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तक उपलब्ध साहित्यमें इनकं समयक सम्बन्धमें निम्नलिखित विचार-धाराएँ प्राप्त होती हैं
१. ई० सन् १७७०-८६० ई० की मान्यता २. विक्रमको ११वीं शतीके प्रारम्भकी मान्यता ३. ग्यारहवीं शतीके उत्तरार्द्धकी मान्यता ४. बारहवीं शत्तीकी मान्यता
(१) प्रथम मान्यताके पोषक पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री और डा० प्रो० दरबारीलाल वोटिया है। आप दोनों महानुभावाने जिनसेनके आदिपुराण (ई० मन् ८३८), नादिराजके पार्श्वनाथचरित' ( ई० सन् १०२५ ) एवं लघु समन्तभद्रके आटसहस्रीटिप्पण" ( विक्रम १३वीं शतो) के वादोभसिंहविषयक उल्लेखोंके आधारपर उनका समय ई० मन् ८-९वीं शती माना है। डा० दरबारीलाल कोठियाने 'स्वावादसिद्धि' के संदर्भाशोंके साथ जयन्तभट्टकी 'न्यायमन्जरी', कुमारिलके 'मीमांसाश्लोकवातिक' एवं बौद्ध दार्शनिक शंकरानन्दकी 'अपोसिद्धि' और 'प्रतिबन्धसिद्धि' के तुलनात्मक उद्धरण प्रस्तुत कर वादीमिदका समय ई० सन ७५०-८६० के मध्य सिद्ध किया है। डॉ० कोठियाने श्री कैलाशचन्द्र शास्त्रीके समान ही वादीसिंह और बादीभसिंहको एक ही विद्वान् स्वीकार किया है ।
पण्डित नाथूराम प्रेमी भी वादिसिंह और बादीभसिंहको एक ही व्यक्ति मानते थे। पर जैन साहित्य और इतिहासके द्वितीय संस्करणमें उक्त दोनों नामोंको एक ही मानने में अस्वीकृति प्रकट की है। पर प्रेमीजीने इस मत-परिवर्तनका कोई कारण नहीं बतलाया है।
(२) द्वितीय मान्यताके समर्थक विद्वानोंमें पण्डित नाथूराम प्रेमी और टी.
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१. न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रस्तावना, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पृ० १११ । २. स्याद्वादसिद्धि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, प्रस्तावना, पृ० ११ । ३. कवित्वस्प परा सीमा वाग्मित्वस्य परं पदम् । गमकत्वस्य पर्यन्ता वादिसिंहोऽयंते न कः ।।
--महापुराण ( भारतीय ज्ञान० १९५१ ) ११५४ ४. स्पाद्वादगिरमाश्रित्य वादिसिंहस्थ गजिते। ___ दिग्नागस्य मदध्वंसे कीर्तिभंगो न दुर्घटः । —पार्श्व ११२१ । ५. तदेवं महाभागस्ताकिका रुपज्ञातां श्रीमता वादीसिंहेनोपलालितामासमीमांसामल
विकीर्षवः स्याद्वादोद्भासिसत्यवाक्यमाणिक्यमकारिकापटमदेकटकारा: सूरयो........... प्रतिज्ञाश्लोकमेकमाह-अष्टसहस्री-टिप्पण, पृ०१।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २७