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शुभाशुभ और भूत-भविष्यत्का भी शान किया जाता है। मनको वशीभूत' करनेसे विषय-वासनाएं नष्ट हो जाती हैं और आत्मशक्ति उबुद्ध हो जाती है, जिससे समस्त वस्तुओंका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ३० सर्गमें १४ पद्य हैं । प्रत्याहार गरेर कारणावा इसमें नर्गन भाया है।
३१वें सर्गमें ४२ पद्य हैं। इसमें सवीर्यध्यानका वर्णन है । इसमें परमात्माके स्वरूपका भी चित्रण है और साथ ही साकार और निराकार भेदोंका भी निरूपण किया है। ३९वें सर्गमें १०४ पद्य हैं। शरीर और आत्माके भेदविज्ञानके बिना आत्माका स्वरूप प्राप्त नहीं होता। आत्माके स्वरूपका वर्णन करते हुए लिखा है
निर्लेपो निष्कल: शुद्धो निष्पन्नोऽत्यन्तनिवृतः ।
निर्विकल्पश्च शुद्धात्मा परमात्मेति वर्णितः ।। आत्मा कर्मकलसके लेपसे रहित है, शुद्ध है, रागादिविकारसे रहित है, निष्पन्न है, सिद्धस्वरूप है, अविनाशी सुखरूप है, निर्विकल्पक है और सभी प्रकारसे शुद्ध है। इस सर्गमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका वर्णन आया है। जो देह, इन्द्रिय, धन, सम्पति आदि बाह्यवस्तुओंमें आत्म-बुद्धि करता है वह बहिरात्मा है | जो अन्तरङ्गविशुद्ध ज्ञान-दर्शनमयो चेतनामें आत्मबुद्धि करता है और चेतनाके विकार रागादिकभावोंको कर्मजनित हेय जानता है, वह अन्तरात्मा है और वही सम्यग्दष्टि है तथा जो समस्त कर्मोसे रहित केवलज्ञानादिगुणसहित है, वह परमात्मा है। उस परमात्माका ध्यान अन्तरात्मा होकर करना चाहिए । जो निश्चयनयसे अपने आत्माको ही अनन्तज्ञानादि गुणोंकी शक्तिसहित जानकर नयके द्वारा युगपत् शक्ति-व्यक्तिरूप परोक्षका अपने अनुभवमें साक्षात्कार करता है और शुद्धात्मरूप अपनेको अनुभूतिमें लाता है, वह समस्त कर्मोंका नाश कर स्वयं परमात्मा बन जाता है । ध्यानसे सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानश्रेणीका आरोहण करता है और उसीसे शुक्लध्यानको प्राप्त कर कमौका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त करता है।
३३ वें सर्गमें २२ पद्य हैं और आज्ञाविचय धर्मध्यानका स्वरूप है। ३४ सर्गमें १७ पद्य हैं और अपायविचय धर्मध्यानका स्वरूप वणित्त है। ३५वें सर्गमें ३१ पद्यों द्वारा विपाकविचय धर्मध्यानका स्वरूप बतलाया गया है। ३६वें सर्गमें १८६ पथ हैं और संस्थानविचय धर्मध्यानका वर्णन किया गया है संस्थानविचय धर्म-ध्यानके अन्तर्गत लोकसंस्थानका वर्णन आया है । ३७ वें
१. ज्ञानार्णव, ३२६८।
प्रबुद्धाचार्ग एवं परम्परापोषकाचार्ग : १६१