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करता है, वह व्यक्ति भ्रममें है | रुद्र, दिग्गज, देव, दैत्य, विद्याधर, जलदेवता, गह, व्यन्तर, दिकपाल, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, धरणीन्द्र, चक्रवर्ती, पवनदेव, सर्यादि, ज्योतिषी देव, बलिष्ट देहधारी सब मिलकर भी मत्युसे एक क्षण भी रक्षा नहीं कर सकते। पाताललोक, ब्रह्मलोक, इन्द्रभवन, समुद्रतट, वन-पर्वत आदि किसी भी स्थानम मृत्युसे रक्षा नहीं हो सकती है।
सर-मावनामें १० पर हैं : हाल में पारों गनिगोंने प्राणियोंके दुःखोंका बर्णन किया गया है । नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चारों गतियोंमेसे किसी भी गतिमें सुख-शान्ति नहीं है। यह जीव संसारमें अनादिकालसे प्रस, स्थावर योनियोंमें परिभ्रमण करता हुआ समस्त जीवोंके साथ पिता, पुत्र, भ्राता, माता, पुत्री आदि सम्बन्ध अनेक बार प्राप्त करते हैं। ऐसा कोई भी संसारका प्राणी नहीं है, जिसके साथ हमारा कभी-न-कभीका सम्बन्ध न हुआ हो। इस संसारमें प्राणीको माता मरकर पुत्री हो जाती है और वहन मरकर स्त्री हो जाती है, फिर वही स्त्रो मरकर पुत्री हो जाती है । इसी प्रकार पिता मरकर पुत्र हो जाता है। फिर वही मरकर पुत्रका पुत्र हो जाता है । इस प्रकार इस संसारमें रागभाबके कारण विभिन्न सम्बन्धोंका सजन होता है। संसारका कारण अज्ञानभाव है । अज्ञानभावसे परद्रव्योंमें मोह तथा राग-द्वेषकी प्रवत्ति होती है। राग-द्वेषकी प्रवृत्तिसे कर्मबन्ध होता है और कार्मबन्धका फल चारों गतियोंमें परिभ्रमण करना है। यहाँ कार्य और कारण दोनोंको ही संसार बताया है।
एकल्ल-भावनामें ११ पद्य हैं। निश्चयसे तो आत्मा अनन्तज्ञानादिस्वरूप एक ही है, पर संसारमें जो अनेक अवस्थाएँ होती हैं, वे कर्मके निमित्तसे हैं। उनमें भी आप अकेला ही है, दूसरा कोई साथी नहीं।
अन्यत्व-भावनामें १२ पद्य हैं। यह आत्मा अनादिकालसे परपदार्थोंको अपना मानकर उनमें रमता है। इसी कारणसे संसारमें भ्रमण किया करता है। अतएव परभावोंसे भिन्न अपने चैतन्यभावोंमें लीन होकर मुक्तिके प्राप्त करनेका प्रयास करना चाहिये। इस लोकमें समस्त द्रव्य अपनी-अपनी सत्ताको लिये भिन्न-भिन्न हैं। कोई भी किसीमें मिलता नहीं है और परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावसे कुछ कार्य होता है। उसके भ्रमसे यह प्राणी परमें अहंकार, ममकार करता है। अतएव अपने स्वरूपको अन्य पदार्थासे भिन्न समझकर निजरूपका अनुभव करने में प्रवृत्त होना श्रेयस्कर है ।
अशुचि-भावनामें १३ पद्य हैं । आत्मा निर्मल है, अमूर्तिक है । अतएव उसमें किसी प्रकारका मल नहीं लगता है। पर कर्मोके निमित्तसे जो इसके शरीरका सम्बन्ध है उसे यह अज्ञानसे अपना मानकर अपनेको मलरूप समझता है। यह १५६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माघार्यपरम्परा