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पुष्वावचय करते समय वृक्षोंकी ऊँची शाखाओंको सुन्दरियाँ किसी प्रकार अपने हाथ से पकड़ कर नीचेकी ओर खींच रही थीं, उससे वे वृक्ष नायकके समान प्रेमी द्वारा केश खींचने के गुण रहे।
उपर्युक्त मनोरम वर्ण के लिये कविने रसवर्षक, दुतविलम्बित छन्दको चुना है, जो कि कविको काव्य-ज्ञानसम्बन्धी विशेष प्रशाका सूचक है ।
कृष्णकी मृत्यु हो जानेपर बलराम द्वारा जगाये जानेपर भी जब वे जागते नहीं तब बलराम नारायणको सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि अब सोनेका समय नहीं, अतः उठना चाहिये । इस सन्दर्भमें कविने कल्पनाको ऊँची उड़ान के साथ श्लेषालङ्कारका प्रयोग कर काव्य चमत्कार प्रस्तुत किया है
वारुणीमतिनिषेव्य वारुणचक्रवाकनिव हैरुदश्रुभिः । शोत्रितः पतितभा: मानधः को न वा पतितवारुणीप्रियः ॥
सूर्य वारुणी - पश्चिम दिशारूपों मदिराका अधिक सेवन कर लाल-लाल हो रहा है । उसको मूच्छित दीन-दशापर चक्रवाकपक्षियोंका समूह अश्रु-वर्षा करता हुआ शोक प्रकट कर रहा है। सत्य है वारुणीके सेवनसे किसका अधःपतन नहीं होता |
इस पद्म में कविने सूर्यकी रूपाकृतिके बिम्व द्वारा सन्ध्यासमयका संकेत प्रस्तुत किया है। साथ ही मंदिरा-पानके दोषोंपर भी प्रकाश डाला है ।
आचार्य जिनसेन द्वन्द्वात्मक स्थितियोंके चित्रण में भी अत्यन्त पट्ट हैं । नमिकुमारके विवाह के अवसरपर एकत्र पशु-समूहकी विल स्थितिका तो मूर्तिमान चित्रण है ही, साथ ही नेमकुमारके हृदयकी आन्तरिक अवस्थाका बहुत ही स्पष्ट चित्र उपस्थित किया है। आचार्यने लिखा है
स खलु पश्यति तत्र तदा वने विविधजातिभृतस्तृणभक्षणः । भयविकम्पितमानसगायकान् पुरुषरुद्धमृगानतिविह्वलान् ॥
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रणजित कीर्तयः करितुरङ्ग रथेष्वपि निर्भयान् । अभिमुखानभिहन्तुमधिष्ठितानभिमुखा: प्रहरन्ति न हीतरान् ॥
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रणमुखेषु
एक पशु भय से अत्यन्त विह्वल हैं। उन्हें एक स्थानपर बलपूर्वक अवरुद्ध किया गया है । वे अपने प्राण जाने की आशंकासे अत्यन्त त्रस्त हैं और अपनी
१. हरिवंशपुराण, सर्ग ६१, पद्य ३० ।
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वही, सर्ग ५५ प ८५, ९० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापाषकाचार्य: ७