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'अश्वकृती', मनसाकृती' आदि प्रयोगोंका शाकटायनमें अभाव है। पर शाकटायनके टीकाकारोंने इस कमी को पूरा करनेका प्रयास किया है ।
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शाकटायनव्याकरण में कारककी कोई परिभाषा नहीं दी गयी है और न कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण कारकके लक्षण हो बतलाये गये हैं । इस प्रकरण में केवल अर्थानुसारिणो विभक्तियोंकी हो व्यवस्था मिलती है। शाकटायनने ११३१०० सूत्र द्वारा हा धिक्, समया, निकपा, उपरि, उपर्युपरि अध्यधि अग्रेोऽधो अत्यन्त्य, अन्तरा, अन्तरेण परितः, अभितः और उभयतः शब्दोके योग में अनिभिहित अर्थ में वर्तमान से अम्, औद और शका विधान किया है। यहाँ सीधे द्वितीया विभक्ति का कथन न कर द्वितीया विभक्ति के प्रत्ययोका निर्देश कर दिया है। इसी प्रकार १।३।१२७, १।३।१५२ तथा १।३।१७१ आदि सूत्रोंमें भी विभक्तिसम्बन्धी प्रत्ययोंका निरूपण किया है । यह प्रक्रिया देखने में भले ही गौरव प्रतीत हो, पर है वैज्ञानिक । शाकटायनने तुल्यार्थ में तृतीया और पष्ठीके विधानके लिये पृथक-पृथक सूत्र लिखे हैं ।
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समासप्रकरण प्रारम्भ करते ही शाकटायनमें बहुव्रीहि समासविधायक सूत्रों का निर्देश है । पश्चात् कुछ तद्धित प्रत्यय आ गये हैं, जिनका संयोग प्रायः बहुव्रीहि समासमें होना है । जैसे—नन्, दुस्, सु उनसे परे प्रजाशन्दान्त बहुश्रीहिसे 'अम्' प्रत्यय नन् दुस् तथा अल्पशब्द से परे मेधादान्त बहुव्रीहिसे अम् प्रत्यय जातिशब्दान्त बहुबीहिसे छ प्रत्यय एवं धर्मशब्दान्त बहुव्रीहिसे 'अन्' प्रत्यय होता है । इसके पश्चात् बहुव्रीहि समास में पुंवद्भाव, ह्रस्व आदि अनुशासनका नियमन है । सुगन्धि, पूतगन्धि, सुरभिगन्धि, घृतगन्धि, पद्मगन्धि आदि सामासिक प्रयोगोंके साधुत्व के लिये 'इत्' प्रत्ययका विधान किया है । इस व्याकरण में बहुव्रीहिसमासका अनुशासन समाप्त होनेके बाद ही अव्ययीभावप्रकरण आरम्भ होता है तथा युद्ध वाच्य में ग्रहण और प्रहरण अर्थ में केशाकेशी और दण्डादण्डिको अव्ययीभाव समास माना है । यतः शाकटायन के मतानुसार अव्ययीभावसमासके तीन भेद हैं- ( १ ) अन्यपदार्थप्रधान, (२) पूर्वपदार्थप्रधान, (३) उत्तरपदार्थप्रधान । अतः "केशाश्च केशाश्च परस्परस्य ग्रहणं यस्मिन् युद्धे" जैसे विग्रहवाक्यसाध्य प्रयोगों में अन्यपदार्थप्रधान अव्ययीभावसमास होता है । इस प्रकार शाकटायनमें समाससम्बन्धी नियमन विशेष रूपमें पाया जाता है ।
शाकटायनव्याकरणमें समासके पश्चात् तद्धित प्रकरण आरम्भ होता है । इस प्रकरणका पहला सूत्र है, 'प्राग्जितादण् ॥ २४४॥ प्रत्ययका नियमन शाकटायनने पाणिनिके समान ही किया है और प्रायः के ही प्रत्यय प्रयुक्त हैं, जिनका पाणिनिने अनुशासन किया है। इतना होने पर भी शाकटायनने पाणिनिकी
प्रबुचाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २३