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तत्पट टेजनि विख्यातः पंचाचार पवित्रधीः । शुभकीर्त्तिमुनिश्रेष्ठः शुभकीत्ति शुभप्रदः ॥
-सुदर्शनचरितम्
अर्थात् शुभकीतिं पञ्चाचारके पालन करनेमें दत्तनित थे और सन्मार्गके विधिविधान में ब्रह्मा तुल्य थे। मुनियोंमें श्रेष्ठ और शुभप्रदाता भी इन्हें कहा गया है । एक मूर्ति अभिलेख से इनका समय त्रि० की १३ वीं शताब्दी सिद्ध होता हैं। गुर्वावलिमें बताया है
ततो महात्मा शुभकीर्तिदेवः ।
एकान्तराद्युग्रतपोविधाता धातेव सन्मार्गविधेविंधाने ||
एक अन्य शुभकीर्तिका नाम चन्द्रगिरिपर्वतके अभिलेख में आया है। इस अभिलेखमें कुन्दकुन्दाचार्य से प्रारम्भ कर मेघचन्द्रवती तककी परम्परा दी गयी है । मेघचन्द्र के गुरुभाईका नाम बालचन्द्रमुनिराज बताया है । तत्पश्चात् आचार्य शुभकीर्तिका उल्लेख किया है, जिनके सम्मुख वादगे बौद्ध मीमांसकादि कोई भी नहीं ठहर सकता था । यह अभिलेख शकसंवत् १०६८ का है । अतः शुभकीर्तिका समय इसके कुछ पूर्व ही होना चाहिये' ।
तीसरे शुभकीर्ति कुन्दकुन्दान्वयी प्रभावशाली रामचन्द्रके शिष्य थे । चतुर्थ शुभकीर्ति अपभ्रंश शान्तिनाथ चरितके रचयिता है। इस चरितकाव्य में ग्रन्थकर्नाका किसी भी प्रकारका परिचय प्राप्त नहीं है । ग्रन्थकी पुष्पिकामें निम्नलिखित वाक्य उपलब्ध होता है- "उद्यभाषाचक्कवटिट सुह कित्तिदेव विरइये " अर्थात् ग्रन्थ रचयिता संस्कृत और अपभ्रंश दोनों भाषाओंके निष्णात विद्वान् थे । कविने ग्रन्थके अन्तमें देवकीर्तिका उल्लेख किया है। एक देवकीर्ति काष्ठासंघ माथुरान्वयके विद्वान हैं। उनके द्वारा विक्रम सं० १४९४ आषाढ़ वदी द्वितीयाके दिन एक धातुमूर्ति प्रतिष्ठित की गयी थी, जो आगराके कचौड़ा बाजारके मन्दिरमें विराजमान है। मूर्तिलेख में बताया है- सं० १४९४ अषाढ़ दि २ काष्ठासंघे माथूरान्वय श्रीदेवकीर्ति प्रतिष्ठिता ।" उपलब्ध शान्तिनाथ - चरितकी प्रति वि० सं० १५५१ में लिखी गयी है। अतः इसका रचनाकाल इसके पूर्ववर्ती होना चाहिये | देवकीर्तिका समय वि० सं० १४९४ है, अत: बहुत
१. श्रीबालचन्द्र मुनि राजपवित्र पुत्रः
प्रोट्टतत्रादि जनमानलतालवित्रः ।
जीयादयं जितमनोजभुजप्रतापः
स्याद्वादसूक्तिशुभग शुभकोतिदेवः || जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथमभाग, अभिलेख सं०
५० पृ० ७७, पद्य ३७ ।
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४१२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा