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राजचरितचम्पूमहाकाव्यटीकायां यशोधरमहाराजराजलक्ष्मी विनोदवर्णनं नाम तृतीया श्वासचन्द्रिका परिसमाप्ता"" ।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि श्रुतसागरने अपने परिचय के साथ यशस्तिलक की टीका लिखनेका निर्देश किया है। श्रुतसागरने इस टीकामें विषयोंके स्पष्टीकरण के साथ कठिन शब्दोंकी व्याख्या भी प्रस्तुत की है । यशस्तिलक में जितने नये शब्दों का प्रयोग सोमदेवने किया है, उन सभीका व्याख्यान इस टीका में किया गया है । यशस्तिलकको स्पष्ट करनेके लिये यह टीका बहुत उपादेय है ।
श्रुतिसागरी टीका - इस वृत्तिमें तत्त्वार्थमूत्रपर रचित समस्त वृत्तियों का निचोड़ अंकित है। श्रुतसागरने तत्त्वार्थ सूत्रकार उमास्वामी के साथ पूज्यपाद, प्रभाचन्द्र, विद्यानन्द और अकलंकका भी स्मरण किया है। ये चारों ही आचार्य तत्वार्थ के टीकाकार हैं । वृत्तिका प्रारम्भ सर्वार्थसिद्धिकी आरम्भिक शब्दों की शैलीको अपनाकर किया है। सर्वार्थसिद्धि में प्रश्नकर्त्ता भव्यका नाम नहीं लिखा है, पर श्रुतसागरने 'द्वैयाकनामा' लिखा है । १३वीं शताब्दी के बालचन्द्र मुनि द्वारा तत्त्वार्थसूत्रकी जो कन्नड़टीका लिखी गयी है, उसमें उस प्रश्नकर्ताका नाम सिद्धय्य पाया जाता है। सर्वार्थसिद्धिके प्रारम्भ में निबद्ध मंगलश्लोक - 'मोक्षमार्गस्य नेत्तारं' आदिका व्याख्यान आकि
श्रुतसागरने भी किया है। श्रुतसागरसूरिका पूरा व्याख्यान एक तरह से सर्वार्थसिद्धि नामक वृत्तिका ही व्याख्यान है, जो बातें सर्वार्थसिद्धि में संक्षेपरूप में कही गयी हैं, उन्हीं बातोंको विस्तार और स्पष्टता के साथ इस वृत्तिमें अंकित किया गया है । यथास्थान ग्रन्थात रोंके प्रमाण देकर विशेष कथन भी किया गया है । ग्रन्थातरोंके उद्धरण प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं। पाणिनि और कातन्त्र व्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण भी प्राप्त हैं ।
श्रुतसागर के व्याख्यानमें कतिपय विरोध भी प्राप्त होते है । न्यायाचार्य पण्डित महेन्द्रकुमारजीने श्रुतसागर के स्खलनका निर्देश किया है । सर्वार्थसिद्धिमें 'द्रव्याश्रया निर्गुणा: गुणा:' ( ५/४१ ) सूत्रकी व्याख्या में 'निर्गुण' इस विशेषणको सार्थकता बतलाते हुए लिखा है -- "निगुण इति विशेषणं द्वयणुकादिनिवृत्त्यर्थम्, तान्यपि हि कारणभूतपरमारद्रव्याश्रयाणि गुणवन्ति तु तस्मात् 'निर्गुणाः ' इति विशेषणात्तानि निवर्तितानि भवन्ति ।"
अर्थात् द्व्यणुकादि स्कन्ध नैयायिकों को दृष्टिसे परमाणुरूप कारणद्रव्यों में श्रित होने से द्रव्याश्रित हैं और रूपादि गुणवाले होने से गुणवाले भी हैं। अतः
१. तत्त्वार्थवृत्ति, भारतीयज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावना, पृ० १०० ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३९५