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सर्वशसिद्धि
अनन्तकोतिने बृहत् और लघु ये दो सर्वज्ञसिद्धिनामक ग्रन्थ लिखे हैं । लघुसर्वज्ञसिद्धिके अन्तमें एक पद्य दिया है, जो निम्न प्रकार है---
समस्तभुवनव्यापियशसाऽनंतकोतिना 1
कृतेयमुज्वला सिद्धिधर्मज्ञस्य निरगला' ।। ये दोनों ही ग्रन्थ गद्य में लिखे गये हैं, पर उद्धरणके रूपमें कारिकाएँ भी प्रस्तुत की गयी हैं । आरम्भमें बताया है कि जो वस्तु जिस रूपमें है, सर्वज्ञ उसको उसी रूपमें जानता है, किन्तु इससे अवर्तमान वस्तुका ग्राहक होनेसे सर्वज्ञका ज्ञान अप्रत्यक्ष नहीं ठहरता, क्योंकि वह स्पष्टरूपसे अपने विषयको ग्रहण करता है। निकट देश और वर्तमानरूपसे अर्थको जानना प्रत्यक्षका लक्षण नहीं है। अन्यथा गोदमें स्थित बालकके शरीरमें क्रिया वगैरह देखकर जो उसके जीवके सद्भावका ज्ञान होता है, वह भी प्रत्यक्ष कहा जायगा, पर जीबका ज्ञान तो प्रत्यक्ष होता नहीं। अतः स्पष्टरूपसे अर्थका प्रतिभासित होना ही प्रत्यक्ष है। अतएव सर्वज्ञको अतीत आदि पदायका मष्ट बांध होनेभं कोई बाधा नहीं है। जैसे इन्द्रियप्रत्यक्षके द्वारा दूरवर्ती पदार्थका ग्रहण होनेपर भी उसके स्पष्टग्राही होनेमें कोई विरोध नहीं है उसी प्रकार दूरकालवी पदार्थको ग्रहण करनेपर भी अतीन्द्रित्य प्रत्यक्षके स्पष्टग्राही होने में कोई विरोध नहीं है। सर्वज्ञ अतीत पदार्थको अतीतरूपसे और वर्तमान पदार्थको वर्तमानरूपसे जानता है। मीमांसकने पूर्व पक्षके रूपमें सर्वज्ञाभाव सिद्ध करनेके लिए अनेक तर्क दिये हैं। उसने तकं उपस्थित किया है कि प्रत्यक्ष द्वारा कोई सर्वज्ञ दिखलाई नहीं पड़ता और न प्रत्यक्षसे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंका साक्षात्कार ही सम्भव है। यदि इन पदार्थोका सर्वज्ञको ज्ञान होता है, तो इन्द्रियप्रत्यक्ष द्वारा या अतीन्द्रियप्रत्यक्ष द्वारा? प्रथम पक्ष उचित नहीं, क्योंकि सूक्ष्म, अन्तरित और दुरवर्ती पदार्थोंका इन्द्रियोंके साथ सर्वथा सम्बन्ध नहीं होता । अतः वे किसीके इन्द्रियज्ञानके विषय नहीं हो सकते। यदि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षके द्वारा सूक्ष्मादि पदार्थोंका ज्ञान सिद्ध करते हैं तो अतीन्द्रियप्रत्यक्ष तो अप्रसिद्ध है।
आचार्यने मीमांसकका उत्तर देते हुए प्रत्यक्षसामान्यसे सूक्ष्म आदि पदार्थोंका प्रत्यक्षज्ञान माना है । सूक्ष्म आदि पदार्थोके सामान्यरूपसे किसीके प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर वह प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मनसे निरपेक्ष सिद्ध होता है, क्योंकि वह सूक्ष्मादि पदाथोको ग्रहण करता है। जो प्रत्यक्ष इन्द्रियादिसे निरपेक्ष नहीं होता वह सूक्ष्मादि पदार्थोंको विषय नहीं करता । जैसे हम लोगोंका प्रत्यक्ष ! किन्तु १. लघुसर्वसिदि, अन्तिम पछ ।
प्रबुवाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : १६५