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________________ शरीर सभी प्रकारसे अपवित्रताका घर है कर्पूर, केशर, अगर, कस्तूरी, हरि चन्दनादि सुन्दर पदार्थों को भी यह शरीर संसर्गमात्रसे अशुद्ध कर देता है । अतएव इस शरीरको अशुद्धिका भण्डार समझकर निजात्माकी प्रतीति करना चाहिये । आस्रव-भावना ९ पद्म हैं। बताया है कि यह आत्मा शुद्ध निश्चयनयको दृष्टिसे तो आस्रवमे रहित केवलज्ञानरूप है, तो भी अनादिकर्म के सम्वन्धसे मिथ्यात्वादिपरिणामरूप परिणमता है। अतएव नवीन कर्मोंका आवर्ता है | जब उन मिथ्यात्वादिपरिणामोंसे निवृत्ति प्राप्त कर अपने स्वरूपका ध्यान करे, तब कर्मास्त्रोंसे रहित हो मुक्तिकी ओर अग्रसर होता है । संवर-भावना १२ पद्य है । समस्त कल्पनाओंके जालको छोड़कर अपने स्वरूपमें मनको निश्चय करना ही संवर-भावना है। यह आत्मा अनादिकाल से अपने स्वरूपको भूल रही है, इस कारण आम्रवरूप भावोंसे कर्मको बाँधती हैं और जब यह अपने स्वरूपको जानकर उसमें लीन होती है, तब यह संवररूप होकर आगामी कर्मबन्धको रोकती है और पूर्व कर्मोंकी निर्जरा होनेपर मुक्त हो जाती है । मंदर वाहाकारण समिति, गुप्ति, धर्मानुप्रेक्षा, परिषद्जयोंका अभ्यास करना है । निर्जरा - भावना में पद्य है। इसमें आत्मा और कर्मका सम्बन्ध अनादिकालसे है । काललब्धि के निमित्तसे यह आत्मा जब अपने स्वरूपको सम्हाल तपश्चरण करके ध्यान में लीन हो जाती है तब मंचित कर्मोंकी निर्जरा होती है। और जब यह आगामी नये कर्म न बांधे और पुराने कर्मोकी निर्जरा करे तब मोक्षको प्राप्ति होती है । P धर्म-भावना २३ पद्य हैं। इसमें आचार्यने धर्मके स्वरूपका और उसके महत्त्वका प्रतिपादन किया है । धर्म चार प्रकारका है - १. वस्तुस्वभावस्वरूप, २. उत्तमक्षमादिदशरूप ३ रत्नत्रयरूप और ४. दयामयरूप | निश्चय-व्यवहारनयसे साधन किया हुआ यह धर्म एकरूप तथा अनेकरूप सकता है । व्यवहारनयकी प्रधानतासे धर्मका स्वरूप, महिमा और फल आदिका भी निरूपण किया है । लोक-भावना में ७ पद्य हैं। यह लोक जीवादिक द्रव्योंकी रचना है । जो अपने-अपने स्वभावको लिये हुए भिन्न-भिन्न रूपमें रहते हैं, उनमें एक आत्मद्रव्य भी है। उसका यथार्थस्वरूप रत्नत्रय है । अतएव जो आत्मतत्त्वकी साधना करना चाहता है उसे समस्त द्रव्योंके यथार्थस्वरूपको समझकर लोकके चिन्तन द्वारा आत्मजागरण करना चाहिये । प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १५७
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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