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ग्रन्थकारने स्वयं ही लिखा है
अट्ठारह-संघिउ ऍहु पुराणु तेसट्ठि-पुराणे महापुराणु । सर्याणि दहोत्तर कडवाय णाणा विह छंद-सुहावया हूँ । तेतीस सय तेवीसयाइँ अक्सरई किपि सविसेसयाइँ | ऐउएत्थ सत्थि श्रहा यमाणु फुड पड असेसु विकय-यमाणु । जो को वि अत्थु आरिस बिद्धु सो एत्थु गंधि सहत्व बहु । जं आरिस-पास पुराण वृत्तु जं गणहर - मुणिवर-रिसिहिँ बुत्तु । तं एत्थु सत्यमई वित्थरिउ जं कव्व करतइँ संसरिउ । नउ संजउ जेण विरोहु जाहिँ तं एत्थु गंथिमई कहि गाहि । सम्मत्तहा दुसणु जेणहार आगमण तेण ण वि कज्जु को बि । पत्ता - मित्थत्त करति य कव्वइँ पर सम्मत्तइँ मणहर | किंग व फलोत्रम - सरिसइँ होहिं अति असुहंकरई ॥
अर्थात् १८ संधियोंसे युक्त यह पुराण ६३ पुराणों में सबसे अधिक प्रधान है । नाना प्रकारके छन्दोंसे सुहावने ३१० कड़वक तथा ३३२३ से कुछ अधिक पंक्तियाँ इस ग्रन्थका प्रमाण है । यह स्पष्टतः पुराका पूरा प्रामाणिक है । ऋषियोंके द्वारा जो भी तत्त्व निर्धारित किया गया है, वह सब इस ग्रन्थ में अर्थयुक्त शब्दों में निबद्ध है । जो ऋषियोंने पार्श्वपुराण में कहा है, जो गणधरों, मुनियों और तपस्त्रियोंने बतलाया है तथा जो काव्यकत्र्ताओंने निर्दिष्ट किया है, वह मैंने इस शास्त्रमें प्रकट किया है। जिससे तप और संयमका विरोध हो वह मैने इस ग्रन्थमें नहीं कहा है। जिससे सम्यक्त्व दूषित हो उस आगमसे भी मेरा कोई प्रयोजन नहीं रहा ।
विपरीतसम्यक्त्वसहित किन्तु मनोहर काव्य मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं तथा किंपाक फलके समान अन्तमें अशुभकर होते हैं ।
प्रथम सन्धिमें २३ कड़वक हैं । २४ तीर्थंकरोंकी स्तुतिके पश्चात् कविने लघुता प्रदर्शित करनेके अनन्तर काव्य लिखनेकी प्रेरणाका निर्देश किया है । खलनिन्दा के पश्चात् मध्यदेशका वर्णन किया है । कविने बताया है कि मगध देश धनधान्यसे बहुत ही सम्पन्न है, यहाँके साधारण व्यक्ति भी चोर, शत्रुओंसे मुक्त है । यहक उपवनोंके परिसर फलफूलोंसे संयुक्त हैं । धानके लहलहाते हुए खेत और गाती हुई बालिकाओं द्वारा उनकी रखवाली किसके मनको नहीं आकृष्ट करती है । यहाँ भ्रमर, कमलसमूहों को छोड़कर कृषक बन्धुओंके मुखों
१. पासणाहचरिउ, प्राकृत टेक्स्ट सोसाईटी, १८/२० ।
२१० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा