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एस० कुप्पुस्वामी शास्त्री प्रमुख हैं । उक्त दोनों विद्वानोंने “अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती" परिमल कविकी इस धारानरेश भोज सम्बन्धी उक्तिका पूर्वार्द्ध सत्यन्वर महाराजके शोकके प्रसंग में गद्यचिन्तामणिमें प्राप्त कर वादीभसिंहका समय भोजदेव के पश्चात् माना है । भोजदेवका राज्यकाल विक्रम संवत् १०७६ से वि० संवत् १९९२ माना जाता है । अतएव पण्डित प्रेमी और कुप्पुस्वामी शास्त्री दोनों ही विद्वान् वादीभसिहको वि० सं० को ११वीं शताब्दीका आचार्य मानते हैं ।'
(३) ११वीं शतीकी उत्तरार्द्धसम्बन्धी मान्यताके समर्थक श्री पण्डित के० भुजबली शास्त्री हैं । इन्होंने अजितसेनको वादोभसिंहका ही अपर नाम मानकर, उनका काल ११ वीं शताब्दीका उत्तराद्धं माना है । शास्त्रीजीका दूसरा तर्क क्षत्रचूड़ामणिके— “राजतां राजराजोऽय राजराजी महादयः । तेजसा यता शूरः क्षत्रचूडामणिर्गुणैः ॥ " पद्यमें आया हुआ 'राजराज' पद है। इस पदको शास्त्रीजी ने श्लेषात्मक मानकर चरितनायक जोवन्धरके अतिरिक्त तत्कालीन शासक राजराजसे सम्बद्ध' माना है । यह शासक चोलवंशी 'राजराज हो सकता है । चोल राजाओं में इस नामके दो व्यक्ति हुए हैं। प्रथम राजराजका काल ई० सन् ९८५-१०१२ तक तथा द्वितीयका ई० सन् १९४६-११७८ तक माना गया है। शास्त्रीजीने द्वितीय राजराजका ही वादीभसिंहको समकालीन माना है । तथा उन्होंने श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० ५४, ३, ४० और ३७ द्वारा अपने तथ्यांकी पुष्टि की है । अन्तिम निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है - "मेरे पूर्व कथनानुसार जब वादी सिंहका समय ११वीं शताब्दीका उत्तराद्धं निर्विवाद सिद्ध होता है, तब वादोभसिंहको दशम शतकका मानना ठीक नहीं है ।'
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" मेरे इस अनुमानको श्रीयुत् स्व० आर० नरसिंहाचार्य और श्रीयुत् प्रोफेसर एस० श्रीकण्ठशास्त्री इन दोनों पुरातत्त्वविशारदाने स्वीकार किया है । परन्तु पूर्वोक्त अपने-अपने निर्धारित समयानुकूल आर० नरसिंहाचार्य वादीभसिंहको द्वितीय राजराजका समकालीन एवं प्रो० एस० श्रीकण्ठशास्त्री प्रथम राजराजका समकालीन मानते हैं । शास्त्रीजीका कहना है कि द्वितीय राजराजकी अपेक्षा प्रथम राजराज बहुत प्रसिद्ध था, पर मेरे जानते यह कोई सबल तर्क
१. जैन साहित्य और इतिहास, बम्बाई १९५६, पृ० ३२५ ।
२. क्षेत्रचूडामणि, ११।१०६ ।
३. जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ६, किरण २, पृ० ७८-८७ तथा भाग ७, किरण १ पु० १-८ ।
४. वही भाग ६, किरण २, पृ० ८६ ।
२८ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा