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अंकित करा दिया कि यह कौशाम्बीके गजा बसुपालकी वसुमती पत्नीकी पुत्री है । यदि किसी बलवान पूर्व पुण्यके कारण यह बच जाये और किसीको मिले, तो वह इसे कृपापूर्वक पालित-गोपित करें। इस प्रकार इस अंगठी और एक रत्नकम्बलके साथ इस कन्याको एक पिटारी में बन्द कराकर रानीने इसे यमुना नदीमें प्रवाहित कर दिया । वह पिटारी यमुनाके वेगवान प्रवाहके कारण तैरती हुई प्रयागमें जाकर गंगाकी धाराम मिल गयी । ___ अङ्ग नामके महादेशमें चम्पा नामकी नगरी थी । इस नगरीका राजा दन्तिवाहन था और उसकी पत्नीका नाम वसुमित्रा । चम्पापुरीके निकट कुसुमपुर नामका एक नगर था। इस नगरमें कन्ददन्त नामक माली रहता था और इसकी पत्नीका नाम कुमुददन्तिका था । कुन्ददन्त नगरसे बाहर निकला ही था कि उसे प्रभातके समय गंगामें बहती हुई वह पिटारी दिखलायी दी। उसने पिटारी पकड़ ली और जैसे ही खोली उसमें एक बालिका रखी हुई दिखलायी दी। कुन्ददन्त पह देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह इस पिटारी तथा इसके अन्दर रखी हुई सूकुमार बालिकाको लेकर अपनी पत्नीके पास आया और उसे अपनी पत्नी के हाथोंमें देकर कहने लगा-"लो आजसे तुम इसे अपनी पुत्री समझना।" कुमुददन्ताने उस बालिकाका यथोचित पालन-पोषण किया और उसका नाम पद्मावती रखा। जब यह बालिका युवती हुई, तो चम्पापुर नरेश दन्तिवाहनके साथ उस कन्याका विवाह हो गया । राजाने जब कुन्ददन्तसे पद्यावतीके सम्बन्ध में विशेष पूछ ताछ की, तो उसने पिटारीके मिलनेका सब वृत्तान्त राजाको सुना दिया । कुन्ददन्त कहने लगा-"राजन् | इसके नामकी एक रत्ननिर्मित अंगूठी
और रत्नकम्बल तथा एक पिटारी है, जो सब आपको सेवामें उपस्थित हैं। दन्तिवाहन पद्मावतीका परिचय प्राप्तकर बहुत प्रसन्न हुआ। विवाहके पश्चात् कालान्तरमें पद्मावतीके गर्भमें एक पुण्यशाली देवने स्वर्गसे च्युत हो प्रबेश किया। इस समय पद्यावतीके मन में एक दोहद उत्पन्न हुआ, परन्तु उसकी पूर्ति न हो सकनेके कारण वह दिन-प्रतिदिन दुर्बल होने लगी। एक दिन राजाने पद्मावतीकी इस दुर्बलताका कारण जानना चाहा । पद्मावती कहने लगी"प्राणनाथ ! जबसे मेरे गर्भमें यह जीव आया है, तबसे एक विचित्र दोहद उत्पन्न हो रहा है कि मैं पुरुषका वेष धारण करके नर्मदातिलक नामक उन्नत हाथीपर आपके साथ उस समय सवारी करूँ, जिस समय मेघ मन्द-मन्द गर्जनापूर्वक नन्हीं-नन्हीं बूंद गिरा रहे हों।"
जब राजाने पद्मावतीका यह दोहद सुना, तो उसने मनुष्योंके द्वारा नर्मदातिलक हाथीको बुलाकर उसे झूल आदिसे मण्डित कराया और सोलह प्रकारके ६८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचाय परम्परा