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रचना ई० सन् ९७४ के आस-पास हुई है और आचार्य महासेनका समय १०वी शतीका उत्तराई है। रचना __ आचार्य महासेनका 'प्रद्य म्नचरित' महाकाव्य उपलब्ध है । इस काव्यमें १४ सर्ग हैं। परम्पराप्राप्त कथानकको आचार्यने महाकाव्योचित रूप प्रदान किया है। प्रद्युम्नचरितको कथा-वस्तु ___द्वारावती नगरीमें यदुवंशी श्रीकृष्ण नामके राजा हुए। इनको पटरानी सत्यभामा थी। इस पृथुवंशकी पुत्रीने दृष्टिसे मृगोको, वाणीसे कोकिलाको, मुखसे चन्द्रमाको, गतिसे हंसिनीको और अपने कुन्तलसे चमरीको पराजित कर वि । यह विचारही आमंतिथी । बोके समक्ष शत्रु नतमस्त होते ये । प्रथम सर्ग____ एक दिन नारदमुनि पृथ्वीका परिभ्रमण करते हुए द्वारिकाम आये । श्रीकृष्णने उनका स्वागत किया। नारद सत्यभामाके भवनमें गये, पर श्रृंगार करनेमें संलग्न रहनेके कारण सत्यभामा मुनिको न देख सकी। फलतः सत्यभामासे रुष्ट हो नारद श्रीकृष्णके लिए सुन्दरी स्त्रीकी तलाश करते हुए कुण्डिनपुर पहुँचे। राजा भीष्मकी सभामें रुक्मिणी द्वारा प्रणाम किये जानेपर उन्होंने उरो श्रीकृष्ण प्राप्तिका आशीर्वाद दिया। कुण्डिनपुरस चलकर नारद रुक्मिणीका चित्रपट लिये हुए पुनः द्वारिकामें पधारे। चित्रपटको देखकर श्रीकृष्ण रुक्मिणीपर अनुरक्त हो गये। रुक्मिणीके भाईका नाम रुक्म था, यह रुक्मिणीका विवाह शिशुपालके साथ करना चाहता था । अतः शिशुपालने ससैन्य कुण्डिनपुरको घेर लिया, पर रुक्मिणी शिशुपालको नहीं चाहती थी। नारदने श्रीकृष्णको रुक्मिणी हरणकी सलाह दी । द्वितीय सर्ग
श्रीकृष्ण और बलराम कुण्डिनपुरके बाहर उपवनमें छिपकर बैठ गये। नगर. के चारों ओर शिशुपालको सेना घेरा डाले थी। रुक्मिणी उस उपवनमें कामदेवके अर्चनके लिये गयो । श्रीकृष्णने उसका अपहरण किया। भीष्म, रुक्म और शिशुपाल द्वारा पीछा किये जानेपर श्रीकृष्णने शिशुपालका बध किया और सकुशल रुक्मिणीको लकर आ गये । उपवनमें रुक्मिणीके साथ उनका पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। एक दिन श्रीकृष्णने झम्भिणीको श्वेतवस्त्र पहनाकर उपवनमें एक शिलापर बैठा दिया और स्वयं लताकुञ्जमें छिप गये । जब सत्यभामा वहाँ आयी, तो रुक्मिणोको सिद्धांगना या देवांगना समझ उसकी पूजा करने लगी
प्रयुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ५७