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________________ एवं जघन्य सामग्रीके योगसे जघन्य ध्यान होता है। इसके पश्चात् धर्मके लक्षणादिभेदसे धर्मध्यानको प्ररूपणा की गयी है। सर्वप्रथम सम्यगदर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रयरूपको लिया गया है । द्वितीय परिभाषाके अनुसार मोह-क्षोभसे बिहीन आत्माके परिणामको धर्म कहा गया है। तृतीय परिभाषाके अनुसार वस्तुके स्वरूप, स्वभाव अथवा याथात्म्यको धर्म कहा है। चतुर्थ परिभाषाके अनुसार उत्तम क्षमादि दानरूप दशलक्षणधर्मका उल्लेख आया है। परिस्पन्दहित एकाग्र चिन्तानिरोधको ध्यान कहा है और उस ध्यानको संचित कर्मोंकी निर्जरा तथा नये कर्मोके आश्रयद्वारको रोकने रूप संवरका हेतु निर्दिष्ट कर निर्जरा तथा संबर दोनोंको ध्यानके फल सूचित किया है। तदनन्तर ध्यानके लक्षण में प्रयुक्त हए एकाग्रचिन्ता और निरोध शब्दोंके वाच्यार्थको ग्रहण किया है। वस्तुतः यह ध्यान विशुद्धबुद्धिधारक योगीके होता है। जो श्रुतज्ञान उदासीन राम-द्वेषसे रहित, उपेक्षामय यथार्थ और अति निश्चल होता है, वह ध्यानको कोटिमें आ जाता है । उसे स्वर्ग तथा मोक्षफलका दाता भी बतलाया है। __इसके पश्चात् ध्यानकी नितिका निरूपण करते हुए उसकी उत्पत्तिमं सहायभत सामग्रीका निर्देश किया है और वह है परिग्रहोंका त्याग, कषायोंका निग्रह, बतोंका धारण और इंद्रियों तथा मनका जीतना । इन्द्रियोंको उन्मार्गी घोड़ोंकी उपमा दो है और बताया है कि जितेन्द्रिय मानव ही ज्ञान तथा वैराग्य रूपी दो रस्सियोंके द्वारा उन्मार्गगामी घोड़ोंको वश करता है। इसी सन्दर्भ में द्वादश अनुप्रेक्षाओं. पञ्चनमस्कार मन्त्रका प्रभाव एवं जप, ध्यान आदिका फल बतलाया है । गुरुउपदेशपूर्वक ध्यान करनेवाला व्यक्ति सभी प्रकारको सिद्धियोंको इस प्रकार प्राप्त कर लेता है। ध्यानके इच्छुक व्यक्तिके लिए, ध्यानके योग्य, देश, काल, आसन, अवस्था, प्रक्रिया और दूसरी साधनसामग्रीका भी समावेश किया है। ___ तदनन्तर निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोंको दृष्टिसे ध्यानके आगमानुसार दो भेद बतलाये हैं जिनमें निश्चयध्यान स्वरूपावलम्बनरूप और व्यवहारध्यान परावलम्बनरूप होता है। निश्चयनयाश्रित स्वरूपावलम्बी ध्यानको 'अभिन' ध्यान और व्यवहारनयाश्रित परावलम्बी ध्यानको 'भिन्न ध्यान कहा है । भिन्नध्यानमें जिसका अभ्यास परिपक्व हो जाता है, वहो निराकुलतापूर्वक अभिन्नध्यानमें प्रवृत्त होता है। अनन्तर इस ग्रन्थमें योगके आठ अंगोंमेंसे ध्येय अंगका विषय विशेष रूपसे प्रारम्भ होता है । आशाविचय, अपायविधय, विपाकविचय और संस्थानविचय २४० : तीर्थकर महावीर और सनकी आचार्य-परम्परा
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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