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२. कल्याणमन्दिर ( छप्पय ), ३. एकीभाव { छप्पय ), ४. विषापहार ( छप्पय ), ५. भूपाल ( छप्पय ) ।
सुरेन्द्रकीतिके शिष्य धनसागरने सं० १७५१) 'नवकारपच्चीसी' तथा स० १७५३में 'विहरमान तीर्थंकर स्तुति की रचना की है।
इनके एक अन्य शिष्य पामोने सं० १७४९ में 'भरत-भुजवलिचरित' लिखा है । सुरेन्द्रकीतिके शिष्य देबेन्द्रकीतिने 'पुरन्दरव्रतकथा'को रचना की है।
ललितकीर्ति भट्टारक ललितकीति काष्ठासंघ माथुरगच्छ और पुष्करगणके भट्टारक जगतकीतिके शिष्य हैं। ये दिल्लीको भट्टारकीय गद्दीके पट्टधर थे। ये बड़े विद्वान और बक्ता थे । मन्त्र-तन्त्र आदि कार्यों में भी निपुण थे । भट्टारक ललितकीतिके समयमें वि०सं० १८६१में फतेहपुरमें दशलक्षणव्रतका उद्यापन हुआ था । इस अवसर पर निर्मित दशलक्षण यन्त्र पर अंकित अभिलेखसे इनका परिचय प्राप्त होता है । अभिलेन निम्नाकार है ....
"सं० १८६१ शक १७२६ मिती वैशाख सुदी ३ निबार श्रीकाष्ठासंघ माथुरगच्छे .... भ० देवेन्द्रको ति तत्पट्टे भ० जगतकीर्ति तत्पट्टे भ० ललितकीर्ति सदाम्नाये अग्रोतकान्वये गर्गगोत्रे साहजी जठमलजी तत् भार्या कृषा"श्रीबृहत् दशलक्षणयन्त्र करापितं उद्यापितं फतेहपुरमध्ये जतीहरजीमल श्रीरस्तु सेखावत लक्षमणसिंहजी राज्ये"।
वि०सं० १८८१में पमोसामें एक मन्दिरका निर्माण हुआ है 1 इन्होंने वि०सं० १८८५में महापुराणकी टीका भी लिखी है ।
भट्टारक ललितकीति अत्यन्त प्रभावक थे। इन्होंने दिल्लीके बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजीसे ३२ फरमान और फिरोजशाह तुगलकसे ३२ उपाधियाँ प्राप्त की थीं। भट्टारक ललितकीति दिल्लीसे कभी-कभी फतेहपुर जाया करते थे और वहाँ महीनों ठहरते थे। वहाँ उनके शिष्योंकी संख्या बहुत थी । __ललितकीतिने महापुराणकी टीका तीन खण्डोंमें समाप्त की है। प्रथम खण्डमें ४२ पर्व हैं और द्वितीय स्खण्डमें ४३से ४७वें पर्व तककी टीका है । इस
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६१५ ॥ ४५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा