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है | अञ्जनाचरित छोटा-सा नरितकाव्य है । इसमें सती अञ्जनाके आख्यानको निबद्ध किया है ।
ब्रहम जिनदास
ब्रह्मजिनदास संस्कृतके महान् विद्वान् और कवि थे। ये कुन्दकुन्दान्वय, सरस्वती गच्छके भट्टारक सकलकीर्तिके कनिष्ठ भ्राता और शिष्य थे । बलात्कारगणको ईंडर शाखाके सर्वाधिक प्रभावक भट्टारक सकलकोर्तिके अनुज होनेके कारण इनकी प्रतिष्ठा अत्यधिक थी ।
srat माताका नाम शोभा और पिताका नाम कर्णसिंह था। ये पाटनके रहनेवाले तथा बड़ जातिके श्रावक थे । पर्याप्त धनिक और समृद्ध थे । कुछ समयके बाद इन्हें घरसे विरक्ति हो गयो और इन्होंने श्रमण जीवन स्वीकार किया । इन्होंने गुरुके रूपमें सकलकीर्तिका आदरपूर्वक स्मरण किया है ।
स्थितिकाल
ब्रह्मजिनदासकी जन्म तिथि के सम्बन्धमें कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है, पर वि० सं० १५१० से आचार्यं ब्रह्मजिनदास ख्याति प्राप्त कर चुके हैं तथा अनेक मूर्तिलेखों में उनके निर्देश मिलते हैं । सकलकीर्तिका जन्म वि० सं० २४४३में हुआ है । अतः लघुभ्राता होने के कारण इनकी जन्म तिथि ४-५ वर्ष बाद मी स्वीकार की जाये तो वि० सं० १४५० के पूर्व ही इनकी जन्मतिथि जाती है। इन्होंने वि० सं० १५१० माघ शुक्ला पञ्चमीको एक पञ्चपरमेष्ठीकी मूर्ति स्थापित की थी । यथा
" सवत् १५१० वर्षे माहमासे शुक्लपक्षे ५ खौ श्रोमूल भट्टारक पद्मनन्दितत्यट्टे भ० श्रोसकलकीति तच्छिष्य ब्रह्मजिनदास हुंबड जातीय सा तेजु भा० मलाई ।”
कबिने गुजराती हरिवंशरासमें उसका रचनाकाल वि० सं० १५२० (ई० सन् १४६३) अंकित किया है। कहा जाता है कि भट्टारक सकलकीर्तिने वि० सं० १९८१ में संघसहित बडालीमें चातुर्मास किया था और वहाँके अभीझरा पार्श्वनाथ चैत्यालय में बैठकर 'मूलाचारप्रदीप' नामक ग्रन्थ अपने अनुज और शिष्य ब्रह्मजिनदासके आग्रहसे वि० सं० १४८१ श्रावण शुक्ला पूर्णिमाके दिन पूर्ण किया था। कविके संस्कृत हरिवंशपुराणकी पाण्डुलिपि मार्गशीर्ष कृष्णा त्रयोदशो रविवार वि० सं० १५५५ की प्राप्त होती है। अतः इनका यह ग्रन्थ ई० सन् १४९८ के पूर्व अवश्य ही रचा गया होगा । अतएव हमारा अनुमान ३३८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा