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है कि ये आचार्य अभयनन्दिके शिष्य थे । अभयनन्दिके गुरुका नाम गुणनन्दि था।
श्रवणवेलगोलके ४७वें अभिलेखमें बताया है कि गुणनन्दि आचार्यक ३०० शिष्य थे 1 उसमें ३२ सिद्धान्त-शास्त्रके मर्मज्ञ थे। इनमें देवेन्द्र सैद्धान्तिक सबसे प्रसिद्ध थे। इन देवेन्द्र सैद्धान्तिक शिष्य कलधौतनन्दि या कनकनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। कनकनन्दिने इन्द्रनन्दि गुरुके पास सिद्धान्त-शास्त्रका मध्ययन किया था ।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें अभयनन्दि, इन्द्रनन्दि और वीरनन्दि इन तीनों आचायोंको नमस्कार किया है।
एक अन्य गाथामें उन्होंने बताया है कि जिनके चरणप्रसादसे बीरनन्दि और इन्द्रनन्दि शिष्य अनन्त संगारमे पार हुए हैं, उन अभयनन्दि गुरुको नमस्कार है
अतः प्रतीत होता है कि वीरनन्दिके गुरु अभयन्दि, दादागुरु गणनन्दि और सहाध्यायी इन्द्रनन्दि थे । नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती इनक शिष्य अथवा लघु गुरुभाई प्रतीत होते हैं। इन्होंने उन्हें नमस्कार किया है । स्थिति काल
पाश्वनाथचरितमें महाकवि वादिराजने ( ई० सन् १०२५ ) चन्दप्रभकाव्य और उसके रचयिता बीरनन्दिकी संस्तुति करते हुए लिखा है कि
चन्द्रप्रभाभिसम्बद्धा रसपुष्टा मनः प्रियं ।
कुमुदतीव नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ।। जिस प्रकार चन्द्रमाको प्रभा कुमुदवतीको प्रफुल्लित करती है, उसी प्रकार शृङ्गारादि नव रसोंसे पुष्ट चन्द्रप्रभचरितमें ग्रथित वीरनन्दिस्वामीकी वाणी, हमारे मनको प्रफुल्लित करती है।
१. गमिका भभयदि सुद-सायर पारगिददिमुरु । वरवीरदिणाहं पण्डीणं पच्चयं योन्छ ।
-गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा ७८५ । २. जस्स 2 पायपसायेगणतसंसारजलहिमुत्तिण्यो।
पोरिवणंदिवच्छो गमामि तं अभयमंदिगुरुं ॥ ३. वही, गाथा ४३६ । ४. मो०० गा० ७८५, पार्श्वनामचरित, माणिकचन्द्र ग्रम्पमाला सीरीज, १॥३० ।
५४ : सीकर महावीर और उनकी माचार्यपरम्परा