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असमर्थ अवस्थापर आंसू बहाते हैं । जव नेमिकुमारको पशुओंका चीत्कार सुनाई पड़ता है तो वे द्रवीभूत हो जाते हैं और उनके अन्त में द्वन्द्व उत्पन्न हो जाता है। वे सोचते हैं कि जिन पशुओंका उपयोग रणभूमिमें सवारीके लिये करते हैं, जो मनुष्यकी नाना प्रकारकी आवश्यकताओंको पूर्ण करते हैं, जो पूर्णतः निर्दोष हैं उन पशुओं पर मांसलोलुपी यह मानव किस प्रकार अस्त्र प्रहार करता है ? उनकी विचारधारा और आगेकी ओर बढ़ती है और के गम्भीरतापूर्वक मोचने लगते हैं-
चरणकण्टकवेधभयाद्भूटा विदधते
परिधानमुपानाम् । मृदुमृगान् मृगयासु पुनः स्वयं निशितशस्त्रशतं प्रहरन्ति हि ॥ क्रूर मनुष्यको धिक्कार है, जो स्वयं तो पैर काँटा चुभनेके भयसे जूता धारण करता है, पर मूक पशुओंपर तीक्ष्ण शस्त्र प्रहार करता है ।
आचार्य ने अपने इस पुराणको सरस बनानेके लिये विभिन्न छन्दोंका प्रयोग तो किया ही है, साथ ही 'मीन सर्वार्थसाधनम्' (९/१२२ ) दुर्वारा भवितव्यता' (६११७७) 'किन्न स्याद् गुरुसेवया (२११३१) पुण्यस्य किमु दुष्करम् ' (१६/४६ ) 'पातकानं ध्रुवम् ( १७११५१ ) 'जातनां हि समस्तानां जोवानां नियता मृती (६१२० जैसी सूक्तियांका मणिकाञ्चन संयोग वर्त्तमान हैं ।
साहित्यिक सुषमाके साथ सुष्टिविद्या धर्मशास्त्र, तत्त्वज्ञान, षट्द्रव्य, पञ्चस्तिकाय आदिका भी विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। आचार्य जिनसेननं अपने समयकी राजनीतिक परिस्थितिका भी चित्रण किया है ।
श्रीगुणभद्राचार्य
प्रतिभामूर्ति गुणभद्राचार्य संस्कृतभाषा के श्रेष्ठ कवि हैं। ये योग्य गुरुक योग्यतम शिष्य हैं । सरसता और सरलताके साथ प्रसादगुण भी इनकी रच नाओमें समाहित है । गुणभद्रका समस्त जीवन साहित्य साधनामें ही व्यतीत हुआ। ये उत्कृष्ट ज्ञानी और महान तपस्वी थे ।
गुणभट्टाचार्यका निवास स्थान दक्षिण आरकद जिलेका 'तिरुम रुङकुण्डम' नगर माना जाता है। इनके गृहस्थ जीवन के सम्बन्ध में तथ्य अज्ञात है। इनके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है कि ये सेनसंघ के आचार्य थे। इनके गुरुका नाम आचार्य जिनसेन द्वितीय और दादा गुरुका नाम वीरसेन है। गुणमने आचार्य दशरथको भी अपना गुरु लिखा है । सम्भवतः ये दशरथ इनके • विद्यागुरु रहे होंगे 1
१. हरिवंशपुराण, सर्ग ५५ प ९२ ।
८ सीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा