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त्वत्पदाम्बुज-युगाऽऽश्रयादिदं
पुण्यमेति जगतोऽवतां सताम् । स्पृश्यतामपि न चाऽन्यशीर्षगं तव ( त्वत्) समोऽत्र तवको निगद्यते' ||
अन्तिम पद्य में अंकित अनन्वय अलंकार द्वाराध्यको उपमारहित और सर्व श्रेष्ठ सिद्ध करता है । इस संसार सागर में कर्मभारके कारण निमज्जित होने वाले प्राणियों को भगवान पार्श्वनाथका करावलम्बन हो रक्षा करने में समर्थ है। अतएव जगत उद्धारकके रूपमें गल नायक पार्श्वनाथ ही प्रसिद्ध हैं । २. भावनापद्धति
इम रचनाका दूसरा नाम भावनाचतुत्रिंशक्तिका भी है। भावनाको निर्मल करने के लिए ३४ पद्यप्रमाण यह भावपूर्ण स्तुति है । रूपक अलंकारको योजना करता हुआ कवि कहता है कि यह मानसहंस जिनेन्द्र सेवारूणी मन्दाकिनीक निर्मल जल में विचरण करें । यतः यमराज जाल होनेपर यह प्राणी किस प्रकार आनन्दपूर्वक विचरण कर सकेगा । अतएव समय रहते हुए सजग होकर भक्तिरूपी भागीरथीम स्नान करने की चेष्टा करनी चाहिये ।
अद्यैव मानस-मराल ! जिनेन्द्र सेवा
देवापगांभसि रमस्व मनस्विमान्ये 1 यातेऽथवा विधिवशाद्दिवसावसाने,
कीनाश-पाश-पतितस्य कुत्तो रतिस्तं |||
इस पद्य में 'मानसमराल' और 'जिनेन्द्रसवादेवापगाभास' में रूपक अलंकारकी सुन्दर योजना को गयी है ।
कवि सम्पत्ति, बल, वैभवको विद्युत् के समान चपल और पुत्रमित्र, सुहुत, सुवर्णादिक को भी नितान्त अस्थिर और विनश्वर अनुभव करता हुआ अपनेको सम्बोधित करता है और कहता है कि संकड़ों अहमिन्द्रा के द्वारा जिनके चरणकमलोंकी पूजा की जाती है उन सनातन चैतन्यस्वभाव, ज्ञान-दर्शन स्वरूप, आनन्द के आगार जिनेन्द्र में मेरा मन लीन हो । यथा
संमेव संपदबला चपला घनाली
लालं वपुः सुत- सुहृत्- कनकादि-सर्व । ज्ञात्वेति सोऽहमहमिद्र-शत स्तुताहे !
लय मुदा त्वयि सनातन ! चित्स्वभावे ||१४||
१. अनेकान्त व
किरण ७ जुलाई १९३८ में प्रकाशित 1
२. अनेकान्त वर्ष ११, किरण ७-८, सन् १९५२, पृ० २५८-५९ पर प्रकाशित |
३२४ सार्थंकर महावीर और उनको आचार्य - परम्परा