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णात्य होना सिद्ध होता है। मामाकी कन्याके साथ विवाह करनेकी पद्धतिका वर्णन इस ग्रन्थकी १३वी सन्धिमें आया है। युद्धवर्णन सम्बन्धमें कर्नाटक और महाराष्ट्रके वीरोंकी प्रशंसा की गयी है । अतएव जन्मभूमिके प्रेमके कारण कविको दाक्षिणात्य माननेगें किसी प्रकारको बाधा नहीं है । स्थितिकाल
ग्रन्थ या निर्दे, अधिने प्रसारित किया है। पर यह प्रगस्ति सन् १४७३की प्राचीन पाण्डुलिपिमें उपलब्ध नहीं है। उसके पश्चातकी आमेर भण्डार में सुरक्षित पाण्डुलिपियोंमें उक्त प्रशस्ति पायी जाती है । सबसे प्राचीन प्रतिमें प्रशस्ति न होनेके कारण कुछ सन्देह होता है, पर यह हमें लिपिकारोंका प्रमाद मालम पड़ता है | प्रशस्तिके भावोंको देखनेसे यह स्पष्ट होता है कि प्रशस्ति ग्रन्थकर्ता द्वारा ही लिखित है। यद्यपि प्रशस्ति गाथा छन्दमें लिखी गयी है, पर इससे भी किसी प्रकारकी आशंका नहीं की जा सकती, क्योंकि पुष्पदन्तने भी अपने 'णायकुमारचरिउकी प्रशस्तिका एक भाग गाथाछन्दमें लिखा है। प्रशस्तिके अनुसार इस ग्रन्थकी रचना संवत् ९९९ कार्तिक मासकी अमावस्याको हुई है, पर यहाँ यह विचारणीय है कि यह संवत् शक संवत् है या विक्रम संवत् । श्रद्धेय डा० हीरालाल जैन इसे शक संवत् मानते हैं और प्रो० डा० कोछड़ इसे विक्रम संवत् मानते हैं। पद्मकीर्ति दाक्षिणात्य विद्वान थे और दक्षिण भारतमें काल गणना शक संवत्के अनुसार ली जाती है । वि० सं० का उपयोग उत्तर भारतमें होता रहा है। पयकोतिने अपने गुरुका नाम जिनसेन दादागुरुका नाम माधवसेन और परदादागुरुका नाम चन्द्रसेन बतलाया है । इस गुरुशिष्यपरम्पराके नामोंमें चन्द्रसेन (चन्द्रप्रभ) और माधवसेनके नामोंका उल्लेख "हिरेआबलि' में प्राप्त एक अभिलेखमें गुरुशिष्यके रूपमें हुआ है। इम अभिलेख में उसका समय अंकित है___ "स्वस्ति श्रीमत् विक्रम-वर्षद ४[ ] नेय साधा [रण]-संवत्मरद माघशुद्ध ५ बृ० वारदन्दु श्रीमन्मूल-संघद सेनाणद पोगरि-गरुछद चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेव-शिष्यरष माधवसेन-भट्टारकदेवरु" अर्थात् मूलसेन, सेनगण और पौगीरमच्छके चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेवके शिष्य माधवसेन भट्टारकदेव जिमचरणोंका मनन करके पञ्चपरमेष्ठिके स्मरण कर समाधिमरण धारण कर स्वर्गस्थ हए । चालुक्यवंशी राजा विक्रमादित्य (षष्ठ) त्रिभुवन मल्लदेव शक संवत् ८९.८ ई० सन् १०७६ में सिंहासनारूढ हुआ था और तत्काल ही उसने अपने नामसे एक
१. जन शिलालेखसंग्रह, भाग दो, अभिलेख संख्या २८६, पृ. ४३६ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परागोषकाचार्य : २०७