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देखवि चञ्चल चित्त माता पिता कहि वछ सुणि । अहम् मंदिर बह वित्त आविसिह कारणि कवइ॥ लहुआ लीलावंत सुख भोगवि संसार तणाए। पछइ दिवस बहूत, अछिह संयम तप तणाए । वयणि तं जि सुणेवि पुत्र पिता प्रति हम कहिए । निजमन सुविस करेवि धीर जे तरणि तप गहिए । ज्योवन गिइ भमार पछइ पालइ शीयल घण।
ते कुहु कवण विचार विण अवसर जे वरसीयिए । कहा जाता है कि माता-पिताके आग्रहसे ये चार वर्षों तक घरमें रहे और १८वें में प्रवेश करते ही वि० सं० १४६३ (ई० सन् १४०६) में समस्त सम्पत्तिका त्याग कर भट्टारक पधनन्दिके पास नेणवांमें चले गये। भट्टारक यशःकीर्ति शास्त्रभण्डारको पट्टावलीके अनुसार ये २६वें वर्ष में नेणवां गये थे। ३४३ वर्षमें आचार्य पदवी धारण कर अपने प्रदेशमें वापस आये और धर्मप्रचार करने लगे। इस समय ये नग्नावस्थामें थे।
आचायं सकलकीर्तिने बागड़ और गुजरातमें पर्याप्त भ्रमण किया था और धर्मोपदेश देकर थावकोंमें धर्मभावना जागृत की थी। उन दिनोंमे उक्त प्रदेशों में दिगम्बर जैन मन्दिरोंकी संख्या भी बहुत कम थी तथा साधुके न पहुँचनेके कारण अनुयायियोंमें धार्मिक शिथिलता आ गयी थी। अतएव इन्होंने गांवगांवमें विहार कर लोगोंके हृदयमें स्वाध्याय और भगवद्भक्तिकी रुचि उत्पन्न की।
बलात्कारगण इडर शाखाका आरम्भ भटारक सकलकोतिसे ही होता है। ये बहुत ही मेधावो, प्रभावक, ज्ञानी और चरित्रवान थे। बागड़ देशमें जहां कहीं पहलं कोई भी प्रभाव नहीं था, वि० सं० १४९२ में गलियाकोटमें भट्टारक गद्दीको स्थापना को तथा अपने आपको सरस्वतीगच्छ एवं बलात्कारगणसे सम्बोधित किया। ये उत्कृष्ट तपस्वी और रत्नावली, सर्वतोभद्र, मुक्तावली आदि व्रतोंका पालन करने में सजग थे। स्थितिकाल
भट्टारक सकलकीति द्वारा वि० सं० १४९० (ई. सन् १४३३) वैशाख शुक्ला नवमी शनिवारको एक 'चौबीसी मूर्ति; विक्रम संवत् १४९२ (ई० सन् १४३५) वैशाख कृष्ण दशमीको पार्श्वनाथमूर्ति; सं० १४९४ (ई० सन् १४३७) १. भट्टारकसम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ३३१ । २. वही, लेखांक ३३१ । ३२८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा