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मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त है। मुनि होनेपर जिसका नाम विशाखाचार्य कहलाया, जो दग पूर्वधारियों में प्रथम थे" |
करण्डुकी कथा पर्याप्त विस्तृत आयी है और यह कथा 'करकण्डुचरित' तथा प्राकृत-साहित्य में उपलब्ध करकण्डुकथासे कई बातों में भिन्न है। इस कथाके अध्ययनसे एक नयी परम्पराका ज्ञान होता है । यद्यपि कथाका अन्तिम रूप परम्पराके समान ही है, पर कथामें आयी हुई उत्पानिका विशिष्ट है । मध्यभाग में भी कथाका विस्तार पर्याप्त रूपमें हुआ है। धनश्री और नागदत्ताका आख्यान रात्रि भोजन त्यागवत से सम्बद्ध है। पद्मावती के जन्म की कथा भी विचित्र हो रूपमें वर्णित है। इसमें बताया है कि वत्सकावती देशमें कौशाम्बी नामकी प्रसिद्ध नगरी है। इस नगरीका राजा वसुपाल था और रानी वसुमती ! वसुपा नगरसेटका नाम वसुत वसुदत्त बड़ा हो जिनभक्त था । धनमतीकी बहिन धनीका विवाह इसी राजसेठ वसुदत्त के साथ सम्पन्न हुआ और यह भी वसुदत्त संसर्गसे जिनभगवानकी भक्त याविका बन गयी। कुछ दिनोंके पश्चात् वसुदत्तका स्वर्गवास हो गया । अब यह समाचार धनीकी माता नागदत्ताको मिला तो वह बहुत शोकातुर हुई और पुत्रीको सांत्वना देनेके लिये कौशाम्बी जा पहुँची और वहीं पर कुछ दिनों तक निवास करने लगी ।
एक दिन वनश्रीने देखा कि माताका मुखकमल शोक के कारण मलिन हो रहा है, तो वह माँको मुनिराज के पास ले गयी। मुनिराजने नागदत्ताको समझाया और रात्रिभोजन न करनेका उसे उपदेश दिया । नागदत्ताने मुनिराज द्वारा दिये गये व्रतको स्वीकार किया और फिर अपनी दूसरी कन्या वनमतीके पास नालन्दा नगर चली गयी | जब नागदत्ता धनमती पुत्री के यहाँ पहुँची तो पुत्रीके संसर्गके कारण यहाँ उसने रात्रिम भोजन कर लिया और फिर कौशाम्बी नगरमें भी उसने रात्रिभोजन किया । इस प्रकार तीन बार उसने रात्रिभोजनका त्याग भंग किया फिर चौथी बार कौशाम्बी नगरीमें रहनेवाली अपनी कनिष्ठा कन्या धनश्रीके पास यह पहुँची और वहाँ रहते-रहते एक दिन इसकी मृत्यु हो गयी और अपने शुभ-अशुभ कर्मोंके कारण कौशम्बी नगरीके राजा वसुपालकी वसुमती नामक पत्नी के गर्भ में कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई । ज्यों ही नागदत्ताका जीव वसुमतीके गर्भ में आया, वसुमतीको अत्यन्त दुःखद, श्वांस कास आदि रोगोंने पीड़ित कर दिया, जिससे रानी को इसके प्रति बड़ी अनास्था हुई। जैसे ही कन्याका जन्म हुआ, वसुमतीने उसके लिये एक सुन्दर अंगूठी बनवायी और उसमें यह लेख
१. बृहत् कथाकोश १३१वीं कथा तथा जैनसाहित्य और इतिहाम, द्वितीय संस्करण पृ० १२०-२२१ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोपकाचार्य: ६७