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महेन्द्र सेन काष्ठासंघ नन्दितटगच्छके आचार्योंमें रत्नोति, लक्ष्मीसन, भीमसेन, सोमकोति, विजयसन, यशवोति, उदयसेन, त्रिभुवनकोति, रत्नभूपण, जयनीति, केशवसेन, विश्वकीति, धर्मसेन, बिमलसेन, विशालकीति, विश्वसेन, विजयकीति, विद्याभूषण, श्रीभूषण आदि आचार्य हुए। महेन्द्रसेनके गुरु विजयकीति थे। इस परम्पराम धमसेनके पश्चात् विमलसेन और विशालकातिक नाम आये हैं। विशालकीतिके शिष्य विश्वसेनने वि० सं० १५९६ में एक मूर्ति स्थापित की थी। इनके द्वारा लिखित आराधनासारटीका भी उपलब्ध है। विश्वसेनके दो शिष्य हए विजयकीति और विद्याभूषण । इन विजयकोतिके शिष्य महेन्द्रभषण हैं। इनका समय वि० को १७वीं शतीका अन्तिम पाद और १८वीं शतीका प्रथम पाद है। इनकी दो रचनाएं उपलब्ध हैं-सीताहरण और बारहमासा । सीताहरण में निम्नलिखित प्रशस्ति उपलब्ध होती है
काष्ठासंघशृङ्गारविविविद्या रससागर । नंदीतटमच्छकाव्य पुराण गुण आगर॥ सूरि विश्वसेन पाटि प्रगट सुरि विजयकीति बंदितचरण । महेंद्रसेन एवं वदति राम सीता मंगलकरण' ।
सुरेन्द्र कीर्ति काष्ठासंब नन्दीतटगच्छको शाखामें इन्द्रभूषणके पश्चात् सुरेन्द्रकीति भट्टारक हुए। इन्होंने वि० सं०१७४४ में रत्नत्रय यंत्र, वि० सं० १७४७ में मेरुमति एवं इसी वर्ष एक रत्नत्रय यंयको स्थापना की। रलत्रय यंत्रके अभिलेखमें काष्ठासंघ और नन्दितटगच्छके आचार्यों में इन्द्रभूषण और उनके शिष्य सुरेन्द्रकौतिका उल्लेख आया है__ "संवत् १७४४ सके १६०९ फाल्गण सुद १३ श्रीकाष्ठासंघे लाडबागडगच्छे भा प्रतापकीयाम्नाये बघेरवालज्ञाती गोवाल - गोत्र सं० पदाजी भार्यातानाई... प्रणमंत्ति । श्रीकाष्ठासंधे नंदीतटगच्छे भ० इन्द्रभूषण तत्पढ़े भ० सुरेंद्रकोतिः ।"
सुरेन्द्रकीतिने वि.सं. १७५३में चौबीसी मतिकी तथा संवत् १७५४ और सं० १७५६में केमरियाजी क्षेत्र पर दो चैत्याल्योंकी प्रतिष्ठा की है। अतएव सुरेन्द्रकीतिका समय वि०सं० की १८वीं शती है। सुरेन्द्रकीतिकी निम्नलिखित रचनाएँ प्राप्त हैं
१. पद्मावती पूजा ( वि०सं० १७७३ ), १. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६७४ । २. वही, लेखांक ७४४ ।
प्रयुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४५१