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कमलभद्राचार्यको एक दान दिया गया है । इसमें पूर्ववर्ती गुरुओंका उल्लेख करते हुए वादिराजमूरिके अनन्तर दो पद्य श्रीविजयकी प्रशंसामें लिखे गये हैं, जिनमें एक पद्य वही है जो वादिराज द्वारा उनकी प्रशंसामें कहा गया है। वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथचरितमें श्रीविजयकी प्रशंसा की है। वादिराजमूरि कारः शंसित विजय ही पदि अपराजितसूर होते तो उनकी विजयोदया टीकामै जिनसेनके महापुराण और अमृतचन्द्राचार्यके ग्रन्थोंका प्रभाव अवश्य रहता, पर ऐसा नहीं है।
एक विजय 'जम्बूदीवपण्णत्ती'के कर्ता पद्यनन्दिके शास्त्रगुरु हैं, जिनके सम्बन्धमें उन्होंने लिखा है-वे नाना नरपतियोंसे पूजित, विगतभय, संघभंगउन्मुक्त, सम्यकदर्शनशुद्ध, सातपशीलसम्पूर्ण, जिनवरवचनविनिर्गत परमागमदेशक, महासत्त्व, श्रीनिलय गुणांसे युक्त और विशेष ख्यातिप्राप्त गरु थे। उनसे आगमको सुनकर तथा प्राप्तकर इस ग्रन्थको रचना की है। इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि जंबूदीवपणास्तीके निर्माणके समय अथवा इसके पूर्व श्रीविजय विद्यमान थे। अतएव यह सम्भव है कि ये ही विजयमुनि रामसेनके शास्त्रगुरु हों।
सेनगणकी पट्टावली में भी रामसेनके साथ विजयका उल्लेख मिलता है। इस पट्टावलीमें एक नागसेनका नाम आया है। बहुत सम्भव है कि ये नागसेन ही रामसेनके दीक्षागुरु हैं ! पट्टावलीमें बताया है
श्रीनेमिसेनाः खलु तत्र पट्टे श्रीरामसेनाः खलु तार्किकाद्याः । श्रीवज्रसेनश्च वसन्ससेनो विनीतसेनो विनयेषु धीमान् ।।
श्रीमन्नागरसेनस्तु विजयश्च मुनीश्वरः । तपस्सु द्वादशाङ्गेषु रतो जिनपरायणः ॥
श्रीरामभद्रो मुनिनागसेनो महेन्द्रसेनो मुनिभद्रनामा।
श्रोजेनमार्गाब्धिविवर्धनाय राकापतित्वं समुपागतास्ते ॥ इस पड़ावलीमें नेमिसेनके पट्टपर रामसेनके आसीन होनेका उल्लेख आया है। इसमें विजय, महेन्द्र और नागसेनके भी उल्लेख हैं। अतएव रामसेनको सेनगणका आचार्य होना चाहिए और इनके दीक्षागुरु नागसेन भी इसी गणके हैं। १. जम्बूदीवपण्णत्ती, सोलापुर संस्करण, १३३१४३-१४५ । २. The Jaina Antiquary Vol. XIHI, N-2, Arrah, Sengana
Pattavali पद्य २३, २४, ३० ।
पयुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २३५