमच्छी रामसेनान्वयतिलकसमा नेम (म) सेना सुरेन्द्राः भूयासुस्ते मुनीन्द्रा व्रतनिकरयुता भूमिपैः पूज्यपादाः ॥ ४५६ ॥
X
X
X
X
भूषणो
विद्याभूषणपट्टकंजतरणिः श्रीभूषणो जीयाज्जीवदयापरो गुणनिधिः संसेवितो सज्जनैः ॥
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६८२ ।
४४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
काष्ठासंघ सरित्पत्तिः शशधरो वादी विशालोपमः सद्व्रतोऽकंवरातिसुंदरतरो श्रीजेनमार्गानुगः ॥४६१ ॥ संवत्सरे षोड़शनामधेये एकोनशत षष्टियुते वरेण्ये | श्रीमार्गशीर्षे रचितं मया हि शास्त्रं च वर्षे बिमले विशुद्धं ॥ ४६२ || त्रयोदशीसद्दिवसे विशुद्धं वारे गुरौ शान्तिजिनस्य रम्यं । पुराणमेतद्विमलं विशालं जीयाच्चिरं पुण्यकरं नराणाम् ॥४६३ ॥
२. द्वादशांगपूजा द्वादशांगपूजा में
वर्णित है।
अर्चे आगमदेवतां सुखकरां लोकत्रये नीराज्यप्रतिकारकैः क्रमयुगं संपूज्य विद्याभूषणसद्गुरो पदयुगं मत्वा कृतं सच्छ्रीभूषणसंज्ञकेन कथितं ज्ञानप्रदं
बताए है---
दीपिकां । बोधप्रदां ॥ निर्मलं | बुद्धिदं ॥
३. प्रतिबोधचिन्तामणि
इस ग्रन्थ में मूलसंघकी उत्पत्तिकी कथा दी गयी है, जो साम्प्रदायिक विद्वेषपूर्ण है । इस प्रकार श्रीभूषण भट्टारकने साहित्य और संस्कृतिके प्रचारमें अपूर्व योगदान किया है।
भट्टारक चन्द्रकीर्ति
ये काष्ठासंघ नन्दितटगच्छके भट्टारक विद्याभूषण के प्रशिष्य और भट्टारक श्रीभूषणके शिष्य एवं पट्टधर थे । ये ईडरकी गद्दीके भट्टारक थे और ईडरकी गद्दी के पट्टस्थान उस समय सूरत, डूंगरपुर, सोजित्रा, झेर और कल्लोल आदि प्रधान नगर थे । पार्श्वनाथपुराणकी प्रशस्तिमें चन्द्रकीर्तिने अपना परिचय अंकित किया है । यों तो नन्दीश्वरपूजा, ज्येष्ठजिनवरपूजा और सरस्वतीपूजामें भी इनका परिचय उपलब्ध होता है । यहाँ पार्श्वनाथपुराणकी प्रशस्ति उपस्थित की जाती है
काष्ठासं गच्छनंदीतटीयः श्रीमद्विद्याभूषणाख्यश्त्र सूरिः । आसीत्पट्टे तस्य कामांतकारी विद्यापात्रं दिव्यचारित्रधारी ॥ यदग्रतो नैति गुरुगुरुत्वं श्लाघ्यं न गच्छत्युशनोपि बुद्धया । मारत्यपि नैति माहात्म्यमुग्रं श्रीभूषणः सुविरः स पायात् ॥
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६८७ ।
२. जैन साहित्य और इतिहासके अन्तर्गत साम्प्रदायिक विद्वेषका एक उदाहरण, प्रथम
संस्करण, पु० ३४१, ३४४
२९
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४४१
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
भट टारक चन्द्रकीतिं किस स्थानके पट्टधर थे, इसका निर्णय करना कठिन है। पर इतना निश्चित है कि ये ईडर शाखाके भट्टारक थे। स्थितिकाल __ श्रीभुषणके पश्चात् चन्द्रकीर्तिभट्टारक हुए। इन्होंने संवत् १६५४ में देवगिरि पर पार्श्वनाथ पुराणकी रचना की। वि० सं० १६८१ में इन्होंने एक पद्मावतीकी मूर्ति स्थापित की थी। चन्द्रकीर्तिने दक्षिणकी यात्रा करते समय कावेरीके तीर पर नरसिंह पट्टनमें कृष्णभट्टको बादमें पराजित किया। इस समय चारुकीर्ति भट्टारक भी उपस्थित थे। चिद्घनने चन्द्रकीर्तिकी पर्याप्त प्रशंसा की है । इस प्रशंसासे अवगत होता है कि १७वीं शतीमें चन्द्रकीर्ति बहुत ही लब्धप्रतिष्ठ और यशस्वी भट्टारक थे। लिखा है
दक्षिणमें राजत वादिवत्रांकुश चंद्रसुकीर्ति ये चिद्घनरी ।
दिगंबरमें यह सोभित वादिजु मानत पंडित चिद्घन' री ॥ रचनाएं
चन्द्रकीर्तिने पार्श्वनाथपुराण, वृषभदेवपुराण, पाश्र्वनाथपूजा, नन्दीश्वरपूजा, ज्येजि वरपूजा, कोऽशफारमपूजा, सरस्वतीपूजा, जिनचौबीसी, पाण्डवपुराण और गुरुपूजा ये रचनाएँ लिखी हैं। पाश्वपुराण १५ सर्गोमें विभक्त है। इसकी श्लोक संख्या २७१५ है । वृषभदेवपुराणमें तीर्थङ्कर वृषभदेवकी कथा २९ स!में वर्णित है । अन्य रचनाएँ भाषा, भाव और विचारको दृष्टिसे साधारण है।
ब्रह्मा ज्ञानसागर काष्ठासंघ, नन्दीतटगच्छमें विश्वसेनके पट टशिष्य विद्याभूषण हुए हैं। इन्होंने वि० सं० १६०४ में तथा वि० सं० १६३६ में दो पार्श्वनाथमूर्तियाँ स्थापित की हैं । विद्याभूषणके पट्टपर श्रीभूषणभट्टारक हुए। सं० १६३४ में श्वेताम्बरोंसे इनका विवाद हुआ। जिसके परिणामस्वरूप श्वेताम्बरोंको देश १. श्रीमद्देवगिरी मनोहरपुरे श्रीपार्श्वनाथालये ।
वग्धीपुरसैकमेयइह व श्रीविक्रमांकेसरे ।। सप्तम्यां गुरुवासरे श्रवणभे वैशाखमासे सिते ।
पाश्र्वाधीशपुराणमुत्तममिदं पर्याप्त मेवोत्तरम् ।। -पार्श्वनाथपुराणप्रशस्ति २. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ७१० । ३. वही, लेखांक ७२० । ४. वही, लेखांक ७१९ ।
४४२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्याग करना पड़ा। इन्हीं श्रीभूषणके प्रधान शिष्य ब्रह्म ज्ञानमागर हुए। इनके सम्बन्धमें इन्हींके द्वारा रचित अक्षरबावनीसे ज्ञात होता है कि काष्ठासंघ नन्दितटगच्छमें रामभेन मुनि हुए और उन्हीं की परम्परामें श्रीभूषणके शिष्य ब्रह्म ज्ञानसागर हुए 1 दशलक्षणकथाकी प्रगस्तिमें लिखा है
भट्टारक श्रीभूषणवीर । तिनके चेला गुणगंभीर ।।
ब्रह्म ज्ञानसागर सुविचार 1 कही कशा दशलक्षणसार' || ब्रह्म ज्ञानसागरका समय वि० सं० को १७वीं शती है ! इन्होंने निम्नलिखित रचनाएँ लिखी हैं
१. अक्षरबावनी। २. नेमिधर्मोपदेश। ३. नेमिनाथपूजा। ४. गोम्मटदेवपूजा। ५. पालनागपूजा ! ६. जिनचौबीसी। ७. द्वादशीकथा। ८. दशलक्षणकथा। ९. राखीबन्धनरास । १०, पल्लीविधानकथा । ११. निःशल्याष्टमीकथा। १२. श्रुतस्कन्धकथा। १३, मोनएकादशीकथा ।
ये सभी रचनाएं भाषा और भावकी दृष्टिसे साधारण हैं । नेमिधर्मोपदेश हिन्दीमें तथा नेमिनाथपूजा, गोम्मटदेवपूजा और पार्श्वनाथपूजा संस्कृतमें लिस्त्री गयो हैं । शेष सभी मन्थ हिन्दी भाषामें हैं।
सोमसेन सोमसेन सेनगण और पुष्कर गच्छकी, भट्टारकपरम्परामें हुए हैं। ये गुणभद्र भट्टारकके शिष्य थे । गुणभद्रका नामान्तर गुणसेन भी था। सोमसेनके सम्बन्ध में पट्टावलीमें पाया जाता है
"विबुधविविधजनमनइंदीवरविकासनपूर्णशशिसमानानां ............ सीमसेनभट्टारकाणाम् ।" १. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ७.२ । २. वही, लेखांक ३४।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४४३
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोमसेनके उपदेशसे शक संवत् १५६१ फाल्गुन शुक्ला पञ्चमीको पार्श्वनाथ और संभवनाथ की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित की गयी थीं ।'
सोमसेन के शिष्य अभय गति भी कवि और विद्वान् थे। उन्होंने रक्तिकथाकी रचना की है। त्रिवर्णाचार और रामपुराणकी प्रशस्ति में भी इन्होंने अपना परिचय पूर्वोक्त प्रकार ही दिया है। दोनों ग्रन्थोंके प्रशस्तिपद्यों में पर्याप्त साम्य है । यथा
श्री मूलसंधे वरपुष्कराख्ये गच्छे सुजातो गुणभद्रसूरिः । पट्टे च तस्यैव सुसोमसेनो भट्टारकोऽभूद्विदुषां शिरोमणिः ॥
रामपुराण ३३।२३३ ।
X
X
X
X
श्री मूलसंधे वरपुष्कराख्ये गच्छे सुजातो गुणभद्रसूरिः । तस्यात्र पट्ट े मुनिसोमसेनो भट्टारकोऽभूद्विदुषां वरेण्यः ।। त्रिवर्णाचार, प्रशस्ति, २१३ १
स्थितिकाल
सोमसेनका समय वि० सं० की १७ वीं शती है । इन्होंने वि० सं० १६५६ में रविषेण कृत पद्मचरितके आधार पर संस्कृत में रामपुराणकी रचना की है । वि० सं० १६६६ में इन्होंने 'शब्दरत्नप्रदीप' नामक संस्कृतकोश लिखा है और वि०सं० १६६७की कार्तिकी पूर्णिमाको त्रिवर्णाचारकी समाप्ति की है । अतएव वि० [सं० की १७ वीं शतीका उत्तरार्द्ध स्पष्ट है 1
सोमसेन अपने समयके प्रभावशाली वक्ता, धर्मोपदेशक और संस्कृति अनुरागी व्यक्ति थे। इनका भ्रमण राजस्थान, गुजरात आदि प्रदेशों में निरन्तर होता रहता था । उदयपुर में संस्कृतकोश लिखा गया है और वराट देशके जित्वर नगरमें रामपुराण रचा गया है ।
रचनाएं
सोमसेनने निम्नलिखित रचनाएँ निबद्ध की हैं
१. रामपुराण ।
२. शब्द रत्नप्रदीप ( संस्कृतकोश )
३. धर्म रसिक – त्रिवर्णाचार |
'रामपुराण' में रामकथा वर्णित है। इस कथाका आधार रविषेणका पद्म
१. शाके १५६१ वर्षे प्रमाथी नामसंवत्सरे फाल्गुन सुदि द्वितीया मूलसंधे से नगणे पुष्करगच्छं भ० श्री सोमसेन उपदेशात् प्रतिष्ठितम् । भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ४२ ।
४४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
चरित है । कथावस्तुको आचार्यने ३३ अधिकारोंमें विभक्त किया है 1 ग्रन्थकी भाषा और शैली सरल होने पर भी प्रवाहमय है। कविने अनुष्टुप पद्योंके साथ इन्द्रवज्रा, उपजाति, शार्दूलविक्रीड़ित आदि छन्दोंको भी स्थान दिया है।
'शब्दरत्नप्रदीप' संस्कृतभाषाका कोश है । इसमें कविने शब्दोंके अर्थ तो दिये ही है, साथ ही उनके प्रकृति, प्रत्यय और लिंगादि भी निर्दिष्ट किये हैं। 'शब्दरत्नप्रदीप' की प्रशस्तिमें सोमसेनने अपनेको अभिनव भट्टारक कहा है। ग्रंथको प्रशस्ति निम्न प्रकार है___ "शुभमस्तु कल्याण ।। संवत् १६६६ शाके १५३१ वार्षे श्रावणकृष्णन तिथि प्रतिपदा ॥१॥ शुक्रवासरे ग्रन्थ लिखिते ठा. गोपिचंद उदयपुरस्थाने तिष्ठंत्ये ॥ कल्याणंभवेत् अभिनव भ० श्रीसोमसेनस्येदं पुस्तकम्।'
धर्मरसिक-त्रिवर्णाचारमें धर्म, अर्थ और काम इन तीनों विषयोंका वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ पर वैदिक धर्मका पूरा प्रभाव है। श्री जुगलकिशोर मुख्तारने अपनी ग्रन्थपरीक्षामें इसका समालोचन किया है। ग्रन्थकारने ग्रन्थके अन्तमें लिखा है
धर्मार्थकामाय कृतं सुशास्त्रं श्रीसोमसेनेन शिवार्थिनापि । गृहस्थधर्मेषु सदा रता ये कुर्वतु तेऽभ्यासमहो सुभव्याः ॥२१३॥
छत्रसेन मलसंव, सेनगण, पुष्करगच्छकी शाखामें सोमसेनके शिष्य जिनसेन हए और जिनसेनके समन्तभद्र । इन समन्तभद्रका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। छत्रसेनके सम्बन्धमें विशेष उल्लेख नहीं मिलते हैं, पर उनकी रचनाओंमें जो प्रशस्तियाँ अंकित हैं, उनसे ऐसा अनुमान होता है कि छत्रसेन काव्यरचयिता होनेके साथ वाग्मी और प्रतिष्ठाकारक भी थे। बताया गया है
श्रीमूलसंघमे गछ मनोहर सोभत हे जु अतिहि रसाला । पुष्करगछ सुसेनगणानित पूज रचे जिनकी गुणमाला ॥ समतजुभद्रके पट प्रगट भयो छत्रसेन सुवादि विसाला।
अर्जुनसुत कहे भवि सु परवादीको मान मिटे ततकाला॥ - इस प्रकार अर्जुनसुत विहारीदासने छत्रसेनका प्रशंसात्मक परिचय दिया है। बिहारीदासने इन्हें काव्य, पुराण और आगमका ज्ञाता तो कहा ही है, साथ ही यह भी बताया है कि, ये सेनगणके भट्टारक समन्तभद्रके शिष्य थे।
१, भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ४०1 २. भट्टारकसम्प्रदाय, लेखांक ६२।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४४५
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
छयसेनके अनन्तर नरेन्द्र सेन पट्टाधीश हुए। इन्होंने शक संवत् १६५२में ज्ञानयन्त्र प्रतिष्ठित किया है। सूरतमें रहते हुए इन्होंने वि०सं० १७९० में आश्विन कृष्णा त्रयोदशीमें यशोधरचरितकी प्रति लिखी है। नरेन्द्रसेनने पार्श्वनाथपूजा और वृषभनाथपालना रचनाएँ भी लिखी हैं। __ छत्रसेनके एक शिष्य हीरा नामके हुए हैं, जिन्होंने संवत् १७५४में कडतशाहकी प्रेरणासे वृधणपुरमें शाहिदहरण की रचना की है। इसमेनका सा प्रतिष्ठित मूर्तिके आधार पर वि०सं० १७५४के आसपास है। इनके उपदेशसे सं० १७५४में पाश्वनाथको मूर्ति प्रतिष्ठित हुई है। कारजा गद्दीके ये भट्टारक हैं । रचनाओंके आधार पर भी छत्रसेनका समय वि०सं० की १८वीं शती सिद्ध होता है। रचनाएँ
छत्रसेनने संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भाषाओंमें रचनाएँ लिखी हैं। इनकी निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं
१. द्रौपदीहरण ( हिन्दी), २. समवशरण षटपदी ( हिन्दी), ३. मेरुपूजा ( संस्कृत ), ४. पार्श्वनाथ पूजा ( संस्कृत ), ५. अनन्तनाथस्तोत्र ( संस्कृत), ६. पद्मावतीस्तोत्र ( संस्कृत), ७. झूलना ( हिन्दी ), ८. छत्रसेनगुरु आरती (हिन्दी)।
रचनाएँ सामान्यतः अच्छी हैं। अनन्तनाथस्तोत्रका एक पद्य उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है
भुवनविदितभावं देवदेवेंद्रबंधं परर्माजनमर्मत स्तौति यो शुद्धभावैः । भवति सुभगसर्गी मुक्तिनाथश्च नित्यं स्तवनमिदमनिय भाषितं छत्रसेनः ।।
• वर्द्धमान द्वितीय बलात्कारगण कारजा शाखामें विशालकीर्ति आचार्य हुए हैं। इन्होंने सुल्तान सिकन्दर, विजयनगरके महाराज विरूपाक्ष और आरगनगरके दण्डनायक देवप्पकी सभाओंमें सम्मान प्राप्त किया था। इन्हीं विशालकीर्तिके शिष्य विद्यानन्दि हुए। इन्होंने श्रीरंगपट्टनके वीर पृथ्वीपति, सालुव कृष्णदेव, विजय१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ५८ । ४४६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगरके सम्राट् श्रीकृष्णराय और सुल्तान अल्लाउद्दीन से सम्मान प्राप्त किया था । इन्हीं के शिष्य भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति हुए और देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य भट्टारक वर्द्धमान द्वितीय थे । बर्द्धमान द्वितीयने अपने दशभक्त्यादिमहाशास्त्र में अपना परिचय संक्षेप रूपमें प्रस्तुत किया है और अपनेको देवेन्द्रकीर्तिका शिष्य बताया है | लिखा है
बलात्कारगणाम्भोजभास्करस्य महाद्युतेः । श्रीमद्द वेन्द्रकीर्त्याख्यभट्टारकशिरोमणेः ॥ शिष्येण ज्ञातशास्त्रार्थस्वरूपेण सुधीमता । जिनेन्द्रचरणाद्वतस्मरणाधीन चेतसा ॥ वर्द्धमानमुनी ट्रेण विवाद कथितं दशभक्त्या दिशासनं भव्यसौख्यदम् ॥
।
निश्चयतः वर्द्धमान द्वितीय अपने समयके प्रसिद्ध विद्वान् हैं । इन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों में धरसेन, समन्तभद्र, आर्यसेन, अजितसेन, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, लोकसेन, आशाधर, कमलभद्र, नरेन्द्र सेन, धर्मसेन, रविषेण, कनकसेन, दयापाल, रामसेन, माधवसेन, लक्ष्मीसेन, जयसेन, नागसेन, मतिसागर, रामसेन और सोमसेनका स्मरण किया है । इन आचार्योंके अतिरिक्त श्रुतकीर्ति, विजयकोर्ति, पद्मप्रभ भट्टाकलंक वा चन्द्रप्रभका भी स्मरण किया है। ऐतिहासिक अध्ययनकी दृष्टिसे दशभक्त्यादिमहाशास्त्र बहुत ही उपयोगी है ।
इस महाशास्त्रकी रचना शक संवत् १४६४ ( चि०सं० १५९९ ) में हुई है। लिखा है
रचना
शाके वह्निखराब्धिचन्द्रकलिते संवत्सरे शावंरे । शुद्धश्रावणभाकुकृतान्तधरणीतुरमैत्रमेषे रवौ । कर्किस्थे सुगुरी जिनस्मरणतो वादीद्रवृन्दार्चितविद्यानन्दमुनीश्वरः स गतवान् स्वर्गं चिदानंदकः ॥
--- दशभक्त्यादिमहाशास्त्र, अन्तिम प्रशस्ति ।
बर्द्धमान द्वित्तीयकी एक ही रचना दशभक्त्यादिमहाशास्त्र उपलब्ध है । यह रचना संस्कृत में लिखी गयी है।
गंगादास
धर्मचन्द्र विशालकीर्ति के पट्ट शिष्य थे । बलात्कारगण कारचा शाखामें २. दशभक्त्यादिमहाशास्त्र, प्रशस्तिभाग — प्रशस्ति संग्रह आरा, ५० १४३ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य: ४४७
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मचन्द्र नामके चार विद्वान् हुए हैं। एक देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य धर्मचन्द्र हैं । द्वितीय कुमुदचन्द्रके शिष्य धर्मचन्द्र हैं, तृतीय विशालकीर्तिके शिष्य धर्मचन्द्र है और चतुर्थ देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य धर्मचन्द्र हैं । विशालकीर्ति के पट्टशिष्य धर्मचन्द्रशक संवत् १६०७ फाल्गुन कृष्णा दशमीको चौबीसी मूर्तिको स्थापना की । इन्होंने शक संवत् १६१२ ज्येष्ठ कृष्णा सप्तमीको पद्मावती की मूर्ति स्थापित की है । धर्मचन्द्र शिष्य गंगादासने वि० सं० १७४३ श्रावण शुक्ला सप्तमीको श्रुतस्कन्ध कथाकी एक प्रति लिखी है। सारे द्वारा विवे गंगादार विशालकीर्तिके शिष्य धर्मचन्द्र के शिष्य हैं। इनकी पण्डित उपाधि थी। इससे यह ज्ञात होता है कि इन्हें भट्टारकका पट्ट प्राप्त नहीं हुआ था । श्रुतस्कन्धकथाकी प्रशस्ति में लिखा है
" सं० १७४३ वर्षे श्रावण सुदि ७ शुक्रं भ० श्री धर्मचन्द्रः तस्य पंडित गंगादास लिखितं । श्रीकार्य रंजकनगरे श्रीचंद्रप्रभ चैत्यालये ।"
गंगादासने श्रुतस्कन्घकथाके अतिरिक्त शक संवत् १६१२ पौष शुक्ला त्रयोदशीको पार्श्वनाथभवान्तरकी रचना तथा शक संवत् १६१५ की अषाढ़ शुक्ला द्वितीयाको आदित्यवारकथाकी रचना की है । इनके अतिरिक्त सम्मेदाचलपूजा, त्रेपनक्रियाविनती, जटामुकुट और क्षेत्रपालपूजा भी इन्होंने लिखी हैं। क्षेत्रपालपूजा और सम्मेदाचलपूजा संस्कृतभाषा में लिखी गयी है और इनकी रचनाकी प्रेरणा संघपति मेधा और शोभाके द्वारा प्राप्त हुई है ।
देवेन्द्रकीर्ति
धर्मचन्द्र के पश्चात् बलात्कार गणकी कारञ्जा शाखा में देवेन्द्रकीति पट्टाघीश हुए । इन्होंने कारजा निवासी बघेरवाल शिष्योंके साथ शक संवत् १६४३ की पौष कृष्णा द्वादशीको श्रवणबेलगोलकी यात्रा की। इस यात्राका उल्लेख श्रवणबेलगोलके अभिलेखों में निम्न प्रकार हुआ है-
"सके १६४३ पीस वदि १२ शुक्रवारे भण्डेबेडकीति ( देवेन्द्रकीति ) सहित उघरवल जाति होरासाह सुत हाससा सुत चागेवा सोनाबाई राजाई गोमाई राधाई, मन्नाई सहित जात्रा सफल करी कारज कर ।"
शक संवत् १६५० की पौष शुक्ला द्वित्तीयाको आपने नासिक के पास त्र्यम्बक ग्रामके पाश्र्ववर्ती गजपंथ पर्वतकी वन्दना की थी । तदनन्तर ११ दिनके पश्चात्
१. भट्टारकसम्प्रदाय, लेखांक १३७ ।
२. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभि० सं० ३६६, पृ० ३४५ ।
४४८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
मांगीतुगी पर्वतकी यात्रा की। इस समय जिनसागर, रत्नसागर, चन्द्रसागर, रूपजी, वीरजी, आदि क्षात्र भी आपके साथ थे। इसके पश्चात् गिरिनारकी यात्रा के लिये जाते हुए आप सूरतमें ठहरे । वहाँ माघ शुक्ला प्रतिपदाको आणन्द नामक श्रावकने 'णायकूमारचरिज'की एक प्रति आपको अर्पित की। शक संवत् १६५१ को वैशाख कृष्णा अयोदशीको इन्होंने केसरियाजीकी यात्रा की तथा उसी वर्ष मागशीपं शुबला पञ्चमीको तारंगा पवंत और कोटिशिलाकी वन्दना की। इसी वर्ष पौष कृष्णा द्वादशीको गिरिनारको और माघकृष्णा चतुर्थीको शत्रुजय पर्वतकी यात्रा की और मार्गमें सूरतमें पड़ाब डाला ।।
वि० सं० १७२७की भाद्रपद शुक्ला पञ्चमीको आर्यिका पारामतीके लिए थीचन्द्र विरचित कथाकोशकी एक प्रति लिखवायी। इनके द्वारा लिखी एक नन्दीश्वर-आरती भी उपलब्ध है। आगरानिवासी बनारसोदासके पुत्र जीवनदासको पहले इनके विषय में अनादर था, किन्तु सरतके चातुर्मासमें इनकी विद्वत्ता देखकर वे इनके शिष्य बन गये। बद्धिसागर और रूपचन्द ने भी इनकी स्तुति की है । इनके शिग्य माणिकन्दिने शक संवत् १६४६ की भाद्रपद शुक्ला पतुर्दशीको अनन्तनाथ-आरतीकी रचना की है। अतएव इनका समय वि० सं० को १८वीं शती सुनिश्चित है। देवेन्द्रकीर्तिने कल्याणमन्दिरपूजा, विपापहारपूजा इन दो पूजाग्रन्थोंकी रचना की है। ये दोनों रचनाएँ साधारण हैं। रचनाएँ संस्कृत भाषामें हैं। कल्याणमन्दिरमें रचनाकालका निर्देश भी किया गया है । यथा--
गुणवेदांगचंद्राब्दे शाके १६४३ फाल्गुनमास्येदं ।
कारंजाख्यापुरे दृष्टं चन्द्रनाथदेवार्चनम् ।। इति श्रीबलात्कारगणेयं भ० देवेन्द्रकोर्तिविरचितम् । कल्याणमंदिरपूजा संपूर्णम् ॥
जिनसागर बलात्कारगण कारज्जा शाखाके भट्टारक देवेन्द्रकीतिके शिष्योंमें जिनसागर प्रमुख हैं । जिनसागरने शक संवत्की १७वीं शती और वि० सं० की १८वीं शती में कई रचनाएँ लिखी हैं । कवि संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भाडाओंके विद्वान हैं, पर इनकी अधिकांश रचनाएँ हिन्दीमें पायी जाती हैं। अब तक इनकी निम्नलिखित रचनाओंकी सूचनाएँ प्राप्त है
१. आदित्यवत्तकथा ( शक संवत् १६४६ चैत्रकृष्णा पंचमी),
२. जिनकथा ( शक सं० १६४९) १. मा. नाम, . १.... ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परागोषकाचार्य : ४४९
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
३. पावतीकथा ! साक सं० १६५२ आश्विन शुक्ला द्वादशी ), ४. पुष्पाञ्जलिकथा ( शक सं० १६६० ), ५. लवणांकुशकथा, ६. अनन्तकथा, ७. सुगन्धदशमीकथा, ८. जीवन्धरपुराण (शक सं० १६६६ वैशाख शुक्ला द्वादशी), ९. नन्दीश्वरउद्यापन, १०, आदिनाथस्तोत्र, ११, शान्तिनाथस्तोत्र, १२. पाश्वनाथस्तोत्र, १३. पद्मावतीस्तोत्र, १४. क्षेत्रपालस्तोत्र, १५. ज्येष्ठजनवरपूजा, १६. शान्तिनाथआरती।
सुरेन्द्रभूषण साहित्य और संस्कृतिक परिपोषकोंमें बलात्कारगण और अटेर शाखाका भी महत्वपूर्ण स्थान है। इस शाखामें सिंहकीर्ति, धर्मकीर्ति, शीलभूषण, ज्ञानभूषण, जगतभूषण, विश्वभूषण, देवेन्द्रभूषण और सुरेन्द्रभूषण का नामोल्लेख मिलता है । सुरेन्द्रभूषण देवेन्द्रभूषणके शिष्य थे। इन्होंने संवत् १७६० फाल्गुन शुक्ला प्रतिपदाको सम्यग्ज्ञानयन्त्र, सं० १७६६ माघ शुक्ला पंचमीको षोडशकारण यन्त्र; सं० १७७२ फाल्गुन कृष्णा नवमीको सम्यग्दर्शनयन्त्र और सं० १७९१ को फाल्गुन कृष्णा नवमीको अटेरमें दशलक्षणयन्त्रकी स्थापना की। अतएव सुरेन्द्रभूषण भट्टारकका समय वि० सं० को १८वीं शतोका उत्तरार्द्ध है। सम्यग्दर्शनयन्त्रपर निम्नलिखित अभिलेख अंकित है
"सं० १७७२ वर्षे फाल्गुन बदि ९ चंद्रे श्रीमूलसंघे भ० श्रीदेवेन्द्रभूषणदेवाः तत्पटें भ० श्रीसुरेन्द्रभूषणदेवाः तस्मात् ब्रह्म जगतसिंह गुरूपदेशात् तदा म्नाये लंबकंचुकान्वये बुढेले ज्ञातीये ककौआ गोत्रे श्री सा सिवरामदास भार्या देवजावी..."।
सुरेन्द्रभूषणकी एक ही रचना 'ऋषिपंचमी कया उपलब्ध है। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें रचनाकाल वि० सं० १७५७ अंकित है। कविने इसे श्रावकोंके पढ़नेपढ़ानेके लिये लिखा है। १. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ३२१ ४५० : तीर्थकर महावीर और उनकी मात्रार्यपरम्परा
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
महेन्द्र सेन काष्ठासंघ नन्दितटगच्छके आचार्योंमें रत्नोति, लक्ष्मीसन, भीमसेन, सोमकोति, विजयसन, यशवोति, उदयसेन, त्रिभुवनकोति, रत्नभूपण, जयनीति, केशवसेन, विश्वकीति, धर्मसेन, बिमलसेन, विशालकीति, विश्वसेन, विजयकीति, विद्याभूषण, श्रीभूषण आदि आचार्य हुए। महेन्द्रसेनके गुरु विजयकीति थे। इस परम्पराम धमसेनके पश्चात् विमलसेन और विशालकातिक नाम आये हैं। विशालकीतिके शिष्य विश्वसेनने वि० सं० १५९६ में एक मूर्ति स्थापित की थी। इनके द्वारा लिखित आराधनासारटीका भी उपलब्ध है। विश्वसेनके दो शिष्य हए विजयकीति और विद्याभूषण । इन विजयकोतिके शिष्य महेन्द्रभषण हैं। इनका समय वि० को १७वीं शतीका अन्तिम पाद और १८वीं शतीका प्रथम पाद है। इनकी दो रचनाएं उपलब्ध हैं-सीताहरण और बारहमासा । सीताहरण में निम्नलिखित प्रशस्ति उपलब्ध होती है
काष्ठासंघशृङ्गारविविविद्या रससागर । नंदीतटमच्छकाव्य पुराण गुण आगर॥ सूरि विश्वसेन पाटि प्रगट सुरि विजयकीति बंदितचरण । महेंद्रसेन एवं वदति राम सीता मंगलकरण' ।
सुरेन्द्र कीर्ति काष्ठासंब नन्दीतटगच्छको शाखामें इन्द्रभूषणके पश्चात् सुरेन्द्रकीति भट्टारक हुए। इन्होंने वि० सं०१७४४ में रत्नत्रय यंत्र, वि० सं० १७४७ में मेरुमति एवं इसी वर्ष एक रत्नत्रय यंयको स्थापना की। रलत्रय यंत्रके अभिलेखमें काष्ठासंघ और नन्दितटगच्छके आचार्यों में इन्द्रभूषण और उनके शिष्य सुरेन्द्रकौतिका उल्लेख आया है__ "संवत् १७४४ सके १६०९ फाल्गण सुद १३ श्रीकाष्ठासंघे लाडबागडगच्छे भा प्रतापकीयाम्नाये बघेरवालज्ञाती गोवाल - गोत्र सं० पदाजी भार्यातानाई... प्रणमंत्ति । श्रीकाष्ठासंधे नंदीतटगच्छे भ० इन्द्रभूषण तत्पढ़े भ० सुरेंद्रकोतिः ।"
सुरेन्द्रकीतिने वि.सं. १७५३में चौबीसी मतिकी तथा संवत् १७५४ और सं० १७५६में केमरियाजी क्षेत्र पर दो चैत्याल्योंकी प्रतिष्ठा की है। अतएव सुरेन्द्रकीतिका समय वि०सं० की १८वीं शती है। सुरेन्द्रकीतिकी निम्नलिखित रचनाएँ प्राप्त हैं
१. पद्मावती पूजा ( वि०सं० १७७३ ), १. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६७४ । २. वही, लेखांक ७४४ ।
प्रयुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४५१
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
२. कल्याणमन्दिर ( छप्पय ), ३. एकीभाव { छप्पय ), ४. विषापहार ( छप्पय ), ५. भूपाल ( छप्पय ) ।
सुरेन्द्रकीतिके शिष्य धनसागरने सं० १७५१) 'नवकारपच्चीसी' तथा स० १७५३में 'विहरमान तीर्थंकर स्तुति की रचना की है।
इनके एक अन्य शिष्य पामोने सं० १७४९ में 'भरत-भुजवलिचरित' लिखा है । सुरेन्द्रकीतिके शिष्य देबेन्द्रकीतिने 'पुरन्दरव्रतकथा'को रचना की है।
ललितकीर्ति भट्टारक ललितकीति काष्ठासंघ माथुरगच्छ और पुष्करगणके भट्टारक जगतकीतिके शिष्य हैं। ये दिल्लीको भट्टारकीय गद्दीके पट्टधर थे। ये बड़े विद्वान और बक्ता थे । मन्त्र-तन्त्र आदि कार्यों में भी निपुण थे । भट्टारक ललितकीतिके समयमें वि०सं० १८६१में फतेहपुरमें दशलक्षणव्रतका उद्यापन हुआ था । इस अवसर पर निर्मित दशलक्षण यन्त्र पर अंकित अभिलेखसे इनका परिचय प्राप्त होता है । अभिलेन निम्नाकार है ....
"सं० १८६१ शक १७२६ मिती वैशाख सुदी ३ निबार श्रीकाष्ठासंघ माथुरगच्छे .... भ० देवेन्द्रको ति तत्पट्टे भ० जगतकीर्ति तत्पट्टे भ० ललितकीर्ति सदाम्नाये अग्रोतकान्वये गर्गगोत्रे साहजी जठमलजी तत् भार्या कृषा"श्रीबृहत् दशलक्षणयन्त्र करापितं उद्यापितं फतेहपुरमध्ये जतीहरजीमल श्रीरस्तु सेखावत लक्षमणसिंहजी राज्ये"।
वि०सं० १८८१में पमोसामें एक मन्दिरका निर्माण हुआ है 1 इन्होंने वि०सं० १८८५में महापुराणकी टीका भी लिखी है ।
भट्टारक ललितकीति अत्यन्त प्रभावक थे। इन्होंने दिल्लीके बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजीसे ३२ फरमान और फिरोजशाह तुगलकसे ३२ उपाधियाँ प्राप्त की थीं। भट्टारक ललितकीति दिल्लीसे कभी-कभी फतेहपुर जाया करते थे और वहाँ महीनों ठहरते थे। वहाँ उनके शिष्योंकी संख्या बहुत थी । __ललितकीतिने महापुराणकी टीका तीन खण्डोंमें समाप्त की है। प्रथम खण्डमें ४२ पर्व हैं और द्वितीय स्खण्डमें ४३से ४७वें पर्व तककी टीका है । इस
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६१५ ॥ ४५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय खण्डको उन्होंने वि०सं० १८८' में पूर्ण किया है। इसके पश्चात् ललितकीतिने तृतीयखण्डमें उत्तरपुराणको टीका रची है।
ललितकीतिके नामसे अनेक रचनाएं उपलब्ध हैं। पर यह नहीं कहा जा सकता कि ये सभी रचनाएँ इन्हीं ललितकीति की हैं या दूसरे ललितकीति की। मलितहीनिक समान
विकी १९नी वाटी निश्चित है। श्री पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीने ललितकोतिके नामसे निम्नलिखित २४ रचनाओंका निर्देश किया है
१. सिद्धचक्रपाठ, २. नन्दीश्वरव्रत कथा, ३. अनन्तव्रत कथा, ४. सुगन्वदशमी कथा, ५. षोडशकारण कथा, ६. रत्नत्रयव्रत कथा, ७. आकाशपञ्चमी कथा, ८. रोहिणीव्रत कथा। ९. धनकलश कथा, १०. निर्दोषसप्तमी कथा, ११. लब्धिविधान कथा, १२. पुरन्दरविधान कथा, १३. कर्मनिर्जरचतुर्दशीव्रत कथा, १४. मुकुटसप्तमी कथा, १५. दशलाक्षणीव्रत कथा, १६. पुष्पाञ्जलिव्रत कथा, १७. ज्येष्ठजिनवर कथा, १८. अक्षयनिधिदशमी व्रत कथा, १९. निःशल्याष्टमी, विधान कथा, २०. रक्षाविधान कथा, २१. श्रुतस्कन्ध कथा, २२. कञ्जिकावत कथा, २३. सप्तपरमस्थान कया, २४. षट्रस कथा। परम्परापोषक आचार्योंके अन्तर्गत भट्टारकोंकी गणना की जाती है।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४५३
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________ इन्होंने मूर्ति-मन्दिरप्रतिष्ठा, पुराण, कथा, पूजा-पाठ, स्तोत्र आदिकी रचना एवं मन्त्र-तन्त्रोंका चमत्कार दिखला कर जैन संस्कृतिको रक्षा की है / भट्टारकोंने अपने कला-कौशल, काव्यप्रतिभा, आध्यात्मिकता आदिके कारण तत्कालीन शासकोंको भी प्रभावित किया है। ये ई० सन्की ९वीं, १०वों शतीसे ही जैनसाहित्य और संस्कृतिका प्रचार करते रहे हैं। हमने यहाँ प्रमुख साहित्यसेवी भट्टारकोंका ही परिचय प्रस्तुत किया है, क्योंकि इनके द्वारा तीर्थंकर महावीरकी परम्परा सुरक्षित रह सकी है। 454 : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा