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और ऐसा मालूम होता है कि उन्होंने पूर्व कवियोंका स्मरण प्रायः समयक्रमसे किया है । इससे अनन्तकौतिका समय जिनसेनके बाद और वादिराजसूरिसे पहले अर्थात् वि० सं० ८४० और १०८२ के बीच मानना चाहिए।"
श्री पं० महेन्द्रकुमारजीने विद्यानन्दके 'तल्वार्थश्लोकवार्तिक और 'लघुसर्वसिद्धि' ग्रन्थोंको तुलना करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि विद्यानन्द और अनन्तकीतिके हेतु समान है । अतएव विद्यानन्दके समकालीन अथवा उनके तत्काल ही अनन्तकीर्ति हुए हैं। 'स्वतः प्रामाण्यभंग' ग्रन्थ भी इन्हीं अनन्तकोतिका होना चाहिए।' इस विवेचनके आवारपर न्यायाचार्यजीने ई० सन् ८४० के बाद और ई० सन् ९५० के पूर्व उनका समय सिद्ध किया है। इस मान्यताकी आलोचना श्री डा. ज्योतिप्रसादजीने की है। उन्होंने अनुमान लगाया है कि 'प्रामाण्यभंग'के कर्ता अनन्तकोति अनन्तवीर्य के पूर्ववर्ती हैं तथा सर्वज्ञसिद्धि और जीवसिद्धिटीकाके कर्ता अनन्तकीर्ति उनके उत्तरवर्ती हैं। दोनों ग्रन्थोंके रचयिता दो भिन्न-भिन्न अनन्तकीति भी हो सकते हैं । इन दोनों ग्रन्थोंकी रचना ८४०-९९० ई० के मध्य हो सकती है। डा. ज्योतिप्रसादजीकी सम्भावना है कि सर्वज्ञसिद्धिके कर्ता अनन्तकीति विद्यानन्दफे भी पूर्ववर्ती हो सकते हैं और इस स्थितिमें उन्हें 'प्रामाण्यभंग के कर्तासे अभिन्न माना जा सकता है। बहुत सम्भव है कि नन्दिसंघकी पट्टावलोके अनन्तकीति 'प्रामाण्यभंग' आदि ग्रन्यांके रचयिता हो । श्री महेन्द्रकुमारजी द्वारा की गयी इस सम्भावनाको डाः ज्योतिप्रसादजी भी स्वीकार करते हैं कि सर्वशसिद्धिके कर्ता अनन्तकीति ही 'प्रामाण्यभंग के कर्ता हों। इस सम्भावनाके आधारपर अनन्तकीतिका समय ई० सन्की ८वीं शती माना जा सकता है और यदि पिछले ग्रन्थोंके रचयिता इनसे भिन्न हैं तो यह अनन्तकीर्ति ई० सनकी २वीं शतीके उतरार्धमें हए होंगे। हमें श्री पं० महेन्द्रकुमारजीके तर्क अधिक उपयुक्त प्रतीत होते हैं । अतएव 'सर्वज्ञसिद्धि' के रचयिता ही 'प्रामाण्यभंग' के रचयिता हैं और इनका समय ई० सन्की नवम शताब्दीका उत्तरार्ध है। रचनाएँ
अनन्तकीर्तिके चार ग्रन्थोंका निर्देश मिलता है । इन चारमें दो ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं और इन दोनोंका प्रकाशन माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे हो चुका है। शेष दो ग्रन्थोंके तो निर्देश ही मिलते हैं।
१. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पु. ४५२ । २. जैन सन्देश, शोषांक ३, पृष्ठ १२६ । १६६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा