________________
भद्रबाहुचरितमें ग्रन्थरचयिताने जो अपनी प्रशस्ति अंकित की है, उसमें अपने गुरुका नाम ललितकीर्ति बताया है। प्रशस्तिमें लिखा है-प्रतिवादीरूपी गजराजके मदको नष्ट करनेके लिए केसरीकी उपमासे युक्त है, जो शीलपीयूषका जलधि है और जिसने उज्ज्वल कीर्तिसुन्दरीका आलिंगन किया है, उन्हीं अनन्तकीति आचार्यके विनेय और अपने शिक्षागुरु श्री ललितकीति मुनिराजका ध्यान कर मैंने इस निर्दोष चरितग्रन्थका संकलन किया है ।
वादीमेन्द्रमदप्रमदनहरेः शीलामृताम्भोनिधेः
शिष्यं श्रीमदनन्तकीतिगणिनः सत्कोतिकान्ताजुषः । स्मृत्वा श्रीललितादिकोर्तिमुनिपं शिक्षागुरुं सद्गुणं
चक्र चारुचरित्रमेतदनचे रलादिनन्दी मुनिः ॥ विचार करनेपर भद्रबाहुचरितके रचयिता रत्नकीर्ति पूर्वोक्त सभी रत्नकीर्तियोंसे भिन्न प्रतीत होते हैं, क्योंकि रत्ननन्दी या रत्नकीर्तिके गुरु ललितकोतिं थे और उनके दादागुरु अनन्तकीर्ति थे। बलात्कारगण जेरहट शाखामें रत्लकीर्तिके गुरु ललितकीर्ति तो अवश्य उपलब्ध होते हैं, पर दादागुरु अनन्तकीर्ति न होकर यश कीर्ति हैं। अतः ग्रन्थकी प्रशस्तिके साथ उसका समन्वय घटित नहीं होता है। अतएव अनन्तकोतिक प्रशिष्य और लालतकार्तिक शिष्य रलनन्दी या रत्नकीर्ति कोई भिन्न व्यक्ति हैं। स्थितिफाल
भद्रबाहुचरितमें उसके रचनाकालका उल्लेख नहीं है, पर ग्रन्थमें लुकामतको समीक्षा की गयी है । इस समीक्षा-सन्दर्भमें बताया है
मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते । दशपञ्चशतेऽब्दानामसीते शृणुताऽपरम् ।। लुङ्कामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मणः ।
देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजिनिर्जरे । अर्थात् महाराज विक्रमकी मृत्युके पश्चात् १५२७ वर्ष बीत जानेपर गुजरात देशके अणहिल नगरमें कुलुम्बीवंशीय एक महामानी लुका नामक व्यक्ति हुआ। इसने लुकामत-इढ़ियामतका प्रादुर्भाव किया । इस उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि ग्रन्थकार वि० सं० १५२७ के पश्चात् हुआ है। तभी उसने इस ग्रन्थमें १. भद्रयाहु चरित्र, प्रकाशक मूलचन्द किसनदास कापड़िया, दिगम्बर जैन पुस्तकालय,
गांधी चौक, सूरत, श्लोक १७५ । २. श्रीभद्रबाहुचरित, सर्ग ४, श्लोक १५७-१५८ । ४३६ : तीथंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा