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लुकामतकी समीक्षा की है। इससे स्पष्ट है कि भद्रबाहुचरितके रचयिता रत्ननन्दीका समय विक्रमकी १६वीं शतीका उत्तरार्द्ध है। रचना
रत्ननन्दी या रत्लकीर्तिकी एक ही रचना उपलब्ध है— भद्रबाहुचरित । इसमें चार परिच्छेद या सर्ग हैं और भदबाहका जीबनवत्त वर्णित है। प्रथम परिच्छेदमें १२९ पद्य हैं और इसमें भद्रबाहुके बाल्यकाल, शिक्षा, पाण्डित्य, वाद-विवाद शक्ति आदिका वर्णन किया गया है। बताया गया है कि गोबर्धनाचार्य विहार करते हुए पुण्ड्रवर्द्धन देशके कोट्टपुर नगरमें पधारे, वहाँ सोम शर्म नामक द्विजके पुत्र भद्रबाहुको एकके ऊपर एक गोली रखकर, इस प्रकार धतुर्दश गोलियां चढ़ाते हुए देखा और अपने ज्ञानबलसे उसे भावी श्रुतकेवली जानकर आत्रार्य बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने द्विजकुमारसे उसका परिचय पूछा और वे उसके माता-पिताके पास पहुंचे। माता सोमश्री और पिता सर्व मुनिराजको अपने यहाँ आया हुआ देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्हें आसन देकर प्रार्थना को कि प्रभो ! अपने आनेका कारण बतलाइये । गोबर्द्धनाचार्यने उत्तर दिया, भद्र ! यह तुम्हारा पुत्र भद्रबाह समस्त विद्या में पारंगत होगा; अतएव मैं इसे अपने साथ शिक्षाप्राप्तिके लिए ले जाना चाहता है। आचार्य के वचन सुनकर सोमशर्म बहुत प्रसन्न हआ और उसने उनको अपने पुत्रको सौंप दिया । गोबर्द्धनाचार्य भद्रबाहुको अपने साथ ले गये और उसे व्याकरण, साहित्य, न्याय, सिद्धान्त आदि विषयोंका अध्ययन कराया। भद्रबाहुने गोबर्द्धनाचार्यसे समस्त शास्त्रोंका अध्ययन किया। विद्या समाप्त कर वे गुरुके आदेशसे अपने घर लौट आये। तदनन्तर संसारमें जैनधर्मके उद्योतकी इच्छासे उन्होंने परिभ्रमण किया और राजा पपधरकी सभामें अनेक विद्वानोंको पराजित कर जैनधर्मका प्रभाव स्थापित किया । भद्रबाहके तेजसे प्रभावित होकर राजा पमधर भी जैन हो गया। इस प्रकार भद्रबाहुने अनेक स्थानों में अपनी विद्याका महत्व प्रदर्शित किया । कुछ समयके पश्चात् भद्रबाहुको सांसारिक सुख नीरस प्रतीत होने लगे । अतएव वह अपने माता-पितासे आदेश प्राप्त कर गोबद्धनाचार्य की शरणमें गया और प्राथना कि प्रभो! कर्मोको नाश करनेवाली पवित्र दीक्षा मुझे दीजिये। गोबर्द्धनाचार्यने भद्रबाहुको निर्ग्रन्थ-दीक्षा प्रदान की । कुछ दिनोंके पश्चात् गोबर्द्धनाचार्य ने भद्रबाहुको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया।
द्वितीय परिच्छेदमें बताया है कि गोबर्द्धनाचार्यने चार प्रकारके आहारके परित्यागपूर्वक चारों प्रकारको आराधनाओंको ग्रहण किया । कुछ समय पश्चात् समाधिपूर्वक उन्होंने शरीरका त्याग किया । भद्रबाहु अपने संघको लेकर विहार
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४३७