________________
सर्ग में ३३ पद्यों द्वारा पिण्डस्यध्यानका वर्णन किया गया है। इसमें पृथ्वी, अग्नि, पवन, जलादिककी कल्पना किस प्रकार करनी चाहिए, इसका भी वर्णन आया है । ३८ वें सर्गमं पदस्थव्यानका वर्णन १२६ पत्रोंमें किया गया है।इन् पदों के अभ्यासका भी कथन आया है । मन्त्रपदोंका ध्यान मोक्षका महान उपाय है । इस ध्यान द्वारा अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं ।
३९ वें सर्गमें ४६ पद्यों द्वारा रूपस्थध्यानका वर्णन आया है । रूपस्थध्यान में अर्हन्त भगवानका ध्यान करना चाहिए। इस सन्दर्भमें अर्हन्तके अतिशय और जन्म-जरा-मरण आदि १८ दोषोंका अभाव भी आचार्यने आगमप्रमाण द्वारा सर्वज्ञमें सिद्ध किया है । ४० सर्ग ३१ पद्यों द्वारा रूपातीत ध्यानका वर्णन आया है । जब ध्यानी सिद्धपरमेष्ठीके ध्यानका अभ्यास करके शक्तिकी अपेक्षाले अपने आपको भी उन्हींके समान जानकर अपनेको उनके समान व्यक्त करनेके लिए लीन हो जाता है, उस समय कर्मका नाश होकर सिद्धपदकी प्राप्ति होती है। ४१ वें सर्गमें २७ पद्य हैं। इसमें धर्मध्यानके फलका वर्णन किया गया है । ४खें सर्गमें ८८ गद्य हैं । इसमें शुक्लध्यानका वर्णन किया है। बताया है1 अथ धर्ममतिकान्तः शुद्धि चात्यन्तिकीं श्रितः । ध्यातुमारभते वीर: शुक्लमत्यन्तनिर्मलम् || निष्क्रिय करणातीतं ध्यान-धारणवर्जितम् ! अन्तर्मुखं च यच्चित्तं तच्छुवलमिति पठ्यते ॥ आदिसंहननोपेतः पूर्वज्ञः पुण्यचेष्टितः ।
चतुर्विधमपि ध्यानं स शुक्लं ध्यातुमर्हति ॥
धर्मध्यानके अनन्तर अत्यन्त शुद्धताको प्राप्त हुआ वीर-वीर मुनि निर्मल शुक्लध्यानको प्रारम्भ करता है । यह क्रियारहित है, इन्द्रियातीत है ओर ध्यानकी धारणासे रहित है। इसमें चित्त अपने स्वरूपकी ओर संलग्न रहता है, यह ध्यान वज्रवृषभनाराचसंहनन वालेके, जो ११ अंग और १४ पूर्वोका ज्ञाता होता है, शुद्ध चरित्रवाला होता है, उसीको प्राप्त होता है । शुक्लध्यानके पृथकत्ववित्तर्क एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, व्युपरत - क्रियानिवृत्ति ये चार भेद हैं। इनमेंसे प्रथम दो ध्यान छधस्थ योगीके अर्थात् १२ गुणस्थानपर्यन्त अल्पज्ञानियों के भी होते हैं । अन्तके दो शुक्लध्यान सर्वथा रागादि दोषोंसे रहित केवलज्ञानियोंके होते हैं। इस प्रकार इस सर्ग में शुक्लध्यानका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है और अन्तमें ज्ञानार्णवका महत्त्व बतलाते हुए ग्रन्थ समाप्त किया है-
१. ज्ञानार्णव, ४२।३-५ ।
१६२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा