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करते हा उज्जयिनी में पधारे। इस नगरीमें उस समय चन्द्रगुप्त राजा अपनी चन्द्रधी महिपोके माथ निवास कर रहा था ! उसने रात्रिके पिछले भागमें १६ स्वप्न देखे और इन स्वप्नोंका फल जानने के लिए वह आकुलित था। जब उसे भद्रबाहके ससंघ पधारनेका समाचार प्राप्त हुआ तो वह आचार्यके संघका दर्शन करने गया और वहीं पर अपने स्वप्नोंका फल उनसे जाना। स्वप्नोंका फल अवगत करते ही चन्द्रगुप्तको विरक्ति हो गयी और उसने भद्रबाहु गुरुसे जिनदीक्षा ग्रहण कर ली।
एक दिन आचार्य भद्रबाहु जिनदाम सेठके धरपर आहार करनेके लिए पधारे। उनके यहाँ एक निर्जन कोष्टमें साठ दिनकी आयुवाला एक बालक पालने में झूल रहा था, वह मुनिराजको देखकर कहने लगा-जाओ, जाओ। बालकके अद्भुत वचन सुनकर मुनिराजने पूछा-वत्स । कितने वर्ष तक ? बालकने कहा १२ वर्षपर्यन्त । बालकके इन वचनोंसे मुनिराजने समझा कि मालवदेवामें १२ वर्षपर्यन्त मीषण दुभिधा पड़ेगा। अत: वे अन्तराय समझकर अपने स्थानपर वापस लौट आये। उन्होंने संघके समस्त मुनियोंको एकत्र कर कहा कि अब इस देशमें रहना उचित नहीं है, अतएव दक्षिण भारतको ओर प्रस्थान करना चाहिये वहींपर हमारी चर्या सम्पन्न हो सकेगी। रामल्य, स्यूलाचार्य और स्थूलभद्रादि साधुओंको छोड़ शेष सभी साधु-संघ दक्षिणको ओर विहार कर गया। __ तृतीय परिच्छेदमें बताया है कि भद्रबाहुस्वामी विहार करते हुए किसी सधन अटबीमें पहुँचे। वहाँ उन्हें आकाशवाणी सुनायी पड़ी, जिससे उन्होंने समझा कि अब उनकी आयु बहुत कम शेष रह गयी है। अतएव उन्होंने विशाखाचार्यको संघका माचार्य नियत किया और स्वयं वहींपर शेलकन्दसमें संन्यास ग्रहण कर लिया । चन्द्रगुप्त मुनि आचार्य भद्रबाहुकी सेवाके लिए वहींपर रह गये और शेष संघ विशाखाचार्यको अध्यक्षतामें दक्षिणकी ओर गया।
चन्द्रगुप्त मुनिकी चर्या वहीं पर वन-देवताओं द्वारा सम्पादित होने लगी।
चतुर्थ परिच्छेदमें विशाखाचार्यका संघ मालवदेशमें लोट आता है। और रामल्य, स्थूलभद्र तथा स्थूलाचार्य शिथिलाचार्य बनकर नये सम्प्रदायका प्रचार करते हैं । इस परिच्छेदमें अर्जुफालक सम्प्रदाय, श्वेताम्बरमत,लु कामत आदिकी समीक्षा की गयी है ।
इस प्रकार इस काव्यमें पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित्त भद्रबाहके चरितको निबद्ध किया है। रत्ननन्दीने स्वयं स्वीकार किया है कि मैं गुरुओंसे प्राप्त इस भद्रबाहुचरितको लिखता हूँ४३८ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा