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________________ मंवत् चलाया था । गैरोनेट और जैन शिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके सम्पादक विक्रम वर्षद नामसे निर्दिष्ट किया है। साथ ही इन विद्वानोंने अभिलेखमें अंकित चारके पश्चात् कुछ स्थान रिक्त होने से यह अनुमान किया है कि इस चारके अंकके बाद भी कोई अंक अंकित रहा है, जो अब लुप्त हो गया है और यह लुप्त अंक ९ होना चाहिये । इन विद्वानोंने इस अभिलेखका समय चालुक्य वि० [सं० ४९ वीं वर्ष माना है । यह वर्ष शक संवत् १०४७, ई० सन् १९२४ और वि० सं० १९८१ होता है । अब यदि इस अभिलेखका समय शक सं० १०४७ और उसमें उल्लिखित चन्द्रसेन और माघवसेनको पद्मकीर्तिकी गुरुपरम्परामें माना जाये तो शक सं० २०४७ में माधवसेन जीवित थे, यह मानना पड़ेगा । अभिलेख अनुसार उन्हें हो दान दिया गया था और यदि पद्मकीर्तिके ग्रन्थकी समाप्ति शक सं० १९९ में मानी जाये, तो पद्मकोर्तिके दादागुरु माघवसेन इसके भी पूर्व २५-३० वर्ष अवश्य ही रहे होंगे । मनुष्यकी आयु तो १०० वर्ष सम्भव है, पर ७०-७५ वर्ष तक कोई व्यक्ति आचार्य रहे, यह असाधारण प्रतीत होता है । अब यदि साहचरिउ की समाप्तिका समय वि० सं० १९ माना जाये, तो वि० सं० १९९ - वि० सं० १९८१ में भी वे जीवित थे और यह असभन जैसा प्रतीत होता है । पद्मकीर्तिके गुरु, दादागुरु और परदादागुरु सेन संघके थे और 'हिरेआवलि' शिलालेख के चन्द्रप्रभ और माघवसेन ही पद्मकीर्तिपरदादागुरु और दादागुरु हैं के इस चर्चा पर विचार करनेसे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'हिरेआबलि' अभिलेखमें चारकी संख्या के पश्चात् जो ९ के अंककी कल्पना की गयी है, वह ठीक नहीं है । यहाँका अंक ही मानना चाहिये, उसके पश्चात् किसी अंककी कल्पनाकी संभावना नहीं है । जैन शिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके २१२, २१३ और २१४ संख्यक अभिलेख भी इसपर प्रकाश डालते हैं । गेरोनेटने सा०वा० को साधारण संवत्सर माना है, पर चालुक्य विक्रमका ४९ वर्ष साधारण संवत्सर नहीं है । इस वर्ष शिवावसु संवत्सर आता है । अभिलेख संख्या २०३ से स्पष्ट है कि विश्ववसु संवत्सर शक संवत् ९८७ में था और उसके बाद शक संवत् १०४७में आता है । यह शक संवत् २०४७ ही विक्रम चालुक्यका ४९ व वर्ष है । अतएव उक्त विषमताओंसे यह स्पष्ट है कि 'हिरेमावलि' अभिलेखमें ४ अंकके आगे ९ अंक या सा०धा०को साधारण होनेका अनुमान भ्रान्त है । विक्रम चालुक्यका दूसरा वर्ष पिंगल संवत्सर के पश्चात् कालयुक्त और तत्पश्चात् सिद्धार्थिन संवत्सर आते हैं । अतः स्पष्ट है कि विक्रम चालुक्यका तीसरा वर्ष कालयुक्त और चौथा सिद्धार्थिन संवत्सर था । अतएव 'हिरेमावलि' अभिलेखके २०८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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