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नयनलिनहिमांशुज्ञानभूषस्य पट्टे
विविधपर-विवादि क्षमांधरे वचपात:' ।। विजयकीर्तिने अनेक सांस्कृतिक और सामाजिक कार्योका सम्पादन किया है। वि० सं० १५५७, १५६०, १५६१, १५६४, १५६८ एवं १५७० आदि वर्षों में सम्पन्न होनेवाली प्रतिष्ठाओंमें इन्होंने भाग लिया है। वि० सं० १५६१ में
इन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान एवं सम्यक्चारित्रकी महत्ताको व्यक्त करनेके लिए रलत्रयकी मूर्ति प्रतिष्ठापित की' यो । स्थितिकाल
भट्टारक विजयकीति ज्ञानभूषणके पट्टपर आसीन हुए थे। ज्ञानभूषण वि० सं० १५५७ तक गद्दीपर आसीन रहे हैं। असएव वि० सं० १५५७-१५७० तक इनके भट्टारकपदपर आसीन रहनेका उल्लेख मिलता है। श्री डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवालने विजयकीतिक जीवनका स्वर्णकाल वि० सं० १५५२१५७० माना है। उन्होंने लिखा है-"इन १८ वर्षों में इन्होंने देशको एक नयी सांस्कृतिक चेतना दी तथा अपने त्याग एवं तपस्वी जीवनसे देशको आगे बढ़ाया । संवत् १५५७ में इन्हें भट्टारकपद अवश्य मिल गया था।" अतएव विजयकोतिका समय विक्रमको १६वीं शताब्दी है। डॉ. जोहरापुरकरने लिखा है-"भट्टारक ज्ञानभूषणके पट्टशिष्य भट्टारक विजयकीर्ति हुए । बापने संवत् १५५७ को माघ कृष्णा पंचमीको तथा संवत् १५६० की वैशाख शुक्ला द्वितीयाको शान्तिनाथमूर्तियाँ तथा संवत् १५६१ की वेशाख शुक्ला दशमीको रत्नत्रयमति स्थापित की | संवत् १५५८ की फाल्गुन शुक्ला दशमीको श्रीसंघने अपनी मांगनी आर्यिका देवश्रीके लिए पचनन्दि-पंचविंशतिकी प्रति लिखवायो थी। पट्टावलोके अनुसार मल्लिराय, भेरवराय और देवेन्द्ररायने विजयकोतिका सम्मान किया था।"
विजयकीति शास्त्रार्थी विद्वान थे। इन्होंने अपने विहार और प्रवचन द्वारा बैनधर्मका प्रचार एवं प्रसार किया था । इनके द्वारा लिखित कोई भी प्रत्य अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है ।
१. राजस्थानके जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जयपुर, पृ० ६६ पर उद्धृत । २. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखार ३६४ । ३. राजस्थानके जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जयपुर, पु. ६७ । ४. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, पृ० १५४-१५५ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३६३