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आप गुणोंजे आगार मुझे क्षमा करें।" कमटने एक शिलाखण्ड उठाकर मरुभक्ति पर प्रहार किया, जिरास मरुभूतिका प्राणान्त हो गया | मराभूति आतंध्यानसे गरण करने के कारण उनी कामें महागजके रूपमें उलाना हुआ और कमठ कुक्कूट नामका भयंकर सर्प हुआ। मरुभूतिका जीव अपनियोष गजराज अपने समूहके साथ सम्पूर्ण जनमें बड़े अनुरागसे घूमता था, अपने सम्की रक्षा करता था । वह करिणियोंके साथ कमलयुक्त सरोवराम विहार करता था।
द्वितीय मन्धिमें समस्त राज्यका त्याग कर राजा अरविन्दके मनीन्द्र होनेका वर्णन आया है। अविन्द भनिने चिन्तन करते हुए अबधिज्ञान प्राप्त किया। इस सन्दर्भ में नरवा, तियंञ्च, मनुष्य और देव गतिके दुःखोंका वर्णन है । राजा अरबिन्दने शिष्क्रमण किया और पञ्चमुष्टिलोञ्चकर दोक्षा धारण की । द्वितीय सन्धिमें १६ कड़वा है और इसमें राजा अरबिन्दके दीक्षित होने की विचार धाराका चित्रण आया है।
तृतीय सन्धिमें १६ बड़वक हैं। तृतीय सन्ध्रिमें अरविन्दकी तगश्चयों और उनके विहारका चित्रण आया है । इस सन्धि सम्यक्त्वकी महिमा, सम्यक्त्वके दोष, सम्यक्त्वकी प्रशंसा, अणुव्रत, गुणवत्त और शिक्षाप्रतोंका स्वरूप बतलाया गया है। जिनवरकी भवितकी प्रशंसा करते हुए बतलाया गया है कि भवितके प्रभावसे मनुष्य समस्त दर्गतियों के दुःखोंसे छूट जाता है । इसी सन्धिमें अनिघोष गजपति के उद्बोधनका भी सन्दर्भ आया है। अरविन्द मुनिने उसे सम्बो. धित करते हुए कहा-“हे गजबल ! में राजा अविन्द हुँ, पोदनपुरका स्वामी हैं. यहाँ आया है। तू मरुभूति है, जो हाथीके रूप में उत्पन्न हुआ है। विधिवशात तू इस सार्थके पास आया है । मैंने पहले ही तुझे कमठसे पास जानेसे रोका था । उसकी अवहेलना कर तू इस दु:खको प्राप्त हुआ है । हे गजवर ! अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। तू मेरे द्वारा कहे हुए वचनोंका यथासम्भव पालन कर । सम्यक्व और अणुजनोंको ग्रहण कर, यही तेरे कल्याणका मार्ग है।' मुनि अरविन्दने मोक्षलाभ किया ओर गज श्रेष्ठ तपश्चर्याम सलग्न हुआ। ___ चतुर्थ सन्धिमें १२ कड़वक हैं और अपनिघोप गजकी तपस्याका वर्णन आया है । अपनिधोषकी मृत्यु कुक्कुट सर्पके दंशमसे हुई, पर द्वादश भावनाओंका चिन्तन करनेके कारण उसका जन्म सहस्त्रारकल्पमें हुआ और कुक्कूट सर्प पञ्चम नरकमें उत्पन्न हुआ। इस चौथी सन्धिमें राजा हेमप्रभु, राजकुमार विद्यत्वेगको कथा भी वर्णित है। प्रसंगवश मुनिके २८ मूलगुण एवं संयम तपश्चर्या आदिका वर्णन आया है।
पांचवीं सन्धि १२ कड़वक हैं । इस सन्धिमें मरुभूतिका जीव सहस्रार २१२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा