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अर्थात्-पानन्दिक शिष्य, अनेक शास्त्रोंक पारगामी. ॥ कालि, द्विकालि, रत्नालि, मुक्तावलि, सर्वतोभद्र, सिहविक्रम आदि महातपोंके आचारणद्वारा कमरूपी पतीको नष्ट करने वाले, सिद्धान्तसार, तत्त्वसार, यत्या चार आदि आगमग्रन्थोंके रचयिता, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारकोमट करने के लिए सूर्यतुल्य, जिनधर्मरूपी समुद्रको वृद्धिगत करनेके लिए चन्द्रमातुल्य और यथोक्त चारित्र.. का पालन करनेवाले निग्रंथाचार्य सफलकोत्ति हुए।
अतः स्पष्ट है कि निग्रंथाचार्य सकलकत्ति एक बड़े तपस्वी, ज्ञानी धर्मप्रचारक और ग्रन्थरचयिता थे । उस युगमें यं अद्वितीय प्रतिभाशाली एवं शास्त्रों. के पारगामी थे।
आचार्य सकलकीतिका जन्म वि० सं० १४४३ (ई. सन् १३८६)में हा था। इनके पिताका नाम धमसिंह और माताका नाम शोभा था । ये हूंबड़ जातिके थे और अहिपुर पट्टनके रहने वाले थे । गर्भ में आने के समय माताको स्वप्नदर्शन हुआ था। पति ने इस स्वप्नका फल योग्य, कर्मठ और यशस्वी पूत्रकी प्राप्ति होमा बतलाया था ।
बालकका नाम माता-पिताने पूर्णसिंह या पूनसिंह रखा था । एक पट्टावली में इनका नाम 'पदार्थ भी पाया जाता है। इनका वर्ण राजहंसके समान शुभ्र और शरीर ३२ लक्षणोंसे युक्त था। पाँच वर्षको अवस्थामें पूर्णसिंहका विद्यारम्भ संस्कार सम्पन्न किया गया। कुशाग्रबुद्धि होने के कारण अल्पसमयमें ही शास्त्राभ्यास पूर्ण कर लिया। माता-पिताने १४ वर्षको अवस्थामें ही पूर्णसिंहका विवाह कर दिया । विवाहित हो जानेपर भी इनका मन सांसारिक कार्योके बन्धनमें बँध न सका। पुत्रकी इस स्थितिसे माता-पिताको चिन्ता उत्पन्न हई और उन्होंने गमझाया-'अपार सम्पत्ति है, इसका उपभोग युवावस्या में अवश्य करना चाहिये । सयम प्राप्तिके लिए तो अभी बहुत समय है। यह तो जीवनके चौथे पनम धारण किया जाता है। पिता-पुत्रके बीच में जो वार्तालाग हआ उसे भट्टारक भुवनकोतिने निम्नलिखित रूपमें व्यक्त किया है
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१. घोऊद श्रितालि प्रभागि पूरइ दिन पुत्र जनमीउ । २. न्याति मांहि मुहृतवत हूंबड हघि यखाणिदए ।
करमसिंह वितपन्न उदयवंत इम जाणीइए ।। शोभित तरस अरघांगि, मूलि सरीस्य सुदरीय । सील स्यंगारित अङ्गि पेखु प्रत्यक्षे पुरंदरीय ॥ -सकलकोतिरास, जैन सन्देश, शोषात १६ में उद्धृत ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परमरापोषकाचार्य : ३२७