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और विद्यादान । जो श्रावक इन चारों दानोंको देता रहता है, वह अपने कर्मोकी शीन्न निर्जरा कर लेता है । गृहस्थाबस्थामें दान, पूजन और स्वाध्याय ही कर्मक्षयका कारण है । लिखा है
दाणु चउविह जिणवरह, कहियउ सावय दिज्ज ।
दय जीवई चउसंघहवि, भोयण कसह विज ॥ १७६ ॥ इसी प्रकार समाविमरणके सम्बन्धमें लिखते हुए कविने पण्डितमरणको श्रेष्ठ बताया है
बाल मरण मुणि परिहरहि, पंडिय मरणु मरेहि ।
बारह जिण सासणि कहिय, अणुवेक्खउ सुमरेहि ॥ २२६ ।। कत्रिने ग्रन्थको समाप्त करते हुए लिखा है
जो पदइ पहावई संभलइ, दचिणु दवि लिहाबइ । मयंद, भणं सो निनुलर, अवावद् सोक्नु परावइ ।। ३३३ ।।
गुणचन्द्र भट्टारक गुणचन्द्र मूलसंघ सरस्वतीगन्छ बलात्कारगणके भट्टारक रत्नकीतिके प्रशिध्य और भट्टारक यश कीतिक शिष्य थे। यशःकीति अपने समयके अच्छे बिद्वान हैं । पट्टावलीमें यश कीतिका उल्लेख निम्न प्रकार आया है
श्रीरत्नकोतिपदपुष्करालिरादेष्टमुख्यो यशकीतिरिः ।।
पदी भजामि सुहृवेष्टमूतिर्देदीप्याता को मुनिचक्रवर्ती ॥ ३८ ॥ भट्टारक-सम्प्रदायके लेखक जोहरापुरकरके अनुसार भानपुर-शाखाके भट्टारकोंमें रत्कीतिका समय वि० सं० १५३५, यश-कीतिका समय १६१३ और गुणचन्द्रका समय वि०सं० १६३०-१६५३ बताया गया है । गुणचन्द्रका पट्टाभिषेक साँवला गाँवमें हुआ था। इनका स्वर्गवास सागवाड़ामें वि० सं० १६५३में हुआ है। एक ऐतिहासिक पत्रमें बताया है-'तेणानो पादे गाम साबले... समस्त संघ मिली आचार्य गुणचन्द्र स्थापना करवानी सं० १६५३ वर्षे आचार्यश्री गुणचन्द्रजी सागवाडे काले करयो ।" ___ गुणचन्द्रके पश्चात् इस पट्टपर सकलचन्द्र भट्टारक पट्टाधीश हुए हैं। भट्टारक गुणचन्द्र संस्कृत और हिन्दी भाषाके विद्वान् और कवि हैं। इनका समय वि० की १७ वीं शताब्दी हैं । यशःकीर्तिका स्वर्गवास वि० सं० १६१३ में हुआ था
और इसके पश्चात् भट्टारक गुणकीर्ति उनके पट्टपर आसीन हुए। ऐतिहासिक १. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ४०१ । २. वहीं, लेम्झांक ४०५ ।
४२२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा