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रण किया गया है । विभिन्न नक्षत्रोंमें रोग उत्पन्न होनेसे कितने दिनों तक बीमारी रहती है और रोगीको कितने दिनों तक कष्ट उठाना पड़ता है आदिमन है ! तम्प्रदाय कर द्वादश भावोंमें रहने वाले ग्रहोके सम्बन्धसे फलका प्रतिपादन किया है। इस ग्रन्थ में गोमूत्र, गोदुग्ध आदिका भी विधान आया है, पर यह लौकिक दृष्टिसे है । धर्मके साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं । यहाँ यह ध्यातव्य है कि दुर्गदेवने अद्भुतसागर, चरक, सुश्रुत, पुराण आदि ग्रन्थोंसे अनेक विषय ग्रहण कर ज्योंके त्यों निबद्ध कर दिये हैं । अत: इन लौकिक विषयोंका जैनधर्मसे कोई सम्बन्ध नहीं है ।
मरणकण्डिका
इस ग्रंथमें १४६ गाथाएँ हैं, जो 'रिष्टसमुच्चय' को १६२ गाथाओं से मिलती हैं। रिष्टसमुच्चय में १६३ से आगे और बढ़ाकर २६१ गाथाएँ कर दी गयी हैं । 'मरणकण्डिका' की भाषा शौरसेनी प्राकृत है। कुछ विद्वानोंका अनुमान है कि 'मरणकण्डिका' का निर्माण किसी अन्य व्यक्तिने किया है, दुर्गदेवाचार्यने इस ग्रंथका विस्तार कर 'रिष्टसमुच्चय' की रचना की है। पर मेरा मन है कि यह रचना भी दुर्गदेवकी है, यतः कोई ग्रन्थकार भावको तो ग्रहण कर सकता है पर अन्यके पद्योंको यथावत् नहीं ग्रहण करता। अतएव दुर्गदेवने पहले मरण कण्डिकाकी रचना की होगी, किन्तु बादको उसे संक्षिप्त जानकर उसीमें वृद्धिकर एक नवीन ग्रन्थ रच दिया होगा तथा पहले लिखे गये ग्रन्थको ज्योंकात्यों छोड़ दिया होगा ।
अकाण्ड
इसमें १४९ गाथाएँ और दस अध्याय हैं । इसकी रचना शौरसेनी प्राकृतमें है । यह तेजी - मन्दी ज्ञात करनेका अपूर्व ग्रन्थ है। ग्रह और नक्षत्रोंकी विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार खाद्य पदार्थ, सोना, चाँदी, लोहा, ताम्बा, हीरा, मोती, पशु एवं अन्य धन-धान्यादि पदार्थोंकी घटती-बढ़ती कीमतों का प्रतिपादन किया है, सुकाल और दुष्कालका 'कथन भी संक्षेपमें किया है। ज्योतिष चन्द्रके गणनानुसार वृष्टि, अतिवृष्टि और वृष्टि अभावका कथन आया है। साठ संवत्सरोंके फलाफल तथा किस संवत्सर में किस प्रकारकी वर्षा और धान्यकी उत्पत्ति होती है, इसका संक्षेपमें सुन्दर वर्णन आया है । ग्रन्थ छोटा होनेपर भी उपयोगी है । इसमें प्रत्येक वस्तुकी तेजी -मन्दी ग्रहोंकी चाल परसे निकाली गयी है । संहितासम्बन्धी कतिपय बातें भी इसमें संकलित है। ग्रहाचार प्रकरणमें गुरु और शुक्रकी गतिके अनुसार देश और समाजकी परिस्थितिका ज्ञान २०४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा