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प्रतिमा करु, नाभि, कर्णं, जानु आदि विभिन्न अंगों के प्रमाणका विवेचन किया गया है। इस परिच्छेद में ८२ पद्य हैं और मूर्तिनिर्माणको विधिका पूर्णतया वर्णन किया गया है ।
पञ्चम परिच्छेद में प्रतिष्ठाकी वेदोका वर्णन है और क्षेत्रपाल एवं दिग्पाल के स्वरूपका चित्रण किया गया है । अनन्तर २४ तोर्थंकरोंके यक्षोंके वाहनोंका वर्णन आया है । पश्चात् २४ मन्त्रों द्वारा यक्षों की आहुतियां वर्णित हैं । षष्ठ परिच्छेद में मण्डप - विधि, वैदिक-निर्माण कणिका-निनादेवी बुद्धि विभिन्न मन्त्र आये हैं ।
षोडश विद्या- देवियों की स्थापनाके अनन्तर उनकी पूजाके मन्त्र दिये गये हैं। चतुर्विंशति जिन-मात्रिकाओं, ३२ इन्द्रोंके स्थापना - मन्त्र एवं पूजन-मन्त्र दिये गये हैं । द्वारपाल और दिक्पालको स्थापना विधि भी आयी है । मालास्थापना एवं विभिन्न द्रव्योंके स्थापना - मन्त्र भी अंकित किये गये हैं ।
सकलीकरणको विशिष्ट विधि दी गयी है तथा वेदीशुद्धि और वेदोप्रतिष्ठा के विभिन्न मन्त्र और विधियाँ अंकित हैं । ध्वजारोपण, कलश स्थापना आदिक विधि आयी है । अन्तमें निम्नलिखित प्रशस्ति अंकित है
"इति श्री वसुनन्दिद्धान्तिक विरचिते प्रतिष्ठासारसंग्रहे षष्ठपरिच्छेदः स्वस्ति श्री काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्य माम्नाये भट्टारक दिल्लीपट्टाधीशा श्री १०८ राजेन्द्रकीतिदेवाः तेषां शिष्यपण्डित परमानन्देन लिखितमिदम् ॥"
रामसेनाचार्य : व्यक्तित्व और कार्य
रामसेन नामके कई आचार्य भट्टारक और विद्वान् हुए हैं । उनमेंसे यहाँ तस्वानुशासन के कर्त्ता रामसेनाचार्यके व्यक्तित्व और कर्तृत्वपर विचार करना है । सत्वानुशासनके अन्त में प्रशस्ति दी गयी है जिसमें आचार्यने अपने विद्या गुरु और दीक्षागुरुका निर्देश किया है । प्रशस्ति निम्न प्रकार है
श्री वीरचन्द्र शुभदेव - महेन्द्र देवाः शास्त्राय यस्य गुरवो विजयामरश्च । दीक्षागुरुः पुनरजायत पुण्यमूर्तिः श्री नागसेन मुनिरुद्ध चरित्रकीर्तिः ॥ तेन प्रबुद्ध - धिषणेन गुरूपदेशमासाथ सिद्धि सुख- सम्पदुपायभूतम् ।
२३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा