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रायवादि पितामह अभयचन्द्र सिद्धान्तदेवका ज्येष्ठ शिष्य बुल्लगौड़ था, जिसका पुत्र गोपगोड़ नागरखण्डका शासक था । नागरखण्ड कर्नाटक प्रदेशमें था।' बुल्लगौड़के समाधिमरणका उल्लेख भारंगीके एक अन्य अभिलेखमें भी मिलता है, जिसमें बताया गया है कि बुल्ल या बुल्लुपको यह अवसर अभयचन्द्रकी कृपासे प्राप्त हुआ था । हुम्मचके एक अन्य अभिलेखमें अभयचन्द्रको चैत्यवासी कहा है।
अभयचन्द्र के समाधिमरणसे सम्बन्धित अभिलेखमें कहा गया है कि वह छन्द, न्याय, निघण्टु, शब्द, समय, अलंकार, भचक्र, प्रमाणशास्त्र आदिके विशिष्ट विद्वान थे। इसी तरह श्रुरिती परमार ...रके उसमें बायपद्रमूरि परिचय देते हुए लिखा है
सागम-परमागम-तक्कागम-णिरवसेसवेदी हु ।
विजिद-सयलण्णवादी जयउ चिरं अभयसूरि-सिद्धती ।। इससे भी अभयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीके पाण्डित्यपर प्रकाश पड़ता है । श्रुतमुनिका परमागमसार शक संवत् १२६३में समाप्त हुआ है । अतएव श्रुतमुनिका समय ई० सन्को १३वीं शताब्दी निश्चित है। रचना
अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीने कमप्रकृतिनामक ग्रन्थकी रचना की है। श्री आचार्य जुगलकिशोर मुस्तारने इनको गोम्मटसार जीवकाण्डको मन्दप्रबोधिका टीकाका रचयिता भी माना है। कर्मप्रकृतिके आदि और अन्तमें मंगलपद्य दिये गये हैं, जो निम्नप्रकार हैं
प्रक्षीणावरणद्वैतमोहप्रत्यूहकर्मणे । अनन्तानन्तपीदृष्टिसुखवीर्यात्मने नमः ॥
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जयन्ति विधताशेषपापाजनसमुच्चया:।
अनन्तानन्तधीदृष्टिसुखवीर्या जिनेश्वराः ।। इन दोनों पद्योंके अतिरिक्त शेष समस्त ग्रन्थ गद्यमें लिखा गया है। १. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ३, अभि० सं० ६१० । २. वही अभि० सं० ६४६ । ३, बहो. अभि ० सं०६६७ । ४. अनेकान्त, वर्ष ८, किरण १२, १० ४४१ ।
३२० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा