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श्रीधराचार्य द्वारा विरचित ज्योतिर्ज्ञानविधिमें एक प्रकरण प्रतिष्ठामुहूता है, इस प्रकरणके समस्त पद्य वसुनन्दि-प्रतिष्टापाठमें ज्यों-के-त्यों उद्धृत हैं। ज्योतिर्ज्ञानविधि ज्योतिषका स्वतन्त्र ग्रंथ है, अतः प्रतिष्ठापाठके मुहूर्त विषयक श्लोक इस ग्रन्थमेंसे लेकर प्रतिष्ठापाठमें उद्धृत किये गये होंगे। जैनसाहित्य वनादिनामवे तीन लावार्य मिलते हैं....-एकका समय वि०सं० ५३६, दुसरेका वि०सं०७०४ और तीसरेका विक्रम संवत् १३९५ है। मेरा अनुमान है कि अन्तिम बसुनन्दि ही प्रतिष्ठापाठके रचयिता है । अत्तः यह मानना पड़ेगा कि विक्रम संवत् १३९५में श्रीधराचार्यके प्रतिष्ठामुहर्नश्लोकोंका संकलन वसुनन्दिने किया है।
श्रीधराचार्यके समयनिर्धारणके लिए एक और मबल प्रमाण ज्योतिर्ज्ञानविधिका है । इस ग्रन्थमें मासध्रुवा साधनकी प्रक्रिया करने में वर्तमान शकाब्दमेंसे एक स्थानपर ७२० और प्रकारान्तरसे पुनः इस क्रियाके साधनमें ७२१ घटाये जानेका कथन है। ज्योतिषशास्त्र में यह नियम है कि अहर्गण साधनके लिए प्रत्येक गणक अपने गत शकाब्दके वर्षोंको या वर्तमान शकाब्दके वर्षोंको क्रिया करते समयके शकाब्दके वर्षों से घटाकर अन्य क्रियाका बिधान बतलाता है। उदाहरणार्थ ग्रहलाघव आदि कर्णग्रन्थोंको लिया जा सकता है। इन ग्रंथोंके रचयिताओंने अपने समयके गत शकाब्दको घटानेका विधान बताया है । अतएव यह निश्चित है कि श्रीधराचार्यने भी अपने समयके गत शफाब्द और वर्तमान शकाब्दको घटानेका विधान किया है । जहाँ इन्होंने क्रिया करते समयके शकाब्दमेंसे ७२०को घटानेका विधान बतलाया है, वहीं गत शकाब्द माना जायेगा और जहाँ ७२१के घटानेका कथन है, वहाँ वह वर्तमान शक है ।
इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रमाण यह भी है कि प्रकारान्तरसे मासध्रुवानयनमें ७२१को करणाब्दकाल बतलाया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि शक संवत् ७२१में ज्योतिर्ज्ञानविधिकी रचना हुई है । लिखा है
करथिन्यूनं शकाब्दं करणान्दं रयगुणं द्विसंस्थाप्य । रागहृतमदोलब्धं गतमांमाश्चोपरि प्रयोज्य पुनः ।। संस्थाप्याधो राधागणिते खगुणं तु वर्षदेखादि ।।
संत्याज्ये नीचाप्ते लब्धा वारास्तु शेषाः घटिकाः स्युः ।।२।। १. ज्योतिनिविधि-आग पाण्डुलिपि, पृ० २६ । २. वमुनन्विप्रतिष्ठापाठ, प्रथम परिच्छेद, पद्य १-६ । ३. ज्योतिनिविधि, आरा जैनासदान्त भवन को पाण्डुलिपि. पत्र ५ ।
१९० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा