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________________ जो असंख्यात द्वीप, समुद्र स्थित हैं, उनमें केवल संजी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त तियंञ्च जीव हो उत्पन्न होते हैं । इनकी आयु एक पल्य और शरीरकी ऊंचाई दो हजार धनुषप्रमाण होती है। युगलस्वरूपसे उत्पन्न होनेवाले ये सब मन्दकषायी और फलभोजी होते हैं तथा मरकर नियमत: देवलोक जाते हैं। लवणोद, कालोद और स्वम्भरमण इन तीन समुद्रोंमें ही मगर, मत्स्यादि जलचर जीव पाये जाते है। शेष समुद्रोंमें जलचर जीव नहीं होते । आगे सात नरकों और उनके निवासियोंकी आयु शरीरोत्षेध, अवधिज्ञानका विषय आदि बातोंका वर्णन आया है। समस्त नारकियोंके बिलोंकी संख्या एवं ४१. प्रस्तारोंका उल्लेख पाया जाता है। उर्ध्वलोकका वर्णन करते हुए बतलाया है कि पृथ्वीतलसे ९९ हजार योजन ऊपर जाकर मेरुपर्वतकी चूलिकाके ऊपर बालाग्रमात्रके अन्तरसे ऋजु विमान स्थित है। इसका विस्तार मनुष्यलोकके समान ४५ लाख योजनमात्र है। स्वर्गोमें इन्द्रक, प्रकीर्णक और श्रेणीबद्ध विमान स्थित हैं, जिनका विस्तारादि भी निकाला गया है। इस प्रकार सौधर्म इन्द्रकी विभूति एवं सोधर्मस्वर्गके आकार-प्रकारादिका विवेचना किया है । इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और नीर्णक विदाकी संया लागलन भी किया गया है। द्वादश उद्देशमें ११३ गाथाएं हैं। यहाँ ज्योतिषपटलका वर्णन किया गया है । भूमिसे आठसौ अस्सी योजनकी ऊंचाईपर चन्द्रमाका विमान है। चन्द्रविमानका विस्तार और आयाम तीन गव्यति और तेरहसो धनुषसे कुछ अधिक है। इन विमानोंको प्रतिदिन सोलह हजार आभियोग्य जातिके देव खीचते हैं। उक्त देव पूर्वादिक दिशाओं में क्रमशः सिंह, मज, वृषभ और अश्वके आकारमें चार-चार हजार रहते हैं। इसी प्रकार सोलह हजार आभियोग्यदेव सूर्यविमानके, आठ हजार ग्रहगणोंके, चार हजार नक्षत्रोंके और दो हजार ताराओंके वाहक हैं। जम्बूद्वीपमें २, लवणसमुद्र में ४, घातकोखण्डमें १२, कालोदधिमें ४२, और पुष्कराचंद्वीपमें ७२ चन्द्र हैं। मानुषोत्तरपर्वतके आगे पुष्करद्वीपमें १२६४ चन्द्र हैं। इतने ही सूर्य हैं। शेष द्वीपों और समद्रोंमें चन्द्रबिम्ब और सूर्यबिम्बोंकी संख्या निकालनेके लिए कर्णसूत्र दिये गये हैं। इस प्रकार ज्योतिषपटलअधिकारमें सूर्य, चन्द्र और ग्रह-नक्षत्रोंकी संख्याका आनयन किया है। त्रयोदश उद्देशमें १७६ गाथाएँ हैं। सर्वप्रथम यहाँ कालके व्यवहार और परमार्थ रूपसे उल्लेख करते समय, आवलि आदिके प्रमाणका आनयन किया है । आगे चलकर परमाणुका स्वरूप बतलाते हुए उत्तरोत्तर अष्टगुणित अवसनासन्नादिके क्रमसे उत्पन्न होनेवाले अंगुलके उत्सेषांगुल, प्रमाणाङ्गल बौर आत्माअल ये तीन भेद बतलाये हैं। इनमेंसे प्रत्येक सूच्यङ्गल, प्रतराङ्गल और घनाङ्गलके मेदसे तीन-तीन प्रकारका है। ५०० उत्सेधाङ्गलोंका एक प्रमाणाङ्गुल होता १२० : तोयंकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा
SR No.090509
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages466
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size10 MB
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