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नमस्कार ग्रन्थको १२००० श्लोकप्रमाण कहा है-"अन्यदपि द्वादशसहस्रप्रमितपंचनमस्कारग्रन्थकथितक्रमेण लघुसिद्धचक्रं बृहत्सिद्धचक्रमित्यादिदेवार्चनविधानं भेदाभेदरलत्रयाराधकगुरुप्रसादेन ज्ञात्वा ध्यातव्यम् ।" इसी प्रकार पंचपरमेष्ठिप्रन्थका कथन भी आया है | लिखा है-"तथैव विस्तरेण पंचपरमेष्ठिग्रन्थकथितक्रमेण, अतिविस्तारेण तु सिद्धचक्रादिदेवार्चनाविधिरूपमन्त्रवादसम्बन्धिपंचनमस्कारग्रन्थे चेति।" इस प्रकार बृहद्रव्यसंग्रहकी टीकामें अनेक ग्रन्थ और ग्रन्थकारोंका निर्देश आया है, जो इतिहासकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण हैं।
परमार्थप्रकाशवृत्ति-परमार्थप्रकाशकी यह टीका भी बृहद्रव्यसंग्रहकी टीकाके समान विस्तृत है। यह सत्य है कि इसमें द्रव्यसंग्रहकी टीकाके समान सैद्धान्तिक विषयोंका समावेश नहीं हो सका है । भावनात्मकग्रन्थ होनेके कारण टीकाकारने आत्मा, भक्ति, वीतरागता एवं सरागताका विस्तारपूर्वक कथन किया है । द्रव्यसंग्रहके समान इसमें भी शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थकी पद्धतिको अपनाया गया है। विषयोंके लिए शंका-समाधानपूर्वक प्रत्येक विषयका स्पष्टीकरण किया है। गाथा २०१७ के व्याख्यानमें बताया है कि निश्चयसम्यक्त्व वीतरागचारित्रका अविनाभावी है, पर निश्चयसम्यक्त्व तो गृहस्थाबस्थामें भी सम्भव है, पर वीतरागचारित्र वहाँ नहीं रहता है। अतः पूर्वापर विरोध आता है। इस विरोधका परिहार नयष्टि द्वारा किया गया है। इसी प्रकार शुद्धात्माका ध्यान करनेसे मोक्षकी प्रासि होती है, पर अन्यत्र यह भी बताया गया है कि द्रव्यपरमाणुभावमें परमाणुका ध्यान करनेसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है। इस शंकाका समाधान भी तात्विकदष्ट्रिसे किया है। टोकाके अन्तमें बताया है कि "इस ग्रन्थमें अधिकतर पदोंकी सन्धि नहीं की गयी है और सुखपूर्वक बोध कराने के लिए वाक्य भी पृथक-पृथक् रखे गये हैं। अतः विद्वानोंको इस ग्रन्थमें लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सन्धि, समास, विशेष्य, विशेषण, वाक्य, समाप्ति आदि सम्बन्धी दूषण नहीं देखना चाहिये।"
टोकाको व्याख्यानशैलीका निरूपण करते हुए स्वयं टीकाकारने लिखा है"एवं पदखण्डनारूपेण शब्दार्थः कथितः । नयविभागकथनरूपेण नयार्थो भणितः । बौद्धादिमतस्वरूपकथनप्रस्तावे मतार्थोऽपि निरूपितः, एवं गुणविशिष्टाः सिद्धा मुक्ताः सन्तीत्यागमार्थः प्रसिद्धः । अत्र नित्यनिरञ्जनज्ञानमयरूपं परमात्मद्रव्यमुपादेयमिति मावार्थः । अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावार्थो व्याख्यानकाले १. बृहद्र्व्यसंग्रह, प्रथम संस्करण, गाया ४९, पृ० २०८ । २. वही. गाथा ५४, पृ. २२२ ।
'प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ३१५