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शक संवत् ८५३, वि० सं० २.८८, ( ई० सन् ९३१ ) में कथाकोशग्रन्थ रचा गया है। अनः अन्तरंग प्रमाणक आधारपर हरिषेणका समय ई० सन् की १०चीं शताब्दीका मध्यभाग सिद्ध होता है । इस ग्रन्थको प्रशस्तिमें जिस विनायकपालका निर्देश किया है, उसका ममय लगभग वि० सं० २.५५ ( ई० मन् ८०.८ ) है। काठियावाड़ हड्डाला गाँवमें विनायकपालकं बड़े भाई महीपालक ममयका भी शक संवत् ८३६ ( ई० मन ९.१४ ) का दानपत्र मिला है, जिससे मालूम होता है कि उस समय वर्धमानपुरमें उसके मामन्त धरणिव गहका अधिकार था। इसके सत्रह वर्षोंके उपरान्त इस नगरमें कथाकोशका प्रणयन हुआ | अताव प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्री नाथूराम जी प्रेमीका अनुमान है कि वर्धमानपुरमें प्रतिहारोंके किमी मामन्तका अधिकार होनेकी सम्भावना है।
रचना
आचार्य हरिषेणने पद्मबद्ध बृहत् कथाकांश ग्रन्थ लिखा है। इस कोशग्रन्थमें छोटी-बड़ी सब मिलाकर १५७ कथाएँ है और ग्रन्यका प्रमाण अनुष्टुप् छन्दम १२५०० ( साढ़े बारह हजार ) श्लोक हैं। इन कथाओंको निम्नलिखित मात वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
१. व्रताचरण और माधनाकी महत्ता-सूचक कथाएँ । २. भक्ति-सूचक कथाएँ । ३. पापाचरणके कुफल-सूचक आख्यान । ४. अर्द्ध ऐतिहागिक तथ्य-सूचक कथाएँ । ५. मुनि और आचार्योंके जीवन-वृत्त आख्यान । ६. हिंसा, झूट, चोरी आदिसे सम्बद्ध दष्टान्त-कथाएँ । ७. पञ्चाणुगत या अन्य व्रतोंके साधक व्यक्तियोंके आख्यान ।
चाणक्य, शकटाल, भद्रबाहु, बररुचि एवं स्वामिकार्तिकेय प्रभृति व्यक्तियाके अर्द्ध ऐतिहासिक आख्यान आये हैं। इस श्रेणीकी कथाओंम ऐतिहासिक व्यक्तियोंके सम्बन्धमें आगधना या व्यक्तित्वनिर्माण सम्बन्धी किसी आख्यानको प्रकट करते हुए कतिपय तथ्योंका समावेश हुआ है। श्रीप्रेमीजीने भद्रबाहुकथामें आये हुए तथ्योंकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा है कि भद्रवाहुने बारह वोंके घोर दुभिक्ष पड़नेका भविष्य जानकर अपने शिष्योंको लवण समुद्रके समीप चलनेको कहा और अपनी आयु क्षीण जानकर वे स्वयं वहीं रह गये तथा उज्जयिनीके निकट भाद्रपद देशमें समाधिमरण धारण कर स्वर्ग प्राप्त किया । उर्जायनीके राजा चन्द्रगुप्तने भद्रबाहुके ममीप दीक्षा ग्रहण की। यह चन्द्रगुप्त ६६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा