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जीवनका अच्छा चित्रण किया है । नेमिनाथकी सुन्दरताका चित्रण करते हुए लिखा है
वेलि कमलदल कोमल, सामल वरण शरीर | त्रिभुवनपत्ति त्रिभुवन निलो, नीलो गुण गंभीर ।। माननी मोहन जिनवर, दिन दिन देह दिपंत ।
प्रलंब प्रताप प्रभाकर, भवहर श्री भगवंत ।। राजुलकी सुन्दरताका चित्रण करते हुए लिखा है--
कठिन सुपीन पयोधर, मनोहर अति उतंग । चंपक वर्णी चंद्राननी, माननी सोहि सुरंग ।। हरणी हरखी निज नयणोउ बयणीउ साह सुग। दंत सुपंती दीपंती, सोहंती सिखेणी बंध | कनक केरी जसी पूसली, पातली पदमनी नारि ।
मतीय शिरोमणि सुन्दरी, भवतरी अवनि मझारि ।। कविका राजुल-विलाप वर्णन भी बहुत ही मर्मस्पर्शी है । इस फागके रचना कालका निर्देश नहीं है, पर यह वि० सं० १६०० के पूर्वकी रचना है ।
जम्मूस्वामी वेलि–अन्तिम केवली जम्बस्वामीका जीबन जैन कवियोंको बहत्त प्रिय रहा है। यही कारण है कि संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं राजस्थानी आदि विभिन्न भाषाओंमें रचनाएँ लिखी गयी हैं । इस देलिकी भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी है। कविने आरम्भमें अपने पट्टका परिचय प्रस्तुत किया है
श्री मूलसंधे महिमा निलो, अने देवेन्द्र कीरति सूरि राय । श्री विद्यानंदि वसुधां निलो, नरपति सेवे पाय ।। तेह वारें उदयो गति, लक्ष्मीचन्द्र अण आण । श्री मल्लिभूषण महिमा धणो, नमे ग्यासुदीन सुलतान ।। तेह गुरुचरणकमलनमी, अनें वेल्लि रची छे रसाल ।
श्री वीरचन्द्र सूरीवर कहें, गांता पुण्य अपार ।। जिनआन्तरा-इस कतिमें चतुर्विशति तीर्थकरोंके मध्यमें होनेवाले अन्तरकालका इसमें वर्णन किया गया है। काव्यसौष्ठवको दृष्टिसे यह रचना सामान्य है। उदाहरण निम्न प्रकार है
श्री लक्ष्मीचन्द्र गुरु गच्छपती, तिस पाटें सार श्रृंगार । श्री वीरचन्द्र मोरें फह्या, जिन आंतरा उदार ।।
३७६ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा