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और सुबोध है | समस्त गन्थम २०८ मुत्र है और यह छः समुद्देशों में विभक्त है । प्रथम समुद्दे शमें १३ मूत्र हैं। इसमें प्रमाणका स्वरूप, प्रमाणके विशेषणोंकी सार्थकता, दीपन हटान्तसे ज्ञान में 'स्व' और 'पर' की व्यवसायात्मकताकी सिद्धि तथा प्रमाण की प्रमाणताकी ज्ञप्तिको कञ्चित् स्वत: और कथञ्चित् परत: सिद्ध किया गया है। हिताहितमाप्ति-परिहारमें समर्थ होनेके कारण ज्ञानको ही प्रमाण माना गया है। अज्ञानरूप सन्निवापं आणि प्रमाणलक्षणोंको मीमांसा की है।
द्वितीय रामहगामें १२ मत है। प्रमाण प्रत्यक्ष आर परोक्ष दो मंद, प्रत्यक्षका लक्षण, सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका मन, अर्थ और आलोकम ज्ञान प्रति कारणताका निरास, पदार्थस ज्ञानात्पत्तिका खण्डन, स्वाधरणक्षयोपशमरूप योग्यत्तासे ज्ञान के द्वारा प्रतिनियत निपकी सहया,
माणसाना विषय मानने में व्यभिचारका प्रतिपादन और निरावरण एवं अतीन्द्रियस्वरूप मुख्यप्रत्यक्षका लाण प्रतिपादित किया गया है ।
तृतीय समद्देशमें ९७ सूत्र हैं। इसमें परीक्षका लक्षण, परोक्ष प्रमाणके पाँच भेद, उदाहरणपूर्वक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमानका लक्षण, हेतु और अधिनाभावका स्वरूग, साध्यका लक्षण, साध्यको बिशेषणोंकी सार्थकता, धर्मीका प्रतिपादन, धर्मीकी सिद्धिके प्रकार, पक्षप्रयोगको आवश्यकता, अनुमानके दो अंगोंका प्रतिपादन, उदाहरण, उपनय और निगमनको अनुमानके अंग माननेमें दोपोद्भावन, शास्त्र (वीतराग) कथा म उदाहरणादिके भी अनुमानके अवयव होनेकी स्वीकृति, अनुमानके स्वार्थानुमान और परार्यानुमान, हेतुके उपलब्धि और अनुपलब्धि, उपलब्धिके अविरुद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि, तथा अनुपलब्धिके अविरुद्धानुपलब्धि और विरुद्धानुपलब्धि एवं अविरुद्धोपलब्धिके व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्नचर, उत्तरचर और सहचर, विरुद्धोपलब्धिके भी अविद्धोपलब्धिके समान विरुद्धव्याप्य, विरुद्ध-कार्य, विरुद्ध-कारण, विरुद्धपूर्वचर, विरुद्धउत्तरचर, और विरुद्ध-सहचर, अनुपलब्धिके प्रथम भेद अविरुद्धानुपलब्धिके अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, ब्यापकानुपलब्धि, कार्यानुपलब्धि, कारणानुपलब्धि, पूर्वचरानुपलब्धि, उत्तरचरानुपलधि और सहचरानुपलब्धि; विरुद्धानुपलब्धिके विरुद्धकार्यानुपलब्धि, विरुद्धकारणानुपलब्धि और विरुद्धस्वभावानुपलब्धि इन सभीका विशद प्रतिपादन है। बौद्धोंके प्रति कारणहेतुकी सिद्धि, आगमप्रमाणका लक्षण और शब्दमें वस्तुप्रतिपादनको शक्तिका भी इसी समुददेशमें वर्णन है। ___चतुर्थ समुद्दे शमें ९ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणके सामान्य-विशेष उभयरूप विषयकी सिद्धि करते हुए सामान्य और विशेषके दो-दो भेदोंका उदाहरण सहित प्रतिपादन किया गया है।
४४ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्यपरम्परा