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________________ है। इस प्रकार मोहकी सेना और परिवारका कथन किया है। ममकार और अहंकारसे रागद्वेषकी, रागद्वेषसे क्रोधादि कषायों तथा हास्यादि नव कषरयोंकी उत्पत्ति होकर किस प्रकार क्रोके बन्धनादिरूप संसारचक्र चलता है और यह जीव उसके चक्करमें पड़ सदाभ्रमता ही रहता है, कथन कर भव्यात्माको हितकर उपदेश दिया है। "हे आत्मन् ! तू इस दृष्टिविकाररूप मोहको, और ममकार तथा अहंकारको अपना शत्रु समझ, इनके विनाशका प्रयास कर । इन मुख्य हेतुओं का क्रमशः नाश हो जाने पर शेष रागद्वेषादि बन्धहेतूओंका भी विनास हो जाता है, और संगरपरिभ्रमण हट जाता है । बन्धके हेतुओंका नाश तभी सम्भव है, जब मोक्षके हेतुओंको अपनाया जाय, क्योंकि दोनों शीत तथा उष्ण स्पर्शके समान एक दूसरेके विरुद्ध हैं । लिखा है--- बन्धहेतु-विनाशस्तु मोक्षहेतु-परिंगहात् । परस्पर - विरुद्धत्वाच्छीतोष्ण-स्पर्शवत्तयोः ।।' मोक्षहेतु या मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप त्रितयात्मक है, निर्जरा और संवररूप परिणमता हुआ मोक्षफल प्रदान करता है। इसके अनन्तर ध्यानका मुख्य विषय आया है। ध्यानके चार भेद हैंआतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल । प्रथम + दुर्ध्यान हैं, जो मुमुक्षुओंके लिए त्याज्य हैं और शेष दो सद्ध्यान है एवं बन्धनसे मुक्ति प्राप्त करनेवालों के लिए उपादेय है। अतीतकालमे जिन महानुभावोंने शुक्लध्यानको धारण किया है, उनके निर्देशानुसार, बच्चसंहनन, पूर्ववृतज्ञता और उपशम तथा क्षपकधणी चढ़नेकी सामग्री अपेक्षित है । धर्मध्यानके इच्छुक योगीको ध्याता, ध्येय, ध्यान, ध्यानफल, ध्यानस्वामी, ध्यानक्षेत्र, ध्यानकाल और ध्यानावस्था इन आठका स्वरूप अवगत करना चाहिये । संक्षेपमें इन्द्रियों तथा मनका निग्रह करनेवाला व्याता, यथाअवस्थित वस्तु ध्येय, एकाग्रचिन्तन ध्यान, निर्जरा तथा संवर ध्यानके फल, जिस देश, काल तथा अवस्था में ध्यानकी निर्विघ्न सिद्धि हो, वह क्षेत्र, काल तथा अवस्था है। ध्यानके स्वामी अप्रमत्त, प्रमत्त, देशसंयत, सम्यग्दष्टि इन चार गुणस्थानवी जीवोंको बताया है । सामग्रीके भेदसे ध्याताओं और उनके ध्यानोंको तीन-तीन भेदोंमें विभक्त किया गया है-उत्तम, मध्यम और जघन्य । उत्तम सामग्नीके योगसे ध्यातामें उत्तम व्यान, मध्यम सामग्रीके योगसे मध्यम ध्यान १. तस्वानुशासन, फ्लोक २३ ।। प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : २३९
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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