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________________ हैं । व्यवहारनय से कर्मोंके उदयसे प्राप्त द्रव्य तथा भावरूप चार प्राणोंसे अर्थात् इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास नामक प्राणसे जीता है, जोयेगा और पहले जीता था, वह जीव है। पुद्गल आदि पाँच द्रव्य अजीवरूप हैं । शुद्ध आत्मा से विलक्षण, स्पर्श, गन्ध, रस तथा वर्णका सद्भाव जिसमें पाया जाता है, वह मूर्तिक है । पुद्गल मूर्तिवाला होनेसे मूर्ति कहलाता है । जीवद्रव्य अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयसे मूर्त है किन्तु शुद्ध निश्चयको अपेक्षा अमूर्त है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य भी अमूर्तिक हैं । लोकाकाशके बराबर असंख्यात प्रदेशोंको धारण करनेसे जीवादि पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय नामसे कहे जाते हैं और बहुप्रदेशरूप कायत्व के न होनेसे कालद्रव्य अप्रदेश है | इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा द्रव्योंका विस्तारसे निरूपण किया है । द्रव्यों के इस विवेचनप्रसंग में शंका-समाfare भी प्रस्तुत किया गया है। बताया है कि यदि जीव-अजीव ये दोनों द्रव्य सर्वथा अपरिणामी ही हैं, तो संयोगपर्यायरूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है और यदि सर्वथा अपरिणामी हैं, तो जीव अजीब द्रव्यरूप दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं, आत्रवादि सात पदार्थ नहीं ? इस शंकाका उत्तर देते हुए बताया है कि कथंचित् परिणामी होनेसे सात पदार्थोंका कथन संगत होता है । जीव शुद्धद्रव्याथिकनयसे शुद्ध चिदानन्द स्वभावरूप है, पर अनादि कर्मबन्धरूप पर्यायके कारण राग आदि परद्रव्यजनित उपाधिपर्यायको ग्रहण करता है । यद्यपि जीव पर्यायरूपसे परिणमन करता है, तो भी निश्चयनयसे अपने शुद्ध रूप को नहीं छोड़ता है। इसी प्रकार अन्य द्रव्योंका भी कथन किया है । इस प्रकार टीकाकार ब्रह्मदेवने गाथाका शाब्दिक व्याख्यान ही नहीं किया, अपितु उसका विशेष विवेचन या व्याख्यान किया है। जैन आगमिक परम्परानुसार मति, श्रुत ज्ञानको परोक्ष कहा है, किन्तु ब्रह्मदेवने गाथा ५की टीकामें शंका-समाधानपूर्वक उन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है। इसी प्रकार गाथा ४४की व्याख्या में दर्शनका स्वरूप तर्कशास्त्र और सिद्धान्त ग्रन्थानुसार उपस्थित किया गया है । ब्रह्मदेवने इस स्वरूपका विवेचन धवला और जयधवला टीकाओंके आधारपर किया है। निश्चयतः ब्रह्मदेवने आगम और अध्यात्मके प्रकाशमें द्रव्यसंग्रहको टीका लिखी हैं। इस टीकामें उद्धरणपद्योंकी बहुलता है । समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमार्थप्रकाश, योगसार, मूलाचार, भगवती अराधना, इष्टोपदेश, यशस्तिलक, आप्तस्वरूप, त्रिलोकसार और तत्त्वानुशासन के उद्धरण उपलब्ध होते हैं । गाथा ४९ में पंचनमस्कारग्रन्थ, लघुसिद्धचक्र ओर बृहदसिद्धचक्रका कथन आया है। पंच ३१४ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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